कांग्रेस को कतई इसका एहसास नहीं होगा कि जिस मुस्लिम समुदाय को लेकर उसने हर चुनाव से पहले बिसात बिछायी वह ऐसे वक्त फिसल रही है, जब सामने हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के नायक नरेन्द्र मोदी खड़े हैं। यानी गुजरात दंगों के जरीये जिस मुस्लिम समाज के भीतर खौफ पैदा करने का राजनीति तेज हो सकती है, उसी वक्त मुस्लिम समाज के भीतर से अगर कांग्रेस सरकार के विरोध की आवाज आयेगी तो यह सियासी तौर पर तो खतरे की घंटी तो है। यह सवाल दरअसल दिल्ली के विज्ञान भवन में वक्फ बोर्ड के ऐसे कार्यक्रम में उठा, जब मुस्लिमों को सामने बैठाकर प्रधानमंत्री विकास योजनाओं का जिक्र इस उम्मीद में कर रहे थे कि तालियां बजेंगी लेकिन वहां तो पूर्वी दिल्ली के डा.फहीम बेग का गुस्सा उभर गया।
सवाल सिर्फ विरोध का नहीं था। सवाल सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में विरोध का था और कांग्रेस की मुस्लिमों को लुभाने वाली योजनाओं के फेल होने से निकले आक्रोश का भी था। तो दो सवाल सीधे उभरे, पहला क्या राजनीतिक तौर पर मुस्लिम कांग्रेस का विकल्प देख रहा है। और दूसरा क्या गुजरात दंगों से आगे विकास और न्यूनतम जरुरत पहली प्रथामिकता है। हो जो भी लेकिन 2014 की राजनीतिक बिसात पर मुस्लिम अगर कांग्रेस का विकल्प खोजने निकल पड़ा तो फिर लोकसभा की 218 सीट सीधे प्रभावित होंगी, इससे इंकार नहीं जा सकता। कांग्रेस और बीजेपी के लिये मुस्लिम समाज के क्या मायने है, यह इससे भी समझा जा सकता है कि मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस के पक्ष में देश की 122 सीट सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम प्रभावित क्षेत्र से आयी है। मसलन जम्मू-कश्मीर,असम,बंगाल,केरल,यूपी, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, दिल्ली, महाराष्ट्र, आध्रप्रदेश,गुजरात,तमिलनाडु की कुल 358 में से 198 सीधी सीधे मुस्लिम समीकरण से ही तय होती है। 2009 में कांग्रेस ने198 में से 102 सीट यही जीती थी और बीजेपी को 30 सीटों पर जीत सियासी समीकरण के जरिये मिली थी। यानी सत्ता तक पहुंचने के लिये कांग्रेस की नब्ज मुस्लिम वोट बैंक के हाथ रही है इससे इंकार नहीं किया जा सकता और बीजेपी को अगर मोदी की अगुवाई में सत्ता तक पहुंचना है तो उसे पहली बार हिन्दुत्व की, संघ की धारा छोड़कर कांग्रेस के अल्पसंख्यक बिसात की पोपली जमीन को भी उभारना होगा और विकल्प के तौर पर विकास का खांचा रखना ही होगा। जाहिर है सियासत के यह नये संकेत है। लेकिन राजनीतिक बिसात से इतर देश में मुस्लिमों को लेकर सत्ता का जमीनी सच है क्या। यह सवाल अक्सर चुनावी जीत हार में ही छुपता रहा है। तो 2014 की चुनावी बिसात पर मुस्लिम वोट बैंक कैसे प्यादा भर है, इसे समझने से पहले उस दर्द को परख लें जो वाकई पीएम की 15 सूत्री से लेकर हजारों सूत्री कार्यक्रम तले दबी हुई हैं। सच यह है कि राजनीतिक लाभ पाने के लिये बीते 60 बरस से हर सत्ता के सामने खाली कटोरा लिये ही हाशिये पर पड़े लोग लगातार खड़े हैं। 1952 के पहले चुनाव के वक्त भी खड़े थे और 2014 के चुनाव से ऐन पहले भी खड़े हैं।
