तो हर सत्ता हर हालात को लेकर कुछ इसी तरह कहती है । घबराने की जरुरत नहीं है । आपके जेहन में नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्रइक आये या कुछ और मुद्दे उससे पहले याद कीजिये। 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से लेकर 25 जून 1975 तक देश में हो क्या रहा था और वह कौन से सवाल थे, जिसे अदालत सही नहीं मानता था औऱ इंदिरा गांधी ने सत्ता छोडने की जगह देश पर इमरजेन्सी थोप दी । तो 12 जून 1975 को इलाहबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिन्हा ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123[ 7 ] के तहत दो मुद्दो पर इंदिरा गांधी को दोषी माना । पहला, रायबरेली में चुनावी सभाओ के लिये मंच बनाने और लाउडस्पीकर के लिये बिजली लेने में सरकारी अधिकारियों का सहयोग लेना । और दूसरा, भारत सरकार के अधिकारी जो पीएमओ में थे यशपाल कपूर की मदद चुनाव प्रचार में लेना। तो अब चुनाव में क्या क्या होता है और बिना सरकारी सहयोग के क्या सत्ता कोई भी चुनाव लड़ती है ये कम से कम वाजपेयी-मनमोहन-मोदी के दौर को याद करते हुये कोई भी सवाल तो कर ही सकता है । और इस दौर ने तो पीवी नरसिंह राव का सत्ता बचाने के लिये झाझुमो घूस कांड भी देख लिये । मनमोहन के दौर में बीजेपी का संसद में करोडो के नोट उडाने को भी परख लिया । यानी आप ठहाका लगायेंगे कि क्या वाकई देश में एक ऐसा वक्त था जब पीएमओ के किसी अधिकारी से चुनाव के वक्त पीएम मदद लें और चुनावी प्रचार के वक्त सरकारी सहयोग से मंच और लाउडस्पीकर के लिये बिजली ले जाये तो अपराध हो गया । इतना ही नहीं आज के दौर में जब चुनाव धन-बल के आधार पर ही लड़ा जाता है तो 1971 के चुनाव को लेकर अदालत 1975 में ये भी सुन रही थी कि क्या इंदिरा गांधी ने तय रकम से ज्यादा प्रचार में खर्च तो नहीं किये । वोटरों को रिश्वत तो नहीं दी । वायुसेना के जहाज-हेलीकाप्टर पर सफर कर चुनावी प्रचार तो नहीं किया । चुनाव चिन्ह गाय-बछड़े के आसरे धार्मिक भावनाओ से खेल कर लाभ तो नहीं उठाया । तो 43 बरस में भारत कितना बदल गया ये सत्ता के चुनावी मिजाज से ही समझ जा सकता है । जहा धर्म के नाम पर सियासत खुल कर होती है । हिन्दुत्व चुनावी जुमला है । सरकारी लाभ उठाना सामान्य सी बात है । क्योकि समूची सरकार ही जब चुनाव जीतने में लग जाती हो और सत्ताधारी पार्टी गर्व करती हो कि उसके पास मोदी सरीखा प्रचारक है । तो फिर अधिकारियो की कौन पूछे । फिर अब के वक्त तो खर्च की कोई सीमा ही नहीं है । हर चुनाव के बाद चुनाव आयोग के आंकड़े सबूत है । और 2014 तो रिकार्ड खर्च के लिये जाना जायेगा । जिसमें चुनाव आयोग ने ही इतना खर्च किया जितना 1998, 1999 , 2004 और 2009 मिलाकर खर्च हुआ उससे भी ज्यादा । फिर अब तो वोटरों को रिश्वत बांटना सामान्य सी बात है । आखिरी कर्नाटक विधानसबा चुनाव में ही दो हजार करोड पकड में आये जो वोटरो में बांटे जाने थे। तो क्या 43 बरस में चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल गई है । या कहे इमरजेन्सी के दौर में जो सवाल संविधान के खिलाफ लगते या फिर गैर कानूनी माने जाते थे,वही सवाल सियासी तिकडमों तले 43 बरस में ऐसे बदलते चले गये कि भारत के नागरिक ही हालातों से समझौता करने लगे। क्योकि 12 जून को इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द