एसबीआई [2466], बैंक आफ बड़ौदा [782] ,बैंक आफ इंडिया [579], सिंडीकेट बैंक [552],सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया [527], पीएनबी [471], यूनियन बैंक आफ इंडिया [368], इंडियन ओवरसीज बैंक[342],केनरा बैंक [327], ओरियंट बैंक आफ कामर्स[297] , आईडीबीआई [ 292 ], कारपोरेश बैंक[ 291], इंडियन बैंक [ 261],यूको
बैंक [ 231],यूनिईटेड बैंक आफ इंडिया [ 225 ], बैंक आफ महाराष्ट्र [ 170],आध्रे बैंक [ 160 ], इलाहबाद बैंक [ 130 ], विजया बैंक [114], देना बैंक [105], पंजाब एंड सिंघ बैंक [58] ..ये बैंकों में हुये फ्रॉड की लिस्ट है। 2015 से 2017 के दौरान बैंक फ्रॉड की ये सूची साफ तौर पर बतलाती है कि कमोवेश हर बैंक में फ्रॉड हुआ। सबसे ज्यादा स्टेट बैंक में 2466। तो पीएनबी में 471 । और सभी को जोड दिजियेगा तो कुल 8748 बैंक फ्रॉड बीते तीन बरस में हुआ । यानी हर दिन बैंक फ्रॉड के 8 मामले देश में होते रहे । वैसे सरकार की इतनी सफलता जरुर है कि बरस दर बरस बैंक फ्रॉड में इंच भर की कमी जरुर आयी है। मसलन, 2015 में सबसे ज्यादा 3243 बैंक फ्रॉड हुये। तो 2016 में 2789 बैंक फ्रॉड। 2017 में 2716 बैंक फ्रॉड। पर सवाल सिर्फ बैंक फ्रॉड भर का नहीं है। सवाल तो ये है कि बैंक से नीरव मोदी मेहूल चौकसी और माल्या की तर्ज पर कर्ज लेकर ना लौटाने वालों की तादाद की है। और अरबों रुपया बैंक का बैलेस शीट से हटाने का है। और सरकार का बैंको को कर्ज का अरबो रुपया राइट आफ करने के लिये सहयोग देने का है । यानी सरकार बैंकिंग प्रणाली के उस चेहरे को स्वीकार चुकी है, जिसमें अरबो रुपये का कर्जदार पैसे ना लौटाये । क्योकि क्रेडिट इनफारमेशन ब्यूरो आफ इंडिया लिमिटेड यानी सिबिल के मुताबिक इससे 1,11,738 करोड का चूना बैंकों को लग चुका है। और 9339 कर्जदार ऐसे है जो कर्ज लौटा सकते है पर इंकार कर दिया। और पिछले बरस सुप्रीम कोर्ट ने जब इन डिफाल्टरों का नाम पूछा तो रिजर्व बैंक की तरफ से कहा गया कि जिन्होने 500 करोड से ज्यादा का कर्ज लिया है और नहीं लौटा रहे है उनके नाम सार्वजनिक करना ठीक नहीं होगा। अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। तो ऐसे में बैंकों की उस फेरहिस्त को पढिये कि किस बैंक को कितने का चूना लगा और कर्ज ना लौटाने वाले है कितने।
तो एसबीआई को सबसे ज्यादा 27716 करोड का चूना लगाने में 1665 कर्जदार हैं। पीएनबी को 12574 करोड का चूना लगा है और कर्ज लेने वालो की तादाद 1018 है। इसी तर्ज पर बैंक आफ इंडिया को 6104 करोड़ का चूना 314 कर्जदारो ने लगाया। बैंक आफ बडौदा को 5342 करोड का चूना 243 कर्जदारों ने लगाया। यूनियन बैंक को 4802 करोड का चूना 779 कर्जदारों ने लगाया। सेन्ट्रल बैंक को 4429 करोड का चूना 666 कर्जदारों ने लगाया। ओरियन्ट बैंक को 4244 करोड का चूना 420 कर्जदारो ने लगाया। यूको बैंक को 4100 करोड का चूना 338 कर्जदारों ने लगाया। आंध्र बैंक को 3927 करोड का चूना 373 कर्जदारों ने लगाया। केनरा बैंक को 3691 करोड का चूना 473 कर्जदारों ने लगाया। आईडीबीआई को 3659 करोड का चूना 83 कर्जदारों ने लगाया। और विजया बैंक को 3152 करोड़ का चूना 112 कर्जदारों ने लगाया । तो ये सिर्फ 12 बैंक हैं। जिन्होंने जानकारी दी की 9339 कर्जदार है जो 1,11,738 करोड नहीं लौटा रहे हैं। फिर भी इनके खिलाफ कोई कार्रवाई हुई नहीं है उल्टे सरकार बैंकों को मदद कर रही हैं कि वह अपनी बैलेस शीट से अरबो रुपये की कर्जदारी को ही हटा दें। ये सिलसिला कोई नया नहीं है। मनमोहन सरकार के दौर में भी ये होता रहा। पर मौजूदा दौर की सत्ता के वक्त इसमें खासी तेजी आ गई है। मसलन, 2007-08 से 2015-16 तक यानी 9 बरस में 2,28,253 करोड रुपए राइट आफ किये गये । तो 2016 से सितबंर 2017 तक यानी 18 महीने में 1,32,659 करोड़ रुपए राइट आफ कर दिये गये। यानी इक्नामी का रास्ता ही कैसे डि-रेल है या कहें बैंक से कर्ज लेकर ही कैसे बाजार में चमक दमक दिखाने वाले प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं ये उन कर्जदारों के भी समझा जा सकता हैं, जिन्होंने कर्ज लिये है। कर्ज लौटा भी सकते है पर कर्ज लौटा नहीं रहे हैं। और बाजार में अपने ब्रांड के डायमंड से लेकर कपड़े, फ्रीज से लेकर दवाई तक बेच रहे हैं। तो ऐसे में अगला सवाल यही है कि देश में लोकतंत्र भी क्या रईसों के भ्रष्ट मुनाफे पर टिका है । क्योंकि देश की इक्नामी के तौर तरीके उसी चुनावी लोकतंत्र पर जा टिके है जिसके दायरे में चंदा देने वाले नियम कायदे से उभर होते हों। और अधिकतर राजनीतिक फंड देने वाले ही बैंकों के कर्जदार हैं। तो अगला सवाल यही है कि क्य़ा देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये। तो जरा इस सच को भी समझना जरुरी है कि भारत में चुनाव का शोर ही लोकतंत्र की तस्दीक करता है ।