क्योंकि सच तो यही है कि जवाहर लाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक के दौर में मुस्लिम समाज के लिये 21,098 से ज्यादा कल्याणकारी योजनाये लायी जा चुकी हैं। और 21 हजार से ज्यादा घोषित इन योजनाओं का नायाब सच यह है कि जो मुस्लिम समाज आज मनमोहन सिंह से जिन मुद्दों पर रुठा हुआ है उसे पूरा करने का बीड़ा नेहरु के दौर से हर सरकार ने लगातार उठाया है। मसलन अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर शिक्षा के मद्देनजर अब तक 900 से ज्यादा कार्यक्रमों का एलान हो चुका है। रोजगार को लेकर 2500 से ज्यादा योजनाएं बीते 60 बरस में बनायी गयी। अल्पसंख्यक गरीबो के विकास के लिये 1900 से ज्यादा कार्यक्म बनाये गये। झुग्गी-बस्तियो में बेहतर जीवन देने के लिये 3 हजार से ज्यादा योजनाएं बनी। यानी हर वह मांग या हर वह दरिद्रगी जिसका जिक्र सच्चर कमेटी में किया गया या फिर 2004 में सत्ता संभालने के महज आठ महीने बाद 26 जनवरी 2005 को पीएम के नाम से जिस 15 सूत्री योजना का एलान हुआ उसकी त्रासदी देश में यही रही रही कि उसे अमली जामा पहनाया जाता भी है या नहीं इसपर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया। संयोग देखिये 2014 के चुनाव दस्तक दे रहे है तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार फिर दिल्ली के वित्रान भवन में 60 बरस की परंपरा को ही निभाते हुये मुस्लिमो के लिये एक नयी हितकारी योजना का एलान कर खामोशी बरतने में ही भलाई समझी।
तो पीएम तो परंपराओ का इतिहास दोहरा रहे थे। लेकिन योजनाये सिर्फ एलान होकर कैसे मर जाती है इस दर्द को समेटे पीएम के एलान भरे भाषण पर पहली बार अंगुली उसी तबके ने उठा दी जो राजनीतिक बिसात पर महत्वपूर्ण बना दिया गया है। और सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि जिस 15 सूत्री कार्यक्रम पर मनमोहन सरकार को गर्व होना चाहिये उसकी सफलता का पैमाना तीन फिसदी से भी आगे नहीं बढ़ पाया। मसलन 2005 में जारी हुये पीएम के 15 सूत्रीय कार्यक्रम में शिक्षा के अवसर को बढ़ावा देने का जिक्र है लेकिन यह सिर्फ 3.2 फिसदी अमल हो पाया है। रोजगार में समान हिस्सेदारी का जिक्र है लेकिन इस क्षेत्र में महज 2.91 फिसदी की सफलता मिली है। विकास योजना में समान हिस्सदारी का जिक्र भी 15 सूत्री में है लेकिन सफलता का पैमाना 1.71 फिसदी है । इसी तर्ज पर आवास योजना में उचित हिस्सेदारी की सफलता का पैमाना 0.89 फिसदी है । और तो और पीएम की तरफ से हर स्कीम के मद के पैसे का 15 फिसदी अल्पसंख्यक समुदाय को देने की बात कही गयी थी लेकिन सफलता मिली 0.2 फिसदी। तो सवाल है कि क्या चुनावी बिसात पर यह सारे सवाल उठेंगे या मुस्लिम समुदाय वोट बैक में तब्दील हो जायेगा। अगर ऐसा होता है तो 2014 की चुनावी बिसात का सच है कि लोकसभा की 543 सीटों में से 218 सीट पर मुस्लिम का प्रभाव है। इनमें से-35 सीट पर 30 फिसदी से ज्यादा मुस्लिम है। 38 सीट पर 21 से 30 फिसदी तक मुस्लिम है। बाकी 145 सीट पर 11 से 20 फिसदी मुस्लिम है। लेकिन मुस्लिम समुदाय की लोकसभा की नुमाइन्दी महज 6 फिसदी है। यानी 2009 में सिर्फ 30 मुस्लिम ही सांसद बन पाये। और यह संख्या आजादी के बाद कभी बहुत ज्यादा हो गयी हो ऐसा भी नहीं है। दरअसल, देस का सच तो यही है कि मुस्लिमों को वोट बैक में आजादी के तुरंत बाद मान लिया गया। जिस मौलाना अब्दुल कलाम ने 1947 के बाद देश में मुस्लिमों की सुरक्षा को लेकर नेहरु के साथ कमर कसी । उन्ही भी 1952 में चुनाव लड़ना पड़ा तो उन्हे यूपी के उसी रामपुर लोकसभा सीट से टिकट गया जहा 80 फिसदी मुस्लिम वोटर थे। तब कांग्रेस की नीति से मौलाना नाखुश हुये थे । और 62 बरस बाद एक आम मुस्लिम मनमोहन से नाखुश हुआ है।
Wednesday, January 29, 2014
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क्या कांग्रेस से फिसल रहा है मुस्लिम समुदाय ? |
Thursday, January 23, 2014
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अभी कच्ची मिट्टी की है आम आदमी पार्टी |
लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया / तो शरीफ लोग उठे, दूर जा कर बैठ गये। दुष्यंत कुमार की यह दो लाइन दिल्ली की सत्ता के आंदोलन में बदलने का सच तो जरुर है। जिस तरह सत्ता के प्रतीक लुटियन्स की दिल्ली के सबसे वीवीआईपी चौराहे पर सरेराह दिल्ली का मुख्यमंत्री सत्ता को ही चुनौती देते हुये बैठा और जिस अंदाज में बौद्दिक तबका इसे अराजकता करार देने के लिये कमरों में बहस गरम करने लगा उसने पहली बार इसके संकेत तो दे ही दिये कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था कटघरे में है। क्योंकि जो आंदोलन या संघर्ष सत्ता पाने के लिये होता है वही आंदोलन या संघर्ष सत्ता पाने के बाद कैसे हो सकता है। यह सवाल बौद्दिकों की जमात से लेकर हर उस शरीफ को दिल्ली में परेशान किये हुये था जिसकी हथेली पर बंधी घडी ही जिन्दगी में वक्त की पहली और आखिरी जरुरत बन चुकी है। समाज की पीड़ा। असमानता का संघर्ष। सत्ता की तिकड़म। कानून या सिस्टम की दुहाई। इसी उघेड़बून में सत्ता संघर्ष और आंदोलनों से सत्ता पाने वालो को कैसे बदल देती है, यह कोई छिपा हुआ सच नहीं है। तो केजरीवाल का रास्ता सत्ता के प्रतिकूल हो या अराजकता के अनुकूल। दोनों परिस्थितियों ने एक सच तो हर किसी के सामने ला ही दिया है कि चुनी हुई सरकार का हर नया कदम उसके वोटरों की आंखो में सपने जगाता है। तो सवाल दिल्ली में हाशिये पर पड़े तबके और देश के हर कोने से दिल्ली को आस या निराश हो कर देखती आंखो में जागते सपने या घुमड़ता आक्रोश के पीछे आम आदमी पार्टी का सच सत्ता पाने के बाद आंदोलन की जमीन पर क्या है। चूंकिं लेखक ने भी दिल्ली के आंदोलन चौराहे पर 32 में से 22 घंटे गुजारे और पल पल हर परिस्थितियों से जुझते हुये दिल्ली के सीएम या कहे "आप" के सर्वेसर्वा केजरीवाल को देखा समझा तो कई सवालों ने जन्म लिया।
सीएम होकर भी आंदोलन के लिये सडक पर बैठे अरविन्द केजरीवाल ने बेहद बारीकी से सत्ता के दायरे में अपने बंधे हाथ को तो दिखाया लेकिन हाथ खुल भी जाये तो क्या सत्ता उस पटरी पर दौड़ सकती है, जिसे केजरीवाल स्वराज के जरीये "आप" की व्याख्या कर रहे हैं। तो पहले "आप" के हालात को समझें। आंदोलन के वक्त केजरीवाल का मतलब "आप" भी था और "आप" का संगठन भी। सरकार कैसे सड़क से चले और सड़क पर क्या क्या फैसले ले इसके केन्द्र में भी केजवाल ही थे। यानी गवर्नेस से लेकर रणनीति बनाने के हुनरमंद भी केजरीवाल। तो "आप" के जरीये पलते बड़े बड़े सपनों के केन्द्र में राजनीतिक दल "आप" का कद भी केजरीवाल से छोटा है। और संगठन से लेकर सरकार के भीतर कोई पहचान केजरीवाल से इतर अभी तक किसी की बनी नहीं है। चूंकि लंबी लडाई लडने के लिये "आप" का विस्तार केजरीवाल से बड़ा होना चाहिये तो वह हो नहीं पाया है तो इसका असर आंदोलन के दौरान ही नजर आया । "आप" की पहचान सिर्फ मुझे चाहिये स्वराज और मैं आम आदमी हूं के नारे लगाती सफेद टोपी से आगे दिखायी नहीं दी। टोपी ही पार्टी और टोपी ही कार्यकर्ता। टोपी ही विधायक और टोपी ही मंत्री। यह अच्छी बात लग सकती है कि कोई छोटा बड़ा नहीं है। लेकिन व्यवस्था का हिस्सा बनकर जब व्यवस्था को बदलने की बात होगी जिसे "आप" ने अपनाया है तो फिर संघर्ष सड़क से ज्यादा सिस्टम के भीतर होगा। जिससे दो दो हाथ करने में कैसे "आप" चूक रही है यह दिल्ली में "आप" के विधायकों से लेकर मंत्रियों की खामोश पहल ने आंदोलन चौराहे पर टिका दिया। केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के इर्द-गिर्द सरकार, संगठन, आंदोलन सिमटा तो कटघरे में खड़े कैबिनेट मंत्री सोमनाथ भारती और राखी बिरला तक को समझ नहीं आया कि आंदोलन के दौरान सरकार चलाते हुये संघर्ष का एहसास आंदोलन की जमीन से कैसे दिया जाये। कंबल-दरी और