"जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे/रोज मरते रहे , मर कर जीते रहे /जख्म जब कोई जहनो दिल को मिला /जिन्दगी की तरफ एक दरीचा खुला / जिन्दगी हमें रोज आजमाती रही /हमे भी उसे रोज आजमाते रहे...."याद तो नहीं यह गजल है किसकी । लेकिन अस्सी के दशक में जेएनयू के गंगा ढाबे पर जब भी देश के किसी मुद्दे पर चर्चा होती तो एक साथी धीरे धीरे इन्ही लाइनों को गुनगुनाने लगता और तमाम मुद्दो पर गर्मा गरम बहस धीरे धीरे खुद ही इन्हीं लाइनों में गुम हो जाती। और तमाम साथी यह मान कर चलते कि आने वाले वक्त में अंधेरा छंटेगा जरुर। क्योंकि बहस का सिरा तब मंडल-कमंडल की सियासत से शुरु होता और पूंछ पकडते पकडते हाथ में संसदीय चुनावी राजनीति का अंधेरा होता ।
लेकिन यह एहसास ना तब था ना अब है कि लोकतंत्र की दुहाई देकर जिस तरह चुनावी राजनीति को ही सर्वोपरि बनाया जा रहा है और राजनीतिक सत्ता के हाथों में अकूत ताकत समा रही है उसमें तमाम संवैधानिक संस्थाओं की भी कोई भूमिका बच पायेगी । यह लकीर है महीन, लेकिन इतनी धारदार है कि इसने संसदीय राजनीति की बिसात पर सांसदों और राजनेताओं को ही प्यादा बना दिया है । संसद की साख पर ही सवालिया निशान उठने लगा है । संसद की भीतर बहस की उपयोगिता या मुद्दे से जुड़े लोगों के बीच संसद की बहस को लेकर नाउम्मीदी किस हद तक है यह सब संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान बार बार उठ रहा है । शुरुआत कही से भी कर सकते है । मसलन संसद में सूखे की बहस के दौरान ही नेशनल हैराल्ड का मुद्दा आ गया । और झटके में नेशनल हैराल्ड के जरीये संसद ठप कर न्यायपालिका को घमकाने का आरोप कांग्रेस पर संसदीय मंत्री वेंकैया नायडू ने लगा दिया । तो बात न्यायपालिका के जरीये संविधान को ताक पर रखने के मद्देनजर भी हो सकती है और सूखे का सवाल किसान मजदूर से जुडा है इस पर भी हो सकती है । लेकिन जब चर्चा होती है तो संसद के भीतर 15 फिसदी सांसद तक नहीं होते । और इस दौर में हर वह मुद्दा हाशिये पर है जिसके आसरे 19 महीने पहले देश ने एतिहासिक जनादेश दिया ।
तो आज शुरुआत कालेधन से करते है । क्योकि मनमोहन सिंह की दस बरस की सत्ता के 34 लाख करोड़ रुपये अगर कालेधन के तौर पर विदेशो में चले गये । यानी हर दिन 931 करोड रुपये 2004 से 2013 तक कालेधन की रकम विदेशी बैकों में जाती रही तो यह सच कितना छोटा है कि दिल्ली में संजय प्रताप सिंह नाम का एक नौकरशाह जब दो लाख बीस हजार की घूस लेते हुये पकड़ में आता है तो उसकी संपत्ति खंगालने पर पता चलता है कि सौ करोड़ से ज्यादा की संपत्ति उसने भ्रष्टाचार के जरीये बना ली । और फिर पता चलता है कि दिल्ली एनसीआर में करीब सवा लाख करोड़ से ज्यादा कालाधन उन फ्लैटो में लगा है जो बनकर खड़े हैं । लेकिन उनमें कोई रहता नहीं क्योंकि देश के अलग अलग राज्यों के सैकडों नौकरशाहों ने दिल्ली और एनसीआर में अपना कालाधन लगा रखा है जो विदेशों में जमा नहीं करा पाये । या फिर विदेशो में जमा कालेधन के अलावे यह रकम है । यह रकम काले धन की है । 