यानी एक तरफ हर नागरिक के लिये एक वोट। तो दूसरी तरफ वोट के लिये राजनीतिक दलों की रैली हंगामा। पर लोकतंत्र का ये अंदाज कैसे करोड़ों रुपये प्रचार में प्रचार में बहाता है। राजनीतिक दलो को करोडों रुपये कौन देता है। करोडों रुपये के एवज में दान देने वाले के क्या मिलता है। इस सवाल पर हमेशा खामोशी बरती गई। पर जिस तरह बैंकों के जरीये रईसो की लूट अब सामने आ रही है और बैंकों से कर्ज लेकर देश से रफूचक्कर होने का जो हंगामा मचा हुआ है। उस पर पीएम मोदी की खामोशी पर अगर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब बोको को चूना लगाने वाले रईसो के जरीये राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी फंड से जोड रहे है तो शायद गलत भी नहीं है। क्योंकि चुनावी लोकतंत्र के 70 बरस के दौर राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग में सबसे ज्यादा इजाफा पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही हुआ। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2015-16 के बीच बीजेपी को 705 करोड़ रुपये की कारपोरेट-व्यापारिक घरानो से फंडिंग मिली। कांग्रेस को 198 करोड रुपये मिले। बीजेपी को मिलने वाली रकम कितनी ज्यादा है ये इसी बात से समझा जा सकता है कि इससे पहले के दो लोकसभा चुनाव यानी 2004 से 2011-12 के बीच कुल कारपोरेट फंडिग ही 378 करोड 78 लाख रुपये की हुई। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि क्या जिन्होने राजनीतिक फंड दिया उसकी एवज में उन्हें क्या मिला। खासकर तब जब बैंको से कर्ज लेकर अरबों के वारे न्यारे करने वाले कारपोरेट-उघोगपतियों की वह कतार सामने आ रही है और जो बैंक कर्ज नहीं लौटाते पर फोर्ब्स की लिस्ट में अरबपति होते है । नीरव मोदी का नाम भी
2017 की फोर्बस लिस्ट में थे । तो अगला सवाल यही है कि क्या अर्थव्यवस्था का चेहरा इसी नींव पर टिका है जहा सिस्टम ही रईसो के लिये हो । और आखिरी सवाल यही कि चुनाव पर टिके लोकतंत्र पर निगरानी करने वाले चुनाव आयोग तक के पास राजनीतिक दलों को मिले चंदे के बारे में पूरी जानकारी तक नहीं है। क्योंकि राष्ट्रीय दल भी नहीं बताते है कि उन्हे कितनी रकम कहां से मिली। और ना बताने का ये खेल 20 हजार रुपये के फंड की जानकारी ना देने से लेकर फंड के लिये बने कारपोरेट बांड तक से खुल कर उभर रहा है । पर लोकतंत्र ही
खामोश है क्योंकि लोकतंत्र का मतलब चुनाव है। जो वोटरों से ज्यादा राजनीतिक दलों का खेल है।
Wednesday, February 21, 2018
[+/-] |
लोकतंत्र के नाम पर लूट को क्या कहिएगा ? |
Monday, February 19, 2018
[+/-] |
मोदी के "दो शब्द" बोलने का इंतजार करता देश |
तो जिस दौर में अरबों-खरबों लेकर फरार होने या ना चुकाने का चलन हो चुका है, उस दौर में रविवार को फिर ये खबर आ गई कि पंजाब के तरण तारण में मुख्त्यार सिंह ने 8 लाख के कर्ज तले खुदकुशी कर ली। तो मध्यप्रदेश के छतरपुर में द्रगपाल सिंह ने डेढ लाख के कर्ज को ना लौटा पाने के भय तले आत्म हत्या कर ली । तो संदेश साफ है । नियम-कायदे सबके लिये एक सरीखे नहीं हैं। क्योंकि एक तरफ रईस कर्ज लेकर फरार हो जाता है। देश छोड़ देता है और गरीब किसान कर्ज तले खुदकुशी कर लेता है। शनिवार को महाराष्ट्र में परभणी के गणेश किशनराव । बीड के दिलिप आत्माराम और -वर्धा के सुधाकर मदुजी ने भी खुदकुशी कर ली और ऐसे वक्त में प्रधानमंत्री मोदी खामोश हैं। वित्त मंत्री अरुण जेटली खामोश हैं । जांच एजेंसी सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स हरकत में है। रिजर्व बैक सहमा हुआ है तो संयम में है। और सार्वजनिक बैंकों की पूरी कतार ही संदेह के घेरे में है तो बैक को लेकर हर कोई हर सवाल खड़ा कर रहा है। जिस सीबीआई को सत्ता का तोता तक बताया गया अब उसी की जांच के आसरे ही बैंकों की साख बचाने और क्रोनी कैपिटलिज्म का खेल खुलने की उम्मीद लगायी जा रही है । पर जांच के दौर में जो उभर रहा है उसमें रईसों के पॉलिटिकल पावर के साथ नैक्सेस से बैंकों का नतमस्तक होना सामने आ रहा है। बैंक का संचालन तक रईसों के इशारे पर उभर रहा है। बैंकों को बचाये रखने के लिये रईसो के कर्ज को बट्टा खाता में डालने की पॉलिसी उभर रही है। बैंकों के देसी-विदेशी शाखाओं के बीच तालमेल ना होना भी उभर रहा है।
यानी नीरव मोदी औरक मेहुल चौकसी की लूट ने बैंक प्रणाली का एक ऐसा सिस्टम उभारा है जिसकी परते अगर खुलती गई तो फिर राजनीति के साथ लोन लेने वाले रईसों की निकटता भी सामने आयेगी। एनपीए का गोरखधंधा और कर्ज को राइटऑफ करने वाले हालात भी सामने आयेंगे । जनता के पैसे पर निगरानी रखना और बिना निगरानी रईसों को लोन देना भी सामने आयेगा । यानी ये ऐसे सवाल है पर जिसपर सरकार को इसलिये बोलना चाहिये क्योंकि 1991 में बाजार इक्नामी का दरवाजा जिस प्रधानमंत्री ने खोला । संयोग से उसी पीएम पर शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता ने शपथ पत्र के जरीये घूस देने का सार्वजनिक आरोप लगाया । याद कीजिये 16 जून 1993 को शेयर ब्रोकर हर्षद मेहता ने तत्कालिन पीएम राव को एक करोड की घूस देने का आरोप सार्वजनिक तौर पर लगाया । लेकिन न तो झूठा आरोप लगाने के आरोप में हर्षद मेहता को सजा हुई और न ही घूस लेने के आरोप में नरसिम्हा राव को। नतीजतन देश में भ्रष्टाचार बढ़ता चला गया.। और 1993 में ही वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में लिखा भी गया कि कैसे क्रोनी कैपिटिलिज्म का खेल हो रहा है । कैसे सत्ता की करप्शन में भागेदारी है । तो पीएम को कुछ बोलना तो चाहिये। पर संकट देखिये सीबीआई हरकत में है।
