नेहरु की जगह सरदार पटेल पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते । ये सवाल नेहरु या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल हमेशा उठाते रहे हैं। लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरु की जगह अंबेडकर पीएम होते तो हालात कुछ और होते । दरअसल अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर किसीने कभी मान्यता दी ही नहीं। या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर को कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया । लेकिन इतिहास के पन्नों को अगर पलटे और आजादी से पहले या तुरंत बाद में या फिर देश के हालातों को लेकर अंबेडकर तब क्या सोच रहे थे और क्यों अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश हुई नहीं । और मौजूदा वक्त में भी बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता जिस तरह भावुक हो जाती है लेकिन ये कहने से बचती है कि अंबेडकर पीएम होते तो क्या होता ।
तो आईये जरा आंबेडकर के लेखन, अंबेडकर के कथन और अंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर वह क्या सोच रहे थे, जिस दौर देश गढ़ा जा रहा था । तो संविधान निर्माता की पहचान लिये बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान की स्वीकृति के बाद 25 नवंबर 1949 को कहा, " 26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं । राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे । परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे कि एक आदमी एक वोट होता है और एक वोट का एक ही मूल्य होता है । अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का ये जीवन बिताते रहेंगे। कह तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनो तक हम उसे नकारते रहे तो हम ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में डाल कर ही रहेंगे । जिसनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये ।वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे। " यानी संविधान के आसरे देश को छोड़ा नहीं जा सकता है बल्कि अंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है ।
यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है तो इस बात की कुलबुलाहट अंबेडकर में उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1949 को जब नेहरु ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये अंबेडकर ने नेहरु के प्रस्ताव का भी विरोध किया । अंबेडकर की राइटिंग और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8 में लिखा है कि आंबेडकर ने कितना तीखा प्रहार नेहरु पर भी किया। उन्होने कहा, " समाजवादी के रुप में इनकी जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके । उस नजरिए से मै आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । इसके लिये उघोग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा । जबतक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मै नहीं समझता , कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी । " तो अंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में नेहरु सत्ता के लिये बेचैन थे और उसके बाद से बीते 70 बरस में यही सवाल हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते करते सत्ता पाती रही है फिर आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में को जाती है । यूं याद तो ठीक दो बरस संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया किया सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविदान दिवस मनाते मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी यानी विपक्ष हो या सत्तादारी सभी ने एक सुर में माना कि अंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे , वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।
