साल भर पहले मनमोहन सिंह अछूत अर्थशास्त्री थे । साल भर पहले पहले जातीय राजनीति करने वाले बीजेपी के लिये अछूत थे । साल भर पहले कश्मीरी पंडितों की घरवापसी बीजेपी के लिये सबसे अहम थी । साल भर पहले किसानों के दर्द पर बीजेपी जान छिड़कने को तैयार थी । साल भर पहले सत्ता के दलालों के लिये बीजेपी में गुस्सा था । साल भर पहले बीजेपी को विश्व बैंक की नीतियों पर गुलाम बनाने वाली प्रतित होती थी। साल भर पहले बीजेपी अपनी जीत पर इतराती हुई एकला चलो के नारे को लगा रही थी । और साल भर में सबकुछ बदल गया । मनमोहन सिंह के लिये 7 आरसीआर के दरवाजे खुल गये । जातीय राजनीति की जमीन से उपजे जीतनराम मांझी से गलबहियां डालने के रास्ते निकाले जाने लगे। कश्मीरी पंडितों की उम्मीद मुफ्ती के साथ सत्ता प्रेम तले दफ्न होने लगी। किसानों को विकास के जाल में फंसाने के उपाय खोजे जाने लगे । राडिया टेपकांड की फाइल बंद कर दी गई। बिहार में चुनावी जीत के लिये जिस पप्पू यादव की दबंगई के कसीदे पढे गये वह दबंगई छूमंतर होने लगी । तो सरकार चलाने के लिये भी कही ममता तो कही जयललिता से हाथ मिलाना शुरु हो गया। विश्व बैंक की नीतियां विकास के लिये शानदार लगने लगीं और विश्व बैंक के हिमायती योजना आयोग के जिस मोंटेक सिह अहलूवालिया की अर्थशास्त्रीय सोच की टोपी संसद के भीतर उछाली गई उसी सोच के पनगढिया को नीति आयोग सौप दिया गया। तो क्या साल भर पहले जनता ने बदलाव के जो सपने नरेन्द्र मोदी के जरीये संजोये वह सिवाय सपने के और कुछ नहीं था । और क्या संसदीय राजनीति करते हुये सत्ता चलाने का कोई दूसरा रास्ता देश में है ही नहीं । यानी जातीय राजनीति , दागी राजनीति और कारपोरेट राजनीति ही जीत का आखिरी चुनावी मंत्र है। और सत्ता मिलने के बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हो या हिन्दू राष्ट्रवाद या फिर राष्ट्रीय स्वाभिमान का सवाल सब कुछ ठंडे बस्ते में डाल कर ही सत्ता चलायी जा सकती है । क्योंकि सत्ता को उसी संसद के जरीये चलना है जहां भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलो में लपेटे दौ सौ से ज्यादा सांसद है। इनमें 185 सांसदों को तो जनता ने ही अपनो वोट से चुना है। और बाकि राज्यसभा के सदस्यों में दागियों से ज्यादा तो उस सिस्टम की पहचान है जहां प्राइवेट बिजनेस निजी मुनाफे पर टिके होते हैं ।यानी राज्यसभा के चालिस फीसद सदस्यों के अपने घंघे है । कोई कारपोरेट से जुडा है तो कोई उघोगपति है । किसी के की फार्म है तो किसी के उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिकते है ।
अब यह सवाल हर जहन में उठ सकता है कि जिन सवालों को साल भर पहले नरेन्द्र मोदी ठसक के साथ उठा रहे थे वही सवाल अब सरकार चलाने में भारी पड़ रहे है । क्योंकि जिस यूपी में 15 लाख बेरोजगारों के नाम रोजगार दफ्तरों में दर्ज है उसी यूपी में पुलिस भर्ती में सत्ता के अनुकूल जाति देखी जाती है और जिस यूपी में आठ करोड लोग गरीबी की रेखा से नीचे हो वहा सत्ता शाहीअंदाज में विवाह समारोह करती हो और प्रधानमंत्री मोदी भी इसमें शरीक होने से नहीं हिचकते । दागदार लालू यादव की सत्ता को जंगल राज कहने में साल भर पहले भी नहीं हिचके और आज भी जो बीजेपी नहीं हिचकती है उनके साथ विवाह समारोह में गलबहियां डालकर फोटो खिंचवाने के लिये प्रधानमंत्री मोदी भी सैफई क्यों पहुंच जाते है । मुश्किल यह नहीं है कि जयललिता का आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में बरी होते ही देश के पीएम बधाई देते है या फिर चिट पंड में फंसी ममता को राजनीतिक तौर पर एक वक्त लताड़ते है और दूसरे पल समझौते की दिशा में कदम बढ जाते है । टूटती तृणमूल को राहत मिलती है तो जो ममता मनमोहन के साथ बांग्लादेश नहीं गई वह मोदी के साथ खड़ी होती दिखायी देती है । मुश्किल यह है कि हाशिये पर पडे देश के करोड़ों करोड़ लोग जो सत्ता के बदलाव से अपनी जिन्दगी में बदलाव के सपने संजोते हैं उनके सामने वही हालात नये चेहरे के साथ खड़े होते हैं । तो क्या हर पांच बरस बाद अब देश चुनाव के लिये जनता की भावनाओं के साथ खेलने का नायाब अवसर दे रहा है और यही राजनीतिक बिसात है । या फिर राजनीतिक सत्ता ही ऐसे मुहाने पर आ खडी हुई है जहा संसदीय ढांचा ही लोकतंत्र का आखिरी गीत है जिसे संसद के भीतर सुनने से लोकतंत्र का मर्सिया लगता है और जनता के बीच खड़े होकर
सुनने से दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश होने का गुरुर पैदा होता है। और सच है क्या यह हर चुनाव के वक्त नेताओं के भाषण या राजनेता के खिलाफ आक्रोश में सड़क पर जमा होते लोगों से खड़ा होते आंदोलन के बीच पता चल नहीं पाता है। क्योंकि राज्य चलाने का कोई आर्थिक-सामाजिक मॉडल कहीं से निकलता नहीं है । साल भर पहले पीएम बनने के लिये सैकड़ों मिल की यात्रा करते हुये नरेन्द्र मोदी जो कह रहे थे, वह सिवाय नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के दौर में सत्ता से बने सामाजिक मवाद के दिखाने-बताने के अलावे और कुछ था भी नहीं। और तीन बरस पहले दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर जंतरमंतर तक भी अन्ना के संघर्ष में जो कहा जा रहा था, वह भी सिवाय संसदीय राजनीतिक सत्ता के भीतर के मवाद को दिखाने-बताने के अलावे और कुछ था भी नहीं। यानी देश चले कैसे और चल रहे देश को कौन रोककर खड़े हैं और उसे दरकिनार किया कैसे जाये यह सवाल हर दौर में अनसुलझे रहे है या फिर संसदीय ढांचा जिन आधारों पर आ खड़ा हुआ है उन आधारों को ही देश मान लिया गया है। अगर कोई नेता,राजनेता,नौकरशाह,पार्टी कार्यकर्ता, व्यापारी, उघोगपति नहीं है तो वह देश का नागरिक है कहां और देश के संविधान के तहते उसे जो हक मिले है उसकी सुनेगा कौन इसकी कोई व्यवस्था किसी रुप में मौजूद है नहीं। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि देश में आर्थिक सुधार 1991 में शुरु हुये। और उसके बाद से देश के हालात में विकास का नाम लेकर कमोवेश हर पीएम ने अपने अपने तरीके से
रास्ते निकालने का जिक्र किया । विकास को चकाचौंध से जोड़ा। और मौजूदा वक्त में भी प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह लगातार विदेशी निवेश के जरीये विकास का जिक्र कर रहे है और उसी से हाशिये पर पडे भारत की तस्वीर बदलने का सपना दिखा रहे है, उसके उलट स्थिति यह है कि 1991 में भी भारत दुनिया के मानचित्र पर भूखमरी में पहले नंबर पर था और 2014-15 में भी भुखमरी में भारत पहले नंबर पर है।
तो फिर विकास के नाम पर किसका विकास होता है या आम जनता क्यों बदहाली में ही रह जाती है, यह सवाल बहुत जटिल नहीं है । पन्नों को पलटें तो 1991 में 1 अरब 30 करोड़ का विदेशी निवेश भारत में हुआ ।
और 2014-15 में 35 अरब डॉलर का विदेशी निवेश हुआ । लेकिन इसी विदेशी निवेश के आसरे देश को विकास की राह पर लाने का दावा करने वाले अब इस आंकड़े से परेशान होंगे कि 1990-92 के वक्त भी 21 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार थे और 2014-15 में भी करीब 19 करोड 60 लाख लोग भुखमरी के शिकार है । वैसे यह सवाल उठ सकता है कि तब आबादी कम थी और अब आबादी ज्यादा है । लेकिन समझना यह भी होगा कि आखिर विकास का कौन सा मॉडल हम अपना रहे है । क्योंकि दुनिया के मानचित्र पर पच्चीस बरस पहले भी इसी दौर में भारत के तमाम पड़ोसियों के भुखमरी के हालात में खासा सुधार हुआ है। नेपाल में भुखमरी की स्थिति में 65.6 फीसदी और भूटान में 49.9 फीसदी की कमी हुई। चीन में भी भारत से कम भुखमरी है । और यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के स्टेट ऑफ फूड इनसिक्योरिटी इन द वर्ल्ड की है। जिसके मुताबिक दुनियाभर में 79 करोड़
चालिस लाख लोग भुखमरी के शिकार है, इनमें से भारत में 19 करोड़ चालिस लाख लोग शामिल है । और मनमोहन सिंह विकास के नाम पर जिस आर्थिक सुधार को लेकर आये और चीन उस वक्त भी जिस कृषि विकास को लेकर काम कर रहा था असर उसी का है कि 1991 में चीन में 29 करोड़ भुखमरी के शिकार थे जो 2015 में घट कर 13 करोड़ पर आ गया और भारत इस दौर में 21 करोड़ से घटकर 19.4 करोड तक पहुंचा । यानी दुनिया में भुखमरी में नंबर एक । तो अब सवाल यह भी है ककि क्या विकास को लेकर देश में जो रास्ता 1991 के बाद से अपनाया गया वह गलत है क्योंकि विकास से गरीबों को तो अभी भी जोड़ा जा रहा है। जानकारों का कहना है कि बच्चों को पोषण और मिड डे मिल स्कीमों में बजट की कमी से भारत में भुखमरी की स्थिति में सुधार नहीं हुआ। तो सवाल सीधा है कि जब विकास के लिए उठाए गए कदमों का फायदा गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुंच ही नहीं रहा तो क्या विकास की बातें बेमानी हैं या सरकार की तमाम योजनाएं उस हाशिए पर पड़े इंसान के लिए हैं ही नहीं, जिन्हें केंद्र में रखकर योजनाएं बनाने का दावा किया जाता है। और ऐसे में अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह बतौर कमजोर पीएम रहे हो हो या ताकतवर पीएम के तौर पर नरेन्द्र मोदी। और दोनों ही कुछ भी कहे लेकिन देश के विकास का कोई ब्लू प्रिट वाकई है तो किसी के पास भी नहीं।
