नाम-गुरमित , उम्र - 25 बरस , केस - 7, एनकाउंटर की तारीख-31 मार्च
2017, एनकाउंटर की जगह-बलिया ।
नाम -नौशाद उर्फ डैनी , उम्र 30 बरस , केस -19 , एनकाउंटर की तारीख-29
जुलाई 2017, जगह-शामली ।
नाम -सरवर , उम्र -28 बरस , केस -8,एनकाउंटर की तारीख-29 जुलाई 2017 ,
एनकाउंटर की जगह-शामली ।
नाम - इकरम उर्फ तोला, उम्र-40 बरस , केस-11, एनकाउंटर की तारीख-10 अग्सत
2017, जगह-शामली ।
नाम - नदीम , उम्र -33 बरस , केस-12, एनकाउंटर की तारीख- 8 सितबंर 2017,
एनकाउंटर की जगह-मुज्जफरनगर ।
नाम - शमशाद , उम्र-37 बरस, केस-36, एनकाउंटर की तारीख- 11 सितबंर 2017,
एनकाउंटर की जगह-सहारनपुर ।
नाम-जान मोहम्मद , उम्र -35 बरस . केस -10 , एनकाउंटर की तारीख -17
सितंबर 2017, एनकाउंटर की जगह-खतौली ।
नाम - फुरकान, उम्र -36 बरस , केस-38 , एनकाउंटर की तारीख -22 सितंबर
2017 , एनकाउंटर की जगह -मुज्जफरनगर ।
नाम-मंसूर , उम्र 35 बरस , केस-25,एनकाउंटर की की तारीख - 27 सितंबर
2017, एनकाउंटर की जगह - मेरठ।
नाम- वसीम काला , उम्र 20 बरस , केस-6, एनकाउंटर की तारीख -28 सितंबर
2017, एनकाउंटर की जगह - मेरठ ।
नाम-विकास उर्फ खुजली , उम्र-22 बरस , केस 11, एनकाउंटर की तारीख-28
सितंबर 2017, जगह-अलीगढ ।
नाम- सुमित गुर्जर, उम्र - 27 बरस , केस-0, एनकाउंटर की तारीख-3 अक्टूबर
2017, एनकाउंटर की जगह-ग्रेटर नोएडा ।
नाम-रमजानी,उम्र-18 बरस, केस-18,एनकाउंटर की तारीख-8 दिसबंर 2017,
एनकाउंटर की जगह-अलीगढ ।
नाम-नीर मोहम्मद, उम्र-28बरस , केस-18, एनकाउंटर की तारीख-30 दिसबंर
2017, एनकाउंटर की जगह-मेरठ ।
नाम-शमीम, उम्र-27 बरस , केस-27, एनकाउंटर की तारीख-30 दिसबंर 2017,
एनकाउंटर की जगह-मुज्जफरनगर ।
नाम-शब्बीर, उम्र-3 बरस2, केस - 20, एनकाउंटर की तारीख-2 जनवरी 2018,
एनकाउंटर की जगह-शामली ।
नाम-बग्गा सिंह, उम्र-40 बरस, केस-17, एनकाउंटर की तारीख--17 जनवरी 2018,
एनकाउंटर की जगह-लखीमपुर खीरी ।
नाम-मुकेश राजभर, उम्र-32 बरस, केस - 8, एनकाउंटर की तारीख-26 जनवरी
2018, एनकाउंटर की जगह-आजमगढ ।
नाम-अकबर, उम्र-27बरस , केस-10, एनकाउंटर की तारीख-3 फरवरी 2018,
एनकाउंटर की जगह-शामली ।
नाम-विकास, उम्र-36 बरस ,केस-6 , एनकाउंटर की तारीख-6 फरवरी 2018 ,
एनकाउंटर की जगह-मुज्जफरनगर ।
नाम-रेहान , उम्र 18 बरस , केस-13, एनकाउंटर की तारीख-3 मई 2018,
एनकाउंटर की जगह - मुज्जफरनगर ।
ये यूपी की योगी सरकार में पुलिस एनकाउंटर में मारे गये 21 अपराधियों का कच्चा चिट्टा है। सीएम ने निर्देश दिया और पुलिस ने खोज खोज कर उन अपराधियों को निशाने पर लिया जिन्हें ना लिया जाता तो शायद अपराध और बढ़ जाते। क्योंकि हर एनकाउंटर के बाद सीनियर पुलिस अधिकारियों ने पुलिसकर्मियों की पीठ थपथपायी। और सीएम ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की। हालांकि इस पूरी फेहरिस्त में सिर्फ एक अपराधी सुमित गुर्जर ऐसा नाम है, जिसके खिलाफ एक भी एफआईआर पुलिस थाने में दर्ज नहीं है यानी कोई केस पहले से चल भी नहीं रहा था। लेकिन एनकाउंटर के बाद वोटर आई कार्ड से नाम की जानकारी मिली और फिर पुलिस ने सुमित गुर्जर को पोंटी चड्डा के दो कर्मचारियों की हत्या में संलग्न करार दे दिया। पर इसके अलावा हर मारे गये अपराधी पर 6 से 27 केस तक दर्ज थे। तो जाहिर है पुलिस ने अपना काम किया । पर अगला सवाल योगी सरकार में शामिल मंत्रियों का है। जिनमें किसपर कितने अपराधिक केस चल रहे हैं, ये देखना -समझना जरुरी है । क्योंकि एनकाउंटर उन्ही का हुआ जिनपर मुकदमे दर्ज हैं और पुलिस का तर्क भी यही रहा कि नामजद अपराधियो को वह पकड़ने गई तो उन्होंने भागने की कोशिश की। किसी ने फायरिंग भर कर दी तो एनकाउंटर हो गया। तो योगी सरकार की मंत्रियों का हाल देखते है । चुनाव लड़ते वक्त चुनाव आयोग को सौपे गये हलफनामे में जिन मुकदमों का जिक्र इन मंत्रियों ने किया उसे ही एशोसियशन फार डेमोक्रेटिक राइट यानी एडीआर ने संकलित किया है । इसी तरह उत्तर प्रदेश इलेक्शन वाच ने भी रिपोर्ट तैयार की । और इन्ही की रिपोर्ट जो साफ तौर पर बताती है कि कि दागी मंत्रियों की कमी नहीं है । जरा नामो पर गौर करें । केशव प्रसाद मोर्य- उपमुख्यमंत्री , कुल केस-11, आईपीसी की गंभीर 15 धारायें । नंद गोपाल गुप्ता नंदी--कैबिनेट मंत्री, कुल केस -7, आईपीसी की 10 गंभीर धारायें सत्यपाल सिंह बघेल, कैबिनेट मंत्री , कुल केस -7, आईपीसी की 10 गंभीर धाराएं दारा सिंह चौहान, कैबिनेट मंत्री , कुल केस -2, आईपीसी की 7 गंभीर धाराये । सूर्यप्रताप शाही , कैबिनेट मंत्री, कुल केस-3, आईपीसी की 5 गंभीर धाराएं । ओमप्रकाश राजभर, कैबिनेट मंत्री, कुल केस 1, आईपीसी की गंभीर 2 धाराएं । स्वामी प्रसाद मोर्य, कैबिनेट मंत्री , कुल केस-1 , आईपीसी की गंभीर 2 धारायें ।
रीता जोशी , कैबिनेट मंत्री, कुल केस 2, आईपीसी की गंभाीर एक धारा आशुतोष टंडन, कैबिनेट मंत्री , कुल केस-1,आईपीसी की एक गंभीर घारा । ब्रजेश पाठक, कैबिनेट मंत्री, कुल केस 1, आईपीसी की 3 गंभीर धारायें। उपेन्द्र तिवारी , राज्य मंत्री , कुल केस-6 , आईपीसी की गंभीर 6 धारायें। सुरेश कुमार राणा , राज्य मंत्री, कुल केस-4, आईपीसी की गंभीर 6 धारायें। भूपेन्द्र चौधरी , राज्य मंत्री , कुल केस - 2,आईपीसी की गंभीर 2 धारायें। गिरिश चन्द्र यादव , राज्यमंत्री , कुल केस- 1, आईपीसी की 4 गंभीर धारायें। मनोहर लाल, राज्यमंत्री, कुल केस-1, आईपीसी की 3 गंभीर धारायें। अनिल राजभर, राज्यमंत्री , कुल केस - 2, आईपीसी की एक गंभीर धारा । वैसे सीएम बनने से पहले तक सांसद योगी आदित्यनाथ पर भी तीन मुकदमे थे। उन पर भी आईपीसी ती 7 घारायें थीं। पर सीएम बनने के बाद कैबिनेट निर्णय से सारे मामले खत्म हो गये । उसके बाद बहुतेरे मामलो में भी सरकार ने राजनीतिक मामले करार देते हुये अदालतों को काम से बचा लिया ।
