संविधान लागू होते ही लोकतंत्र के जिस पाठ को देश ने पढ़ा, वह वोट देने कीबराबरी का ही था। 1950 में 17 करोड 32 लाख,12 हजार, 343 वोटर थे तो आज यानी 2017 में 83 करोड 40 लाख 82 हजार 814 वोटर हो चुके हैं। यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश होने का तमगा लिये भारत का अनूठा सच ये भी है कि अपनी सत्ता खुद चुनने वाले देश में सत्ता ने चुनने वालो को ही जाति धर्म से लेकर महिला-युवा और गरीब-रईस में भी बांटा। अपना संविधान अपनी सरकार थी तो भी संविधान में दर्ज लोकतंत्र की धज्जियां जमकर उड़ायीं गईं। आपातकाल तो18 महीने रहा। लेकिन बरस दर बरस संसदीय चुनावी लोकतंत्र के राग को देश में हर सत्ता ने कुछ इस तरह गाया कि कि संविधान में दर्ज जनता के हक को देने या छिनने की राजनीति चुनावी मेनिफेस्टो में सिमट गई। और देश इतना गरीब होता चला गया कि 2017 में 1950 के हिन्दुस्तान से दोगुने नागरिक गरीबी की रेखा से नीचे खड़े नजर आये। शिक्षा-हेल्थ-पीने का पानी भी मुनाफे के धंधे में समा गया। खेती से उघोग और उघोग से खनिज संसाधनों की लूट सबसे बडी कमाई बन गई। लेकिन सत्ता उसी को मिली जिसने भूखी जनता
का पेट भरने का नारा दिया।
तो लोकतंत्र की ताकत गरीबी में समायी। और सत्ता रईसी की कुर्सी बन गई। देश के संसधानो की लूट में गरीबों की हिस्सेदारी नहीं मिली। गरीबों के लिये पैकेज और कल्याण योजनाओं से होते हुये चुनावी मेनीफेस्टो ने भूखे भारत की तस्वीर ही राज्य दर राज्य रखी। वह भी सत्ताधारियो ने। इसी बार पंजाब में अकाली 10 बरस की सत्ता के बाद भी आटा, चावल गेंहू, दूध ही बांटते नजर आये और यही हालत 5 बरस सत्ता में रहने के बाद समाजवादी अखिलेश यादव की भी रही। तो सत्ता ने गरीबी बरकरार रखकर गरीबों को अपनी सत्ता पर आश्रित किया। और गरीबों ने लोकतंत्र के राग तले संविधान में दर्ज अपने अधिकार को ही जीने की न्यूनतम जरुरत पाने के लिये सत्ता तले बंधक मान दिया। असर इसी का हुआ कि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर में 60 फिसदी गरीब सबसे बडा एकमुश्त वोटर हो गया। तो 60 फिसदी संपत्ति-संसाधनों के मालिक बहुराष्ट्रीय कन्ज्यूमर हो गये। और सत्ताधारियों ने रईसी को निसाने पर लेकर खुद को गरीब से जोड़कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का नेता खुद को मान लिया। लेकिन लोकतंत्र के इस मिजाजमें सत्ता पाने के लिए प्रचार प्रसार की चकाचौंध में पानी की तरह पैसा हर किसी ने कुछ बहाना शुरु किया । कि गरीबी सिर्फ चुनावी नारो में सिमटी और विकास शब्द लोकतंत्र पर भारी लगने लगा। और ऐसे में वोट के लिये नेताओं की जुबां जिस तरह कभी महिलाओं की खूबसूरती पर चोट तो कभी वोट और महिलाओं का घालमेल। किसी को तड़ीपार कहना तो किसी को करप्ट कहना। किसी को चोर तो किसी को डकैत तक कहना। तो क्या ये माना जाये कि गणतंत्र के लोकतंत्र में ये बोली वोट के लिये है।
