रामविलास पासवान। रामदास आठवले और उदितराज। मोदी के लिये अब यही वह तिकड़ी है जो देश भर में बीजेपी के मंच पर खडे होकर दलित वोट बैंक में सेंध लगायेगी। संघ परिवार के लिये भी अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को पीएम पद पर पहुंचाने के लिये यह अपने तरीके की पहली राजनीतिक बिसात होगी जब हिदुत्व की प्रयोगशाला के लिये जाने जाने वाले नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की विचारधारा में दलित वोट बैंक साधने की राजनीति बीजेपी के मंच से होगी। दरअसल, बीजेपी को इसकी जरुर क्यों पड़ी या मोदी के पीएम बनने के रास्ते में दलित कार्ड कैसे सीढ़ी का काम कर सकता है। इसके लिये बीजेपी को लेकर देश के मौजूदा हालात और दलित वोट बैंक को लेकर बीजेपी की कुलबुलाहट को को समझना जरुरी है। अभी तक बीजेपी को धर्म के आधार पर वोट बैंक बांटने वाला माना गया। जो यह मिथ इस तिकड़ी के आसरे तोड़ा जा सकता है। बीजेपी को मुस्लिम वोट बैंक के सामानांतर दलित वोट बैंक चाहिये। क्योंकि देश के कुल वोटों का 17 फीसदी दलित समाज से जुड़ा है। दलित वोटरों के 50 फीसदी वोट क्षेत्रीय दलों के खाते में चले जाते हैं। और बीजेपी के खाते में दलित वोटरों के 12 फीसदी वोट आते हैं। जो बीजेपी को मिलने वाले कुल वोट का महज 2 फीसदी हैं। तो बीजेपी का दलित नेताओ की तिकड़ी से पहला टारगेट तो यही है कि 2 फिसदी से बढ़कर दलित समाज का वोट प्रतिशत 7-8 फीसदी तक बढ़ जाये। अगर ऐसा होता है तो मतलब साफ है कि संघ के हिन्दुत्व राष्ट्रीयता के सामानांतर दलितों की मौजूदगी बीजेपी को नयी मान्यता दे सकती है। और इसके लिये इस तिकडी का चुनाव प्रचार में इस्तेमाल बिहार, यूपी और महाराष्ट्र के अलावा झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भी होगा। इन दौरों में बीजेपी पासवान को दलितों के बड़े नेता के तौर पर। तो उदितराज को पूर्व नौकरशाह और आठवले को दर्जन भर दल में बंटी आरपीआई का सबसे बडे नेता के तौर पर बताया जायेगा। दरअसल इस तिकडी के आसरे नरेन्द्र मोदी की निजी सियासत को भी लाभ होगा। क्योंकि मोदी गुजरात दंगों के दायरे से बाहर खडे है यह पासवान ने बताया। मोदी हिदुत्व प्रयोगशाला के कठघरे से बाहर है यह उदितराज का मैसेज है। और आठवले आंबेडकर की उस लकीर को मिटायेंगे, जिसके आसरे दलित का सवाल हिदुत्व राष्ट्रीयता से इतर माना गया।
जाहिर है यह सारी परिस्थितियां मोदी की अगुवाई में बीजेपी के साथ ना खड़े होने पाने वाले दलो के लिये खड़े होने का रास्ता बनायेगी। लेकिन बाकी दलों के सामने मुश्किल क्या है और वह कौन सी परिस्थितियां हो सकती है, जब नरेन्द्र मोदी की बिसात भी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर वाले गठबंधन के समूह की तरह दिखे। तो सात क्षत्रप और सात राज्य तो सीधे ऐसे हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी आनमे सामने नहीं है। या कहें बीजेपी की हैसियत जिन सात राज्यों में है ही नहीं तो बीजेपी हर हाल में इन सात राज्यों को टटोलेगी ।
तो यूपी, बिहार,सीमांध्र, तेलगाना,तमिलनाडु, बंगाल, उड़ीसा की कुल 263 सीटें हैं, जहां बीजेपी और कांग्रेस आमने सामने नहीं है। यानी इन राज्यों के क्षत्रपों के सामने कांग्रेस और बीजेपी दोनो कमजोर हैं। तो चुनावी मैदान में टकराने के सामानांतर चुनावी रणनीति का गणित साधना भी दोनो के लिये जरुरी है। और पहली बाजी मोदी ने मारी है। यूपी की 80 सीटों पर दलित चेहरे के जरीये सेंध लगाने का पहला प्रयास अगर उदितराज के जरीये हुआ तो भविष्य के संकेत मायावती के लिये भी बीजेपी ने खुले रखे हैं। क्योंकि मायावती की टक्कर यूपी में मुलायम से है और मौलाना मुलायम जिस छवि के आसरे सियासत कर रहे हैं, उसमें मायावती चुनाव के बाद कौन सी चाल चलेगी इसका इंतजार तो करना ही पड़ेगा। वहीं, बिहार में मोदी को पासवान का साथ मिल चुका है। सीमांध्र में जगन रेड्डी जिस तरह कांग्रेस से खार खाये बैठे हैं और आंध्र बंटवारे के बाद अपनी सीमटी राजनीति का ठीकरा कांग्रेस की पहल को अलोकतांत्रिक बता कर फोड़ रहे हैं, उसने भविष्य में जगन रेड्डी के मोदी के साथ जाने के संकेत मिल रहे हैं। बीते दिनों राजनाथ से खुली मुलाकात ने भी इस यारी की पुष्टी की थी। जबकि तेलंगाना में खिलाड़ी के तौर पर चन्द्रबाबू को जगन की तरह घाटा तो नहीं हुआ है लेकिन चन्द्रबाबू सिमटे जरुर हैं। मगर चन्द्र बाबू खुले संकेत दे चुके हैं कि गठबंधन के लिये उनके कदम बीजेपी की तरफ ही बढेंगें। तो मोदी को लाभ यहां भी मिलेगा। तमिलनाडु में जयललिता की टक्कर करुणानिधी से ही होनी है। और कांग्रेस या बीजेपी उनके लिये कोई चुनौती नहीं है। तो तीसरा मोर्चा जेसे ही फेल होता है या फिर मोदी को जरुरत अगर जयललिता की पड़ेगी तो जयललिता से मोदी की निकटता रंग दिखा सकती है यानी तमिलनाडु की 39 सीटो में से सबसे ज्यादा जीत के बावजूद जयललिता मोदी के साथ खड़े होने में कतरायेंगी नहीं। बंगाल में तृणमूल काग्रेस और वामंपथी आमने सामने हैं। कांग्रेस और बीजेपी हाशिये पर हैं।