लेकिन चुनाव लडते वक्त दिये गये हलफनामे में जिन अपराधों का जिक्र चुने हुये नुमाइन्दों ने किया उसमें दागी मंत्रियों की फेरहिस्त साफ बताती है कि दस कैबिनेट स्तर के मंत्री तो छह राज्यस्तर के मंत्री जो दागदार है उनपर आईपीसी की वह धाराये लगी हुई है जिन्हे गंभीर अपराध के तौर पर माना जाता है। और गंभीर अपराध का मतलब है। सजा मिलेगी तो कम से कम 5 बरस जेल में गुजारना होगा । और जिन अपराधो की फेरहिस्त में हत्या , अपहरण , बलात्कार , से लेकर राज्य को राजस्व का चुना लगाना और करप्शन एक्ट से लेकर पीपुल्स रिपजेन्टेशन एक्ट तक के खिलाफ कार्रवाई दर्ज है और ज्यादातर गैर जमानती है । यानी इलेक्शन वाच की रिपोर्ट के मुताबिक योगी के मंत्रिमंडल में 45 फीसदी मंत्री दागदार है । जिनपर आपराधिक मामले दर्ज है । यानी जिस वक्त राज्य के अपराधियो पर नकेल कसने की बैठक हुई होगी तो कैबिनेट ने ही इसे पास किया और उसमें भी कई चुने हुए नुमाइन्दे खुद कई आपराधिक मामलों में फंसे हुये है । अगर मंत्रियों से इतर यूपी में चुने गये कुल 403 नुमाइन्दों पर नजर डाले तो 140 विधायक ऐसे है जो दागी है या कहे जिनपर आपराधिक मामले
चल रहे है । तो क्या योगी सरकार ने सही निर्णय लिया कि राज्य में वैसे अपराधी जिनपर आईपीसी की गंभीर धाराये दर्ज हैं, उनके खिलाफ एनकाउंटर का आदेश दे दिया गया ।जिससे आने वाले वक्त में वह राजनीति में ना आ जाये । यानी राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिये अपराधियो का चुनाव लडने से पहले ही एनकाउंटर जरुरी है। या फिर जो दागी या कहे आपराधिक मामलो के दाग लेकर जनता के नुमाइन्दे बन गये उन्हे विशेषाधिकार मिल गया कि वह पुलिस प्रशासन को इस काम में लगा दे कि कोई आपराधी राजनीतिक तौर पर मजबूत ना हो । यानी जिस तरह यूपी में एनकाउंटर को लेकर मायावती और अखिलेशयादव ने आरोप
लगाये कि कि राजनीतिक प्रतिद्वन्दी को खत्म करने के लिये इनकाउटर कराये जा रहे है तो उसका अगला सच तो यह भी है कि देश में ना तो कोई ऐसा राज्य है ना कि किसी राज्य में कोई मंत्रिमंडल जहा के विधायक मंत्री दागी ना हो । या कहे गंभीर आपराधिक मामलो के केस जिनपर दर्ज ना हो । एडीआर और नेशनल अलेक्शन वाच की रिपोर्ट की माने तो जिस संसद को देश का कानून बनाने का अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट को भी आखिर में किसी निर्णय के मद्देनजर संसद की तरफ ही देखना पड़ता है, उसी ससंद के भीतर लोकसभा में 543 में से 185 सासंद दागी है । यानी करप्शन या आपराधिक मामले उनके खिलाफ दर्ज है ।
इसी तरह राज्यसभा के भी 40 सांसद ऐसे है जो दागी है । तो ये सवाल हो सकता है कि आखिर कैसे वह सांसद देश में भ्रष्टाचार या राजनीति में अपराध को लेकर चिंतन मनन भी कर सकते है जो खुद दागदार है । क्योकि याद किजिये प्रधानमंत्री बनने के ठीक बाद दागी सांसदो को लेकर खुद प्रधनमंत्री मोदी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले भाषण में ही दागी सांसदों को लेकर जैसे ही यह सवाल छेड़ा कि फास्ट ट्रैक अदालतो के जरीये साल भर में दागी सांसदों के मामले निपटाये जायें। वैसे ही पहला सवाल यही उठा कि कही मोदी ने बर्रे के छत्ते में हाथ तो नहीं डाल दिया। क्योकि जो सवाल बीते
दो दशक से संसद अपनी ही लाल-हरे कारपेट तले दबाता रहा उसे खुले तौर पर प्रधानमंत्री मोदी ने एक ऐसे सिक्के की तरह उछाल दिया जिसमें अब चित यापट होनी ही है। क्योंकि मौजूदा लोकसभा में 185 सांसद दागदार हैं। और यह तादाद बीते दस बरस में सबसे ज्यादा है। याद कीजिये तो 2004 में यानी १४वी
लोकसभा में 150 सांसद दागी थे। तो १५ वी लोकसभा यानी 2009 में 158 सांसद दागी थे। लेकिन बीते दस बरस में यानी मनमोहन सिंह सरकार के वक्त दागी सांसदों का मामला उठा जरुर लेकिन सरकार गिरे नहीं इसलिये चैक एंड बैलेसं तले हर बार दागी सांसदो की बात संसद में ही आयी गयी हो गयी । और तो और
आपराधी राजनेता आसानी से चुनाव जीत सकते है इसलिये खुले तौर पर टिकट बांटने में किसी भी राजनीतिक दल ने कोताही नहीं बरती और चुनाव आयोग के बार बार यह कहने को भी नजर्अंदाज कर दिया गया कि आपराधिक मामलों में फंसे राजनेताओ को टिकट ही ना दें । यहा तक की मनमोहन सिंह के 10 बरस के
कार्यकाल में लोकसभा में तीन बार और राज्यसभा में 5 बार दागी सांसदों को लेकर मामला उठा। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं । वजह यही मानी गई कि सरकार गठबंधन की है तो कार्वाई करने पर सरकार ही ना गिर जाये । यानी सवाल तीन स्तर पर है । पहला , यूपी में अपराधियो का एनकाउंटर राजनीतिक मंशा के साथ भविष्य की राजनीति साधने के लिये आपराधिक मामलो में फंसे सत्ताधारी ही तो नहीं उठा रहे है । दूसरा , तमाम राज्यो में सत्ता तक पहुंचने के लिये पहले अपराधी का इस्तेमाल होता था अब अपराधी ही चुनाव लडकर विधायकी का विषेशाधिकार पा भी लेते है और फिर खुले तौर पर अपराध भी करते है । मसलन यूपी में उन्नाव रेप कांड में बीजेपी विधायक सेंगर पर राज्य सरकार हाथ डाल नहीं पाती । तो मामला सीबीआई के पास जाता है । पर पुलिस मुख्य गवाह युसुफ को भी बचा नहीं पाती उसकी हत्या हो जाती है । इसी तरह बिहार में मुज्जफरपुर बालिकागृह कांड भी सीबीआई के पास जाता है क्योंकि सत्ताधारी विधायक-मंत्री इसमें फंसते है । और फिर मुज्जफरपुर कांड से जुडी खबरो तक को छाापने पर रोक राज्य सरकार लगा देती है । और तीसरा सवाल सीधे मोदी सरकार से जुडा है । क्योकि एक तरफ दागी सांसदो को लेकर वह बैचेनी दिखाते है दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के पांच बार कहने पर भी बीते चार बरस में खुद के उपर निगरानी रखने के लिये लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर पाते है । यानी सवाल यह नहीं है कि अपराधियो की धरपकड की जाये । फास्ट ट्रेक कौर्ट में मामले को लाया जाये । या फिर इनकाउटर कर दिया जाये । सवाल ये है कि जब सत्ता चलाने वालो में ही अपराधियो की भरमार हो । यानी दर्ज आपराधिक मामले ही अपराधी होने का पैमाना है तो फिर सत्ताधारी को कैसे कानून बनाने का अधिकार दिया जा सकता है अगर उसके खिलाफ भी मामले दर्ज है। तो या फिर अपराधियों के लिये चुनाव लडकर सत्ता में आने की प्रक्रिया ही लोकतंत्र हो चुका है । या अपराध से बचकर अपने राजनीतिक आपराधिक दुशमनो को ठिकाने लगाना ही सिस्टम है । तो फिर चुनावी प्रकिया का मतलब है क्या । और कानून बनाने वाली संसद हो या विधानसभा इसके मतलब मायने बचेगें कब तक । और उपरी तौर पर जब ये सब नजर आ रहा है तो देश में जिले या पंचायत स्तर पर क्या हाल होगा इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है । इसी बरस मद्यप्रदेश में म्यूनिसिपल