34 लाख करोड़ । सिर्फ मनमोहन सिंह की दस बरस की सत्ता के दौर में देश से 34 लाख करोड़ रुपये कालेधन के तौर पर देश से बाहर चले गये । तो 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त जो सवाल नरेन्द्र मोदी कालेधन का बार बार उठा रहे थे वह गलत कतई नहीं था । यानी एक तरफ अमेरिकी थिंक टैंक ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रेटी की रिपोर्बताती है कि जीडीपी का करीब 25 फिसदी होता है 34 लाख करोड जो 10 बरस में देश के बाहर गया। और इन्हीं सवालों को उठाते हुये नरेन्द्र मोदी पीएम बन गये तो मौजूदा सच है क्या। क्योंकि सरकार बनते ही बनाई गई एसआईटी ने क्या तीर मारा-अभी तक देश की जनता को पता नहीं है । काले धन पर नया कानून पास किया गया लेकिन उसका असर है कितना कोई नहीं जानता ।
आलम ये कि कानून के तहत तीन महीने में सिर्फ 4,147 करोड़ रुपए का खुलासा हुआ और स्कीम फ्लॉप रही । सरकार ने एचएसबीसी बैंक में खाता धारक 627 भारतीयों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे जरुर लेकिन न जनता को नाम मालूम पड़े और न किसी के खिलाफ ऐसी कानूनी कार्रवाई हुई कि वो मिसाल बने । और काले धन को लेकर सरकारी कोशिशों की खुद बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सवाल उठाए और इनफोसिस के पूर्व एचआर हैड टीवी मोहनदास ने तो सरकार के कालाधन पकड़ने के तरीकों को मजाक करार दे दिया।। तो सवाल यही है कि काला धन को लेकर दावे और वादों के बीच मोदी सरकार कहां खड़ी है। क्योकि अमेरिकी थिंक टैंक ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट की माने तो दुनिया में मौजूदा वक्त में भी कालेधन को लेकर कोई कमी आई नहीं है । यानी मौजूदा वक्त में कितना काला धन कौन बना रहा है इसकी जानकारी हो सकता है पांच या दस बरस बाद आये । अब अगला सवाल किसानो का । जिन्हे समर्थन मूल्य कितना मिलता है यह बहस का हिस्सा नहीं है बल्कि नई बहस इस बात को लेकर है कि पहली बार देश में खुदकुशी करते किसानों की तादाद बढ़ क्यो गई । एक ही मौसम में कही सूखा तो कही बाढ क्या आ रही है। और इन सबके बीच कृषि उत्पादों से जुडी कंपनियों के टर्नओवर बढ़ क्यो रहे है । मसलन महाराष्ट्र के मराठवाडा और विदर्भ ने तो खुदकुशी के सारे रिकार्ड उसी दौर में टूटे जब दिल्ली और महाराष्ट्र में बीजेपी की ही सरकार है। जो किसानो को लेकर राजनीतिक तौर पर कहीं ज्यादा संवेदनशील रही । तो क्या राजनीतिक सक्रियता सत्ता दिला देती है लेकिन सत्ता के पास कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति नहीं है जिससे देश को पटरी पर लाया जा सके । क्योंकि इकनामी देश के बाहर के हालातो से ही अगर संभलता दिखे तो कोई क्या कहेगा । जैसे जून 2008 में कच्चे तेल की किमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 145 डालर प्रति बैरल थी । तो अभी यह 40.62 डालर प्रति बैरल है। लेकिन जब अभी के मुकाबले सौ डालर ज्यादा थी तब दिल्ली में पेट्रोल की किमत प्रति लीटर 50 रुपये 62 पैसे की थी। और आज जब तब के मुकाबले सौ डॉलर कम है तो प्रति लीटर पेट्रोल 60 रुपये 48 पैसे है । तो सवाल यह नहीं है कि इक्नामी मनमोहन सिंह के दौर में डांवाडोल क्यों थी ।