मुस्लिम वोट बैंक खासा बड़ा है तो चुनाव से पहले ममता किसी का साथ जा नहीं सकती लेकिन चुनाव के बाद अगर ममता की राजनीतिक हैसियत बड़ी होती है तो बंगाल के लिये विशेष पैकेज से लेकर तमाम लाभ के लिये मोदी के साथ जाने में ममता को कोई परेशानी होगी नहीं। वही उड़ीसा में नवीन पटनायक के सामने कांग्रेस खड़ी है और चुनाव के बाद अगर राज्य के विकास के लिये केंद्र से मदद का सवाल उठता है और उसकी एवज में नवीन पटनायक को मोदी के साथ जाना पड़े तो तो इस गठबंधन से भी कोई इंकार नहीं कर सकेगा। जबकि गठबंधन के इस सियासत में राहुल गांधी की हथेली खाली है। यूपी में किसी के साथ जा नहीं सकते। बिहार में लालू यादव के अलावे नीतीश कुमार हैं जरुर लेकिन गठबंधन का साथ मोदी के असर को कितना बेअसर कर पायेगा। यह दूर की गोटी है। ध्यान दें तो जगन रेड्डी,चन्द्रबाबू नायडू, जयललिता-करुणानिधी, ममता, प्रकाश करात,नवीन पटनायक,मुलायम ,मायावती में से कोई चेहरा ऐसा नहीं है जो राहुल गांधी के साथ गठबंधन करे। कांग्रेस के लिये एकमात्र चेहरा चन्द्रशेखर राव या टीआरएस का है। जो तेलंगाना में कांग्रेस के साथ खड़ा हो सकता है । तो सवाल यही है कि 263 सीट जहां कांग्रेस और बीजेपी को सीधे नही टकराना है, वहां मोदी गठबंधन का राग छेड़ चुके हैं। जो उनके 272 के मिशन के फेल होने के बावजूद मोदी का नाम लेकर पीएम के पद तक पहुंचा सकता है। तो पासवान के जिस तेजी से सियासी चाल चली और उससे कही ज्यादा तेजी बीजेपी ने दिकायी वैसे ही यह तय हो गया कि अब सवाल 2014 की बिसात पर प्यादे और वजीर बनकर खड़े पासवान और मोदी कही आगे देख रहे हैं। और दोनों की जरुरत सिर्फ सीट के बंटवारे तक ही नहीं रुकेगी। क्योंकि माना यह भी जा रहा है कि पासवान की दोस्ती तीसरे मोर्चे के तहत आने वाले लगभग सभी दलों से है। ऐसे में चुनाव के बाद अगर बीजेपी को सरकार बनाने के लिए 30-40 सीटों की जरुरत होगी तो पासवान अच्छे मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए पार्टियों को एनडीए के पाले में ला सकते हैं। यानी वाजपेयी सरकार के दौर में जो भूमिका एनडीए के पूर्व साथी जेडीयूए के शरद यादव ने निभायी थी उसी भूमिका में मोदी के काल में पासवान निभायेंगे। याद कीजिये तो शरद यादव एनडीए के संयोजक थे। अब यही भूमिका पासवान निभा सकते हैं। यानी दृश्य बदल रहा है। प्यादे बदल रहे है। वजीर के चेहरे भी बदल रहे है। लेकिन चाल वहीं पुरानी है। और भ्रष्टाचार या ईमानदारी की राजनीति इस सियासी गठबंधन में ताक पर है।
Friday, February 28, 2014
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मोदी के तीन इक्के हर दाग धो देंगे ! |
Tuesday, February 25, 2014
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संघ की बिसात पर सोशल इंजीनियरिंग |
नरेन्द्र मोदी, रामविलास पासवान और उदित राज। तीनों की राजनीतिक मजबूरी ने तीनों को एक साथ ला खड़ा किया है। या फिर तीनों के लाभालाभ ने एक दूसरे का हाथ थामने के हालात पैदा कर दिये हैं। 2014 के आम चुनाव को लेकर बिछते राजनीतिक बिसात पर बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग का यह नायाब चेहरा है। या फिर पहली बार संघ परिवार के ओबीसी नायक नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की हवा में अपनी राजनीतिक जमीन बनाने का प्रयास उदितत राज और रामविलास कर रहे हैं। हो जो भी लेकिन राजनीतिक गठबंधन इस तरह करवट लेगें यह बीजेपी ने तो नहीं ही सोचा होगा बल्कि संघ परिवार को तो सोते में भी इसका अहसास नहीं होगा कि जिस जातीय राजनीति का पाठ उसने कभी अपने राजनीतिक स्वयंसेवकों को पढाय़ा ही नहीं, वह कैसे संघ परिवार के सबसे मुखर स्वयंसेवक के साथ आ खड़ा हुआ है। इतिहास के पन्नों को पलटे तो उदित राज हो या रामविलास पासवान दोनों ने जातीय राजनीति के आसरे पहला निशाना हमेशा बीजेपी पर ही साधा है। याद कीजिये 1990 में मंडल कमीशन का विरोध बीजेपी कर रही थी तो वीपी सिंह ने आडवाणी की राम रथ यात्रा को थामने के लिये सबसे पहले रामविलास पासवान को ही सड़क पर उतारा था। पासवान बकायदा दलित सेना लेकर सड़क पर उतरे थे और बीजेपी को जातीय जरुरत को समझने का पाठ सड़क से पढाना शुरु किया था।
उस वक्त पासवान सबसे मुखर होकर बीजेपी की राजनीति पर निशाना साध रहे थे और बीजेपी को मनुवादी करार देने से नहीं चूक रहे थे। इसी तर्ज पर 4 नवंबर 2001 में बौध धर्म अपना कर उदितराज ने संघ परिवार पर सीधा निशाना साधा था। और सर मुंडा कर आरएसएस के ब्राह्मणवादी सोच पर सीधा हमला बोला था। बीजेपी की हिन्दुत्व थ्योरी पर सीधी चोट की थी। और तो और 6 दिसबंर 2002 को तो चेन्नई में धर्म परिवर्तन की सबा में संघ पर जिस तरह सीधा हमला किया था, उसके बाद विहिप के गिरिराज किसोर ने तो खुले तौर पर उदितराज की राजनीति को नौंटकी करार देते हुये समाज में विष फैलाने वाला करार दिया था। ध्यान दें तो 1990 हो या 2001 संघ परिवार ने ही नहीं बीजेपी ने भी कभी इस तरह की सोशल इंजीनियरिंग को तरजीह दी नहीं। 90 में कमंडल तले मंडल के नीचे से समर्थन खींच लिया तो वीपी सिंह की सरकार गिर गयी और 2001 में गोविन्दाचार्य यूपी बिहार घूम घूम कर आरएसएस को सोशल इंजीनियरिंग पाठ पढ़ा रहे थे। लेकिन मुखौटे के मुद्दे पर गोविन्दाचार्य को बीजेपी ने झटका तो संघ ने भी आसरा इसीलिये नहीं दिया क्योकि तबतक कल्याण सिंह के जरीये अयोध्याकांड का सोशल इंजीनियरिंग का बुखार संघ से उतर चुका था ।