पीएनबी की जिस शाखा से घोटाला हुआ उसे सील कर दिया गया है । 24 घंटे के भीतर सील हटा लिया गया । तो शक किसपर होगा । पीएनबी ने जिन 10 कर्मचारियों को सस्पेंड किया है । उनसे पूछताछ कर रही है । विशेष पूछताछ पूर्व कर्मचारी गोकुल नाथ शेट्टी से हो रही है जिसे खेल में महत्वपूर्ण मास्टमाइंड माना जा रहा है । सीएफओ विपुल अंबानी से पूछताछ हो रही है। गीताजंली समूह की 18 सहायक कंपनियों की बैलेंस शीट परखी जा रही है। इसके अलावे सीबीआई उन 200 फर्जी कंपनियो के दस्तावेजों को परख रहा है, जिनकी जरीये लोन की रकम छुपायी जाती थी। और पूछताछ में दो विपरित तथ्य उभरे है। एक तरफ कहा जा रहा है कि एलओयू के फर्जी दस्तावेजों को अधिकारी पकड़ सकते थे। तो दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि एलओयू के दस्तावेजों के लिये स्विफ्ट सिस्टम में लाग इन के लिये अकाउट डिटेल और पासवर्ड नीरव की टीम के पास था । यानी एक तरफ पूछताछ में ये निकल रहा है कि एलओयू के लिये सिवफ्ट सिस्टम के पासवर्ड के जरीये नीरव मोदी की टीम के लोग पीएनबी अधिकारी के तौर पर अवैध तरीके से स्विफ्ट सिस्टम में लॉग इन करते थे । सूत्रों की मानें तो आरोपियों को बदले में कमीशन मिलता था। हर एलओयू और स्विफ्ट सिस्टम के अवैध एक्सेस पर प्रतिशत तय था। यह रकम घोटाले में शामिल कर्मचारियों के बीच बंटती थी ।
पर सीबीआई के सूत्र इस बात से भी इंकार नहीं कर रहे है कि पीएनबी इसे आंतकरिक जांच की तरफ ले जाना चाहती है । इसलिये पूछताछ में कहा गया कि एएलय़ू में तरह की विसंगतियां थीं, जिन्हें आसानी से पकड़ा जा सकता था। यानी बैकिंग प्रणाली के तौर तरीकों के लिहाज से समझे तो कोई आसानी से बैंकों के साथ घोखाधड़ी कर नहीं सकता है । और नीरव मोदी के मामले में हालात को परखे तो बैंकिंग सिस्टम में कोई भी खरप्शन के आसेर घुस सकता है। तो ऐसे में अगला सवाल यही है कि क्या एनपीए के खेल में बैंकिंग सिस्टम ही दीवालिया होने के हालात में तो नहीं हैं। क्योंकि बीते साझे पांच बरस में देश के 27 सरकारी और 22 निजी क्षेत्र के बैंकों ने 3 लाख 67 हजार 765 करोड़ रुपये राइटऑफ कर दिए । रिजर्व बैंक के ही मुताबिक 2012-2013 में 32127 करोड़, 2013-14 में 40870 करोड़, 2014-15 में 56144 करोड़, 2015-2016 में 69210 करोड, 2016-17 में 103202 करोड़ । 2017-18 के शुरुआती छह महीनो यानी अप्रैल से सितबंर तक 66162 करोड़ । और बीते पांच बरस के दौर में देश के बैंकों ने इतनी रकम को या तो डूबा हुआ मान लिया या कहें अपनी बैलेंस शीट से ही हटा दिया । यानी देश के 27 सार्वजनिक बैंक और 22 निजी क्षेत्रों के बैंकों ने 367765 करोड रुपये राइटआफ कर दिया । इन आंकडों के भीतर का सच ये है कि सरकारी बैंकों ने प्राइवेट बैंकों के मुकाबले लगभग पांच गुना रकम राइट आफ कर दी । साढे पांच बरस के दौर में निजी बैंकों ने 64187 करोड राइट आफ की। तो सार्वजनिक बैंकों ने 303578 करोड की राशि राइट आफ की । तो अगला सवाल यही है कि क्या बैंकों के जरीये रईसों का लोन लेना और ना लोटाना इतना आसान हो चला है कि बैक अपनी साख बनाये रखने के लिये लोन की रकम बट्टे खाते में डाल रहे है । यानी कोई बैक नहीं चाहता है कि उसकी बैलेस शीट में बकाया नजर आये । तो इसमें सरकार ही मदद करती है । तो बैक की बैलेस शीट चाहे इससे साफ सुधरी नजर आये पर पर सच तो यही है कि लोन की रकम आम उपभोक्ताओ की है । उपभोक्ताओं का भरोसा बैंकों से डिगेगा । तो फिर बैक दिवालियेपन की तरफ बढेंगे। और कैसे बैंकों के लिये हालात खराब हो रहे है ये इससे भी समझा जा सकता है जिन उद्योग या व्यक्तियों की कर्ज की रकम को राइट ऑफ किया जाता है, उनकी संपत्तियों पर बैंकों को नजर रखना चाहिए, मगर ऐसा होता नहीं हैं . और जानते हुये कि पहले कर्ज लेकर फंला रईस ने कर्ज नहीं लौटाया फिर भी उस रईस को दुबारा कर्ज दिया जाता है क्योंकि ऐसे में वही व्यक्ति दूसरी कंपनी बनाकर कर्ज लेने की कतार में लग जाता है । और ध्यान दिजिये तो इसी दौर में बैको में भी कंपटिशन है । और कर्मचारी के उपर दवाब होता है कि वह लोन लेने वालो का जुगाड करे । उनका अपना टारगेट होता है । और परिणाम इसी का है कि विजय माल्या 9000 करोड़ । नीरव मोदी ने 11500 करोड़ का चूना लगाया । और इस कडी में एक नाम रोटोमैक्स के विक्रम कोठारी का आया। जिन्होंने 800 करोड का कर्ज लिया । वैसे कोठारी की फाइल भी खुली तो मामला 3000 करोड तक का सामने आया । इलाहबाद बैंक से 375 करोड़ । यूनियन बैंक से 432 करोड़ । इंडियन ओवरसीज बैंक से 1400 करोड़ । बैंक आफ इण्डिया से 1300 करोड़ । बैंक आफ बड़ौदा से 600 करोड़ । तो ऐसे में ये फेरहिस्त कितनी लंबी होगी कहा रुकेगी । कोई नहीं जानता । क्योकि आवारा पूंजी ने अब देश के सामने सवाल खडे किये है कि आम जन की किमत पर रईसो की रईसी कूतक चलेगी । और बीते 3 बरस में जो 18 हजार रईस देश छोड गये उनमें कोई घोटालेबाज या कहें कर्ज लेकर भागने वाला नहीं होगा । इसकी गांरटी लेते हुये ही पीएम मोदी दो शब्द बोल दें तो भी चलेगा।
