2008 में जब राहुल गांधी ने संसद के भीतर विदर्भ की विधवा किसान कलावती का नाम लिया और कलावती के अंधेरे जीवन में उजाला भरने के लिये परमाणु करार का समर्थन किया तो कइयों ने तालियां बजायीं। कइयों ने राहुल की उस संवेदनशीलता को मान्यता दी, जिसमें आत्महत्या करते किसान लगातार हाशिये पर ढकेले जा रहे हों। ऐसे में परमाणु करार की चकाचौंध तले किसानों की त्रासदी को भी कलावती के जरिए परखने का एक रास्ता निकल सकता है, इसे व्यापक कैनवास में माना गया। लेकिन 26 सितंबर को कलावती की बेटी सविता ने कुदकुशी की तो राजनीति में चूं तक नहीं हुई न। मीडिया नही जागा। महाराष्ट्र के वह नौकरशाह और राजनेता भी कलावती के घर नहीं पहुंचे जो राहुल गांधी के नाम लेते ही तीन बरस पहले समूचे विदर्भ में कलावती को वीवीआईपी बनाये बैठे थे। तो झटके में यह सवाल भी खड़ा हुआ कि किसानों के संकट को अपनी सियासी सुविधा के लिये अगर राजनेता कलावती जैसे किसी एक को चुनकर घुरी बना देते है तो न सिर्फ किसानों का संकट और उलझ जाता है बल्कि कलावती सरीखे किसी एक धुरी का जीवन भी नर्क जैसे हो जाता है।
असल में राहुल गांधी के नाम लेते ही कलावती को पहचान तो समूचे देश में मिल गयी। लेकिन उसका हर दर्द पहचान की भेंट ही चढ़ गया। 2005 में जब कलावती के पति परशुराम सखाराम बंधुरकर ने किसानी खत्म होने पर खुदकुशी की तो कलावती के विधवा विलाप के साथ समूचा गांव था। और उस वक्त विदर्भ के दस हजार किसानों की विधवाओ में से कलावती एक थी लेकिन 2008 में राहुल गांधी ने जब कलावती से मुलाकात की और मुलाकात को संसद में सार्वजनिक कर दिया तो राहुल के जरिए सियासत की मलाई खाने की होड़ विदर्भ के कांग्रेसियो में मची। और झटके में कलावती का घर यवतमाल के जालका गांव में एकदम अकेला पड़ गया।
असर यह हुआ कि पिछले बरस जब कलावती के दामाद संजय कलस्कर ने खुदकुशी की तो कलावती की विधवा बेटी के लिये गांव नहीं जुटा। वह अकेले पड़ गयी। गांववालों ने माना कि राहुल गांधी की कलावती के घर क्या जुटना, वहां तो नेता आयेंगे। लेकिन इन दो बरस में राहुल गांधी की सियासत भी कलावती से कहीं आगे निकल चुकी थीं और कांग्रसियों का कलावती प्रेम का बुखार भी उतर चुका था। तो कलावती के घर में विधवा विलाप मां-बेटी ने ही किया। कलावती के दामाद का संकट भी गरीबी और किसानी से दो जून की रोटी का भी जुगाड़ नही होना था। और बीते 26 सितबंर को जब कलावती की बेटी सविता ने खुदकुशी तो पुलिस इसी मशक्कत में लगी रही कि मामला किसान की गरीबी से ना जुड़े। कलावती की बेटी का दर्द यह था कि अपने पति के साथ वह भी किसान मजदूरी ही करती थी। लेकिन तबियत बिगड़ी तो खेत मजदूरी करना मुशकिल हो गया। आलम यह हो गया कि कि घर में नून-रोटी का जुगाड़ भी होना मुश्किल हो गया। वहीं तबियत बिगड़ी तो इलाज के लिये पैसे नहीं थे। आखिरी में गरीबी में बीमारी से तंग आकर सविता ने 16 सितंबर को आग लगी ली। सत्तर फीसदी जल गयी। डाक्टरों ने कहा नागपुर जा कर इलाज कराने पर बच जायेगी। लेकिन सविता और उसके पति के पास नागपुर जाने के लिये भी पैसे नहीं थे। तो 26 सितंबर को कलावती की बेटी ने दम तोड़ दिया। मामला नेताओं तक पहुंचा तो पुलिस ने आखिरी रिपोर्ट बनायी कि बीमारी से तंग आकर कलावती ने खुदकुशी की। यानी गरीबी की कोई महक कलावती से ना जुडे या उसके परिवार में खुदकुशी के सिलसिले में किसान होना न माना जाये इसका पूरा ध्यान दिया गया। और संयोग से कलावती की बेटी सविता की खुदकुशी के वक्त भी राहुल की कलावती अकेले ही रही। कोई नेता तो नहीं आया लेकिन पुलिस के आने पर कलावती फिर अकेले हो गयी। लेकिन सियासी तौर पर किसान का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिये कितना मायने रखता है यह सिर्फ कांग्रेस या राहुल गांधी के मिजाज भर से नहीं बल्कि बीजेपी या लालकृष्ण आडवाणी के जरीये भी समझा जा सकता है। रथयात्रा पर सवाल आडवाणी कलावती के गांव जालका से महज दो किलोमीटर दूर पांडवखेडा के बाइपास से निकले, लेकिन किसी बीजेपी कार्यकर्ता ने आडवाणी को यह बताने की जरुरत महसूस नहीं की कलावती की बेटी ने भी खुदकुशी कर ली। वहां जाना चाहिये।
इतना ही नहीं 2008 में राहुल गांधी के कलावती के घर जाने पर बीजेपी के नेता वैंकेया नायडू ने उस वक्त बड़ी बात कही थी कि किसी एक कलावती के जरिए किसानों के दर्द को नंही समझा जा सकता। लेकिन तीन बरस बाद आडवाणी जब रथयात्रा पर सवार होकर विदर्भ पहुंचे तो 24 घंटे के भीतर चार किसानो ने खुदकुशी की। लेकिन आडवाणी ने जिक्र करना भी ठीक नही समझा। या जानकारी देना विदर्भ के बीजेपी सिपहसालारो ने ठीक नहीं समझा। जबकि इस बरस विदर्भ में 642 किसान खुदकुशी कर चूके हैं और आडवाणी के विदर्भ में रहने के दौरान वाशिम के किसान की पत्नी साधना बटकल ने अपने दो बच्चो के साथ खुदकुशी की। जिनकी उम्र चार और छह बरस थी । यवतमाल के दिगरस के किसान राजरेड्डी निलावर ने खुदकुशी की। इसी तरह उदयभान बेले और निलीपाल जिवने ने खुदकुशी कर ली। हर किसान का संकट दो जून की रोटी है। यह सवाल महाराष्ट्र सरकार से लेकर केन्द्र सरकार तक नहीं समझ पा रही है कि अगर किसान के घर में ही अन्न नहीं है तो इसका मतलब है क्या। क्योंकि किसानों के लिये महाराष्ट्र में अन्त्योदय कार्यक्रम चलता नहीं है। नौकरशाहों का मानना है कि अन्न को किसान ही उपजाता है तो उसे अन्न देने का मतलब है क्या। लेकिन नौकरशाह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि खुदकुशी करने वाले ज्यादातक किसान कपास उगाते है और कपास न हो तो फिर किसानो में भुखमरी की नौबत आनी ही है।
वहीं महाराष्ट्र में किसानों के लिये स्वास्थ्य सेवा की भी कोई व्यवस्था नहीं है। और किसानी से चूके किसान सबसे पहले बीमारी से ही पीडि़त होते हैं। जहां इलाज के लिये पैसा किसी किसान के पास होता नहीं। तीसरा संकट किसान के बच्चो के लिये शिक्षा का है। इसकी कोई व्यवस्था महाराष्ट्र सरकार की तरफ से है नहीं। केन्द्र सरकार की भी शिक्षा योजना खुदकुशी करते किसानों के परिवार के बच्चो के लिये है नहीं। इसका असर दोहरा है। एक तरफ पिता की खुदकुशी के बाद अशिक्षित बच्चों के लिये बड़े होकर खुदकुशी करना सही रास्ता बनता जा रहा है। तो दूसरी तरफ जिस तरह क्रंक्रिट की योजनाएं खेती की जमीन हथियाने में जुटी हैं, तो औने-पौने मुआवजे में ही किसान के परिवार के बच्चे अपनी जमीन धंघा करने वालो को बेच देते हैं।
इसका असर इस हद तक पड़ा है कि नागपुर शहर में बन रहे अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये मिहान परियोजना के अंतर्ग्रत 600 किसान परिवार ऐसे हैं, जिनके बच्चों ने जमीन के बदले मोटरसाइकिल या फिर एक जीप की एवज में पीढि़यो को अन्न खिलाती आई जमीन को परियोजना के हवाले कर दिया। जिसपर रियल इस्टेट से लेकर हवाई अड्डे तक का विस्तार हो रहा है। यानी मुआवजा उचित है या नहीं इस पचडे से बचने के लिये धंधेबाजों ने अशिक्षित बच्चो को टके भर का सब्जबाग दिखाया। किसानों की यह त्रासदी कैसे सियासी गलियारे से होते हुये रिसी के खेल में बदल जाती है इसका नया नजारा दिल्ली से सटे उसी ग्रेटर नोएडा में फार्मूला रेस वन के जरीये समझा जा सकता है, जहां मायावती ने किसानों की जमीन हथियाकर रातों रात लैंड यूज बदल दी और राहुल गांधी ने भट्टा परसौल के किसानों के दर्द को उठाकर यूपी की राजनीति को गरम कर दिया। नोयडा और ग्रेटर नोयडा के सारे किसानो का दर्द मुआवजे के आधार पर एक हजार करोड़ के अतिरिक्त मदद से निपटाया ज सकता है। लेकिन इतनी रकम ना तो रियलइस्टेट वाले निकालना चाहते हैं ना ही अलग अलग योजना के जरीये पचास लाख करोड़ का खेल करने वाले विकास के धंधेबाज चेहरे। वहीं दूसरी तरफ किसानों की जमीन पर 28 से 30 अक्टूबर तक जो फार्मूंला वन रेस होनी है, उसमें सिर्फ 500 बिलियन डालर दांव पर लगेंगे।