लेकिन अब इतिहास के पन्नो को मिटा कर जब नया इतिहास ही 2014 के लोकसभा चुनाव के लिये लिखा जा रहा है तो मोदी की चुनावी बिसात पर उदितराज और पासवान को प्यादा या वजीर के तौर पर मानना देखना होगा। क्योंकि लोकसभा की कुल 543 में से 120 सीटे सिर्फ यूपी और बिहार में है जहा बीजेपी दलित वोट में इन्दीं दो के आसरे सेंध लगाना चाहती है। यूपी और बिहार में दलित वोट बैक 22 से 24 फिसदी के बीच है। यूपी में मायावती को 2009 में दलितों के 55 फिसदी वोट मिले थे। लेकिन बिहार में दलित वोट बैंक के कई खिलाड़ी हैं और दलितों में महादलित का खेल नीतीश कुमार ने जैसे ही किया वैसे ही लालू पासवान का सिक्का भी कमजोर पड़ गया। दरअसल, नरेन्द्र मोदी पीएम की रेस में जिस तरह दौड़ रहे है उसमें पहली बार आरएसएस ने भी विचारधारा की लक्ष्मण रेखा तक को मिटा दिया है। और जातीय राजनीति का गणित अगर मोदी को पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने के अनुकूल है तो फिर संघ ने भी अपनी बांहें समेट रखी हैं। असर इसी का है कि यूपी बिहार में लोकसभा की कुल 120 सीटो के लिये बीजेपी के सोशल इंजीनियरिंग का यह सबसे बड़ा सियासी दांव खेला जा रहा है। उदित राज यूपी के रामनगर के हैं। खटिक है तो यूपी में मायावती के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिये बीजेपी के पास अभी तक कोई चेहरा नहीं था। तो दलित वोट बैंक को लेकर उदितराज बीजेपी का नया चेहरा हो सकते हैं। वहीं बिहार में भी बीजेपी के पास दलित वोट के लिये कोई चेहरा नही है ऐसे में रामविलास पासवान अगर बीजेपी के साथ आ जाते है तो फिर बिहार में बीजेपी को बड़ा लाभ हो सकता है। क्योंकि पासवान के पक्ष में दलितों के वोट सबसे ज्यादा पड़ते रहे हैं। ऐसे में बीजेपी के साथ पासवान अगर मिलते हैं तो जातीय गणित बीजेपी को भी जीत दिलायेगा और पासवान को भी राजनीतिक जीत का लाभ मिलेगा। आंकड़ों के लिहाज से समझे तो बिहार में 23 फिसदी दलित हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में दलित वोट बैंक में से रामविलास पासवान को सबसे ज्यादा 29 फिसदी वोट मिले थे। और बीजेपी को सबसे कम 8.5 फिसदी वोट मिले थे। ऐसे में अगर दोनो मिल जाते हैं तो 37.5 फिसदी वोट बीजेपी-एलजीपी गठबंधन के पास होगा। जो नीतिश कुमार के 23 फिसदी और लालू यादव के 16.5 फिसदी से कहीं आगे होगा। यानी बिहार की उन 12 सीटो पर बीजेपी-एलजेपी का सियासी गठबंधन मुसलिम वोट बैक की धार को बेअसर कर सकता है, जिसके आसरे लालू नीतिश या कांग्रेस अभी तक बीजेपी को मात देते आये हैं। हालांकि उदित राज के जरीये बीजेपी यूपी में कोई चुनावी गणित बदल देगी या मायावती के वोट बैंक में सेंध लगा देगी। यह कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन उदित राज की पहचान के साथ बीजेपी को तीन लाभ तो मिल ही सकते हैं। पहला यूपी में मायावती की काट के तौर पर इस्तेमाल, दूसरा बंगारू लक्ष्मण से हुए नुकसान की भरपाई का मौका मिलेगा और तीसरा उदितराज के जरीये दलितों की बनायी हुई मायावती की छवि को तोड़ा जा सकता है क्योंकि उदितराज पढे-लिखे अधिकारी रह चुके हैं और बाकायदा अंबेडकर की लीक पकड कर बौध धर्म अपनाया। और चूंकि उदितराज ने अपनी राजनीतिक पारी 13 बरस पहले 2001 में इंडियन जस्टिस पार्टी बनाकर शुरु की तो बीजेपी आंबेडकर की विरासत को उदितराज के साथ जोडकर मायावती की दलित सियासत में सेंध लगाने की चाल भी चलेगी।
लेकिन आखिरी सवाल संघ परिवार का है जिसकी पीठ पर मोदी सवारी कर भी रहे है और 2014 का डर दिखाकर संघ को झटकने से भी नहीं कतरा रहे है। ऐसे मोड़ पर आरएसएस चाहे उम्मीदवारो के नाम तय करें। चाहे संघ के स्वयंसेवक गली गली घूम कर हिन्दुत्व का राग अलापे और देश के लिये पहली बार हर किसी को वोट डालने के लिये घर से निकालने में भिड़े। लेकिन जब संसदीय चुनाव का रास्ता ही मोदी के नाम पर बन रहा होगा तो हर जीत के पीछे मोदी ही होंगे। संघ का चैक एंड बैंलेस काम कैसे करेगा। यह सवाल संघ को बैचेन तो जरुर कर रहा होगा लेकिन पहली बार संघ भी सत्ता देख रहा है और उम्मीद पाले हुये है कि सत्ता पाने के बाद किसी हिन्दी फिल्म की तर्ज पर पोयटिक जस्टिस होगी और मोदी भी संघ की विचारधारा तले लौट आयेंगे।
Tuesday, February 18, 2014
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विकल्प गायब है पीएम की रेस में |
हार्वर्ड से लेकर लंदन स्कूल आफ इकनॉमिक्स तक के तीन धुरंधर अर्थशास्त्री कैसे चुनावी बरस में डगमगा गये, उसकी तासीर है अंतरिम बजट। डॉ. मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और मोटेंक सिह अहलूवालिया की तिकड़ी ने बीते दस बरस में अपनी इकनॉमिक्स से आर्थिक सुधार की जो हवा बहायी, उसमें आवारा पूंजी ने कैसे समाज में असमानता पैदा की और कैसे क्रोनी कैपटलिज्म विकास का प्रतीक बन गयी, यह किसी से छुपी तो नहीं लेकिन जब चुनाव दस्तक दे रहा है तो झटके में हाशिये पर पड़े तबकों की सुध आ गयी। जरा ध्यान दीजिये, जो 10 मंत्रालय चिदंबरम के लिये जरुरी हो गये उसमें अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिला, बाल विकास ,परिवार कल्याण, हेल्थ, पंचायती राज, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय से लेकर पीने के पानी तक से जुड़े मंत्रालय शामिल है। सवाल यह नहीं है कि मनमोहनइक्नामिक्स पहली बार हाशिये पर पड़े तबकों को लेकर बैचेनी क्यों दिखा रही है। सवाल यह है कि खुली बाजार अर्थव्यवस्था का जो खाका 1991 में मनमोहन सिंह ने देश में रखा और बतौर पीएम जिस इकनॉमिक्स के जरीये दुनिया में भारत को अव्वल बनाने का सपना पाला वह चुनाव की आहट के साथ ही क्यों टूटता सा दिख रहा है ।