Sunday, May 31, 2015
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विकास के मनमोहन-मोदी मॉडल से तौबा ! |
Friday, May 29, 2015
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जनवरी 2016 में कौन होगा बीजेपी का अध्यक्ष ? |
पहली बार संघ और सरकार के भीतर यह आवाज गूंजने लगी है कि जनवरी 2016 के बाद बीजेपी का अध्यक्ष कौन होगा। और यह सवाल मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की सफलता या असफलता से हटकर प्रधानमंत्री मोदी को ज्यादा मजबूत बनाने की दिशा में उठे हैं। चूंकि अमित शाह को राजनाथ के कार्यकाल के बीच में ही बीजेपी अध्यक्ष बनाया गया था तो जनवरी 2016 में अमित शाह का कार्यकाल पूरा होगा और दिल्ली नागपुर के बीच अब यह चर्चा शुरु हो गई है कि 2019 तक प्रधानमंत्री मोदी के पीछे तो पूरी ताकत से आरएसएस खड़ी है लेकिन पार्टी के भीतर यह सवाल बडा होता जा रहा है कि बीते एक बरस से सरकार और दल दोनों
ही एक सरीखा हैं। यानी कोई विकेन्द्रीकरण नहीं है। जबकि गुरुगोलवरकर के दौर से संघ यह मानता आया कि अगर परिवार में सबकुछ एक सरीखा होगा तो वह सिटता जायेगा । इसीलिये सरकार और पार्टी में केन्द्रीयकरण नहीं होना चाहिये बल्कि विकेन्द्रीकरण यानी अलग अलग सोच होनी चाहिये । तभी आरएसएस बहुआयामी तरीके से देश के हर रंग को एक साथ ला सकता है। संघ का तो यह भी मानना है कि सरकार नी आर्थिक नीतियों का विरोध बारतीय मजदूर संघ नहीं करेगी या किसान संघ सरकार के किसान नीति का विरोध नहीं करेगा तो फिर संघ परिवार के बाहर विरोध के संगठन खड़े होने लगेंगे। और मौजूदा वक्त में तो सरकार और बीजेपी दोनो ही एक रंग के हैं। यानी दोनों ही गुजरात केन्द्रित रहेगें ।तो हिन्दी पट्टी में बीजेपी का असर कम होगा । हालाकि संघ यह भी मान रहा है कि नये अध्यक्ष की ताजपोशी उसी हालत में हो जब प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव ना पडे ।
दरअसल इसकी सुगबुगाहट में तेजी मई के दूसरे हफ्ते शुरु हुई जब मोदी सरकार के एक बरस पूरा होने पर दिल्ली से चार नेताओ को नागपुर से बुलावा आया । जिन चार नेताओ को नागपुर बिलाया गया उनमें राजनाथ सिंह के अलावे अमित साह , नीतिन गडकरी और मनोहर पार्रिकर थे। यानी मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष को छोड़कर बाकि तीन चेहरे वहीं थे जिनके नाम का जिक्र कभी अध्यक्ष बनाने को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। यानी चारों नेताओं की मौजूदगी संघ हेडक्वार्टर में एक साथ नहीं हुई बल्कि अलग अलग सबसे चर्चा हुई । और चूकि इन चारो में से राजनाथ सिंह ही यूपी-बिहार की राजनीति के सबसे करीब रहे है और दोनो ही राज्यो के ज्यादातर सांसदो के बीच राजनाथ की पैठ भी है तो आने वाले वक्त में बीजेपी का अध्यक्ष हिन्दी पट्टी से क्यों होना चाहिये इस सवाल को उठाने और जबाब देने में भी वही सक्षम थे। खास बात यह भी है कि राजनाथ संघ मुख्यालय के बाद एक वक्त संघ के ताकतवर स्वयंसेवक रहे एमजी वैघ के घर भी गये । यह वही वैघ है जो शुरु में नरेन्द्र मोदी के भी विरोधी रहे । लेकिन सरसंघचालक मोहन भागवत जिस मजबूती के साथ नरेन्द्र मोदी के पीछे खडे हुये। उससे वैध सरीके स्वयंसेवक हाशिये पर पहुंच गये। बावजूद इसके संघ के भीतर अगर यह सवाल अब शुरु हुआ है कि एक ही विचार से पार्टी और सरकार नहीं चलनी चाहिये तो तीन संकेत साफ हैं। पहला मोदी सरकार के विरोध के स्वर अगर पार्टी से निकलते है तो उसे संभालना आसान है। दूसरा अगर सभी एक लाइन पर चलेंगे तो संघ का काम ही कुछ नहीं होगा । तीसरा सरकार के विरोध को अगर जनता के बीच जगह किसी दूसरे संगठन या पार्टी से मिलेगी तो फिर आने वाले वक्त में बीजेपी के लिये राजनीतिक मुश्किल शुरु हो जायेगी । लेकिन संयोग भी ऐसा है कि अक्टूबर में बिहार चुनाव होने है और दो महीने बाद बीजेपी अध्यक्ष का कार्यकाल खत्म हो रहा है ।
तो चुनाव में जीत के बाद अध्यक्ष बदले जाते है तो संघ की वह थ्योरी कमजोर पड़ेगी जो उन्होंने अमित साह को अध्यक्ष बनाते वक्त कही थी किचुनाव जिताने वाले शख्स को अध्यक्ष बनाना सही निर्णय है। और अगर चुनाव में जीत नहीं मिलती है तो फिऱ संकेत जायेगा कि बीजेपी डांवाडोल है और उसका असर यूपी चुनाव पर पड़ेगा। इन हालातों से बचने के लिये ही नये अध्यक्ष को लेकर पहले से ही व्यापक स्तर पर चर्चा शुरु हुई है। जिन चार नेताओं को नागपुर बुलाया गया उसमें बीजेपी संगठन और हिन्दी पट्टी के बीजेपी नेताओं के अनुभव और प्रभाव का इस्तेमाल हो नहीं पा रहा है इस पर खासा जोर दिया गया । यानी बीजेपी को चलाने का अमित शाह मॉडल चुनावी जीत के लिये जरुरी है लेकिन बिहार, यूपी , बंगाल में सिर्फ शाह माडल यानी प्रबंधन के जरिये चुनाव जीता नहीं जा सकता है, यह सवाल भी उठा। वैसे इस सवाल को हवा दिल्ली चुनाव में बीजेपी की हार के बाद भी मिली। लेकिन तब यह सवाल इसलिये दब गया क्योकि हार की वजहों को डि-कोड करने का काम शुरु हुआ । लेकिन जैसे जैसे बिहार चुनाव की तारीख और अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा होने का वक्त नजदीक आ रहा है वैसे वैसे यूपी-बिहार के बीजेपी नेताओ के सामने भी यह सवाल है कि चुनाव जीतने के लिये उनके पास केन्द्र की तर्ज पर कोई नरेन्द्र मोदी सरीखा नेता तो है नहीं । फिर मोदी और अमित शाह दोनो के गुजरात से दिल्ली आने की वजह से दोनो के बीच बैलेस इतना ज्यादा है कि जमीनी राजनीति के सवाल सरकार की उपलब्धी गिनाने तले दब जाते है यानी उड़ान है ,लेकिन कोई चैक नहीं है । यानी संघ पहली बार चुनाव के दौर की सक्रियता से आगे पार्टी की दिशा कैसी होनी चाहिये और उसे किस तरह काम करना चाहिये इसमें भी सक्रिय भूमिका
निभाने को तैयार है। असर भी इसी का है कि बिहार चुनाव में नीतिन गडकरी को प्रभारी बनाना चाहिये यह सोच भी निकल रही है और मोदी के बाद गुजरात आंनदीबाई पटेल से संभल नहीं पा रहा है चर्चा इसपर ही हो रही है और महाराष्ट्र में पवार की राजनीति को साधने में फडनवीस सरकार सफल हो नहीं पा रही है, चर्चा इसपर भी हो रही है । लेकिन नया संकेत यही है कि सात महीने बाद बीजेपी का अध्यक्ष कौन होगा इसपर संघ परिवार के भीतर अगर चर्चा हो रही है तो यह साफ है कि गडकरी की तर्ज पर मौजूदा वक्त में अध्यक्ष का कार्यकाल बढाने की संघ सोचेगा नहीं ।
Tuesday, May 26, 2015
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वह सुबह कभी तो आयेगी..... |
एसी के सुकून तले सड़क पर संघर्ष अब बीजेपी में दूर की गोटी हो चुकी है ।
शायद यह एहसास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक में भी रहा इसीलिये वहां से चार किलोमीटर दूर झंडेवालान के संघ हेडक्वार्टर में चाय की चुस्की स्वयंसेवकों को खासी मीठी लग रही थी। उस वक्त राम माधव बोल गये कि हिन्दू संगठन नाराज थे । लेकिन सच यह भी निकला कि संघ को जिताने से ज्यादा हराकर अपनी लीक पर चलने के लिये बीजेपी को असहाय बनाने का सुकून हर कोई महसूस कर रहा है। फिर याद 24 अकबर रोड भी आया। झटके में महसूस किया जो कांग्रेसी तरसते थे कोई बात करें वहीं कांग्रेसी सत्ता की आहट सुन मचलने लगे। 2009 का नजारा तो भूलाये नहीं भूलता कैसे जनार्दन द्विवेदी मशगूल थे कैमरे को देखकर और हिकारत से देख रहे थे पत्रकारों को। जयराम में कुछ सरोकार बचे थे तो जीत के बाद भी पत्रकारों के अभिवादन पर मुस्कुरा रहे थे । और 2009 में सूने पडे बीजेपी हेडक्वार्टर में प्रवक्ता जरुर पहुंचे । कुछ कहा। कुछ माना । दरअसल हमेशा लगा कि ग्राउंड जीरो से पार्टी की जीत हार को समझना है तो चैनल का स्टूडियो छोड पार्टी हेडक्वार्टर पहुंच कर ही तापमान देखा जाये । लेकिन 16 मई 2014 को बीजेपी हेडक्वार्टर पहुंच कर तापमान देखने से ज्यादा तापमान सहना पड़ेगा । यह एहसास आज भी सिहरन ही पैदा करता है। क्योंकि दोनो तरफ से बंद अशोक रोड में 10 नंबर तक पहुंचने से पहले पुलिस का जमावडा और नारो की गूंज तो सामान्य थी । लेकिन बीजेपी हेडक्वार्टर में पहुंचते ही हर नारा हर हर मोदी की गूंज में सुनाई देने लगा ।
एक तरह की सुरसुरी तो पूरे शरीर में थी क्योंकि दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं में मनमोहन सरकार के दौर में जितनी जंग लग चुकी थी उसका एहसास हर बार मनमोहन की आवारा पूंजी की अर्थव्यवस्था पर चोट करने के बाद बीजेपी नेताओ से मुलाकात में लगता रहा । मनमोहन की आर्थिक नीतियों से लेकर सरकार चलाने के तौर तरीकों के खिलाफ इतना कुछ अखबारो में लिखा। एसआईजेड से लेकर खुदकुशी करते किसानो के मसले से लेकर राडिया टेप में गुम सरकार का कच्चा-चिट्टा भी सबसे पहले सचिन पाय़लट के सामने यह सोच कर रखा कि संचार मंत्रालय में ए राजा के वक्त जो हो रहा था उसे युवा कांग्रेसी नेता मंत्री समझे । लेकिन उस दौर में सचिन सरीखा संचार राज्यमंत्री भी कैसे मनमोहन सरकार की हवा में खामोश रह कर गुस्सा पीते हुये काम करने को ही सही मानता यह भी महसूस किया और उस दौर में कांग्रेसी कुछ इस भाव में रहे जैसे राडिया