इलेक्शन हुये । एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 16 फिसदी उम्मीदवारो ने हलफनामें में लिखा में उनके खिलाफ गंभीर आपराधिक आरोप दर्ज है । यानी एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था ही बनती जा रही है जहांं आपराधिक होना चुनावी लोकतंत्र का राग सबसे मजबूती से गाना सरीखा हो गया है । और आपराधियो की जगह लोकतंत्र का ही एनकाउंटर आपराधिक तंत्र कर रहा है जो खुद को जनता का नुमाइन्दा बताता है । लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद या विधानसभा में बैठकर कानून बनाता है । एडीआऱ की एक रिपोर्ट के मुताबिक सासंद और विधायकों की एक लंबी फेरहिस्त है जिनपर अपहरण का आरोप दर्ज है । इसमें बीजेपी के 16 सासंद/विधायक है । तो कांग्रेस के छह सासंद विधायक हैं, जिनपर अपरहण का केस दर्ज है । और देश भर में अलग अलग पार्टियो के कुल 64 से ज्यादा सांसद/विधायक है जिनपर अपहरण सरीखे मामले दर्ज है । महिलाओ के हक के सवाल या उनके उत्पीडन को लेकर सांसदो और विधायको का आलम ये है कि 48 सांसद/विधायक ऐसे है जिनके खिलाफ महिला उत्पीडन का मामला दर्ज है । और इस अपराध में बलात्कार से लेकर लडकी बेचने तक के आरोप है । यानी ये कल्पना के परे है कि अपराध मुक्त की जगह कैसे अपराधयुक्त लोकतंत्र बनाया जा रहा है । समाज को उसी अनसार ढाला जा रहा है । क्योकि जब लोकतंत्र या संविधान भी चुनी हुई सत्ता के सामने बेमानी हो चला है तो फिर चुने हुये नुमाइन्दो पर लगे दाग कैसा समाज या देश गढ पायेगें ये सोचना तो होगा । क्योकि मौजूदा वक्त में चौखंम्भा राज के तहत परखे तो लोकसभा-राज्यसभा में 786 सांसद । तमाम विधानसभाओं में 4120 विधायक । देश में 633 जिला पंचायतो में 15 ,581 सदस्य । ढाई लाख ग्रामसभा में 26 लाख सदस्य यानी सवा सौ करोड़ के देश में 26,20,487 लोग ही राजनीति सत्ता की होड गांव से लुटियन्स की दिल्ली तक छाये हुये है । और इसमें से 50 फिसदी दागी है । 36 फीसदी गंभीर आपराधिक मामलों में आरोपी है । सिर्फ संसद और देश की विधानसभाओं में बैठ कर देश चलाने वाले कुल 4896 में से 1580 ने तो अपने हलफनामे में लिखकर दिया है कि उनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज है । यानी सवाल बढते अपराधों का नहीं बल्कि लोकतंत्र के नाम पर अपराध को आश्रय देने का है।
Tuesday, August 28, 2018
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लोकतंत्र के एनकाउंटर का संविधान |
Monday, August 27, 2018
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राजनीतिक सत्ता से बड़ी ना कोई विचारधारा ना ही कोई बिजनेस |
क्या राजनीतिक सत्ता का खेल अब इस चरम पर पहुंच गया है, जहां देश में हर विचार सत्ता के लिये है। और सत्ता का मतलब है सबसे ज्यादा मुनाफा। कारपोरेट हो या मीडिया। अदालत हो या औद्योगिक घराने। धंधा खनन का हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर का। सभी को चलना सत्ता के इशारे पर ही है और अपने अपने दायरे में सभी का मुनाफा राजनीतिक सत्ता से तालमेल बैठ कर ही संभव है।
तो क्या राजनीतिक का अपराधीकरण या क्रोनी कैपटलिज्म या फिर माफिया राजनीतिक नैक्सस से आगे बात निकल चुकी है, जहां देश एक बाजार है और हर काम एक बिजनेस। और सबसे बडा बिजनेस राजनीतिक सत्ता है, जिसके पास आ गई उसकी ताउम्र की लाटरी खुल गई। और इसी लाटरी की जद्दोजहद ही देश में विचार भी
है और विचारधारा भी। जरा इसे सिलसिलेवार तरीके से परख लें।मसलन, केरल संकट को ऱाष्ट्रीय आपदा क्यों नहीं माना गया क्योंकि वहा बीजेपी की सरकार नहीं है? बिहार के मुजफ्फरपुर से लेकर आरा तक जो लड़कियों से लेकर महिला के साथ हुआ उसे जंगल राज नहीं माना सकता क्योंकि वहां की सत्ता में बीजेपी साथ है? पं बंगाल में ममता बनर्जी की सत्ता बीजेपी के लाउडस्पीकर की आवाज बंद कर देती है क्योंकि वह बीजेपी की नहीं है और बीजेपी से राजनीतिक तौर पर दो दो हाथ कर रही है? यूपी में इनकाउंटर दर इनकाउंटर पर कोई सवाल जवाब नहीं करता चाहे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ही आवाज क्यों ना लगाये।
क्योंकि योगी की सत्ता संघ की मोदी की सत्ता का ही विस्तार है? किसान-मजदूर, स्वदेशी, महिला, आदिवासी सरीके दर्जनों समुदाय से जुड़े मुद्दे जो कल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा से जुडे थे, अब उसको भी सत्ता की नजर लग गई है यानी जो सत्ता करे वह ठीक? और ठीक का मतलब शिक्षा का क्षेत्र हो या हेल्थ का। रोजगार का सवाल हो या किसानी का। महिलाओं के खिलाफ बढते मामले हो या फिर दलित उत्पीडन के मामले। हर सवाल का जवाब खोजना होगा तो राजनीतिक सत्ता के दरवाजे पर दस्तक देनी ही होगी।और चाहे अनचाहे सारे सवाल उस राजनीति से टकरायेंगे ही जो मुद्दों के समाधान की जगह मुद्दों को हड़पकर सत्ता पाने या सत्ता ना गंवाने की दिशा को तय करेंगे। तो क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश वाकई उसी लोकतंत्र को जी रहा है, जिसका नाम है चुनावी लोकतंत्र। और चुनाव ही देश का सिस्टम बनाता है। चुनाव ही राजनीतिक दलों के भीतर रोजगार पैदा करता है । चुनाव में जीतने वाले का राजनीतिक घोषणापत्र ही देश का संविधान होता है । चुनाव में सत्ता के लिये काम करना ही संवैधानिक संस्थाओं का मूल धर्म है । चुनावी तौर तरीके ही देश में कानून का राज बताने दिखाने के लिये काम करते हैं। दलित उत्पीडन हो या मुस्लिम इनकाउंटर कानून चुनावी जोड़-घटाव करने वाले राजनीतिक सत्ता के सामने नजमस्तक होकर पूछता ही है , करना क्या है ? यानी लकीर बारीक है पर धीरे धीरे आजादी के बाद से लोकतंत्र की समूची खुशबु ही जिस तरह चुनावी राजनीति में जा सिमटी है उसमें अब देश का मतलब चुनाव है और चुनाव का मतलब है सत्ता पाने की होड़। यानी देश की
