रामदेव ने दस्तक देकर दरवाजा खोला और अन्ना टीम दोराहे पर आ खड़ी हुई। यह दोराहा सड़क का नहीं बल्कि सत्ता के लिये प्यादा बनने और खुद को वजीर बनाने का । दोराहे की प्यादे वाली एक राह में से भी तीन राह निकली। और रामदेव की दस्तक से पहले जो अन्ना टीम एकजुट नजर आ रही थी, असल में एकजुटता के दौर में भी हां हर कोई आंदोलन को लेकर खुद के लिये परिभाषा लगातार गढ़ रहा था। लेकिन रामदेव की दस्तक ने हर किसी की मंशा को सतह पर ला दिया । क्योंकि रामदेव खुद लड़ाई भी अपने हिसाब-किताब के गुणा-भाग वाले झोले तले ही लड़ रहे हैं। इसलिये जैसे ही अन्ना-रामदेव मुलाकात में जमीनी मुद्दे और जमीन के ऊपर खड़े वैचारिक मुद्दे टकराये तो दोनो को लगा कि उनकी सीमाएं ही उनकी ताकत है। रामदेव ने अपनी सीमा अपनी भगवा वस्त्र में छुपायी तो अन्ना ने भ्रष्टाचार की सत्ता को तोड़ने के लिये सत्ता से ही गुहार में अपनी सीमा दिखा दी। और जैसे ही अन्ना ने सीमा तय की वैसे ही अन्ना टीम के सदस्यों ने अपने अपने संघर्ष की परिभाषा भी गढ ली। रामदेव जानते है उनकी महाभारत कांग्रेस से ही है। और महाभारत के लिये कोई अलग से रामलीला मैदान बनाने का मतलब है दोबारा मात खाना। तो बीजेपी के मैदान पर खड़े होकर कांग्रेस को मात दी जा सकती है। इसलिये वह अन्ना के इस फैसले के साथ खड़े हो ही नहीं सकते कि कांग्रेस-बीजेपी दोनों को छोड़कर अपना मंच बनाकर चुनाव मैदान में कूदे। क्योंकि जैसे ही संघर्ष का अलग रास्ता राजनीतिक दिशा में जायेगा उसका सबसे बड़ा घाटा बीजेपी को ठीक वैसे ही होगा जैसे अन्ना-रामदेव के संघर्ष का राजनीतिक तौर पर सबसे ज्यादा लाभ बीजेपी को ही होगा। इसलिये रामदेव ने अन्ना टीम की उस कड़ी को पकड़ा, जिसके अंदर गुस्सा कांग्रेस को लेकर हो। वह कमजोर कड़ी किरण बेदी निकलीं क्योकि दिल्ली का पुलिस कमिशनर ना बन पाने का मलाल किऱण बेदी में आज भी है और कांग्रेसी सत्ता के राजनीतिक खेल को ही वह इसके लिये गुनाहगार भी मानती है । किरण बेदी के गुस्से को जगह बीजेपी की छांव तले मिलती है। तो रामदेव ने किरण बेदी के जरिये अन्ना हजारे के साथ बैठक तय की। यानी पहली बार अन्ना हजारे के साथ परछाई की तरह रहने वाले अरविन्द केजरीवाल इस बैठक को सेट करने में नहीं थे। बैठक के दौरान नहीं थे। वहीं रालेगण-सिद्दी से
लेकर हरिद्वार तक में जिस तरह बीजेपी-कांग्रेस के राजनेताओं ने इसी दौर में अन्ना और रामदेव के संघर्ष को मान्यता देते हुये अपनी बिसात बिछायी असर उसी का हुआ कि सियासत के प्यादे बनकर सौदेबाजी में संघर्ष को समेटने की कोशिश शुरु हो गई।
बैठक से पहले रालेगण में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और तत्कालीक केन्द्रीय मंत्री विलास राव देशमुख ने बिसात बिछायी। तो हरिद्वार में बीजेपी और संघ ने। चूकि इस बीच दिल्ली में अन्ना टीम 14 केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की चार्जशीट तैयार कर रही थी और सबसे पहला नाम विलासराव देशमुख का ही था। तो विलासराव की रालेगण और पुणे में बैठी चौकड़ी सक्रिय हुई। जिसने अन्ना को यही समझाया कि पहले महाराष्ट्र की लड़ाई लड़नी जरुरी है। महाराष्ट्र में लोकायुक्त की नियुक्ति प्राथमिकता
होनी चाहिये। जाहिर है अन्ना के संघर्ष की नींव महाराष्ट्र में रही है तो अन्ना ने ठीक उसी वक्त को महाराष्ट्र यात्रा के लिये दे दिया जो वक्त दिल्ली में अन्ना टीम हिमाचल समेत देश यात्रा के लिये तय कर रही थी। विलासराव देशमुख का निशाने ने दोहरा काम किया। एक तरफ अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहाण को ष्टाचार के निशाने पर लेकर जैसे ही लोकायुक्त का सवाल उठाया वैसे ही दिल्ली में एक बार फिर विलासराव देशमुख यह कहते हुये सक्रिय हुये कि उनके कार्यकाल में कभी