वैसे, रेस के लिये तैयार 5.14 किलोमीटर ट्रैक तैयार करने में ही एक अरब रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है। ग्रेटर नोयडा में तैयार इस फार्मूला रेस ग्राउड से 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले 36 गांव में प्रति व्यक्ति आय सालाना औसतन दो हजार रुपये है। लेकिन देश का सच यह है कि फार्मूला रेस देखने के लिये सबसे कम कीमत की टिकट ढाई हजार रुपये की है जबकि तीस हजार लोगो के लिये खास तौर से बनाये गये पैवेलियन में बैठ कर रफ्तार देखने के टिकट की कीमत 35 हजार रुपये है और कारपोरेट बाक्स में बैठकर फार्मुला रेस देखने के लिये ढाई लाख रुपये का टिकट हैं। ऐसे में अगर भट्ट-परसौल में आंदोलन के दौर में किसानों के बीच राहुल गांधी को याद कीजिए तो राहुल उस वक्त किसानो के बीच विकास का सवाल फार्मूला रेस के जरीये ही यह कहकर खड़ा कर रहे थे कि मायावती सरकार तो किसानों की जमीन छीन रही है जबकि केन्द्र सरकार फार्मूला रेस करवा रही है। जिसका असर हुआ कि करोड़ों के वारे न्यारे करने वाली रेस को सफल बनाने के लिये सरकार ने फार्मूला वन को भी खेल की कैटगरी दे दी। लेकिन किसानों की खेती की जमीन कुछ इसी तरह के विकास मंत्र के जरीये हडप कर किसान की कैटगरी बदल कर मजदूर कर दी। इसलिये देश का नया सच कलावती या भट्टा परसौल नहीं है बल्कि नागपुर का मिहान प्रोजेक्ट या ग्रेटर नोयडा का फार्मूला रेस वन है जो किसानों की जमीन पर किसान को ही मजदूर बनाकर चकाचौंध फैला रहा है।
Friday, October 28, 2011
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राहुल गांधी...कलावती....और फॉर्मूला वन |
Friday, October 21, 2011
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सियासी रास्ते की खोज में संघ |
जिस वक्त अन्ना हजारे रालेगण सिद्दी में राजनीतिक लकीर खींच रहे थे, उसी वक्त नागपुर में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत अन्ना की सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की कदमताल बता रहे थे। जिस वक्त विदर्भ के एक किसान की विधवा कौन बनेगा करोड़पति में शामिल होने के बाद अपनी नयी पहचान को समेटे सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अपने जीने के हक का सवाल खड़ा कर रही थी, उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी दिल्ली में विदर्भ की चकौचौंध के गीत दिखाते हुये अपने विकास के पथ पर चलने के गीत गा रहे थे। तो क्या आरएसएस अपने महत्व को बताने के लिये कही भी खुद को खड़ा करने की स्थिति में है और सत्ता पाने के लिये बीजेपी किसी भी स्तर पर अपनी चकाचौंध दिखाने के लिये तैयार है।
यानी एक तरफ आरएसएस को यह स्वीकार करने में कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि उसकी धार कुंद हो चली है और वह अन्ना के पीछे खड़े होकर संघ परिवार को अन्ना से जोड़ सकती है। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी इस सुरूर में है कि सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश में अपनी गाथा अपने तरीके से गाते रहना होगा। एक तरफ अन्ना अगर राजनीति रास्ता भी पकड़ें तो भी संघ को यह बर्दाश्त है और विदर्भ की बदहाली के बीच विदर्भ से ही आने वाले नीतिन गडकरी अगर विदर्भ का सच दिल्ली में छुपाकर बताये तो भी चलेगा। दोनो घटनाओं के मर्म को पकड़ें तो पहली बार यह हकीकत भी उभरेगी कि लगातार सामाजिक मुद्दों पर हारता संघ परिवार किसी तरह भी अपनी सफलता दिखाने-बताने को बैचेन है तो दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर नेताओ की आपसी कश्मकश अपने अपने कद को बढ़ाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। तो पहले आरएसएस की बात। मोहन भागवत में स्वयंसेवक बार बारस गेडगेवार की छवि देखना चाहता है। लेकिन हेडगेवार ने कभी किसी दूसरे के संघर्ष को मान्यता नहीं दी। क्योंकि जब आरएसएस संघर्ष के दौर में था। हेडगेवार से होते हुये गुरु गोलवरकर के हाथों की थपकी तले संघ का संगठन सामाजिक तौर पर जिस तरह अपनी पहचान बना रहा था, उस दौर में आरएसएस हिन्दु महासभा से टकराया। या फिर हेडगेवार के सामने जब जब सावरकर आकर खड़े हुये, तब तब संघ ने सावरकर को खारिज किया। उस दौर में भी आरएसएस को सामाजिक शुद्दीकरण के संघर्ष से जोडकर हेडगेवार ने यह सवाल उठाया कि राजनीतिक रास्ता सफलता का रास्ता नहीं है। और वहीं सावरकर लगातार सामाजिक मुद्दों के आसरे राजनीतिक तौर तरीको पर जोर देते रहे। और सफलता का पैमाना हिन्दुत्व के आसरे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में बढ़ाते रहे। लेकिन ना तो हेडगेवार इसके लिये कभी तैयार हुये और ना ही गुरु गोलवरकर। इतना ही नहीं जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरु सरकार से इस्तीफा देकर गुरु गोलवरकर से मिलने पहुंचे तो पहला संवाद भी दोनों के बीच सामाजिक शुद्दीकरण और राष्ट्रवादी राजनीतिक को लेकर हुआ। जिसके बाद 1951 में राष्ट्रवादी राजनीति के नाम पर जनसंघ तो बनी लेकिन राजनीतिक करने वाले स्वयंसेवकों को यह पाठ पढ़ाया गया कि सत्ता हिन्दुत्व समाज के शुद्दीकरण से ही बनेगी। और हर लकीर खुद स्वयंसेवकों को खींचनी होगी। यानी आरएसएस या जनसंघ ने उस वक्त भी कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व या सेकुलर राष्ट्रवादी समझ को मान्यता नही दी।
अब यहां सवाल संघ के मुखिया मोहन भागवत का खड़ा होता है कि जिस दशहरे की सभा का इंतजार स्वयंसेवक साल भर करते है उस सभा में जब अपने भाषण से आरएसएस की सफलता दिखाने के लिये अन्ना हजारे के आंदोलन को हड़पने की कोशिश होती है तो फिर यह रास्ता जायेगा किधर। क्योंकि संघ के भीतर बीते 85 बरस से मान्यता बनी हुई है दशहरे के दिन संघ के मुखिया अक्सर आने वाले दौर का रास्ता ही स्वयंसेवकों को दिखाते हैं। हिन्दुत्व की बिसात पर सामाजिक शुद्दीकरण की वह चाल चलते है, जिससे राष्ट्रवाद जागे। मोहन भागवत पर सवाल करना इसलिये भी जरुरी है कि जिस दौर में जेपी के जरीये आरएसएस देश में राजनीतिक सत्ता पलटने की कवायद कर रहा था उस दौर में भी दशहरे के दिन तब के संघ के मुखिया गोलवरकर ने कभी जेपी संघर्ष के पीछे खड़े स्वयंसेवकों पर एक लाइन भी नहीं कहा था। ऐसे में अब अन्ना के आंदोलन की सफलता के पीछे अगर स्वयंसेवक का ही संघर्ष हो तो भी उसे इस तरह बताने का मतलब है, संघ के मुखिया भागवत की राजनीतिक चेतना सबसे कमजोर है। या फिर कमजोर होते संघ परिवार में आरएसएस अपनी जरुरत को बनाये रखने में जुटा है। या फिर आरएसएस के भीतर के तौर तरीके इतने लुंज-पुंज हो गये हैं कि उसे एक आधार चाहिये जो उसे मान्यता दिलाये। या सरकार जिस तरह आरएसएस को आतंक के कटघरे में खड़ा कर रही है, उससे बचने के लिये आरएसएस राजनीतिक सत्ता को डिगाने में लगे अन्ना आंदोलन में ही घुसकर अपनी पूंछ बचाना चाहता है।