रजाई की व्यवस्था कराने में दिल्ली के कैबिनेट मंत्री जुट गए। विधायकों की भूमिका मूक कार्यकर्ताओं के तौर पर सिर्फ मौजूदगी बताने-दिखाने की रही। जो छिट-पुट कार्यकर्ता थे, जिनकी तादाद तीन सौ से पाचं सौ से ज्यादा कभी हो नहीं पायी वह सिवाय ताली बजाकर नारे लगाने और चंद घंटो में थक कर बैठने के आगे कुछ कर नहीं पाये। पहचान पाये "आप" के नेताओ में योगेन्द्र यादव से लेकर आशुतोष और संजय सिह तक के पास न्यूज चैनलों के कैमरे पर बैठने के अलावे ज्यादा कोई काम नहीं था। और मीडिया की चकाचौंध में मीडिया का नजरिया ही धीरे धीरे "आप" के आंदोलन की दिशा निर्धारित करने लगा। असर इसी का हुआ कि 32 घंटे में ही जिस तरह मीडिया का रुख केजरीवाल के आंदोलन को लेकर बौद्दिक बहसों में उलझा और उच्च-मध्य वर्ग की मुश्किलो को लेकर सामने आया वैसे ही सड़क का संघर्ष अराजक हालात पैदा करने वाला होने लगा। और यह बहस शुरु हो गई कि कैसे और कितनी जल्दी आंदोलन से निकल कर दोबारा गवर्नेस का दरवाजा पकड़ा जाये। इसकी वजह आंदोलन से ज्यादा "आप" के भीतर की अराजकता पर लगाम लगाने या कोई अनुशासन ना बना पाने के हालात से पैदा हुआ।
बावजूद इन सबके "आप" के हालात से कही ज्यादा बदतर हालात चूकि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के है। और इसका लाभ कच्ची मिट्टी का होने के बावजूद आम आदमी पार्टी को मिल रहा है। क्योंकि विकास की नीतियों के नाम पर देश में लूट मची है। मंत्री पद हो या विधायक सा सांसद या फिर नौकरशाही का अंदाज जिस तरीके से गवर्नेस के नाम पर देश में अराजक हालात पैदा कर रहा है, उसमें सडक पर खड़े हर आम शख्स को यह लगने लगा है कि उसकी भागेदारी जिस भी तरह हो वही सबसे बेहतर है। उसके हक में केजरीवाल सचिवालय से दस्तावेजो पर हस्ताक्षर करके काम करें या सडक पर उतर कर काम करें। वह बेहतर है। क्योंकि संघर्ष में बराबर की भागेदारी तो नजर आ रही है .बंगले में बैठ कर सिर्फ टीवी स्क्रीन पर नाता या मंत्री चिल्लम-पो तो नहीं कर रहा है। तो फिर केजरीवाल का सीएम होकर सडक पर उतरना हो या "आप" के दायरे में विधायक से लेकर मंत्री तक की कोई पहचान ना हो उसी भोलेपन को ही आम आदमी खुद से जोड़कर बदलाव के सपने देखने लगा है। ध्यान दें तो केजरीवाल या "आप" की हर अपरिपक्वता मौजूदा अराजक या लूट तंत्र के सामने बेहद मजबूत इसीलिये है क्योंकि देश में सरकारे वोट से ही बनती बिगड़ सकती है इसका एहसास हर राजनीतिक दल को है। वजह भी यही है कि लुटियन्स की दिल्ली में संसद किनारे कंबल बिछाकर सड़क पर ही केजरीवाल अगर ठंडी रात में रजाई ओढ कर रात गुजारता है तो आंदोलन को अराजक करार देने वाला बोद्दिक वर्ग भी पहली बहस इसी बात को लेकर करता है कि मानवीय परिस्तितियो को भी अराजक करार देकर धरना तुड़वाना महत्वपूर्ण है।
दरअसल, यह सारी परिस्थितियां पहली बार संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के भीतर की उस शून्यता को उभार रही है, जिसे भरने के लिये किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा देश का आम आदमी बेचैन है। यह विकल्प भी हो सकता है और भरोसा तोड़ रही राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह भी। मुश्किल सिर्फ इतनी है कि केजरीवाल का पांसा बिना पूरी तैयारी के राजनीति की ऐसी लकीर खींच रहा है, जहां आम आदमी तो हर बदलाव के लिये तैयार है लेकिन हर मोड़ पर उसके सामने "आप" विकल्प ना होकर "आप" का विक्लप भी सोचना पड रहा है। इसी का लाभ फिर वहीं कांग्रेस और बीजेपी उठाना चाह रही है, जिसे खारिज करके दिल्ली के वोटरो ने "आप" को सत्ता तक पहुंचाया। इसलिये दुष्यंत को अब पढ़े, लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया तो / शरीफ लोग उठे , दूर जा कर बैठ गये।