भ्रष्टाचार का मामला तो इस तरह नहीं उठा। फिर अन्ना ने दिल्ली पहुंचकर 14 मंत्रियों की उस फाइल को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया, जिसमें पहला नाम विलासराव देशमुख का था और तय हुआ था कि अन्ना इस फाइल को जनता के सामने जारी कर प्रधानमंत्री से जवाब मांगेंगे कि जब उनके मंत्रिमंडल में 14 भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री है तो फिर जिम्मेदारी कौन लेगा। चूंकि इस बार हर मंत्री सारा कच्चा-चिट्टा सिलसिलेवार तरीके से दर्ज किया गया था। लेकिन नाम जारी नहीं हुये तो सबसे बडी राहत मनमोहन सिंह को ही मिली और सबसे होशियार खिलाड़ी के तौर पर विलासराव का कद यहां भी बढ़ा। खास यह भी है 10 जनपथ के करीबी विलासराव देशमुख जो अन्ना टीम के भ्रष्टाचार के आरोपों की फेरहिस्त में सबसे उपर है अब वही दिल्ली में एकबार फिर महाराष्ट्र के लायक सीएम होने का दांवा भी ठोंक रहे हैं। और अन्ना हजारे महाराष्ट्र में
विलासराव के अनुकुल बिसात बिछाने के लिये हर राजनीतिक नेता से मिलकरपृथ्वीराज को कटघरे में खड़ा भी कर रहे हैं।वहीं दूसरी तरफ बीजेपी और संघ के वरिष्ठ और प्रभावी नेता-स्वयसेवकों ने रामदेव को राजनीति का वही ककहरा पढ़ाया जिसमें अंगुलियों के मिलने से मुठ्ठी बनती है। जो संघर्ष को पैना कर सकती है। और अलग अलग राह पकडने से अंगुली टूट जाती है। जिससे संघर्ष भी भोथरा साबित होता है। रामदेव समझ गये कि उनका संगठन दवाई बेचने और योग सिखाने वालो के जमघट से आगे जाता नहीं लेकिन संघ का संगठन राजनीतिक दिशा देने में माहिर है। तो पहला सौदा राजनीतिक कवायद की जगह जागृति फैला कर कांग्रेस और केन्द्र सरकार को देश भर में कटघरे में खड़ा करने का ही रहा । और अन्ना को भी उस चुनावी रास्ते पर जाने से रोकने की बात हुई। जहां अन्ना निकल पडे तो बीजेपी का समूचा लाभ घाटे में बदल सकते हैं।
यह पूरा खेल अन्ना की कोर कमेटी की बैठक में कुछ इस तरह खुला कि रामदेव और अन्ना की ही तरह संघर्ष को लेकर अपनी अपनी परिभाषा गढते सदस्य एक दूसरे पर सियासत के प्यादे बनकर कूद पड़े। अन्ना ने हिमाचल प्रदेश में राजनीतक कवायद का जैसे ही विरोध किया, किरण बेदी ने रामदेव की लाइन पकड़ी और अलग से राजनीतिक मंच या चुनाव मैदान में कूदने का खुला विरोध किया। काजमी ने राजनीतिक तौर पर लड़ाई को अपने राजनीतिक मुनाफे का हथियार बनाया । मुलायम सिह यादव के साथ दिल्ली से लखनऊ सफर के बाद काजमी अन्ना टीम में रहते हुये भी मुलायम के प्यादे होकर संघर्ष की सौदेबाजी करने लगे। चूंकि भ्रष्टाचार की लकीर में मुलायम के खिलाफ भी अन्ना टीम लगातार दस्तावेज जुगाड़ रही है जिसके विरोध का नया तरीका सोदेबाजी के लिये बैठक में किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल के टकराव को मोबाइल में रिकार्ड कर किया। वहीं बैठक में यह भी खुला कि कोर कमेटी के एक 'कवि' सदस्य बीजेपी के उन मुख्यमंत्रियों को बचाने में लगे रहे जिनके लाफ अन्ना टीम कार्रवाई करने में लगी । उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री निशंक और मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज चव्हाण के लिये काम करने वाले इस सदस्य पर "दलाली" करने से आरोप भी लगे।
असल में इस बैठक ने अन्ना टीम के उस सच को सामने ला दिया जो जनलोकपाल के आंदोलन के दौर में अपने आप बनते गया। जिसने मंच संभाला, जिसने तिरंगा थामा, जो सरकार से बातचीत के लिये निकले, सभी कोर कमेटी के सदस्य भी बन गये और देश भर में अन्ना टीम का चेहरा भी। चूकि देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के आक्रोश का कोई चेहरा इससे पहले था नहीं । हर शहर में बनते जंतर-मंतर और वहा जमा होते लोग वैसे ही संघर्ष करने वाले फौजी थे जिनका अपना कोई चेहरा होता नहीं। और चेहरा सियासत का होता है तो चेहरा बनने की कवायद में हर कोई संघर्ष करता तो दिखा लेकिन एक वक्त के बाद जब चेहरे बडे हो गये और संघर्ष छोटा तो किसी ने अपने संघर्ष की सौदेबाजी की । किसी ने संघर्ष को राजनीतिक प्यादा बना लिया तो कोई संघर्ष को जिलाये रखने के संघर्ष में जुटा। जो आखिरी कतार संघर्ष को करते रहना चाहती है उसके सामने अब दो ही रास्ते