रेल मंत्री सुरेश प्रभु हैं महाराष्ट्र के लेकिन इनका नया ठिकाना आंध्रप्रदेश का हो गया । शहरी विकास मंत्री वेकैंया नायडू हैं आंध्र प्रदेश के लेकिन अब ये राजस्थान के हो गये । वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण हैं तो आंध्रप्रेदश की लेकिन अब कर्नाटक की हो गई । संसदीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी हैं तो यूपी के लेकिन अब इनका नया पता झारखंड का है । यानी चारों मंत्री को नये राज्यो में किराये पर घर लेना होगा या घर खरीदना होगा । फिर उसी पते के मुताबिक सभी का वोटिंग कार्ड बनेगा । यानी जो सवाल कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर बीजेपी उठाती थी कि जिन्हें असम का अ नहीं पता वह असम से राज्यसभा में कैसे और क्यो । तो सवाल सिर्फ इतना नहीं कि मंत्री बने रहे तो घर का पता और ठिकाना ही मंत्री का बदल जाये । और वह उस राज्य में पहुंच जाये जहा के बारे में जानकारी गूगल से आगे ना हो । तो दूसरा सवाल यह भी है कि जब देश के किसी भी हिस्से में रहने वाला वाला किसी नये प्रांत में जनता से कोई सरोकार रखे बगैर भी वहां से राज्यसभा सदस्य बनकर मंत्री बन सकता है तो उसकी जबाबदेही होती क्या है । और बिना चुनाव लड़े या चुनाव हारने के बावजूद अगर किसी सरकार में मंत्रियो में फेहरिस्त राज्यसभा के सदस्यों की ज्यादा हो तो फिर लोकसभा सदस्य मंत्री बनने लायक नहीं होते या राज्यसभा सदस्य ज्यादा लायक होते हैं यह सवाल भी उठ सकता है । क्योंकि मौजूदा वक्त में मोदी सरकार को ही परखे तो दर्जन भर कैबिनेट मिनिस्टर राज्यसभा सदस्य है । फेहरिस्त देखें । वित्त मंत्री अरुण जेटली , रक्षा मंत्री पर्रिकर, शहरी विकास मंत्री वेकैंया नायडू, वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण, रेल मंत्री सुरेश प्रभु, मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी , ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी वीरेन्द्र सिंह, उर्जा मंत्री पियूष गोयल, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान अल्पसंख्यक मंत्री नजमा हेपतुल्ला , संचार मंत्री रविसंकर प्रसाद, स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, संसदीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी सभी राज्यसभा सदस्य । और महत्वपूर्ण यह भी है कि अरुण जेटली और स्मृति ईरानी गुजरात का प्रतिनिधित्व करते हैं । तो उडीसा के धर्मेन्द्र प्रधान बिहार का प्रतिनिधित्व करते हैं। और नजमा हेपतुल्ला यूपी की हैं लेकिन वह मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। यानी हर पांच बरस में लोकसभा चुनाव के जरीये सत्ता बदलने का एलान चाहे हो ।
लेकिन सत्ता चलाने वाले ज्यादातर राज्यसभा सदस्य हैं, जिन्हें जनता पांच बरस के लिये नहीं बल्कि पार्टियां ही अपनी वोटिंग से छह बरस के लिये चुनती है। और पांच बरस बाद देश में सत्ता चाहे बदल जाये लेकिन राज्यसभा सदस्यों पर सत्ता बदलने की आंच नहीं आती । वजह भी यही है कि मौजूदा वक्त में कांग्रेस के राज्यसभा सदस्यो की संख्या बीजेपी से ज्यादा है ।लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह खेल मोदी सरकार में ही पहली बार हुआ । याद कीजिये मनमोहन सरकार में डेढ दर्जन कैबिनैट मिनिस्टर रासज्यसभा सदस्य थे । तो सवाल तब भी सवाल अब भी । तो क्या बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हो चुका है इसलिये जनता के सामने यह सवाल है कि उसे कुछ बदलता नजर नहीं आता चाहे सवाल राबर्ट वाड्रा का है । चाहे सवाल यूपी की बिसात का हो या फिर सवाल महंगाई का हो ।
तो बात राबर्ट वाड्रा से शुरु करें । दामादश्री यानी राबर्ट वाड्रा। और राबर्ट पर लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने आरोप सीधे लगाये कि वह घोटालो का बादशाह है । देश का सौदागर है । किसानों का अपराधी है । और माना यही गया कि दिल्ली में सत्ता बदली नहीं कि राबर्ट वाड्रा जेल में ही नजर आयेगे । लेकिन मोदी सरकार के दो बरस पूरे होने के बाद भी राबर्ट वाड्रा खुल्लम खुल्ला घूम रहे हैं और आरोपों के फेहरिस्त में एक नया नाम राबर्ट वाड्रा से जुडा कि लंदन में कथित संपत्ति है । और संबंध हथियारों के विवादित सोदेबाज से है। तो सवाल यही है कि राबर्ट वाड्रा का फाइल खुलती क्यों नहीं और अगर जमीनो को लेकर हरियाणा और राजस्थान में खुलती हुई दिखती है तो फिर राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई अभी तक शुरु हुई क्यो नहीं है। तो क्या कानूनी कार्रवाई हुई तो फिर मुद्दा ही खत्म हो जायेगा । क्याोंकि 2012 में दिल्ली और आसपास की जमीनो की खरीद में राबर्ट वाड्रा का नाम आया। हरियाणा में तब के कांग्रेसी सीएम हुड्डा पर राबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के जमीन खरीद में लाभ पहुंचाने का आरोप लगा । राजस्थान में गहलोत सरकार पर वाड्रा के लिये जमीन हथियाने का आरोप लगे । और राबर्ट वाड्रा के तमाम कच्चे चिट्ठे के साथ 27 अप्रैल 2014 को रविशंकर प्रसाद, जेपी नड्डा और बीकानेर से सांसद अर्जुन राम मेघवाल ने 'दामादश्री' नाम की एक आठ मिनट की फ़िल्म दिखायी । फिल्म देखकर और नेताओं के वक्तव्य सुनकर दो बरस पहले ही लगा था कि अगर यह सत्ता में आ गये तो फिर राबर्ट वाड्रा का खेल खत्म । यानी तो दो बरस पहले बीजेपी ने कांग्रेस शासित राज्य सरकारों पर वाड्रा के 'महल को खड़ा करने में सहयोग' देने का आरोप लगाया था । लेकिन दो बरस बाद भी हुआ क्या । सत्ता पलट गई । नेता मंत्री बन गये । और राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कार्रावाई हुई नहीं । दूसरा सवाल यूपी की बिसात का । जब