वहीं दूसरा सवाल है कि 2004 से 2014 के दौर में जिस तरह भारत की कंपनिया बहुराष्ट्रीय हो गयी। और दुनिया के बाजार में पैसा लगाने लगी क्या वह क्रोनी कैपिटिलिज्म के अंत की शुरुआत है। क्योंकि बीते 10 बरस का एक सच यह भी है कि कारपोरेट के अनुसार देश के हर मंत्रालय की नीतिया बनने लगी। जिस वक्त नीरा राडिया के टेप सामने आये और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले से देश में हडकंप मचा उसका एक सच यह भी है कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के सोलह मंत्रालयों में कॉरपोरेट के बिचौलिये ही कॉरपोरेट के मुनाफे वाले प्रोजेक्ट को लेकर 2008 से 2011 तक ले जाते रहे। मंत्री का खुला निर्देश नौकरशाही को मिलता रहा और कॉरपोरेट की हर फाइल पर चिड़िया बैठती रही। इस काम को जाम देने के लिये नीरा राड़िया तो एक कंपनी भर है। सरकार की सूची में नीरा राडिया सरीखे 129 बिचौलिये 2011 तक काम करते रहे। और जिन मंत्रालयो ने कारपोरेट के जरिये देश के कथित विकास को गति दी उसे पीएम मनमोहन सिंह ने अव्वल माना।
लेकिन इसी दौर में हुआ क्या। देश की खनिज संपदा औने पौने दाम में निजी हाथो में दे दी गयी। कोयला हो या गैस। बिजली उत्पादन हो या खनन। सब कुछ खुल कर लूटा गया। और दसवें बरस के अंतरिम बजट में संभवत इसीलिये दामन के दाग छुपाने के लिये चिदबंरम को कहना पड़ा कि कोयलेखनन से उत्पादन बढ़ा है। प्राकृतिक गैस कुओं से उत्पादन जारी है..परमाणु रियक्टर जल्द काम करने लगेंगे। लेकिन जिस तरह बाजार के हाथों में सबकुछ सौपने का सिलसिला शुरु हुआ है, उससे देश के उपभोक्ता और नागरिकों के बीच ही कैसे लकीर खिंच गयी है। और कैसे सरकार के सरोकार आम आदमी से खत्म होते जा रहे है, इस पर बीते दो दशक से किसी ने ध्यान नहीं दिया। और उसका एक असर ही है कि मौजूदा वक्त में देश की जीडीपी में खेती का योगदान 17 फिसदी और उघोग उत्पाद का योगदान 23 प्रतिशत हो चुका है जबकि सर्विस सेक्टर की भूमिका बढते बढते 60 फीसदी तक जा पहुंची।
यानी हर हाथ में मोबाइल हो या चुनाव में बंटने वाला लैपटॉप। सरकार चार्जर तक का उत्पादन तो कर नहीं पा रही है। ऐसे में रोजगार पैदा हो कैसे और रोजगार ना मिलने पर युवा तबके का आक्रोश निकलेगा किसपर यह सवाल किसी राजनीतिक दल के जहन में नहीं है। ध्यान दें तो आर्थिक सुधार की धारा में देश के अस्सी फिसदी तबके को लेकर राजनीतिक दान और 20 फीसदी उपभोक्ताओं को लेकर क्रोनी कैपटिलिज्म का ही अर्थसास्त्र बीते दो दशक का सच है। और झटके में ट्रैक वन से ट्रैक-टू के खेल में अर्थसास्त्र को राजनीति बिसात पर प्यादा करार दिया गया है। यानी सत्ता बदले या कोई भी सत्ता में आये खुली बाजार की थ्योरी में हर राजनीतिक दल की राजनीति भी बाजार के सामने बौनी हो चली है तो फिर तीन सवाल देश के सामने है। पहला, क्या मौजूदा वक्त में देश वैकल्पिक राजनीति के लिये तैयार है। दूसरा, वैकल्पिक राजनीति का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन है। और तीसरा, संसदीय राजनीति को लेकर जनता में आक्रोश इस हद तक है कि वह मौजूदा राजनीतिक दल से इतर किसी को भी चुनने के लिये तैयार है। यह तीनों सवाल इसलिये बड़े हैं क्योंकि चिदंबरम का अंतरिम बजट भी 2104 के लोकसभा चुनाव को देख रहा है। अंतरिम बजट खारिज करने वाले बीजेपी से लेकर वामपंथियों के बयान को भी चुनाव के मद्देनजर दिया जा रहा है। और सत्ता बदलने से भी को परिवर्तन नहीं होगा यह भी 2014 के मद्देनजर वैकल्पिक राजनीति का ज्ञान देने वाली आमआदमी पार्टी कह रही है। तो क्या यह मान लिया जाये कि देश की राजनीति वैचारिक तौर पर सबसे ज्यादा दिवालियपन वाले हालात को जी रही है। या फिर पहली बार देश के सामने यह मौका आया है कि 2014 के चुनाव को ही देश की नीतियों के आसरे उठाकर पारंपरिक राजनीति को ही पलट दिया जाये। यह जरुरी क्यों है, इसे समझने के लिये देश के उस आंकड़े को ही देख लें, जिसे ब्रिटिश फर्म पिछले बरस दुनिया के सामने रखा। तो रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वक्त में भारत में सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करने वाला क्षेत्र है प्राइवेट सिक्योरटी का। और दूसरे नंबर पर है लिफ्ट में स्टूल डाल कर बैठा लिफ्ट मैन। यानी जिस देश में उच्च शिक्षा को लेकर कसीदे गढ़े जाते हों और दुनिया भर में साफ्टवेयर से लेकर मैनेजमेंट के छात्रो की घूम भारत के छात्र मचाने का जिक्र होता हो उस देश में कलर्क पैदा करने से भी बुरे हालात रोजगार पैदा करने को लेकर हो चुके है।
हालात यह है तो 2014 के चुनाव में काग्रेस फिसल जायेगी यह सोच कर बीजेपी ताली जरुर पिट सकती है । लेकिन क्या बीजेपी के पास कोई वैक्पिक सोच है या फिर मनमोहन सिंह के बदले पीएम के कुर्सी पर बैठने के लिये बैचेन नरेन्द्र मोदी के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति है। जाहिर है बीजेपी यह कहकर खुश हो जायेगी कि सारा खेल तो गवर्नेंस का है। और मोदी के आते ही उसमें सुधार हो जायेगा। लेकिन जरा सोचिये कि मोदी के मुखौटे तक तो चीन से बनकर गुजरात में आते रहे। जिसके आसरे मोदी लगातार लोकप्रिय होते चले गये। किसान और ग्रामीण तो बीते छह बरस में कॉरपोरेट के धंधो के फैलाव में अपनी जमीन गंवाते चले गये। समूचे देश में बिल्डर से लेकर कारपोरेट घरानो तक की आय में 900 गुना की औसत वृद्दि सिर्फ 6 बरस में हो गयी। ऐसे में आखरी सवाल यही है कि क्या 2014 का चुनाव डॉ मनमोहन सिंह की इकनॉमिक्स का खात्मा है या फिर बीजेपी मनमोहन इकनॉमिक्स की धारा को नये सिरे से अपनायेगी। सिर्फ नाम कुछ अलग रख दिया जायेगा। क्योंकि कारपोरेट के धुरंधर जो कल तक मनमोहन के पीछे थे वही आज नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़े है। या फिर देश के हालात चुनाव के बाद महात्मा गांधी के हर हाथ को काम पर लौटेंगे। या संघ के स्वदेशी चिंतन की दिशा में सोचेंगे। या नेहरु की मिक्स इकनॉमी के युग में लौंटगे। जहां खेती, उघोग और सर्विस सेक्टर पर एक समान नजर रखी जायेगी। इंतजार करना होगा क्योंकि पहली बार सत्ता या गवर्नेंस का मतलब 7 आरसीआर पर दस्तक देना भर नहीं है। बल्कि रायसीना हिल्स पर बैठकर देश की आत्मा को आत्मसात करना होगा। यह पीएम के लिये दौड़ते, भागते ,हांफते उम्मीदवारो में नजर नहीं आता।