विचारधारा। देश का धर्म। देश की संस्कृति। देश की पहचान। क्या ये सब मायने रखते है अगर इन शब्दों का इस्तेमाल राजनीति ना करें । या फिर इन शब्दो के आसरे सत्ता ना मिल पाये तो ये शब्द क्या मायने रखते है। नेहरु का समाजवाद हो या मार्क्स-लेनिन करते हुये वर्ग संघर्ष का सवाल उठाने वाली वामपंथी सोच। या फिर हिन्दुत्व का नारा लगाते स्वयंसेवकों की टोली से निकली जनसंघ फिर बीजेपी। ध्येय सत्ता रही। और हर राजनीतिक दलों के कार्यकत्ता-नेताओ के लक्ष्य ने कुछ हद तक अपनी अपनी विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मथने का वक्त देश की जनता को दिया। पर जब विचार ही सत्ता पाना हो जाये तो क्या होगा। इमरजेन्सी के बाद मोरारजी की सत्ता को उनके साथी सत्ताधारी ही चुनौती देते हैं क्योंकि उन्हे आपातकाल के बाद के हालात को बदलना नहीं था बल्कि सत्ता पाना था। तो चरण सिंह, बाबू जनजीवनराम से लेकर जनता पार्टी से जुडे स्वयंसेवकों की दोहरी सदस्यता सवाल उठाते हुये अपने अपने सत्ता के लक्ष्य की दिशा में बढ़ जाती है। वीपी सिंह बोफोर्स घोटाले की आग में हाथ सेंकते हुये सत्ता पाते है पर देश को घोटाले या भ्रष्टाचार से आगे ले नहीं जा पाते । मंडल कमंडल की आग जाति-धर्म को वोट बैंक बना कर सत्ता पाने का खेल सिखा देती है । क्षत्रपों की पूरी कतार ही राष्ट्रीय राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और उनके नेताओं को हराने में इसलिये सक्षम हो जाती है क्योंकि विचारधारा किसी के पास बची नहीं या कहे सत्ता पाना ही प्रमुख विचारधारा बन गई। तो फिर सत्ता के करीब हो कर सत्ता की मलाई पाना हो या सत्ता के जरिए अपने न्यूनतम काम कराना हो, इसे क्षत्रपों की राजनीति से बल मिला। तो धीरे धीरे सत्ता की सिस्टम हो गया और सिस्टम का काम करना ही सत्तानुकुल हो गया। कोई विचार बचा नहीं कि देश कैसे गढ़ना है। कोई सोच बची नहीं कि देश के सांस्कृतिक मूल्य भी मायने रखते है। तो फिर संस्थानों का सत्तानुकुल होना भर नहीं बल्कि संस्थानों का ढहना भी शुर हो गया। सिर्फ संवैधानिक या स्वायत्त संस्धान मसलन सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, सीवीसी, सीबीआई, सीआईसी, यूजीसी ही नहीं ढहे बल्कि भविष्य के लिये कैसे भारत को गढ़ा जाये इसपर सीधे असर डालने वाली शिक्षा व्यवस्था भी उसी राह निकली।
यानी कालेज -विश्वविघालय में क्या पढाया जाये और कैन पढाये तक सत्ता की निगरानी में आ गया । और असर इसी का है मौजूदा वक्त में भारत दुनिया का नंबर एक देश है जहा से सबसे ज्यादा छात्र उच्च शिक्षा के लिये देश छोड़ रहे हैं। और दूसरी तरफ भारत ही दुनिया का नंबर एक देश है जो अपने ही भविष्य को यानी बच्चों
को प्राथमिक शिक्षा दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रहा है । तो लकीर वाकई महीन है कि सत्ता पाने की होड़ में फंसे देश में चुनाव क्यों कैसे महत्वपूर्ण हो गया और 2014 के बाद के हालात चरम पर तो नहीं पहुंच गये। क्योंकि 2014 में सिर्फ सत्ता पाने की बात थी। और सत्ता के लिये क्या कुछ हुआ उसे दोहराने से अच्छा है कि अब 2019 से पहले कैसे सत्ता के बनाये कटघरे में ही सत्ता पाने के लिये हर राजनीतिक दल मचल रहा है। कोई भी जाति, धर्म, संप्रदाय से जुडा कोई भी मुद्दा हो या फिर शिक्षा, स्वस्थ्य , रोजगार से लेकर किसान-मजदूर , महिला, दलित अल्पसंख्यक का मुद्दा। किसी राजनीतिक पार्टी के पास क्या कोई विचार है। क्या देश में कोई विचारधारा भारत को गढने के लिये है। क्या दुनिया को मौजूदा भारत अतीत के स्वर्णिम दौर के अलावे कोई संदेश दे सकता है कि आने वाले वक्त में कैसा भारत होगा। क्योंकि दुनिया के लिये भारत एक बाजार है। जहां जनसंख्या के लिहाज से एक तबका सबसे बडा उपभोक्ता है। दुनिया के लिये भारत का मतलब भारत डंपयार्ड है जहां प्रतिंबधित दवाई से लेकर हथियार बेचे जा सकते हैं। दुनिया के लिये भारत सस्ते मजदूर । मुफ्त का इन्फ्रास्ट्रक्चर ।खनिज की लूट का प्रतीक है। और ये सारे अधिकार किस सत्ता के पास होने चाहिये या फिर सत्ता कैसे इन अधिकारों को अपने हक में करने के लिये बैचेन है । ध्यान दिजिये तो मौजूदा वक्त में देश का विचार यही है विचारधारा यही है। क्योंकि राजनीति से बडा कोई बिजनेस है नहीं और सबसे मुनाफे वाले धंधे से बडा कोई विचार अभी दुनिया में है नहीं।
Sunday, August 26, 2018
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'ना गुजरात दंगों में बीजेपी थी ना सिख दंगों में कांग्रेस रही" |
बात 28 फरवरी 2002 की है । बजट का दिन था । हर रिपोर्टर बजट के मद्देनजर बरों को कवर करने दफ्तर से निकल चुका था। मेरे पास कोई काम नहीं था तो मैं झंडेवालान में वीडियोकान टॉवर के अपने दफ्तर आजतक से टहलते हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हेडक्वार्टर पहुंच गया, जो 10 मिनट का रास्ता थ। मिलने पहुंचा था आरएसएस के तब के प्रवक्ता एमजी वैद्य से। नागपुर में काम करते वक्त से ही परीचित था तो निकटता थी । निकटता थी तो हर बात खुलकर होती थी । उन्होंने मुझे देखा हाल पूछा और झटके में बोले गुजरात से कोई खबर। मैंने कहा कुछ खास नहीं। हां गोधरा में हमारा रिपोर्टर पहुंचा है। पर आज तो बजट का दिन है तो सभी उसी में लगे हैं ...मेरी बात पूरी होती उससे पहले ही वैघ जी बोले आइये सुदर्शन जी के कमरे में ही चलते हैं। सुदर्शन जी यानी तब के सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन। मुझे भी लगा ऐसा क्या है। संघ हेडक्वार्टर की पहली मंजिल पर शुरुआत में ही सबसे किनारे का कमरा सरसंघचालक के लिये था तो वैद्य जी के कमरे से निकल
कर सीधे वहीं पहुंचे। कमरे के ठीक बाहर छोटी से बालकानी सरीखी जगह। वहां पर सुदर्शन जी बैठे थे और वैद्य जी मिलवाते पर उससे पहले ही सुदर्शन जी ने देखते ही कहा क्या खबर है। कितने मरे हैं। कितने मरे है कहां? गुजरात में। मैंने कहा गोधरा में तो जो बोगी जलायी गयी, उसकी रिपोर्ट तो हमने रात में दी थी। 56 लोगों की मौत की पुष्टि हुई थी। नहीं नहीं हम आज के बारे में पूछ रहे हैं। आज तो छिट पुट हिंसा की ही खबर थी। साढे ग्यारह बजे दफ्तर से निकल रहा था तब समाचार एजेंसी पीटीआई ने दो लोगों के मारे जाने की बात कही थी। और कुछ जगह पर छिटपुट हिंसा की खबर थी । चलो देखो और कितनी खबर आती है। प्रतिक्रिया तो होगी ना। तो क्या हिंसक घटनायें बढेंगी। मैंने यू ही इस लहजे में सवाल पूछा कि कोई खबर मिल जाये। और उसके बाद सुदर्शनजी और वैद्य जी ने जिस अंदाज में गोधरा कांड की प्रतिक्रिया का जिक्र किया उसका मतलब साफ था कि गुजरात में हिंसा बढ़ेगी। और हिन्दुवादी संगठनों में गोधरा को लेकर गुस्सा है। करीब आधे घंटे तक गोधरा की घटना और गुजरात में क्या हो रहा है इसपर हमारी चर्चा होती रही। और करीब एक बजे संघ के प्रवक्ता एमजी वैद्य ने एक प्रेस रीलिज तैयार की जिसमें गोधरा की धटना की भर्त्सना करते हुये साफ लिखा गया कि , 'गोधरा की प्रतिक्रिया हिन्दुओं में होगी।"