Wednesday, January 15, 2014
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राजनीतिक तौर तरीके बदलने वाला लोकतंत्र |
राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी की लोकसभा रेस के बीच अरविन्द केजरीवाल जिस खामोशी से आ खड़े हुये हैं, उसने पहली बार दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के असल मायने सामने रखे हैं। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रिक देश अमेरिका पर भारत बीस इसीलिये पड़ता है क्योंकि वोटरों का मिजाज झटके में सियासी परिभाषा को बदल सकता है। राजनीतिक थ्योरी को नये सिरे से परिभाषित कर सकता है। बाजारवाद पर टिकी आर्थिक नीतियों को झटके में खारिज कर सकता है। और पटरी से उतरती उस राजनीतिक सोच को हिचकोले खिला सकता है जो विषमता को पाटने की जरुरत नहीं समझती। तो क्या यह माना जाये कि केजरीवाल की इन्ट्री लोकसभा चुनाव से एन पहले जिस तरह राष्ट्रीय क्षितीज पर हुई, उसने झटके में सियासत के रंग ढंग तो बदल ही दिये हैं। साथ ही देश की न नीतियों पर भी सवालिया निशान लगा दिया, जिसपर ट्रैक वन कहकर कांग्रेस सवार हुई और ट्रैक टू कहकर बीजेपी सवार हुई।
यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योंकि चुनाव मैदान में जो उम्मीदवार उतरेंगे अब उन्हीं के आसरे कांग्रेस और बीजेपी को आंका जायेगा। या कहें जिस बदलाव की बात राहुल गांधी कह रहे हैं या फिर संघ परिवार जिस लहजे में बीजेपी को डपट रही है उसके मायने साफ हैं कि सरोकार और भागेदारी के राजनीतिक तौर तरीके अब चुनावी राजनीति का हिस्सा बनेंगे। यानी राहुल के सामने कांग्रेस में सबकुछ बदलने का मिशन है। और मोदी के सामने पारंपरिक बीजेपी को बदलने का लक्ष्य है। और चूंकि यह बदलाव केजरीवाल की सियासी पहल से हुआ है तो नया संकट आम आदमी पार्टी के सामने भी है कि वह लोकसभा चुनाव में हर किसी को अब अपने भरोसे जीते या फिर जनता के भरोसे खुद को आगे माने। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर चुनावी तौर तरीको के नियम केजरीवाल ने बदले हैं तो सबसे पहले आम आदमी पार्टी के सामने आने वाली मुश्किलों पर गौर करना भी जरुरी है। सीएम केजरीवाल की मुश्किल है कि अगर दिल्ली सरकार के कामकाज अगले 75 दिनों तक आम लोगों के सपनों को जगाये ना रख सके तो क्या होगा। क्योंकि मौजूदा वक्त में आम आदमी पार्टी के अनुकूल देश में हवा बह रही है। और हवा के केन्द्र में दिल्ली चुनाव परिणाम हैं। फिलहाल हवा हर राज्य में बह रही है। असर भी इसी का है कि देश के नामचीन चेहरे भी "आप" के रास्ते चलने को तैयार हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि "आप " कोई चुनावी राजनीतिक दल नहीं है जो उम्मीदवारों के आसरे खुद को खड़ा किये हुये है। लेकिन हवा जो चल निकली है उसमें संयोग से चुनावी उम्मीदवारो की दस्तक ही कहीं ज्यादा है।
ध्यान दें तो दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के चेहरे गोपाल राय और शाजिया इल्मी ही चुनाव हार गये। और जीतने वालो में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के अलावे कोई ऐसा चेहरा नहीं था, जिसे अन्ना आंदोलन या "आप" का चेहरा माना जाता है। यानी दिल्ली के वोटरों ने सिर्फ केजरीवाल को देखा है।