और अभी इक्नामी संभली हुई क्यो है । सवाल है कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में उथल पुथल होगी तब इकनॉमी कैसे संभलेगी। इसीलिये अब आखरी सवाल पर लौटना होगा कि आखिर क्यो संसद चल नहीं रही और क्यों संवैधानिक संस्थाओ को ही नहीं बल्कि न्यायपालिका तक निशाने पर क्यों है । और सबपर भारी राजनीति ही क्यो है । याद किजिये जब सवाल जजों की नियुक्ति > को लेकर कोलेजियम का उटा तो कैबिनेट मंत्री अरुण जेटली न्यायापालिका को लेकर यह कहने से नहीं चुके कि गैर चुने हुये लोगो की निरंकुशता कैसे बर्दाश्त की जा सकती है । यानी सारी ताकत संसद में होती है और चुने हुये प्रतिनिधियों का महत्व सबसे ज्यादा होता है । तो अगला सवाल यही है कि अगर संसद ही सबसे ताकतवर है या सत्ता को यह लगता है कि तमाम संवैधानिक संस्थानो में भी संसद की चलनी चाहिये । तो अगला सवाल यही होगा कि क्या काग्रेस ने इसी मर्म को पकड लिया है कि मुद्दा चाहे कोर्ट का हो या कानून के दायरे में भ्रष्टाचार का हो । लेकिन आखिर में राजनीतिक सत्ता ही जब सबकुछ तय करती है तो फिर हर मुद्दे को राजनीति से ही जोडा जाये । क्योकि बिहार चुनाव तक में प्रदानमंत्री मोदी की पहचान चुनावी जीत के साथ बीजेपी ने जोडी तो चुनावी हार के साथ प्रधानमंत्री मोदी की पहचान काग्रेस जोडना चाहती है ।क्योकि अगला चुनाव असम, बंगाल, तमिलनाडु और केरल में है । जाहिर है बीजेपी के लिये असम ही एक आस है । और लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा और साल भर बाद पहली बार असम ही वह राज्य होगा जहा काग्रेस और बीजेपी आमने सामने होगी। तो सवाल दावों और वादों का नहीं बल्कि ठोस काम का है, और सच यही है कि संसद की बहस कोई उम्मीद जगाती नहीं और हंगामा सियासत को गर्म करता है । ऐसे में मंहगाई हो या कालाधन. रोजगार हो या न्यूनतम मजदूरी और किसानो की खुदकुशी हो या सूखा । उम्मीद कही किसी को नजर आती नहीं । कमोवेश इसी तरह की बहस तो जेएनयू में ढाई दशक पहले होती थी और संयोग देखिये बीते 27 बरस से जेएनयू के फूटपाथ पर जिन्दगी गुजारने वाला कवि रमाशंकर विद्रेही चार दिन पहल मंगलवार को ही गुजर गया । जो अक्सर बीच बहस में अपनी नायाब पंक्तियो से दखल देता । उसी ने लिखा था, " एक दुनिया हमको घेर लेने दो / जहा आदमी आदमी की तरह / रह सके/कह सके / सह सके "
Friday, December 11, 2015
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जेएनयू, संसद, सत्ता और सपने |
Thursday, December 3, 2015
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पानी पानी रे...... |