ये अंदाज सत्ता पाने या गंवाने की उम्मीद बनने या टूटने के है। या फिर लोकतंत्र का मिजाज सत्ता पाने के लिये अब इतना अराजक हो चला है कि मर्यादा टूटेने का खतरा नहीं है बल्कि समाज की मर्यादा कौन कैसे कितने विभत्स तरीके से हवा में उछाल सकता है भीड़ उसी के हिस्से में आयेगी क्योंकि सवाल वोट बैक का है। और वोट भीडतंत्र से समेटे जा सकते है लोकतंत्र से नहीं। तो क्या जिस संसदीय चुनाव को संविधान लागू होने के बाद लोकतंत्र का सबसे बडा ककहरा माना गया वह मौजूदा वक्त में लोकतंत्र से ही दूर हो चला है। ये सवाल इसलिये क्योंकि एक तरफ गरीबी और भूखमरी देश की राजनीति को सत्ता तक पहुंचाती हैं। दूसरी तरफ चुनाव जीतने के लिये सबसे ज्यादा धन प्रचार प्रसार की चकाचौंध में ही बहाया जाता है। अगर यूपी के चुनाव को ही तोल लें। तो एक तरफ 12 करोड़ गरीब पिछड़े हाशिये पर जी रहा यूपी है। दूसरी तरफ करोड़ों-अरबों का प्रचार है। और प्रचार के आइडिया देने वाले करोड़ों ले रहे हैं। यानी सत्ता पाने के लिये सत्ताधारियों की कवायद को देख लीजिये। लखनऊ में चुनाव जीतने के लिये समाजवादियों का ये वार रुम हर आधुनिक तकनीक से लैस है। कमरे से ही पूरे यूपी के प्रचार पर नजर रखी जा सकती है। यही से चुनाव जीतने वाले नारे निकलेंगे। यानी
गरीबों को कैसे नारो और चकाचौंध से लोकतंत्र में गुम कर दिया जाये, इसके व्यवस्था वार रुम में से होगी। तो याद कीजिये 2014 के लोकसभा में भी मोदी का वार रुम कितना आधुनिक था। अत्याधुनिक तकनीक से लैस प्रचार प्रसार में तो पहली बार देश ने नेता की मौजूदगी को वर्चुअल पर देखा। यानी नेता नहीं है लेकिन नेता है। जो गरीबी पर बोल रहा है। जो करप्शन और कालेधन पर बोल रहा है। तो सवाल सिर्फ तकनीक या पढ़े लिखे लोगों का चुनाव जीतवाने का ठेका लेने वाले प्रचार तंत्र का नहीं है। सवाल तो लोकतंत्र का है। और लोकतंत्र कैसे इजाजत दे सकता है कि प्रचार में तीस हजार करोड़ फूंक दिया जाये। ये रुपया किसका है। कहां से आया है। कोई नहीं जानता क्योंकि एडीआर की रिपोर्ट ने कल ही जानकारी दी कि कांग्रेस हो या बीजेपी, समाजवादी पार्टी हो या अकाली दल। हर कोई अपने चंदे को छुपाता है। और औसतन हर राजनीतिक दल 60 फीसदी रकम बताते ही नहीं कि उनके पास फंड आया कहां से। तो वजह भी यही है कि मूल मुद्दों से इतर अब नेता इस जुबा पर उतर आये हैं। और देश की बहस इन्हीं मुद्दों में गुम हो चली है।
Wednesday, January 25, 2017
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गणतंत्र का लोकतंत्र जिन्दाबाद |
Thursday, January 19, 2017
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लूट-घूस की सत्ता तले स्कूली बच्चो की मौत |
इतनी खूबसूरत दुनिया के लिये भगवान तुम्हारा शुक्रिया / भोजन देने के लिये भगवान तुम्हारा शुक्रिया /पक्षी का इतना सुंदर गीत सुनाने के लिये भगवान तुम्हारा शुक्रिया / हर चीज जो तुमने दी भगवान उसका शुक्रिया