Tuesday, February 11, 2014
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....तो विकास का सिस्टम ऐसे चलता है |
1 लाख 76 हजार करोड़ का 2 जी स्कैम, 1 लाख 85 हजार करोड़ का कोयला घोटाला और अब करीब सवा लाख करोड़ का गैस घोटाला। 2जी घोटाले के खेल में 6 कॉरपोरेट घरानों के नाम आये। कोयला घोटाले में 27 कॉरपोरेट और 19 कंपनियों के नाम आये। और गैस घोटाले में रिलायंस इंडस्ट्री का नाम आया। 2जी घोटाला 2008 में हुआ। कोयला घोटाला 1998 से शुरु हुआ और 2010 तक जारी रहा। गैस घोटाले की शुरुआत 2004 में हुई। यानी 2जी घोटाला मनमोहन सिंह के दौर में हुआ तो कोयला घोटाला वाजपेयी के दौर से शुरु होकर मनमोहन सिंह के दौर में ज्यादा तेजी से होने लगा। और गैस के घोटाले पर हस्ताक्षर तो मनमोहन सिंह के दौर में हुये लेकिन केजी बेसिन को मुकेश अंबानी के हवाले 2002 में वाजपेयी सरकार के दौर में ही किया गया। और इन तीनों की कीमत जिस औने पौने दाम में कॉरपोरेट को दी गयी और उससे जो मुनाफा कॉरपोरेट ने कमाया उसे अगर सीएजी के दायरे में देखें तो देश को 2जी, कोयला और प्रकृतिक गैस के घोटाले से 4 लाख 86 हजार 591 करोड का चूना लगा दिया गया। तो देश को चूना लगाने वाली इस रकम यानी 486591 करोड़ रपये के मायने भी समझ लें। मौजूदा वक्त में अगर यह रकम रसोई गैस और पेट्रोल डीजल में राहत के लिये जोड़ दी जाये। यानी तमाम लूट के बाद भी जो कीमत आम जनता से सरकार वसूल रही है अगर उसमें 4 लाख 86 हजार करोड की सब्सिडी मिलने लगे तो महंगाई में तीन सौ फीसदी की कमी आ जायेगी। क्योंकि तब पेट्रोल औसतन 70 रुपये लीटर से घटकर 36 रुपये लीटर पर आ जायेगा। डीजल में 60 फीसदी प्रति लीटर की कमी हो जायेगी। और रसोई गैस प्रति सिलेन्डर आम जनता को 250 रुपये में मिलने लगेगा।
यू महंगाई का सवाल इस लिये भी इन तीनों से जुड़ा है क्योंकि इन तीनों पर कॉरपोरेट का सीधा कब्जा है। यानी सरकार चाहे तो भी इनकी कीमत तय नहीं कर सकती है और जिन कॉरपोरेट के हाथ में इसका लाइसेंस होगा वह अपने मुनाफे को आंक कर ही कीमत तय करेगा। तो इन कीमतो से पड़ने वाले सीधे असर को समझें तो औघोगिक उत्पाद,खेती और सफर के महंगे होने में इन तीनो की भूमिका सबसे बड़ी है। क्योंकि इसी की वजह से गैस के पावर प्लांट से लेकर खाद तक की कीमतें बढ़ीं। जो 1 अप्रेल से और ज्यादा बढ़ेंगी। और इस लकीर पर संयोग से 2जी के घोटाले ने संचार व्यवस्था को भी लूटतंत्र में बदला है तो आधुनिक होते भारत में सिर्फ वहीं सुकून से जी सकता है, जिसकी जेब भरी हो या फिर औसतन कमाई हर महीने कम से कम 52 हजार जरुर हों। यानी जिस देश में सालाना कमाई ही औसतन 50 हजार बतायी जाती हो। और इस 50 हजार रुपये सालाना औसतन कमाई का सच यह हो कि देश की 80 फीसदी आबादी की सालाना कमाई महज 4 हजार रुपये से कम हो तो कल्पना कीजिये कि देश में असमानता का पैमाना कितना तीखा है और कारपोरेट की कमाई कितनी ज्यादा है। कारपोरेट-सरकार नैक्सैस के खेल में देश के ही संसाधनों की कीमत कैसे तय होती होगी यह भी अब खुले तौर पर सामने लगा है।
दरअसल, सवाल सिर्फ कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए का नहीं है, यह बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए का भी है। मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडिया लिमिटेड को को बारह बरस पहले वाजपेयी सरकार ने प्रकृतिक गैस निकालने के लिये केजी बेसिन सौपा। और वाजपेयी सरकार के जाने के बाद 2004 में मनमोहन सरकार ने मुकेश अंबानी के साथ गैस खरीदने का सौदा किया। दरअसल दिल्ली सरकार ने जिन दो केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले में एपआईआर दर्ज की है उसकी वजह उन्हीं के पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये मुकेश अंबानी की हर शर्त मानने का आरोप है। मसलन 2004 में पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर थे और 2006 में मणिशंकर अय्यर को तब पेट्रोलियम मंत्री पद से हटा दिया गया जब रिलांयस ने खर्च करने की आधिकतम निर्धारित रकम 2.39 बिलियन डालर से बढाकर 8.8 बिलियन डालर करने की मांग की। साथ ही प्रति यूनिट गैस की कीमत 2.34 डालर से बढ़ाकर 4.2 डालर करने की मांग की । अय्यर नहीं माने तो मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर मुरली देवडा को पेट्रोलियम मंत्री बना दिया और देवडा ने रिलायंस की तमाम शर्तो पर सहमति दी, जिस पर कैबिनेट ने मुहर लगा दी। इसी तरह रिलांयस ने अगला खेल 2012 में किया। उस वक्त जयराल रेड्डी पेट्रोलियम मंत्री थे और रिलांयस ने प्रति यूनिट गैस 4.2 डॉलर से बढ़ाकर 14.2 डालर प्रति यूनिट करने की मांग की। जयपाल रेड्डी नहीं माने तो मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर वीरप्पा मोइली को पेट्रोलियम मंत्री बना दिया। और मंत्री बदलते ही समझौता हो गया। तय यही हुआ कि 1 अप्रैल 2014 से प्रति यूनिट गैस की किमत 8.4 डालर प्रति यूनिट होगी।