Sunday, February 18, 2018
[+/-] |
सोचिए जब अच्छे पत्रकार-जज-नौकरशाह-प्रोफेसर ना होंगे ? |
जो हालात मीडिया के हैं, जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, उसमें ये सवाल तो जहन में आता ही है कि जब हालात बदलेंगे, तब कौन सी पत्रकारिता होगी। क्या मौजूदा वक्त की पत्रकारिता और मीडिया संस्धानों की भूमिका 2019 की चुनाव के तर्ज पर जनादेश के साथ बदल जायेगी। ये सवाल उतना ही मौजूं है, जितना मौजूं है 2014 के सपनों का चौथे बरस में फंस जाना । याद किजिये 2014 में समूचा मिडिल क्लास किस रौ में बह रहा था। किस उम्मीद और आस को पाले हुआ था । और देश के भीतर चली गुजरात की हवा एक ऐसे मॉडल के तौर उभर रही थी जिसमें शहर में कारपोरेट के लिये सुनहरी हवा थी । गांव या कहे हाशिये पर पड़े गुजरात के ग्रामीण जीवन के लिये आभासी मॉडल था कि दुनिया शहरों में बदली है तो गांव में भी बदल जायेगी। और यही इल्यूजन जब 2014 से 2017 तक देश की हवा में समाया तो पहला लाभ साथ खड़े कारपोरेट को मिला। लकीर बारीक है पर पहले तीन बजट का लाभ बाखूबी उस बाजार इक्नामी के जरीये सत्ता के करीबियो ने उठाया जो पूंजी से पूंजी बनाने के खेल में माहिर थे। पूंजी देश की, मुनाफा निजी। और इस निजीपन के मुनाफे के दौर ने ही चुनावी राजनीति को महंगा दर महंगा किया । कैसे एक राजनीतिक पार्टी सरकार से बड़ी हो गई । नगालैंड-त्रिपुरा सरीखा छोटा सा राज्य हो या यूपी - गुजरात सरीखा बडा राज्य । चुनाव प्रचार कितना महंगा हुआ । कितना पैसा बहा--बहाया गया । कहां से आ रहा है इतना रुपया । और कहा से आता रहा ये रुपया । कोई राजनीतिक दल ना तो फैक्ट्री चलाता है या ना ही कोई इंडस्ट्री । जो उत्पादन हो । माल बिके । मुनाफा हो । और उस पैसे के बूते चुनावी प्रचार-प्रसार में बे-इंतिहा रुपया बहाया जाये । कोई तो होगा जो पूंजी देता होगा । कोई तो होगा जो पूंजी के बदले ज्यादा बडा मुनाफा बनाने की सोच पाले हुआ होगा । फिर वही सवाल लकीर महीन है इसे समझे । चौथे बजट को ही परख लें । हेल्थ इंश्योरेन्स । पांच लाख के इश्योरेन्स के लिये कम से कम तो पांच हजार रुपये सालाना किश्त तो देनी ही होगी ।
पर ये अगर 50 से पांच सौरुपये में होने लगे तो कौन सी इंशोरेन्स कंपनी करेगी । हां , अगर कोई पूछने वाला ना हो कि किसे इश्योरेन्स मिला या नहीं तो फिर कोई भी कंपनी करने को तैयार होगी । तो किस कंपनी को देश के 50 करोड लोगों के हेल्थ इंशोरेन्स का पैसा मिला । इस खबर का इंतजार अभी करना होगा । क्योकि कम से कम 2 अक्टूबर से लागू होने के बाद अक्टूबर 2019 तक तो रुकना ही होगा । उसी के बाद पता चलेगा किस कंपनी को कितना लाभ इंशोरेन्स से हो गया । जैसे फसल बीमा की रकम किसान तक पहुंचती नहीं । पहुंचती है तो वह बीस फिसदी से कम होती है । बाकि 80 फिसदी रकम किस कंपनी ने किसानों को दिया नहीं । उसका कच्चा-चिट्टा धीरे धीरे ...छोटे छोटे आंकडों के साथ आ तो रहा है । और मैगजीन " डाउन टू अर्थ " धीरे धीरे आंकडे उभार भी रही है । पर मुश्किल ये नही है कि लूट कितनी हो रही है । कैसे हो रही है ।
मुश्किल तो ये है कि इक्नामी ने जो रास्ता पकड लिया है उसमें करप्शन पकडने वाली तमाम एंजेसिया ही उस इक्नामी से जुड गई है जो इक्नामी करप्शन होने देने पर अंगुली उठाये तो अंगुली उठाने वाले की इक्नामी डगमगायेगी । और खामोश रहे तो संस्धान डगमगायेगें । यानी सवाल इतना भर नहीं है कि मीडिया संस्धानों को कैसे जकडा जा रहा है या जकड़ा गया है । बल्कि नये परिवेश में मीडिया संस्धानों के भीतर होने वाली पत्रकारिता भी उसी हवा की कायल हो चली है जिस हवा को सियासत बहा रही है । क्योंकि हवा का रुख जब सरोकार की राजनीति के लिये अंत्योदय की बात करें और सरोकार से कटकर सेन्ट्रल एसी से अभीभूत होकर किसी कारपोरेट को भी मात देने वाले दफ्तर से बेहतर पार्टी दफ्तर खोल कर उर्जावान हो चला हो, तब ये सवाल पत्रकारिता कैसे उठायेगी कि खर्च कौन उठा रहा है । खर्च कौन उठायेगा । क्योंकि लुटियन्स की दिल्ली पर तो राष्ट्रकवि रानधारी सिंह दिनकर ने भी ये कहकर सवाल उठाये थे कि "भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में। / दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में। " पर दिनकर के जहन में भी संसद थी । सांसदों के गैर सरोकार थे । पर अब तो संसद से बड़े राजनीतिक दल हो चले है । उनके खर्चे हो चले है । उन्हे भोगने वाले हो चले हैं । तो कौन सी इक्नामी किस तरह विकास-दर के सारे मापदंड को खारिज करते हुये बीपीएल शब्द भी बोल लेती है और दीन दयाल उपाध्याय के समाज के आखरी व्यक्ति तक पहुंचने की थ्योरी को भी जिन्दा रख लेती है । ये समझ हिन्दुस्तान में कब कैसे विकसित हो गई इसका पाठ पत्रकार कहां अब कहां पढ़ेगा । और कैसे करेगा जब मुनाफे की थ्योरी राजनीतिक सत्ता के आसरे जा टिकी हो । संस्धानों ने काम करना बंद तो नहीं किया उल्टे ज्यादा तेजी से करने लगे कि जो उपर सोचा जा रहा है उसी सोच को बरकरार रखा जाये । यानी एक ही तरह की सोच के साथ समूचे देश को हांकने का जब प्रयास हो रहा हो तब देश एक सूत्र में कैसे पिरोया जायेगा । इस सोच के आसरे शिक्षा में भी बदलाव होगा । तो सवाल सिर्फ भविष्य में पत्रकार खोजने भर का नहीं है बल्कि छात्रों को भी खोजना होगा। जो क्रिटिकल हो । जो सवाल-जवाब कर सकते हो ।