बिजली है नहीं। पीने का पानी मिल नहीं रहा। सड़क पर पानी है। घरों में पानी के साथ सांप-बिच्छू भी हैं। अस्पताल डूबे हुये हैं। स्कूल बीते 15 दिनों से बंद हैं। फ्लाइट की आवाजाही ठप है। बच्चों के लिये दूध नहीं है। आसमान से फेंके जाते खाने पर नजर है। तो जमीन पर किसी नाव या बोट का इंतजार है। 300 से ज्यादा की मौत हो चुकी है। 1240 झोपडपट्टियों में रहने वाले नौ लाख से ज्यादा लोग तिल तिल मर रहे हैं। यह चेन्नई है। वही चेन्नई जो कभी मद्रास के नाम से जानी जाती थी। वही मद्रास जिसकी पहचान पल्लावरम के जरीये पाषाण काल से रही। वही पल्लावरम जो दुनिया के नक्शे पर सांस्कृतिक, आर्थिक और शौक्षणिक केन्द्र के तौर पर विकसित हुआ। और मौजूदा वक्त में वहीं चेन्नई जहां के हर शख्स कमाई देश में तीसरे नंबर पर आती है । वही चेन्नई आज बूंद बूंद के लिये मोहताज है। वही चेन्नई आज जीने की जद्दोजहद में जा फंसी है। वही चेन्नई मदद के एक हाथ के लिये बैचेन है ।
वही चेन्नई अपनो के रोने को देख कर रो भी नहीं पा रही है। जिस चेन्नई ने बीते दस बरस में विकास की ऐसी रफतार पकड़ी कि उसकी अपनी अर्थवस्था देश में चौथे नंबर पर आ गई। वही चेन्नई जिसने तकनीकी संस्थानों के आसरे दुनिया में अपनी पहचान भी बनायी और दुनिया के तमाम साफ्टवेयर कंपनियों को हुनरमंद दिये। वही संस्थान आज पानी में डूबे हैं। अंधेरे में समाये हैं। कम्यूटर तो दूर मोबाइल चार्ज करने तक के हालात नहीं हैं। जिस चेन्नई को चकाचौंध के आसरे विस्तार दिया गया। संयोग से आज उसी चेन्नई में सबसे घना अंधेरा है। 27 कालोनियों के 2 लाख परिवारों के सामने संकट है कि वह जाये तो कहां जायें। पानी में घर। गाडी में पानी। सडक पर पानी । और आसमान से लगातार गिरते पानी के खौफ के बीच मदद के लिये सरकार नहीं सेना के जवान है । एनडीआरएफ की टीम है । नेवी के बोट है । सरकार ने तो निर्णय लेकर चेम्बरमबक्कम झील से पानी छोड़ा कि कही झील का बांध ही ना टूट जाये । और झील उस जमीन पर हर किसी को लील ना लें जो झील की जमीन थी और अब उसकी जमीन पर क्रंकीट के घरों में लोग रह रहे है । तो इस पानी में सरकार कहीं नहीं है । सियासत के जरीये तैयार की गई चेन्नई नगर कही नहीं है । जो बच रहा जो बचा रहा है वह सेना है। और जिसने चेन्नई को खत्म किया वह सियासत है।
क्योंकि चेन्नई में बेमौसम भारी बरसात सिर्फ इस बार का सच नहीं है। बल्कि बीते छह दशको में कमोवेश हर दस बरस में इस तरह की जबरदस्त बारिश हुई । 1969, 1976, 1985, 1996, 1998, 2005, लेकिन जो 2015 यानी इस बार हुआ वह पहले नहीं हुआ । तो हर जहन में यह सवाल उठ सकता है कि ऐसा क्यों । तो सच कितना खतरनाक है जरा देख लीजिये। 4 बरस पहले ही चेन्नई का जो चकाचौंध अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा बना आज वहा सिर्फ पानी पानी है। और 6 दिसंबर तक पूरी तरह बंद किया जा चुका है तो उसकी सबसे बडी वजह है कि हवाई अड्डा ही अडयार नदी की जमीन पर बना दिया गया। शहर का सबसे बडा माल फोनेक्सि वेलचेरी झील की जमीन पर बना दिया गया। अब जिस तरह चेन्नई वासियो को कहा जा रहा है कि वह सडक मार्ग पर ना निकले तो कल्पना कीजिये चेन्नई का सबसे बडा बस टरमिनल शहर के कोयबेडू इलाके में बनाया गया जो सबसे निचली जमीन पर है यानी बाढ से सबसे प्रबावित इलाका है । देश के महानगर यू ही मरते शहर साबित नहीं हो रहे बल्कि चकाचौंध और पैसा कमाने की होड में कभी किसी ने