दरअसल, गैस के इस खेल को बेहद बारिकी से अंजाम दिया गया। क्योंकि जब सरकार ने गैस के खरीद मूल्य को बढ़ाने से इंकार किया तो कई वजहो को बताते हुये गैस के उत्पादन में कमी कर दी गयी। उसके बाद जो रिपोर्ट सरकार के सामने आयी वह भी कम दिल्चस्प नहीं है। बताया गया कि मुकेश अंबानी से समझौता कर लें तो रिलायंस को 43000 करोड़ का लाभ होगा। और रिलायंस ने उत्पादन कम कर दिया है और विदेशी बाजार से गैस खरीदना पड़ रहा है तो सरकार पर 53000 करोड का बोझ पड़ रहा है। तो रिलायंस के आगे मनमोहन सरकार झुक गयी। और इसी मामले को सीपीआई सांसद गुरुदास दास गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट में भी उठाया। और सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट में करीब एक लाख 25 हजार करोड का मुनाफा रिलायंस को देने का आरोप भी लगाया। लेकिन इन सब के बाद अब दिल्ली के सीएम केजरीवाल ने इस पूरे मामले को ही आपराधिक मामले करार दे दिया है। और दिल्ली के एंटी करप्शन ब्यूरो को एफआईआर दर्ज करने के आदेश दे दिये है। उसके बाद कई सवाल खड़े हो गये हैं। एफआईआर दर्ज करने के बाद एंटी करप्शन ब्यूरो क्या आरोपियों को गिरफ्तार करेगा। क्या गिरफ्तारी से बचने के लिये अब आरोपी हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटायेंगे। क्या खनिज संपदा को लेकर रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट को ही आधार बना लिया जायेगा। क्या सुप्रीम कोर्ट अब तेजी से काम करेगा और कोई फैसला जल्द सुना देगा। बड़ा सवाल कि 1 अप्रैल 2014 से गैस की कीमत क्या होगी। लेकिन सिस्टम का मतलब क्रोनी कैपटिलिज्म हो चुका है यह तो मान लीजिये।
Sunday, February 9, 2014
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क्या संघ की बिसात को मोदी ने बदल दिया ? |
मोदी की हर रैली उफान पर है। चाहे मेरठ हो या कोलकाता या फिर असम या इंफाल की रैली। भीड़ हर जगह है। मोदी की आवाज गूंज रही है और कांग्रेस की सत्ता को चेताते हुये मोदी लगातार बीजेपी का सेंसेक्स ऊपर उठा रहे हैं। बीजेपी का हर कार्यकर्ता गदगद है कि मोदी का कद लगातार बढ़ भी रहा है और लोकप्रियता के नये पैमाने नापे भी जा रहे हैं। लेकिन मोदी के इस हंगामे में आरएसएस की विचारधारा और उसकी मूलभूत राजनीति के तौर तरीके गायब होते जा रहे हैं। मोदी जिस तरह से विकास का खांचा रख रहे हैं। जिस तरह कांग्रेस की अर्थनीति पर सवाल दाग रहे हैं।
मोदी जिस तरह कांग्रेस को गांधी परिवार में सिमटा रहे हैं। मोदी चीन की विस्तार नीति के बदले सीमा पर दखल और पाकिस्तान के सीमा पर दखल के बदले पड़ोसी से संबंधों पर जोर दे रहे हैं, उससे अब संघ के भीतर भी सवाल उठने लगे हैं। जानकारी के मुताबिक आरएसएस के साथ अलग अलग क्षेत्रों में संघ की विचारधारा के साथ काम कर रहे दर्जन भर से संगठनों को लगने लगा है कि जिस तरह मोदी देश भर में राजनीतिक रैली के जरीये चुनावी गणित बैठा रहे हैं, उसमें संघ के मुद्दे हाशिये पर चले गये हैं। और किसान संघ से लेकर आदिवासियों के बीच काम रकने वाले स्वयंसेवक और स्वदेशी के सवाल से लेकर से लेकर सामाजिक शुद्दीकरण की सोच कही मायने रख ही नहीं रही। यहां तक ही संघ की समूची विचारधारा का ही राजनीतिकरण चुनाव की जीत -हार पर जा टिका है।
और पहली बार ऐसा लगने लगा हा कि मोदी के लिये देश भर में बनते वातावरण में आरएसएस के 89 बरस कोई मायने ही नहीं रखते हैं। यानी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक तौर पर संघ की जिस सोच का पाठ बीते 89 बरस से स्वयंसेवक पढ़ रहे हैं और हेडगेवार से लेकर मोहन भागवत तक के दौर में जो भी स्वयसेवकों ने सीखा वह सब मोदी की जीत हार तले जा पहुंचा है। यह सवाल इसलिये बड़ा होते जा रहे हैं क्योंकि गुजरात में मोदी के गवर्नेंस को लेकर पहला विरोध कांग्रेस ने नहीं किया बल्कि विश्व हिन्दु परिषद से लेकर स्वदेशी विचार मंच ने किया। किसान संघ से लेकर आदिवासी कल्याण आश्रम चलाने वाले स्वयंसेवको के सामने मोदी को लेकर मुश्किल आयी। ऐसे में नरेन्द्र मोदी की आधुनिक सोच या कहे विकास की अर्थवयवस्था का पूरा खांचा ही उसी बाजार अर्थव्यवस्ता पर टिका हुआ है जिसका विरोध एक वक्त दत्तोपंत ठेंगडी ने वाजपेयी सरकार के दौर में खुलकर किया था। और तब संघ के भीतर यह सवाल बड़ा हो गया था कि दिल्ली की सत्ता पर बैठ कर कोई स्वयंसेवक अगर संघ की विचारधारा को ही भूल जाये तो उसे रोका कैसे जाये। लेकिन इस बार तो सत्ता में पहुंचने के लिये संघ के स्वयंसेवक मोदी ने उसी चादर को लपेट लिया है जो संघ की सोच से मेल ही नहीं खाती। हालाकि संघ ने 2014 के चुनाव को लेकर मोदी की इस उड़ान पर ब्रेक लगाने के लिये कई रास्ते अपनाने शुरु कर दिये हैं।
मसलन, चुनाव मैदान में बीजेपी टिकट पा कर उतरने वाले हर उम्मीदवार को तभी मंजूरी मिलेगी जब संघ की मुहर लग जाये। इसके लिये हर राज्य में टिकटधारियों की प्रोफाइल स्वयंसेवक तैयार कर रहे हैं। पुराने स्वयंसेवकों से मिलकर संघ की सोच के करीबी व्यक्तियों को संघ के वरिष्ठ हर प्रांत में टटोल रहे हैं। बीजेपी को संघ के तरफ से यह भी यह भी कहा गया है कि गैर राजनीतिक अच्छे लोगों के लिये भी जगह खाली रखी जाये। जो अपने अपने प्रोफेशन छोड़कर बीजेपी से टिकट लड़ने को तैयार हो। साथ ही 50 फीसदी टिकट संघ जारी करेगा। खासतौर से यूपी में दागी या उसके रिश्तेदारों को टिकट नहीं दी जानी चाहिये। तो चुनाव के लिये तमाम तैयारी के बाबजूद संघ की मुश्कल यह है कि 2014 के चुनाव को पहली बार सरसंघचालक मोहन भागवत हो या सरसंघचालक भैयाजी जोशी या फिर इस कतार में खडे सुरेश सोनी हो या दत्तत्रेय होसबोले। सभी ने चुनाव को संघ के विस्तार से जोड़ा है और बकायदा हर बैठक में इसका जिक्र किया कि बीजेपी की राजनीतिक जीत हिन्दुत्व के प्रचार प्रसार के लिये क्यों जरुरी है। असर इसी का है कि पहली बार हर प्रांत में संघ का स्वयंसेवक चुनावी मशक्कत