टेप या स्पेक्ट्रम का खेल कुछ भी नायाब नहीं है । कोयला घोटाला तो नही लेकिन घोटाले की दिशा को ही नीतिगत तौर पर मनमोहन सरकार कैसे अपना रही है इसपर भी कलम चलायी लेकिन तब भी कांग्रेसियो ने इसे अर्थव्यवस्था को ना समझने या आर्थिक सुधार के लिये इसे जरुरी करार दिया । तब भी दिल्ली में बीजेपी नेता खुश हुये कि मनमोहन सरकार के खिलाफ लिखना तो शुरु हुआ । आर्थिक सुधार के खिलाफ माहौल तो बन रहा है । यानी मनमोहन सरकार जायेगी यह तो तय था । इसीलिये दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं में आगे बढने की होड थी । पूर्ती मामले में बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के मुंबई दफ्तर पर छापा उसी दिन पड़ा जाये जिस दिन गडकरी के कार्यकाल को बढाने पर फैसला होना है । यह कांग्रेस नहीं बीजेपी के ही नेताओ का असर रहा । बंद कमरे में मीडिया ब्रीफिंग के जरीये अपने ही साथी नेता को कैसे कमजोर साबित किया जा सकता है यह बिसात भी दिल्ली में बीजेपी नेता ही बिछाते रहे । इसलिये 16 मई 2014 को मोदी मोदी की गूंज भी अच्छी लगी कि चलो अब तो लुटियन्स की दिल्ली पर से रेशमी लिबास हटेगा । सियासी बिसात पर शह मात अपने अपनों के बीच खेला जाना बंद होगा। 10 अशोक रोड के भीतर एक नये तरह का उल्लास नजर आया । घुसते ही पता चला बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ प्रेस कांन्फ्रेस कर रहे हैं। तो दफ्तर में घुसने की जगह हेडक्वार्टर के अंदर खुले मैदान में जमा लोगों के बीच चल पड़ा । नारे तेज होने लगे । गुलाल उड रहे थे । झटके में कोई आया और
मेरे चेहरे पर भी गुलाल लगा तेजी से निकल पड़ा और उसके बाद चारों तरफ से मोदी मोदी की गूंज के बीच किसी ने धकेला । तो किसे ने फब्ती कसी । टीवी स्क्रीन पर कैसे मोदी को लेकर विश्लेषण कर सकते हैं और चुनाव प्रचार के वक्त जैसे ही पेड मीडिया शब्द होने वाले पीएम के मुख से निकला तो मीडियाकर्मी मोदी मोदी के नारे लगाते भक्तों के बीच खलनायक हो चुके थे । शायद इसीलिये समझ न आया कि जो चुनाव प्रचार के वक्त मीडिया या पत्रकारों को लेकर नरेन्द्र मोदी की टिप्णिया थीं उसी को फब्ती में बदलकर खुले तौर पर बीजेपी हेडक्वार्टर में एक नये तरह की भीड की गूंज थी। चेहरे भी नये थे । चारो तरफ सिर्फ लोग थे तो समझ ना आया कि कौन सी दिशा पकड़ी जाये । बस एक तरफ चल पड़ी । और इस बीच किसी ने झटके में मेरा हाथ पकडकर मुझे अपने पास खींच लिया । ध्यान दिया तो वह राजनाथ सिंह थे । जिन्होंने अपने एसपीजी के दायरे में मुझे खिंचने की कोशिश की । लेकिन भीड़ का रेला ऐसा कि लगा फिर वही भींड में समा जाऊगा । तबतक राजनाथ सिंह के पीछे रविशंकर प्रसाद ने मेरा हाथ पकडा और एसपीजी से कहा इन्हें अंदर ले लें । अंदर घुसा तो हेडक्वार्टर में अक्सर दिखायी देने वाले बीजेपी के पहचाने चेहरे दिखायी दिये जो अक्सर बीजेपी हेडक्वार्टर के भीतर किताब की दुकान पर जाने के दौरान बीते कई बरसो से मिलते रहे । हंगामे-शोर-नारो के बीच किसी तरह हेडक्वार्टर के भीतर पहुंचा। राजनाथ सिंह के दरवाजे पर तैनात रहने वाले कार्यकर्ता ने पानी की बोतल ला कर दी । फिर किसी ने कहा आप बगल के कमरे में बैठें । वहां गया तो बीजेपी के ही एक कार्यकर्ता ने कुछ ऐसा टोका कि मैं भी उसे बस देखता ही रह गया । आप खुले मैदान में क्यों चले गये । आपको लगा नहीं कि काफी भीड है। आपने महसूस नहीं किया कि बीजेपी का दफ्तर बदल गया है । बदल गया है । यह शब्द कुछ ऐसे थे जिसे बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठे बैठे मैं सोचता रहा । क्या वाकई बीजेपी हेडक्वार्टर बदल गया । तब तो बीजेपी भी
बदलेगी । कामकाज के तरीके भी बदलेंगे । झटके में मैंने भी जबाब दिया तब तो अच्छा है। नहीं तो बीजेपी का कांग्रेसीकरण हो चला था । बदलने का मतलब कांग्रेसीकरण से मत जोड़ें । आपने देखा नहीं एकदम नये चेहरो की भरमार। अब राजनाथ सिंह के बदले अमित शाह होंगे । अभी तो चुनाव के परिणाम ही आये हैं और अध्यक्ष बदलने की सुगबुगाहट ही नहीं बल्कि कौन होंगे, यह भी तय हो चला है । बदलाव की रफ्तार इतनी तेज होगी । उस दिन भी अच्छा ही लगा कि बीजेपी बदलेगी । बदलाव होगा । तमाम विश्लेषण के साथ मैंने भी 17 मई 2014 को ही दिल्ली के राष्ट्रीय अखबार में एलान कर दिया कि अब अमितशाह होंगे बीजेपी अध्यक्ष । लेकिन बीतते वक्त के साथ जब सरकार का एक बरस पूरा हो चुका है तो कई सवाल सरकार से हटकर पहली बार बीजेपी के बदलाव से टकरा रहे हैं। संघ की विचारधारा से टकरा रहे है। कद्दावर नेताओं के आस्तित्व के संघर्ष से टकरा रहे हैं । वैकल्पिक राजनीति पर भारी पडती सत्ता की समझ से टकरा रहे हैं । और सत्ता के खातिर संस्थानों के कमजोर होने के हालात से खुलेतौर पर दो दो हाथ करने की जगह कंधे पर बैठाकर जीत के नारे लगाने से नहीं चूक रहे । दरअसल तमाम सवाल बार बार 16 मई 2014 और 26 मई 2015 के दौर में ही पैदा
हुये है । इसीलिये यह सवाल बड़ा होते जा रहा है कि आखिर देश की दिशा होगी क्या । जो 20 मई 2014 को सेन्ट्रल हाल में नरेन्द्र मोदी ने कहा या फिर 26 मई 2014 के बाद से जो प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं । दोनों के बीच का अंतर सिर्फ व्यापक ही नहीं है बल्कि देश की भावनाओं के साथ राजनीतिक सत्ता का खुले तौर पर माखौल उड़ाना है । बरस पूरा हो रहा है तो सरकार चलाने से ज्यादा सरकार के कामकाज को किस रोशनी में रखना चाहिये यह मैनेज हो जाये ।
यानी पेड मीडिया कोई मायने नहीं रखता । सूचना प्रसारण मंत्री रात के अंधेरे में कभी चेहते तो कभी बीट रिपोर्टर तो कभी मालिकान को दावत पर बुलाकर पीएम के आकस्मिक दर्शन कराकर अभिमूत हैं । दर्शन करने वाला मीडियाकर्मी भी अभिभूत हैं । क्योंकि झटके में वह सरकार के चुनिंदा चहेतों में शामिल हो गया । तो फिर पत्रकारिता की क्यों जाये । गुणगान में ही सारे तत्व छिपे हैं । इसी रास्ते विकास की धारा है । विदेशी पूंजी भी मंजूर, मजदूरों के हक खत्म करने वाले कानूनो को लागू कराना भी मंजूर , किसानों को सरकारी मदद के लिये ताकते रहने वाली नीतियां भी मंजूर , शिक्षा से लेकर स्वास्थय को मुनाफाखोरों के हाथो सौप कर विकास का नारा लगाना भी मंजूर । यह मंजूरी उसी संघ की है जो वाजपेयी सरकार से सिर्फ इसलिये रुठ गई थी क्योंकि स्वदेशी को ताक पर रखा गया था । राम मंदिर मसले को दबा दिया गया था । और खुली पूंजी के खेल में छोटे-छोटे तबको का धंधा मंदा पड़ गया था । नार्थ-ईस्ट में स्वयंसेवक मारा जा रहा था और गृहमंत्रालय संभाले लालकृष्ण आडवाणी बेबस दिखायी दे रहे थे । लेकिन मोदी सरकार तो कई फर्लांग से निकल चुकी है । लेकिन संघ बेबस नहीं बल्कि खुश है कि वह भी तो आवारा पूंजी की तर्ज पर कुलांचे मार सकता है । यानी हिन्दू आतंकवाद का कानूनी भय नहीं । और हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा लगाने का वक्त है तो फिर आर्थिक विवशता में जकडे जाते देश को लेकर फिक्र क्यो की जाये । तो फिर साल भर पहले मोदी की जीत का मतलब जीत पर टिके संघ परिवार और बीजेपी की महत्ता तो होगी लेकिन विचारधारा की माला जपते हुये चुनाव हारने वालों की कोई पूछ नहीं होगी । जाहिर है किसी कारपोरेट के मुनाफे की तर्ज पर किसी सीईओ के भविष्य की तरह ही चुनावी जीत की माला भी बूंथी गई तो साल भर बाद हर किसी के सामने यही सवाल बडा होने लगा कि अगर जीत न मिले तो क्या होगा । यह सवाल किसी कार्यकर्ता से नेता पूछ सकता है । नेता से पार्टी अध्यक्ष और पार्टी
अध्यक्ष से पीएम पूछ सकता है । शायद इसीलिये सरकार हो या पार्टी चुनाव के वक्त समूचा तंत्र ही जुट जाता है । यानी सरकार देश चलाये लेकिन सवाल बीजेपी की चुनावी जीत का होगा तो देश से पहले पार्टी । क्योकि पार्टी
जीतेगी नहीं तो फिर राजनीतिक सत्ता भी कहा बचेगी । तो क्या यह भी बदलाव की रणनीति का हिस्सा है जहा जीते तो हम । हारे तो सभी । दिल्ली में बीजेपी हारे तो खलनायक बीजेपी के भीतर से नहीं बल्कि बाहर से किरण बेदी को खरीद कर ले आया गया. तो क्या बिहार, यूपी बंगाल में भी यही होगा । या फिर बिहार का दांव बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर जा लगा है । क्योंकि गुजरात से आकर यूपी के बीजेपी वालो को कोई मैनेजर वाले स्किल सिखाकर चुनाव जीत जाये । यह कैसे संभव है । बिहार को सिर्फ जातीय आधार पर टटोलकर राजनीतिक बिसात बिछाकर कोई चुनाव जीत जाये यह कैसे संभव है। खासकर बीजेपी के ही कार्यकर्ता से लेकर नेताओ की पूरी फौज ही जब बिहार यूपी की जमीनी राजनीति का पाठ पढते हुये बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर पायी और उसे ही कारपोरेट पूंजी या जीत की थ्य़ोरी के पाठ तले दबा कर रखा जाये । यह संभव है या नहीं सवाल अब यह नहीं बल्कि सवाल यह है कि क्या बीजेपी वाकई बदल गई । जिसका जिक्र 16 मई 2014 को बीजेपी हेडक्वाटर में बैठा कार्यकत्ता जीते के हंगामे और हर हर मोदी के नारे के बीच कर गया । तब तो मोदी सरकार के बरस भर का पाठ यह भी है कि अब राजनीति बदलेगी ।