हैं। एक वह अन्ना हजारे के हर संघर्ष [चाहे महाराष्ट्र में ही सीमित क्यों ना हो ] में अपने आप को खपा दें। या फिर संघर्ष के ऐसे रास्ते तैयार करें जहां राजनीतिक विकल्प का सवाल अपने संघर्ष के मुद्दों के जरीये इस तरह खड़ा करते चलें कि अन्ना हजारे को भी महाराष्ट्र की राजनीति में गोते लगाने से अच्छा देश के लिये सुनहरा भविष्य का सपना संजोने के लिये दिल्ली लौटना पड़े। क्योंकि सौदेबाजी और सियासत से पैदा होने वाले संघर्ष को देश का बहुसंख्यक तबका मान्यता देगा नहीं। लेकिन ईमानदारी के साथ किये गये जमीनी संघर्ष से निकला कोई चेहरा देश को मिल सकता है। होगा क्या यह तो भविष्य के गर्भ है। लेकिन इंतजार करना होगा क्योंकि देश ने सियासी सौदेबाजी में रामदेव को भी गंवाया है और अन्ना को भी भटकाया है।
Friday, April 27, 2012
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तो यूं निपटे अन्ना-रामदेव |
Friday, April 20, 2012
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संघर्ष से कार्टून तक |
बंगाल का नया संकट संसदीय राजनीति का वह चेहरा है, जिसे बहुसंख्य तबके ने इस उम्मीद से जीया कि लोकतंत्र आयेगा। लेकिन सत्ता ने उसी जमीन पर अपना सियासी हल चलना शुरु कर दिया जिसने लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ता पाई। अगर बंगाल के सियासी तौर तरीको में बीते चार दशकों को तौलें तो याद आ सकता है कि एक वक्त सिद्रार्थ शंकर रे सत्ता के हनक में नक्सलबाडी को जन्म दे बैठे। फिर नक्सलबाडी से निकले वामपंथी मिजाज ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम तक जो लकीर खिंची उसने ममता के मां,माटी मानुष की थ्योरी को सत्ता के ड्योढी तक पहुंचा दिया। लेकिन इन सियासी प्रयोग में वामपंथ की एक महीन लकीर हमेशा मार्क्स-एंगेल्स को याद करती रही। शायद इसीलिये तीन दशक की वामपंथी सत्ता को उखाडने के लि ममता की पहल से कई कदम आगे वामपंथी बंगाल ही चल रहा था जिसे यह मंजूर नहीं था कि कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिक एंगेल्स को पढ कर वामपंथी सत्ता ही वामपंथ भूल जाये। लेकिन सत्ता पलटने के बाद वाम बंगाली हतप्रभ है कि अब तो कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ही सत्ता को बर्दास्त नहीं है। वाम विचार से प्रभावित अखबार भी सत्ता को मंजूर नहीं हैं। जिस अतिवाम के हिंसक प्रयोग को वामपंथी सत्ता की क ट के लिये मां, माटी, मानुष का नारा लगाकर ममता ने इस्तेमाल किया गया उसी अतिवाम के किशनजी का इनकांउटर कराकर ममता ने संकेत दे दिये कि जब संसदीय सियासत ही लोकतंत्र का मंदिर है तो इसके नाम पर किसी की भी बलि दी ही जा सकती है। इस कड़ी में अस्पतालों में दुधमुंहे बच्चों की मौत के लिये भी पल्ला झाड़ना हो या फिर बलात्कार के मामले में भुक्तभोगी को ही कटघरे में खड़ा करने का सत्ता का स्वाद और इन सबके बीच खुद पर बनते कार्टून को भी बर्दाश्त ना कर पाने की हनक।
यह परिस्थियां सवाल सिर्फ ममता को लेकर नहीं करती बल्कि संसदीय चुनाव की जीत में ही समूची स्वतंत्रता,लोकतंत्र और जनता की नुमाइन्दगी के अनूठे सच पर भी सवाल खड़ा करती है। यह सवाल ऐसे हैं, जो किसी भी राज्य के लिये सबसे जरुरी है। क्योंकि इसी के जमीन पर खड़े होकर किसी भी राज्य को विकास की धारा से जोड़ा जा सकता है। या कहें आम आदमी को अपने स्वतंत्र होने का एहसास होता है। लेकिन जब सत्ता का मतलब ही संविधान हो जाये तो फिर क्या क्या हो सकता है यह बंगाल की माली हालत को देखकर समझा जा सकता है। जहा संसदीय राजनीति के जरीये सत्ता बनाये रखने या सत्ता पलटने को ही लोकतंत्र मान लिया गया। और हर आम बंगाली का राजनीतिकरण सत्ता ने कर दिया। उसकी एवज में बीते तीन दशक में बंगाल पहुंचा कहां यह आज खड़े होकर देखा जा सकता है। क्योंकि कभी साढ़े बारह लाख लोगों को रोजगार देने वाला जूट उघोग ठप हो चुका है। जो दूसरे उद्योग लगे भी उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दोबारा उघोगों को देने के बदले सत्ता से सटे दलालों के जरीये व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरों की नजर इस जमीन पर है। और औसतन वाम सत्ता के दौर में अगर हर सौ कार्यकर्त्ता में से 23 कार्यकर्ता की कमाई जमीन थी। तो ममता के दौर में सिर्फ आठ महीनो में हर सौ कार्यकर्ता में से 32 की कमाई जमीन हो चुकी है।