ये अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की । लेकिन दोनो राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर अंबेडकर देश के पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते । क्योंकि अंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे । और दूसरा उस दौर में अंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा सुपठित व्यक्तियो में से थे । जो अमेरिकी विश्वविघालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसे हो इसपर भी लिख रहे थे। यानी अंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी स च कैसे दलित नेता के तौर पर स्थापना और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता तहत दब कर रह गई ये किसी ने सोचा ही नहीं । क्योंकि जिस दौर में महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरीये संसदीय प्रणली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे । उस दौर में अंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इक्नामिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे । और भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे । और भोतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे । इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर अंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर नतमस्तक होते है , वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्रहमण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे अक सिस्टम मानते थे । और 1930 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण सिस्टम में अगर जाटव भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस अनुरुप कोई ब्राह्मण करता । अपनी किताब मार्क्स और बुद्द में आंबेडकर ने बारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की जिस लकीर को गाहे बगाने नेहरु से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। 1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में अंबेडकर कहते है , भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग की सही नेतृत्व दे सकता है । मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है । संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते । उसी दौर में अंबेडकर अपनी किताब , ' स्टेट्स एंड माइनरटिज " में राज्यो के विकास का खाक भी खिचते नजर आते है । जिस यूपी को लेकर ाज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये । वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये अंबेडकर यूपी को तीन हिस्से में करने की वकालत आजादी से पहले ही करते है ।
फिर अपनी किताब ' स्माल होल्डिग्स इन इंडिया " में किसानो के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है । अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानो की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है । जबकि आज जब यूपी में किसानो के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है । और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है लेकिन ये होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं पाती । जबकि अंबेडकर 'स्माल होल्डिग्स " में तभी उपाय बताते हैं। और माना भी जाता है कि आंबेडकर ने नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल होने के िबदले योजना आयोग देने को कहा था। क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक - आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे , वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इक्नामी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। और नेहरु ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से ही नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे। हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर , हिन्दुमहासभा और कई दूसरे संगठनों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरु किया । तो संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार को भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं कर पाये तो 27 सितंबर 1951 को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा , " बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया थ। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये । पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है । आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है । " दरअसल इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी, अंबेडकर और लोहिया कभी राजनीति करते हुये नजर नहीं आयेंगे बल्कि तीनों ही अपने अपने तरह से देश को गढना चाहते थे । और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में तीनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज उनके जीवित रहते हुये उन्हीं लोगों ने किया जो उन्हे अपना बनाते या मानते नजर आये । इसलिये नेहरु या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है , लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढना हा यही सवाल सबसे बडा था । लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुये कश्मीर और रोजगार से होते हुये जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तो को चुना। ध्यान दें तो बीते 70 बरस में देश उन्ही मुद्दो में आज भी उलझा हुआ है । और राजनीतिक सत्ता ही कैसे जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है ।