से जुड़ चुका है। लेकिन संघ की यही चुनावी मशक्कत को नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह अपनी जीत की बिसात मान ली है और संघ की ही बिसात पर खड़े होकर मोदी विकास का जो चेहरा देश को दिखा रहे है उसमें संघ की सोच कही नहीं है । बीजेपी से बडा कद बनाकर मोदी बीजेपी को भी अपने अनुसार गूंथ रहे हैं। संघ इससे भी परेशान है। और 2014 की चुनावी जीत हार को सिर्फ अपने इर्द-गिर्द ही मोदी ने जिस तरह समेट लिया है उससे भी संघ नाराज है कि सांगठनिक सोच गायब हो रही है। असर इसी का है कि आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को राज्यसभा में भेजने की बात मोदी की तिकड़ी के जरीये दिल्ली में उड़ायी गई। और नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह और अरुण जेटली सरीखे नेताओं की पहल चुनाव से पहले संसदीय बोर्ड को भी खत्म कर कोर कमेटी बनाने की है। हालांकि संघ इसपर राजी नहीं है । लेकिन आसी पहल कई सवाल खडा कर रही है कि आखिर बीजेपी के भीतर वह सारे नेता अब कोई मायने नही रखते जिनकी अपनी पहचान है या फिर जो मोदी के सुर में सुर नहीं मिला सकते । ऐसे में संघ कैसे भविष्य में समाज को मथने या हर तबके को साथ लेकर चलने की बात भविष्य में कर सकता है । क्योकि मोदी की सियासत की बिसात चाहे आरएसएस की हो लेकिन मोदी के पांसे धीरे धीरे संघ को ही खारिज कर रहे है ।
और संघ के भीतर यह सवाल भी अब खडा होने लगा है संघ में कोकनस्थ ब्राह्मण के सामानातर बीजेपी की राजनीति के जरीये अब मोदी का ओबिसी कार्ड भी क्या महत्वपूर्ण हो चला है । और आने वाले वक्त में संघ की ब्राह्मणवादी सोच में भी मोदी की राजनीति हावी हो जायेगी । लेकिन संघ की मुस्किल यह है कि मोदी से बेहतर तरुप का पत्ता उसके पास कोई है नहीं । और संघ को भी लगने लगा है कि मोदी की अगुवाई में अगर सत्ता मिल जाती है तो फिर संध की विचारधारा को विस्तार मिल सकता है ऐसे में मोदी को रोकना या मोदी से टकराना अभी सही नहीं है । लेकिन यह सारे सवाल जिस तरह संघ के भीतर गूंज रहे है और स्वयसेवको को परेसान किये हुये है उसमें हर किसी का इंतजार मार्च में होने वाली संघ के प्रतिनिधी सभा पर जा टिकी है जहां से मोदी के लिये या कहे 2014 के चुनाव को लेकर कोई आखिरी मंत्र जरुर निकलेगा। आस सभी को इसी की है ।
Thursday, February 6, 2014
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सबसे खतरनाक है सियासी सपनों का सौदा |
देश में सपनों की कमी नहीं और 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर हर राजनेता सपने बेचने को तैयार है। यहां तक की प्रधानमंत्री की रेस में शामिल कद्दावर राजनेता भी सपनों को बेचने निकले हैं और अपने सपनों को मरने देना नहीं चाहते। नरेन्द्र मोदी का सपना है बंगाल में केसरिया लहराये। मोदी को लगने लगा है कि 2014 में 272 के आंकड़े को छूना है तो फिर बंगाल में इतिहास रचना होगा। 42 सीटों वाले बंगाल में सिर्फ बीजेपी के पास एक सीट है। 2009 में जसंवत सिह गोरखालैंड वाली जमीन से जीते थे। विधानसभा में तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुला। तो सवाल पश्चिम बंगाल में सेंध लगाने का नहीं बल्कि कोलकाता में 5 फरवरी को जो भीड मोदी को सुनने आयी, उसे वोट में बदल कर लाल बंगाल को केसरिये में बदलने का ख्वाब मोदी ने पाला है। इसालिये बेखौफ मोदी यह कहने से नहीं चूके कि दिल्ली की सत्ता पर बैठकर भी बंगाल को बदला जा सकता है। यूं बंगाल में कभी केसरिया जमीन बनी ही नहीं तो बीजेपी खड़ी होती कहां।
2011 के विधानसभा चुनाव सभी 294 सीटो पर चुनाव लड़कर भी केसरिया का सच शून्य ही रहा। 2006 में तीन दर्जन सीटो पर बीजेपी ने अपने उम्मीदवारों को खड़ा करने का सपना पाला और वह भी शून्य में सिमट गया। लेकिन अब मोदी है और मोदी ने लालकिले का सपना देखा है। तो फिर बंगाल को अधूरा कैसे छोड़ सकते हैं। वैसे सपना तो मुलायम, नीतिश कुमार, जयललिता और नवीन पटनायक की चौकड़ी ने भी देखा है। किसी ने तीसरे मोर्चे का सपना देखा है तो किसी ने तीसरे मोर्चे के जरिये पीएम बनने का सपना। और इसकी पहली आहट 5 फरवरी को ही संसद में तब दिखायी दी जब 11 राजनीतिक दलों ने हाथ मिलाकर कहा कि चुनाव के लिये जनता को लुभाने वाली मनमोहन सरकार की नीतियों को अब संसद से सड़क पर जाने नहीं देंगे। और यही गांठ 2014 के चुनाव में तीसरे मोर्चे की दस्तक है। तो तीसरे मोर्चे के सपनों पर ध्यान दें तो वामपंथी गठबंदन की अगुवाई करते प्रकाश करात के पास चार दल हैं लेकिन लोकसभा की महज 24 सीट हैं। इसी तरह मुलायम के पास 22, नीतीश कुमार के पास 19, नवीन पटनायक के पास 14, जयललिता के पास 9, बाबूलाल मंराडी के पास 2, देवेगौडा के पास 1 और मंहत के पास भी एक ही सांसद है। यानी इनकी जमीन कितनी पोपली है इसका अंदाजा इसी से लग सकता है हर चेहरे का वजूद उसके अपने राज्य में सिमटा हुआ है और जयलिलता और नवीन पटनायक को छोड दें तो कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो अपने राज्य में ही नंबर एक पर हो। लेकिन सपने हैं तो उड़ान भरी जा रही है। और फिलहाल इनके पास 543 में से महज 92 सीटे हैं।