कांग्रेस की सत्ता थी तब राहुल गांधी यूपी के दलित के साथ रोटी खाते हुये नजर आते थे । अब बीजेपी की सत्ता है तो अमित शाह दलित के घर पर साथ बैठकर रोटी खाते नजर आते थे । लेकिन जिस यूपी को राजनीतिक तौर पर अपनी अपनी प्रयोगशाला बनाकर काग्रेस और बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग शुरु की उसका एक सच यह भी है कि यूपी में दलितों उत्पीडन के मामलो में ना तो कमी आई ना ही उनकी जिन्दगी में कोई बदलाव आया । क्योंकि 2010 से 2015 के बीच का दलित उतपीडन के सबसे ज्यादा मामले यूपी में ही दर्ज हुये ।आर्थिक तौर पर सबसे पिछडे यूपी के ही दलित रहे । शिक्षा के क्षेत्र में यूपी के ही दलित बच्चो ने सबसे कम स्कूल देखे । तो क्या राजनीति इसी का नाम है । या वोट बैक में बदली जा चुके जातियो को लेकर सियासत इसी का नाम है । हो जो भी लेकिन सोशल इंजीनियरिंग तले यूपी को नापने की तैयारी हर किसी की ऐसी ही है । और अब बीजेपी भी कांग्रेस की तर्ज पर उसी रास्ते पर । मसलन पिछड़ी जाति के वोट बैंक में सेंध लगने के लिये ही केशव प्रसाद मोर्या यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया । ब्राह्मणों को साधने के लिये शिव प्रताप शुक्ला को राज्यसभा भेजा गया । उनके धुर विरोधी योगी आदित्यनाथ को मोदी कैबिनेट में लाने की तैयारी हो रही है । इसी बीचे 94 जिला अध्यक्ष और नगर अध्यक्षो में से 44 पर पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति । तो 29 ब्राह्मण, 10 ठाकुर, 9 वैश्य और 4 दलित समाज से है । चूकि बीजेपी समझ चुकी है कि यूपी में यादव,जाटव और मुस्लिम मिलाकर 35 प्रतिशत हैं, जिनके वोट उन्हें मिलेंगे नहीं तो बीजेपी की नजर बाकि 65 प्रतिशत पर है। और बीजेपी के सोशल इंजीनियर्स को लगता हैं पिछड़ी और अगड़ी जातियों का समन्वय के आधार पर यूपी में बीजेपी की बहार आ सकती है । तो बीजेपी की नजर निषाद वोट बैंक से लेकर राजभर समाज में सेंध लगाने की है । झटका मायावती को देना है तो बीजेपी ने बौद्ध भिक्षुक की ब्रहम् चेतना यात्रा की शुरआत भी कर दी, जो अक्टूबर तक चलेगी । लेकिन यूपी में बीजेपी का चेहरा होगा कौन यह सवाल बीजेपी के माथे पर शिकन पैदा करता है क्योंकि सोशल इंजीनियरिंग वोट दिला सकते है लेकिन यूपी का चेहरा कैसे दुरस्त हो यह फार्मूला किसी के पास नहीं है । क्योंकि यूपी का सच खौफनाक है । 12 करोड़ लोग खेती पर टिके हुये । 6 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे है । 3 करोड़ दलितों को दो जून की रोटी मुहैया नही है । 20 लाख से ज्यादा रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं । लेकिन सबकुछ सियासी खेल की छांव में इसलिये छुप जाता है क्योकि देश को लगता यही है कि यूपी को जीत लिया तो देश को जीत लिया और दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर ही निकलता है । इसलिये पहली बार जनता की जेब से कैसे सरकार अपना खजाना भर रही है यह भी हर कोई देख रहा है लेकिन आवाज कही नहीं निकलती । 1 जून से दो जून की रोटी को महंगा करने वाली कई सेवाओं पर आधा फीसदी कृषि कल्याण सेस लागू हो गया । इससे सर्विस टैक्स 14.5 फीसदी से बढ़कर 15 फीसदी हो गई । यानी सारी चीजें महंगी हो गई । लेकिन समझना यह भी होगा कि सरकार कृषि सेस के जरिए कृषि और किसानों की योजनाओं के लिए पांच हजार करोड़ रुपए जुटाना चाहती है । लेकिन-कृषि सेस से कमाई को कही ज्यादा होगी । ठीक वैसे ही जैसे स्वच्छ भारत सेस समेत तमाम तरह के सेस से सरकार को हर साल करीब 1 लाख 16 हजार करोड़ रुपए की कमाई हो रही है । सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर सेस से बीते साल सरकार को 21,054 करोड़ रुपए मिले । और मोदी सरकार के राज में अप्रत्यक्ष कर के जरिए खजाना भरने का खेल इस तरह चल रहा है कि एक तरफ सर्विस टैक्स सालाना 25 फीसदी की दर से बढ़ रहा है । तो दूसरी तरफ सेस और सर्विस टैक्स के जरिए इनडायरेक्ट टैक्स का बोझ लोगों पर इस कदर बढ रहै है कि जनता ने पिछले बरस अप्रैल में 47417 करोड अप्रत्यक्ष टैक्स दिया तो इस बरस अप्रैल में 64 394 करोड । यानी देश की समूची राजनीति ही जब जनता की लूट में लगी हो तो फिर सत्ता किसी की हो फर्क किसे पडता है ।
Tuesday, May 31, 2016
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पिछले दरवाजे से सियासी लूट का लोकतंत्र |
Friday, May 20, 2016
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जब बात हिन्दू-मुसलमान की नहीं इंसान की होगी तब कांग्रेस-बीजेपी भी नहीं होगी |
