पहले आर के धवन फिर वंसत साठे। दोनों इंदिरा गांधी के सिपहसलार। दोनो के लिये काग्रेस का मतलब गांधी परिवार। और दोनों ने ऐसे वकत काग्रेस को निशाने पर लिया जब काग्रेस सात बरस के सत्ता सुकून के जश्न में डूबी । दोनों ने ऐसे वक्त गांधी परिवार की सियासी बिसात पर अंगुली उठायी जब राहुल गांधी कांग्रेंसी सत्ता के लिये बड़ी लकीर खिंचने में लगे हैं और सोनिया गांधी खिंची लकीर को मोटी बनाने में। तो क्या काग्रेस के लिये सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है या फिर इंदिरा के दौर के बुजुर्ग नेताओ को अहमियत नहीं मिलती, इसलिये वह सियासी टोंटका कर रहे हैं। या फिर इंदिरा के तौर तरीको की तर्ज पर सत्तर के दशक के काग्रेसी सोनिया-राहुल को भी चलते हुये देखना चाहते हैं। माना कुछ भी जा सकता है , लेकिन इन दो नेताओ के बहुत सारे सवालो में दो सवाल किसी को भी खटक सकते हैं। सही लग सकते हैं। सियासी बिसात बदलने के लिये प्रेरित कर सकते है।
पहला राहुल गांधी की राजनीतिक चालें और उन्हे घेरे नेताओ की जरुरतें। दूसरा , गैर कांग्रेसी राज्यो में काग्रेस का घटता कद। जाहिर है देश की सियासी बिसात पर अगर यह दोनो चाल कांग्रेस के अनुकूल हो जाये तो कांग्रेस एकला चलो का राग अलापते हुये अपने बूते केन्द्र की सत्ता में भी आ सकती है और गठबंधन तले जिन समझौतों की बात कहकर भ्रष्टाचार पर से मनमोहन सिंह आखं मूंद लेते हैं , उसकी जरुरत भी ना पड़े। उत्तर प्रदेश कांग्रेस की दुखती रग है। और उत्तर प्रदेश के एक छोर दिल्ली से सटे ग्रेटर नोयडा के भट्टा-परसौल गांव के किसानों का सवाल उठाते हुये उत्तर प्रदेश के दूसरे छोर बनारस में काग्रेस के प्रदेश अधिवेशन में जिस तरह राहुल गांधी ने मायावती की सत्ता पर अंगुली उठायी उससे यह तो जरुर लगा कि राहुल गांधी संघर्ष करना जानते हैं। लेकिन इस संघर्ष ने एक दूसरा सवाल खड़ा किया कि क्या कांग्रेस में सत्ता भी गांधी परिवार को संभालनी है और सड़क पर संघर्ष भी गांधी परिवार को करना है। तो फिर कांग्रेस के लिये संघर्ष करने वाले नेता है कहां। क्या 1989 में राजीव गांधी के सत्ता गंवाने के बाद गांधी परिवार का भविष्य यही है कि वह कांग्रेस के लिये संघर्ष करें और सत्ता बिना आधार वाले नेता संभाले।
चूंकि कांग्रेस सबसे बड़ी जरुरत गांधी परिवार की है। उसके आसित्तव की है , तो सत्ता संभालने वाले कांग्रेसी अपने आप को सिर्फ अपने लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र में ही सीमित कर लें। और चुनाव जीतना भर ही उनका मंत्र रहे । यानी गांधी परिवार का औरा संघर्ष में खपे और सत्ता संभालते हुये कांग्रेस की पहचान भी गाधी परिवार के संघर्ष में ही खप जायें। दरअसल यूपीए-2 के दो साल पूरे होने के बाद जो सवाल कांग्रेस के सामने है या कहें मनमोहन सरकार के सामने है अगर दोनो में तारतम्य देखा जाये तो मनमोहन सिंह हो या काग्रेस संगठन दोनों इस दौर में मुश्किल में हैं और दोनों का संभालने की जिम्मेदारी गांधी परिवार की है। लेकिन सरकार गांधी परिवार के हाथ में सीधे नहीं है और संगठन बनाने में राहुल गांधी के युवा भत्ती अभियान छोड दें तो संगठन को व्यापक बनाने के लिये कुछ हो भी नहीं रहा है।
यही से अब के दौर की वह राजनीतिक परिस्थितियां खड़ी होती है जो किसी भी कांग्रेसी को परेशान करेंगी कि आने वाले दौर में कांग्रेस का हाथ कितना खाली हो जायेगा। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के संघर्ष के बावजूद कांग्रेसी संगठन चरमराया हुआ है। राहुल कितना भी हाथ-पैर मार लें कांग्रेस का नंबर मायावती-मुलायम के बाद ही आयेगा । और इसकी सबसे बड़ी वजह वोटरों के साथ कांग्रेस का जुड़ाव होना नहीं है। राहुल गांधी को तो भट्टा-परसौल या बनारस गये बगैर भी उत्तर-प्रदेश के वोटरो से जुडने में कोई मुश्किल नहीं आयेगी। लेकिन राहुल उत्तर-प्रदेश की गद्दी संभालेंगे नहीं और उत्तर प्रदेश की गद्दी संभालने वाला कोई कांग्रेसी निकलेगा नहीं , जिसकी कनेक्टीविटी आम वोटर से कांग्रेस के नाम पर हो। यानी वोटरों से जुड़ाव के लिये जाति, धर्म , जरुरत या मजबूरी , जो भी होनी चाहिये वह कांग्रेस के पास नहीं है। और कांग्रेस गांधी परिवार के जरीये इन मुद्दों से इतर जो लोभ उत्तरप्रदेश की जनता को देती है वह केन्द्र की सत्ता से मिलने वाली सुविधा की पोटली या पैकेज है। यानी सौदेबाजी का लोभ भी कांग्रेस का हथियार बन जायेगा और इसे लागू कराने में गांधी परिवार से लेकर सरकार तक भिड़ जायेगी , यह किसने सोचा होगा।
सवाल किसानों को केन्द्र का मुआवजा देने या बुदेलखंड या पूर्वोत्तर के लिय पैकेज का ऐलान कर गांधी परिवार की महत्ता को बताना केन्द्र सरकार की जरुरत भर का नहीं है। सवाल है जिस दौर में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और पर्दे के पीछे से कांग्रेस के सिमटते आधार को देखती प्रियंका गांधी के एक ही वक्त में कांग्रेस के पास होने के बावजूद क्षेत्रीय दलों के बढ़ते आधार और उनमें से निकलते नेताओ के कद अगर कांग्रेस को चुनौती देने लगे है तो फिर आने वाला वक्त काग्रेस के लिये अचछा नहीं है , यह तो कोई भी कह सकता है। मसलन बिहार में नीतीश कुमार, यूपी में मांयावती, छत्तीसगढ में रमन सिंह, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, उड़ीसा में नवीन पटनायक, गुजरात में नरेन्द्र मोदी , तमिलनाहु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में उभरते जगन रेड्डी। यह ऐसे चेहरे हैं जो अपने बूते पार्टी को सत्ता में लाते है और सत्ता की मलाई राज्य में इनके संगठन को खुद-ब-खुद मजबूत कर देती है । और इनके खिलाफ कांग्रेस का ना कोई चेहरा है ना ही संगठन। जबकि काग्रेस शासित राज्यो में कौन सा मुख्यमंत्री अपना चेहरा लिये यह यकीन से कह सकता है कि उसके भरोसे कांग्रेस अगली बार भी जीत सकती है । या संगठन इतना मजबूत है कि गांधी परिवार फ्रक्र करें कि सोनिया-रहुल की सभाओं भर से सत्ता काग्रेस के हाथ में आ सकती है। वहीं आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री तो दिल्ली के भरोसे है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी दिल्ली से मुंबई पहुंचे है। केरल के मुख्यमंत्री के पीछे भी दिल्ली की सियासत ही खड़ी है। सिर्फ असम में तरुण गगोई ही ऐसे हैं, जो अपने काम के भरोसे अपना अलग चेहरा बना पाये हैं। असल में काग्रेस के भीतर की इस कश्मकश को भी समझना जरुरी है कि गांधी परिवार को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मान कर केन्द्र में रखने के बदले अब जिले से लेकर दिल्ली तक और भ्र्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर भूख मिटाने की जरुरत के लिये लाने वाले खादान्न बिल के अक्स में भी गांधी परिवार को ही क्यों जोड़ा जा रहा है। लोकपाल विधेयक हो या भूमि अधिग्रहण या फिर खाधान्न विधेयक लेकर आयेगे। यह सरकार लागू करें तो भी फायदा कांग्रेस को होगा। लेकिन कांग्रेस इसे लागू करवाती दिखे और सरकार इसे आर्थव्यवस्था के लिये सही ना मानते हुये कांग्रेस संगठन या राजनीतिक जरुरत तले जरुरी मान कर अपनी सहमति दे तो लाभ किसी को नहीं मिलेगा।