अब विकास
आर्थिक नीतियो पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद या हिन्दु राष्ट्रवाद की थ्योरी तले देश को विकास के कटघरे में बांटने के सिलसिले से शुरु होगा । कटघरा इसलिये क्योकि विदेशी पूंजी और देसी बाजार से जो 25 करोड समायेगा और जो सौ करोड बचेगा दोनो के बीच के वही चुनी हुई सरकार राज करेगी जो कुछ इस हाथ बांटेगी । कुछ उस हाथ लुटायेगी । यह थ्योरी जीत के बाद जीत के लिये राजनीतिक बिसात पर मोहरो को बदलने से लेकर बिसात तक बदलने की कवायद करती है । सवाल सिर्फ आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी को दरकिनार करने का नहीं है । सवाल सिर्फ बीजेपी या संघ हेडक्वाटर को भी उसकी कमजोरी के लिहाज से खामोश समर्थन पाने का नहीं है ।सवाल सिर्फ चुनावी के वक्त वादो की फेरहिस्त को भुलाते हुये या राजनीतिक जुमलो में बदलते हुये नई लकीर खिचने भर का भी नहीं है । सवाल है कि 16 मई 2014 के पहले का जो वातावरण देश में बना था और 16 मई 2015 के बाद जो वातावरण देश में बन रहा है उसमें मोदी सरकार कहां खड़ी है । और आम जनता की भावनायें क्या सोच रही है । वित्त मंत्री, सूचना प्रसारण मंत्री , मानव संसाधन मंत्री चुनाव हारे हुये नेता है । और वाणिज्य मंत्री , रेल मंत्री, संचार मंत्री,ऊर्जा मंत्री, पेट्रोलियम मंत्री , अल्पसंख्यक मामलो के मंत्री समेत दर्जन भर से ज्यादा मंत्री ने तो मोदी की एतिहासिक जीत में चुनाव लडकर सीधी भागेदारी की ही नहीं । फिर दर्जन भर से ज्यादा मंत्री ऐसे है जो बीजेपी के भीतर कद के लिहाज से दूसरी या तीसरी पायदान पर खडे है । तो उन्हे मंत्री बनाकर साल बर के भीतर उन्ही के मंत्रालयो को पीएमओ से संभालवकर देश को संकेत भी दे दिये कि प्रधानमंत्री मोदी को ही देश ने चुना तो देश के लिये वही अकेले काम भी कर रहे है । फिर लोकसभा में चुन कर आये दागी सांसदों के खिलाफ कानून को काम करते हुये संसद को पाक साफ बनाना चाहिये यह कथन साल भर का था लेकिन साल भर सिर्फ कथन के तौर पर ही रहा । लोकसभा में 185 दागियो में से 97 तो बीजेपी के दागी है । लेकिन उनको लेकर भी कोई निर्णय नहीं लिया गया । वैसे बरस भर में बेहद महीन राजनीति ने बीजेपी के भीतर इस सवाल को खडा जरुर कर दिया कि बीजेपी में मोदी की जीत के सामने किसी सांसद या किसी भी कद्दावर नेता के पास कोई नैतिक बल नहीं है कि वह अपने तजुर्बे या अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर राजनीति करने के लिये आगे बढे । यह सवाल बीजेपी के लोकतांत्रिक ढांचे के लिये नुकसानदायक हो सकता है लेकिन समझना यह भी होगा कि मोदी का विरोध बीजेपी में कौन से नेता कर सकते है । हर किसी पर कोई ना कोई दाग है ही । या जो दागदार नहीं है वह इतने कमजोर है कि पार्षद का चुनाव नहीं जीत सकते है । और कुछ सत्ता के साथ खडे होकर नारे लगाते हुये कद्दावर होने का सपना पाल कर वक्त निकालने में माहिर है । यानी साल भर पहले जो वाज गुजरात से निकली उसने सिर्फ काग्रेस को ही पराजित नहीं किया बल्कि बीजेपी के भीतर के उस काग्रेसी कल्चर को हराया जो लुटियन्स की दिल्ली पर काबिज थी । इसिलिये साल भर पहले बीजेपी हेडक्वाटर के हंगामे और हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारे में भी सुकुन था कि अब लुटियन्यस की
दिल्ली का नैक्सेस खत्म होगा । इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, तीन मूर्ती से लेकर पार्लियामेंट एनेक्सी के बीच घुमडती सत्ता की ताकत खत्म होगी । लेकिन यह किसे पता था साल भर बीतते बीतते सत्ता के नये केन्द्र कही
ज्यादा खतरनाक तरीके से पुराने केन्द्र को पीछे भी छोडेगें और लुटियन्स की दिल्ली को आधुनिक तरीके से लुभायेगें भी कि वह या तो सत्ता के नये केन्द्रो में शामिल हो जाये । या फिर सियासी कटघरे में ट्रायल के लिये तैयार रहे । यानी जो धड़कन 16 मई 2014 को देश के भीतर थी । वही घडकन 16 मई 2015 के बाद भी घुमड रही है अंतर सिर्फ इतना है साल भर पहले सुबह का इंतजार था। साल भर बाद सुबह को अंधेरे से बचाने के संघर्ष की धड़कन है ।
Friday, May 15, 2015
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पहले साल में फिर सबसे अहम सवाल बचकाने करार दिये गये |
26 मई 2014 को राष्ट्रपति भवन के खुले परिसर में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में 45 सांसदों ने मंत्री पर की शपथ ली लेकिन देश-दुनिया की नजरें सिर्फ मोदी पर ही टिकीं। और साल भर बाद भी देश-दुनिया की नजरें सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही टिकी हैं। साल भर पहले शपथग्रहण समारोह में सुषमा, राजनाथ जीत कर भी हारे हुये लग रहे थे और अरुण जेटली व स्मृति ईरानी लोकसभा चुनाव हार कर भी जीते थे। पहले बरस ने देश को यह पाठ भी पढ़ाया कि चुनाव जीतने के लिये अगर पूरा सरकारी तंत्र ही लग जाये तो भी सही है। और सरकार चलाने के लिये जनता के दबाव से मुक्त होकर चुनाव हारने या ना लड़ने वालों की फौज को ही बना लिया जाये। इसलिये देश के वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, मानव संसाधन मंत्री,सूचना प्रसारण मंत्री, वाणिज्य मंत्री, उर्जा मंत्री, पेट्रोलियम मंत्री, रेल मंत्री, संचार मंत्री, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री समेत दर्जन भर मंत्री राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंच कर देश को चलाने लगे। या फिर मंत्री बनाकर राज्यसभा के रास्ते सरकार में शामिल कर लिया गया। क्योंकि सरकार चलाते वक्त जनता के बोझ की जिम्मेदारी तले कोई मंत्री पीएमओ की लालदीवारो के भीतर सरकार के विजन पर कोई सवाल खड़ा ना कर दें। तो पहले बरस इसके कई असर निकले। मसलन मोदी जीते तो बीजेपी की सामूहिकता हारी। मोदी जीते तो संघ का स्वदेशीपन हारा। मोदी जीते तो राममंदिर की हार हुई विकास की जीत हुई। मोदी जीते तो हाशिये पर पड़े तबके की बात हुई लेकिन दुनिया की चकाचौंध जीती। मोदी पीएम बने तो विकास और हिन्दुत्व टकराया। मोदी पीएम बने तो विदेशी पूंजी के लिये हिन्दुस्तान को बाजार में बदलने का नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी भारी पड़ता नजर आया। यानी पहले बरस का सवाल यह नहीं है कि बहुसंख्यक तबके की जिन्दगी विकास के नाम पर चंद हथेलियों पर टिकाने की कवायद शुरु हुई और बेदाग सरकार का तमगा बरकरार रहा। पहले बरस का सवाल यह भी नहीं है कि महंगाई उसी राज्य-केन्द्र के बीच की घिंगामस्ती में फंसी नजर आयी जो मनमोहन के दौर में फंसी थी।
पहले बरस का सवाल यह भी नहीं है कि कालाधन किसी बिगडे घोड़े की तरह नजर आने लगा जिसे सिर्फ चाबुक दिखानी है। और सच सियासी शिगूफे में बदल देना है। पहले बरस का सवाल रोजगार के लिये कोई रोड मैप ना होने का भी नहीं है और शिक्षा-स्वास्थ्य को खुले बाजार में ढकेल कर धंधे में बदलने की कवायद का भी नहीं है। पहले बरस का सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जिस राजनीति और उससे निकले नायको को खलनायक मान कर देश की जनता ने बदलाव के लिये गुजरात के सीएम को पीएम बनाकर देश को बदलने के सपने संजोये उसी
जनता के सपनों की उम्र 2019 और 2022 तक बढायी गई। बैंक खातों से लेकर पेंशन योजना और विदेशी जमीन पर भारत की जयजयकार से लेकर देश को स्वच्छ रखने तले हर भावना को नये सीरे से ढालने की कोशिश हुई। और राजनीति को उसी मुहाने पर ला खडा किया गया जिसके प्रति गुस्सा था। क्योंकि जाति की राजनीति। भ्रष्ट होती राजनीति । सत्ता के लिये किसी से भी गठबंधन कर मलाई खाने की राजनीति। लाल बत्ती के आसरे देश को लूटने की राजनीति से ही तो आम आदमी परेशान था। गुस्से में था । उसे लग चुका था कि राजनीतिक सत्ता तो देश के 543 सांसदों की लूट या दर्जन भर राजनीतिक दलों की सांठगांठ । या देश के दस कारपोरेट या फिर ताकतवर नौकरशाही के इशारों पर चल रहा है । उनके विशेषाधिकार को ही देश का संविधान मान लिया गया है। इसलिये संविधान में मिले हक के लिये भी आम जनता को राजनेताओं के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती। सत्ता के दायरे में खडे हर शख्स के लिये कानून-नियम बेमानी है और जनता के लिय सारे नियम कानून सत्ताधारियो के कोठे तक जाते हैं। यानी वहां से एक इशारा पुलिस थाने में एफआईआर करा सकता है। स्कूल में एडमिशन करा सकता है। अदालत जल्द फैसला दे सकती है। और अपराधी ना होने के बावजूद अपराधी भी करार दिये जा सकते है। लेकिन 26 मई 2014 के बाद हुआ क्या। पहले बरस ही कश्मीर में जिन्हे आतंकवादियों के करीब बताया उसके साथ मिलकर सत्ता बनाने में कोई हिचक नहीं हुई। महाराष्ट्र में जिसे फिरौती वसूलने वाली पार्टी करार दिया उसके साथ ही मिलकर सरकार बना ली। जिस चाचा भतीजे के भ्रष्टाचार पर बारामती जाकर कसीदे पढ़े उसी के एकतरफा समर्थन को नकारने की हिम्मत तो हुई नहीं उल्टे महाराष्ट्र की सियासत में शरद पवार