दरअसल, इस सवाल का जवाब बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के तौर तरीको में भी छुपा है। देश में सबसे त्रासदीदायक क्षेत्र की पहचान विदर्भ की है। जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। लेकिन अन्ना के दोलन की महक से जब बीजेपी को यह समझ में आया कि देश के बहुसंख्यक आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीको को लेकर आक्रोश है तो नरेन्द्र मोदी ने उपवास कर अपने कद को बढ़ाना चाहा। आडवाणी रथयात्रा शुरु कर अपने जुझारु व्यक्तित्व को बताने लगे। और इसी मौके पर नीतिन गडकरी ने अपने भाषणों का संकलन "विकास के पथ पर.. " के जरीये खुद का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरु की। दिल्ली के सिरी फोर्ट में किताब के विमोचन के मौके पर नीतिन गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलो में अपने कामकाज के जरीये विकास की लकीर खींचने का दावा फिल्मी तरीके से किया, जिन जिलो में सबसे ज्यादा बदहाली है।
20 मिनट तक कैमरे के जरीये ग्रामीण आदिवासियों को लेकर फिल्माये गयी फिल्म में हर जगह गडकरी की विकास की सोच थी या फिर खुश खुश चेहरे। लेकिन संयोग से 8 अक्टूबर को जब विदर्भ की यह फिल्म दिखायी जा रही थी उसी दिन विदर्भ के ही किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिठ्टी 10 जनपथ पर पहुंची। जिसमें अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपने दोनों बेटियों के भविष्य के लिये बिना खौफ का जीवन मांगा था। क्योंकि जिस बेबसी में अपर्णा मल्लिकर रह रही हैं, उसमें पति की खुदकुशी की एवज में मिले सरकारी पैकेज कौन बनेगा करोडपति से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आयी है। और पैसे हडपने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं उसका अपने रिश्तेदार और पति के बडे भाई रधुनाथ मल्लीकार पड़े हैं। जो काग्रेस के नेता है और नागपुर के डिप्टी मेयर भी रह चुके हैं। इसलिये अपर्णा के लिये जीने के रास्ते भी बंद होते जा रहे हैं। क्योंकि किसानों की हालत विदर्भ में जितनी दयनीय है, उसमें बीजेपी अपनी विकास गाथा की लकीर खिंच रहे हैं तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं।
ऐसे में कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो का नजरिया किसानो को लेकर तभी जागता है, जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो। यह खेल राहुल गांधी के कलावती के जरीये विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा चखा है। लेकिन सत्ता के विरोध की राजनीति करती बीजेपी का रुख भी जब किसानो के दर्द से इतर अपने चकाचौंघ में लिपट जाये और विदर्भ के केन्द्र नागपुर से खडी आरएसएस भी जब सावरकर के क्षेत्र रालेगण सिद्दी से निकले अन्ना हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहा तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा परिवार देश को रास्ता दिखा सकता है। क्योंकि अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से बीजेपी के भीतर सत्ता पाने की जो खलबलाहट शुरु हुई है, उसमें पहली बार आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आये जो संघ परिवार का विस्तार करे। यानी बीजेपी के भीतर के मॉडरेट चेहरे और नरेन्द्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरुर भोगी लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिये पर ही रही। और गुजरात में नरेन्द्र मोदी चाहे मौलाना टोपी ना पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों लेकिन अंदरुनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपडा साफ कर दिया है। खास कर मराठी स्वयंसेवको को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारो पर चलने के लिये मजबूर हैं। मधुभाई कुलकर्णी हो या मनमोहन वैघ सरीखे पुराने पीढियो से जुड़े स्वयंसेवक सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता रणनीति के तहत ही नरेन्द्र मोदी ने किया। इससे पहले संजय जोशी को भी बाहर का रास्ता मोदी ने ही दिखाया। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिये संघ से दूरी बनाकर सियासत करने की समझ दिल्ली की चौकडी में समायी है, उससे भी आरएसएस सचेत है । और इसीलिये आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुये राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तोर पर रखने से कतरा भी नहीं है।
इसलिये अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद बीजेपी के भीतर आडवाणी की स्थिति क्या बनेगी । बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अन्ना से लेकर बीजेपी की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिये चलाना शुरु कर देगा जिससे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ की सोच उभरे। और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक के मुद्दो पर हाफंता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आये।
Tuesday, October 18, 2011
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रिजेक्ट करने का "हिसार हिसाब" |
हिसार "राईट टू रिजेक्ट" का नया चेहरा है। ऐसा चेहरा जिसमें मुद्दा महत्वपूर्ण था लेकिन उसे ढोने वाला कोई उम्मीदवार नहीं था। पहली बार उम्मीदवार को नहीं मुद्दों को जीतना या हारना था। यानी मुद्दे को वोट का पावर चाहिये था और कांग्रेस की जमानत जब्त होने के साथ ही वोट पावर के तौर पर भी उभरा। तो क्या हिसार के चुनावी संकेत अब जातीय या सांप्रदायिक चेहरे के आगे के अक्स देश को दिखा रहा है। या फिर हिसार के चुनाव परिणाम महज अण्णा का तुक्का है। क्योंकि जाट और जाट के बीच चौटाला जयप्रकाश पर भारी थे, यह हर कोई जानता था और जाट-गैर जाट के बीच चौटाला पर भजनलाल के बेटे विश्नोई भारी थे, यह भी हर कोई जानता था।
लेकिन जयप्रकाश समर्थक जाट झटके में चौटाला के साथ खड़ा हो जायेगा और विश्नोई को चौटाला बराबरी की टक्कर दे देंगे, यह कोई नहीं जानता था। लेकिन हिसार का मतलब जीत हार नहीं बल्कि जमानत जब्त मामला है। क्योंकि कांग्रेस के जयप्रकाश ने 2004 में तब यह सीट जीती थी, जब कांग्रेस भी माने बैठी थी कि उसकी सत्ता तो दूर कांग्रेसी वोट बैंक भी एनडीए की चकाचौंध में लगातार गुम हो रहा है। लेकिन हरियाणा की चाल बिलकुल केन्द्र के चुनाव के तर्ज पर चली। कांग्रेस केन्द्र में आयी तो हरियाणा में भी कांग्रेस आई। मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स तले देश ने 2009 में कांग्रेस के हाथ को सत्ता दिला दी तो हरियाणा के हुड्डा भी दुबारा जीत कर कांग्रेस की सत्ता बरकरार रख गये। लेकिन जिस दौर में मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स को लेकर ही सवाल उठ रहे हैं और भ्रष्टाचार तले विकास की कॉरपोरेट लूट का सवाल खड़ा हो रहा है, संयोग से उसी दौर में हरियाणा में हुड्डा की विकास थ्योरी को लेकर भी सवाल उठे हैं। हुड्डा ने भूमि अधिग्रहण को लेकर ज्यादा से ज्यादा मुआवजे की जो थ्योरी हरियाणा में परोसी है, उस थ्योरी को केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि कांग्रेस ने भी हाथों हाथ लिया है। और राहुल गांधी ने मुसीबत में फंसे हर किसान को हरियाणा मॉडल पर राज करने की जो नसीहत दी उससे नया सवाल अब यह निकल रहा है कि मनमोहन सिंह की खींची रेखा पर ही हुड्डा भी चले और कांग्रेस ने भी उसे ही अपने हाथ का जगन्नाथ माना।