पहली कक्षा में इस कविता को पढ़ने वाला बच्चा अब इस दुनिया में नहीं है। सड़क किनारे जमीन पर बिखरे किताब कॉपी। टिफिन बाक्स। बस्ते में उस बच्चे के मांस के लोथडे भी हैं, जो किताबो को पढ़ पढ़ कर भगवान की बनायी दुनिया में जीने और बड़े होने के सपनों को जीता रहा। और इस कविता के जरीये भगवान को शुक्रिया कहता रहा जिसने जमी, आसमान, पक्षी बनाये। वातावरण में ही जिन्दगी के रस को घोल दिया। लेकिन इस बच्चे को कहां पता था जो किताबों में लिखा हुआ है। या जिन कोमल हाथों से पन्नों को उलटते हुये वह मैडम के
कहने पर भगवान तुम्हारा शुक्रिया कर अपने सपनो को जीता उसे इतनी खौफनाक मौत मिलेगी जो भगवान ने नहीं बल्कि भगवान बन देश चलाने वालों ने दी। हर बैग के भीतर ऐसी ही किताब -कापी में दर्ज बच्चों के सपने हैं। वह सपने जिसे बच्चो ने पालना और सीखना ही तो शुरु किया था। और अंधेरे में उठकर मा बच्चे के टिफिन को भरने में लग जाती तो बाप स्कूल यूनिफार्म पहनाने से लेकर किताब-कापी को सहेज सहेज कर बैग में ऱखता। गले में टाई लटकाता। जूतो के फीते बांधता । लेकिन सडक पर बिखरे इस मंजर ने सिर्फ मां बाप के दिलो में ही सन्नाटा नहीं बिखेरा बल्कि उस अपराधी समाज के समाने अपनी बेबसी को भी रो रो कर घो दिया, जिसने नियम कायदो को ताक पर रख भगवान को शुक्रिया कहने तक की स्थिति की हत्या कर दी। तो क्या ये हादसा नहीं हैं। ये महज कोहरे में लिपटे वातावरण की देन भी नहीं है। ये सिर्फ बच्चों की मौत नहीं है। ये उस व्यवस्था का खौफनाक चेहरा है, जो हर रुदन को लील लेने पर हमेशा आमादा रहती है। क्योंकि बस बिना परमिट के चल रही थी। ट्रक अवैध रुप से बालू ले जा रहा था। स्कूल बंद करने के आदेश के बावजूद चल रहा था। गांव में अस्पताल नहीं सामुदायिक हेल्थ सेंटर था। तो क्या मौत होनी ही थी। और ऐसी ही कई मौत का इंतजार हर मां बाप को ये जानते समझते हुये करना ही होगा। क्योंकि सिस्टम प्राईवेट स्कूल के अलावे कुछ दे नहीं सकता। प्राईवेट स्कूल मुनाफे की शिक्षा के अलावे कुछ देख नहीं सकते। मुनाफे तले कही बसो के परमिट घूस देकर दब जाते है। या घूस देकर बच निकलते हैं। अवैध खनन के बाद बालू को लेजाते ट्रक भी घूस देकर सडक पर सरपट दौडने का लाइसेंस पा लेते है । और जब टुर्धना हो जाये तो बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर के जीते गांव दर गांव में इलाज के लिये अस्पताल तक नहीं होता। तो ये हादसा नहीं। हत्या है ।
ये वातावरण का कोहरा नहीं । सिस्टम और सियासत पर छाया कोहरा है। ये सिर्फ बच्चों की मौत नहीं बल्कि विकास के नाम पर होने वाली सियासत की मौत है। और मां-बाप की रुदन महज बेबसी नहीं बल्कि सत्ता के भगवान होने का खौफ है। और संयोग ऐसा है कि जिस लखनऊ की सियासत को साध कर दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब सिस्टम साधने वाले नेता पाले हुये है। उस दिल्ली लखनऊ के ठीक बीच एटा के अलीगंज ब्लाक का असदपुर गांव है। और हर कोई इस सच से आंख मूंदे हुये है कि यूपी में 20 हजार प्राइवेट स्कूल बिना पूरे इन्फ्रास्ट्रक्चर के चलते हैं। 