का कद भी बढ गया। जिस झारखंड में आदिवासियों के तरन्नुम गाये वहां का सीएम ही एक गैर आदिवासी को बना दिया गया।
पहले बरस का संकट तो हर उस सच को ही आईना दिखाने वाला साबित होने लगा जिसकी पीठ पर सवाल होकर जनादेश मिला। क्योंकि बरस भर पहले कहां क्या क्या गया। किसान खत्म हो रहा है। शिक्षा सस्थान शिक्षा से दूर जा रहे हैं। हास्पिटल मुनाफा बनाने के उद्योग में तब्दील हो गये हैं। रियल इस्टेट कालेधन को छुपाने की अड्डा बन चुके हैं।खनिज संपदा की विदेश लूट को ही नीतियों में तब्दील किया जा रहा है। सुरक्षा के नाम पर हथियारो को मंगाने में रुचि कमीशन देखकर हो रही है। सेना का मनोबल अंतर्राष्ट्रिय कूटनीति तले तोड़ा जा रहा है। युवाओं के सामने जिन्दगी जीने का कोई ब्लू प्रिट नहीं है। हर रास्ता पैसे वालो के लिये बन रहा है। तमाम सस्थानो की गरिमा खत्म हो चुकी है । याद किजिये तो बरस भर पहले लगा तो यही कि सभी ना सिर्फ जीवित होंगे बल्कि पहली बार 1991 में अपनायी गई बाजार अर्थव्यवस्था को भी ठेंगा दिखाया जायेगा। वैकल्पिक सोच हो या ना हो लेकिन बदलाव की दिशा में कदम तो ऐसे जरुर उठेगे जो देश की गर्द तले खत्म होते सपनों को फिर से देश को बनाने के लिये खड़े होंगे। लेकिन रास्ता बना किस तरफ। विदेशी पूंजी पर विकास टिक गया।
विकास दर को आंकडो में बदलने की मनमोहनी सोच पैदा हो गई। रसोइयों से चावल दाल खत्म कर प्रेशर कूकर की इंडस्ट्री लगाने के सपने पाले जाने लगे। देशी व्यापारी, देशी उगोगपतियो से लेकर देसी कामगार और देसी नागरिक आर्थिक नीतियों की व्यापकता में सिवाय टुकटुकी लगाये विदेशी पैसा और विदेशी कंपनियो के आने के बाद ठेके पर काम करने से लेकर ठेके पर जिन्दगी जीने के हालात में बीते एक बरस से इंतजार में मुंह बाये खड़ा है। फिर जो कहा गया वह हवा में काफूर हो गया। 26 मई 2014 को सत्ता संभालने के महीने भर में ही यानी जून 2014 में तो दागी सांसदों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई को साल भर के भीतर अंजाम तक पहुंचाने का खुला वादा किया गया । लेकिन साल बीता है तो भी संसद के भीतर 185 दागी मजबूती के साथ दिखायी देते रहे। बीजेपी के ही 281 में से 97 सांसद दागी हैं। एडीआऱ की रिपोर्ट बताती है कि प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल में ही 64 में से 20 दागदार हैं। जबकि अगस्त 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा कि कम से कम पीएम और तमाम राज्यो के सीएम तो किसी दागी को अपने मंत्रिमंडल में ना रखें। असल में पहला बरस तो भरोसा जगाने और उम्मीद के उडान देने का वक्त होता है । लेकिन देश में भरोसा जगाने के लिये विदेशी जमीन का बाखूबी इस्तेमाल उसी तरह किया गया जैसे बीजेपी से खुद को बडा करने के लिये पार्टी के बाहर का समर्थन प्रधानमंत्री मोदी को इंदिरा गांधी के तर्ज पर नायाब विस्तार देने लगा । देसी कारपोरेट को खलनायक करार देकर खुद को जनकल्याण से जोडने की कवायद का ही असर हुआ कि एक तरफ विदेशी कंपनियों से वायदे किये गये कि भारत में आर्थिक सुधाऱ के लिये जमीन बन जायेगी। तो दूसरी तरफ खेती की जमीन पर सवालिया निशान लगाने से लेकर मजदूरो की नियमावली भी सुधार से जोड़कर जनकल्याण पर्व मनाने के एलान किया गया । जनता तो समझी नहीं संघ भी समझ नहीं पाया कि मजदूर विरोधी कानून के खिलाफ खड़ा हो या जनकल्याण पर्व में खुद को झोंक दें। उम्मीद उस बाजार को देने की कोशिश की गई जो सिर्फ उपभोक्ताओ की जेब पर टिकी है। जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने प्रचारकों पर गर्व रहता है कि उनके सामाजिक सरोकार किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता पर भारी पड़ते है, वह संघ परिवार पहली बार बदलते दिखा। प्रचारक से पीएम बने नरेन्द्र मोदी ने उस ग्रामीण व्यवस्था को ही खारिज कर दिया जिसे सहेजे हुये संघ ने 90 बरस गुजार दिये । स्मार्ट सिटी की सोच और बुलेट ट्रेन दौडाने के ख्वाब से लेकर गांव गांव शौचालय बनाने और किसान मजदूर को बैक के रास्ते जिन्दगी जीने का ककहरा पढ़ाने का बराबर का ख्वाब सरकारी नीतियों के तहत पाला गया। यानी जिस रास्ते को 26 मई 2014 को शपथ लेने से पहले देश की जनता के बीच घूम घूमकर खारिज किया गया जब उसी रास्ते को बरस भर में ठसक के साथ मोदी सरकार ने अपना लिये। चूंकि 2014 का जनादेश कुछ नये संकेत लेकर उभरा । और उसकी वजह राजनीतिक सत्ता से लोगों का उठता भरोसा भी था। तो झटके में जनादेश के नायक बने प्रधानमंत्री मोदी बीतते वक्त के साथ देश के नायक से ब्रांड एंबेसडर में बदलते भी बने। और ब्रांड एंबेसडर की नजर से विकास का समूचा नजरिया उसी उपभोक्ता समाज की जरुरतो के मुताबिक देखा समझा गया जिसे देखकर दुनिया भारत को बाजार माने। तो पहले बरस का आखिरी सवाल यही उभरा कि बीते दस बरस के उस सच को मोदी सरकार आत्मसात करेगी या बदलेगी जहा देश के चालिस फिसदी संसाधन सिर्फ 62 हजार लोगों में सिमट चुके हैं। आर्थिक असमानता में तीस फिसदी के अंतर और बढ़ चुका है। जिसके दायरे में शहरी गरीब 700 रुपये महीने पर जिन्दा हैं तो शहरी उपभोक्ता 18690 रुपये महीने पर रह रहा है। यानी जिन नीतियों पर पहले बरस की सोच गुजर गई उस मुताबिक देश के पच्चीस करोड़ के बाजार के लिये सरकार को जीना है और वही से मुनाफा बना कर बाकी सौ करोड़ लोगों के लिये जीने का इंतजाम करना है।
Friday, May 8, 2015
[+/-] |
60-12=48 |
आपको नौकरी मिली। नहीं मिली। किसानों को खून पसीने की कमाई मिली। नहीं मिली। जवानों के कटते गर्दन का जवाब सरकार ने कभी दिया। नहीं दिया। महंगाई से निजात मिली। नहीं मिली। बिना घूस के काम होता है। नहीं होता है। घोटालो की सरकार को बदलना है। बदलना है। स्विस बैंक से कालाधन लायेंगे। हां लायेंगे। आपने उन्हें साठ साल दिये। हमे सिर्फ साठ महीने देंगे। हां देंगे। और अब साठ महीनो में से बचे है अडतालीस महीने। तो क्या चुनाव से एन पहले नारे और नारों के साथ जनता की गूंज ने पहले बारह महीनों में देश को एक ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया, जहां नारों से सुर मिलाती जनता को लगने लगा कि सत्ता उसे घोखा दे रही है या फिर अच्छे दिन लाने के वादे के बीच उसी व्यवस्था के मोदी भी शिकार हो गये, जिसने 1991 के आर्थिक सुधार के बाद देश के हर सरकार को दबोचा चाहे वह यूपीए हो या एनडीए या फिर यूनाइटेड फ्रंट। किसानों के मुद्दा आर्थिक सुधार होने नहीं देगा। जवानों का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय कूटनीति चलने नहीं देगा। कालेधन पर नकेल आवारा पूंजी पर टिके विकास की रीढ़ को तोड़ देगा। महंगाई पर रोक बिचौलियों की राजनीतिक साठगांठ को खत्म कर देगा । तो क्या मोदी सरकार के पास विकास का कोई ऐसा माडल है ही नहीं जिसके आसरे देश में एक आर्थिक सोशल इंडेक्स खड़ा किया जा सका। समाज की विषमता को थामा जा सके। यकीनन पहले बरस के बीतते बीतते यही सवाल हर किसी के सामने मुंह बाये खड़ा है कि अगर मनमोहन डिजाइन की अर्थव्यवस्था ही मोदी के विकास के नारे में फिट करनी है तो फिर जो काम मनमोहन सिंह राजनीतिक मजबूरी की वजह से कर नहीं पाये वह काम आसानी से मोदी पूरा तो कर सकते हैं।
लेकिन हाशिये पर पड़े भारत के जिस बहुसंख्यक समाज को मुख्यधारा में लाने के सियासी तानेबाने बुने गये, उन्हें ही हाशिये पर ढकेलना पहले बारह महीनो में मोदी की फितरत बन गई। लेकिन पहली बार किसी सरकार की उपलब्धि कामकाज से ज्यादा चुनावी जीत पर जा टिकी यह भी मोदी के दौर का नायाब सच है। महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू कश्मीर में बीजेपी से ज्यादा केन्द्र सरकार की जीत और मोदी की जीत को ही जिस तरह देश के सामने रखा गया उसने पहली बार यह भी संकेत दिये की चुनाव जीतना और किसी भी तरह सरकार बना लेना ही सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि सरकार अगर काम ना करे तो वह चुनाव हार जाती है। लेकिन कोई सरकार चुनाव जीतते चले तो फिर वह काम कर रही है यह बोलने और दिखाने की जरुरत नहीं है । शायद इसीलिये मोदी सरकार की उपलब्धियो के खाके में फिरौती लेने वाली पार्टी शिवसेना को करार देने के बाद भी साथ मिलकर सरकार बनाने में कोई हिचक नहीं दिखायी दी । बाप-बेटी की पार्टी और पाकिस्तान परस्त राजनीति करने वालो की कतार में मुफ्ती सईद की पार्टी को चुनाव प्रचार में करार देने के बाद भी सरकार साथ मिलकर बनायी । झारखंड में आदिवासियों का सवाल उठाकर गैर आदिवासियो के भ्रष्टाचार की अनकही कहानी चुनाव प्रचार में कही गई लेकिन झारखंड के सीएम के तौर पर गैर आदिवासी को चुना गया। दरअसल मोदी सरकार के पहले बारह महीने चुनावी संघर्ष और मनमोहन की नीतियो को खारिज करने में ज्यादा बीता । सरकार चलाने के लिये सत्ता की ताकत पीएमओ में कैसे केन्द्रित हो इसमें ज्यादा बीता। नौकरशाही और कारपोरेट के बीच मंत्रियो को नीतियां लागू कराने के लिये फाइलो पर चिडिया बैठाने की सोच के आगे कैसे ले जाया जा सकता है इस मशक्कत में ज्यादा बीता। यानी मोदी गुजरात से चलकर ही दिल्ली नहीं पहुंचे बल्कि दिल्ली को हराकर पीएम बने तो उसकी झलक दिखाने में पहले बारह महीने लगे इससे कार नहीं किया जा सकता है। तो अगला सवाल होगा कि