तो इस सवाल को तो अंबेडकर ने नेहरु के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था । इसलिये आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे । क्योकि उनका साफ मानना था कि चुनाव जाति में सिमटेंगे । जाति राजनीति को चलायेगी । और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी । जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी . और ध्यान दें तो हुआ यही । अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढने के लिये तमाम सवालो को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड थी । और आज दलितो की तादा ही करीब 21 करोड हो चली है । और शिक्षित चाहे 66 फिसदी हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फिसदी है । इतना ही नहीं 70 फिसदी दलित के पास अपनी कोई जमीन नहीं है । और 85 फिसदी दलित की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है । आबादी 16 फिसदी है लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद महज 3.96 फिसदी है । और दलितो के सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है । 2016-17 में शिड्यूल कास्ट सब-प्लान आफ आल मिनिस्ट्रिज का मजह 38,833 करोड दिया गया . जबकि आजादी के लिहाज से उन्हे मिलना चाहिये 77,236 करोड रुपये । पिछले बरस यानी 2015-16 में तो ये रकम और भी कम 30,850 करोड थी । यानी जिस नजरिये का सवाल आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उटाते रहे । उन सवालो के आईने में अगर बाबा साहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों की मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरुरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पीएम ने ये क्यों नहीं कहा कि अंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था। क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और अंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे । यानी देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से उपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बना ब या सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता । यानी जिस नेहरु मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोडने की कोशिश की । और जिस नेहरु मॉडल को लोहिया ने खारिज कर समाजवाद के बीज बोने चाहे। इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही खत्म करने की कोशिश की । जो अब भी जारी है ।
Sunday, April 23, 2017
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आखिर अंबेडकर को पीएम के तौर पर देखने की बात कभी किसी ने क्यों नहीं की ? |
Friday, April 7, 2017
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हिन्दू राष्ट्र की दुहाई कौन दे रहा है ? |
दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिका में 16 फीसदी लोग किसी धर्म को नहीं मानते । लेकिन दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत में सत्ता ही खुद को हिन्दू राष्ट्र बनाने मानने की कुलबुलाहट पाल रही है । ब्रिटेन में करीब 26 फीसदी लोग किसी धर्म को नहीं मानते । लेकिन भारत में सत्ताधारी पार्टी खुले तौर पर ये कहने से नहीं हिचक रही है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र हो जाना चाहिये। यूरोप-अमेरिका के तमाम देशों में हर धर्म के लोगो की रिहाइश है। नागरिक हैं। लेकिन कहीं धर्म के नाम पर देश की पहचान हो ये अवाज उठी नहीं । दुनिया के एक मात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल की पहचान भी दशक भर पहले सेक्यूलर राष्ट्र हो गई। यानी जैसे ही राजशाही खत्म हुये। चुनाव हुये । संविधान बना । उसके बाद नेपाल के 80 फीसदी से ज्यादा नेपाल में रहने वाले हिन्दुओ ने ये अवाज दुबारा नहीं उठायी कि वह नेपाल को हिन्दु राष्ट्र बनाना चाहते हैं। और भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो या हिन्दू महासभा, उसने भी नेपाल के हिन्दू राष्ट्र के तमगे को खूब जीया । इस हद तक की हिन्दुत्व का सवाल आने पर बार बार नेपाल का जिक्र