बंगाल का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारीख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर क उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बड़ी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलैक्ट्रिकल की इंडस्ट्री बंगाल में थी। फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए। कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था। जहां लॉकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है। जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है। लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्चरिंग युनिट रोजगार की जरुरत है। लेकिन बंगाल की राजनीति ने नैनो के जरीये किसान की राजनीति को उभार कर यह संकेत तो दिये कि हाशिये पर उत्पादन को नहीं ले जाया जा सकता है लेकिन जो रास्ता पकड़ा उसमें उदारवादी अर्थव्यवस्था के उन औजारों को ही अपनाया जो उत्पादन नहीं सर्विस दें। क्योंकि सर्विस सेक्टर का मतलब है नगद फसल। इसीलिये राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं और शिक्षण सस्थानों का मतलब या उनसे पढ़कर निकलने वाले छात्रों के ज्ञान का मतलब कम्प्यूटर ट्रेनिंग ही ज्यादा हो चला है। इसीलिये कोलकत्ता के कॉलेज स्ट्रीट का मतलब अब किताब, चर्चा या सामाजिक-आर्थिक बदलाव के लिये राजनीति चिंतन नहीं बल्कि बीपीओ का जमघट है। जहा नशा भी है और चकाचौंध भरी थिरकन भी। इसलिये बंगाल में मां,माटी और मानुष नयी परिभाषा भी गढ़ रही है और किसाम-मजदूर का सवाल उठाकर विकास की बाजारु लकीर खींच कर उन्हें खत्म भी किया जा रहा है।
नयी जमीन जिन उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है,जो वाम समझ की परिभाषा तले उत्पादन करते लोगों को कभी नही किया गया है। खेती का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर समूचे बंगाल में आज बी नहीं है। मछुआरों के लिये कभी कोई योजना बनायी नहीं गई।
बुनकरो के हुनर को श्रमिक मजदूर में बदल कर रोजगार देने का तमगा जरुर इस नये दौर में लगाया जा रहा है। अहर बंगाल को सडक से ही नाप लें तो ग्रामीण इलाकों में बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक गायब मिलेगी। बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है। यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्फ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये। खेत की उपज बड़े बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यों में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये,जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है। चूंकि मुनाफा शब्द बंगाल के काले जादू सरीखा हो चला है तो समूची राजनीति ही इस काले जादू को अपना कर पूर्व के छह राज्यों की जिन्दगी बंगाल से जोड़ रही है। ममता अपनी राजनीति को पंख देना चाहती है और सत्ता इस पंख में मुनाफे की सांस अटका रही है। पूर्वी राज्यों में जाने वाला हर सामान बंगाल के सत्ताधारियों की अंटी में फंसे नोटो के लाइसेंस में फंसा है। आम बंगाली इसे देख भी रहा है और आक्रोश भी उपजा रहा है। फिर नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल खड़ा हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह कल वामपंथी थे तो आज कांग्रेस के साथ खड़ी तृणमूल है। जिसने सत्ता में आने के लिये नक्सलवादियों की लकीर को पकड़ा जरुर लेकिन सत्ता पाने के बाद उन नीतियों से परहेज नहीं किया, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही। लेकिन किसान और मजदूर