क्या पहले बारह महीनो में मोदी सरकार ने सिस्टम की ओवर हाइलिंग भर की है । यानी काम अगले 48 महीनो में होना है। तो सवाल ओवरहाइलिंग का नहीं बल्कि अपनी दिशा को बताने या अपने सियासी अंतर्विरोध को छुपाते हुये आगे बढा कैसा जाये इसपर मशक्कत का ही रहा। मोदी सरकार के लिये पहले बारह
महीनो में जो सवाल सबसे बडा बना वह मोदी के विकास की अवधारणा की मान्यता का ही रहा। क्योंकि विकास के लिये जिस तरह खुले तौर पर विदेशी निवेश की जरुरत बतायी गई। विदेशी निवेश के लिये भारत के श्रमिक कानूनों में बदलाव लाने की बात सोची गई। उसने मोदी के सामने संघ परिवार की उसी विचारधारा
को सामने ला खड़ा किया जो अभी तक स्वदेशी का राग अपना रही थी । विदेशी निवेश की जगह देसी पूंजी को महत्व देना चाह रही थी। मजदूरों के हितों के लिये संघर्ष करने पर उतारु थी। यानी विकास को लेकर टकराव राजनीतिक विरोधियों से नहीं बल्कि अपनो को ही सहेजना ज्यादा रहा। भारतीय मजदूर संघ
और स्वदेशी जागरण मंच को संभाला गया। तो अगला सवाल विदेशी निवेश के लिये देश में उस वातावरण का आकर खड़ा हो गया जो टिका तो सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों के लेकर आजादी के बाद से सरकारों के नजरिये पर था। लेकिन उसे कही भ्रटाचार तो कही लाल फीताशाही से जोड़ा गया। कानूनों में बदलाव लाकर
विदेशी निवेश के लिये सियासी जमीन बनाने की मशक्कत शुरु हुई । लेकिन आखिरी सवाल उस जमीन का आकर खडा हो गया जिसके बगैर कोई योजना देश में लागू हो ही नहीं सकती। तो भूमि अधिग्रहण के सवाल ने किसानो के उस हालात को मोदी सरकार के सामने ला खड़ा किया जिसपर हर सरकार ने ना सिर्फ आखे मूंदी बल्कि आर्थिक सुधार के बाद से तमाम राजनीतिक दलो ने जिस सर्वसम्मती से इस बात पर मुहर लगा दी थी कि खेती अपनी मौत खुद मरेगी । जीडीपी में खेती का योगदान संभव नहीं है । तो खेती को उघोग का दर्जा देना भी बेमतलब होगा । यानी जिस तेजी से किसान किसानी छोड़ रहा है । जिस तेजी से देश में सस्ते
मजदूरो की तादाद बढ रही है।
जिस तेजी से खेती के लिये इस्तेमाल हर वस्तु पर बडी कंपनियो ने कब्जा कर लिया है । और जिस तेजी से किसान आहत होकर खुदकुशी कर रहा है उसमें खेती की जमीन पर सिचाई का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने से बेहतर है, खेती की जमीन पर उद्योग लगा दिये जाये। बड़ी बड़ी योजनाओं को अमली जामा पहना कर विकास की चकाचौंध को विदेशी पूंजी के जरीये देश में ले या जाये। यानी जो सोच 1991 में वित्त मंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह ने ड्राफ्ट की उसी सोच को 24 बरस बाद अमली जामा पहनाने में किसी सरकार को बहुमत मिला तो वह मोदी सरकार है। लेकिन पहले ही बरस मोदी इस सच को भूल गये कि आजादी के बाद किसी सरकार को सबसे कम वोट फिसदी के आधार पर सबसे ज्यादा सीटे मिली है। सिर्फ 31 फिसदी और 281 सीट । यानी देश उस दौर में भी बीजेपी को लेकर बंटा हुआ था जब मनमोहन सिंह सरकार के प्रति उसमें गुस्सा था । मनमोहन की आर्थिक नीतियो को उपभोक्ता समाज के लिये माना गया । काग्रेस में दो सत्ता ध्रूव को मनमोहन सरकार के लिये मौत का गीत माना गया । यानी 2014 में जाती हुई सरकार की एवज में जिसे चुना गया उसके पास बहुमत की ताकत तो है लेकिन जनता का वह साथ नहीं है जो अच्छे दिन के नारो में खोने को तैयार हो जाये । असर इसी का है जिस विकास को लेकर राजनीति चुनावी जीत को आधार बनाया गया उसमें बीजेपी को चुनावी जीत तो जनता लगातार यह सोच कर देती चली गई कि न्यूनतम जरुरतो को तो कोई सराकर पूरा करेगी । दूसरी तरफ बीजेपी ने मोदी के आसरे चुनावी जीत के लिये जो रास्ते बनाये वह भी भारतीय समाज को समझे बगैर क्यो पूरे नहीं हो सकते है इसे मोदी सरकार
पहले बरस समझ पायी यह कहना मुश्किल है । क्योकि विकास के लिये जो भी रास्ते बनाये गये उसमें संयोग से दिल्ली मुबई इंडस्ट्री कारीडोर को पूरा करने में राजनीतिक तौर पर तो कोई मुश्किल मोदी सरकार के सामने नहीं है । क्योकि जमीन जिन पांच राज्यो की ली जानी है उनमें बीजेपी की सरकार है । हरियाणा,राजस्थान,मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात । सभी जगह बीजेपी की सत्ता । लेकिन इसके बावजूद जमीन कैसे विकास के नाम पर लें ले यह नैतिक साहस राज्य सरकारो के पास है ही नहीं । और इसकी सबसे बडी वजह है विकास की तमाम नीतिया उपभोक्ताओ को ही ध्यान में रखकर बनायाजा रहा है । यानी देश
के नागरिको को लेकर विकास का कोई ब्लू प्रिट मोदी सरकार के पास है नहीं और इससे पहले की सरकारो के पास भी नहीं था । इसलिये जब वित्त मंत्री संसद के भीतर यह कहते है कि मोदी जी की विसाक की सोच से विकास दर आठ फिसदी पहुंच जायेगी । पूंजी ज्यादा आयेगी । तो फिर सिचाई में भी पैसा लगाया जा
सकेगा । और किसानो का भला होगा । यानी मोदी सरकार की भी वहीं सोच है जो मनमोहन सिंह के दौर में थी कि कारपोरेट/उघोघिक विकास से पूंजी कमायेगें और बचे हुये पैसे को मनरेगा या दूसरे सामाजिक कल्याण के पैकेज से बांटेगे । मुश्किल उस वक्त भी थी । मुश्किल इस वक्त भी है । लेकिन पहले बरस की
मोदी की सत्ता ने राजनीतिक तौर पर यह पारदर्शिता तो देश के सामने रख दी कि जो सत्ता में होगा उसकी समझ विपक्ष की राजनीति से बिलकुल जुदा होगी । क्योकि मेक न इंडिया का नारा लगाकर दुनिया भर मेंबारत को एक नायाब बाजार के तौर पर रखने वाले प्रधानमंत्री मोदी संसद में ही राहुल गांधी के इस
सवाल का जबाब नहीं दे पाते है कि किसान क्या मेक न इंडिया नहीं कर रहा है । और राजनीति जिस तरह जनता को लगातार ठग रही है उसमें कोई राहुल गांधी से भी नहीं पूछ पाता है कि जब बीते साठ बरस से किसान मेक इन इंडिया कर रहा है तो फिर मनमोहन सरकार ही नहीं बल्कि काग्रेस की तमाम सरकारो के वक्त
किसानो को लेकर बजट से लेकर हर नीति में कोई ऐसा इन्फ्रस्ट्रक्चर पैदा क्यो नहीं किया गया जिससे किसान के लिये सरकार हो । और किसान को भी लगे कि उसका वित् मंत्री या प्रधानमंत्री इन्द्र भगवान नहीं बल्कि चुनी हुई सरकार ही है । यानी जिन सवालो को लेकर देश का हर नागरिक अपने अपने दायरे
में जुझ रहा है पहली बार किसी सरकार के अंतर्विरोध ने उसे ना सिर्फ सतह पर ला दिया है बल्कि यह सवाल भी खडा कर दिया है कि बहुमत के साथ चुनावी जीत के बाद भी अगर कोई वैकल्पिक इक्नामिक माडल किसी सरकार के पास नहीं है तो फिर देश की राजनीति उसी दिशा में जायेगी जिसके खिलाफ खडे होकर
नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार में उम्मीद की आवाज दी । और देश भी मोदी के साथ चलने को इसलिये तैयार हो गया क्योकि हर पार्टी का कांग्रेसीकरण हो चला था। यहां तक की दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता भी कांग्रेस की नीतियों से इतर सोच नहीं पा रहे थे। इसलिये गुजरात से निकलकर लुटियन्स की दिल्ली
को बदलने के ख्वाब मोदी ने जगाया । लेकिन पहले बारह महीने तो यह लगते हैं कि मोदी भी लुटियन्स की दिल्ली के रंगो में खो रहे हैं। मनाइये कि बाकि बचे 48 महीनो में अच्छे दिन की आस बरकरार रहे।
Tuesday, May 5, 2015
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सिल्वर ओक से अशोक रोड के डिनर पार्टी का फर्क |
वह शुक्रवार की रात थी। यह शनिवार की रात है। वह पांच बरस पहले का वाक्या था। यह पांच दिन पहले का वाक्या है। वह सितंबर का महीना था। यह मई का महीना है। वह यूपीए-2 के पहले बरस के जश्न की रात थी। यह मोदी सरकार के एक साल पूरे होने से पहले पत्रकारों को साथ खड़ा करने की रात है। 18 सितंबर 2010 और 2 मई 2015 में अंतर सिर्फ इतना ही है कि उस वक्त मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव ने दो दर्जन पत्रकारों को दिल्ली के हैबिटेट सेंटर के सिल्वर ओक में डिनर का आमंत्रण दिया था और इस बार सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने दो दर्जन पत्रकारो के लिये डिनर की व्यवस्था अशोक रोड स्थित अपने घर पर की थी। पांच बरस पहले प्रधाननमंत्री मनमोहन सिंह को छोड़ समूचा पीएमओ पत्रकारों की आवभगत में मौजूद था। हर के हाथ में जाम था। लेकिन पांच बरस बाद पीएमओ का कोई अधिकारी तो नहीं लेकिन पत्रकारों के बीच खुद प्रधानमंत्री मोदी जरुर पहुंचे। यानी जो प्रधानमंत्री बार बार मीडिया को न्यूज ट्रेडर बताने से नहीं चूक रहे हों। और लोकसभा चुनाव चुनाव प्रचार के दौरान इस संकेत को देने से भी नहीं चूके कि मनमोहन सिंह के दौर में कौन कौन से पत्रकार कैसे क्रोनी कैपटिलिज्म के हिस्से बने हुये थे। फिर सच भी है कि राडिया टेप कांड के दौरान कई पत्रकारों के नाम आये।