हुआ । लेकिन नेपाल में भी जब राजशाही खत्म हुई और हिन्दू राष्ट्र का तमगा वहां की चुनी हुई सरकार ने खत्म किया तो फिर हिन्दुत्व के झंडाबरदरार संगठनों ने कोई आवाज उठाने की हिम्मत नहीं की । लेकिन भारत में सवाल तो इस लिहाज से उलझ पड़ा है । एक तरफ योदी आदित्यनाथ को हिन्दुत्व का झंडाबरदार दिखाया जा रहा है दूसरी तरफ मोदी इस पर खामोशी बरत रहे हैं। एक तरफ योगी के जरीये हिन्दू महासभा के उग्र हिन्दुत्व की थ्योरी की परीक्षा हो रही है। दूसरी तरफ आरएसएस गोलवरकर से लेकर शेषाद्री तक के दौर में भारत और भारतीय के सवाल से आगे बढ़ना नहीं चाह रहे हैं । एक तरफ योगी के सीएम बनने से पहले मोदी के लिये योगी भी फ्रिंज एलीमेंट ही थे । और मोदी ने पीएम उम्मीदवार बनने से लेकर अभी तक के दौर में बीजेपी के बाहर अपना समर्थन का दायरा इतना बड़ा किया कि वह पार्टी से बड़े दिखायी देने लगे ।
लेकिन मोदी के समर्थन के दायरे में ज्यादातर वही फ्रिंज एलीमेंट आये जो बीजेपी के सत्ता प्रेम में बीजेपी के कांग्रेसीकरण का होना देख मान रहे थे । और मोदी ने दरअसल दिल्ली कूच की तैयारी में बीजेपी के उस प्रोफेशनल पॉलिटिक्स को ही दरकिनार किया, जिसके आसरे सिर्फ चुनाव की जीत हार राजनीतिक मुद्दों पर टिकती । तो इन हालातो में सवाल तीन है । पहला क्या गोरक्षा के नाम पर अलवर में जो हुआ उस तरह की घटना के पीछे कहीं फ्रिंज एलीमेंट को कानूनी जामा तो नहीं पहनाया जा रहा है। दूसरा अगर कानून व्यवस्था के दायरे में फ्रिंज एलीमेंट पर नकेल कसी जायेगी, जैसी हिन्दू वाहिनी के रोमियो स्कावयड पर नकेल कसी जा सकती है तब योगी के महंत का औरा सीएम के संवैधानिक पद से कैसे टकरायेगा और उसके बाद हालात बनेंगे कैसे। और तीसरा योगी के हिन्दुत्व राग से उत्साही समाज से मोदी पल्ला कैसे झाडेंगे ।
ये ऐसे सवाल है जो मोदी और योगी को एक दौर के वाजपेयी और आडवाणी की जोडी के तौर पर बताये जा सकते हैं । लेकिन समझना ये भी होगा वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी चुनावी हिसाब-किताब को सीटो के लिहाज से नहीं बल्कि परसैप्शन के लिहाज से देश को प्रभावित करती थी । यानी वाजपेयी नरम हैं आडवाणी कट्टर है, ये परसेप्शन था । लेकिन मोदी नरम है और योगी कट्टर हैं ये परसैप्शन के आधार पर चल नहीं सकता क्योंकि योगी के हाथ में देश के सबसे बडे सूबे की कमान है। और वहां उन्हें गवर्नैंस से साबित करना है कि उनका रास्ता जाता किधर है। लेकिन समझना ये भी होगा कि एक वक्त जनसंघ के अधिवेशन में ही जब हिन्दू राष्ट्र की प्रस्तावना रखी गयी तो तब के सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने ये कहकर खारिज किया कि जनसंघ को संविधान के आधार पर काम करना चाहिये। और सच यही है कि उसके बाद ही दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म-मानवतावाद की थ्योरी को आत्मसात किया। और जनसंघ ने भी एकात्म-मानवतावाद को ही अपनाया। और तो और दत्तोपंत ठेंगडी ने भी इसी बात की वकालत की थी कि संघ को भी हिन्दुत्व से इतर उस रास्ते को पकड़ना होगा जिसपर हिन्दुत्व धर्म नहीं बल्कि जीवन पद्दति के तौर पर उभरे। यूं आरएसएस के पन्नों को पलटने पर ये भी साफ होता है कि पचास के दशक में हिन्दु राजाओं को भी सेकुलर के तौर पर ही गुरुगोलवरकर ने मान्यता दी । मसलन सम्राट अशोक को हिन्दू राजा नहीं बल्कि सेकुलर राजा के तौर पर ही माना जाता है। तो नया सवाल ये भी निकल सकता है कि फिर एक वक्त के फ्रिंज एलीमेंट माने जाने वाले योगी आदित्यनाथ को संवैधानिक पद, वह भी सीएम की कुर्सी पर क्यों बैठाया गया । क्या ये पहल गौरवशाली हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना तले पनपी । हो जो भी लेकिन 21 वीं सदी में जब भारत की पहचान एक बडे बाजार से लेकर उपभोक्ता समाज के तौर पर कहीं ज्यादा है । दुनिया के तमाम देशों में भारत के प्रफोशनल्स की चर्चा है । और उसके साथ ही शिक्षा से लेकर हेल्थ सर्विस और पीने के पानी से लेकर भूखे भारत का सच संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट तक में दिखायी दे रहा है और ऐसे मोड़ पर भारत में सत्ता के लिये चुनावी जीत उस सोशल इंजीनियरिग पर जा अटकी है, जो जाति-प्रथा को बनाये रखने पर जोर देती है। और वोटो का ध्रुवीकरण धर्म की उस सियासत पर जा टिका है, जहां 20 करोड़ मुसलमानों की कोई जरुरत सत्ता में रहने के लिये सत्ताधारी पार्टी को है ही नहीं । तो फिर आगे का रास्ता जाता किधर है । क्योंकि हिन्दुस्तान का वैभवशाली अतीत भी भारत को हिन्दू राष्ट्र के तौर पर कभी ना तो पहचान दे पाया और ना ही उसका