सोचा ही नहीं कि दो नदी और 35 झीलों वाले इलाके में अगर सिर्फ क्रंकीट खड़ा किया गया तो हालात बिगडेंगे तो क्यो और कैसे बिगडेंगे इसकी थाह भी कोई नहीं ले पायेगा। और हुआ यही। बंकिघम कैनल और पल्लीकरनई कैनल की जमीन पर कंसट्रक्शन किया जा चुका है। एक्सप्रेस वे और बायबास बनाते वक्त देखा ही नहीं गया कि पानी की आवाजाही कही रुक तो नहीं रही। कैसे लोगो के जीवन के साथ खिलावाड़ कर विकास की खुली बोली लगायी गयी । इसका सच राष्ट्रीय राजमार्ग 45 और एनएच 4 के बीच बनाया गया बायपास है। जहां ड्रेनेज सिस्टम बंद हआ तो न्नागर,पोरुर,वनाग्राम,माडुरावोयल,मुग्गापेयर और अंबातूर डूब गये। जो डूबने ही थे। क्योंकि पानी निकाला कैसे जाये इसकी कोई व्यवस्था है ही नहीं। नौलेज कैरिडोर और इंजीनियरिंग कालेज का निर्माण भी डूब वालीजमीन पर ही हुआ। किस तरीके से जमीन पर कन्स्ट्रक्शन हुआ या यूं कहें बेखौफ जमीन का दोहन हुआ उसका सबसे बडा असर दुरआवोयल लेक की हालत देख कर समझा जा सकता है। जो कभी 120 एकड में फैला था लेकिन अब 25 एकड़ में सिमटा है। और अब जब पानी फैला है तो वह 200 एक़ड को झील में बदल चुका है। दो मंजिली इमारत में भी यहां पानी पानी है। नदी और झील ही नहीं बल्कि कैनाल की जमीन पर भी कन्स्ट्रक्शन हो चुका है। अडयार क्रिक से कोवालम क्रीक के बीच दक्षिणी बाकिघम कैनाल जो 25 मिटर का होता है वह 10 मिटर में सिमट चुका है । चेन्नई के अंबेटूर टैक , अडमबक्कम टैक, पाल्लाईकरनाई टैक, विलिवक्कम टैक गायब है । और तो और चेन्नई में बाढ के हालात हो तो फिर जो पानी दशक भर पहले तक चेन्नई हारबार के उस इलाके में समा जाता था जो समुद्दर से लगा था तो वह जमीन भी मालवाहक जहाज और फ्राइट कैरिडोर तले खत्म कर दी गई । इतना ही नहीं जिस शहर में दस बरस पहले तक पानी निकासी की 150 वाटर बाडिज थी अगर वह अब घटकर सिर्फ 27 बचेगी तो होगा क्या।
जिस शहर की जमीन पर क्रंकीट का जंगल खडा करने की होड में 35 में से दस झीलों पर लोग रहने लगे तो फिर पानी का बुलबुला बढ़ेगा तो वह किस किस को अपनी हद में लेगा। यह कोई नहीं जानता । और चेन्नई के करीब 20 लाख लोग थिलईगईनागर झील ,पुझविथक्कम झील ,वेलाचेरी झील ,और मडीपक्कम झील की जमीन को ही क्रकिट के घर बनाकर रहने लगे । दो सरकारी कालोनिया भी झील की जमीन पर ही बन गई । दो दर्जन निजी कंपनियो के दफ्तर भी झील की जमीन पर ही खडे हो गये । 10 बरस में दरीब 90 हजार कन्स्टच्रक्शन में इस बात का ध्यान ही नहीं दिया गया कि पानी की निकासी हो गी कैसे । और जो प्लान शहर के लिये 2005 में जबरदस्त पानी के बाद बनाया गया वह पानी पानी वाले मौजूदा हालात से पहले ही चेन्नई कारपोरेशन ने पानी में बहा दिया । जो जमीन 2005 में 80 रुपये स्कवायर फीट थी वह 2015 में पांच हजार रुपये स्कावय पिट तक जा पहुंची है । लेकिन जमीन खरीदने और गैर कानूनी तरीके से कन्स्क्ट्रक्शन की होड आज भी है । लेकिन इसका कोई प्लान शहर में बदलती सियासत तले बन नहीं पाया कि कैसे गैरकानूी तरीके से बनाये गये सिवर सिस्टम को रोका जाये । और कैसे पानी अगर कही जमा होता है तो उसे निकाला कहा जाये । यानी सवाल सिर्फ ट्रेनेज सिस्टम के फेल होने का नहीं है । आलम यह है कि समूचे चेन्नई के लिये कारपोरेशन के पास सिर्फ 22 ट्रेनेज मशीन है । जबकि प्लान के लिहाज से सवा सौ से ज्यादा होनी चाहिये । पानी चोक होने की सबसे बडी वजह ड्रेनेज के पाइंट पर ही कन्स्ट्रक्शन का होना है । इसलिये पहली बार सवाल यह उठा है कि आर्थिक मदद