दरअसल जन-नीतियों को लेकर बाजार अर्थवयवस्था का यह टकराव ऐसे दौर में खुल कर नजर आ रहा है, जब जनता के मुद्दों को सोनिया-राहुल गांधी संभाले हुये हैं और बाजार अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह। और दोनों ही कांग्रेसी हैं। जाहिर है तत्काल के लिये तो यह लग सकता है कि सत्ता-विपक्ष दोनों की भूमिका में कांग्रेसी हैं। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटकर एनडीए के दौर में वाजपेयी सरकार और संघ परिवार के टकराव को याद कीजिये। इसी तरीके से उस दौर में भी जो मुद्दे संघ परिवार उठा रहा था उससे वाजपेयी सरकार कन्नी काट रहे थे। और आखिर में संघ परिवार और उसी धारा के समर्थको ने वाजपेयी सरकार को बाहर का रास्ता दिखा दिया। यूपीए में यह मामला उलट है। कांग्रेस या कहें सोनिया-राहुल की राजनीतिक पहल के पीछे मनमोहन सरकार को चलना पड़ता है। मगर एक वक्त के बाद लगता भी यही है कि सरकार मुश्किले पैदा करती है और कांग्रेस उस पर मरहम लगाती दिखती है। भूमि-अधिग्रहण पर विधेयक अभी तक नहीं आया है तो यह सरकार की असफलता है। लेकिन भूमि-अधिग्रहण पर अगले संसद सत्र में विधेयक लाया जायेगा यह कांग्रेस के लिये कितना फायदेमंद होगा, यह देखना-समझना इसलिये दिलचस्प है क्योंकि इन्ही मुद्दो को राहुल गांधी ने उठाया और अचानक कांग्रेस के नेताओं को लगने लगा कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के 21 बरस पुराने दिन फिर सकते हैं। लेकिन जो चिंता पुराने कांग्रेसी कर रहे है वह इसलिये जरुरी है क्योंकि कांग्रेस के पास गांधी परिवार के अलावा और कुछ है नहीं। और गांधी परिवार की महत्ता कांग्रेस के सत्ता में रहने के अलावे कुछ है नहीं। लेकिन इन दोनों के बीच जो कांग्रेसी सत्ता से सटकर या गांधी परिवार के करीबी होकर कांग्रेस का बंटाधार कर रहे हैं, उससे संगठन,पार्टी, सत्ता सबकुछ की चमक या मटमैली स्थिति भी गांधी परिवार के नाम ही जा रही है। और सात बरस की यूपीए सत्ता के बाद भी गांधी परिवार को ही यह सोचना है कि आखिर काग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होकर भी क्षेत्रिय दलो के आगे नतमस्तक क्यों है और हर मुद्दे को संभालने सोनिया या राहुल को क्यों निकलना पड़ता है।
Friday, May 27, 2011
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सत्ता-संगठन के आरपार गांधी परिवार |
Sunday, May 22, 2011
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नक्सलबाड़ी से जंगलमंहल तक |
'अमार बाडी नक्सलबाड़ी' यह नारा 1967 में लगा तो सत्ता में सीपीएम के आने का रास्ता खुला। और पहली बार 2007 में जब 'अमार बाडी नंदीग्राम' का नारा लगा, तो सत्ता में ममता बनर्जी के आने का रास्ता खुला। 1967 के विधानसभा में पहली बार कांग्रेस हारी और पहली बार मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन भी हारे। वहीं 2011 में पहली बार सीपीएम हारी और पहली बार सीपीएम के मुख्यमंत्री बुद्ददेव भट्टाचार्य भी हारे। बुद्ददेव को उनके दौर में मुख्यसचिव रहे मनीष गु्प्ता ने ठीक उसी तरह हराया जैसे 1967 में कांग्रेसी सीएम प्रफुल्ल सेन को उनके अपने मंत्री अजय मुखर्जी ने हराया था। ममता के मंत्रीमंडल के अनमोल हीरे मनीष गुप्ता हैं और 1967 में तो अजय मुखर्जी ही संयुक्त मोर्चे की अगुवाई करते हुये मुख्यमंत्री बने। 1967 में नक्सलबाड़ी से निकले वाम आंदोलन ने उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा किया जिसकी आवाज नक्सलवादी लगा रहे थे। किसान, मजदूर और जमीन का सवाल लेकर नक्सलबाड़ी ने जो आग पकडी उसकी हद में कांग्रेस की सियसत भी आयी और वाम दलों का संघर्ष भी। और उस वक्त कांग्रेस ने वामपंथियो पर सीधा निशाना यह कहकर साधा कि संविधान के खिलाफ नक्सवादियों की पहल का साथ वामपंथी दे रहे हैं। और संयोग देखिये 2007 में जब नंदीग्राम में कैमिकल हब के विरोध में माओवादियों की अगुवाई में जब किसान अपनी जमीन के लिये, मजदूर-आदिवासी अपनी रोजी-रोटी के सवाल को लेकर खडा हुआ तो इसकी आग में वामपंथी सत्ता भी आयी। और ममता बनर्जी ने भी ठीक उसी तर्ज पर माओवादियों के मुद्दो को हाथों-हाथ लपका जैसे 1967 में सीपीएम ने नक्सलवादियों के मुद्दों को लपका था। यानी इन 44 बरस में बंगाल में सत्ता परिवर्तन के दौर को परखें तो वाकई यह सवाल बडा हो जाता है कि जिस संगठन को संसदीय चुनाव पर भरोसा नहीं है उसकी राजनीतिक कवायद को जिस राजनीतिक दल ने अपनाया उसे सत्ता मिली और जिसने विरोध किया उसकी सत्ता चली गयी।
1967 के बंगाल चुनाव में पहली बार सीपीएम ने ही भूमि-सुधार से लेकर किसान मजदूर के वही सवाल उठाये जो उस वक्त नक्सलबाड़ी एवं कृषक संग्राम सहायक कमेटी ने उठाये थे। 2007 में नंदीग्राम में कैमिकल हब की हद में किसानों की जमीन आयी तो माओवादियों ने ही सबसे पहले जमीन अधिग्रहण को किसान-मजदूर विरोधी करार दिया। और यही सुर ममता ने पकड़ा। 1967 से लेकर 1977 के दौर में जब तक सीपीएम की अगुवाई में पूर्ण बहुमत वाममोर्चा को नहीं मिला तब तक राजनीतिक हिंसा में पांच हजार से ज्यादा हत्यायें हुईं। जिसमें तीन हजार से ज्यादा नक्सलवादी तो डेढ़ हजार से ज्यादा वामपंथी कैडर मारे गये। सैकड़ों छात्र जो मार्क्स-लेनिन की थ्योरी में विकल्प का सपना संजोये किसान मजदूरों के हक का सवाल खड़ा कर रहे थे, वह भी राज्य हिंसा के शिकार हुये। दस हजार से ज्यादा को जेल में ठूंस दिया गया। और इसी कड़ी ने काग्रेसियों को पूरी तरह 1977 में सत्ता से ऐसा उखाड फेंका कि बीते तीन दशक से बंगाल में आज भी कोई बंगाली कांग्रेस के हाथ सत्ता देने को तैयार नहीं है। इसीलिये राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये कांग्रेस ने 1967 के दाग को मिटाने के लिये उसी ममता के पीछे खडा होना सही माना जिसने 1997 में काग्रेस को सीपीएम की बी टीम से लेकर चमचा तक कहते हुये कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में बगावत कर अपनी नयी पार्टी तृणमूल बनाने का ऐलान किया था।