आम आदमी पार्टी को चुनावी आंदोलन के तौर पर परखा। लेकिन अब जब आम आदमी पार्टी से देश के चेहरे जुड़ रहे हैं और "आप" के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे तो बड़ा सवाल यही होगा कि वोटर आम आदमी पार्टी देखेगा या उम्मीदवारों को परखेगा। और उम्मीदवारों का कद जैसे जैसे बड़ा होगा वैसे वैसे वोटर का विश्लेषण "आप" से ज्यादा उम्मीदवारों को लेकर शुरु होगा। क्योंकि जो चेहरे आम आदमी पार्टी में शरीक हुये हैं, उनका कद पहचान का मोहताज नहीं है। मसलन कैप्टन गोपीनाथ-, मीरा सान्याल, मल्लिका साराबाई, समीर नायर, आशुतोष, मेघा पाटकर, कमल मित्र चिनाय। यह ऐसे नाम हैं, जिनकी पहचान अपने अपने दायरे में जुड़े मुद्दों पर कोई मोटी लकीर खींचने को लेकर हुई। मेघा पाटकर ने देश भर के आंदोलनों को सही माना और उसके आड़े आती विकास परियोजनाओ को प्रभावितों के खिलाफ ही नहीं देश के भी खिलाफ करार दिया। चिनाय का रुख आदिवासी इलाको से लेकर नक्सल समस्या तक पर सरकार की आंतरिक सुरक्षा नीति के खिलाफ रहा है। तो पहला सवाल कि आम आदमी पार्टी अब मुद्दो पर रुख साफ कर चुनाव मैदान में जायेगी। या फिर अभी तक जो सत्ता पारंपरिक राजनीति के आसरे चल रही थी और देश का बहुंसख्यक तबका जो आर्थिक तौर पर हाशिये पर है या फिर मध्यम वर्ग जो मनमोहन की आर्थिक नीतियों से लाभ भी उठाता है लेकिन भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं कर पाता, उसके अंतर्विरोध का राजनीतिक लाभ उठायेगी। यह मुश्किल तब और ज्यादा जटिल होगी, जब पहचान पाये चेहरे आम आदमी पार्टी के टिकट पर मैदान में होंगे। तो सवाल उठेगा कि चेहरों का पाजिटिव और आप का पाजिटिव जुड़कर डबल लाभ पहुंचायेगा। या फिर आप का पॉजिटिव और पहचान का निगेटिव चुनावी परिणाम बदल देगा । इसका विश्लेषण केजरीवाल जरुर करेंगे क्योंकि आम आदमी पार्टी के चुनावी परिणाम का मतलब दिल्ली तक तो आम लोगो का आक्रोश था, जो बिना पहचान वाले उम्मीदवारों को जीता गया। और दिल्ली में मुद्दों को लेकर बहस इसलिये जरुरी नहीं थी क्योंकि यहां जातीय या धार्मिक आधार पर समाज को बांटा नहीं जा सकता। दिल्ली रोजगार दफ्तर की तरह । जहां पहुंचने के बाद रोजगार और कमाई से सुविधा के अलावे लोगो को कुछ ज्यादा चाहिये नहीं। अस्सी फीसदी दिल्ली वालों की जड़े दिल्ली से दूसरे प्रांतो में हैं। फिर दिल्ली चुनाव परिणाम ने दो नयी परिस्थितियां भी पैदा कीं।
पहली, राजनीति में दोबारा लोगो की रुचि जगी और दूसरा राजनीति के प्रति अच्छी राय उन लोगो में भी जागी, जिन्हे लगने लगा है नया राजनीतिक दल उन्हें किसी ना किसी स्तर पर रोजगार तो दिला ही देगा। क्योंकि पंचायत से लेकर संसद तक यानी चौखम्भा राजनीति के दायेरे में देश के साढे 11 लाख से ज्यादा लोग सीधे राजनीति से जुड़े हैं। और पहली बार मौजूदा राजनीतिक ढांचे के खिलाफ ही लोगों में आक्रोश है। यानी पंचायत हो या नगर पालिका या विधानसभा या फिर संसद , तमाम जगहों की सियासत के तौर तरीके अगर बदलते हैं तो फिर मौजूदा राजनेताओ की कुर्सी बदलेगी। नये लोग कुर्सी पर बैठने के लिये राजनीति में शिरकत करेंगे। वजह भी यही है कि केजरीवाल की राजनीतिक धार कांग्रेस और बीजेपी को भी बदलने को मजबूर कर रही है। लेकिन केजरीवाल के सामानांतर राहुल गांधी और मोदी का संकट चुनाव को लेकर अलग है। दोनों के पास ही उम्मीदवारों की कमी नहीं। दोनों की पहचान अपनी अपनी पार्टी को लेकर कही ज्यादा है। लेकिन संयोग से केजरीवाल ने चुनावी गणित के जो नियम बदले हैं उसमें पारंपरिक राजनीति की लकीर दोनों को ही छोड़नी होगी। यानी राहुल को उम्मीदवारों की फेहरिस्त बिलकुल नयी बनानी है। और मोदी को ऐसे चेहरे चाहिये जो सबकुछ छोड़कर बीजेपी के साथ खड़े हों। इस फेहरिस्त में बीजेपी के लिये पूर्व गृह सचिव आर के सिंह, किरण बेदी, वीके सिंह सरीखे दर्जनो नये नाम जुड़ेंग,इससे इंकार नहीं हो सकता। यानी गैर राजनीतिक लोगों की राजनीतिक शिरकत दिखायी देगी ही। लेकिन 2014 जाना तो इसीलिये जायेगा कि पहली बार जो पार्टियों ने सोचा उसे वोटरों ने बदल दिया। और वोटरों के आसरे राजनीति करने के नियम कायदे भी बदल गये।