और चूंकि मैं संघ हेडक्वार्टर में ही था तो प्रेस रिलीज की पहली प्रति मेरे ही हाथ में थी और करीब सवा एक-डेढ़ बजे होंगे जब मैंने आजतक में फोन-इन दिया। और जानकारी दी कि गुजरात में भारी प्रतिक्रिया की दिशा में संघ भी है। और दो बजते बजते कमोवेश हर चैनल से बजट गायब हो चुका था। क्योंकि गुजरात में हिंसक घटनाओं का तांडव जिस रंग में था, उसमें बजट हाशिये पर चला गया और फिर क्या हुआ इसे आज दोहराने की जरुरत नहीं है । क्योंकि तमाम रिपोर्ट में जिक्र यही हुआ कि गोधरा को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला तले मुसलमानों को सबक सिखाने का नरसंहार हुआ। तो ऐसे में लौट चलिये 31 अक्टूबर 1984 । सुबह सवा नौ बजे तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को उनके दो सुरक्षा गार्ड ने गोली मार दी। और बीबीसी की खबर से लेकर तमाम कयासों के बीच शाम पांच बजे राष्ट्रपति विदेश यात्रा से वापस पालम हवाई अड्डे पर उतर कर सीधे एम्स पहुंचे और शाम छह बजे आल इंडिया रेडियो से श्रीमती गांधी की मृत्यु की घोषणा हुई। और उसके बाद शाम ढलते ढलते ही दिल्ली में गुरुद्वारो और सिखो के मकान, दुकान , फैक्ट्रियां और अन्य संपत्तियो को नुकसान पहुंचाने की खबर आने लगी । देर शाम ही दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गई । और पीएम बनने के साढे चार घंटे बाद ही देर रात राजीव गांधी ने ऱाष्ट्र के नाम संदेश देते हुये शान्ति और अमन बनाए रखने की अपील की । पर हालात जिस तरह बिगड़ते चले गये वह सिवाय हमलावरों या कहे हिंसक कार्वाई करने वालों के हौसले ही बढ़ा रहे थे । क्योंकि तब के गृहमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 31 अक्टूबर की शाम को कहा, "सभी हालात पर चंद घंटों में नियंत्रण पा लिया जायेगा।" सेना भी बुलायी गई पर हालात नियंत्रण से बाहर हो गये। क्योंकि नारे "खून का बदला खून से लेंगे " के लग रहे थे और 3 नवंबर को जब तक इंदिरा गांधी का अंतिम संस्कार पूरा हो नहीं गया तब तक हालात कैसे नियतंत्र में लाये जाये ये सवाल उलझा हुआ था। क्योंकि कांग्रेस की युवा टोली सडक पर थी। सिर्फ धारा 144 लगी थी। पुलिस ना सड़क पर थी। दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश तो थे । कुछ इलाकों में कर्फ्यू भी लगाया गया । उपराज्यपाल ने राहत शिविर स्थापित करने से इंकार कर दिया । और तमाम हालातो के बीच दिल्ली के उपराज्यपाल ही 3 नवंबर को छुट्टी पर चले गये। तो देश के गृह सचिव को ही उपराज्यपाल नियुक्त कर दिया गया । और इस दौर में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर और एचकेएल भगत की पहल से लेकर राजीव गांधी तक ने बड़े वृक्ष गिरने से धरती डोलने का जो जिक्र किया वह सीधे दंगा करने के लिये सड़क पर चाहे ना निकलने वाला हो पर दंगाइयों के हौसले बुलंद करने वाला तो रहा है। और तब जस्टिस सीकरी और बदरुद्दीन तैयबजी की अगुवाई वाली सिटीजन्स कमीशन ने अपनी जांच में निष्कर्ष निकाला, "पंजाब में लगातार बिगड़ती राजनीतिक स्थिति से ही नरंसहार की भूमिका बनी। श्रीमती गांधी की नृंशस हत्या ने इस संहार को उकसाया। कुछेक स्थानीय विभिन्नताओं के बावजूद अपराधो की उल्लेखनीय एकरुपता इस तथ्य की ओर सशक्त संकेत करती है कि कहीं ना कही इन सबका उद्देश्य ' सिखो को सबक सिखाना " हो गया था। "
तो इन दो वाक्यो में अंतर सिर्फ इतना है कि बीजेपी और संघ परिवार ने गुजरात दंगों को लेकर तमाम आरोपो से पल्ला जितनी जल्दी झाड़ा और क्रिया की प्रतिक्रिया कहकर हिन्दू समाज पर सारे दाग इस तरह डाले कि जिससे उसी अपनी प्रयोगशाला में दीया भी जलता रहे और खुद को वह हिन्दुत्व की रक्षाधारी भी बनाये रहे। हां, बतौर प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने जरुर राजधर्म का जिक्र कर आरएसएस से पंगा लिया। और संघ के भीतर का वही गुबार भी तब के गुजरात सीएम मोदी के लिये अमृत बन गया। पर दूसरी तरफ 1984 के सिख दंगों को लेकर कांग्रेस हमेशा से खुद को कटघरे में खड़ा मानती आई । तभी तो सिख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद से लेकर स्वर्ण मंदिर की चौखट पर माफी और पश्चाताप के अंदाज में ही नजर आये । जिसतरह विहिप, बजरंग दल से लेकर मोदी तक को संघ परिवार ने गुजरात दंगों के बाद सराहा वह किसी से छुपा नहीं है। और जिस तरह 84 के दंगों के बाद कानूनी कार्रवाई शुरु होते ही टाइटलर, सज्जन कुमार, भगत का राजनीतिक वनवास शुरु हुआ वह भी किसी से छुपा नहीं है। यानी सबकुछ सामने है कि कौन कैसे भागीदार रहा। और सच यही है कि तमाम मानवाधिकार संगठनों की जांच रिपोर्ट में ही दोनों ही घटनाओं को दंगा नहीं बल्कि नरसंहार कहा गया। खुद ऱाष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक ने नरसंहार कहा । पर अब सवाल ये है कि आखिर 34 बरस बाद कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को क्यों लगा या उन्हें क्यों कहना पडा कि 84 का दंगा कांग्रेस की देन नहीं है। तो मौजूदा वक्त की राजनीति को समझना होगा जिसमें नरेन्द्र मोदी की पहचान सिर्फ बीजेपी के नेता या संघ के प्रचारक के तौर भर की नहीं है । बल्कि उनकी पहचान के साथ गुजरात के दंगे या कहें उग्र हिन्दुत्व की गुजरात प्रयोगशाला जुड़ी है । और 2002 के गुजरात से निकलने के लिये ही 2007 में वाइब्रेंट गुजरात का प्रयोग शुरु हुआ । क्योंकि याद कीजिये 2007 के चुनाव में "मौत का सौदागर" शब्द आता है पर चुनाव जीतने के बाद मोदी वाइब्रेंट गुजरात की पीठ पर सवार हो जाते है। जिसने कारपोरेट को मोदी के करीब ला दिया या कहे बीजेपी के हिन्दुत्व के प्रयोग को ढंकने का काम किया । और उसी के बाद 2014 तक का जो रास्ता मोदी ने पकड़ा, वह शुरुआती दौर में कारपोरेट के जरीये मोदी को देश के नेता के तौर पर स्थापित करने का था और 2014 के बाद से मोदी की अगुवाई में बीजेपी / संघ ने हर उस पारपरिक मुद्दे को त्यागने की कोशिश की जो उसपर चस्पा थी ।