लेकिन उदारवादी अर्थव्यवस्था की लकीर खींचते खींचते केन्द्र सरकार या उसी मॉडल को अपनाये राज्य सरकारे जब आम आदमी को पीछे छोड आगे निकलने लगी तो लोगो का आक्रोश ही अण्णा आंदोलन की सफलता भी बना और हिसार का बिना उम्मीदवार राजनीतिक प्रयोग कांग्रेस की जमानत जब्त भी करा गया। यह परिणाम बीजेपी को खुश कर सकता है। लेकिन बिना उम्मीदवार मुद्दे की जीत काग्रेस के लिये परेशानी का सबब है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार केन्द्र में है और कांग्रेस का मतलब मनमोहन सिंह या काग्रेस संगठन नहीं बल्कि गांधी परिवार है। गांधी परिवार का मतलब एक ऐसा सियासी 'औरा' है जिसमें किसी भी राजनीतिक दल के किसी भी राजनेता की चमक गायब हो जाती है। ऐसे मौके पर गांधी परिवार अगर 2012 में यूपी होते हुये 2014 के केन्द्र की तैयारी कर रहा है और इसी मोड पर अण्णा का सवाल अगर उस राजनीतिक चकाचौंध को ही घूमिल कर देता है, जिसकी चकाचौंध में सत्ता की मलाई दिखाकर हर राजनीतिक दल बिना मुद्दे अपने अपने वोट बैंक को सहेजते हैं, तो फिर आने वाले दौर में गांधी परिवार को लेकर काग्रेस में क्या हडकंप हो सकती है, यह समझना जरुरी है। क्योंकि कोई मुद्दा अगर चुनाव मैदान में खड़े उम्मीदवार ही नहीं राजनीतिक दलो पर भी भारी पडने लगे तो फिर सियासत का रुख क्या हो सकता है, यह अब के हालात से भी समझा जा सकता है जब हर किसी के निशाने पर अण्णा की वही टीम है जिसके पास ना तो कोई संगठन है ना कोई राजनीतिक मंच है। ना ही राजनीतिक दलों जितना पैसा है। ना ही संसदीय राजनीति का कोई अनुभव है। एनजीओ से लेकर वकील और आईपीएस एधिकारी या नौकरशाही का अनुभव समेटे चंद ऐसे लोग हैं, जो झटके में मुद्दे के आसेर एक ऐसे राष्ट्रीय मंच की धुरी बन गये हैं जिसके चारो तरफ वह तमाम संगठन और राजनीतिक दल है, जिन्हें सत्ता चाहिये। और संयोग से सत्ता भोग रहे नेता हो या सत्ता की दौड में लगे नेताओ का जमघट, अधिकतर जब जनलोकपाल के कटघरे में खड़े हैं तो फिर आने वाले चुनाव में अण्णा मुद्दा गायब हो जायेगा ऐसा भी नहीं है। होगा क्या । कांग्रेस का सबकुछ दांव पर है। विपक्ष का कुछ भी दांव पर नहीं है। यूपी में भी हिसार के चौटाला और विश्नोई की ही तर्ज पर मुलायम सिंह और मायावती कटघरे में है। यानी जो जयप्रकाश हारने के बाद यह सवाल खड़ा करते हैं कि अण्णा के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ की मुहिम में तो जीतने की दौड में भ्रष्ट ही आ गये। उसी तर्ज पर यूपी में तो समूची कांग्रेस ही कह सकती है कि जब आय से ज्यादा संपत्ति जैसे भ्रष्टाचार के मामले में मुलायम और मायावती दोनो फंसे हैं तो फिर काग्रेस के खिलाफ वोट डालने की मुहिम का मतलब कितना खतरनाक होगा यह अण्णा टीम को समझना चाहिये।
लेकिन बड़ा सवाल यही से निकलता है कि जिस रास्ते उदारवादी अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री ले जा चुके है, उसमें जब देश के आम लोगों का आस्तित्व नही बच रहा और सभी उपभोक्ता में तब्दिल हो चुके तो फिर संसदीय राजनीति पर लोगो का आक्रोश तो भारी पड़ेगा ही। और यही आक्रोश मुद्दा बन किसी को भी तब तक हरायेगा जब तक सत्ता के सरोकार लोगो से नहीं जुड़ेगे। और महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार खत्म करने के लिये राजनीतिक दल तकनीकी राजनीतिक भाषा की बिसात बिछाना छोडेंगे नहीं। यानी जबतक आमलोगो का भरोसा राजनीतिक सत्ता को लेकर डिगा रहेगा आक्रोश हिसार सरीखा ही परिणाम देगा, जिसका कोई राजनीतिक मकसद नही होगा। और चुनाव आयोग की पहल के बगैर ही राईट टू रिजेक्ट अपनी परिभाषा गढ़ लेगा।
Monday, October 17, 2011
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न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग और गाइडलाइन्स का सवाल |
'सेंसरशिप' की तैयारी मे जुट रहे हैं नौकरशाह
न्यूज चैनलों पर नकेल कसने के लिये सरकार ने अपनी पहल तेज कर दी है। इंडियन इनफॉरमेशन सर्विस यानी आईआईएस के उन बाबुओं को दुबारा याद किया जा रहा है, जिन्हें न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग का अनुभव है।1995 से 2002 तक सरकारी गाइडलाइंस के आधार पर सूचना प्रसारण के नौकरशाह पहले दूरदर्शन और मेट्रो चैनल पर आने वाले समसामायिक कार्यक्रमों की मॉनिटरिंग करते रहे। इस दौर में न्यूज और करेंट अफेयर के तमाम कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट पहले सरकारी बाबुओं के पास आती थीं। उसके बाद पूरा कार्यक्रम बाबुओं की टीम देखती। जो तस्वीरें हटवानी होती, जो कमेंट हटाने होते, उसे हटवाया जाता।
उसके बाद निजी चैनलों का दौर आया तो शुरुआत में मॉनिटरिंग स्क्रिप्ट को लेकर ही रही। लेकिन इसके लिये पहले से स्क्रिप्ट मंगवाने की जगह महीने भर देखने के बाद चैनलों को नोटिस भेजने का सिलसिला जारी रहा। लेकिन एनडीए सरकार के दौर में सूचना प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग यह कह कर बंद करायी कि जो कन्टेंट टीवीटुडे के अरुण पुरी या एनडीटीवी के प्रणव राय तय करते हैं, उनसे ज्यादा खबरों की समझ नौकरशाहों में कैसे हो सकती है। उस वक्त न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग करने वाले नौकरशाहो ने सरकारी गाइडलाइन्स का सवाल उठाया। तब प्रमोद महाजन ने सरकारी गाइडलाइन्स किसने बनायी और उसका औचित्य क्या है, इन्हीं मामलो में नौकरशाहो को उलझाया और धीरे धीरे मॉनिटरिंग खानापूर्ति् में तब्दील हो गई।
लेकिन अब सरकार ने दो स्तर पर काम शुरु किया है, जिसमें पहले स्तर पर उन नौकरशाहों को याद किया जा रहा है जो न्यूज चैनलों की मॉनिटरिंग के माहिर माने जाते हैं और फिरलहाल रिटायर जीवन बीता रहे हैं। और दूसरे स्तर पर वर्तमान नौकरशाहों के जरीये ही मॉनिटरिंग की नयी गाइडलाइन्स बनाने की प्रक्रिया शुरु की गई है। चूंकि 7 अक्टूबर को कैबिनेट ने अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग गाइडलाईन्स, 2005 को मंजूरी देते हुये न्यूज चैनलों की संहिता के भी सवाल उठाये और यह भी कहा गया कि कोई टेलीविजन चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन संहिता के पांच उल्लंघनों का दोषी पाया गया तो सूचना प्रसारण मंत्रालय के पास उसका लाइसेंस रद्द करने का अधिकार होगा । लेकिन वे उल्लंघन होंगे क्या ? या फिर उल्लंघन के दायरे में क्या लाना चाहिये, इस पर चिंतन-मनन की प्रक्रिया शुरु हो गई है। और जो निकल कर आ रहा है, अगर वह लागू हो गया तो टीआरपी की दौड़ मे लगे उन न्यूज चैनलों का लाइसेंस तो निश्चित ही रद्द हो दायेगा, जो खबरो के नाम पर कुछ भी दिखाने से परहेज नहीं करते। नयी गाइडलाइन्स के तहत नौकरशाह का मानना है कि नंबर एक की दौड में न्यूज चैनल अव्वल नंबर पर बने रहने या पहुंचने के लिये खबरों से खिलवाड़ की जगह बिना खबर या दकियानूस उत्साह को दिखाने लगते हैं। मसलन, कैसे कोई नागमणि देश का भविष्य बदल सकती है। कैसे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम भारत को बर्बाद कर सकता है। कैसे कंकाल रोबोट का काम कर सकता है। वहीं दूरदर्शन में रहे कुछ पुराने नौकरशाहो का मानना है कि जिस तरह कॉलेज से निकली नयी पीढ़ी रिपोर्टिंग और एंकरिंग कर रही है, और वह किसी भी विषय पर जिस तरह कुछ भी बोलती है उस पर लगाम कैसे लगेगी। क्योंकि मीडिया अगर यह सवाल करेगा कि जो न्यूज चैनल बचकाना होगा, उसे खुद ही लोग नहीं देखेंगे। यानी न्यूज चैनलो की साख तो खबरों को दिखाने-बताने से खुद ही तय होगी। लेकिन मुंबई हमले के दौरान जिस तरह की भूमिका बिना साख वाले चैनलों ने निभायी और उसे देखकर पाकिस्तान में बैठे आतंकवादी संगठनों ने अपनी रणनीति बनायी, उसे आगे कैसे खुला छोड़ा जा सकता है।