को राजनीतिक सत्ता के पैकेज पर टिकाये रखकर बंगाल की वाम मानसिकता से खुद को जोड़े रखने का फ्राड भी सियासी सौदेबाजी की जरुरत बन गई। यानी बंगाल जिस संघर्ष को बीते चार दशको से आक्सीजन मानता रहा ममता के राज में वही संघर्ष सत्ता का पर्यायवाची बना दिया गया। नया सवाल भी यही है कि 1964 से 1977 तक बंगाल की राजनीति ने किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और 1977 से लेकर 1991 तक बंगाल की सत्ता ने जिस तरह भूमि सुधार से लेकर आम बंगाली के लिये भी सामाजिक मान्यता सामाजिक तौर पर और सत्ता के भीतर भी बनायी रखी । वह 1997 से 2010 तक जिस तेजी से खत्म हुई उसे बदलने के लिये पहली बार 2011 में वाम बंगाल ने जिस सियासत को हवा दी वह सत्ता बरस भर के भीतर ही कागजी कार्टून में बदल गई। लेकिन कार्टून के आसरे सिर्फ ममता को परखना सही नहीं नही होगा ।
जरुरी है बंगाल की उस नब्ज को पकडना जो बीते चार दशको से अपने प्रयोगों के जरीये ही खुद खून भी बहाती है और सत्ता के प्यादो को यह एहसास भी कराती है कि उनकी भोथरे राजनीतिक प्रयोग में भी धार है। शायद इसीलिये सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था। उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार नेनक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा। चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था,बल्कि राजसत्ता के लिये था। सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने इसलिये पकड़ा क्योंकि आम बंगाली ऐसा सोच रहा था और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा जा सकता है, इसे सीपीएम ने माना था। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे वामपंथी यह कहने से नही चूकते कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है। लेकिन नयी परिस्थितयों में ममता की राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर सत्ता के नारे को लगाने से नहीं चूक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों और राजनीतिक सौदेबाजी के ही दायरे में सिमट चुका है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में घूम कर सत्ता के बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार कभी भी नागरिकों को नहीं देखता उसे उपभोक्ताओं की जरुरत होती है। और ममता यह समझ चुकी हैं कि संसदीय राजनीति से बड़ा बाजार इस देश में कुछ है नहीं तो वह नागरिको के कार्टून को बर्दाश्त कर नहीं सकती और सत्ता के लिये खुद को बिना कार्टून बनाये रह नहीं सकती।
Friday, April 13, 2012
Sunday, April 8, 2012
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अब गुंजाइश कहा बची है राजेन्द्र माथुर की |
9 अप्रैल : राजेन्द्र माथुर की पुण्यतिथि
जब राज्य सत्ता ने संसदीय राजनीति के जरिए लोकतंत्र की परिभाषा को बदल दिया। जब संसदीय राजनीति ने सत्ता के लिये आम आदमी से अपने सरोकार को बदल दिया। जब संविधान के जरिए संसद की व्याख्या के बदले संसद के जरिए संविधान हो ही संवारा जाने लगा। तो इस बदलते दौर में मीडिया क्यों अपने को नहीं बदल सका। बीते साठ बरस में हर राजनीतिक प्रयोग के साथ साथ मीडिया या कहें पत्रकारिता ने भी नायाब प्रयोग किये। लेकिन आर्थिक सुधार की हवा में जब बाजार और मुनाफा ही राजनीति के मापदंड तय करने लगे तब मीडिया भी अपने मापदंड बाजार से क्यों आंकने लगीं। और संसदीय राजनीति के भीतर समाया लोकतंत्र ही जब कारपोरेट और निजी कंपनियों की हथेलियो में समा गया तो फिर मीडिया ने झटके में खुद को कारपोरेट या निजी हथेली में तब्दील करना शुरू क्यों कर दिया। जाहिर है यह सवाल राजेन्द्र माथुर के दौर के नहीं हैं।