12 हजार सरकारी स्कूल तो बिना ब्लैक बोर्ड बिना पढे लिखे शिक्षक के चलते है। 30 हजार से ज्यादा ट्रक अवैध बालू ढोते हुये यूपी की सडको पर सरपट दौडते है । सड़क पर सुरक्षा के नाम पर पुलिस की तैनाती होती ही नहीं। और सडक पर अवैध तरीके से सिर्फ ट्रको से अवैध वसूली की रकम सिर्फ यूपी में हर दिन की 8 लाख रुपये से ज्यादा की है। और बिना परमिट दोडते स्कूल बसों से वसूली हर महीने की 50 लाख से ज्यादा की है । इतना ही नहीं प्राइवेट स्कूल खोलने के लिये जितनी जगहो से एनओसी चाहिये होता है, उसमें स्कूल खोलने वाले जितनी घूस अधिकारियों से लेकर पुलिस और नेताओं को देते है वह प्रति स्कूल 40 लाख से ज्यादा का है। यानी सरकारी स्कूल खोलने का बजट 2 लाख और प्राइवेट स्कूल खोलने के लिये घूस 40 लाख । तो कौन सा सिस्टम कौन सी सरकार इस तरह बच्चो की मौत पर मातम मनाती है। ये सोचने का वक्त है या पिर समझने का कि बच्चो ने तो जिन्दगी देने के लिये भगवान का शुक्रिया करने वाला पाठ पढ़ा। लेकिन अपने अपने कठगरे में सत्ताधारियों ने भगवान बनने के लिये ये मौत दे। और 24 बच्चो की मौत का कोई दोषी नहीं।
Wednesday, January 11, 2017
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अंधेरे में रौशनी की खोज करता हिन्दुस्तान |
कोई कह रहा है-आर्थिक इमरजेन्सी । तो कोई फाइनेंशियल इमरजेन्सी तो कोई सुपर इमरजेन्सी भी कहने से नहीं चूक रहा है । तो क्या 1975 के आपातकाल के आगे के दौर को मौजूदा वक्त के खांचे में देखा जा रहा है । या फिर नोटबंदी प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक है, जिसके दायरे में हर राजनीति सिमट गई है और हर तरह की राजनीति के केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी आ खड़े हुये हैं। या फिर इमरजेन्सी शब्द को विपक्ष अब इस तरह क्वाइन कर रहा है, जिससे इंदिरा गांधी की इमरजेन्सी के सामानांतर मोदी की इमरजेन्सी घुमडने लगे। याद कीजिये इमरजेन्सी के खिलाफ जेपी के संघर्ष को खारिज करने के लिये इंदिरा गांधी विनोबा भावे की शरण में गई थीं। और जेपी ने जब संपूर्ण क्राति का आंदोलन छेड़ा तो विनोबा भावे से कागज पर इमरजेन्सी को इंदिरा गांधी ने अनुशासन पर्व लिखवा लिया। लेकिन मौजूदा वक्त में ना तो जेपी सरीखा कोई संघर्ष है और ना ही नैतिक बल लिये विनोबा भावे । और 1975 में तो संघ परिवार भी जेपी के पीछे जा खडा हुआ था । और जिस बीजेपी के पास मौजूदा वक्त में सत्ता हैा उनके तमाम नेता इंदिरा की इमरजेन्सी में संघर्ष करते हुये ही पहचान बना पाये । तो क्या मौजूदा वक्त में जब कांग्रेस से लेकर ममता और मायावती से लेकर अखिलेश या केजरीवाल भी नोटबंदी के दायरे में इमरजेन्सी शब्द का जिक्र कर रहे हैं तो तीन सवाल हैं।