की रकम कुछ भी हो लेकिन मौजूदा वक्त में जान बचायी कैसे जाये और लोगो तक राहत पहुंचायी कैसे जाये । तो क्या चेन्नई को पटरी पर लाने के लिये सिर्फ पैसा चाहिये । रुपया चाहिये । डालर चाहिये । या कुछ और । क्योकि जयललिता ने पिछले महीने ही मांगे थे 2000 करोड । प्रधानमंत्री ने पिछले महीने 940 करोड़ रिलिज किये तो आज 1000 करोड की सहायता का एलान कर दिया । लेकिन नंबर से लगातार तीसरी बार जिस तरह का बारिश का ताडंव चेन्नई समेत तमिलनाडु के 60 फिसदी हिस्से को पानी पानी कर चुका है उसने यह तो साफ कर ही दिया है कि चेन्नई को हजारों हजारों करोड की नहीं बल्कि ऐसी प्लानिग की जरुरत है जहा शहर जिन्दगी के लिये बसे ना कि नाजायज कमाई के धंधे के लिये । और इसके लिये आर्थिक मदद नहीं बल्कि ठोस नियम-कायदे चाहिये । क्योकि चेन्नई में बीते दस बरस में जितने भी गैरकानूनी तरीके से कन्स्ट्रक्शन हुये । या शहर के प्लानिंग सिस्टम को ही ताक पर रख कर इमारते खडी हुई उसमें मुनाफे की रकम ही 2 लाख करोड से ज्यादा की है । क्रंकीट के जो घर , दफ्तर, कालोनिया और माल से लेकर हवाई अड्डे तक नदी और झिलो की जमीन पर बनकर खडे हुये उन जमीनो की किमत मौजूदा वक्त के लिहाज से एक लाख करोड से ज्यादा की है । इसलिये नवंबर से अब तक नुकसान के जो सरकारी आंकडे भी सामने आ रहे है वह 10 हजार करोड के है । जिसमें सिर्फ बीते तीन दिनो में 8 हजार करोड का नुकसान बताया जा रहा है । लेकिन जिस तरह देसी विदेशी मल्टी नेशनल कंपनियो के दफ्तर से लेकर तीन दर्जन आत्याधुनिक अस्पताल , 22 सिनेमा घर, 180 स्कूल . 16 कालेज की इमारते और करीब दो लाख घर पानी में डूबे है उसमें नुकसान कितना ज्यादा हुआ होगा इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है ।लेकिन समझना होगा कि नुकसान का जो आंकड़ा सामने नहीं आ आ रहा है वह चेन्नई शहर की त्रासदी के सामने बेहद कम इसलिये है क्योकि अधिक्तर कन्स्क्शन ही गैर कानूी है । और यह मामला हाईकोर्ट में भी पहुंचा । जहा चेन्नई कारपोरेशन ने माना कि -जार्ज टाउन सरीखी नयी जगह पर तो 90 फिसदी
कन्स्क्ट्कशन गैर कानूनी है । लेकिन समझना यह भी होगा कि चेन्नई के इस तरह के विसातार में कितना ज्यादा भ्रष्टाचार है । क्योंकि कारपोरेश ने हाईकोर्ट के सामने फाइन के तौर पर वसूली की रकम भी इन उलाको से सिर्फ 1000 रुपये दिखायी । तो क्लापना किजिये चेन्नई को दोबारा मद्रास वाले हालात में लाकर खडे करना किस सियासत के बूते है और इसके लिये कितनी रकम चाहिये। क्योकि केन्द्र के मदद की रकम के कई गुना ज्यादा से बना चेन्नई का यह चमकने वाला अंतऱाष्ट्रीय हवाई अट्टा भी पानी में समाया हुआ है।