प्रयास किया गया । और मुगलिया सल्तनत से लेकर अंग्रेंजों के दौर में भी हिन्दुओ की तादाद 80 फीसदी रही । लेकिन हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को बदलने के बदले हर सत्ता ने यहां की जीवन पद्दति को अपनाया और संसाधनों की लूट के जरीये अय्याशी की । और राजनीति की इसी अय्याशी को लेकर आजादी के बाद महात्मा गांधी ने आजादी के बाद कांग्रेस की सत्ता को लेकर सवाल भी उठाये । लेकिन आजादी के बाद के 70 बरस के दौर में देश के हर राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी। और गरीब हिन्दुस्तान पर लोकतंत्र की दुहाई देकर राज करने वाले नेताओ के सरोकार कभी आम जनता से जुडे नहीं। तो आखिरी सवाल यही है कि क्या हिन्दू राष्ट्र की दुहाई भारत की अंधेरे गलियों में अतीत की रोशनी भर देती है । या फिर सत्ता के सारे मोहरे चुक चुके हैं तो नारा हिन्दू राष्ट्र का है।
Tuesday, April 4, 2017
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कर्जमाफी किसानों के लिये राहत है या राजनीति के लिये सुकून |
तो देश की इकनॉमी का सच है क्या । क्योंकि एक तरफ 12 लाख 60 हजार करोड़ का कर्ज देशभर के किसानों पर है । जिसे माफ करने के लिये तमाम राज्य सरकारों के पास पैसा है नहीं । तो दूसरी तरफ 17 लाख 15 हजार करोड की टैक्स में माफी उद्योग सेक्टर को सिर्फ बीते तीन वित्तीय वर्ष में दे दी गई । यानी उघोगों को डायरेक्ट या इनटायरेक्ट टैक्स में अगर कोई माफी सिर्फ 2013 से 2016 के दौरान ना दी गई होती तो उसी पैसे से देशभर के किसानो के कर्ज की माफी हो सकती थी । तो क्या वाकई किसान और कारोबारियों के बीच मोटी लकीर खिंची हुई है । या फिर किसान सरकार की प्रथामिकता में कभी रहा ही नहीं । ये सवाल इसलिये क्योकि एक तरफ एनपीए या उगोगो को टैक्स में रियायत देने पर सरकार से लेकर बैंक तक खामोश रहते हैं। लेकिन दूसरी तरफ किसानों की कर्ज माफी का सवाल आते ही महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक के सीएम तक केन्द्रीय सरकार से मुलाकात कर पैसों की मांग करते हैं। और केन्द्र सरकार किसानों का मुद्दा राज्य का बताकर पल्ला झाड़ती है तो एसबीआई चैयरमैन किसानों की कर्ज माफी की मुश्किलें बताती है । तो किसान देश की प्राथमिकता में कहां खड़ा है । ये सवाल इसलिये जिस तरह खेती राज्य का मसला है, उसी तरह उद्योग भी राज्य का मसला होता है । और इन दो आधारों के बीच एक तरफ केन्द्रीय मंत्री संतोष गंगवार ने राज्यसभा में 16 जून 2016 को कहा , उघोगो को तीन बरस [ 2013-2016] में 17 लाख 15 हजार करोड रुपये की टैक्स माफी दी गई । तो दूसरी तरफ कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने नंवबर 2016 में जानकारी दी किसानों पर 12 लाख 60 हजार रुपये का कर्ज है । जिसमें 9 लाख 57 हजार करोड रुपये कमर्शियल बैक से लिये गये है ।
और इसी दौर में ब्रिक्स बैंक के प्रजीडेंट के वी कामत ने कहा कि 7 लाख करोड का एनपीए कमर्शियल बैंक पर है । यानी एक तरफ उघोगो को राहत । दूसरी तरफ उघोगों और कारपोरेट को कर्ज देने में किसी बैक को कोई परेशानी नहीं है। लेकिन किसानों के कर्ज माफी को लेकर बैंक से लेकर हर सरकार को परेशानी। जबकि देश का सच ये भी है कि जितना लाभ उठाकर उघोग जितना रोजगार देश को दे नही पाते, उससे 10 गुना ज्यादा लोग खेती से देश में सीधे जुड़े हैं। आंकड़ों के लिहाज से समझें तो संगठित क्षेत्र में महज तीन करोड रोजगार हैं। चूंकि खेती से सीधे जुड़े लोगों की तादाद 26 करोड है। यानी देश की इक्नामी में जो राहत उघोगों को, कारपोरेट को या फिर सर्विस सेक्टर में भी सरकारी गैर सरकारी जितना भी रोजगार है, उनकी तादाद 3 करोड़ है । जबकि 2011 के सेंसस के मुताबिक 11 करोड 80 लाख अपनी जमीन पर खेती करते है । और 14 करोड 40 लाख लोग खेत मजदूर है । यानी सवा करोड की जनसंख्या वाले देश की हकीकत यही है कि हर एक रोजगार के पीछ अगर पांच लोगों का परिवार माने तो संगठित क्षेत्र से होने वाली कमाई पर 15 करोड़ लोगों का बसर होता है। वहीं खेती से होने वाली कमाई पर एक सौ दस करोड़ लोगों का बसर होता है । और इन हालातों में अगर देश की इक्नामी का नजरिया मार्केट इक्नामी पर टिका होगा या कहे पश्चिमी अर्थवयवस्था को भी भारत अपनाये हुये है तो फिर जिन आधारों पर टैक्स में राहत उद्योगों को दी जाती है । या बैंक उद्योग या कारपोरेट को कर्ज देने से नहीं कतराते तो उसके पीछे का संकट यही है कि अर्थशास्त्री ये मान कर चलते है कि खेती से कमाई देश को नहीं होगी । उद्योगों या कारपोरेट के लाभ से राजस्व में बढोतरी होगी ।