मसलन देश के चार-पांच प्रमुख यूनिवर्सिटी को लेकर कोई कुछ कह तो नहीं रहा है लेकिन जो कालेज चलाते है। जो यूनिवर्सिटी को करीब से देख समझ रहे है , इनसे मिल कर हवा के रुख को को तो पढ़ा ही जा सकता है । जेएनयू, डीयू , बीएचयू , एयू सरीखे यूनिवर्सटी का बजट कम कर दिया गया है । जिससे कालेज खुद वहा का प्रबंधन चलाये । वही व्यवस्था करें कि कैसे कमाई होगी । हो सकता है अलगी खेप में यूनिवर्सिटी भी कारपोरेट के हिस्से में चली जाये । फिर वहीं कोर्स भी तय करें । और जिस तरह किसानो को कहा जाता है कि सिर्फ नकदी फसल वह क्यो नहीं उपजाते है । तो कोर्स भी मार्केट इक्नामी को देख कर होनी । और इस कतार में इतिहास या राजनीतिशास्त्र य़ा फिर हिन्दी साहित्य कहां मायने रखेगा । जो छात्र यूनिवर्सिटी में पढेगें उन्हे रोजगार अनुरुप पढाया जाये । सरकार को यूनिवर्सिटी को कुछ बजटदेने के बदले टैक्स के तौर पर यूनिवर्सिटी चलाने
वाले कारपोरेट ही कुछ देने लगगें । तो आने वाले दौर में यूनिवर्सटी से ना तो शरद यादव , रविशंकर प्रसाद , लालू यादव या नीतिश कुमार सरीखे नेता निकलेंगे । ना ही कन्हैया कुमार या शाइला रशीद सरीखे छात्र सवालो को करते ही दिखायी देंगे । तो सोचिये लकीर को वाकई बारीक है । देश के गेंहू से सस्ता आयतित गेंहू है । दाल है । चीनी है । सेब-अमरुद है । देश खादान से निकाले जाने वाले कोयले से सस्ता इंडोनेशिया-मलेशिया से आने वाला कोयला है । तो फिर अग्रेजो ने देश में कर्लक पैदा किया । आधुनिक हिन्दुस्तान देश में सेवा-मजदूरो पैदा करेगा । 10 से 12 वी पास और आईटीआई की ट्रेनिग से ज्यादा क्या चाहिये । हालात परखें तो बीते हफ्ते दिल्ली में दो दिन का रोजगार मेला रहा । 10 से 15 हजार रुपये की महीने की नौकरी और 10 से 12 वीं की पढ़ाई से आगे बात कहा गई । रेलवे में भी भर्तियां निकली पर न्यूनतम शिक्षा वहीं 10 से 12 वी पास । तो क्या जिस देश में हर बरस पांच लाख से ज्यादा छात्र जो उच्च शिक्षा के लिये देश छोड कर बहार जा रहे है । उनकी कतार और बडी होगी । बीते तीन बरस में जिस तरह 18 हजार रईसों ने देश छोड दिया उनकी कतार भी आने वाले वक्त के साथ और बडी होगी । ये ऐसे सवाल है जिसके अक्स में कभी माल्या तो कभी नीरव मोदी के सवाल उलझायेंगे ही । पर इन हालातो के बीच कौन सी पत्रकारिता की जाये । हिन्दु-मुस्लिम , कश्मीर-पाकिस्तान , शहीद-देशभक्ति सरीखे सवाल उलझायेंगे जरुर । और नये हालात में पत्रकार को भी 12 वी पास से ज्यादा पढ़ाई की जरुरत क्या है । थियेटर की समझ । चंद मिनटो का वन-एक्ट-प्ले । कैमरे के सामने अकेले हो कर भी भावनाओं का उभार। मदारी की तर्ज पर मुद्दों को परिभाषित करने की क्षमता से आगे पत्रकारिता कहां जायेगी । और जब संसद से सडक तक एक सूत्र में पिरोकर एक सरीखे लोगो का ही समाज बनाने की सोच होगी तो फिर क्रिटिकल होकर आप सोचेगें कैसे । पर समझना तो होगा कि अगर हिन्दुत्व धर्म नहीं जीवन जीने का तरीका है । तो फिर वह मुस्लिम धर्म से कब तक टकरायेगा । और एक वक्त के बाद सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कैसे-कहा टिकेगा । तो क्या मौजूदा हालात में ये कहा जा सकता है कि देश कहीं फंस सा गया है । क्योकि चुनावी अक्स में सत्ता परिवर्तन को तो वोटरो के मिजाज से हर कोई देख समझ रहा है । पर चौथे बरस के बजट के बाद जब इकानामी पहले तीन बरस की अच्छाइयो को निगल लेने पर आमादा हो । और ग्रामिण जीवन के विकास के नाम पर लूट या दस्तावेजी विकास होने लगा हो तो फिर बचेगा क्या । हालात संभालने के लिये सिर्फ नेता परिवर्तन या सत्ता परिवर्तन से काम तो चलेगा नहीं . सुप्रीम कोर्ट में संविधान की व्याख्या करने के लिये लायक जज चाहिये ही होगें . यूनिव्रसिटी में समझदार प्रोफेसरो की जरुरत होगी ही । सिस्टम को पटरी पर लाने के लिये इमानदार नौकरशाह की जरुक होगी है । और इन हालातो को बताने के लिये पत्रकारों की जरुर होगी ही । और अगर ये भी ना होगें तब क्या होगा । इसे सिर्फ सोचिये...महसूस किजिये । क्योंकि 2019 का चुनाव देश का सच नहीं है बल्कि 2019 से पहले की शून्यता देश का सच है ।
Wednesday, February 14, 2018
[+/-] |
हर मोड़ पर घोखे हों तो आप क्या करेंगे? |