खास बात यह भी है कि नौकरशाह नयी गाइडलाइन्स बनाते वक्त न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिेएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स को लेकर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं। सूचना मंत्रालय के पुराने खांटी नौकरशाहों का मानना है कि बिना साख वाले न्यूज चैनल या खबरों से इतर कुछ भी दिखाने वाले न्यूज चैनलों के संपादक भी जब न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिेएशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स से जुड़े हैं और बाकायदा पद पाये हुये हैं तो फिर इनका कितना भी आत्ममंथन कैसे न्यूज चैनलो को खबरों में बांध सकता है। और फिर जो न्यूज चैनल बिना खबर के खबर दिखाने का लाइसेंस लेकर धंधे कर मुनाफा बनाते है तो उन्हें मीडिया का हिस्सा भी कैसे माना जाये और उन पर नकेल कसने का मतलब सेंसर कैसे हो सकता है। लेकिन खास बात यह भी है कि सरकार के भीतर नौकरशाहों के सवालो से इतर अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान मीडिया कवरेज ने परेशानी पैदा की है और नयी आचार संहिता की दिशा कैसे खबर दिखाने वाले न्यूज चैनलों को पकड़ में लाये, इस पर भी चितंन हो रहा है। और पहली बार सरकार की नयी गाइडलाइन्स में इमरजेन्सी की महक इसलिये आ रही है क्योंकि न्यूज चैनलो के जरीये सरकार को अस्थिर किया जा रहा है, यह शब्द जोड़े गये हैं। गाइडलाइन्स में सरकार को अस्थिर करने को सही ठहराने के लिये खबरों के विश्लेषण और सरकार के कामकाज को गलत ठहराने पर जोर दिया जा रहा है। मसलन चुनी हुई सरकार की नीतियों को जनविरोधी कैसे कहा जा सकता है। सड़क के आंदोलन को संसदीय राजनीति का विकल्प बताने को अराजक क्यों नहीं माना जा सकता। तैयारी इस बात को लेकर है कि गाइडलाइन्स की कॉपी यूपी चुनाव से पहले तैयार कर ली जाये, जिससे पहला परीक्षण भी यूपी चुनाव में ही हो जाये। और गाइडलान्स की कॉपी हर चैनल को भेज कर लाइसेंस रद्द करने की तलवार लटका दी जाये क्योंकि गाइडलाइन्स को परिभाषित तो नौकरशाहो की टीम करेगी जो यह समझ चुकी है कि न्यूज चैनलों के भीतर के अंतर्विरोध में सेंध लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि न्यूज चैनलो में चंद चेहरों की ही साख है, जिसे आम आदमी सुनता-देखता है। बाकी तो हंसी-ठहाका के प्रतीक हैं।
Saturday, October 8, 2011
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मीडिया से टकराव का रास्ता |
इस वक्त सरकार के निशाने पर देश के दो बडे मीडिया संस्थान है । दोनों संस्थानों को लेकर सरकार के भीतर राय यही है कि यह विपक्ष की राजनीति को हवा दे रहे हैं । सरकार के लिये संकट पैदा कर रहे हैं । वैसे मीडिया की सक्रियता में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिस तरह के हालात देश के भीतर तमाम मुद्दों को लेकर बन रहे हैं उसमें मीडिया का हर संस्थान आम आदमी की परेशानी और उसके सवालों को अगर ना उठाये, तो फिर उस मीडिया संस्थान की विश्वनीयता पर भी सवाल खड़ा होने लगेगा। लेकिन सरकार के भीतर जब यह समझ बन गयी हो कि मीडिया की भूमिका उसे टिकाने या गिराने के लिये ही हो सकती है, तो कोई क्या करे?इसलिये मीडिया के लिये सरकारी एडवाईजरी में जहां तेजी आई है,वहीं जिन मीडिया संस्थानो पर सरकार निशाना साध रही है उसमें निशाने पर वही संस्थान हैं,जिनका वास्ता विजुअल और प्रिंट दोनों से है। साथ ही उन मीडिया संस्थानो के दूसरे धंधे भी है। दरअसल, सिर्फ मीडिया हाउस चलाने वाले मालिकों को तो सरकार सीधे निशाना बना नहीं सकती क्योंकि इससे मीडिया मालिकों की विश्वनीयता ही बढ़ेगी और उनकी सौदेबाजी के दायरे में राजनीति आयेगी। जहां विपक्ष साथ खड़ा हो सकता है। फिर आर्थिक नुकसान की एवज में सरकार को टक्कर देते हुये मीडिया चलाने का मुनाफा भविष्य में कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है। लेकिन जिन मीडिया हाउसों के दूसरे धंधे भी हैं और अगर सरकार वहां चोट करने लगे तो फिर उन मीडिया हाउसों के भीतर यह सवाल खड़ा होगा ही कि कितना नुकसान उठाया जाये या फिर सरकार के साथ खड़े होना जरुरी है। और चूकिं यह खेल राष्ट्रीय स्तर के मीडिया घरानों के साथ हो रहा है तो खबरें दिखाने और परोसने के अंदाज से भी पता लग जाता है कि आखिर मीडिया हाउस के तेवर गायब क्यों हो गये?दरअसल पर्दे के पीछे सरकार का जो खेल मीडिया घरानों को चेताने और हड़काने का चल रहा है,उसके दायरे में अतीत के पन्नों को भी टटोलना होगा और अब के दौर में मीडिया के भीतर भी मुनाफा बनाने की जो होड है, उसे भी समझना होगा।
याद कीजिये आपातकाल लगाने के तुरंत बाद जो पहला काम इंदिरा गांधी ने किया वह मीडिया पर नकेल कसने के लिये योजना मंत्रालय से विद्याचरण शुक्ल को निकालकर सूचना प्रसारण मंत्री बनाया और मंत्री बनने के 48 घंटे बाद ही 28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने संपादकों की बैठक बुलायी। जिसमें देश के पांच संपादक इंडियन एक्सप्रेस के एस मुलगांवकर,हिन्दुस्तान टाईम्स के जार्ज वर्गीज, टाइम्स आफ इंडिया के गिरिलाल जैन,स्टैट्समैन के सुरिन्दर निहाल सिंह और पैट्रियॉट के विश्वनाथ को सूचना प्रसारण मंत्री ने सीधे यही कहा कि सरकार संपादकों के काम से खुश नहीं है,उन्हें अपने काम के तरीके बदलने होंगे। चेतावनी देते मंत्री से बेहद तीखी चर्चा वहां आकर रुकी जब गिरिलाल जैन ने कहा ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाये गये थे। इस पर मंत्री का जवाब आया कि यह अग्रेंजी शासन नहीं है, यह राष्ट्रीय आपात स्थिति है। और उसके बाद मीडिया ने कैसे लडाई लड़ी या कौन कहां, कैसे झुका यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन 36 बरस बाद भ्रष्ट्राचार के कटघरे में खड़े पीएमओ, कालेधन को टालती सरकार और मंहगाई पर फेल मनमोहन इक्नॉमिक्स को लेकर देश भर में सवाल खडे हुये और 29 जून 2011 को जब प्रधानमंत्री ने सफाई देने के लिये संपादकों की बैठक बुलायी। और प्रिट मिडिया के पांच संपादक जब प्रधानमंत्री से मिलकर निकले, तो मनमोहन सिंह एक ऐसी तस्वीर पांचों संपादको ने खींची जिससे लगा यही कि देश के बिगडते हालात में कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशान है और कुछ करने का माद्दा रखता है, तो वह प्रधानमंत्री ही है। यानी जो कटघरे में अगर स्थितियां उसे ही सहेजनी हैं, तो फिर संपादक कर क्या सकते हैं या फिर संपादक भी अपनी बिसात पर निहत्थे हैं । यानी लगा यही कि जिस मीडिया का काम निगरानी का है वह इस दौर में कैसे सरकार की निगरानी में आकर ना सिर्फ खुद को धन्य समझने लगा, बल्कि सरकार से करीबी ही उसने विश्वनीयता भी बना ली। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह मीडिया ने हाथों हाथ लिया उसने झटके में सरकार के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि जिस मीडिया को उसने अपनी छवि बनाने के लिये धंधे में बदला और बाजार अर्थव्यवस्था में बांधा अगर उसी मीडिया का धंधा सरकार की बनायी छवि को तोड़ने से आगे बढने लगे, तो वह क्या करेगी । क्या सत्ता इसे लोकतंत्र की जरूरत मान कर खामोश हो जायेगी या फिर 36 बरस पुराने पन्नों को खोलकर देखेगी कि मीडिया पर लगाम लगाने के लिये मुनाफा तंत्र बाजार के बदले सीधे सरकार से जोड़ कर नकेल कसी जाये। अगर सरकार के संकेत इस दौर में देखें तो वह दोराहे पर है।