अगर राजेन्द्र माथुर जी के लेखन को ही परखे तो हर मुद्दे की ओट में उन्होंने भारत को एक रखने या कहे राष्ट्रीयता की समझ तले परिस्थियों को समझा। देश में आपातकाल लगा तो राजेन्द्र माथुर यह लिखने से नहीं हिचके इंदिरा गांधी देश की जड़ों में ही मठ्ठा डालने की भूल कर रही हैं। और जब स्वर्ण मंदिर में सेना घुसी तो नवभारत टाउम्स के मास्टहेड को नीचे कर सबसे उपर हेंडिंग "भारत का भारतावतार " लिखा। लेकिन 1991 के बाद से जो नये सवाल संसद से लेकर सड़क तक पर उठे, या कहें उठ रहे है और जिस तरह लोकतंत्र का पिरामिड बीते दो दशकों में पूरी तरह उलट गया उसमें क्या किसी भी मुद्दे को लेकर कोई संपादक "भारतावतार "लिख सकता है। बारीकी से परखे तो बच्चों की शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सेवा और पीने के पानी से लेकर जीने के तरीके तक पर उस लोकतंत्र का हक नहीं रहा जिसे संसदीय राजनीति के जरिए आम वोटर मानता-समझता रहा। दरअसल संसदीय राजनीति के दायरे में लोकतंत्र की नयी परिभाषा जब पूंजी, मुनाफे और बाजार तले देश की सीमा को तोड़ रही है। कारपोरेट विकास की परिभाषा को कानून का जामा पहनाया जा रहा है।
अपनाते-अपनाते वह इतना आगे निकल चुकी है कि लौटे कैसे उसे नहीं पता।
दूसरी तरफ राजनीतिक दलों के सामने सवाल है कि सत्ता के बगैर उनका योगदान शून्य है तो और सत्ता में आने के लिये पूंजी बनाने, कारपोरेट के मुनाफे में सहयोग और लूट के लिये बाजार खोलने के रास्ते के अलावा कोई थ्योरी है नहीं क्योंकि विकास का आधुनिक मतलब यही है। तो फिर मीडिया भी किसी अलग ग्रह से तो टपकी नहीं तो वह भी मुनाफे के आसरे ही प्रचार-प्रसार कर जीवित रह सकती है। इसलिये उसे सत्ता से विज्ञापन का सहयोग भी चाहिये। कारपोरेट की पूंजी का गठजोड़ भी चाहिये। और प्रचार प्रसार के लिये राजनीतिक दलालों से लेकर मध्यस्थतों का सहयोग भी चाहिये। जिनके पास बाजार में पैठ जमाने का मंत्र है। यानी राजनीति का अर्थशास्त्र बीते 20 बरस में बदल गया और सरोकार की राजनीति खत्म कर उपभोग के साधन को न्यूनतम जरूरत में बदलते हुये देश का पर्यावरण, खेती, पानी और खनिज संसाधन सब कुछ बेचकर उसे नष्ट करने की दिशा में देश बढ़ा, लेकिन मीडिया का अर्थशास्त्र नहीं बदला। पत्रकारीय समझ और मीडिया संस्थानो का विकास भी सत्ता के अर्थशास्त्र पर ही टिका रहा।
अगर बारीकी से अब के दौर में संसदीय चुनाव से लेकर संसद की कार्यवाही और केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों की नीतियों को परखें तो दो सवाल सीधे उठते हैं। पहला बिना बजट [पूंजी] कोई नीति नीति नहीं है। और बिना नीति भी मुनाफा का रास्ता नीतियों को बना देता है। यानी पूंजी हर मर्ज की दवा उस देश में बना दी गई है जहां 80 करोड़ लोगों से कोई सीधा वास्ता पूंजी, मुनाफा या बाजार का अभी तक है ही नहीं। देश उस मुहाने पर आ खड़ा है जहा खेती के 80 फीसदी किसानों को सरकार कोई इन्फ्रस्ट्रक्चर नहीं दे पाती। लेकिन खाद और बीज के लिये कारपोरेट पर निर्भर जरुर कर देती है। और किसान चाह कर भी इस देश में राजनीतिक विकल्प तो दूर राजनीतिक मुद्दा भी नहीं बन पाता। ध्यान दें तो यही हालात मीडिया के भी हैं। सत्ता यहां भी पत्रकार के हाथ में मीडिया की डोर थमाना चाहती नहीं है लेकिन मीडिया के जरिए पत्रकार का बाजारू रास्ता जरूर खोलती है। यहां पत्रकार भी अपने लिये कोई वैकल्पिक अर्थशास्त्र खड़ा नहीं कर पाता जो मीडिया को चला सके और मीडिया को मुनाफे में तब्दील करने के सारे रास्ते सत्ता के उसी अर्थशास्त्र पर जा टिकते हैं जहां पत्रकारीय समझ दम तोड दें। सवाल है राजेन्द्र माथुर की पत्रकारीय समझ का आंकलन इस नयी परिस्थिति में कैसे करें। कैसे मीडिया के दायरे में राष्ट्रीय सवालों के जरिए संसदीय राजनीति को पत्रकार मठ्ठा डालने से रोके और कैसे सत्ता के कार्य में भारतावतार की कल्पना करें जब सत्ता की कीमत चुनावी तंत्र के पीछे खड़े कारपोरेट लगा रहे हों। जब सांसद और विधायक के लिये सत्ता में आने के बाद पहली प्राथमिकता उनकी जीत के पीछे लगे पूंजी को मुनाफे के साथ लौटाने का हो। और चुनावी जीत हार में खबर की कीमत भी लगने लगी हो। क्या खबरों की खरीद-फरोख्त के जरिए पत्रकारीय मूल्य देश के किसी मुद्दे पर बहस की गुंजाईश भी पैदा करते है। फिर संपादक से आगे मीडिया हाउस चलाने या अखबार निकालने वाले ही जब खुद को पहले पत्रकार माने और फिर पत्रकार की सफलता का मतलब उसका मालिक बनना हो जाये तो क्या पत्रकारीय मूल्यो पर बहस की गुंजाईश बचती है । जो गुजाईश होती भी है तो वह राजसत्ता के अर्थशास्त्र तले नतमस्तक होने पर आमादा रहती है। राजेन्द्र माथुर के दौर में न्यूज चैनल नहीं थे लेकिन राजेन्द्र माथुर जो पत्रकारीय चितंन