पहला क्या इमरजेन्सी शब्द मोदी की सत्ता के साथ टैग करने भर का सवाल है । दूसरा, क्या इमरजेंसी शब्द के जरीये भ्रष्टाचार और कालेधन को दबाना है । तीसरा , क्या इमरेन्सी शब्द के जरीये ही राजनीतिक सत्ता पलटी जा सकती है । जाहिर है तीनों हालात राजनीति कठघरा ही बनाते हैं। लेकिन जब इक्नामिक इमरजे्न्सी का जिक्र देश में चल पडा है तो याद कीजिये 1974-75 में इंदिरा गांधी के करप्शन के खिलाफ ही जेपी ने संघर्ष छेडा था । और मौजूदा वक्त में सत्ता के करप्शन का सवाल सुप्रीम कोर्ट के दायरे में ही खारिज हो रहा है । यानी एक वक्त जैन हवाला के पन्नों पर आडवाणी ने इस्तीफा दे दिया । तो सहारा-बिरला के दस्तावेजों को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना । राजनीति में भी नैतिकता गायब हो गई । तो क्या करप्शन की परिभाषा भी मौजूदा दौर में बदल रही है । या करप्शन के खिलाफ कोई भी कार्रवाई राजनीतिक तौर इमरजेन्सी शब्द से जोडना आसान है ।मसलन ममता की सत्ता पर करप्शन के लगे दाग पर सीबीआई की कार्रवाई के खिलाफ टीएमसी राष्ट्रपति से मिलकर लौटती
है तो सुपर इमरजेन्सी शब्द उछालती है।
तो क्या नोटबंदी से मुश्किल में आती मोदी सरकार के सामने अब चुनी हुई सत्ता के करप्शन के खिलाफ कार्रवाई कर अपनी छवि साफ रखना जरुरी हो चला है । यानी इमरजेन्सी के हालात राजनीतिक टकराव के उस मुहाने पर देश को ले जा रहे है जहा अच्छे दिन का मतलब होता क्या है इसे हर कोई मिल जाये । और इसीलिये 2014 में अच्छे दिन का सपना मोदी ने दिखाया । क्योंकि मनमोहन की सत्ता भ्रष्ट हो चली थी । और 2017 की शुरुआत ही राहुल गांधी ने अच्छे दिन का सपना 2019 तक के लिये मुल्तवी कर दिया जब कांग्रेस सत्ता में आ जायेगी । तो क्या इमरेजन्सी शब्द के बाद अच्छे दिन का नारा भी एक ऐसा शब्द हो चुका है जो राजनीति सत्ता को चुनौती
दे सकता है । या फिर 2014 में जिन शब्दों ने सत्ता पलट दी अब वही शब्द सत्ता के लिये गले की हड्डी बन रहे है । या फिर अच्छे दिन की परिभाषा अपनी सुविधानुसार सत्ता और विपक्ष दोनों ही गढ रहे हैं। चिदंबरम घातक
मानते है तो जेटली एतिहासिक कदम । दोनों ही वित्त मंत्री । एक ही देश के लिये देखने का दो नजरिया है । तो ऐसे में सवाल इक्नामी का नही सियासत का ही ज्यादा होगा । और सियासत की इस चौसर में -कौन सा पांसा किस राजनीतिक दल को लाभ दे दें। या -कौन सा पांसा पंरपारिक राजनीति को ही उलट दें । या फिर कौन सा पांसा राष्ट्रनिर्माण के सपने तले वर्ग संघर्ष के हालात पैदा कर दें । यानी गरीबों के लिये इक्नामी में कौन सी भागेदारी रोजगार पैदा करती है इसका कोई विजन आजतक किसी सत्ता ने नहीं बताया । किसान को लागत से
ज्यादा देने का वादा सरकार क्यों नहीं कर पाती ये भी अबूझ पहेली है । और देश में असमानता की खाई कैसे कम होते हुये खत्म हो इसकी कोई दृश्टी किसी उक्नामिक प्रयोग में या बजट में उभर नहीं पाती है । तो क्या देश में अच्छे दिन शब्द भी सियासी सपने से ज्यादा कुछ नहीं है । क्या अच्छे दिन की चाहत में सिर्फ सत्ता बदलने का ख्वाब पालना देश का फेल होना है । क्योंकि अच्चे दिन का जिक्र चाहे 2014 में हुआ हो या 2017 में । दोनों