लेकिन ममता के लिये 2011 के चुनाव परिणाम सिर्फ माओवादियों के साथ खडे होकर मुद्दों की लडाई लड़ना भर नहीं है। बल्कि 1971-1972 में जो तांडव कांग्रेसी सिद्वार्थ शंकर रे नकसलबाड़ी के नाम पर कोलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज तक में कर रहे थे, कुछ ऐसी ही कार्रवाई 2007 से 2011 के दौर में बुद्ददेव भट्टाचार्य के जरिये जंगल महल के नाम पर कोलकत्ता तक में नजर आयी। इसी का परिणाम हुआ कि मई 2007 में नंदीग्राम में जब 14 किसान पुलिस फायरिंग में मारे गये, उसके बाद से 13 मई 2011 तक यानी ममता बनर्जी के जीतने और वाममोर्चा की करारी हार से पहले राजनीतिक हिंसा में एक हजार से ज्यादा मौतें हुईं। करीब सात सौ को जेल में ठूंसा गया। आंकड़ों के लिहाज से अगर इस दौर में दलों और संगठनों के दावों को देखें तो माओवादियों के साढ़े पांच सौ कार्यकर्त्ता मारे गये। तृणमूल कांग्रेस के 358 कार्यकर्त्ता मारे गये। सौ से ज्यादा आम ग्रामीण-आदिवासी मारे गये। सिर्फ जंगल महल के सात सौ से ज्यादा ग्रामीणों को जेल में ठूंस दिया गया। तो क्या जिन परिस्थितियों के खिलाफ साठ और सत्तर के दशक में वामपंथियो ने लड़ाई लड़ी, जिन मुद्दों के आसरे उस दौर में कांग्रेस की सत्ता को चुनौती दी, उन्हीं परिस्थितियों और उन्हीं मुद्दों को 44 बरस बाद वामपंथियो ने सत्ता संभालते हुये पैदा कर दिया।
जाहिर है ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि सत्ता संभालने के बाद ममता बनर्जी नहीं भटकेंगी इसकी क्या गांरटी है। जबकि ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद जो पहला निर्णय लिया था वह नक्सलवादियों के संघर्ष के मूल मुद्दे से ही उपजा था। 21 जून 1977 को ज्योति बसु ने सीएम पद की शपथ ली और 29 सितबंर 1977 को वेस्ट बंगाल लैण्ड [ अमेन्डमेंट बिल ] विधानसभा में पारित करा दिया। और दो साल बाद 30 अगस्त 1979 में चार संशोधन के साथ दि वेस्ट बंगाल लैण्ड [फार्म होल्डिंग] होल्डिंग रेवेन्यू बिल-1979 विधानसभा में पारित करवाने के बाद कहा, "अब हम पूर्ण रुप से सामंती राजस्व व्यवस्था से बाहर आ गये। " और इसके एक साल बाद 27 मई 1980 को ट्रेड यूनियनो से छिने गये सभी अधिकार वापस देने का बिल भी पास किया। इसी बीच 10वीं तक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थय सेवा भी ज्योति बसु ने दिलायी। यानी ध्यान दें तो सीपीएम पहले पांच बरस में नक्सलबाड़ी से उपजे मुद्दों के अमलीकरण में ही लगी रही। और जनता से उसे ताकत भी जनवादी मुद्दों की दिशा में बढते कदम के साथ मिली। लेकिन जैसे-जैसे चुनावी प्रक्रिया में सत्ता के लिये वामपंथियों ने अपनी लड़ाई पंचायत से लेकर लोकसभा तक के लिये फैलायी और चुनाव के केन्द्र में सत्ता ना गंवाने की सोच शुरु हुई वैसे-वैसे सीपीएम के भीतर ही कैडर में प्रभावी ताकतों का मतलब वोट बटोरने वाले औजार हो गये। और यहीं से राजनीति जनता से हटकर सत्ता के लिये घुमड़ने लगी।
जाहिर है ममता ने भी चुनाव जनता को जोर पर 'मां,माटी और मानुष' के नारे तले जीता है। और सत्ता उसे जनता ने दी है। इसलिये ममता के सत्ता संभालने के बाद बिल्कुल ज्योति बसु की तर्ज पर बंगाल में कुछ निर्णय पारदर्शी होंगे। राज्य की बंजर जमीन पर इन्फ्रस्ट्रचर शुरू कर औद्योगिक विकास का रास्ता खुलेगा। छोटे-किसान, मजदूर और आदिवासियों के लिये रोजगार और रोजगार की व्यवस्था होने से पहले रोजी-रोटी की व्यवस्था ममता अपने हाथ में लेगा। बीपीएल की नयी सूची बनाने और राशन कार्ड बांटने के लिये एक खास विभाग बनाकर काम तुरंत शुरू करने की दिशा में नीति फैसला होगा। जमीन अधिग्रहण की एवज में सिर्फ मुआवजे की थ्योरी को खारिज कर औद्योगिक विकास में किसानो की भागेदारी शुरू होगी। यानी कह सकते हैं कि माओवादियों के उठाये मुद्दे राज्य नीति का हिस्सा बनेंगे। लेकिन, यहीं से ममता की असल परीक्षा भी शुरू होगी। जैसे कभी वामपंथियों की हुई थी और बुद्ददेव उसमें फेल हो गये। ममता के सामने चुनौती माओवादियों को मुख्यधारा में लाने की भी होगी और अभी तक सत्ताधारी रहे वाम कैडर को कानून-व्यवस्था के दायरे में बांधने की भी।
ज्योति बसु ने नक्सलवादियों को ठिकाने अपने कैडर और पुलिसिया कार्रवाई से लगाया। और उस वक्त सत्ता राइट से लेफ्ट में आयी थी। लेकिन ममता का सच अलग है। यहां लेफ्ट के राइट में बदलने को ही बंगाल बर्दाश्त नहीं कर पाया। राइट से निकली ममता कहीं ज्यादा लेफ्ट हो गयीं। इसलिये बंगाल पुलिस के पास भी वह नैतिक साहस नहीं है जिसमें वह माओवादियों को खत्म कर सके। क्योंकि बंगाल पुलिस का लालन-पोषण बीते दौर में उन्हीं वामपंथियो ने किया जिसका कैडर वाम फिलॉसिफी को जमीन में गाढ़कर सत्ता में प्रभावी बना। लेकिन यहीं से कांग्रेस की नीतियों का सवाल शुरू होता है जो ममता के आईने में कैसा दिखायी देगा इसका इंतजार हर कोई कर रहा है। क्योंकि एक तरफ वामपंथियों की हार के बाद मनमोहन सरकार के लिये वह राहत का सबब है जो उसकी आर्थिक नीतियों को रोक लगाने के लिये सामने खडी हो जाती थी। वहीं दूसरी तरफ माओवादियों का सवाल है जिसे मनमोहन सिंह देश के लिये सबसे बडा दुश्मन मानते हैं और गृह मंत्री पी. चिदबरंम आंतरिक संकट की सबसे बड़ी जड़। और दूसरी तरफ ममता बनर्जी केन्द्र सरकार की इसी सोच पर सवालिया निशान लगाती है। इसलिये देखना यह भी होगा कि जंगल महल में केन्द्र और बंगाल के सुरक्षाकर्मी अभी भी माओवादियों के खिलाफ संयुक्त आपरेशन चला रहे हैं क्या वह बंद हो जायेगा। क्योंकि इस कार्रवाई को शुरू करते वक्त केन्द्र सरकार ने माओवादियों के खिलाफ इसे एक बडी कार्रवाई की जरूरत बताया था। और उसी वक्त ममता बनर्जी ने इस कार्रवाई को सीपीएम की राजनीतिक कार्रवाई करार देते हुये कहा था कि जो तृणमूल कांग्रेस का कैडर है और जो जंगल महल के आम ग्रामीण-आदिवासी है उन्हें ही निशाना बनाकर माओवादी करार दिया दिया जा रहा है। असल में ज्योति बसु के सामने भी सत्ता संभालने के बाद यही सवाल नक्सलबाडी को लेकर उभरा था। और तब ज्योति बसु ने नक्सलवादियों के मुद्दों को जरूर अपनाया, लेकिन पुलिस कार्रवाई भी समूचे नक्सबाड़ी में शुरू करवा दी।