एक तरफ फैलती सूचना टेक्नॉल्जी के सामने उसकी विवशता है, तो दूसरी तरफ मीडिया पर नकेल कस अपनी छवि बचाने की कोशिश है । 36 बरस पहले सिर्फ अखबारों का मामला था तो पीआईबी में बैठे सरकारी बाबू राज्यवार अखबारों की कतरनों के आसरे मंत्री को आपात स्थिति का अक्स दिखाते रहते, लेकिन अन्ना हजारे के दौर में ना तो बाबुओं का विस्तार टेक्नॉल्जी विस्तार के आधार पर हो पाया और ना ही सत्ता की समझ सियासी बची । इसलिये आंदोलन को समझ कर उस पर राजनीतिक लगाम लगाने की समझ भी मनमोहन सिंह के दौर में कुंद है। और राजनीति भी जनता से सरोकार की जगह पैसा बनाकर सत्ता बरकरार रखने की दिशा को ज्यादा रफ्तार से पकड़े हुये है। यानी सियासत की परिभाषा ही जब मनमोहन सिंह के दौर में आर्थिक मुनाफे और घाटे में बदल गयी है तो फिर मीडिया को लेकर सरकारी समझ भी इसी मुनाफा तंत्र के दायरे में सौदेबाजी से आगे कैसे बढ़ेगी। इसलिये जिन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन को प्रधानमंत्री की परिभाषा संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा तले देखा, उन्हें सरकार पुचकार रही है और जिस मीडिया ने अन्ना के अन्ना के आंदोलन में करवट लेते लोकतंत्र को देखा, उन्हें सरकार चेता रही है । लेकिन पहली बार अन्ना आंदोलन एक नये पाठ की तरह ना सिर्फ सरकार के सामने आया बल्कि मिडिया के लिये भी सड़क ने नयी परिभाषा गढ़ी । और दोनों स्थितियों ने मुनाफा बनाने की उस परिभाषा को कमजोर कर दिया जिसके आसरे राजनीति को एक नये कैनवास में मनमोहन सिंह ढाल रहे है और मीडिया अपनी विश्वसनीयता मनमोहन सिंह के कैनवास तले ही मान रही है । मीडिया ने इस दौर को बेहद बारीकी से देखा कि आर्थिक विकास के दायरे में राजनीति का पाठ पढाने वाले मनमोहन सिंह के रत्नों की चमक कैसे घूमिल पड़ी । कैसे सत्ता के गुरूर में डूबी कांग्रेस को दोबारा सरोकार कि सियासत याद आयी । कैसे कांग्रेस की बी टीम के तौर पर उदारवादी चेहरे को पेश करने में जुटी बीजेपी को राजनीति का 36 बरस पुराना ककहरा याद आया । और कैसे तमाशे में फंसा वह मिडिया ढहढहाया जो माने बैठा रहा कि अन्ना सडक से सासंदो को तो डिगा सकते है लेकिन न्यूज चैनल के इस मिथ को नहीं तोड सकते कि मनोरंजन का मतलब टीआरपी है । असल में मिडिया के अक्स में ही सियासत से तमाशा देखने की जो ललक बाजार व्यवस्था ने पैदा की उसने अन्ना के आंदोलन से पहले मिडिया के भीतर भ्रष्ट्राचार की एक ऐसी लकीर बनायी जो अपने आप में सत्ता भी बनी और सत्ता चलाने वालो के साथ खडे होकर खुद को सबसे विश्वनिय मानने भी लगी । लेकिन अन्ना के आंदोलन ने झटके में मिडिया की उस विश्वनियता की परिभाषा को पलट दिया जिसे आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन सिंह लगातार गढ रहे थे । विश्वनियता की परिभाषा बदली तो सरकार एक नही कई मुश्किलो से घिरी । उसे मीडिया को सहेजना है। उसे अन्ना टीम को कटघरे में खड़ा करना है । उसे संसदीय लोकतंत्र का राग अलापना है। उसे लाभ उठाकर विपक्ष को मात देने की सियासत भी करनी है। उसने किया क्या?
मीडिया से सिर्फ अन्ना नहीं सरकार की बात रखने के कड़े संकेत दिये। लेकिन इस दौर में सरकार इस हकीकत को समझ नही पा रही है कि उसे ठीक खुद को भी करना होगा । प्रणव मुखर्जी न्यूयार्क में अगर प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद यह कहते है कि दुर्गा पूजा में शामिल होने के लिये उन्हें 27 को बंगाल पहुंचना जरुरी है और दिल्ली में पीएम से मुलाकात संभव नहीं हो पाती इसलिये मुलाकात के पीछे कोई सरकार का संकट ना देखे । तो समझना यह भी होगा कि मीडिया की भूमिका इस मौके पर होनी कैसी चाहिये और हो कैसी रही है। और सरकार का संकट कितना गहरा है जो वह मीडिया का आसरे संकट से बचना चाह रही है । यानी पूरी कवायद में सरकार यह भूल गयी कि मुद्दे ही सरकार विरोध के है । आम लोग महंगाई से लेकर भ्रष्ट्राचार मुद्दे में अपनी जरूरतों की आस देख रहे हैं । ऐसे में जनलोकपाल का आंदोलन हो या बीजेपी की राजनीतिक घेराबंदी वह सरकार का गढ्डा खोदेगी ही । तो क्या मनमोहन सिंह के दौर में राजनीति से लेकर मीडिया तक की परिभाषा गढ़ती सरकार अपनी ही परिभाषा भूल चुकी है । और अब वह मीडिया को बांधना चाहती है। लेकिन इन 36 बरस में कैसे सरकार और मीडिया बदले है इसपर गौर कर लें तो तस्वीर और साफ होगी । उस दौर में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा चापलूसो ने कहा । अब अन्ना टीम की एक स्तम्भ ने अन्ना इज इंडिया और इंडिया इज अन्ना कहा । उस वक्त इंडिया दुडे के दिलिप बाब ने जब इंदिरा गांधी से इंटरव्यू में कुछ कडे सवाल पूछे तो इंदिरा ने यहकहकर जवाब नहीं दिया कि इंडिया दुडे तो एंटी इंडियन पत्रिका है । तब इंडिया दुडे के संपादक अरुण पुरी ने कवर पेज पर छापा । इंदिरा से इंडिया एंड एंटी इंदिरा इज एंटी इंडिया । और वहीं से इंडिया दुडे ने जोर पकडा जिसने मिडिया को नये तेवर दिये । लेकिन अब 17 अगस्त को जब संसद में पीएम मनमोहन सिंह ने अन्ना के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा बताया तो कोई यह सवाल नहीं पूछ पाया कि अगर अन्ना इज इंडिया कहा जा रहा है तो फिर सरकार का एंटी अन्ना क्या एंटी इंडियन होना नहीं है । असल में 36 बरस पुराने ढोल खतरनाक जरुर है लेकिन यह कोई नहीं समझ पा रहा कि उस ढोल को बजाने वाली इंडिरा गांधी की अपनी भी कोई अवाज थी। और इंदिरा नहीं मनमोहन सिंह है। जो बरसों बरस राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद की लाइब्रेरी अक्सर बिजनेस पत्रिकाओ को पढकर ही वक्त काटा करते थे । और पडौस में बैठे पत्रकार के सवालो का जवाब भी नहीं देते थे । यह ठीक वैसे ही है जैसे 15 बरस पहले जब आजतक शुरु करने वाले एसपी सिंह की मौत हुई तो दूरदर्शन के एक अधिकारी ने टीवीटुडे के तत्कालिक अधिकारी कृष्णन से कहा कि एसपी की गूंजती आवाज के साथ तो हेडलाईन का साउंड इफैक्ट अच्छा लगता था। लेकिन अब जो नये व्यक्ति आये हैं उनकी आवाज ही जब हेडलाइन के घुम-घडाके में सुनायी नहीं देती तो फिर साउंड इफैक्ट बदल क्यो नहीं देते । और संयोग देखिये आम लोग आज भी आजतक की उसी आवाज को ढूंढते है क्योंकि साउंड इफैक्ट अब भी वही है। और संकट के दौर में कांग्रेस भी 36 बरस पुराने राग को गाना चाहती है।
Wednesday, October 5, 2011
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सत्ता-संगठन का बीजेपी पाठ |
किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता संगठन के आसरे मिलती है या फिर संगठन ही सत्ता के आसरे खड़ा होता है। किसी भी राजनीतिक दल की सियासी जमीन उसके खडे मुद्दों से बनती है या फिर दूसरे राजनीतिक दलों के मुद्दों पर राजनीति कर सियासी जमीन बनायी जा सकती है। दरअसल, यह दो ऐसे सवाल हैं जो बीजेपी को अंदर से परेशान किये हुये हैं। क्योंकि बीजेपी का जो रास्ता 1980 से शुरु होता है और वह 1998 में सत्ता मिलने बाद एकदम पलट जाता है। और 1998 से जो रास्ता शुरु होता है, वह 2011 में 1980 और 1998 से इतर पार्टी को ही सत्ता मान कर एक नयी दिशा में चलने की बैचेनी दिखाने लगता है। तो बिना सत्ता बीजेपी में प्रधानमंत्री की रेस का मतलब है क्या। यह समझने के लिये बीजेपी के ही पन्नों को पलटना जरुरी है। 1998 तक बीजेपी को संभालने और संगठन को मुद्दों के आसरे बढ़ाने के लिये अटल बिहारी वजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी,भैरों सिंह शेखावत और मुरली मनोहर जोशी लगे रहे। और इसी दौर में बीजेपी संगठन के तौर पर मजबूत हुई। लेकिन 1998 में सत्ता मिलते ही बीजेपी के हर चेहरे ने मान लिया की अब सत्ता संभालना ही सबकुछ है। और पार्टी संगठन में भी होड सत्ता संभालने की ही मची।
इसलिये जो चेहरे सरकार से जुडे उन्हे पार्टी संगठन संभाले किसी भी पद वाले कार्यकर्ता से बड़ा बीजेपी नेता माना गया। यहां तक कि सत्ता संभाले मंत्रियों की ठसक के आगे बीजेपी के अधयक्ष की भी नहीं चली। इसलिये 1998 से 2004 तक ,जबतक सत्ता रही, इस दौर में जो भी बीजेपी अध्यक्ष बना उसकी हैसियत और उसका संघर्ष अध्यक्ष को लेकर पार्टी आफिस में पावर सेंटर बनने में ही गुजरा।
अगर एक कुशाभाउ ठाकरे को छोड दे तो बंगारु लक्ष्मण,जेना कृष्णमूर्ती और वैंकया नायडू ने बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर यही चाहा कि उन्हें भी कोई मंत्री की तरह तरजीह दे। कुशाभाउ का संकट यह रहा कि वह बीजेपी में आरएसएस के गुण डालने में संघर्ष करते रहे। जबकि बाकि तीन संघ की पढ़ाई करके अध्यक्ष बने लेकिन अध्यक्ष बनते ही इन्होंने संघ की समझ में राजनीतिक सत्ता का पाठ पढने और भोगने में वक्त गुजारा। तो पहला पाठ बीजेपी ने यही पढ़ा कि अगर सत्ता मिल जाये तो संगठन देखने-बनाने की जरुरत होती नहीं, वह खुद-ब-खुद बन जाता है। लेकिन 2004 में सत्ता जाते ही एक दूसरे पाठ की शुरुआत हुई। वाजपेयी को लगा कि पीएम बनने के बाद उनका कद पार्टी से बड़ा हो गया है तो उन्होने 2004 में मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान यह कहकर हंगामा मचाया कि अब रिटायर होने का वक्त आ गया है।
वहीं सत्ता का दूसरा चेहरा पार्टी का अध्यक्ष पद सत्ता गंवाने के बाद क्यों नहीं बनाया जा सकता है,यह सोच लालकृष्ण आडवाणी में पनपी। तो उन्होंने बिना देर किये 2004 में बीजेपी का अध्यक्ष पद हड़पा। यानी जिस आडवाणी के लिये 1998 से 2004 तक बीजेपी को विकसित करना मायने नही रखा। आरएसएस के उठाये मुद्दे तो दूर संघ के स्वंयसेवक भी बेमानी हो गये। (नार्थ इस्ट में 4 स्वयंसेवकों की हत्या पर संघ ने आडवाणी से कार्रवाई करने को कहा लेकिन आडवाणी बतौर गृहमंत्री सत्ता के गैर संघी मिजाज के लिये खमोश हो गये ।) उसी आडवाणी के लिये बीजेपी अध्यक्ष का पद अपने कद और अपनी साख के लिये जरुरी हो गया। तब बीजेपी ने दूसरा पाठ पढ़ा कि बीजेपी के अध्यक्ष का मतलब पार्टी का पावर सेंटर होता है। यानी संगठन तत्व वहा से भी गायब।
इस पावर सेंटर का राज्यों के बीजेपी मुखियाओं से बढ़कर कैसे दिखाया हताया जा सकता है, इसकी मशक्कत राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरु की। और उनका पहला प्रयोग झारखंड को लेकर बेहद सफल भी हुआ। जहां सत्ता का मतलब भ्रष्टाचार की लकीर को दिल्ली में बीजेपी दफ्तर में अध्यक्ष के कमरे तक कैसे खींची जा सकती है, इसे राजनाथ ने अर्जुन मुंडा के जरीये खींच कर बताया । तो बीजेपी ने तीसरा पाठ अध्यक्ष की सत्ता का पढा जिसकी पहल बीजेपी शासित राज्यो को दिल्ली के अनुकुल कर सकती है । और इस प्रक्रिया में पार्टी संगठन या मुद्दो को लेकर सत्ता में पहुंचने या सत्ता में दिखायी देने की ललक ने बीजेपी के उन चेहरो को राष्ट्रीय नेता बना दिया जो 1998 से 2004 के दौर में केन्द्र में मंत्री रहे । यानी बीजेपी में अध्यक्ष रहे नेताओ के बाद झटके में उन चेहरो ने पार्टी या संगठन के लिये मु्द्दो के आसरे काम करना ही बंद कर दिया जो मंत्री रहे थे । और इन्होने ही खुद को दूसरी कतार का नेता भी माना और राष्ट्रीय नेता की स्वयं-भू पहचान लिये देशभर में आज घूमते है।
अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, शहनवाज हुसैन, जसंवत सिंह, अंनत कुमार सरीखे बीजेपी के दर्जनो चेहरो के
नाम लिये जा सकते है ,जो देश भर में किस भी मुद्दे पर राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रतिक्रिया या भाषण देने के लिये जाने जाते हैं। तो चौथा पाठ बीजेपी ने राष्ट्रीय नेता होने और कहलाने के तरीके का पढ़ा। चूंकि राष्ट्रीय पहचान किसी की बची नहीं तो राष्ट्रीय पहचान को 1925 से ढोते आरएसएस ने अपनी पहचान का तमगा बिजेपी अध्यक्ष की छाती में ठोंका। और समूची बीजेपी में ऐसा भी कोई चू-चपड नहीं कर सका जो लगातार सत्ता के खातिर दिल्ली में संघ से बीजेपी को दूर कर बीजेपी के कांग्रेसीकरण की दिशा में जाते रहे। तो दिल्ली की छाती पर संघ ने नीतिन गडकरी को बैठा कर पांचवा पाठ साधा कि राष्ट्रीय पहचान सिर्फ आरएसएस की है। और राष्ट्रीय नेता का मुखौटा लगा कर घुमते किसी भी बीजेपी नेता की इतनी हैसियत नहीं कि वह संघ को हाशिये पर ढकेल सके। इन परिस्थितियों में चलती-गिरती बीजेपी के सामने जब सड़क से उठते आंदोलनों ने कांग्रेस के संकट या कहे मनमोहन सरकार मुश्किलो को बढ़ाया तो बीजेपी ने मिचमिचाते हुये आंखें खोली। बीजेपी कुछ समझती उससे पहले ही संघर्ष-सत्ता के अनुभवी आडवाणी सबसे पहले जागे और खुद को सबसे पहले ही सत्ता की लालसा में पीएम का उम्मीदवार बना बैठे।
लेकिन इस पाठ को बीजेपी पढ़े उससे पहले ही नरेन्द्र मोदी ने एक नया पाठ बीजेपी को पढ़ाया। और छठा पाठ बीजेपी ने पढ़ा या नहीं लेकिन यह पाठ समूची बीजेपी को समझ में आ गया कि सत्ता तक पहुंचने के लिये जो रसद संघ और कारपोरेट से चाहिये, वह कांग्रेस का खांटी विकल्प बनकर ही जुगाड़ी जा सकती है। और नरेन्द्र मोदी ने मौलाना बनने से इंकार कर और 2002 के दंगों को जिन्दा रखने के जिन तरीको को अपने सियासी उपवास में दिखाया, उसने एक तरफ जहां यह संकेत दे दिये कि आरएसएस आडवाणी को चाहे खारिज कर दें लेकिन मोदी को खारिज नहीं कर सकता। वहीं मोदी ने वाईब्रेंट गुजरात के मंच पर मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स के कारपोरेट कर्णधारो [ अंबानी बंधु,टाटा,जेवी एस रेड्डी,रुईया ] को जमाकर जब उन्हीं से यह बुलवा दिया कि मोदी में पीएम बनने का एलीमेंट है तो फिर आडवाणी समेत समूची बीजेपी को भी समझ में आया कि मोदी अब नेता नहीं मुद्दा हैं। लेकिन इन सात पाठ को पढ़ते पढ़ते बीजेपी कहां है और कहां चली गई, इस पर हर तरफ खामोशी ही बरती गई।
क्योंकि तीन दशक पहले मुद्दों को खड़ा कर सत्ता तक पहुंची बीजेपी ने नया पाठ यह भी पढ़ा कि मुद्दों को लेकर उसके संघर्ष को सरोकार की मान्यता मिलती नहीं है और ऐसे में जमे जमाये मुद्दो पर अपनी सियासी बिसात बिछा कर शार्टकट की सत्ता का भभका पैदा किया जा सकता है। लेकिन 180 डिग्री में घुम चूकी इस राजनीति का कौन सा छोर सही है संयोग से यही बीजेपी की मुश्किल भी है और वर्तमान की ताकत भी । क्योकि बीजेपी अध्यक्ष गडकरी हो या लोकसभा-राज्यसभा में बीजेपी के प्रतिपक्ष के नेता सुषमा स्वराज या फिर अरुण जेटली या फिर एनडीए के नेता आडवाणी हो या गुजरात के सीएम मोदी और तो और आरएसएस को साधे हुये बीजेपी के आधे दर्जन नेता लग सभी को रहा है कि सत्ता मिलेगी तो पीएम वह क्यो बन सकता । और संयोग से पीएम पद का कोई हकदार चौबिसो घंटे सातो दिन राजनीति करता नहीं । सभी के अपने अपने बाजारानुकुल धंधे है जिसके आसरे हर कोई अपनी अपनी मार्केटिंग में व्यवस्त है । ऐसे में अगर सत्ता पाये बगैर हर कोई पीएम बनने का ख्वाब संजोय है तो दिल्ली से लेकर हर जिले में बीजेपी का छोटा-बडा कार्यकर्ता बिना एक राष्ट्रीय नेता के सत्ता पाने का ख्वाब संजोये हुये है ।