निगाहों में सोनिया गांधी और निशाने पर राहुल गांधी। वार भी चौतरफा। कहीं अंड़गा लगाने वालों की हार का जिक्र तो कहीं कांग्रेस मुक्त भारत का फलसफा। कोई अखक्कडपन से नाराज। तो कोई बदलते दौर में कांग्रेस के ना बदलने से नाराज। किसी को लगता है सर्जरी होनी चाहिये। तो कोई फैसले के इंतजार में। लेकिन क्या इससे कांग्रेस के अच्छे दिन आ जायेंगे। यकीनन यह सवाल हर कांग्रेसी को परेशान कर रहा है होगा कि चूक हो कहां रही है या फिर कांग्रेस हाशिये पर जा क्यों रही है। तो सवाल तीन हैं। पहला,क्या बदलते सामाजिक-आर्थिक हालातों से कांग्रेस का कोई जुडाव है। दूसरा, क्या सड़क पर सरोकार के साथ संघर्ष के लिये कद्दावर नेता बचे हैं। तीसरा, क्या एक वक्त का सबसे महत्वपूर्ण कार्यकत्ता "वोट क्लेक्टर " को कोई महत्व देता है। यकीनन गांधी परिवार के सियासी संघर्ष में कोई बडा अंतर नहीं आया। लेकिन गांधी परिवार यह नहीं समझ पाया कि समाज के भीतर का संघर्ष और तनाव बदल चुका है । राजनीति को लेकर जनता का जुडाव और राजनीति के जरीये सत्ता की समझ भी आर्थिक सुधार के बाद यानी 1991 के बाद यानी बीते 25 बरस में खासी तेजी से बदली है। और इस दौर में कांग्रेस इतनी ही बदली है कि बुजुर्गों को सम्मान देने और युवाओं के पसीने को महत्व देने की कांग्रेसी परंपरा ही कांग्रेस से समाप्त हो चुकी है।
दिल्ली के सियासी गलियारे के प्रभावशाली कांग्रेस के बड़े नेता मान लिये गये। और 10 जनपथ के भीतर झांक कर बाहर निकलनेवाला सबसे ताकतवर कांग्रेसी माना जाने लगा । तो कांग्रेस का मतलब अगर गांधी परिवार हो गया तो समझना यह भी होगा कि कांग्रेस का संगठन । कांग्रेस का कैडर । कांग्रेस का नेतृत्व ।चाहे पंचायत स्तर पर हो या जिले स्तर पर या फिर राज्य स्तर पर । कमान किसी के भी हाथ में हो । कमान थामने वाला अपनी जगह राहुल गांधी या सोनिया गांधी ही है । यानी काग्रसी ना तो गांधी परिवार के औरे से बाहर आ पाया है और ना ही आजादी के संघर्ष के उस नोस्टालजिया से बाहर निकल पाया जहा बात हिन्दू, मुस्लिम, दलित, आदिवासी से बाहर निकल कर इंसान का सवाल सबसे बड़ा हो जाये। और इंसान को एक समान मानकर राजनीतिक सवाल देश में उठने चाहिये इससे भी सियासी दलो ने परहेज किया तो वजह राष्ट्रीय राजनीति का दिल्ली में सिमटना हो गया। क्योंकि दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता काम कैसे करती है और सत्ता के लिये कैसी
सियासत होती है यह इससे भी समझा जा सकता है कि दिल्ली में असम की जीत को लेकर बीजेपी के जश्न का आखिरी सच यह भी है कि अगर एजीपी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ना होता तो वहा बीजेपी सरकार भी ना होगी। और कांग्रेस अगर एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन कर लेती तो इतना निराश भी ना होती ।
लेकिन सवाल असम की जीत हार का नहीं बल्कि सवाल बीजेपी और कांग्रेस को अब जीत के लिये क्षेत्रीय सहयोगियों की जरुरत लगातार बढ रही है यह मौजूदा दौर का सच है । क्योंकि सही मायने में बीजेपी ने अपने बूते हरियाणा, गुजरात, राजस्थान , मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ और गोवा यानी छह राज्यों में सरकार बनायी है। तो कांग्रेस ने अपने बूते कर्नाटक, हिमाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम में सरकार बनायी है । और देश के बाकि राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग के साथ ही कांग्रेस बीजेपी है। या फिर क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने बूते सरकार बनायी है। यानी बीजेपी हो या कांग्रेस। सच तो यही है कि दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां धीरे धीरे क्षेत्रिय पार्टियों के आसरे होती चली जा रही हैं। और क्षेत्रीय पार्टियो की ताकत यही है वह अपने इलाके को वोटरों को दिल्ली से उनका हक दिलाने से लेकर खुद अपने सरोकार भी वोटरों से जोड़ते हैं। यानी बीजेपी चाहे खुद को पैन इंडिया पार्टी के तौर पर देखे। या कांग्रेस चाहे खुद को आजादी से पहले की पार्टी मान कर खुद ही भारत से जोड़ ले। लेकिन सच यही है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनो आपसी टकराव में सिमट ही रही है और चुनावी जीत के लिये क्षेत्रिये पार्टियों के कंधे पर सवार होकर एक दूसरे के साथ शह-मात का खेल खेल रही है । और इस खेल में वोटर कैसे ठगा जाता है और सत्ता कैसे बनती है यह मुसलिम बहुल टाप चार राज्यों से समझा जा सकता है क्योंकि जम्मू कश्मीर में 68.3 फिसदी मुसलमान है । और पीडीपी के साथ बीजेपी सरकार चला रही है । असम में 34.2 फीसदी मुसलमान है और एजीपी व बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रहे है । फिर बंगाल और केरल में करीब 27 फिसदी मुसलमान हैं और पहली बार दोनों ही राज्यो में बीजेपी उम्मीदवारो ने चुनावी जीत की दस्तक दी है । तो सवाल कई है । मसलन , क्या बीजेपी को मुस्लिम विरोधी बताना बीजेपी को ही लाभ पहुंचाना है । क्या खुद बीजेपी चाहती है कि वह हिन्दुत्व के रंग में दिखे जिससे मुस्लिम विरोध की सोच बरकरार रहे । या फिर वोटर धर्म-जाति में बंटता है लेकिन सत्ता का चरित्र हिन्दु-मुस्लिम , दलित आदिवासी नहीं देखता । क्योकि सारा खेल वोट बैंक बनाकर सत्ता तक पहुंचने का है और सत्ता का गठबंधन वोट बैंक की थ्योरी को खारिज कर कामन मिनिमम प्रोग्राम पर चलने लगता है । तो हो सकता है कि वाक़ई आज लगभग 68 साल बाद कांग्रेस देश में अपने राजनीतिक सफ़र के आख़िर पड़ाव पर हो। और बीजेपी बुलंदी पर। लेकिन सवाल ये भी है कि बीजेपी की ये बुलंदी कहीं उसके भी ख़ात्मे की शुरूआत तो नहीं। क्योंकि 1984 में में बीजेपी अगर लोकसभा में 2 सीट पर सिमट के रह गई तो कांग्रेस के पास 403 सीटें थीं। आज तस्वीर उलट चुकी है। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस को जनता ने आज नकार दिया है।