जाहिर है सीपीएम का हश्र तो ममता ने देख लिया इसलिये ममता ज्योति बसु के रास्ते पर चलेगी यह संभव नहीं है। फिर एक अंतर नक्सलबाड़ी और जंगलमहल को लेकर यह भी है कि नक्सलबाड़ी के दौर में किसान-मजदूरों का सवाल नीतिगत तौर पर खड़ा हुआ था जो समूचे देश में इस सवाल पर आग लगा रहा था और अतिवाम देश के कई हिस्सा में लगातार बढ़ रहा था। यानी सत्तर के दशक में सवाल नक्सलबाड़ी के विकास का नहीं था बल्कि देशभर में नक्सलियों के उठाये जा रहे सवालों का था। लेकिन ममता बनर्जी के सामने सवाल जंगलमहल के विकास का है। और जंगलमहल से निकले सवाल सिर्फ बंगाल को प्रभावित कर रहे हैं। वह ना तो झारखंड की सियासत को डिगा रहे हैं और ना ही छत्तीसगढ़ में कोई सियासी हलचल पैदा कर रहे हैं। और तेलांगना में भी प्रभावहीन होते जा रहे हैं। ऐसे में ममता का लोकप्रिय नारा विकास के नाम पर यह तो हो सकता है कि टाटा पहले जंगलमहल जाये फिर सिंगूर की तरफ देखे। लेकिन दूसरी परिस्थिति यह भी है जंगलमहल के विकास के लिये आखिरकार ममता को उसी केन्द्र सरकार से मदद का विशेष आर्थिक पैकेज भी चाहिये जिसकी नीतियों ने देश में बुंदेलखंड से लेकर विदर्भ तक को बंजर बनाकर रखा है। जबकि नक्सबाड़ी के बाद ज्योति बसु ने केन्द्र सरकार से भी दो-दो हाथ किये थे और नक्सलियों के न्यूनतम जरुरत के मुद्दों को लागू कराना शुरू किया। वहीं ममता को इस के दौर में सरकार से हाथ मिला कर माओवादियों के सवाल ही नहीं, बल्कि माओवादी प्रभावित जंगलमहल को भी मुख्यधारा से जोड़ना है। और बंगाल ही नहीं समूचे देश की नजर इसी पर है कि जिस बंगाल के मिजाज में अतिवाम के तौर तरीके हैं उस बंगाल में अतिवाम को साथ लेकर ममता कौन सा खेल करेंगी जिससे अतिवाम भी बदल जाये और बंगाल भी ।
Saturday, May 14, 2011
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युद्द नहीं नेतृत्व की जरुरत |
दुनिया के नक्शे पर पाकिस्तान की हैसियत चाहे सुई भर हो लेकिन पाकिस्तान का मतलब दुनिया के दो सबसे ताकतवर देशों अमेरिका और चीन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति की जमीन का होना है। वहीं समूचे अरब वर्ल्ड के लिये पाकिस्तान का मतलब एक ऐसा शक्तिशाली इस्लामिक राष्ट्र का होना है जो परमाणु हथियारों से लैस है। और आर्थिक तौर पर ताकतवर बनते भारत के लिये पाकिस्तान का मतलब आतंक को पनाह देने वाला पड़ोसी है। जाहिर है अपनी इसी महत्ता के आसरे पाकिस्तान ने समूची दुनिया से अपनी शर्तों पर ही हमेशा सौदेबाजी की है। क्योंकि उसकी अपनी जरूरत दूसरों की जरूरत बने रहने पर ही टिकी रही है। ऐसे में पहली बार अमेरिका के लादेन आपरेशन से झटका खाये पाकिस्तानी सत्ता का संकट उसके अपने नागरिकों का भरोसा डिगना है तो अरब वर्ल्ड में मिली मान्यता के डगमगाने का भी संकट खडा हुआ है। जबकि पाकिस्तान की पीठ को थपथपाते रहने वाले शक्तिशाली चीन के लिये यह बडा सवाल खडा हुआ है कि उसके चहेते पाकिस्तान को अमेरिका झटका देकर चला गया और चीन की वह समूची तकनीकी ताकत भी कोई पहल नहीं कर सकी जिसके आसरे पाकिस्तान हमेशा खुद को मजबूत मानता रहा है ।
सही मायने में 1971 के बाद पहली बार पाकिस्तान के सामने ऐसी स्थिति आयी है जहां उसे भविष्य की ऐसी लकीर खींचनी है जिससे उसका रुतबा लौटे। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को गंवाने के बाद पाकिस्तान अर्से तक अपने देश के सवालो में ही उलझा था। कमोवेश यही स्थिति इस बार भी है। क्योंकि उस वक्त पूर्वी पाकिस्तान को ना संभाल पाने का दर्द पाकिस्तानी सत्ता को सालता रहा तो इस बार अपनी ही जमीन पर खुद की मात का दर्द पाकिस्तानी सत्ता को है । और सत्ता को निशाने पर लेने के लिये पाकिस्तान के नागरिक सवाल कर रहे है। यानी पाकिस्तान की सत्ता गिलानी-जरदारी के पास है या फिर कियानी-पाशा के पास यानी सेना-आईएसआई के पास। यह अंतर्विरोध भी खुलकर उभरा है। और पाकिस्तान पहले इसी बिखरी सत्ता को एकछतरी तले लाना चाहेगा । और इसके लिये एक दुश्मन चाहिये तो भारत से बेहतर टारगेट कोई दूसरा हो नहीं सकता। खासकर कश्मीर मसले के चलते। इसके पहले संकेत सेना-प्रमुख कियानी ने रावलपिंडी से दिये तो विदेश सचिव सलमान बशीर ने इस्लामबाद से और पाकिस्तानी सेना ने जम्मू सीमा पर। 5 मई को तीनो परिस्थितियों ने साफ जतलाया कि इस बार अपनी ताकत और सौदेबाजी को दोबारा पाने के लिये पाकिस्तान के निशाने पर भारत होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि भारत पर निशाना साध कर पाकिस्तानी सरकार ना सिर्फ अमेरिका को भारत के दबाव में लाकर अपनी सौदेबाजी को दुबारा बातचीत की टेबल पर ला सकती है बल्कि पाकिस्तानी नागरिकों को भी राष्ट्रवाद के नाम पर भारत के खिलाफ एकजूट करते हुये अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है। इसकी पहल पाकिस्तान के विदेश सचिव या पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष कियानी के कड़े तेवरों के बीच बीते गुरुवार को लाइन ऑफ कन्ट्रोल से सटे मेंढर की तीन चौकियां क्राति, नंगीटोकरी और रावी पर पाकिस्तान की गोलीबारी से भी समझा जा सकता है।
इस साल पहली बार सीजफायर तोडते हुये जिस तरह फायरिंग हुई उसने यह सवाल जरूर खड़ा कर दिया कि क्या कश्मीर एक बार फिर पाकिस्तानी सत्ता के निशाने पर आयेगा। दरअसल मेंढर वह जगह है जहां से पीओके शुरू होता है या कहें 22 बरस पहले 1989 में जब आतंकवाद की शुरुआत रुबिया सईद के अपहरण के वक्त से शुरु हुई तो मेढर से परिवार के परिवार पीओके चले गये। और पीओके में अब भी पाकिस्तान कश्मीर के आसरे यह सपना जिलाये हुये कि कश्मीर उसका है। जाहिर है पाकिस्तानियों के भीतर भी कश्मीर ही एक ऐसा मुद्दा है जिस पर किसी भी तरह की कार्रावाई अगर पाकिस्तानी सत्ता करती है तो पाकिस्तान एकजुट हो जाता है। ऐसे में भारत के सामने पाकिस्तान के संबंध या कहें कश्मीर को लेकर जारी डिप्लामेसी के बीच कई सवाल नयी परिस्थितियों में खडे हो सकते हैं।
क्या आने वाले वक्त में पाकिस्तानी सेना एलओसी को लांघेगी। क्या बर्फ पिघलने के साथ ही करगिल के दौर की तरह सीमापार से आतंकवादियो की कश्मीर में घुसपैठ बढेगी। क्या कश्मीरी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के जरिये कश्मीरियों को फिर बरगलाने का खेल शुरू होगा। क्या कश्मीर के नाम पर भारत के साथ सौदेबाजी का दायरा बातचीत की मेज पर लाया जायेगा। क्या चीन का दखल भी कश्मीर में बढेगा। यह सारे सवाल फिलहाल पाकिस्तान के हक में इसलिये भी हैं क्योंकि लादेन आपरेशन में मुंह की खाये पाकिस्तानी सत्ता के सामने आज की तारीख में कुछ भी गंवाने के लिये नहीं है। और कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है जिसके जरिये पाकिस्तान एक नयी तारीख की शुरुआत अपने लिये कर सकता है। लेकिन यहीं से बड़ा सवाल भारत के लिये शुरू होता है। कश्मीर को लेकर मनमोहन सरकार की कोई ऐसी नीति इस दौर में नहीं उभरी जिसमें आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान की सत्ता को कटघरे में खडा किया गया हो । क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में पाकिस्तान के साथ पेश कैसे आया जाये यह भी आर्थिक नीतियों पर प्रभाव ना पड़े इसे ही ध्यान में रखकर बातचीत हुई।