त्रिपुरा प्रेस क्लब में एक सवाल के जवाब में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि मोदी सरकार के दौर में सबसे ज्यादा आतंकी मारे गये । तो पत्रकार क्या करता । चुप रह गया । जबकि दिसंबर 1989 में मौजूदा सीएम महबूबा मुफ्ती की बहन रुबिया सईद के अपहरण के बाद से जिस तरह घाटी में आतंकी घटनायें बढीं, उसका सच तो ये है कि उसके बाद से घाटी में 23364 आतंकी मारे गये । यानी आतंक की जो तस्वीर मोदी सरकार से पहले हर सरकार ने देखी उसमें क्या पहली बार मोदी सरकार सिर्फ दावे और वादे में ही अटकी हुई है । क्योंकि बीजेपी अध्यक्ष का कहना है आजादी के बाद जिसने आतंकी नहीं मारे गये उससे ज्यादा मोदी सरकार के दौर में मारे गये। पर सच तो ये है कि मोदी सरकार के दौर में 564 आतंकी मारे गये । मनमोहन सिंह के आखिरी चार साल में 628 आतंकी मारे गये थे । जबकि मनमोहन सिंह के 10 बरस के दौर में 3894 आतंकी मारे गये । वाजपेयी सरकार के दौर [ 1998-2004 ] में सबसे ज्यादा 10547 आतंकी मारे गये । नरसिंह राव के दौर में 6804 आतंकी मारे गये । और तो और देवगौडा के 11 महीने के दौर में 1177 आतंकी मारे गये । यानी तीस बरस की ये फेरहिस्त देखने से साफ है कि मौजूदा सत्ता के दौर मे सबसे कम आतंकी मारे गया । सबसे कम नागरिक मारे गये । और सुरक्षाकर्मी भी सबसे कम शहीद हुये है । लेकिन पहले दिन से ही जिस रुख के साथ कश्मीर को लेकर जो अंतर्विरोध उभरा है उसने ही मोदी सरकार के लिये संकट खडा किया है । एक तरफ मोदी लालकिले से कश्मीरियो को गले लगाने का जिक्र करते है तो दूसरी तरफ सेनाअध्यक्ष गोली का जिक्र करते हैं। पर सवाल सिर्फ आतंकवाद भर का नहीं है । कमोवेश हर मंत्रालय में जिस तरह दावे-वादे किये जा रहे हैं उसने नया संकट तो पैदा किया ही है कि क्या सिर्फ बड़बोले भाव से सरकार चल रही है । और सूचना तंत्र मोदी सरकार के गुण गाण में जुटा है तो फिर कुछ भी कहा जा सकता है ।
कौशल विकास योजना
----------------------------
मसलन स्किल इंडिया य़ा कहे प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना। मोदी लगातार कहते है कि इसके जरीये देश में रोजगार कोई समस्या नहीं रही । और अगर सरकारी साईट पर भी परखने चले जाइयेगा तो आंखें ये देख कर चूंधिया जायेंगी कि कमोवेश हर क्षेत्र में लोगो को सिखाया जा रहा है और रोजगार पैदा हो रहा है। मसलन खेती से लेकर फूड इंडस्ट्री। इलेक्ट्रोनिक्स से लेकर जेवेलरी स्कील । पर ये सच कितना अधूरा है । ये प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की साइट पर ही दर्ज है । सरकार की ही साइट बताती है है कि एक फरवरी तक 29,73,335 लोगों को जोडा गया । पर रोजगार मिला 5,39,943 लोगों को । यानी स्कील इंडिया से जुडेने के बाद जिन्हे नौकरी मिली उनकी तादाद 20 फीसदी भी नहीं है। और बाकायदा राज्यो के आसरे भी कौशल विकास योजना से मिलने वाले रोजगार को परखें तो तमिलनाडु में 2,20,819 लोगों में सबसे ज्यादा 72,186 लोगो को रोजगार मिला । दूसरे नंबर पर यूपी में 4,61,788 लोगों में से 66,849 लोगों को रोजगार मिला । यानी बीते साढे तीन बरस का कच्चा चिट्टा अगर राज्यो के आसरे परखा जाये तो 1200 दिनो में किस राज्य में कितना रोजगार स्किल इंडिया से मिल गया वह भी हैरान करने वाला ही है । कि अगर टॉप टेन राज्यो को देखें तो तमिलनाडु [-72,186] , यूपी [66,849], मध्यप्रदेश [44,836], राजा्सथान [43,986] , तेलगाना [43,161], आंध्रप्रेदश [33,390], हरियाणा [31,211],पं बंगाल [ 30.772], पंजाब [ 25,705 ], बिहार [22,033] । यानी कुल 5 लाख 39 हजार में से 4 लाख 14 हजार नौकरी सिर्फ दस राज्यो में । बाकि 19 राज्य और 6 केन्द्र शासित राज्यों में कुल एक लाख 20 हजार नौकरियां ही स्किल इंडिया के जरिये मिली । यानी पूरे देश के लिये देशभर में हर बरस 1,34,985 नौकरी निकल पायी । और हर दिन 369 नौकरी । और इतनी कम नौकरिया ही संभवत वजह रही कि इस मंत्रालय को संभाल रहे राजीव प्रताप रुड़ी को सितंबर 2017 में मंत्रिमंडल विस्तार में हटा दिया गया । और धर्मेन्द्र प्रधान को अतिरिक्त प्रभार इस मंत्रालय का दे दिया गया । पर स्किल इंडिया से निकलते रोजगार की रफ्तार जिसनी धीमी
है उसमें ये सवाल ही है कि आखिर रोजगार कहा और कैसे निकले ।
मनरेगा
-------------
तो रोजगार के लिहाज से अगली तस्वीर मनरेगा की भी डराने वाली ही है । क्योकि मनरेगा की बहुतेरी तस्वीर हर जहन में होगी । राजस्थान में राहुल गांधी भी एक वक्त मनरेगा मजदूरो के बीच मेहनत करते नजर आये । और प्रदानमंत्री मोदी ने भी हर बरस मनरेगा बजट भी बढाया । 2014-15 में 32,139 करोड , 2015-16 में 39,974 करोड, 2016-17 में 47,411 करोड, 2017-18 में 53,152 करोड । पर बावजूद इसके सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि जितनी बडी तादाद में मनरेगा मजदूर देश में है । उतने मजदूर को काम देना तो दूर, जितनो को मनरेगा का काम दिया जाता है उन्हे भी सौ दिन काम मिल नही पाता है । देश में मनरेगा मजदूरो के आंकडो से समझे हालात है कितने विकट । क्योकि 12,65,00,000 मनरेगा जॉब कार्ड जारी किया गया । जिसमें 7,24,00,000 जाब कार्ड वालो को काम मिला । जबकि कुल मनरेगा मजदूरो की तादाद 25,17,00,000 है । और मनरेगा के तहत देश भर में 25 फिसदी काम ही पूरा हो पाया । मसलन 2017-18 में 1,67,00,000 काम में से 43,55,000 काम ही पूरा हो पाया । और मनरेगा के तहत सबसे मुश्किल तो 100 दिन का काम भी नहीं मिल पाना है । खुद सरकार के आंकडे बताते है कि औसतन 168 रुपये के हिसाब से 40 दिन का ही काम दिया जा सका । यानी जो सिर्फ मनरेगा पर जिन्दगी चला रहा होगा उसके हिस्से में हर दिन के आये 18 रुपये 41 पैसे । यानी मनरेगा जिस सोच के साथ देश में लागू किया गया । वह जिस तेजी से लडखड़ा रहा है उससे ग्रामीण भारत में रोजगार का नया संकट पैदा हुआ है और असर उसी का है कि किसान मजदूर के सामने संकट गहरा रहा है ।