यानी किसानों की कर्ज माफी जीडीपी के उस हिस्से पर टिकी है जो सर्विस सेक्टर से कमाई होती है । और देश का सच भी यही है खेती पर चाहे देश के सौ करोड़ लोग टिके है लेकिन जीडीपी में खेती का योगदान महज 14 फिसदी है । तो इन हालातो में जब यूपी में किसानों की कर्ज माफी का एलान हो चुका है तो बीजेपी शासित तीन राज्यों में हो क्या रहा है जरा इसे भी देख लें। मसलन हरियाणा जहा किसान का डिफॉल्टर होना नया सच है
। आलम ये कि हरियाणा के 16.5 लाख किसानों में से 15.36 लाख किसान कर्जदार हैं । इन किसानों पर करीब 56,336 करोड़ रुपए का कर्ज है, जो 2014-15 में 40,438 करोड़ रुपए था । 8.75 लाख किसाने ऐसे हैं, जिन्होंने कमर्शियल बैंक, भूमि विकास बैंक, कॉपरेटिव बैंक और आणतियों से कर्ज लिया हुआ है । और कर्ज के कुचक्र में ऐसे फंस गए हैं कि अब कर्ज न निगलते बनता है न उगलते।
किसानों की परेशानी ये है कि वो फसल के लिए बैंक से कर्ज लेते हैं। ट्रैक्टर, ट्यूबवैल जैसी जरुरतों के लिए जमीन के आधार पर भूमि विकास बैंक या कॉपरेटिव सोसाइटी से लोन लेता है। मौसम खराब होने या फसल बर्बादी पर कर्ज का भुगतान नहीं कर पाता तो अगली फसल के लिए आढ़तियों के पास जाते हैं। और फिर फसल बर्बादी या कोई भी समस्या न होने पर डिफॉल्टर होने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। लेकिन-अब यूपी में जिस तरह किसानों का कर्ज माफ हुआ है, हरियाणा के किसान भी यही मांगने लगे हैं। और दूसरा राज्य है राजस्धान । जहा किसानो को कर्ज देने की स्थिति में सरकार नहीं है । लेकिन राजस्धान का संकट ये है कि एक तरफ कर्ज मांगने वाले किसानो की तादाद साढे बारह हजार है तो दूसरी तरफ वर्ल्ड बैंक से किसानो के लिये जो 545 करोड रुपये मिले लेकिन उसे भी सरकार खर्च करना भूल गई और इसी एवज में जनता का गाढ़ी कमाई के 48 करोड़ रुपए अब ब्याज के रुप में वसुधंरा सरकार वर्ल्ड बैंक को भरेगी । दरअसल वर्ल्ड बैंक के प्रोजेक्ट की शुरुआत 2008 में हुई थी,जब वसुंधरा सरकार ने राजस्थान एग्रीकल्चर कांपटिटवेसन प्रोजेक्ट बनाया था और
फंडिंग के लिए वर्ल्ड बैंक को भेजा गया था । वर्ल्ड बैंक के इस प्रोजेक्ट के तहत कृषि, बागवानी, पशुपालन, सिंचाई और भूजल जैसे कई विभागों को मिलकर किसानों को कर्ज बांटने की योजना थी । वसुंधरा सरकार गई तो कांग्रेस की गहलोत सरकार आई और उसने 2012 में फंडिंग के लिए 832 करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट वर्ल्ड बैंक को दिया । वर्ल्ड बैंक ने 545 करोड़ रुपए 1.25 फीसदी की ब्याज दर पर राजस्थान सरकार को दे दिए. लेकिन 2016 तक इसमें से महज 42 करोड़ ही सरकार किसानों को बांट पाई ।यानी एक तरफ किसानों को कर्ज नहीं मिल रहा। और दूसरी तरफ वर्ल्ड बैंक के प्रोजेक्ट के तहत जो 545 करोड़ रुपए में से जो 42 करोड बांटे भी गये वह किस रुप में ये भी देख लिजिये । 17 जिलों में यंत्र, बीज और खाद के लिए सिर्फ 14 लाख 39 हजार रुपए बांटे गए । फल, सब्जी, सोलर पंप के लिए 3 लाख 13 हजार रुपए। जल संग्रहण के लिए 7 लाख दो हजार रुपए बांटे गए । पशुपालन के लिए 2 लाख 19 हजार रुपए दिए ।नहरी सिंचाई निर्माण के लिए 2 लाख 36 हजार रुपए दिए गए । और भू-जल गतिविधियों के लिए 11 लाख 50 हजार रुपए बांटे गए । यानी सवाल सरकार का नहीं सरोकार का है । क्योकि अगर सरकार खजाने में पैसा होने के बावजूद जनकल्याण का काम सरकार नहीं कर सकती तो फिर सरकार का मतलब क्या है। और तीसरा राज्य महाराष्ट्र जहां बीते दस बरस से किसानो का औसत खुदकुशी का आलम यही है कि हर तीन घंटे में एक किसान खुदकुशी करता है । खुदकुशी करने वाले हर तीन में से एक किसान पर 10 हजार से कम का कर्ज होता है । हालात है कितने बदतर ये 2015 के एनसीआरबी के आंकडों से समझा जा सकता है । 2015 में 4291 किसानों ने खुदकुशी की । जिसमें 1293 किसानो की खुदकुशी की वजह बैक से कर्ज लेना था । जबकि 795 किसानो ने खेती की वजह से खुदकुशी की । यानी खुदकुशी और कर्ज महाराष्ट्र के किसानों की बड़ी समस्या है, जिसका कोई हल कोई सरकार निकाल नहीं पाई।
और अब यूपी में किसानों की कर्ज वापसी के बीच महाराष्ट्र के देवेन्द्र फडणवीस सरकार पर ये दबाव पड़ना तय है कि वो भी महाराष्ट्र के किसानों के लिए कर्जवापसी की घोषणा करें। क्योंकि विपक्ष और सरकार की सहयोगी शिवसेना लगातार ये मांग कर रहे हैं और महाराष्ट्र में कई जगह धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं। यानी यूपी की कर्जमाफी किसानो के लिये राहत है या राजनीतिक के लिये सुकून । इसका फैसला भी अब हर चुनाव में होगा। .