क्या कल को इन्हीं हालात पर बीजेपी नहीं पहुंच सकती है। इसकी बहुत बड़ी वजह ये है बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति का लगभग एक सा होना। क्योंकि दोनों ही पार्टियों ने अपने राजनीतिक सफ़र में फूट डालो शासन करो नीति को ही अपनाया। 1989 में विश्व हिन्दू परिषद के रामजन्मभूमि शिलान्यास आंदोलन के दौरान भागलपुर में दंगे हुए। तो बिहार में शासन कांग्रेस का था। 1992 में बीजेपी की अगुवाई में बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी तो केन्द्र में कांग्रेस थी। 1992 में महाराष्ट्र में शिवसेना के भड़काने पर दंगे हुए तो केन्द्र और महाराष्ट्र में शासन कांग्रेस का था। श्रीकृष्णा रिपोर्ट ने बाल ठाकरे और शिवसेना को दंगों के लिये दोषी माना लेकिन कांग्रेस सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। ऐसे ही ना जाने कितने उदाहरण है जिसमें साफ़ है कि दंगे अगर बीजेपी या उसके सहयोगियों के भड़काने पर हुए तो कांग्रेस ने समाज को बांटने वाले इन दर्दनाक हादसों पर रोक लगाने के लिये सही कदम नहीं उठाए। समाज बंटता गया और कांग्रेसी सत्ता चलती रही। जब तक चल सकी। आज बीजेपी भी उसी राह पर है। अफ़वाहों के दम साप्रदायिक हिंसा । बीफ़ के नाम पर हत्याएं। केन्द्र की ख़ामोशी। नारों की कसौटी पर देश द्रोह और देश भक्ति का तय होना। इतिहास को दोबारा लिखे जाने की कोशिश। और इसके बर अक्स हर साल 1 करोड़ दस लाख नौजवानों का रोज़गार के बाज़ार में उतरना और उसमें से ज़्यादातर का बेरोज़गार रह जाना। शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी के 6 फ़ीसदी के आबंटन की मांग। तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय किये गए जीडीपी के 1.2 फ़ीसदी हिस्से को लगभग दोगुना करने की दरकार। और देश की बड़ी आबादी पर सूखे का क़हर....। जाहिर है विकास के अकाल से लेकर पानी के सूखे से जूझते लोगों को नारा नहीं नीर चाहिये। कांग्रेस समाज को बांटने का काम छुप कर करती थी। बीजेपी की सियासत खुली है तो वह कमोबेश खुल कर रही है। और आखरी सवाल बीजेपी को लेकर इसलिये क्योकि कश्मीरी पंडितो के सवाल धाटी में अब भी अनसुलझे है । जबकि सत्ता में पीडीपी के साथ बीजेपी ही है । तो बात कांग्रेस से शुरु हुई और खत्म बीजेपी पर हुई तो समझना होगा कि आने वाले वक्त में कांग्रेस या बीजेपी की गूंज से ज्यादा क्षेत्रिय दलो का उभार इसलिये होगा क्योकि धीर धीरे बात हिन्दु - मुसलमान की नहीं इंसान की होगी
Friday, May 13, 2016
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दो धमाके , दो धर्म , दो जांच |
तो जश्न मनाइये आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता । लेकिन धर्म के आसरे राजनीति का आंतक जरुर होता है । क्योंकि 8 सितंबर 2006 को मालेगांव के हमीदिया मस्जिद के पास हुये धमाके में जिन नौ लोग नूरुलहुदा समसूद दोहा, शब्बीर अहमद मशीउल्लाब, रईस अहमद रज्जब अली, सलमान फ़ारसी, फारोग़ इक़बाल मक़दूमी, शेख़ मोहम्मद अली आलम शेख़, आसिफ़ ख़ान बशीर ख़ान और मोहम्मद ज़ाहिद अब्दुल मजीद को पकडा गया संयोग से सभी मुस्लिम थे । और 29 सितंबर 2008 को मालेगाव के अंजुमन और भीकू चौक पर जो धमाके हुये उसमें जिन 16 लोगो साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिव नारायण कलसंगरा, श्याम भंवरलाल साहू, प्रवीण तक्कल्की, लोकेश शर्मा, धन सिंह चौधरी , रमेश शिवाजी उपाध्याय, समीर शरद कुलकर्णी, अजय राहिरकर, जगदीश शिन्तामन म्हात्रे, कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, सुधाकर धर द्विवेदी, रामचंद्र कलसंग्रा और संदीप डांगे को पकड़ा गया संयोग से सभी हिन्दू थे । 2006 के धमाके में जब जब मुस्लिमो को पकड़ा गया तो बीजेपी के कुछ नेताओं ने , " आतंकवाद और मुस्लिम समुदाय को एक तराजू में रखने में कोई कोताही नहीं बरती । " और जब 2008 के मालेगाव घमाके में साध्वी प्रज्ञा और कर्नल श्रीकांत पुरोहित समेत दर्जन लोगो को पकडा गया तो काग्रेस ने " हिन्दू टैररइज्म का सवाल उठाकर संघ परिवार और बीजेपी को लपेटे में ले लिया । "
और संयोग देखिये क्या हिन्दू क्या मुस्लिम । क्या 2006 के आतंकी धमाके में मारे गये 37 नागरिक और क्या 2008 का घमाके में मारे गये 6 नागरिक । और दोनो धमाकों में घायल दो सौ से ज्यादा लोग । दोनों की ही जांच शुरु में महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते ने की । और बाद में मामला एनआईए के पास चला गया । लेकिन आतंकी हमला 2006 का हो या फिर 2008 का एनाईए को जांच में कुछ मिला नहीं । तो 2006 के सभी 9 अभियुक्त जेल से छूट गये । और 2008 के 16 अभियुक्तो में से 6 अभियुक्त [ साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिव नारायण कलसंगरा, श्याम भंवरलाल साहू, प्रवीण तक्कल्की, लोकेश शर्मा, धन सिंह चौधरी ] को एनाईए ने अपनी फाईनल चार्जशीट में मासूम करार दिया और सभी पर से मकोका हटाने की सिफारिश कर दी । यानी चंद दिनों में मुबंई की विशेष अदालत साध्वी प्रज्ञा समेत छह अभियुक्तों को रिहा कर देंगे ।