हेल्थ सर्विस
-------------------
और इसी कडी में सरकार की हेल्थ सर्विस को भी जोड़ दीजिये । क्योंकि बजट में तो बकायदा स्वास्थ्य बीमा योजना से देश के 50 करोड लोगो को लाभ बताया गया दिखाया गया । तो ऐसे में हेल्थ सिस्टम ही कितना मजबूत है जरा इसे भी परख लें । क्योकि जिस देश में अस्पताल में भर्ती होने का ही आधी बीमारी से राहत मान लिया जा हो । जिस देश में डाक्टर बाबू एक बार नब्ज देख लें तो ही आधी बिमारी खत्म हो जाती हो । जिस देश में अस्पताल की चौखट पर मौत मिल जाये तो परिजन खुश रहते है कि चलो अस्पताल तक तो पहुंचा दिया । उस देश का अनूठा सच सरकारी आंकडो से ही समझ लीजिये एक हजार मरीजों पर ना तो एक डाक्टर ना ही एक बेड । ढाई हजार लोगो पर एक नर्स है । पर इलाज किसी देश में कमाई का जरीया बन चुका है तो वह भारत ही है। देश में सरकारी हॉस्पीटल की तादाद 19817 है। वही प्राइवेट अस्पतालों की तादाद 80,671 है।
यानी इलाज के लिये कैसे समूचा देश ही प्राइवेट अस्पतालो पर टिका हुआ है। ये सिर्फ बड़े अस्पतालों की तादाद भर से ही नही समझा जा सकता बल्ति साढे छह लाख गांव वाले देश में सरकारी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की संख्या सिर्फ 29635 है। जबकि निजी हेल्थ सेंटरो की तादाद करीब दो लाख से ज्यादा है । यानी जनता को इलाज चाहिये और सरकार इलाज देने की स्थिति में नहीं है। या कहें इलाज के लिये सरकार ने सबकुछ निजी हाथों में सौंप दिया है। पर सवाल है कि सरकार इलाज के लिये नागरिको पर खर्च करती कितना है । तो सरकार प्रति महीने प्रति व्यक्ति पर 92 रुपये 33 पैसे खर्च करती है। लेकिन हालात सिर्फ इस मायने में गंभीर नहीं कि सरकार बेहद कम खर्च करती है । हालात इस मायने में त्रासदीदा.यक की किसी
की जिन्दगी किसी की कमाई है । 2018-19 में देश का हेल्थ बजट 52 हजार करोड का है । तो प्राइवेट हेल्थ केयर का बजट करीब 7 लाख करोड का हो चला है । और मुश्किल तो ये भी है कि अब डाक्टरो को भी सरकारी सिस्टम पर भरोसा नहीं है। क्योंकि देश में 90 फिसदी डाक्टर प्राइवेट अस्पतालों में काम करते हैं। इंडियन मेडिकल काउसिंल के मुताबिक देश में कुल 10,22,859 रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टर है । इनमें से सिर्फ 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। यानी सरकारी सिस्टम बीमार कर दें और इलाज के
लिये प्राईवेट अस्पताल आपकी जेब के मुताबिक जिन्दा रखे। तो बिना शर्म के ये तो कहना ही पडेगा कि सरकार जिम्मेदारी मुक्त है और प्राइवेट हेल्थ सर्विस के लिये इलाज भी मुनाफा है और मौत भी मुनाफा है।
शिक्षा
-----------
और आखिरी किल शिक्षा के नाम पर ठोंक सकते है । क्योंकि सत्ता में आते ही सौ दिनो के भीतर न्यू एजूकेशन पॉलिसी का जिक्र मोदी सरकार ने किया था । पर अब तो चार बरस पूरे होने को आ गये और पॉलिसी तो दूर सफलता इसी में दिखायी दे रही है कि यूपी में नकल रोकने के लिये सीसीटीवी लगाया गया तो 66 लाख विधार्थियो में से 10 लाख से ज्यादा छात्रों ने परीक्षा ही छोड दी । जबकि इसी यूपी में पिछले बरस करीब 60 लाख छात्र परीक्षा में बैठे और 81 फीसदी पास कर गये । इस बार 15 फिसदी परीक्षार्थी परीक्षा ही छोडॉ चुके हैं । पर नौकरी जब डिग्री से मिलती हो । और नकल कर डिग्री ना मिल पाये तो जाहिर है दूसरे उपाय शुरु होंगे । क्योंकि शिक्षा का आलम 10 वीं या 12 वी भर नहीं बल्कि प्रोफशनल्स डिग्री तक फर्जी होने में जा सिमटा है । एसोचैम की रिपोर्ट कहती है मैनेजमेंट की डिग्री ले चुके 93 फिसदी नौकरी लायक नहीं है । और नैसकाम की रिपोर्ट कहती है कि 90 फिसदी ग्रेजुएट और 70 फिसदी इंजीनियर प्रशिक्षण के लायक नहीं है ।
Saturday, February 10, 2018
[+/-] |
पकौड़ा रोजगार या बेरोजगारों के लिये पकौड़ा-चाय |
1947 : डेढ आने का बेसन । एक आने का आलू-प्याज । एक आने का तेल । तीन पैसे का गोयठा । कहे तो गोबर के उबले । चंद सूखी लकड़ियां । और सड़क के किसी मुहाने पर बैठ कर पकौडा तलते हुये एक दिन में चार आने की कमाई। 2018 : 25 रुपये का बेसन । दस रुपये का आलू प्याज । 60 रुपये का सरसों तेल । सौ रुपये का गैस । या 80 रुपये का कैरोसिन तेल । और सड़क के किसी मुहाने पर ठेला लगाकर पकौड़ा तलते हुये दिन भर में 200 से तीन सौ रुपये की कमाई । करीब चार आने खर्च कर चार आने की कमाई जब होती थी तब हिन्दुस्तान आजादी की खुशबू से सराबोर था। करीब 31 करोड़ की जनसंख्या में 21 करोड़ खेती पर टिके थे। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालो की तादाद 50 से 80 लाख परिवारों की थी । और अब ठेले के अलावे दो सौ रुपये लगाकार दो सौ रुपये की कमाई करने वाला मौजूदा हिन्दुस्तान विकास के अनूठे नारों से सराबोर है । सवा सौ करोड़ की जनसंख्यामें 50 करोड़ खेती पर टिके है। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालों की तादाद 10 से 12 करोड़ परिवारों की है । तो आजादी के 71 वें बरस में बदला क्या या आजादी के 75 वें बरस यानी 2022 में बदलेगा क्या। नेहरु के आधी रात को सपना देखा।