सपनो की इस सियासत में ममता बनर्जी भी शामिल हो जायें, इसकी कवायद शुरु हो गयी है। यह सपना इसलिये क्योंकि वाम के साथ ममता कैसे खड़ी होंगी, यह भी किसी सपने से कम नहीं। इसके सामानांतर अनूठा सवाल तो यह है कि बंगाल की 42 में से 31 सीट ऐसी है, जहां मोदी के विकास के मंत्र पर गुजरात की प्रयोगशाला भारी पड़ेगी। और देश में इसी चेहरे को विस्तार मिल जाये तो 543 में से 218 सीटो पर गुजरात की प्रयोगशाला मोदी के विकास के मंत्र पर भारी पड़ेगी। लेकिन मोदी 2014 की नब्ज को 272 की तर्ज पर पकडना चाह रहे हैं तो भाषणों में मोदी की मुनादी भी बदलाव की हवा को तेज करने वाली ही होती जा रही है। सपनों की इस सियासत में कांग्रेस भी पीछे रहना नहीं चाहती है तो सपनो की सियासत को और तेज उड़ान खांटी कांग्रेसी जनार्दन दिवेदी ने दे दी है। मनमोहन सरकार ने जिस तरह सरकारी शासन पानी को कैश ट्रांसफर तक के हालात में वोट बैंक के लिये ला खड़ा किया। और विकास की लकीरों के जरीये समाज में असमानता चरम पर पहुंचा दी, उसमें पहली बार कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने आरक्षण का सवाल गरीबी के साथ जोड़कर अपने हाथ को आम आदमी के साथ खड़ा करने का सपना फिर पाला है। तो जो होना चाहिये उसे सपना बनाया जा रहा है या फिर सपनो के घोडे पर सवार होकर सियासी उड़ान भरने की मंशा अब कांग्रेस ने भी पाल ली है। लेकिन संयोग ऐसा है कि नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के सपनो का सच उनकी अपनी बनायी सियासी जमीन पर ही टिकी है। एक ने गुजरात को प्रयोगशाला बनाया तो दूसरे ने देश को। अंतर सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी को देश में अपनी बनायी प्रयोगशाला की जमीन पर खडे होकर ही सपने बेचने हैं। लेकिन मोदी को गुजरात से निकलकर हर राज्य में अलह अलग सपने बेचने हैं। बंगाल की जमीन पर नरेन्द्र मोदी के निशाने पर वामपंथी आ जाते है और वामपंथियों के मुद्दे को चुरा कर कांग्रेसी जातीय आधार पर टिके वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है। खुले तौर पर आर्थिक आधार पर आरक्षण का सवाल जनार्दन उठाते हैं और उसके बाद सोनिया गांधी बयान के जरीये साफ करती है कि आरक्षण पर काग्रेस का नजरिया बदला नहीं है, जातीय आधार तो बरकरार रहे लेकिन 2009 के चुनावी मैनिफैस्टो में तो आर्थिक तौर पर कमजोर तबको को आरक्षण देने की बात कांग्रेस ने कही ही थी।
सवाल सिर्फ इतना है कि कांग्रेस को यह सब कहने की जरुरत क्यों पड़ रही है। जबकि बीते 9 बरस 9 महीनो में मनमोहन सरकार ने सिर्फ सपने ही बेचे है। और सपनों को बेचते बेचते आज जब कांग्रेस ढलान पर है तो वह अपने सपनों से देश के सपनों को जोड़ने का सपना देख रही है। लेकिन जातीय आधार पर टिके आरक्षण का सपना भी चूर चूर तो नहीं हो रहा। क्योंकि यूपी में मुलायम और मायावती, बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार ऐसे बडे खिलाड़ी हैं जो आरक्षण के जरिये जातीय विकास के सपने बेचते रहे लेकिन राज्य का विकास सपनो की उडान से ही गुफ्तगू करता रहा। और आरक्षण पाकर भी जातीय समीकरण की राजनीति ने हाशिये पर पड़े तबकों की जिन्दगी ही उडन-छू कर दी। इसलिये एक बार फिर आरक्षण का मंत्र भी बदल कर खुद का टेस्ट कांग्रेस कर रही है। गुजरात को लेकर कांग्रेस की सतही सियासत तो और ही गुल खिला रही है। क्योंकि मोदी देश में घूम घूमकर राहुल गांधी की सियासत को आइना दिखा रहे हैं तो अब राहुल गांधी मोदी की जमीन पर जा कर चुनौती देने का मन बना रहे हैं। 8 फरवरी को गुजरात के बरदोली में राहुल गांधी विकास खोज यात्रा की अगुवाई करेंगे। माना यही जा रहा है कि गुजरात के सीएम देश भर में घूम घूम कर जिस गुजरात मॉडल का बखान कर रहे हैं, उसी मॉडल की हवा निकालने के लिये राहुल गांघी आदिवासी बहुल इलाके बरदोली जा रहे हैं। लेकिन सपनों की सियासत का ताना बाना बुनने वाले कांग्रेसियों के लिये राहुल की गुजरात उढान का राजनीतिक सच कुछ और है।
दरअसल कांग्रेस की राजनीतिक जीत गुजरात में आदिवासी बहुल इलाकों में ही ज्यादा रही है। लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में मोदी ने कांग्रेस के वर्चस्व वाले आदिवासी इलाके में भी सेंध लगा दी। 2009 में आदिवासी बहुल 5 सीटो में से कांग्रेस ने 3 सीट जीती थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में इन 3 लोकसभा सीट के तहत आने वाली 22 में से 13 सीट मोदी ने जीत ली। असल में मोदी ने आदिवासियो के लिये तीन लोकलुभावन काम कर दिये। पहला हर आदिवासी को घर, दूसरा ,खेती की जमीन पर मालिकाना हक,और तीसरा कल्याण योजना के जरीये आर्थिक मदद। तो असल में राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि अगर 2014 के लोकसभा सीट में काग्रेस आदिवासी बहुल इलाको में भी जीत नहीं पायेगी तो यह कांग्रेस की हार से कही ज्यादा बड़ी मोदी की जीत होगी। क्योंकि सत्ता कभी भी पलटी हो लेकिन कांग्रेस ने कभी आदिवासी बहुल इलाको में सीटे गंवायी नहीं। तो राहुल की राजनीति का नायाब सच एक तीर से दो निशाना साधना है। एक तरफ सीटों को बचाना और दूसरी तरफ सीटों को बचाने के लिये विकास खोजो यात्रा के जरीये मोदी को घेरना। ऐसे में एक सपना दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नायक ने भी देखा है । इस सपने में हर दागी खारिज है और तीसरे मोर्चे की बात हो या मोदी या राहुल की सपना यही देखा गया है कि कोई भी संसद की चारदीवारी को छू भी नहीं पाये। जी, यह सपना देखा है अरविन्द केजरीवाल ने। दिल्ली की सत्ता आम आदमी की सत्ता है और देश की संसद भी आम आदमी की ससंद हो सकती है लेकिन क्या वाकई यह देश इस सपने को उड़ान भरने देगा। या फिर 2014 की हर कवायद सपने में बदलेगी और चुनाव बाद लोकतंत्र का नारा लगाते हुये एक नये तरीके का गठबंधन देश की जनता को ही चिढ़ाकर सत्ता पर काबिज हो जायेगा। और नारा लगेगा। लोकतंत्र जीत गया। या फिर सबसे खतरनाक है सपनो का सौदा करना।