यानी सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि राम मंदिर से लेकर कश्मीर तक के बोल बदल गये। और इस ट्रेनिंग से क्या लाभ होता है, इसे बखूबी कांग्रेस अब महसूस कर रही है । क्योंकि प्रचार प्रसार के नये नये रास्ते खुले है और देश सबसे युवा है जो अतीत की राजनीति से वाकिफ नहीं है या कहे जिसे अतीत की घटनाओं में रुचि नहीं है । क्योकि उसके सामने नई चुनौतियां हैं तो फिर पारंपरिक राजनीतिक पश्चाताप का बोझ कांघे पर उठा कर क्यों चले और कौन चले । लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि अब 2019 की बिसात काग्रेस इस तर्ज पर बिछाना चाहती है जिसमें बीजेपी उसकी जमीन पर आ कर जवाब दें । क्योंकि नई राजनीतिक लडाई साख की है । कांग्रेस को लगने लगा है कि मोदी सरकार की साख 2016 तक जिस ऊंचाई पर थी वह 2018 में घटते घटते लोगों को सवाल करने-पूछने की दिशा तक में ले जा चुकी है। यानी कांग्रेस का पाप अब मायने नहीं रखता है बल्कि मोदी सरकार से पैदा हुये उम्मीद और आस अगर टूट रहे है तो फिर मोदी पुण्य भी मोदी पाप में बदलते हुये दिखाया जा सकता है । इसीलिये पहली चोट राहुल गांधी ने संघ परिवार की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की और दूसरा निशाना खुद को सिक दंगों से अलग कर गंगा नहाने की कोशिश ठीक वैसे ही की जैसे मोदी गुजरात के दाग विकास की गंगा के नारे में छुपा चुके हैं।
Tuesday, August 21, 2018
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वाजपेयी बीजेपी के प्रतीक थे....मोदी सत्ता के प्रतीक हैं... तो देश 2019 किस रास्ते जाएगा ! |
अटल बिहारी वाजपेयी के बग़ैर बीजेपी कैसी होगी, ये तो 2014 में ही उभर गया, लेकिन नया सवाल नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी का है क्योंकि 2014 के जनादेश की पीठ पर सवार नरेंद्र मोदी ने बीजेपी कभी संभाली नहीं बल्कि सीधे सत्ता संभाली जिससे सत्ता के विचार बीजेपी से कम प्रभावित और सत्ता चलाने या बनाए रखने से ज़्यादा प्रभावित ही नजर आए.
इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जनसंघ से लेकर बीजेपी के जिस मिज़ाज को राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय या बलराज मधोक से होते हुए वाजपेयी-आडवाणी-जोशी ने मथा उस तरह नरेंद्र मोदी को कभी मौक़ा ही नहीं मिला कि वह बीजेपी को मथें.
हां, नरेंद्र मोदी का मतलब सत्ता पाना हो गया और झटके में वह सवाल अतीत के गर्भ में चले गए कि संघ राजनीतिक शुद्धिकरण करता है और संघ के रास्ते राजनीति में आने वाले स्वयंसेवक अलग चाल, चरित्र और चेहरे को जीते हैं.
लेकिन वाजपेयी के निधन के दिन से लेकर हरिद्वार में अस्थि विसर्जन तक जो दृश्य बार-बार उभरा उसने बीजेपी को उस दोराहे पर ही खड़ा किया, जहां एक तरफ़ संघ की चादर में लिपटी वाजपेयी की पारंपरिक राजनीति है तो दूसरी तरफ़ मोदी की हर हाल में सत्ता पाने की राह है.
मतलब ये कि वाजपेयी की विरासत तले मोदी की सियासत जिन तस्वीरों के आसरे अभी तक परवान पर थी, वह बदल जाएगी या मोदी को भी बदलने को मजबूर कर देगी, नज़रें इसी पर हर किसी की जा टिकी हैं.
क्योंकि अभी तक वाजपेयी की जिस राजनीति को संघ परिवार या बीजेपी याद कर रहा है और विपक्ष भी उसे मान्यता दे रहा है वह राजनीति मोदी की राजनीति से बिल्कुल जुदा है.
ऐसे में तीन सवाल आपके सामने हैं.
पहला, क्या वाजपेयी की शून्यता अब बीजेपी के भीतर की उस ख़ामोशी को पंख दे देगी जिसे 2014 में सत्ता पाने के बाद से उड़ने ही नहीं दिया गया.
दूसरा, क्या मोदी काल ही संघ परिवार का भी आख़िरी सच हो जाएगा जहां सत्ता ही विचार है और सत्ता ही हिंदुत्व का नारा है.
तीसरा, क्या वाजपेयी के दौर में बीजेपी के कांग्रेसीकरण को लेकर जो बैचेनी आरएसएस में थी, उसका नया चेहरा मोदी काल में नए तरीक़े से उभरेगा जो संघ को आत्मचिंतन की दिशा में ले जाएगा.
सवाल ये नहीं है कि कि सत्ता पाने के जिस ककहरे को मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पढ़ा रहे हैं और मोदी उसका चेहरा बने हुए हैं, वह सत्ता ना पाने के हालात में डगमगा जाएगा, तब क्या होगा?
या फिर वाजपेयी के निधन के साथ वाजपेयी लेगेसी को ना ढोते हुए जिस रास्ते मोदी निकलना चाहते हैं, उस रास्ते क्या बीजेपी चल पाएगी या संघ परिवार साथ खड़ा रह पाएगा.
या फिर सबकुछ किसी जुए सरीखा हो चला है कि सत्ता रहेगी तो ही संघ का विस्तार होगा. सत्ता ना रहेगी तो कहीं टिक नहीं पाएंगे. दोबारा जेल जाने का भय पैदा हो जाएगा.
यानी अपने हिंदुत्व के प्रयोग के अंतर्विरोध को ढोते-ढोते संघ परिवार भी सत्ता के अंतर्विरोध में फंस गया है, जहां राम मंदिर नहीं चाहिए अगर सत्ता में बने रहने की गांरटी हो तो.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर वाली सोच नहीं चाहिए, अगर सत्ता में बने रहने की गांरटी हो जाए, तो कॉमन सिविल कोड का कोई मतलब नहीं है अगर सत्ता बनी रहे तो.
यानी सोशल इंजीनियरिंग का जो फ़ॉर्मूला देवरस से होते हुए गोविंदाचार्य ने अपनाया, वह मोदी-शाह काल में फ़िट बैठता नहीं है.
ये ठीक वैसे ही है, जैसे सावरकर का हिंदुत्व हेडगेवार के हिंदुत्व से टकराता रहा और 1966 में जब जनसंघ के अध्यक्ष की बात आई, तो लिबरल वाजपेयी की जगह कट्टर बलराज मघोक को गुरु गोलवरकर ने पंसद किया.
और यही दोहराव दीनदयाल उपाध्याय की मौत के बाद 1969 में ना हो जाए तो वाजपेयी ने ख़ुद की कट्टर छवि दिखाते हुए संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र में हिंदुत्व की धारणा पर लेख लिखा.
जिसमें कट्टर मुस्लिम विरोधी के तौर पर वाजपेयी की छवि उभरी और 1969 में वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष बने.
यानी संघ या उसकी राजनीतिक पार्टी के भीतर के सवाल लगातार सत्ता पाने और हिंदुत्व की विचारधारा के अंतर्द्वंद्व में जनसंघ के बनने से ही फंसे रहे.
उसका जवाब ना तो 1977 में जनता पार्टी के बनने से मिला ना ही 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मिला और एक बार फिर यही सवाल 2018 में संघ-बीजेपी के सामने आ खड़ा हुआ है. क्योंकि राजनीतिक तौर पर जनसंघ की सफलता कभी 10 फ़ीसदी वोट को छू नहीं पाई.
ग़ैर कांग्रेसवाद के नारे तले 1967 में जनसंघ को सबसे बड़ी सफ़लता 9.4 फ़ीसदी वोट के साथ 35 सीटों पर जीत की मिली.