1965 में नई दुनिया के अपने कालम "पिछला सप्ताह" के जरिए पाठकों को पढने के लिये ठहराया वह ठहराव हर क्षण बदलते खबरो की भागमदौड में भी न्यूज चैनल दर्शकों को ठहरा नहीं पाते हैं। लेकिन 1991 के बाद से आर्थिक सुधार ने जिस तरह सामाजिक सरोकार को भी लाभ-घाटे में तौला और जिस तरह मीडिया की सत्ता पर निगरानी की जगह मीडिया पर निगरानी के लिये एक स्वतंत्र सस्था का सवाल 2012 में उठने लगा उसमें कैसे राजेन्द्र माथुर के दौर की पत्रकारिता को अब के हालात से जोड़े। चीन और पाकिस्तान पर लिखते वक्त अक्सर राजेन्द्र माथुर उनसे जुड़े हर हालात की व्याख्या करने से नहीं चूके। लेकिन अब की समझ अगर व्यापार और विकास के लिये सीमाओं पर सेना के बदले बीजिंग और इस्लामाबाद से आर्थिक संबंध पर जा टिके तो फिर देश का मतलब पत्रकारीय समझ के जरिए क्या लगाया जाये। यह उल्टे हो चुके राजनीतिक आर्थिक पिरामिड को सीधा किये बगैर समझना वाकई नामुमकिन है।
1955 से लेकर 1991 तक जब तक राजेन्द्र माथुर की कलम चलती रही तब तक देश में देश की एकजुटता के साथ मीडिया को लड़ने के लिये राजेन्द्र माथुर सरीखा पत्रकार चाहिये था लेकिन 2012 में तो देश बेचने के लिये निकले बहुराष्ट्रीय कारपोरेट के चंगुल में फंसते जा रहे मीडिया से लड़ने वाला पत्रकार चाहिये। जिसके खिलाफ सत्ता बाद में खड़ी होती है पहले मीडिया ही सत्ता बनकर मठ्ठा डाल देती है। और सत्ता भारत में विकास के भारतावतार होने का जश्न मनाती है। तो क्या मालवा से निकल कर देश को पत्रकारीय दृष्टि से राह दिखाने वाले राजेन्द्र माथुर को अब याद करने का कोई मतलब नहीं है या फिर राजेन्द्र माथुर से आगे की लकीर खींचने की जरूरत अब आ चुकी है।
Monday, April 2, 2012
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सेना के दायरे में सियासी सेंध |
अब सेनाध्यक्ष के तर्क सत्ता को रास आये या नहीं आये लेकिन इस दौर में कुछ नये सवाल जरुर उभर पड़े, जिसने साफ तौर पर बताया कि देश का मिजाज बोफोर्स कांड के बाद पूरी तरह बदल चुका है। 1987 में वीपी सिंह जेब से कागज निकाल कर बोफोर्स के कमीशनखोरों की पहचान को सत्ता में आने के लिये इस्तेमाल करते रहे और राजीव गांधी के सत्ता पलट गयी। लेकिन अब सेनाध्यक्ष के घूस की पेशकश भी संसद के हंगामे में ही सिमट कर रह गयी। तब ईमानदारी का सवाल सेना में बेईमानी की सेंघ लगाने पर भारी पड़ रहा था। लेकिन अब बेइमानी की सेंध कैसे ईमानदारी को आर्थिक विकास की चकाचौंध तले दबा देती है य़ह सेना के भीतर के दाग से भी समझ में आता है जो सिविल क्षेत्र में सेना को बदनाम करते है और देश के विकास की थ्योरी में भी सेना कैसे बेमतलब होती जा रही है यह सामरिक नीति से भी समझा जा सकता है। अफगानिस्तान से लेकर इराक युद्द और अब ईरान संकट से लेकर इजरायल के साथ सामरिक संबंधों के मद्देजनर जो रुख भारत का है उसमे देश के विकास का मतलब बाजारवाद के दायरे में पूंजी का निवेश ही है। यानी माहौल ऐसा रहे जिससे देश में आर्थिक सुधार की हवा बहे इसके लिये राष्ट्रवाद की थ्योरी के मासने बदल चुकी है। इसके लिये सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर संबंध इस दौर में बेमानी हो चुके हैं। इसलिये यह सवाल कितना मौजूं है कि चीन की सेना की सक्रियता भारतीय सीमा पर बढ़ी है और श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान का रुख सेना को लेकर इस दौर में कही ज्यादा उग्र हुआ है लेकिन भारत का मतलब इस दौर में खुद को एक ऐसा अंतराष्ट्रीय बाजार बनाना है, जहां सेना का मतलब भी एक मुनाफा बनाने वाली कंपनी में तब्दील हो।
सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर बजट में इजाफा इसके संकेत नहीं देता कि अब भारतीय सीमा सुरक्षित है बल्कि संकेत यह उभरते है कि अब भारत किस देश के साथ हथियार की सौदेबाजी करेगा। और विदेश नीति से लेकर सामरिक नीति भी हथियारों की डील पर ही आ टिकती है। लेकिन सेनाध्यक्ष को घूस के संकेत सिर्फ इतने नहीं है कि लाबिंग करने वाले इस दौर में महत्वपूर्ण और ताकतवर हो गये हैं बल्कि सेना के भीतर भी आर्थिक चकाचौंध ने बेईमानी की सेंघ लगा दी है। इसलिये बोफोर्स घोटाले तले राजनीतिक ईमानदारी जब सत्ता में आने के बाद बेईमान होती है तो करगिल के दौर में भ्रष्टाचार की सूली पर और कोई नहीं शहीदों को ही चढ़ाया जाता है। करगिल के दौर में ताबूत घोटाले में एक लाख डालर डकारे जाते हैं और कटघरे में देश के रक्षा मंत्री आते हैं। ढाई हजार डालर का ताबूत तेरह गुना ज्यादा रकम में खरीदा जाता है। दो बरस बाद ही बराक मिसाइल की घूसखोरी में पूर्व नौसेना अध्यक्ष एम के नंदा के बेटे सुरेश नंदा के साथ साथ रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस भी आते हैं। और इसी दौर में किसी नेता और नौकरशाह की तर्ज पर सेना के ही लेफ्टिनेंट जनरल पी के रथ, लें अवधेश प्रकाश, लें रमेश हालगुली और मेजर पी के सेन को सुकना जमीन घोटाले का दोषी पाया जाता है । यानी सेना की 70 एकड़ जमीन बेच कर सेना के ही अधिकारी कमाते हैं। दरअसल, इस दौर में आर्थिक चकाचौंध ने सामाजिक तौर पर सियासत के जरीये ही बकायदा नीतियों के जरीये जितनी मान्यता दे दी है उसमें इससे ज्यादा वीभत्स स्थिति क्या हो सकती है कि सबसे मुश्किल सीमा सियाचिन में तैनात जवानो के रसद में भी घपला कर सेना के अधिकारी कमा लेते हैं। रिटायर्ड ले जनरल एस के साहनी को तीन बरस की जेल इसलिये होती है कि जो राशन जवानों तक पहुंचना चाहिये, उसमें भी मिलावट और घोटाले कर राशन सप्लाई की जाती है। और तो और शहीदों की विधवाओं के लिये मुंबई की आदर्श सोसायटी में भी फ्लैट हथियाने की होड़ सेना के पूर्व सेनाअध्यक्ष समेत कई अधिकारी करते हैं। और सीबीआई जांच के बाद ना सिर्फ पूछताछ होती है बल्कि रिटार्यड मेजर जनरल ए आर कुमार और पूर्व ब्रिग्रेडियर एमएम वागंचू की गिर्फतारी भी होती है। यानी भ्रष्टाचार को लेकर कहीं कोई अंतर सेना और सेना के बाहर सियासत के जरीय संसदीय राजनीति के भ्रष्टाचार के तौर तरीकों में नजर नहीं आती। तो क्या आने वाले वक्त में भारत की सेना का चरित्र बदल जायेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि सेना का कोई चेहरा भारत में कभी रहा नहीं है। और राजनीतिक तौर पर नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में युद्द के मद्दनजर जो भी चेहरा सेना का उभरा वह प्रधानमंत्री की शख्सियत तले ही रहा। लेकिन मनमोहन के दौर में पहली बार सेना को भी चेहरा मिला।
जनरल वीके सिंह अनुशासन तोड़ कर मीडिया के जरीये आम लोगों के बीच जा पहुंचे। क्योंकि दो बरस पुरानी शिकायत रिटायरमेंट के पड़ाव तक भी यूं ही पड़ी रही। और रक्षा मंत्री ने भी सेनाअध्य़क्ष को जनता के बीच ऐसा चेहरा दे दिया जहां अपने उम्र की लड़ाई लड़ते जनरल सरकार के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देते हैं। लेकिन सियासत और सेना के बीच की यह लकीर आने वाले वक्त में क्या देश के संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं करेगी क्योंकि आर्थिक सुधार धंधे में देश को देखते हैं और सियासत सिविल दायरे में सेनाअध्यक्ष से भी सीबीआई को पूछताछ की इजाजत देती है। ऐसे में यह सवाल वाकई बड़ा कि पद पर रहते हुये जनरल वी के सिंह से अगर सीबीआई पूछताछ करती है तो फिर कानून और अनुशासन का वह दायरा भी टूटेगा जो हर बरस 26 जनवरी के दिन राजपथ पर परेड़ करती सेना में दिखायी देता है, जहां सलामी प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति लेते हैं।