तो यह सवाल किसी के भी जहन में आ सकता है कि मालेगांव में दो अलग अलग आंतकी धमाको में जो 43 नागरिक मारे गये । दो सौ से ज्यादा घायल हो गये । करोडों की संपत्ति का नुकसान हुआ सो अलग । घायलों में कुछ की हालात आज भी अंपग वाली है । तो फिर इनका गुनाहगार है कौन । क्योंकि चार्जशीट चाहे 2006 के घमाके को लेकर हो या 2008 के घमाके को लेकर हो दोनो ही चार्जशीट में महाराष्ट्र एटीएस के दर्ज किये गये इकबालिया बयानों तक को खारिज कर दिया गया । यानी बीते 8 से 10 बरस तक जो भी जांच हुई । जांच को लेकर पुलिस-सुरक्षा से जुड़े चार विभागों के दो सौ से ज्यादा अधिकारियों ने जो भी जांच की वह सब खारिज हो गई । हालांकि कुछ राहत की बात यह हो सकती है कि 2008 के धमाकों को लेकर एजेंसी ने अदालत से बाकि 10 अभियुक्तों के खिलाफ तफ्तीश जारी रखने की अनुमती मांगी है । और इन दस अभियुक्तों में कर्नल श्रीकांत पुरोहित और संदीप डांगे भी हैं । लेकिन मकोका इनपर से भी हटाने की सिफारिश की गई है । यानी एटीएस चीफ करकरे की जांच में जो दोषी थे । वह एनआईए की जांच में दोषी नहीं है।
Tuesday, May 10, 2016
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फर्जी पढ़ाई को रोकें तो बात हो ! |
तो प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री फर्जी नहीं है इस पर दिल्ली यूनिवर्सिटी ने भी मुहर लगा दी । लेकिन फर्जी डिग्री के सवाल ने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि जब देश के डीम्ड यूनिवर्सिटी की डिग्री को लेकर फर्जी का सवाल
दिल्ली के सीएम उठाने लगे तो फिर फर्जी शब्द डिग्री के साथ कहे अनकहे देश में चस्पा तो है ही । क्योंकि फर्जी डिग्री का खेल खासा बड़ा है । क्योंकि देश में पढाई नौकरी के लिये होती है । नौकरी पढाई पर नहीं डिग्री पर मिलती है । और इसी का असर है कि एसोचैम की रिपोर्ट कहती है मैनेजमेंट की डिग्री ले चुके 93 फिसदी नौकरी लायक नहीं है । और नैसकाम की रिपोर्ट कहती है कि 90 फिसदी ग्रेजुएट और 70 फिसदी इंजीनियर प्रशिक्षण के लायक नहीं है । और देश में फर्जी डिर्गी बांटना ही कैसे सबसे बडा बिजनेस या नौकरी हो चली है इसका आंकड़ा 2012 के सरकारी रिपोर्ट से समझा जा सकता है । जिसके मुताबिक देश में 21 यूनिवर्सिटी फर्जी डिग्री बांटते हैं । दस लाख से ज्यादा छात्र बिना कालेज गये डिग्रीधारी बन जाते है। और शायद यही वजह है कि हर राज्य में नौकरी के लिए डिग्री पढाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है। और जब सवाल डिग्री की जांच का होता है को क्या क्या होता है । 2015 में बिहार में फर्जी डिग्री पर जांच के डर से 1400 टीचरों ने नौकरी से इस्तीफा दिया । राजस्थान में बीते साल 1872 सरपंच चुने गए, जिनमें 746 के खिलाफ फ़र्ज़ी डिग्री और मार्कशीट लगाने के आरोप हैं। इनमें 479 के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई ।
पिछले साल ही एयर इंडिया ने एक पायलट की डिग्री फर्जी होने के आरोप में उसे निलंबित किया गया । मई 2015 में लखीमपुर खीरी में 29 फर्जी डिग्री धारक शारीरिक शिक्षा प्रशिक्षकों को पकड़ा गया । इन्हीं पदों के लिए 47 अभ्यर्थी फिजिकल ट्रेनिग की फर्जी मार्क शीट तथा 45 फर्जी बीए की डिग्री के साथ पकड़े गए। और पिछले साल ही दक्षिण कश्मीर के एक स्कूल टीचर मोहम्मद इमरान खान से खुली अदालत में जज ने गाय पर निबंध लिखने को कहा तो वो लिख नहीं पाया क्योंकि पढ़ाई कभी की नहीं थी और फर्जी डिग्री के आधार पर टीचर बना था । तो नौकरी पाने के लिए देश में पढाई नहीं डिग्री चाहिए ।
इसीलिये डिग्री पाने के लिए पढ़ाई जरुरी नहीं है। और पढ़ाई के लिए पैसा भी चाहिए-वक्त भी। तो जिन्हें इस झंझट से बचना है उनके लिए फर्जी डिग्री ही आसरा है। और मानव संसाधन मंत्रालय ने भी 21 यूनिवर्सिटी को ब्लैक लिस्ट किया था। बावजूद इसके न फर्जी डिग्री का खेल रुका और न फर्जी डिग्री देकर नौकरी की चाह। क्योंकि एप्लायमेंट बैकग्राउंड चैक सर्विस प्रदान करने वाली फर्म राइट की नयी रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2014 से अप्रैल 2015 तक भारत में कुल 2 लाख लोगों की डिग्री का निरीक्षण किया गया,जिसमें 52 हजार डिग्री फर्जी पायी गई । ऐसे में समझना यह भी जरुरी है कि सरकारो का नजरिया कभी शिक्षा पर रहा ही नहीं तो फर्जी डिग्री से किसी का क्या लेना देना । क्योंकि देश का सच यही है कि सरकार पाइमरी से लेकर उच्च सिक्षा तक पर हर बरस 70 हजार करोड़ खर्च करती है । और प्राईवेट क्षेत्र में हर बरस सरकारी खर्च से दुगने यानी करीब डेढ लाख करोड़ का खेल होता है। और हर बरस उच्च सिक्षा के लिये देश छोड़कर बाहर जाने वाले लाखों