अगर बीते छह बरस में मनमोहन सिंह की नीतियों को पाकिस्तान या आतंकवाद के परिपेक्ष्य में देखें तो सरकार की प्राथमिकता आर्थिक विकास को पटरी से ना उतरने देने वाले माहौल को बनाये रखने की है। पाकिस्तान के साथ आर्थिक संबंधों पर जोर देने का रहा। आतंकवाद को आर्थिक परिस्थितियों में सेंध लगाने वाला बताया गया। कारपोरेट विकास के लिये मलेशिया-मारिशस का हवाला-मनीलेंडरिंग का रूट भी खुला रहा। जबकि यह सवाल बार5बार उछला कि मारिशस या मलेशिया के रूट का मतलब कहीं ना कहीं आतंकवादी संगठनों के धंधे में बदले मुनाफे से भी खेल जुड़ा हो सकता है। गृह मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है टेलीकॉम लाईसेंस के खेल में जुड़े स्वॉन कंपनी के ताल्लुकात अगर एतिसलात से जुड़े तो एतिसलात के पीछे दाउद भी है। और आर्थिक मुनाफे के खेल में इस आर्थिक आतंकवाद पर नकेल कसने के लिये कोई रोक देश में नहीं है। इसके उलट हवाला या मनीलाडरिंग का जब तक पता नहीं चला तब तक सरकार के नजर में इन्हीं कारपोरेट घरानों की मान्यता खासी रही। यानी बाजार पर टिके मुनाफे के कारपोरेट खेल के तार उन आतंकवादी संगठनों को भी खाद-पानी देते हैं, जिन्हें भारत सरकार विकास के रास्ते में रोड़ा मानती है।
जाहिर है यह कुछ ऐसा ही रास्ता है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन को पैदा भी अमेरिका करता है और खत्म भी अमेरिका करता है। लेकिन अमेरिकी तर्ज पर भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं है या कहें भारत की वह ठसक अभी दुनिया में नहीं है जो अमेरिका की है। अमेरिका ने लादेन के सवाल को अपनी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति से यूं ही नही जोड़ा। 9/11 के बाद दस बरस में यूं ही 1.3 ट्रिलियन डालर खर्च नहीं किये। निशाने पर अफगानिस्तान को यूं ही नहीं लिया। जबकि भारत ने आतंकवाद के सवाल को भी इकनॉमी से जोडा। हाल के दौर में अमेरिका के साथ आतंकवाद पर बातचीत में भी आर्थिक माहौल ना बिगड़े इस पर ही ज्यादा जोर दिया गया। यानी चकाचौंध अर्थव्यवस्था को बनाये रखने के रास्ते में कोई ना आये, यह बैचेनी बार-बार मनमोहन सरकार के दौर में दिखी। जबकि पाकिस्तान के साथ संबंधों को लेकर इससे पहले जिस भी प्रधानमंत्री ने चर्चा की उसमें एलओसी उल्लघंन ,कश्मीर में सीमापार आतंक की दस्तक या आतंकवाद को पाकिस्तान में पनाह देने के नाम पर होती रही और भारत हमेशा पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करता रहा। लेकिन, पहली बार मनमोहन सरकार के दौर आतंकी कार्रवाई को आर्थिक स्थितियो में सेंघ लगाने वाला करारा दिया गया । मुंबई में सीरियल ब्लास्ट हो या 26-11, दोनों हमलों के बाद दुनिया में मैसेज यही गया कि भारत की आर्थिक राजधानी मुबंई में हमला कर आतंकवादी अर्थव्यवस्था पर चोट करना चाहते हैं।
यही बात दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद सरीखे शहरों में हमले के बाद भी सरकार की तरफ से कही गयी। यानी ध्यान दें तो आतंकवाद और पाकिस्तानी सत्ता को मनमोहन नीति ने अलग-अलग ही खड़ा किया। और लादेन आपरेशन के बाद जो तथ्य निकले है उसमें पाकिस्तानी सत्ता ही जब आंतकवाद की जमीन पर खडी नजर आ रही है तब बडा सवाल यही है कि अब मनमोहन सरकार का रुख पाकिस्तान को लेकर क्या होगा । क्योंकि भारत फिलहाल आतंकवाद के मुद्दे पर एक सॉफ्ट स्टेट की तरह खड़ा किया गया है और अमेरिका ने नया पाठ यही पढा़या है कि आर्थिक तौर पर संपन्न होने का मतलब सॉफ्ट होना कतई नहीं होता। जाहिर है अमेरिकी कामयाबी के बाद तीन बड़े सवाल भारत के सामने हैं। पहला अब अमेरिका का रुख आंतकवाद को लेकर क्या होगा । दूसरा अब पाकिस्तान किस तरह आतंकवाद के नाम पर सौदेबाजी करेगा। और तीसरा लादेन के बाद लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद सरीखे आंतकंवादी संगठनो की कार्रवाई किस स्तर पर होगी। जाहिर है लादेन की मौत से पहले तक तीनों परिस्थितियां एक दूसरे से जुडी हुई थी, जिसके केन्द्र में अगर पाकिस्तान था तो उसे किस दिशा में किस तरीके से ले जाया जाये यह निर्धारित करने वाला अमेरिका था और भारत के लिये डिप्लोमेसी या कहें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अलावे कोई दूसरा रास्ता था नहीं। लेकिन अब भारत के सामने नयी चुनौती है। एक तरफ अमेरिका के साथ खडे होकर पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता भी भारत ने बनाये रखा और दूसरी तरफ तालिबान मुक्त अफगानिस्तान को खड़ा करने में भारत ने देश का डेढ सौ बिलियन डालर भी अफगानिस्तान के विकास में झोंक दिया। वही अब अमेरिका की कितनी रुचि अफगानिस्तान में होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। क्योंकि अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान को लेकर सवालिया निशान कई बार लगे। साढ़े तीन बरस पहले जॉर्ज बुश को खारिज कर बराक ओबामा के लिये सत्ता का रास्ता भी अमेरिका में तभी खुला जब डोमोक्रेट्रस ने खुले तौर पर आंतकवाद के खिलाफ बुश की युद्द नीति का विरोध करते हुये अफगानिस्तान और इराक में झोंके जाने वाले अमेरिकी डॉलर और सैनिकों का विरोध किया। और डांवाडोल अर्थव्यवस्था को पटरी
पर ना ला पाने के आोरपो के बीच एक साल पहले ही ओबामा ने इराक-अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिको की सिलसिलेवार वापसी को अपनी नीति बनाया।
इन परिस्थितियों में लादेन की मौत के बाद भारत-पाकिस्तान ही नहीं अमेरिकियों को भी इस बात का इंतजार है कि ओबामा अब आंतकवाद को लेकर कौन सा रास्ता अपनाते हैं। लादेन की मौत के बाद अमेरिकी सत्ता अपने नागरिकों के बीच अपना युद्ध जीत चुकी है। इसलिये 9/11 के बाद से पाकिस्तान को 20.5 अरब डालर की मदद देने के बाद अगले पांच बरस में और 9.5 अरब डालर देने का वायदा करने के बावजूद वह पाकिसतान को अगर यह कह रही है कि जरुरत पड़ी तो और आपरेशन भी अंजाम दिये जा सकते हैं। और पाकिस्तान हेकडी दिखा रहा है कि अमेरिका अब लादेन सरीखे आपरेशन की ना सोचे। तो समझना भारत को होगा। जिसे आतंकवाद से राहत ना तो कभी पाकिस्तान ने दी और ना ही अमेरिका ने। उल्टे 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने जो रोक भारत और पाकिस्तान पर लगाये, उन प्रतिबंधों में ढ़ील भी 9/11 के बाद सिर्फ पाकिस्तान को दी। क्योंकि रणनीति पाकिस्तान के जरिये साधनी थी। वहीं भारत की सत्ता अपने नागरिकों को न्याय दिलाना तो दूर ओबामा की तर्ज पर यह कह भी नहीं