हालातों में ये समझान भी जरुरी है कि देश के संस्धानों को ही राजनीतिक सत्ता ने 2014 से पहले मनमोहन सिंह ने हड़पा और अब मोदी सरकार हडप रही है । और बीजेपी 2014 तक ये आरोप लगा रही थी । तो काग्रेस अब ये आरोप लगा रही है । यानी अच्छे दिन लाने के लिये देश में जिन संस्थानों को काम करना है दजब उन्ही संस्थानो का राजनीतिकरण राजनीतिक मुनाफे के लिये कर दिया जाता हो तो फिर अच्छे दिन किसके आयेगें । जाहिर है जनता के लिये तो अच्छे दिन हर सत्ता में मुश्किल है । और शायद उलझन इसी को लेकर है कि रास्ता देश का
सही है कौन सा । क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस वक्त कारपोरेट के बीच बैठकर गुजरात वाइब्रेंट समिट में नीतियों और अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की वकालत कर रहे थे उस वक्त सिंगूर के किसान खासे खुश थे
कि अब उन्हे अपनी जमीन मिल जायेगी । तो क्या जिस बाजार इक्नामी के दायरे में एसईजेड बनाने की बात मनमोहन सिंह के दौर में हो रही थी । और जिस वक्त नैनो कार को सिंगूर में जगह नहीं मिली उसे गुजरात में जमीन तब सीएम रहते हुये मोदी ने ही दी । और अब सु्परीम कोर्ट ने जब 7 राज्यो को सेज पर नोटिस दे दिया है तो क्या इक्नामी का रास्ता हो क्या देश इसी में जा उलझा है । क्योकि एक तरफ वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने ब्लॉग में लिखते है मोदी ने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था में पीढ़ीगत बदलाव कर दिया है। और दूसरी तरफ दुनिया की तीन बड़े रेटिंग एजेंसियों में एक " फिच " ने कल ही कहा है कि बड़े फायदे के लिए कुछ देर का परेशानी का सरकार का दावा अनिश्चित है । तो न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार ने तो अपनी संपादकीय
टिप्पणी में यहां तक लिख दिया कि, " क्रूरतापूर्वक बनाए और लागू किए गए नोटबंदी के फैसले ने आम लोगों की जिंदगी को काफी कठिन बना दिया है। इसके बहुत कम सबूत हैं कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार रोकने में मदद मिली है और ना इस बात की गारंटी है कि इस तरह के क्रियाकलापों पर भविष्य में रोक लग पाएगी,जब सिस्टम में कैश वापस आ जाएगा। और नोटबंदी के फैसले से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है। " तो बाईब्रेट गुजरात के जरीये इक्नामी को समझा जाये । या नोटबंदी से ढहती बाजार इक्नामी को सही माना जाये ।क्योंकि सच यही है किनोटबंदी से दिसंबर में वाहनों की बिक्री 18.66 फीसदी गिर गई। ये 16 साल में सबसे बड़ी गिरावट है । जनवरी से मार्च में बिजनेस कॉन्फिडेंस 65.4 दर्ज हुआ,जो आठ साल में सबसे कम है । दिसंबर तिमाही में 8 बड़े शहरों में घरों की बिक्री 44 फीसदी गिरी,जो आठ साल में सबसे कम है । डॉलर के मुकाबले रुपया मोदी सरकार के काल में सबसे निचले स्तर को छू रहा है । असंगठित क्षेत्र के 14 करोड़ लोगों के सामने रोजगार का संकट पैदा हुआ है,जिन्हें नौकरी वापस दिलाने को लेकर फिलहाल कोई योजना सरकार के पास नहीं है । यानी नोटबंदी के बाद के हालात ने नया सवाल ये तो खडा कर ही दिया है कि आखिर इक्नामी के रास्ते बाईब्रेट गुजारात की