किया था । छह बरस तक प्रतिबंध लगाया था । तब इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से फैसला अपने हक में कराया और सत्ता में बने रहने के लिये इमरजेन्सी थोप दी । फिर 1975 में 12 से 25 जून तक जो दिल्ली की सडक से लेकर जिस सियासत की व्यूहरचना तब एक सफदरजंग रोड पर होती रही । उसे इतिहास में काले अक्षरो में लिखा जाता है । पर वैसी ही तिकडमें उसके बाद सियासत का कैसे हिस्सा बनते बनते लोगों को अभ्यत कराते चली गई । इस पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । क्योकि याद कीजिये 20 जून 1975 । कटघरे में खडी इंदिरा गांधी के लिये काग्रेस का शक्ति प्रदर्शन । सत्ता के इशारे पर बस ट्रेन सबकुछ झोक दिया गया । चारो दिशाओं से इंदिरा स्पेशल ट्रेन - बस दिल्ली पहुंचने लगी ।लोगो को ट्रक्टर कार बस ट्रक में भरभरकर बोट क्लब पहुंचाया गया । पूरी सरकारी अमला जुटा था । संजय गांधी खुद समूची व्यवस्था देख रहे थे । इंदिरा की तमाम तस्वीरो से सजे 12 फुट उंचे मंच पर जैसे ही इंदिरा पहुंचती है गगनभेदी नारे गूंजने लगते है । और माइक संभालते ही इंदिरा कहती है ..""-देश के भीतर-बाहर कुछ शक्तिशाली तत्व उनकी सत्ता पलटने का षडयंत्र रच रहे है । इन विरोधी दलो को समाचारपत्र का समर्थन प्रप्त है और तथ्यों को बिगाडने और सफेद झूठ फैलाने की इन्हें अनोखी आजादी प्रप्त है । सवाल ये नहीं है कि मै जीवित रहूं या मर जाती हूं । सवाल राष्ट्र के हित का है ।" 25 मिनट के भाषण को दिल्ली दूरदर्शन लाइव करता है ।आकाशवाणी से सीधा प्रसारण होता है ।
यानी अब का दौर होता तो क्या क्या होता ये बताने की जरुरत नहीं है क्या क्या होता । कैसे सैकडो चैनलो से लेकर डिजिटल मीडिया तक सत्तानुकुल हो जाते हैं । और कैसे किसी भी चुनाव रैली को सफल दिखाने के लिये ट्रेन-बस-ट्रको में भरभरकर लोगो को लाया जाता है । चुनावी बरस में सरकारी खर्च पर प्रचार प्रसार किसी से छुपा नहीं है । और अब याद कीजिये रामलीला मैदान की 25 जून 1975 की तस्वीर जब जेपी की रैली हुई । लाखो का तादाद में लोग सिर्फ जेपी के एक एलान पर चले आये । और जेपी ने अपने भाषण मेंकहा , छात्र स्कल कालेजो से निकल आये और जेलो को भर दें । पुलिस और सेना गैरकानूनी आदेशों का पालन ना करें। और जेपी को लोग नजरअंजाद कर दें उनके भाषण को ना सुने । रामलीला मैदान से निकलकर पीएमओ तक ना निकले । तो आकाशवाणी-दूर दर्शन पर शाम के समाचारो के बाद ये एलान किया जाता है कि आज फिल्म "बाबी '" दिखायी जीयेगी । तो सत्ता अपने विरोध को दबाने के लिये या कहे जनता का ध्यान बांटने के लिये कौन कौन सी मोहक व्यूहरचना भी करती है और कानून का इस्तेमाल भी करती है । सुरक्षाकर्मियो को उकसाने के लिये जेपी के खिलाफ राष्ट्द्रोह का मामला दर्ज होता है । 24 जून की रात भर 400 वारण्टो पर हस्ताक्षऱ हुये । जिसके बाद विरोधी नेताओ की गिर्फतारी के आदेश 25 की सुबह 10 बजे तक भेजे भी जा चुके थे । यानी कैसे देश इमरजेन्सी की तरफ बढ रहा था और कैसे इंदिरा सत्ता एंडवांस में ही हर निर्णय ले रही थी औऱ इसमें समूची सरकारी मशानरी कैसे लग जाती है । यह हो सकता है आज कोई अजूबा ना लगे । क्योकि हर सत्ता ने हर बार कहा कि जनता ने उसे चुना है तो उसे गद्दी से कोई कानून उतार नहीं सकता । ये बात इंदिरा गांधी ने भी तब कही थी ।