पाती कि बीते ग्यारह बरस में आतंकवाद की वजह से हमारे पांच हजार से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं और उन्हें न्याय दिलायेंगे। वहीं अब सवाल है कि क्या अमेरिका यह कहने की हिम्मत दिखायेगा कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर भारत से कहे कि पाकिस्तान से रणनीतिक साझेदारी तभी तक करनी चाहिये जब तक मकसद मिले नहीं। अंजाम तो अपने बूते ही देना होगा। जाहिर है अमेरिका यह कहेगा नहीं और भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि मनमोहन सिंह नेता नहीं अर्थशास्त्री हैं। और अर्थशास्त्र की कोई भी थ्योरी युद्द या हिंसा के बीच मुनाफा बनाने का मंत्र आजतक नहीं दे पायी है । लेकिन अंतर लोकतंत्र का भी है। अमेरिका दुनिया का सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश है इसलिये लादेन का पता खोजकर उसने कार्रवाई की । वही भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है जिसके पास 1993 के मुबंई सिरियल ब्लास्ट से लेकर संसद पर हमले और 26/11 को अंजाम देनेवालों का पता भी है । लेकिन वह कार्रवाई नहीं कर सकता।
Thursday, May 12, 2011
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मरते किसानों पर शोक या चकाचौंध अर्थवयवस्था पर जश्न |
दिल्ली से आगरा जाने के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 24 आजादी से पहले से बना हुआ है। इस रास्ते आगरा जाने का मतलब है पांच घंटे का सफर। वहीं दिल्ली से फरीदाबाद होते हुये आगरा जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 2 को दस बरस पहले इतना चौड़ा कर दिया गया कि ढाई घंटे में आगरा पहुंचा जा सकता है । और मायावती एक तीसरा रास्ता यमुना एक्सप्रेस-वे ग्रेटर नोयडा से सीधे आगरा के लिये बनाने में जी जान से लगी है। अगर यह बन जायेगा तो सिर्फ पौने दो घंटे में दिल्ली से आगरा पहुंचा जा सकेगा। तो क्या यूपी सरकार की समूची आग सिर्फ 45 मिनट पहले आगरा पहुंचने की कवायद भर है। जाहिर है कोई बच्चा भी कह सकता है कि यह खेल गाडियों के रफ्तार का नहीं है । बल्कि जमीन पर कब्जा कर विकास की एक ऐसी लकीर खिंचने का है जिसमें बिना लिखा-पढी अरबों का खेल भी हो जाये और चंद हथेलियों पर पूंजी की सत्ता भी रेंगने लगे। जो चुनावी मुश्किल में बेडा पार लगाने के लिये हमेशा गठरी में नोट बांधकर तैयार रहे। यानी सवाल यह नहीं है किसान को 850 से 950 रुपये प्रति वर्ग मीटर मुआवजा दिया जा रहा है और बाजार में 10 हजार से 16 हजार प्रति वर्ग मीटर जमीन बिक रही है। और किसान रुठा हुआ है। जबकि सरकार कह रही है कि किसान को लालच आ गया है। पहले सहमति दे दी । अब ज्यादा मांग रहा है।
सवाल यह है कि इसी ग्रेटर नोयडा का नक्शा बीते साढे तीन बरस में छह सौ फीसदी तक बढ गया । इसी ग्रेटर नोयडा व्यवसायिक उपयोग की जमीन की किमत एक लाख रुपये वर्ग मीटर तक जा पहुंचा। इसी ग्रेटर नोयडा में आठ बरस पहले जो जमीन उघोग लगाने के नाम पर दी गयी उसे डेढ बरस पहले एक रात में बदलकर बिल्डरों को बेच दी गयी। और नोयडा एक्सटेंशन का नाम देकर 300 करोड के मुआवजे की एवज में 20 हजार करोड के वारे-न्यारे कर लिये गये । सवाल है यह सबकुछ पीढियो से रहते ग्रेटर नोयडा के किसानों ने ना सिर्फ अपने गांव के चारो तरफ फलते फुलते देखा। बल्कि धारा-4 के तहत सरकार के नोटिफिकेशन से लेकर धारा-6 यानी आपत्ति और धारा-9 यानी सरकार की अधिग्रहित जमीन में अपने पुशतैनी घरों को समाते हुये भी देखा। यानी हर नियम दस्तावेज में रहा और एक रात पता चला कि जिस घर में ग्रामीण किसान रह रहा है उसकी कीमत बिना उसकी जानकारी तय कर दी गयी है। और कीमत लगाने वाला बिल्डर उसकी खेती की जमीन से लेकर घरो को रौंदने के लिये तैयार रोड-रोलर के पीछे खडे होकर ठहाका लगा रहा है। किसानों को तब लगा बेईमान बिल्डर है। सरकार तो ईमानदार है । इसलिये मायावती की विकास लकीर तले किसानों ने भागेदारी का सवाल उठाया । जिसमें 25 फीसदी जमीन सरकार विकसित करके किसान को लौटा दें और बाकि 75 फिसदी मुआवजे पर लेलें । चाहे तो 25 फीसदी को विकसित करने पर आये खर्चे को भी काट लें । लेकिन बीते डेढ बरस में जिस तेजी से सरकार ही बिल्डर में बदलती चली गयी उसमें भागेदारी का सवाल तो दूर उल्टे जो न्यूनतम जरुरत राज्य को पूरी करनी होती है उससे भी मुनाफा कमाने के चक्कर में सरकार ने हाथ खींच लिये। क्योकि सरकार ने इसी दौर में बिल्डरों के लिये नियम भी ढीले कर दिये। जिस जमीन पर कब्जे के लिये पहले तीस फीसदी कर देना होता था उसे दस फीसदी कर दिया गया और यह छूट भी दे दी कि जमीन पर अपने मुनाफे के मुताबिक बिल्डर योजना बनाये। उपभोक्ताओ से वसूली करें और फिर रकम लौटाये। और सिर्फ ग्रेटर नोयडा एथरिटी ही नहीं बल्कि आगरा तक के बीच में जो भी अथॉराटी है वह बिल्डर या कारपोरेट योजनाओ के लिये इन्फ्रास्ट्रचर बनाने में जुटे। यानी आम आदमी जो विकास की नयी लकीर तले बनने वाली योजनाओ से नहीं जुड़ेगा उसकी सुविधा की जिम्मेदारी राज्य की नहीं है । इसका असर यही हुआ है कि राष्ट्रीय राजमार्ग 24 के किनारे जो 6 बडे शहर और 39 गांव आते है वहा कोई इन्फ्रास्ट्रचर नही है। जबकि दिल्ली-आगरा एक्सप्रेस वे के दोनो तरफ माल,सिनेमाधर, एसआईजेड ,नालेज पार्क से लेकर इजाजत की दरकार में फंसे एयरपोर्ट तक के लिये इन्फ्रास्ट्कचर खड़ा करने में अधिकारी जुटे हैं । यहा तक की बिजली -पानी भी रिहायशी इलाको के बदले चकाचौंघ में तब्दिल करने की योजना में डूबे इलाको में शिफ्ट कर दिया गया है ।
योजनाओं का लाभ चंद हाथो में रहे और यही चंद हाथ बतौर सरकार जमीन का खेल कुछ इस तरह करें जिससे सरकार कुछ गलत करती नजर ना आये। इसे भी पैनी दृष्टी सत्ता ने ही दी। ग्रेटर नोयडा से आगरा तक कुल 11 बिल्डरों को जनमीन बांटी गयी। जिसमें साढे चार हजार एकड से लेकर सवा आठ हजार एकड तक की अधिग्रहित जमीन एक एक व्यक्ति के हवाले कर दी गयी और जिन्हें जमीन दी गयी उन्हे यह अधिकार भी दे दिया गया कि वह पेटी बिल्डरों को जमीन बेच दें । और पेटी बिल्डर अपने से छोटे बिल्डरो को जमीन बेचकर मुनाफा बनाने के खेल में शरीक करें। इसका असर यही हुआ कि शहर से लेकर गांव तक के बीच छोटे-बडे बिल्डरों की एक सत्ता बन चुकी है । जो जमीन अधिग्रहित करने में भी मदद करती है और अधिग्रहित जमीन के खिलाफ आक्रोष उबल पडे तो उसे दबाने में भी लग जाती है । यानी सियायत की एक ऐसी लकीर मायावती के दौर में खडी हुई है जिसमें विकास व्यवस्था की नीति बनी और व्यवस्था जमीन कब्जा की योजना । लेकिन सवाल है मायावती अकेले कहा है, और गलत कहा है। बीते एक बरस में