मौजूदा वक्त में दिन के उजाले में सपने पाले जा रहे हैं। क्योंकि संगठित क्षेत्र में सिर्फ 2 करोड़ 80 लाख रोजगार देकर देश विकसित होना चाहता है । जबकि 45 करोड़ से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में रोजगार से जुड़े है । जो भविष्य नहीं वर्तमान पर टिका है। इसमें भी 31 करोड़ दिहाड़ी पर जीते है । यानी भविष्य छोड़ दीजिये । कल ही का पता नहीं है क्या कमाई होगी । तो कमाई और रोजगार से जुझते हिन्दुस्तान में पकौड़ा संस्कृति को तोडने के लिये मनरेगा लाया जाता है तो करोडों खेत-मजदूर से लेकर दिहाडी करने वालो में आस जगती है कि दो सौ रुपये लगाकर हर दिन दो सौ कमाने की पकौडा संसक्कृति से तो छूटकारा मिलेगा । पर मनरेगा में 100 दिन का रोजगार देना भी मुश्किल हो जाता है । और लाखो लोग दुबारा पकौडा संस्कृति पर लौटते है । ये है कि 25 करोड 16 लाख मनरेगा मजदूरो की तादाद में सिर्फ 39,91,169 लोगो को ही सौ दिन मनरेगा काम मिल पाता है । और सरकार के ही आंकडे कहते है 2017-18 में 40 दिन ही औसत काम मनरेगा मजदूर को मिल पाया । यानी 40 दिन के काम की कमाई में 365 दिन कोई परिवार कैसे जियेगा । जबकि 40 दिन की कमाई 168 रुपये प्रतिदिन के लिहाज से हुये 6720 रुपये । यानी जिस मनरेगा का आसरे रोजगार को खुछ हदतक पक्का बनाने की सोच इसलिये विकसित हुई कि पकौडे रोजगार से इतर देश निर्माण में भी कुछ योगदान देश के मजदूर दे सके । औऱ उसमें भी देश के 25 करोड से ज्यादा मनरेगा मजदूरों में काम मिला सिर्फ 7 करोड़ को। और सालाना कमाई हुई 6720 रपये । यानी 18 रुपये 41 पैसे की रोजाना कमाई पर टिका मनरेगा ठीक है । या फिर दो
सौ रुपये लगाकर दौ सौ रुपये की कमाई वाला पकौडा रोजगार ।
जाहिर है पकौड़ा रोजगार में सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त है । लेकिन पकौडा रोजगार का अनूठा सच ये है कि शहरी गरीब लोगों के बीच पकौड़े बेच कर ज्यादा कमाई होती है । और जो नजारा देश के कमोवेश हर राज्य में बेरोजगारी का नजर आ रहा है उसके मुताबिक रोजगार दफ्तरो में रजिस्टर्ड बेरोजगार की तादाद सवा करोड पार कर गई है । और शहर दर शहर भटकते इन बेरोजगार युवाओं की जेब में इतने ही पैसे होते है । कि वह सडक किनारे पकौड़े और चाय के आसरे दिन काट दें । मसलन देश के सबसे ज्यादा शहरी मिजाज वाले महाराष्ट्र के आधुनिकतम पुणे, नागपुर , औरगाबाद समेत बारह शहरो में एक लाख से ज्यादा बेरोजगार छात्र
सडक पर निकल आये क्योकि हर हाथ में डिग्री है पर काम कुछ भी नहीं । उस पर राज्य राज्य पब्लिक सर्विस कमीशन ने सिर्फ 69 वैकेसी निकाली तो आवेदन करने वाले दो लाख से ज्यादा छात्रो में आक्रोश फैल गया । छात्रो में गुस्सा है क्योकि पिछले बरस 377 वैकसी की तुलना में इस बार सिर्फ 69 वैकसी निकाली गई । जबकि अलग अलग विभागों में 6 हजार से ज्यादा पद रिक्त है । यूं राज्य में करीब 20 लाख रजिस्ट्रड बेरोजगार है । और डिग्रीधारी बेरोजगार छात्रों के अलावे राज्य में 27 लाख 44 छात्र बेरोजगार ऐसे है जो तकनीकी तौर पर काम करने में सक्षम है पर इनके पास काम नहीं है । तो चाय-पकौडे पर कमोवेश हर हर बेरोजगार की सुबह-शाम कट जाती है । तो देश किस हालात को सच माने । 2 करोड 80 लाख संगठित क्षेत्र के रोजगार को देखकर या फिर 45 नकरोड से ज्यादा अंसगठित क्षेत्र में रोजगार करते लोगो को देखकर । क्योंकि अब तो दो सौ रुपये पकौडे की कमाई से इतर पहली बार सरकार ने 1650 करोड रुपये स्कालरो को फेलोशिप देने के लिये मुहर लगा दी है । यानी फेलोशीप के तहत जो स्कालर चुने जायेगें उन्हे हर महीने 70 से 80 हजार रुपये दिये जायेगें । तो क्या अब सरकार जागी है जो उसे लग रहा है कि पढे लिखे छात्रो को स्कॉलरशीप देकर देश में रोका जा सकता है । क्योंकि देश का अनूठा सच तो यही है कि हर बरस 5 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिये विदेश चले जाते है । और देश का दूसरा अनूठा सच यही है कि सरकार का उच्च शिक्षा का बजट है 35 हजार करोड । जिसके तहत देश में साढे तीन करोड छात्र पढाई करते है । और जो पांच लाख बच्चे दूसरे देशो में पढने चले जाते है वह फीस के तौर पर 1 लाख 20 हजार करोड देते है । यानी दुनिया में पढाई के लिये जितना छात्रो से वसूला जाता है उस तुलना में सरकार देश में ही शिक्षा पर बेहद कम खर्च करती है । वजह भी यही है भारतीय शिक्षा संस्धानो का स्तर लगातार नीचे जा रहा है । इसी साल आईआईटी बॉम्बे,आईआईटी मद्रास और इंडीयन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की रैकिंग तक गिर गई । यानी विदेश का अपना मोह है। और इस मोह को फेलोशिप के बरक्स नहीं तोला जा सकता। क्योंकि सवाल सिर्फ छात्रों का नहीं है । बीते बरस भारत के 7000 अति अमीरों ने दूसरे देश की नागरिकता ले ली। 2016 में यह आकंड़ा 6000 का था । और बीते 5 बरस का अनूठा सच ये भी है कि 90 फीसदी अप्रवासी भारतीय वापस लौटते नहीं हैं । तो क्या माना जाये पकौडा रोजगार वैसा ही मजाक है जैसे शिक्षा देने की व्यवस्था।