छात्रो के जरीये देश का 90 हजार करोड रुपया भी बाहर ही चला जाता है । यानी जब देश में पीएम की डिग्री को लेकर सवाल उठ रहे हो तब देश में शिक्षा का स्तर कैसे बढायें । शिक्षा के लिये वातावरण कैसे बनाये। अरबो रुपये देश के बाहर शिक्षा के लिये जा रहे हो । तो इसे कैसे रोका जाये । इसके बदले अगर देश इसी में खुश है कि भारत जवान है । और 65 फिसदी आबादी 35 बरस से कम है तो अगला सवाल यह भी होगा कि इस युवा भारत को कौन सी शिक्षा मिल रही है यह भी देख-समझ लें । और शिक्षा के नाम पर कैसे और कितना बडा धंधा हो रहा है यह भी देख लें । क्योंकि निजी क्षेत्र में शिक्षा का धंधा 7 लाख करोड रुपये से ज्यादा का है । और शिक्षा का सच ये है कि नेशनल एसेसमेंट और एक्रिडिटेशन काउसिंल के मुताबिक 90 फिसदी कालेज और 70 फिसदी यूनिवर्सिसटी का स्तर निम्न है ।
आईआईटी में ही 15 से 25 फिसदी शिक्षकों की कमी है । लेकिन शिक्षा के नाम पर धंधा हो रहा है तो आलम यह है कि आजादी के बाद पहले 52 बरस में सिर्फ 44 निजी शिक्षा संस्थाओं को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्ज दिया गया । लेकिन बीते 16 बरस में 69 निजी संस्थाओं को डीम्ड का दर्जा दे दिया गया । इतना ही नहीं जिस 2020 में भारत को दुनिया के सबसे ताकतवर और तकनीक या वैज्ञानिक क्षेत्र में भारत को मानव शक्ति का जरीखा माना जा रहा है उसका सच यही है उच्च शिक्षा के लिये भारत में दुनिया के सबसे कम छात्र रजिस्ट्रेशन कराते है । हालात यह है कि भारत में 11 फिसदी छात्र ही उच्च शिक्षा का रजिस्ट्रशन कराते है । जबकि विकसित देशो में यह 75 से 85 फिसदी तक है । और भारत को 11 फिसदी से 15 फीसदी तक पहुंचने के लिये 2,26,410 करोड़ का बजट चाहिये । और भारत का आलम यह है कि शिक्षा का बजट ही 75 हजार करोड पार नहीं कर पाया है । जबकि हर बरस देश का 6 लाख युवा पढाई के लिये 90 हजार करोड रुपया देश के बाहर ले जाता है । और भारत सरकार का उच्च शिक्षा पर बजट है 28840 करोड ।
Friday, May 6, 2016
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मोदी के दो बरस होने से पहले ही संघर्ष की मुनादी के मायने |
मोदी सरकार के दो बरस पूरे होने से ऐन पहले ही राजनीतिक संघर्ष की मुनादी सड़क पर खुले तौर पर होने लगी है। यानी अगस्ता हेलीकाप्टर की उड़ान ने यह संकेत दे दिये हैं कि अब सवाल संसद के जरिये देश चलाने या विपक्ष को साथ लेकर सरकार चलाने का वक्त नहीं रहा । वक्त सियासी जमीन बचाने या सियासी जमीन बनाने के आ गया है। इसीलिये एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी सभाओं में गांधी परिवार को सजा दिलाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे हैं तो सोनिया गांधी मोदी सरकार को मिट्टी में मिटाने के तंज कसने से नहीं चूक रही है। और यह तकरार संसद के भीतर नहीं बल्कि चल रही संसद के बाद सड़क से हो रही है। और इस संघर्ष में तीसरा कोण बने नीतिश कुमार भी संघ और बीजेपी मुक्त सत्ता का ख्वाब यह सोच कर संजो चले हैं कि जब कांग्रेस हर राज्य में अपने हर विरोधियों को साध कर मोदी सरकार को हराने के लिये झुकने को तैयार है तो फिर लड़ाई अभी से 2019 को लेकर बनने लगे हैं, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता ।
लेकिन सवाल यही है कि क्या जिस अगस्ता हेलाकाप्टर को बोफोर्स तोप की तर्ज पर मोदी सरकार रखना चाह रही है क्या वह अतीत दुबारा उभर पायेगा । या फिर मोदी सरकार को हराने के लिये जिस तरह 1977 के जनता पार्टी की तर्ज पर कांग्रेस लेफ्ट से लेकर राइट तक को अपने साथ समेटने को तैयार है क्या वह अतीत लौट कर आयेगा। और क्या जो सपना संघ की खिलाफत कर नीतीश कुमार पाले हुये है क्या दोबारा देवेगौडा या गुजराल के दौर को देश दोहराने के लिये तैयार हैं। तो ध्यान दें तो भारतीय राजनीति के सारे पुराने प्रयोग नये सीरे से मथे जा रहे हैं। हर की बिसात बदल गई है और हर का नजरिया बदल चुका है। क्योकि एक तरफ सोनिया गांधी भी इस सच को समझ गई है 45 सांसदों के जरीये संसद के भीतर ज्यादा लंबी लडाई नही लड़ी जा सकती है तो वह सड़क पर कार्यकर्ताओं के साथ संघर्ष के लिये भी तैयार है। और अपने हर विरोधी के साथ हर राज्य में गठबंधन कर बीजेपी को साधते हुये। मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का कोई मौका गंवाना नहीं चाहती। और मोदी सरकार को भी समझ में आ गया है कि गवर्नेंस का मतलब अब विपक्ष को साथ लेकर चलना नहीं बल्कि निशाने पर लेकर कठघरे का खौफ पैदा करते हुये दो दो हाथ करना ही ठीक है । यानी इसी आसरे सौदेबाजी हो गई तो ठीक नहीं तो कांग्रेस मुक्त भारत के संघ के एजेंडे को लागू कराने के लिये तमाम संस्थानों का सियासीकरण । और इस दो कोण में तीसरा कोण नीतीश कुमार बना रहे हैं। जो 2014 से पहले संघ को सही ठहराने के लिये जेपी के तर्क गढ़ा करते थे । वही नीतिश अब संघ-बीजेपी विरोध के सबसे बडा झंडाबरदार बनने को तैयार हो रहे हैं। लेकिन राजनीति संघर्ष की मुनादी चलती हुई संसद के वक्त दिल्ली की सडक पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ के नारे के साथ इस तरह करेगी जिसमें संसद मार्ग पर बैरिकेट्स तोडते हुये पूर्व पीएम मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी नजर आये यह तो किसी ने सोचा नहीं होगा ।
लेकिन सच यही है कि कांग्रेस के सड़क का यह संघर्ष भी संसद में 45 से उसी 272 तक पहुंचने की चाह है जिस चाह में एक वक्त बीजेपी सडक पर संघर्ष करती रही और कांग्रेस सत्ता के मद में डूबी रही। तो क्या दो बरस में वाकई ऐसी स्थिति आ गई है जहां कांग्रेस को लगने लगा है कि वह लोकतंत्र बचाओ के नारे तले मोदी सरकार