Thursday, January 9, 2014
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राजनीति का सबसे बड़ा तमाशा है राजनेताओं की रईसी |
यूपी सरकार के मंत्री विधायक बुधवार को पांच देशों के लिये रवाना हो गये और बुधवार की देर रात कर्नाटक सरकार के मंत्री विधायक तीन देशों की यात्रा कर वापस लौटे। इसी दिन केजरीवाल ने मीडिया से बात बात में कहा कि बदलाव के लिये जरुरी है कि सरकार और मंत्री अपनी बहुसंख्य जनता के जीवन जीने के तरीकों से इतर ना सोचें। यानी सादगी जरुरी है। लेकिन यूपी और कर्नाटक के मंत्री विधायकों ने अपनी यात्रा को संसदीय लोकतांत्रिक परिस्थितियों की दुहाई देकर इस सच से पल्ला झाड़ लिया कि यूपी में दंगों का दर्द बरकरार है और कर्नाटक में किसान सूखे की मार से परेशान हैं। तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का सच है क्या और क्यों लोकतंत्र का जाप करने वाली पारंपरिक राजनीति बदलने का वक्त आ गया है। इस सवाल को समझने के लिये जरा मंत्री नेताओं के आम लोगो से दूर होते सरोकार को परखें। इंग्लैंड, नीदरलैंड, टर्की, ग्रीस और यूएई की यात्रा पर गये यूपी सरकार के मंत्रियों पर कुल खर्चा डेढ़ करोड़ रुपए का है तो आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड और फिजी घूमकर लौट रहे कर्नाटक के विधायक मंत्रियो पर कुल खर्चा एक करोड़ 35 लाख रुपये का है । कमोवेश देश के हर राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में विदेशी यात्रा को ना सिर्फ महत्वपूर्ण माना गया है बल्कि सरकारी खजाने से करोड़ों लुटाने का भी अधिकार राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार और हर मंत्रालय को दिया गया है। देश के सभी 28 राज्यों के सीएम हो या मंत्री या फिर विधायकों की टोली की विदेशी यात्रा पर हर बरस खर्चा तकरीबन 775 करोड़ रुपये का है।
वहीं केन्द्र सरकार के तमाम मंत्रालय और सांसदों की टोली पर हर बरस करीब 625 करोड रुपये खर्च होता है। यानी 1400 करोड रुपये देश के राजनेताओं की विदेशी यात्रा पर खपता है। इसको अगर सिलसिलेवार तरीके से बांटे तो राज्यों के मंत्री - विधायक का स्टडी टूर खर्च--175 करोड़ का है। केन्द्र के मंत्रियो के स्टडी टूर का खर्च 200 करोड़ रुपये का है। राष्ट्रीय नेताओ की विदेशी यात्रा पर सालाना खर्च 425 करोड़ रुपये और राज्यों के नेताओं पर विदेशी यात्रा खर्च 600 करोड रुपये आता है। इसमें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का यात्रा खर्च शामिल नहीं है। वैसे, मनमोहन सिंह ने 2004 में सत्ता संभालने के बाद 70 विदेश यात्रायें अक्टूबर 2013 तक कीं। जिस पर 650 करोड़ रुपये खर्च हुये। जाहिर है एक सवाल यहां उठ सकता है कि विदेश यात्रा करने में परेशानी क्या है और अपने ही देश में रहकर कोई क्या सुधार कर सकता है। दरअसल, आम आदमी पार्टी की बारीक राजनीति को समझें या कहें लोगों का रुझान क्यों केजरीवाल की तरफ झुका, उसका एक बडा सच देश की पूंजी पर देश का नाम लेकर अपनी रईसी को जताना-दिखाना ही हो चुका है । कांग्रेस और बीजेपी ही नहीं सपा, बसपा सरीखे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के नेता भी अपने प्रोफाइल में यह लिखना शान समझते हैं कि उन्होंने कितने देशों की यात्रा बतौर विधायक, सांसद या मंत्री के तौर पर की है।