लेकिन इसका दूसरा सच यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी शनिवार की रात जिस डिनर पार्टी में पहुंचे उसमें राडिया टेप में आये एक पत्रकार की मौजूदगी भी थी। तो क्या सत्ता का धर्म एक सरीखा ही होता है। क्योंकि मौजूदा वक्त में विकास को लेकर मोदी जो भी ताना बाना देश के सामने रख रहे हों और खुद को आम जनता से जोड़ने का जिक्र लगातार कर रहे हैं तो ऐसे में पांच बरस पहले पीएमओ की कॉकटेल पार्टी में मनमोहन सिंह का जितना गुणगान जिस तरीके से किया जा रहा था, वह सब उन सभी को याद आयेगा ही जो उस पार्टी में मौजूद थे । क्योंकि इंडिया हैबिटेट सेंटर के दरवाजे पर ही पोस्टर चस्पा था कि पीएमओ की कॉकटेल पार्टी सिल्वर ओक में हो रही है। इस तरह से खुली कॉकटेल पार्टी इससे पहले कभी किसी पीएम ने देनी की हिम्मत दिखायी नही थी। लेकिन मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार की जिस उड़ान पर थे, उसमें खुलापन ऐसा था कि हर हाथ में जाम था। पत्रकारों की आवाजाही हो रही थी। धीरे धीरे समूहों में पीएमओ का हर अधिकारी खुल रहा था। पीएमओ के तमाम डायरेक्टर यह बताने से नहीं चूक रहे थे कि कैसे पहली बार आम आदमी को भी अपने साथ जोड़ने की पहल पीएमओ कर रहा है। कैसे पीएमओ का मीडिया सेल अपनी पहल से मुल्क से जुड़े अहम मुद्दों को उठा रहा है। देश में पहली बार कोई प्रधानमंत्री इतना पारदर्शी है, इतना ईमानदार है और किस तरह विकास के काम को अंजाम देने में जुटा है। जाहिर है विकास के रास्ते प्रधानमंत्री मोदी भी चल पड़े हैं और उन्हें लगातार यह महसूस हो रहा है कि विकास के लिये खेती की जमीन अगर वह मांग रहे है तो गलत क्या कर रहे हैं। 19 अप्रैल को संसदीय पार्टी को संबोधित करते हुये वह गुस्से में भी आये कि जमीन वह किसी अंबानी -अडानी के लिये तो मांग नहीं रहे हैं। कहते कहते तो मोदी यहा तक कह गये कि पत्रकार या मीडिया हाउस के लिये तो जमीन नहीं मांग रहे हैं। जाहिर है मीडिया की भूमिका को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने पत्रकारों की डिनर पार्टी में जरुर अपना पक्ष रखा होगा। नाराज भी हुये होंगे कि कुछ पत्रकार या मीडिया हाउस क्यों भूमि अधिग्रहण के खिलाफ हैं। पता नहीं दो दर्जन पत्रकार जो जेटली साहेब की डिनर पार्टी में मेहमान थे, उनमें से कितनों ने क्या कहा लेकिन पांच बरस पहले मनमोहन के विकास एजेंडे को लेकर कुछ ऐसी ही बहस चल पड़ी थी। तब पीएमओ के एक युवा अधिकारी से अनौपचारिक गुफ्तगु में जैसे ही विकास की नीतियो को लेकर मुल्क से इतर महज 15-20 करोड़ को ही देश मानने का सवाल उठाया...तो जवाब भी झटके के साथ आया, "डोंट टांक लाइक अरुंधति" { अरुंधति राय की तरह बात मत कीजिये} समाधान बताइये...रास्ता बताइये ।
मीडिया में कहा जाता है पीएमओ संपर्क नहीं बनाता। तो लीजिये पहली बार पूरा पीएमओ ही मौजूद है। जाहिर है पांच बरस बाद मोदी सरकार की धड़कने भी बढ़ी होगी की कही साठ महिने माइनस बारह महिने और बचे अडतालिस महीने। इस ख्याल से तो मोदी सरकार का पहला बरस नहीं आंका जायेगा। क्योंकि मौजूद
पत्रकारों की फेरहिस्त में देश के सामने संजय गांधी के मारुति इंडस्ट्री का भंडाफोड़ करने वाले पत्रकार से लेकर हर दिन न्यूज चैनल पर देश के नाम संबोघन करने वाले पत्रकार भी थे। और देश के सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार के संपादक भी थे। जेटली साहेब के उन पंसदीदा रिपोर्टरों की फौज भी मौजूद थी, जिन पर कभी सुषमा स्वराज नाराज रहती थी कि वह मनगढंत स्टोरी करने में माहिर है। विपक्ष में रहते हुये कई बार सुषमा स्वराज ने जेटली पर यह कहकर निशाना साधा था कि वह अपने खास पत्रकारो को ब्रिफिग कर रिपोर्ट छपवाते हैं। लेकिन अब तो सत्ता है। खुद ही सरकार है। तो पत्रकारों के लिये सरकार की कोई भी जानकारी तो स्कूप हो सकता है। तो स्कूप की तलाश भी पत्रकारों को सरकारों के करीब ले जाती है। और सरकार के साथ खड़े होकर पीठ खुजलाने का अपना ही मजा है। वैसे कमोवेश यह हालात सोनिया गांधी के सलाहकारों की टीम में भी पांच बरस पहले देखा जा सकता था। लेकिन तब विरोध को चुप कराने के लिये डपटा जाता था। पांच बरस पहले पीएमओ रोजगार और देश की श्रमिक उर्जा को खपाने के लिये मनरेगा का गुणगाण हमेशा करता था और सिल्वर ओक में भी मीडिया के बीच उसकी आवाज आ रही थी। हालाकि मनरेगा भी लश्क्ष्यविहिन है और देश की कोई परियोजना मनरेगा के तहत पूरी नहीं हुई ,इस पर अंगुली उठाने का मतलब था....डोंट टाक लाईक अरुंधति का जबाव सुनना। हो सकता है मौजूदा वक्त में प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान को लेकर जो सोचा हो या जनधन योजना से अगर वह गरीबी खत्म होने का सपना पाल चुके हो। और कोई पत्रकार उस पर सवाल पूछे तो मोदी सरकार को बुरा लग सकता है । लेकिन अपने खास करीबी पत्रकार ऐसा सवाल सामान्य तौर पर पूछते नहीं हैं। कांग्रेस में यह तो हुनर था कि वह दो मोर्चे पर लगातार काम कर जनता को ठग भी लेती और कोई समझता उस समय तक चुनाव दस्तक दे देता। क्योंकि पांच बरस पहले मीडिया को डील करने वाले पीएमओ के अधिकारियों से मिलने-सुनने से यह एहसास जरुर हुआ कि मानवीय सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर ठीक उसी तरह खिंची जाती है जैसे सोनिया गांधी की अगुवाई वाली नेशनल एडवाइजरी काउंसिल यानी एनएसी में वाम सोच की मोटी लकीर हर मुद्दे पर निकलती रही । यानि देश की नीतियो का चेहरा चाहे विकास की अत्याधुनिक धारा में बहने को तैयार हो लेकिन उसपर मानवीय पहलुओ की पैकेजिंग पीएमओ कर ही देता है । फिर मौजूदा वक्त में लौटे तो मोदी सरकार का संकट यह है कि सबकुछ मोदी है । और मानवीय चेहरे के तौर पर विकास की अनसुलझी पहेली से आगे कोई सवाल टकराता है तो वह संघ परिवार का हिन्दुत्व है । जो बार बार भारतीय मन को विदेशी निवेश पर टिके विकास की चकाचौंध से डिगाता है । लेकिन हर बार जीत उपभोक्ता समाज की होती है । मनमोहन सिंह के दौर में भी नागरिको के लिये कल्याण पैकेज था और उपभोक्ताओ के लिये नीतिया । तो मोदी के दौर में विकास की लकीर खिंचने से बनने वाली पूंजी से हाशिये पर पडे तबके के कल्याण का राग आलापा जा रहा है । यानी विकास की मोटी लकीर जस की तस है अंतर सिर्फ इतना है कि मोदी ने मनमोहन की चकाचौंध को गोटाले से जोडकर अपना सवाल हाशिये पर पडे तबके के लिये उठाया है तो जश्न सिल्वर ओक सरीखे खुली जगह किया नहीं जा सकता । लेकिन अंतर यह भी है कि तब पीएम खुली जगह में पत्रकारो के बीच नहीं गये लेकिन उस डिनर पार्टी में मौजूद कई पत्रकार बाद में राडिया टेप में फंसे । और पांच बरस बाद पत्रकारो के बीच पहुंच कर पीएम ने जरुर एहसास कराया कि जो जेटली की डिनर पार्टी में है वह न्यूज ट्रेडर नहीं है ।
Friday, May 1, 2015
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संघ को 'साइज' में रखने के लिये रामदेव बन रहे हैं मोदी के हथियार ! |
अब पतंजलि की दवाइयों पर लिखे शब्दों का अर्थ कौन से आधुनिक शब्दकोष में जोड़ा जाये। क्योंकि बाबा रामदेव अगर पुत्रजीवक को बेटा न मानें, अश्वगंधा को घोडा न कहें, गौदंती को गाय के दांत से ना जोडें तो यह सवाल उठ सकता है कि क्या भारतीय मन के करीब प्राकृतिक इलाज को रखने भर के लिये इन शब्दों का इस्तेमाल बाबा रामदेव कर रहे हैं। तो फिर यह सवाल भी होगा कि कहीं यह प्रोडक्ट बेचने के सांस्कृतिक नुस्खे तो नहीं। यानी प्रचार प्रचार के लिये हर कंपनी जैसे अपने प्रोडक्ट के लिये उन शब्दों का इस्तेमाल करती है जो लोगों की जुबां पर चढ़ जायें उसी तर्ज पर बाबा रामदेव भी आस्था और सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े शब्दों के इस्तेमाल कर अपना माल बेच रहे हैं। हो जो भी लेकिन भारत को भ्रटाचार मुक्त करने के बाबा रामदेव के अभियान के छांव तले पतंजलि या भारत स्वाभियान ट्रस्ट को उड़ान मिली, वह ना सिर्फ मार्केटिंग के तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी कमाल का है। क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में योग गुरु राजनीति का पाठ पढ़ाते हुये रामलीला मैदान से आगे जिस राजनीतिक मकसद के लिये निकले उसने दिल्ली की सत्ता भी बदली और दिल्ली की सत्ता बदलते ही बाबा को भी बदल दिया। योग से भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष और सत्ता बदलाव के बाद खुद के विस्तार के लिये दिल्ली की सत्ता के लिये हथियार बनते बाबा रामदेव पर मोदी सरकार की कृपा के पीछे कौन से सियासी मंसूबे हो सकते हैं, यह भी कम दिलचस्प नहीं है । क्योंकि दिल्ली की सत्ता के लिये बाबा रामदेव या तो आने वाले वक्त में सबसे बडे हथियार साबित होंगे। या फिर दिल्ली की सत्ता 2019 तक बाबा रामदेव को इस हालात में ला खड़ा करेगी जहां राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ भी बाबा के स्वाभिमान ट्रस्ट के सामने कमजोर दिखायी देने लगे। इस खेल की डोर और कोई नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में ही होगी। वैसे यह सवाल कोई भी कर सकता है कि जब प्रधानमंत्री मोदी खुद संघ के प्रचारक रह चुके हैं और संघ परिवार प्रधानमंत्री मोदी के पीछे खड़ा है तो फिर बाबा रामदेव को खड़ा करने की जरुरत है क्यों।