को कठघरे में खड़ाकर अपनी खोयी जमीन बना सकती है। या फिर मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को ही हथियार बनाकर कांग्रेस के नोस्टाल्जिया को अब गांधी परिवार जीवित करना चाहता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस के पास कोई ऐसी स्क्रिप्ट वाकई नहीं है जहां योजनाबद्द तरीके से कांग्रेस को कैसे आगे बढ़ना है यह उसे पता हो। क्योंकि बीते दो बरस में जिन मुद्दों के आसरे कांग्रेस ने खुद को खड़ा करने की कोशिश की वह मुद्दे मोदी सरकार ने ही दिये । भूमि अधिग्रहण का सवाल सूट बूट की सरकार तले राहुल को पहचान दे गया । तो जीएसटी का सवाल अतित में मोदी के जीएसटी विरोध तले जा खड़ा हो गया। और मनरेगा या खाद्दान्न सुरक्षा या फिर आधार कार्ड के गुणगाण ने कांग्रेस को मान्यता दे दी । यानी मोदी सरकार ही काग्रेस को खोयी जमीन अपनी असफलताओं से लौटा रही है । इसीलिये जो मुद्दे एक वक्त पीएम की रेस में होते हुये
नरेन्द्र मोदी उठाते। अब उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस उठा रही है और सरकार फंसती जा रही है। यानी मुद्दे वही किसान-मजदूर, खेती-किसानी, अल्पसंख्यक- दलित, महंगाई और पाकिस्तान के है। बस पाला बदल गया है । तो क्या पीएम बनने से पहले जिस तरह हर भाषण के वक्त मोदी -मोदी की गूंज होती थी , वह राग बदल रहा है । क्योंकि सच यह भी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी की लोकप्रियता के पीछे कही ना कही मनमोहन सिंह के दौर का काला अध्याय़ था जिससे लोग उब गये थे । और एतिहासिक चुनावी जीत को ही बीजेपी ने जिस तरह मापदंड बनाया उसमें अब यह सवाल बीजेपी के भीतर भी खड़ा हो चला है कि चुनावी जीत ना हो तो फिर सियासी जमीन बरकरार रखने का आधार होगा क्या। क्योकि 2015 में दिल्ली -बिहार में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। फिर 2016 में सिवाय असम के किसी राज्य में बीजेपी को कोई आस भी नहीं है । और अगर असम में भी चूक गये तो बीजेपी के सामने यही बडा सवाल होगा कि वह सियासी जमीन बनाये रखने के लिये काग्रेस पर सीधा हमला करें। ध्यान दें तो पहली बार मोदी सरकार ने अगस्ता हेलीकाप्टर के जरीये गांधी परिवार को कटघरे में खडाकर सीधे संघर्ष की मुनादी की है। तो मोदी भी अब कांग्रेस की दुखती रग को पकड़ने के लिये तैयार हैं। क्योंकि पीएम बनने से पहले विकास की जो भी लकीर खिचने की मोदी ने सोची होगी वह दो बरस में संसद के हंगामे और राज्यसभा में कांग्रेस की रणनीति ने फेल कर दिया है। तो बीजेपी के सामने भी अब सियासी जमीन बचाने के लिये रास्ता सियासत का ही बचता है । इसीलिये अगस्ता हेलीकाप्टर को लेकर काग्रेस अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच की बात कर रही है तो सुब्रहमण्यम स्वामी यह कहने से नहीं चूक रहे कि मनमोहन सिंह के दौर में ही सुप्रीम कोर्ट का जिक्र क्यो नहीं हुआ । तब सिर्फ सीबीआई जांच ही क्यों हुई। यानी जिस रास्ते पर देश निकल पड़ा है उसमें सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी उसी सत्ता के अनुकूल लोकतंत्र का सारे खंभे काम करेंगे। और सत्ता में जो भी होगा उसका रास्ता भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नहीं बल्कि गांधी परिवार मुक्त कांग्रेस या संघ परिवार मुक्त बीजेपी का होगा। और देश सत्ता बदलने के साथ इसी में उलझ कर रह जायेगा कि बीजेपी संघ का राजनीतिक संगठन भर है और गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस कुछ भी नहीं ।
Wednesday, May 4, 2016
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भ्रष्टाचार के गर्त में डूबे देश में "हेलीकाप्टर" की क्या औकात? |
462 बिलियन डालर, आजादी के बाद से साठ बरस के भ्रष्टाचार की यह रकम है। यह रकम ऐसे कालेधन की है जो टैक्स चोरी, अपराध और भ्रष्टाचार के जरीये निकली। वाशिंगटन की ग्लोबल फाइनेनसियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत की जड़ों में रहा जिसकी वजह से 462 बिलियन डालर यानी 30 लाख 95 हजार चारसौ करोड रुपये भारत के आर्थिक विकास से जुड़ नहीं पाये। और 1991 के आर्थिक सुधार ने इस रकम का 68 फिसदी हिस्सा यानी करीब 21 लाख करोड अलग अलग तरीकों से विदेश चला गया । यानी जो सवाल आज की तारिख में कालेधन से लेकर भ्रष्टाचार को लेकर उसकी नींव आजादी के वक्त ही देश में पडी और भ्रष्टाचार को लेकर जो सवाल हेलीकाप्टर घोटाले के जरीये संसद में उठ रहे है उसका असल सच यही है कि रक्षा सौदौ में घोटाले देश के अन्य क्षेत्रो के घोटालो में काफी पीछे हैं। और इसे हर राजनेता बाखूबी समझता है।