चकाचौंध पर चलेंगे । या नोटबंदी के अंधेरे के बाद रोशनी आयेगी । या फेल होते सेज तले आखिर में देश को कार या सरकार पर नहीं किसानी पर ही लौटना पडेगा ।
Tuesday, January 10, 2017
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जय जवान जय किसान का नारा कैसे लगायें |
अजीब संयोग है कि 11 जनवरी को देश के उसी प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि है, जिसने देश को जय जवान जय किसान का नारा दिया। और शास्त्रीजी की 51वीं पुण्यतिथि के मौके पर ये सवाल उठ रहा है कि सीमा पर तैनात जवान को भी सूखी रोटी और नमक-हल्दी में रंगे पानी में दाल मिलती है और हर पांच घंटे में एक किसान खुदकुशी क्यों कर लेता है। तो कोई भी कह सकता है कि जय जवान जय किसान का नारा चाहे हिन्दुस्तान की रगों में आज भी दौ़ड़ता हो। और साढे तीन लाख जवानों की तादाद बीते 70 बरस में बढ़कर 47 लाख हो चुकी। और इसी तरह किसानों की तादाद भी 11 करोड़ से बढ़कर चाहे आज 21 करोड़ हो चुकी हो। लेकिन सच यही है ना तो जय जवान का नारा लगाते हुये बीते 70 बरस के दौर में कभी जवानों की जिन्दगी की भीतर झांकने की कोशिश किसी भी सरकार ने की और ना ही किसान को राहत पैकेज से आगे बढ़ाने की कोई
कोशिश बीते 70 बरस के दौर में किसी सरकार ने की। प्रति दिन प्रति जवान के भोजन पर 100 रुपये सरकार खर्च करती है। और प्रति किसान की औसत आय देश में प्रति दिन 40 रुपये से आगे बढ़ नहीं पायी है। यानी दुनिया के सबसे बडा लोकतांत्रिक देश के भीतर का सच कितना डराने वाला है, ये इससे भी समझा जा सकता कि एक तरफ किसान पीढ़ियों से पसीना बहाकर देश को अन्न खिला रहा है और जवान सीमा पर प्रहरी बनकर पिढियो से देश की रक्षा कर रहा है लेकिन जब आर्थिक-सामाजिक दायरे में जय जवान जय किसान का जिक्र होता है तो दोनों के ही परिवार गरीबी की रेखा के सामानातंर खडे नजर आते है । क्योकि देश में असमानता की खाई इतनी चौड़ी है कि एक तरफ औसतम प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय 295 रुपये बैठती है। जबकि 35 रुपये रोज के दायरे देश के 37 करोड़ नागरिक आ जाते है।
और ऐसा नहीं है कि सरकारें समझती नहीं। चाहे सत्ता हो या विपक्ष। दोनों की बातो को सुनिये तो आप महसूस करेंगे कि गरीबों की किसान-मजदूरों के हालात भी सत्ता को पता है। और देश की संपत्ति चंद हथेलियों में सिमटी हुई है ये भी विपक्ष को पता है। बावजूद इसके ना जवान की हालत ठीक होती है ना किसान मालामाल होता है। तो ये समझना जरुरी है कि किसी भी सरकार ने बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर पर कोई काम किया भी है या नहीं। क्योंकि जवानों का वेतन नौ हजार रुपये पार नहीं करता और किसानों की आय छह हजार से ज्यादा होती नहीं। और बीते 70 बरस के दौर में किसानी गले की फांस बनती है । तो किसान का बेटा ही सेना में जवान