और संघ की मुश्किल है कि यह सबकुछ मदहोशी में नहीं बल्कि होशो-हवास में बीजेपी के भीतर एक सोच के तहत हो रहा है ।
Saturday, October 1, 2011
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मनमोहन-चिदंबरम की बीस बरस की जोड़ी की इकनॉमिक्स तले देश का बंटाधार |
चिदंबरम का मतलब इस वक्त महज 2जी घोटाले में फंसे नेता का कुर्सी बचाना भर नहीं है। बल्कि मनमोहन सिंह के उस खेल का बचना भी है जो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के आसरे देश में बीते 20 बरस से मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी खेलती आ रही है। आर्थिक सुधार की जो लकीर मनमोहन सिंह ने 1991 में बतौर वित्त मंत्री बनकर शुरु की, अगर अब के दौर में उसे बारिकी से देखें तो 2004 में चिदंबरम ने उन्हीं नीतियों के कैनवास को मनमोहन सिंह की अगुवाई में और व्यापक किया। देश में खनन और टेलीकॉम को निजी कंपनियो के जरीये खुले बाजार में ले जाने का पहला खेल बीस बरस पहले नरसिंह राव की सरकार के दौर में ही शुरु हुआ। उस वक्त मनमोहन सिंह अगर वित्त मंत्री थे तो चिदंबरम वाणिज्य राज्य मंत्री के तौर पर स्वतंत्र प्रभार देख रहे थे। उस दौर में आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों तले भारतीय आर्थिक नीतियां जिस तेजी से करवट ले रही थी और सबकुछ खुले बाजार के हवाले प्रतिस्पर्धा के नाम पर किया जा रहा था, उसमें पहली बार सवाल सिक्यूरटी स्कैम के दौरान खड़ा हुआ और पहली कुर्सी चिदंबरम की ही गई थी। उन पर फैयरग्रोथ कंपनी के पीछे खड़े होकर शेयर बाजार को प्रभावित करने का आरोप लगा था।
लेकिन खास बात यह भी है कि उस वक्त मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री चिदंबरम की वकालत की थी। और जुलाई 1992 में गई कुर्सी पर दोबारा फरवरी 1993 में चिदंबरम को बैठा भी दिया था। अगर अब के दौर में चिदंबरम पर लगते आरोपों तले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल देखें तो अठारह बरस पुराने दौर की झलक दिखायी दे सकती है। क्योंकि वित्त मंत्री रहते हुये चिदंबरम ने जिन जिन क्षेत्रों को निजी कंपनियों के लिये और मनमोहन सिंह ने खुली वकालत की, उसकी झलक शेयर बाजार से लेकर खनन के क्षेत्र में निजी कंपनियों की आई बाढ़ समेत टेलिकॉम और बैकिंग प्रणाली को कारपोरेट घरानों के अनुकूल करने की परिस्थितियों से भी समझा जा सकता है। चिदबरंम ने आर्थिक विकास की लकीर खिंचते वक्त हमेशा सरकार को बिचौलिये की भूमिका में रखा। मुनाफे का मंत्र विकसित अर्थव्यवस्था का पैमाना माना। कॉरपोरेट और निजी कंपनियो के हाथों में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर तक को बंधक बनवाया। यानी नब्बे के दशक तक जो सोच राष्ट्रीय हित तले कल्याणकारी राज्य की बात कहती थी, उसे बीते बीस बरस में मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी ने निजी कंपनियो के मुनाफे तले राष्ट्रीय हित का सवाल जोड़ दिया।
चिदबरंम ने इन बीस बरस में साढ़े तेरह बरस सत्ता में गुजारे। जिसमें से साढ़े बारह बरस मनमोहन के साथ रहे। लेकिन जब सत्ता में नहीं थे तब भी विकास को लेकर जिन निजी कंपनियों के साथ चिदंबरम खड़े हुये उसके अक्स में भी चिदबरंम की इकनॉमी को समझा जा सकता है। दिवालिया हुई अमेरिकी कंपनी एनरॉन की खुली वकालत चिदंबरम ने की। और समूचे देश में जब एनरॉन का विरोध हुआ तब भी दोबारा दाभोल प्रोजेक्ट के नाम से एनरान को दोबारा देश में लाने की वकालत भी चिदंबरम ने ही की। ब्रिटेन की विवादास्पद कंपनी वेंदाता को उड़ीसा में खनन के अधिकार दिये जाने की खुली वकालत भी चिदंबरम ने की। निजी हाथो में खनन के लाइसेंस को लेकर सवाल उठने पर चिदबरंम यह कहने से नहीं चुके कि देश की खनिज संपदा का यह कतई मतलब नहीं है कि उसे खुले बाजार में बेचा न जाये। या फिर सरकार खनन के जरिये कमाई ना करें।
असल में सूचना तकनीक के विस्तार के दौर में टेलिकॉम को लेकर भी चिदबरंम उसी रास्ते को पकड़ना चाहते थे जिस रास्ते कारपोरेट सेक्टर मुनाफा बनाते हुये देश में टेलिकॉम का इन्फ्रास्ट्रक्चर खुद ही प्रतिस्पर्धा के आधार पर विकसित करे। इसलिये मारन से लेकर ए राजा तक के दौर में कच्ची पटरी पर चलती टेलिकॉम नीति में जब जब सवाल सरकार की भागेदारी का आया तब तब वित्त मंत्री के तौर पर चिदंबरम ने टेलिकॉम के लाइसेंस को खुले बाजार के हवाले करने पर ही जोर दिया।
दरअसल 2 जी लाईसेंस की कीमत को कौड़ियों के मोल निजी या कहे अपने चेहते कारपोरेट को देने से पहले उन परिस्थितियों को भी समझना होगा, जहां सरकारी बीएसएनएल को आगे बढ़ने से रोका गया। ऐसा क्या रहा कि नब्बे के दशक तक जब देश में जब सिर्फ बीएसएनएल का ही फोन चलता था और गांव से लेकर किसी भी सुदुर इलाके में सिर्फ सरकारी फोन लाइन ही काम करती थी, झटके में वह हाशिये पर ढकेल दी गयी। इसमें दो मत नहीं नहीं बीएसएनएल को चूना लगा कर निजी टेलिकॉम कंपनियों को आगे बढ़ाने का काम एनडीए के दौर में भी हुआ। और सुनील मित्तल से लेकर अंबानी बंधु और और यूनिटेक सरीखे रियल इस्टेट की कंपनियां भी टेलिकाम के क्षेत्र में कूद कर आगे बढ़ गयी, जबकि सरकारी टेलिकॉम विभाग को लगातार डंप किया जाता रहा।
असल में कॉरपोरेट घरानों या निजी कंपनियों के आसरे आर्थिक विकास का जो खेल इन बीस बरस में लगातार चला अगर उसकी नींव को देखे तो सबसे बड़ा सवाल उस पूंजी की आवाजाही का है जो बेरोक-टोक हवाला और मनी-लैडरिंग के जरीये देश में आती रही। इसेलेकर कभी सवाल इसलिये नहीं खड़े हुये क्योंकि बदलते भारत में मध्यम वर्ग को पहली बार चकाचौंध का जायका भी मिल रहा था और समूची आर्थिक प्रणाली भी नयी पीढी को अपने हिसाब से ढाल रही थी। लेकिन तीन बरस पहले आर्थिक मंदी ने जब पूंजी पर सीधा हमला किया और उपभोक्ता बनाने की थ्योरी झटके में पारंपरिक बचत करने की तरफ बढ़ी, तब बैंकिंग प्रणाली से लेकर कालेधन और भ्रटाचार को लेकर वह सवाल उठे जिसे 1991 में ही आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह दबा चुके थे। और परतों को जब खोला गया तब देश के सामने शेयर बाजार के सेंसेक्स के पीछे विदेशी निवेश। कंपनियों के बढ़ते शेयरों की कीमत के पीछे हवाला और मनी-लॉडरिंग का मॉरिशस रास्ते और 2 जी लाईसेंस पाने वालो में यूएई की कंपनी एतिसलात और नार्वे का कंपनी टर्नर के साथ यूनिटेक से लेकर स्वान का खेल सामने आया। ऐसे मौके पर अगर 10 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट या निचली अदालत का फैसला कटघरे में चिदंबरम को खड़ा करती है तो आगे का सवाल मनमोहन सिंह का हो या ना हो लेकिन बड़ा सवाल यही होगा कि क्या आर्थिक सुधार की उसी नीति पर आगे भी देश चलेगा जिस रास्ते को बीस बरस पहले मनमोहन-चिदबरंम की जोड़ी ने पकड़ा था।