हालांकि कोई उस मुद्दे का जिक्र नहीं करता कि किस मुद्दे के आसरे उसने जनता के पैसे पर सरकारी यात्रा की। क्योंकि बीते 20 बरस नेताओं और मंत्रियों ने देश के हर उस मुद्दे को लेकर विदेश की यात्रा की, जिससे देश में सुधार किया जा सके। इस पर करीब देश का करीब 20 लाख करोड़ खर्च हो गया और तमाम मुद्दों का बंटाधार भी इसी दौर में हुआ। सिर्फ शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी,सौर उर्जा और सिंचाई व्यवस्था दुरुस्त करने को लेकर सबसे ज्यादा यात्राएं विदेश की हुई और संयोग देखिये इन्हीं मुद्दों को लेकर आम आदमी पार्टी सत्ता में आयी। यही मुद्दे हर राजनीतिक एलान के केन्द्र में रहे। लेकिन न मुद्दों पर विदेशी यात्रा में देश का करीब 4 लाख करोड रुपया खर्च हो गया ।
दरअसल, देश में चुनी हुई सरकारो के खिलाफ आम आदमी की राजनीति में दखल देने की असल दस्तक यही से शुरु होती है। और ध्यान दें तो केजरीवाल ने जनता की भागेदारी से राजनीति करने के तौर तरीको से उसी गुस्से को राजनीतिक तौर पर जगह दी है जो अभी तक हाशिये पर थी। मुज्जफरनगर दंगों के दर्द को निपटाये बगैर सरकार के मंत्री विदेश नहीं जा सकते यह आवाज यूपी में नहीं उठेगी। लेकिन दिल्ली में किसी आम आदमी को कोई परेशानी है तो उसकी जिम्मेदारी लेने के लिये दिल्ली के सीएम केजरीवाल तैयार हैं। तो सवाल तीन हैं। पहला, क्या सत्ताधारियो की रईसों पर लगाम खुद सत्ताधारियों को ही लगानी होगी। दूसरा, राजनीति के तौर तरीके आम आदमी से जुडेंगे तो सत्ता रईसी नहीं करेगी। तीसरा, क्या लोकतांत्रिक तौर तरीके सत्ता को बदलने पर मजबूर कर देंगे। यानी दिल्ली चुनाव परिणाम आने के बाद जिस तरह राहुल गांधी ने खुली पंचायत शुरु की और परिणामों के तुरंत बाद कहा कि वह साल भर पुरानी पार्टी से भी सिखेंगे। इसका मतलब निकाला क्या जाये? क्या वाकई आने वाले दौर में सत्ताधारी जनता के दर्द से जुडेंगे। या जनता के दर्द को दूर करने के तरीके जानने के लिये स्टडी टूर का बहाना निकाल कर विदेश की सैर पर निकल जायेंगे। असल में परंपारिक राजनीति का सियासी मिजाज बदल इसीलिये रहा है क्योंकि सत्ताधारी ने कोई सरोकार आम आदमी से रखा नहीं है। इसीलिये हर तरफ इग्लैंड, नीदरलैंड, टर्की, ग्रीस और और यूएई की चकाचौंध हैं। मस्ती से भरपूर समाज है। गरीबी मुफलिसी से दूर विकसित देश की संसदीय राजनीति का गुदगुदापन है। और दूसरी तरफ यूपी की त्रासदी। दंगों से प्रभावित मुज्जफरनगर का रुदन है। कर्नाटक का बेहाल किसान है। इन दो चेहरों को क्या एक साथ देखा जा सकता है।
एक तरफ खाता पीता समाज है। दूसरी तरफ भूख है। एक तरफ अधिकतम पाने की चाहत है तो दूसरी तरफ न्यूनतम के जुगाड़ की चाहत। कोई मेल नहीं है और मेल हो जाये इसके लिये भारतीय समाज उसी राजनीतिक सत्ता पर निर्भर है जो सत्ता चकाचौंध की राजनीति पर भी भारी है। तो कैसे सत्ता की उस रईसी को लोकतंत्र के राग से जोड़ा जा सकता है, जो मंत्री से लेकर संतरी तक अभी तक गुनगुनाते रहे। कैसे माना जाये कि 18 दिनों तक चार्टेड विमान से पांच देशो के 17 पर्यटक स्थानों की सैर के बीच यूपी सरकार के मंत्री स्टडी करेंगे कि कैसे संसदीय राजनीति को मजबूत किया जा सकता है। कैसे गरीबी, मुफलिसी वाले समाज को चकाचौंध में बदला जा सकता है। ऐसे में यह सवाल कौन उठायेगा कि मुज्जफरनगर के राहत कैंपों में डेढ़ सौ रुपये का कंबल तक नहीं है। यह सवाल कौन करेगा कि अंग्रेजी का विरोध करने वाले मुलायम सिंह यादव की सरकार के मंत्री स्टडी टूर के लिये इग्लैंड क्यों जा रहे हैं। और सवाल यह भी कोई नहीं करेगा कि जिस दौर में यूपी को सरकार की सबसे ज्यादा जरुरत है उसी दौर में यूपी के 9 मंत्री 18 दिनो तक दुनिया की सैर पर निकल गये। तो 2014 का चुनाव इस राजनीति में सेंघ लगायेगा या नहीं। इसका इंतजार कीजिये।