के तौर पर जाकर सीमा की रक्षा करता है। आंकडें बताते है कि सेना में 72 फिसदी जवान किसान परिवार से ही आते हैं। और संयोग देखिये पुंछ में तैनात जिस जवान ने खाने का कच्चा-चिट्टा मोबाइल में कैदकर देश को दिखा दिया। उसके पिता भी किसान हो और दादाजी सुभाषचन्द्र बोस की सेना में जवान थे। और उसके घर की माली हालात देखकर या सीमा पर तैनाती में मिलती रोटी- दाल देखकर अगर जय जवान जय किसान का नारा लगा सकते है तो लगाईये। लेकिन उससे पहले देश के सच को भी समझ लीजिये और फिर सोचिये कि जस जवान जय किसान तो दूर देश में जब न्यनतम इन्फ्रस्ट्रक्चर किसी भी क्षेत्र में नहीं है तो फिर जवान को कौन देखे या किसान का जिक्र कौन करें । क्योंकि 67 फिसदी जमीन पर सिंचाई होती नहीं। 72 फिसदी गांव में पीने का साफ पानी नहीं। 77 फिसदी देश को 24 घंटे बिजली का इंतजार आज भी है। सिर्फ 12 फिसदी आबादी को ढोने वाला पब्लिक ट्रास्पोर्ट सिस्टम खड़ा हो पाया है। 81 फिसदी आबादी के लिये सरकारी अस्पताल उपब्लध नहीं है। 72 फिसदी शहरी बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते नहीं। न्यूनतम मजदूरी कोई ठेकेदार देता नहीं। रोजगार है नहीं । तो क्या जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर पर हर सत्ता को ध्यान को ध्यान देना चाहिये उसने उसी से आंखे मूंद रखी हैं। और नोटबंदी के बाद देश के सोशल इंडेक्स चाहे नीचे चला गया हो।
लेकिन उन हालातों को समझना जरुरी है कि आखिर क्यों नोटबंदी हो या कोई भी आर्थिक नीति देश को एक समान एक हालात में क्यों खड़ा नहीं कर सकती और करप्शन देश की रगों में क्यों दौड़ेगा। मसलन करप्शन भी जरुरत भी जीने के हालात से कैसे जोड़ दिया गया जब सरकार बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी देश को नहीं दे पा रहे है तो सिचाई के लिये पंप चाहिये , बिजली के लिये जेनरेटर-इनवर्टर चाहिये, -इलाज के लिये प्राईवेट अस्पताल चाहिये, शिक्षा के लिये कान्वेंट स्कूल चाहिये , सफर के लिये निजी गाडी चाहिये, मजदूरी के लिये ठेकेदार की गुलामी करने पड़े तो न्यूनत मजदूरी कौन देगा । यानी जब सरकार ही जनता की न्यूनतम जरुरतो को पूरा करना तक अपनी जिम्मेदारी ना मान रही हो तब होगा क्या टैक्स चोरी,करप्शन ,ज्यादा कमाई के लिये किसी भी हद तक जाने की चाहत और देश के मिजाज में जब ये हालात जुड जायेंगे तो क्या सेना भी इससे अछूत रह पायेगी। ये सवाल इसलिये क्योकि जिस जवान ने रोटी-दाल के सच को उभारा उस रोटी दाल के पीछेका सच ये भी है कि सेना के लिये तो आर्मी सप्लाई कोर है। लेकिन पैरा मिलिट्री फोर्स के लिये गृह मंत्रालय हर सेक्टर को बजट की रकम देता है। यानी जवान जब सिनियर अधिकारियों की लूट का जिक्र कर रहा है। तो साफ है कि हर सेक्टर में बटालिनों के जवानो के लिये जो बजट आता है। उस बजट से अनाज खरीद हर सेक्टर के अधिकारी करते हैं। और सीएजी ने 2010 और 2016 में अपनी रिपोर्ट में सप्लाई की इसी चेन में गडबड़ी का जिक्र किया।