मनमोहन सरकार ने 49 पावर प्रोजेक्ट और 8 रीवर वैली हाईड्रो प्रोजेक्ट को हरी झंडी दी। जिसके दायरे में देश की पौने तीन लाख एकड़ खेती की जमीन आ रही है । इसी दौर में 63 से ज्यादा स्टील और सिमेंट प्लाट को हरी झंडी मिली जिसके दायरे में 90 हजार एकड जमीन आ रही है । और इन सारी योजनाओ के जो कोयला और लोहा चाहिये उसके लिये खनन की जो इजाजत मनमोहन सरकार दे रही है उसके दायरे में तो किसान, आदिवासी से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट और बापू कुटिया तक आ रही है । लेकिन विकास के नाम पर या कहे मुनाफा बनाने कमाने के नाम पर हर राजनीतिक दर खामोश है । क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहो के खादान बेचने के लिये पडे हैं। और इस पर हर राजनीतिक दल के किसी ना किसी करीबी की नजर है । लेकिन इसके घेरे में क्या क्या आ रहा है यह भी गौर करना जरुरी है । इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहा टाइगर रिजर्व है । पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमिटर में कोयला खादान निर्धारित किया गया है । इसपर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है । गांधी को लेकर संवेदनशील राजनीति मुनाफा तले कैसे बापू कुटिया को भी धवस्त करने को तैयार है यह वर्धा में कोयला खादानो के बिक्री से पता चलेगा । वर्धा के 14 क्षेत्रो में कोयला खादान खोजी गयी है । यानी कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा । जिसमें आधे से ज्यादा जमीन पर फिलहाल खेती होती है । और खादान की परते विनोबा केन्द्र और बापू कुटिया तले भी है । फिर ग्रामिण किसान तो दूर सरकार तो आदिवासियो के नाम पर उडिसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खादानो की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लाक कोयला खादान के चुने गये है । जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में है जहा आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाडिया रहती है । राजमहल क्षेत्र के पचवाडा,और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फिसदी आदिवासी है । लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है । वही बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके है जहा 75 फिसदी से ज्यादा आदिवासी है । जिन्हें जमीन छोडने का नोटिस थमाया जा चुका है ।
असल में मुश्किल यह नहीं है कि सरकार जमीन हथियाकर विकास की लकीर अपनी जरुरत के मुताबिक खींचना चाहती है । मुश्किल यह है कि सरकार भी जमीन हथियाकर उन्ही किसान-गांववालो को धोखा देने में लग जाती है जिन्हे बहला-फुसला कर या फिर जिनसे जबरदस्ती जमीन ली गयी । नागपुर में मिहान-सेज परियोजना के घेरे में खेती की 6397 हेक्टेयर खेती की जमीन आयी । तीन साल पहले डेढ लाख रुपये एकड जमीन के हिसाब से मुआवजा दिया गया । लेकिन पिछले साल उसी जमीन का विज्ञापन महाराष्ट्र महाराष्ट्र एयरपोर्ट डवलमेंट कंपनी ने दिल्ली-मुबंई के अखबारो में निकाला । और रियल इस्टेट वालो के लिये प्रति एकड जमीन का न्यूनतम मूल्य एक करोड रखा । और फार्म भरने की रकम एक लाख रुपये रखी गयी । जो लौटायी नहीं जायेगी । यानी जमीन का मुआवजा जितना किसानो को दिया गया उससे ज्यादा की वसूली तो फार्म
[डाक्यूमेंट की कीमत ] बेचकर कर लिये गये । और अब वहा हरे लहलहाते खेत या किसानो की झौपडिया नहीं बल्कि शानदार फ्लैल्टस खडे होंगे । और जिस जमीन पर खेती कर पुश्तो से जो डेढ लाख लोग रह रहे थे । वही लोग अब इन इमारतो में नौकर का काम करेंगे । इसलिये सवाल सिर्फ मायावती या यूपी या ग्रेटर नोयडा में बहते खून का नहीं है । सवाल है कि अर्थव्यवस्था को बडा बनाने का जो हुनर देश में अपनाया जा रहा है उसमें किसान या आम आदमी फिट होता कहा है । और बिना खून बहे भी दस हजार किसान आत्महत्या कर चुके है और 35 लाख घर-बार छोड चुके है । जबकि किसानो की जमीन पर फिलहाल नब्बे लाख सत्तर हजार करोड का मुनाफा रियल इस्टेट और कारपोरेट के लिये खडा हो रहा है । जिसमें यमुना एक्सप्रेस -वे कि हिस्सेदारी महज 40 हजार करोड की है । तो मरते किसानो के नाम पर शोक मनाये या फलती-फुलती अर्थव्यवस्था पर जश्न यह तय हमें ही करना है ।
Friday, May 6, 2011
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लादेन के बाद भारत की मुश्किल |
दुनिया के सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश ने आतंकवाद के खिलाफ अपने तरीके से न्याय किया। और दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश आतंकवाद से लगातार छलनी होते हुये भी न्याय की गुहार उसी देश से लगा रहा है जिसकी जमीन आंतकवाद को पनाह दिये हुये है। जाहिर है पहला देश अमेरिका है और दूसरा भारत । अमेरिका ने अल-कायदा को छिन्न-भिन्न करने के लिये पाकिस्तान से साझा रणनीति बनायी लेकिन जब ओसामा बिन लादेन की महक उसे पाकिस्तान में मिली तो उसने पाकिस्तान को भी भरोसे में नहीं लिया। लेकिन भारत ने क्रिकेट डिप्लोमेसी का रास्ता पाकिस्तान के साथ तब भी खोला जब मुंबई हमले के तमाम सबूत जुगाड़ कर पाकिस्तान को सौंपने के बाद भी पाकिस्तान ने भारत की नीयत पर सवाल उठाये और खुद के आंतकवाद से घायल घाव दुनिया को दिखाये।
अमेरिकी कामयाबी के बाद तीन बड़े सवाल भारत के सामने हैं। पहला अब अमेरिका का रुख आतंकवाद को लेकर क्या होगा। दूसरा अब पाकिस्तान किस तरह आंतकवाद के नाम पर सौदेबाजी करेगा। और तीसरा लादेन के बाद लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद सरीखे आंतकंवादी संगठनो की कार्रवाई किस स्तर पर होगी। जाहिर है लादेन की मौत से पहले तक तीनो परिस्थितिया एक दूसरे से जुड़ी हुई थी , जिसके केन्द्र में अगर पाकिस्तान था तो उसे किस दिशा में किस तरीके से ले जाया जाये यह निर्धारित करने वाला अमेरिका था। और भारत के लिये डिप्लोमेसी या कहे अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अलावे कोई दूसरा रास्ता था नहीं। लेकिन अब भारत के सामने नयी चुनौती है । एक तरफ अमेरिका के साथ खड़े होकर पाकिस्तान से बातचीत का रास्ता भी भारत ने बनाये रखा और दूसरी तरफ तालिबान मुक्त अफगानिस्तान को खडा करने में भारत ने देश का डेढ सौ बिलियन डॉलर भी अफगानिस्तान के विकास में झोंक दिया। वही अब अमेरिका की कितनी रुचि अफगानिस्तान में होगी यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। क्योकि अमेरिका के भीतर अफगानिस्तान को लेकर सवालिया निशान कई बार लगे। साढे तीन बरस पहले जार्ज बुश को खारिज कर बराक ओबामा के लिये सत्ता का रास्ता भी अमेरिका में तभी खुला जब डेमोक्रेट्रस ने खुले तौर पर आंतकवाद के खिलाफ बुश की युद्द नीति का विरोध करते हुये अफगानिस्तान और इराक में झोंके जाने वाले अमेरिकी डॉलर और सैनिकों का विरोध किया। और डांवाडोल अर्थव्यवस्था को पटरी पर ना ला पाने के आोरपो के बीच एक साल पहले ही ओबामा ने इराक-अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिको की सिलसिलेवार वापसी को अपनी नीति बनाया।