तो सियासत की उस बारीक लकीर को भी समझना होगा कि बाबा रामदेव अब भ्रटाचार के मुद्दे पर खामोश क्यों हो गये। बाबा रामदेव जिस भारत स्वाभिमान आंदोलन की अगुवाई करते है जब उसका नारा ही विदेशी कंपनियो के सौ फीसदी बायकाट है तो फिर वह मोदी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल के हालात में क्यों नहीं आते। और प्रधनमंत्री मोदी जब दुनिया में घूम घूम कर शिक्षा और स्वास्थ्य सेक्टर को भी विदेशी हाथों में देने की वकालत करते हैं तो फिर बाबा रामदेव जो स्वदेशी शिक्षा और स्वदेशी चिकित्सा का नारा लगाते हैं तो सरकार का विरोध क्यों नहीं कर पाते। असल में बाबा रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के पन्नों को खोल कर देखे तो विचारों के लिहाज से आरएसएस की सोच के काफी करीब नजर आयेगा। यानी अधिकतर क्षेत्रों में तो संघ और स्वाभिमान ट्रस्ट एक सरीखा लगेंगे। दोनों के बीच अंतर सिर्फ हिन्दुत्व को लेकर ही है। संघ हिन्दुत्व को हिन्दु राष्ट्र के तौर पर भी देखता समझता है और बाबा रामदेव का स्वाभिमान ट्रस्ट हिन्दुत्व के बदले राष्ट्रीयता का ही प्रयोग करता है। जिसमें सभी धर्म की जगह है। इस्लाम की भी। असल खेल यही से शुरु होता है। बाबा रामदेव की अपनी ताकत है और योग के जरीये देश भर में लोकप्रिय बाबा रामदेव जिस स्वदेशी और राष्ट्रीयता का सवाल उठाते है उससे संघ को परहेज नहीं है। लेकिन संघ कभी नहीं चाहता है कि उसके सामानांतर राष्ट्रीयता का नारा लगाते हुये कोई संगठन बड़ा हो। याद कीजिये तो अन्ना आंदोलन के वक्त भी आरएसएस अन्ना के संघर्ष को सफल बनाने के लिये साथ खड़ा हो गया था। लेकिन रामलीला मैदान में जब भारत स्वाभिमान मंच तले बाबा रामदेव भ्रटाचार को ही लेकर संघर्ष करने उतरे तो संघ ने खुद को पीछे कर लिया। जबकि मुद्दा अन्ना के सवाल को आगे ले जाने वाला था। राजनीतिक तौर पर रामदेव भी अन्ना की तर्ज पर उस वक्त किसी सियासी पार्टी बनाने या चुनाव में संघर्ष करने का कोई एलान नहीं कर रहे थे। लेकिन रामदेव की लोकप्रियता रामलीला मैदान में ही दफन हो जाये इसका प्रयास संघ ने बखूबी किया। और शायद रामलीला मैदान हादसे के बाद बाबा रामदेव भी संघ की इस लक्ष्मण रेखा को समझ गये। लेकिन अब देश
की सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री मोदी की जरुरत और आने वाले वक्त में खुद को कही ताकतवर बनाने के लिये बाबा रामदेव की उपयोगिता या संघ से टकराव ना हो इसकी व्यूह रचना को समझना जरुरी है। प्रधानमंत्री मोदी आरएसएस को बाखूबी समझते है। ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी समझ रहे थे। संघ से कितनी दूरी और कितनी निकटता रहनी चाहिये इसे बीजेपी के जिस भी राजनेता ने समझा वह झटके में देश की राजनीति में सर्वमान्य बनने लगता है। और इस सच को हर कोई समझता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में संघ परिवार जिस ताकत के साथ मोदी के हक में खड़ा हुआ उसने चुनाव का मिजाज ही बदल दिया। और बीजेपी इस सच को भी जानती है कि 2004 में जब हिन्दू ताकतें घर पर बैठ गई तो वाजपेयी को हार मिली। यानी नरेन्द्र मोदी को ने वाले वक्त में सियासत उस तलवार की धार पर करनी है जहां उनके आर्थिक विकास की डोर का परचम भी लहराये। राष्ट्रवाद आहत भी ना हो । हिन्दुत्व के रंग भी दिखायी दें। और मोदी की पहचान सर्वमान्य नेता के तौर पर बनती चली जाये। ध्यान दें तो नीतियों को लेकर हर मोड पर मोदी सफल हो रहे हैं। मसलन विदेशी निवेश पर अब संघ खामोश है। आर्थिक नीतियों को लेकर भारतीय मजदूर संघ चुप है चाहे मजदूरों के खिलाफ नीतियों को खुले तौर पर अपनाया जा रहा हो । किसान विरोधी सरकार का ठप्पा खुले तौर पर मोदी सरकार पर लग रहा है लेकिन किसान संघ कही बिल में जा घुसा है। और यह सब हो इसलिये रहा है क्योंकि संघ को लग रहा है कि अगर केन्द्र में मोदी सरकार का विरोध वह करने लगे तो फिर सरकार ही ना रहेगी तो आरएसएस जिस विस्तार की कल्पना अपने लिये किये हुये है, वह कैसे होगा ।
लेकिन प्रधानमंत्री मोदी इस सच को वाजपेयी से कहीं आगे की समझ से समझने लगे है कि सवाल अब यह नहीं है कि संघ को कितनीढील दी जाये। सवाल यह है कि संघ के सामानांतर कैसे कोई बडी लकीर खींच दी जाये। दरअसर बाबा रामदेव का बढ़ता कारोबार और भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का विस्तार इसी की कडियां है । क्योंकि बाबा रामदेव के विस्तार के दौर में घर वापसी और अल्पसंख्यक मसलों पर प्रधानमंत्री मोदी को दुनिया के मंचों पर वैसी सफाई देनी नहीं होगी जैसे संघ परिवार को लेकर देनी पड़ रही है। इसलिये सवाल सिर्फ यह नहीं है कि मोदी सरकार के आने के बाद बाबा रामदेव का टर्नओवर 67 फीसदी बढकर 2000 करोड तक जा पहुंचा। सवाल यह है कि संघ के सामांनातर बाब रामदेव का विस्तार हो कैसे रहा है और इस विस्तार का उपयोग मोदी की सियासत करेगी कैसे। असल में आरएसएस का कैडर स्वयंसेवक है। जबकि बाबा रामदेव का कैडर स्वयंसेवक और नौकरी करने वाले इन्सेन्टिव पर टिका है । कारपोरेट को लेकर दोनो का नजरिया स्वदेशी है। दोनों ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ है। आज की तारीख में संघ के देश भर में करीब 15 करोड़ स्वयंसेवक हैं। जबकि भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ पांच करोड़ लोग जुड़े हैं । संघ की देश भर में 50 हजार शाखायें लगती हैं। जबकि बाबा रामदेव के पतंजलि स्टोर पांच हजार हैं। संघ अपने विस्तार को ब्लाक स्तर पर ले जा रहा है। यानी ब्लाक स्तर पर ही स्वयंसेवक सारी जरुरतों की व्यवस्था करेगा । जबकि स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव मनें पांच व्यक्ति को तैयार कर रहा है। जो स्टोर खोलकर उसके सामानो को बेचेंगे। संघ के विस्तार में सिर्फ विचार मायने रखते हैं। लेकिन भारत स्वाभिमान ट्रस्ट हर गांव में एक इमारत ले रहा है। जिसमें कम्पयूटर भी होगा और सामानो को लाने या बांटने के लिये मोटरसाइकिल भी रखी जायेगी । स्वाभिमान ट्रस्ट के साथ अभी 15 लाख लोग सक्रिय हैं। यानी वह गांव में सामानो को ला ले जा रहे हैं। संघ वैचारिक तौर पर हिन्दुत्व का जिक्र कर हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त देने में लगे है। जबकि वावा रामदेव राष्ट्रीयता का सवाल उठा कर अपने प्रोडक्ट को बेचते हुये योग को ही विस्तार का जरीया बना रहे है। दोनों का मंशा सौ फिसदी मतदान की है। यानी संघ मोदी सरकार के रहहते हुये विस्तार को अमली जामा पहना पा रहा है। लेकिन जहां उसे लगता है कि उसके विचारों को सरकार महत्व देना बंद कर रही है तो उसकी सक्रियता केन्द्र सरकार के खिलाफ भी एक वक्त के बाद हो सकती है। लेकिन बाबा रामदेव के साथ अमूर्त विचार नही बल्कि मूर्त धंधा है। योग है। और विस्तार के लिहाज से समझे तो संघ 2004 से 2014 के दौरान इस हद तक सिमटा कि उसकी शाखाये घटकर 30 हजार हो गई थी। वहीं बाबा रामदेव के पंतजलि का टर्नओवर मनमोहन सिंह के दौर में धीरे धीरे रफ्तार से बारस सौ करोड ही पहुंचा लेकिन मोदी सरकार के आते ही टर्न ओवर दो हजार करोड हो गया । यानी मोदी सरकार के आसरे संघ भी विस्तार कर पा रहा है और बाबा रामदेव भी । लेकिन संघ से टकराना मोदी के वश में नहीं है और रामदेव को कभी भी आईना दिखाना मोदी के हाथ में है । फिर रामदेव का कैडर राजनीति से कही नहीं जुडा है जबकि संघ का कैडर तो बीजेपी को ना सिर्फ प्रभावित करने के हालात में रहता है बल्कि बीजेपी में उसकी इंन्ट्री भी होती है । तो बाबा रामदेव 2019 के चुनाव में देश के छह लाख गांव तक या तो मोदी के लिये काम करेगें या फिर उनके धंधों पर अंकुश लगना शुरु हो जायेगा । यानी रामदेव का बढता कुनबा संघ परिवार के विस्तार पर भी भारी कैसे पड़ेगा। और आने वाले वक्त में बाबा रामदेव के जरीये देश में स्वदेशी बनाम बहुराष्ट्रीय कंपनी से ज्यादा भारत स्वाभिमान बनाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ होगा कैसे। इसका इंतजार कीजिए क्योंकि संसद के भीतर बाबा रामदेव को लेकर उठे सवाल कोई मायने नहीं रखते है क्योकि बाबा रामदेव की डोर तो प्रधानमंत्री मोदी के हाथ में है ।