लेकिन इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ जेपी की अगुवाई में संघ के सरसंघचालक देवरस ने 1977 में 41 फ़ीसदी वोट के साथ 292 सीटों पर सफ़लता पाई.
लेकिन ये सफलता भी स्थायी नहीं रही क्योंकि जनता पार्टी आरएसएस की विचारधारा से नहीं बल्कि संघ के तमाम स्वयसेवकों के संघर्ष और आपातकाल के ख़िलाफ़ तमाम राजनीतिक दलों की एकजुटता से निकली थी जिसमें मोरारजी से लेकर कांग्रेस के दलित नेता बाबू जनजीवन राम भी थे. किसान नेता चरण सिंह भी थे.
संघ अपने बूते सियासी सफलता की खोज में ही अयोध्या आंदोलन की दिशा में बढ़ा. शुरुआत में अयोध्या आदोलन भी संघ के बिखरते विचारों को एक छतरी तले लाने के लिए शुरू हुआ.
लेकिन बाद में इसे सत्ता में आने के रास्ते के तौर पर जब देखा गया, तो जो वाजपेयी रामरथ यात्रा से दूरी बनाए हुये थे वह भी 5 दिसबंर 1992 को अवतरित होकर अयोध्या की ज़मीन समतल बनाने का एलान करने से नहीं चूके.
पर सच तो यही है कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या ने बीजेपी के अयोध्या से मिलने वाले वोट में सेंघ लगा दी तो 1996 में बाबरी मस्जिद विध्वंस को भारतीय जनमानस राम मंदिर के लिए स्वीकार ना पाया.
और वाजपेयी चाहे चिमटे से भी सत्ता ना छुने का वक्तव्य दे बैठे हों पर सच यही है कि कट्टर हिंदुत्व से हर दल ने दूरी बनाई.
ध्यान दीजिए तो 1991 से 2004 तक के दौर में बीजेपी का वोट कभी 19 फ़ीसदी के आंकड़े को छू नहीं पाया और सीटें 200 के आंकड़े को छू नहीं पाईं.
लेकिन 2014 के जनादेश में ना तो संघ परिवार की कोई विचारधारा थी, ना बीजेपी का कोई चुनावी मंत्र. बल्कि ये पूरी तरह मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ और नरेंद्र मोदी की अविश्वसनीय प्रचार गाथा के आसरे सपनों को बेचने का खेल था.
नरेंद्र मोदी जादुई डुगडुगी इस तरह बजा रहे थे. जहा संघ-जनसंघ-बीजेपी ही नहीं बल्कि वाजपेयी-आडवाणी की कोई फ़िलॉसफ़ी भी नहीं थी. सिर्फ़ उम्मीद थी.
और उम्मीद के आसरे आस ऐसे जगी, जिसने देश की पारंपरिक राजनीति के मिज़ाज को ही बदल दिया. और संघ से निकली बीजेपी को 31 फ़ीसदी वोट के साथ अपने बूते बहुमत मिल गया.
यानी जब ज़ुबान पर ना तो हिंदुत्व का राग था, ना आरएसएस का स्वर्णिम इतिहास बताने की सोच और ना स्वयंसेवकों का संघर्ष. सिर्फ़ विकास का नारा और कांग्रेसी सत्ता को मटियामेट करने की कसम.
समाज के भीतर के ग़ुस्से और आक्रोश को जिस अंदाज़ में 70 बरस की आज़ादी के बाद के हालातों तले 2014 में रखा गया वह वाक़ई अद्भुत था.
लेकिन यही जादुई डुगडुगी 2019 में कैसे बजाई जाए - अब ये सवाल तो है. तो क्या इसके लिए संघ की ज़मीन पर उतरे मोदी वाजपेयी के तौर तरीकों का ख़ुद में समावेश कर लें? कैसे संभव होगा ये.
ये सवाल चाहे-अनचाहे अब बीजेपी ही नहीं संघ परिवार के भीतर भी हैं और इस सवाल का जवाब तभी तक ख़ामोशी तले है जब तक मोदी के ज़रिए सत्ता पाने की उम्मीद बरकरार है.
Monday, August 20, 2018
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2014 के जनादेश ने कैसे बदल दिया मीडिया को |
Friday, August 17, 2018
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वाजपेयी का राजधर्म |
Tuesday, August 14, 2018
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15 अगस्त 1975 लालकिले और 15 अगस्त 2018 के लालकिले का फर्क ? |
इमरजेन्सी लगाकर इंदिरा ने "नए भारत" का उदघोष किया अब मोदी "न्यू इंडिया" का ऐलान करेंगे
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15 अगस्त 1975 और 15 अगस्त 2018 । दोनों में खास अंतर है। पर कुछ समानता भी है। 32 बरस का अंतर है। 32 बरस पहले 15 अगस्त 1975 को देश इंतजार कर रहा था कि देश पर इमरजेन्सी थोपने के पचास दिन बाद तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लालकिले के प्रचीर से कौन सा एलान करेंगी। या फिर आपातकालके जरिये नागरिकों के संवैधानिक अधिकारो को सस्पेंड करने के बाद भी इंदिरा गांधी के भाषण का मूल तत्व होगा क्या। और 42 बरस बाद 15 अगस्त 2018 के दिन का इंतजार करते हुये देश फिर इंतजार कर रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर कौन सा राग लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी गायेंगे।
क्योंकि पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार चीफ जस्टिस ये कहकर सार्वजनिक तौर पर सामने आये कि "लोकतंत्र खतरे में है।" पहली बार देश की प्रीमियर जांच एजेंसी सीबीआई के निदेशक और स्पेशल डायरेक्टर ये कहते हुये आमने सामने आ खड़े हुये कि वीवीआईपी जांच में असर डालने से लेकर सीबीआई के भीतर ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जा रहा है, जो खुद दागदार हैं। पहली बार सीवीसी ही सरकार पर आरोप लगा रही है कि सूचना के अधिकार को ही वो खत्म करने पर आमादा है। पहली बार चुनाव आयोग को विपक्ष ने ये कहकर कठघरे में खड़ा किया है कि वह चुनावी तारीख से लेकर चुनावी जीत तक के लिये सत्ता का मोहरा् बना दिया गया है। पहली बार सत्ताधारियों पर निगरानी के लिये लोकपाल की नियुक्ति का सवाल सुप्रीम कोर्ट पांच बार उठा चुका है पर सरकार चार बरस से टाल रही है।
पहली बार मीडिया पर नकेल की हद सीधे तौर पर कुछ ऐसी हो चली है कि साथ खड़े हो जाओ नहीं तो न्यूज चैनल बंद हो जायेंगे। पहली बार भीड़तंत्र देश में ऐसा हावी हुआ कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कहीं लोग कानून के राज को भील ना जाये यानी भीडतंत्र या लिंचिंग के अम्यस्त ना हो जायें। और पहली बार सत्ता ने देश के हर संस्थानों के सामने खुद को इस तरह परोसा है जैसे वह सबसे बडी बिजनेस कंपनी है। यानी जो साथ रहेगा उसे मुनाफा मिलेगा। जो साथ ना होगा उसे नुकसान उठाना होगा। तो फिर आजादी के 71 वें जन्मदिन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी क्या कहेंगे। इस इंतजार से पहले ये जरुर जानना चाहिये कि देश में इमरजेन्सी लगाने के बाद आजादी के 28 वें जन्मदिन पर इंदिरा गांधी ने लालकिले के प्राचीर से क्या कहा था। इदिरा गांधी ने तब अपने लंबे भाषण के बीच में कहा, "इमरजेन्सी की घोषणा करके हमें कोई खुशी नहीं हुई। लेकिन परिस्थितियों का तकाजे के कारण हमें ऐसा करना पड़ा। परन्तु प्रत्येक बुराई में भी कोई ना कोई भलाई छिपी होती है। कड़े कदम इस प्रकार उठाये जैसे कोई डाक्टर रोगी को कडवी दवा पिलाता है जिससे रोगी स्वास्थ्य लाभ कर सके । " तो हो सकता है नोटबंदी और जीएसटी के सवाल को किसी डाक्टर और रोगी की तरह प्रधानमंत्री भी जोड दें । ये भी हो सकता है कि जिन निर्णयों से जनता नाखुश है और चुनावी बरस की दिशा में देश बढ चुका है, उसमें खुद को सफल डाक्टर करार देते हुये एलान से हुये लाभ के नीति आयोग से मिलने वाले आंकडो को ही लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री बताने निकल पड़े।