इन परिस्थितियो में लादेन की मौत के बाद भारत-पाकिस्तान ही नहीं अमेरिकियों को भी इस बात का इंतजार है कि ओबामा अब आंतकवाद को लेकर कौन सा रास्ता अपनाते है। क्या आर्थिक मुद्दो से ध्यान बंटाने के लिये लादेन की मौत से मिले न्याय के जश्न में डूबे अमेरिकियो को बुश की तर्ज पर राष्ट्वाद का नया पाठ आतंक के खौफ तले ही पढायेंगे। जिससे अगले साल होने वाले चुनाव में ओबामा बेड़ा पार कर सके। और इसके लिये अरब वर्ल्ड में अमेरिकी हस्तक्षेप उसी तर्ज पर बढेगा जैसा कभी लादेन को खड़ा करने के लिये अमेरिका ने किया। अगर ऐसा होता है तो भारत को अपनी विदेश नीति में कई मोड़ लाने होंगे। क्योकि अरब दुनिया के साथ भारत के संबंध और मनमोहन सिंह के दौर में भारत की अर्थव्यवस्था अमेरिकी नीति के अनुसार लंबे वक्त चल नहीं पायेगी । लादेन की मौत के बाद अमेरिकी सत्ता अपने नागरिको के बीच अपना युद्द जीत चुकी है । वही भारत की सत्ता अपने नागरिकों को न्याय दिलाना तो दूर ओबामा की तर्ज पर यह कह भी नहीं पाती कि बीते ग्यारह बरस में आतंकवाद की वजह से हमारे पांच हजार से ज्यादा नागरिक मारे जा चुके हैं और उन्हे न्याय दिलायेंगे। अमेरिकी 9-11 से पहले जब दिल्ली में संसद पर हमला हुआ था तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका को यह कहते हुये चेताया था कि आज हमपर हमला हुआ है कल आप पर होगा। तब अमेरिका ने भारत के आरोपों की अनदेखी की थी। लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुये हमले के बाद जार्ज बुश ने भारत के आंतकवाद विरोधी मुहिम पर अपनी सहमति जतायी थी । वहीं अब सवाल है कि क्या अमेरिका यह कहने की हिम्मत दिखायेगा कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर भारत से कहे कि पाकिस्तान से रणनीतिक साझेदारी तभी तक करनी चाहिये जबतक मकसद मिले नहीं। अंजाम तो अपने बूते ही देना होगा।
जाहिर यह स्थिति कभी आ पायेगी यह सोचना दूर की गोटी है । वही लादेन की मौत के बाद पाकिस्तानी सत्ता की खामोशी ने पाकिस्तान के भीतर के उस टकराव को उबार दिया है जो लादेन की खोज तक अमेरिका की वजह से दबी हुई थी। राष्ट्रपति जरदारी हो या प्रदानमंत्री गिलानी दोनो की हैसियत सेना की कमान संभाले कियानी के सामने कुछ भी नहीं है। पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई जिस तरह से सत्ता और आतंकवादी संगठनों के बीच तालमेल बैठाये रखते हैं, उसमें आंतकवाद से प्रभावित पाकिस्तान के घाव भी सच है और आंतकवाद पाकिस्तान की स्टेट पालिसी है यह भी सच है । लेकिन पाकिस्तानी सत्ता के भीतर का नया सच अमेरिका के लादेन आपरेशन के बाद उभरा है । जिसमें पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सत्ता को खारिज कर अमेरिका ने अपना काम किया और पाकिस्तान सरकार ने भी अमेरिकी आपरेशन को झुक कर सलाम किया । यानी अमेरिकी नीति पाकिस्तानी सत्ता के लिये कितनी जरुरी है, उसके संकेत असल में 10 बरस पहले आर्मिटेज की उस धमकी में ही छिपे हुये हैं, जहां वह पाकिस्तान को कहते हैं कि अगर लादेन को खत्म करने के रास्ते में वह आया तो उसे भी पाषाण काल [स्टोन ऐज] में पहुंता दिया जायेगा। यह संकेत पाकिस्तान के भीतर किस हद तक है यह अब आने वाले वक्त में सत्ता को लेकर होने वाले टकराव से ही खुलेगा। क्योकि दुबई में बैठे मुशर्रफ ने यह मजाक में नहीं कहा कि अगर वह होते तो अमेरिका को पाकिस्तान की जमीन पर ऐसे घुसने नहीं देते। और जरदारी या गिलानी ने यूं ही यूएन के उस फैसले की आड़ नहीं ली, जिसमें अमेरिका को यह अधिकार दिये गये कि वह दुनिया के किसी भी हिस्से में लादेन को मारने की कार्रवाई कर सकता है। असल में पाकिस्तान के भीतर नया सवाल यही है कि क्या अमेरिका अब पाकिस्तनी सत्ता को भी लीबिया की तरह उमेठेगा । और आतंकवाद की मुहर सत्ता पर लगाकर लोकतंत्र की गुहार उन पाकिस्तानियो को मोहरा बनाकर करेगा जो सत्ता चाहते हैं। या फिर जरदारी-गिलानी को खारिज करने के लिये आंतकवादी संगठनो से हाथ मिलाये मुशर्रफ सरीखे नेताओ की दस्तक शुरु होगी । और भारत को एक बार फिर सोचना पडेगा कि वह अपनी कूटनीति किस रास्ते ले जाये। क्योंकि दोनो तरफ या तो अमेरिका होगा या फिर आतंकवाद। भारत की तीसरी बड़ी मुश्किल आंतकवादी संगठनों की उस पहल की है जो पाकिस्तान में अपनी सौदेबाजी का दायरा भारत पर हमला कर बनाये हुये हैं। लशकर-ए-तोएबा , जैश-ए-मोहम्मद और हिजबुल मुजाहिदीन की पहचान पाकिस्तान के भीतर आंतकी संगठन से ज्यादा इस्लाम के लिये सामाजिक कार्यो में लगे तंजीम की है। लेकिन आतंकवाद के पन्ने उलटने पर यह भी सामने आता है कि अल-कायद के साथ इनके संबंध खासे गाढ़े हैं और भारत के खिलाफ इनकी आंतकी कार्रवाई को पाकिस्तानी सत्ता अपनी डिप्लोमेसी का आधार बना कर सौदेबाजी करने से भी नहीं चूकती।
ऐसे में अगर अब अमेरिका और पाकिस्तान आंतकवाद को लेकर नजरिया बदलते हैं तो फिर आतंकवादी संगठनों का चेहरा भी बदलेगा क्योंकि अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान हो या उत्तरपूर्वी एशिया [इंडोनेशिया,मलेशिया, सिंगापुर, पिलीपिन्स] में सक्रिय जेआई यानी जिमा-ह-इसलामिया दोनो इसलामिक राष्ट्र बनाने के नाम पर आतंकवाद को अंजाम देते हैं। और इसका असर अरब वर्ल्डमें अमेरिकी नीतियो की वजह से ना चाहते हुये भी है और आर्थिक मदद की पाइप लाईन भी यही से बिछी हुई है जिसे आजतक कोई रोक नहीं पाया है। वहीं इसका बदला हुआ चेहरा मलोशिया के जरीये भारत में हवाला और मनीलाडरिंग के जरीये लगातार घपले-घोटालो से लेकर कालाधन तक में असर दिखा रहे हैं। और इसी दौर में भारत आर्थिक उडान लिये ऐसी कुलांचे भी मार रहा है जहां कारपोरेट पूंजी के तार मलेशिया से भी जुड़ रहे हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच सितारा भी बना रहे हैं। ऐसे नजाकत दौर में आतंकवाद की कोई भी नयी हरकत सबसे ज्यादा भारत को ही आहत करेगी क्योंकि अमेरिका और पाकिस्तान के लिये आतंकवाद अब पॉलसी है जबकि भारत के लिये ऐसा घाव, जिसका इलाज वह कर नहीं सकता और बीमारी का पता जानकर भी उसका इलाज दुनिया को बता नही सकता। क्योंकि दाउद या हाफिज सईद का पता जानकर भी भारत डिप्लामेसी करता है।