यानी भ्रष्टाचार को लेकर संसद में चर्चा भी कोई नयी ईबारत नहीं लिखी जा रही है । बल्कि नेहरु के दौर में जीप घोटाले से लेकर मुंदडा घोटाला, इंदिरा के दौर में मारुति घोटाले से लेकर तेल घोटाला, राजीव गांधी के दौर में बोफोर्स से लेकर सेंट किट्स, पीवी नरसिंह राव के दौर में हर्शद मेहता से लेकर जेएमएम घूसखोरी, वाजपेयी के दौर में बराक मिसाइल से लेकर यूटीआई और सबसे प्रसिद्द ताबूत घोटाला तो मनमोहन के दौर में टूजी से लेकर कोयला को कोई भूल नहीं सकता। और यह जानकार हैरत नहीं होनी चाहिये कि अब जब राज्यसभा में हेलीकाप्टर घोटाले को लेकर बहस में हंगामा मचा है , तो इसी राज्यसभा में अबतक छोटे बडे 600 से ज्यादा भ्रष्टाचार-घोटालो को लेकर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला बहस के रुप में सामने आ चुका है । आजादी के बाद से संसद में 322 घोटालों पर चर्चा हो चुकी है। इससे निकला क्या इसपर ना जाये । इसका इसर हुआ क्या यह केएंमपीजी की एक रिपोर्ट बताती है कि सत्ताधारियों के भ्रष्ट होने से विकास की राह में देश का सिस्टम नाकाबिल बना दिया गया । जो सक्षम नही थे उनका प्रभुत्व बाजार पर हो गया। घरेलू वित्तीय बाजार देश की जरुरतों से नहीं ब्लैक मनी से जुड गया । और असर इसी का हुआ कि शेयर बाजार पूंजी के निवेश लगाने और निकालने से जुड गया ।
रियल इस्टेट और कस्ट्रक्शन कालेधन का सबसे बडा अड्ड बना । तो टेलिकाम का विकास के राग में घोटाले से जुड़ गया । शिक्षा, गरीबी सरीखे समाजाकि विकास के सवाल भ्रष्टाचार से जुड़ गये । और इसी दायरे में बैक से लेकर इश्योरेंस और म्युचल फंड तक भ्रष्टाचार के दायरे में आये । जिनमें माल्या नया चेहरा जरुर हैं। लेकिन क्रोनी कैपटिलिज्म के खेल में देश के वित्तीय संस्धान कैसे जुडे और कैसे 2008 तक जो रकम 30 लाख करोड की थी वह कालेधन के रुप में 2014 के चुनाव से ठीक पहले 50 लाख करोड के होने का जिक्र कैसे कर रही थी । यह किसे से छुपा नहीं है । यानी एक तरफ मोदी सरकार की जांच तो दूसरी तरफ कटघरे में गांधी परिवार और सवाल यही कि 3600 करोड के अगस्ता हेलाकाप्टर के खेल में किसने कितनी कमीशन खायी । और बीते हफ्ते भर से राजनेताओ के गलियारे में बहस इसी सच को टटोलने को लेकर हो चली है कि इटली की अदालत के पैसले ने यह बता दिया कि घूस किसने दी । लेकिन घूस किसने ली । या किसको मिली इसपर अभी तक
देश की तमाम जांच एंजेसी सिर्फ पूर्व वायुसेनाध्यक्ष त्यागी और गौतम खेतान से पूछताछ के आगे बढ नही पायी है । लेकिन संसद के भीतर का हंगामा कांग्रेस के राजनेताओ को कटघरे में खड़ा कर रहा है और राजनीतिक रोमांच इसी बात को लेकर हो चला है कि सोनिया गांधी का नाम है या नहीं और एपी है कौन
शख्स । तो क्या राजनीतिक तौर पर सवाल फिर दोषी बताकर कटघरे में खडा करने का है । या देश के जांच एंजेसिया या अदालत भ्रष्टाचार करने वालों को कोई सजा भी देगी। क्योंकि देश का सच तो यह भी है कि हर बरस 5 लाख करोड की रियायत अब भी कारपोरेट और इंडस्ट्रलिस्ट को मिलती है । सवा लाख करोड से
ज्यादा के एनपीए के बावजूद बैंकों का कारपोरेट लोन देना जारी है । खेती और सिचाई के नाम पर औसतन सालाना 5 हजार करोड़ कहां जाते हैं, यह किसी को नहीं पता। उच्च शिक्षा के लिये हर बरस देश के बाहर 30 हजार करोड से ज्यादा की रकम चली जाती है । यानी चलते हुये सिस्टम को कैसे बदला जाये जिससे देश
विकास की राह पर चले क्या उन मुद्दों से हर किसी ने आख मूंद ली है। और संसद में सबसे अनुभवी शरद यादव भी अगर खुले तौर पर कहते हैं कि राज्यसभा में सिर्फ गाल बजाया जा रहा है निकलेगा कुछ नहीं। अगर ऐसा है तो याद कीजिये 15 अगस्त 1947 की आधी रात को दिए अपने मशहूर भाषण में देश के पहले प्रधानमंत्री ने भारत की सेवा का मतलब करोड़ों गरीबों और शोषितों की सेवा करार दिया था,जिसका मतलब गरीबी और असमानता को खत्म करना था।
और गरीबों को हक मिले तो देश औद्योगिक विकास की राह पर भी चल पड़े-इसे ध्यान में रखते हुए देश ने मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया। जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र दोनों की भागीदारी हो। लेकिन-बीते 68 साल में मिक्स्ड इकोनामी से खुली अर्थव्यवस्था के दौर में आने तक देश ने विकास की जो चाल
चली उससे हासिल हुआ क्या। या कहें कि क्या वो लक्ष्य हासिल हुए-जिनका सपना देश ने आजादी के सूरज के साथ दिखा था। क्योंकि आंकड़ों पर ग़ौर करें तो आजादी के वक्त गरीबी की रेखा से नीचे 15 करोड लोग थे । तब जनसंख्या 33 करोड थी । आज आबादी करीब 130 करोड़ है, और गरीबी रेखा के नीचे 42 करोड है । यानी गरीबी कम करने में सरकारें नाकाम रहीं। लेकिन सवाल गरीबी का नहीं विकास का है। और विकास का मतलब वीवीआईपी हेलीक्पटर पर घूस लेने भर का नहीं है । समझना यह भी होगा कि देश में 400 लोगोके पास अपना चार्टर्ड विमान है । और 2985 परिवारो के पास जितनी संपत्ति यह है उसमे देश की के 18 करोड़ किसान मजदूरों के परिवार जीवन पर्यात अपने तरह से पांच सितारा जीवन जीवन जी सकते है। क्योंकि एक तरफ 52 फीसदी खेती पर टिके परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। जिनका कुल कर्ज ढाई हजार करोड का है तो दूसरी तरफ देश के 6 हजार उधोगपति बैंकों से सवा लाख करोड का कर्ज लेकर अब भी पांच सितारा जीवन जी रहे है । तो सवाल यही है कि जो सच संसद के भीतर बाहर नेहरु के दौर में राजनीतिक तौर पर सत्ता को परेशान करता था वही हालात मनमोहन से होते हुये मोदी के दौर में भी देश को परेशान कर रहे है । अंतर सिर्फ इतना आया है कि उस वक्त लोहिया संसद के भीतर बाहर यह सवाल उटाते थे कि नेहरु पर प्रतिदिन का खर्चा 25 हजार रुपये है जबकि एक आम आदमी तीन आने में जीता है । और अब संसद के भीतर बाहर कोई राजनेता नहीं कहते कि 80 करोड लोग तो अब भी 20 रुपये में जीते है तो पिर संसद में बैटे 85 फिसदी लोग करोडपति कैसे हो गये ।