यानी डाक्टर नही स्टेट्समैन की भूमिका में खुद को खड़े रखने का वैसा ही प्रयास करें जैसा 32 बरस पहले इंदिरा गांधी ने लालकिले के प्राचीर से ये कहकर किया था , " हमारी सबसे अधिक मूल्यवान संपदा है हमारा साहस , हमारा मनोबल, हमारा आत्मविश्वास । जब ये गुण अटल रहेंगे,तभी हम अपने सपनों के भारत का निर्माण कर सकेंगे। तभी हम गरीबों के लिये कुछ कर सकेंगे. सभी सम्प्रदायों और वर्गों के बेरोजगारों को रोजगार दिला सकेंगे। उनके लिये उनकी जरुरतो की चीजे मुहैया करा सकेंगे। मै आपसे अनुरोध करूंगी कि आप सब अपने आप में और अपने देश के भविष्य में आस्था रखे। हमारा रास्ता सरल नहीं है। हमारे सामने बहुत सी कठिनाइयां हैं। हमारी राह कांटों भरी हैं।
"जाहिर है देश के सामने मुश्किल राह को लेकर इस बार प्रधानमंत्री मोदी जिक्र जरुर करेंगे। और टारगेट 2022 को लेकर फिर एक नई दृष्टि देंगे। पर यहा समझना जरुरी है कि जब देश के सामने सवाल आजादी के लगते नारो के हो। चाहे वह अभिव्यक्ति की आजादी की बात हो या फिर संवैधानिक संस्थानों को लेकर उठते सवाल है या फिर पीएमओ ही देश चलाने के केन्द्र हो चला हो। तो ऐसे में किसी भी प्रधानमंत्री को हिम्मत तो चाहिये कि वह लालकिले के प्राचीर से आजादी का सवाल छेड दें। पर इंदिरा गांधी में इमरजेन्सी लगाने के बाद भी ये हिम्मत थी। तो प्रधानमंत्री मोदी क्या कहेंगे ये तो दूर की गोटी है लेकिन 42 बरस पहले इंदिरा गांधी ने आजादी का सवाल कुछ यूं उठाया था , ' आजादी कोई ऐसा जादू नहीं है जो गरीबी को छु-मंतर कर दें और सारी मुश्किलें हल हो जाये । ...आजादी के मायने ये नहीं होते कि हम जो मनमानी करना चाहे उसके लिये हमें छूट मिल गई है । इसके विपरीत , वह हमें मौका देती है कि हम अपना फर्ज पूरा करें । ...इसका अर्थ यह है कि सरकार को साहस के साथ स्वतंत्र निर्णय ले सकना चाहिये । हम आजाद इसलिये हुये जिससे हम लोगो की जिन्दगी बेहतर बना सके । हमारे अंदर जो कमजोरियां सामंतवाद, जाति प्रथा , और अंधविश्वास के कारण पैदा हो गई थी । और जिनकी वजह से हम पिछडे रह गये थे उनसे लोहा लें और उन्हें पछाड दें । " जाहिर अगर आजादी के बोल प्रधानमंत्री मोदी की जुंबा पर लालकिले के प्रचीर से भाषण देते वक्त आ ही गये तो दलित शब्द बाखूबी रेगेंगा । आदिवासी शब्द भी आ सकता है । और चुनावी बरस है तो आरक्षण के जरीये विकास की नई परिभाषा भी सुनने को मिलेगी । पर इस कडी में ये समझना जरुरी है कि आजादी शब्द ही देश के हर नागरिक के भीतर तंरग तो पैदा करता ही है । फिर आजादी के दिन राष्ट्रवाद और उसपर भी सीमा की सुरक्षा या फौजियों के शहीद होने का जिक्र हर दौर में किया गया। फिर मोदी सरकार के दौर में शांति के साथ किये गये सर्जिकल स्टाइक के बाद के सियासी हंगामे को पूरे देश ने देखा-समझा। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी लालकिले के प्रचीर से विपक्ष के सेकुलरइज्म पर हमला करते हुये किसतरह के राष्ट्रवाद का जिक्र करेंगें, इसके इंतजार तो देश जरुर करेगा। लेकिन याद कीजिये 42 बरस पहले इंदिरा गांधी ने कैसे विपक्ष को निशाने पर लेकर राष्ट्रवाद जगाया था, 'हमने आज यहां राष्ट्र का झंडा फहराया है और हम इसे हर साल फहराते हैं क्योंकि यह हमारी आजादी से पहले की इस गहरी इच्छा की पूर्ति करता है कि हम भारत का झंडा लालकिले पर फहरायेंगे। विपक्ष के एक नेता ने एक बार कहा था : यह झंडा आखिर कपडे के एक टुकडे के सिवाल और क्या है ? निश्चय ही यह कपडे का एक टुकडा है , लेकिन एक ऐसा टुकडा है जिसकी आन-बान-शान के लिये हजारो आजादी के दीवानों ने अपनी जानें कुर्बान कर दी । कपड़े के इसी टुकडे के लिये हमारे बहादुर जवानों ने हिमालय की बर्फ पर अपना खून बहाया। कपड़े का ये टुकडा आरत की एकता और ताकत की निशानी है । इसी वजह से इसे झुकने नहीं देना है । इसे हर भारतीय को , चाहे वह अमीर हो या गरीब , स्त्री हो या पुरुष , बच्चा हो या युवा अथवा बूढा , सदा याद रखना है । यह कपडे का टुकडा अवश्य है लेकिन हमें प्राणो से प्यारा है ।" तो इमरजेन्सी लगाकर । नागरिकों के संवैधिनिक अधिकारों को सस्पेंड कर ।
42 बरस पहले जब इंदिरा गांधी देश के लिये मर मिटने की कसम खाते हुये लालकिले के प्रचीर से अगर अपना भाषण ये कहते हुये खत्म करती है, ' ये आराम करने और थकान मिटाने की मंजिल नहीं है ; यह कठोर परिश्रम करने की राह है । अगर आप इस रास्ते पर आगे बढते रहें तो आपके सामने एक नई दुनिया आयेगी , आपको एक नया संतोष प्राप्त होगा , क्योकि आप महसूस करेंगे कि आपने एक नए भारत का , एक नए इतिहास का निमार्ण किया है । जयहिन्द । "
तो फिर अब इंतजार कीजिये 15 अगस्त को लालकिले के प्रचीर से प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का । क्योंकि 42 बरस पहले इमरजेन्सी लगाकर इंदिरा ने नए भारत का सपना दिखाया था । और 42 बरस बाद लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र खत्म करने के सोच तले न्यू इंडिया का सपना जगाया जा रहा है और 15 अगस्त को भी जगाया जायेगा।
Friday, August 10, 2018
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अब मीडिया सरकार के कामकाज पर नजर नहीं रखती बल्कि सरकार मीडिया पर नजर रखती है |
दिल्ली में सीबीआई हेडक्वार्टर के ठीक बगल में है सूचना भवन. सूचना भवन की 10वीं मंज़िल ही देश भर के न्यूज़ चैनलों पर सरकारी निगरानी का ग्राउंड ज़ीरो है. हर दिन 24 घंटे तमाम न्यूज़ चैनलों पर निगरानी रखने के लिए 200 लोगों की टीम लगी रहती है.
बीते चार बरस में यह पहला मौका आया है कि मॉनिटरिंग करने वालों के मोबाइल अब बाहर ही रखवा लिए जा रहे हैं. पहली बार एडीजी ने मीटिंग लेकर मॉनिटरिंग करने वालों को ही चेताया कि अब कोई सूचना बाहर जानी नहीं चाहिए जैसे ‘मास्टरस्ट्रोक’ की मॉनिटरिंग की जानकारी बाहर चली गई.
ऐसे में बरसों-बरस से काम करने के बावजूद छह-छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे मॉनिटरिंग से जुड़े ऐसे 10 से 15 लोगों को हटाने की तैयारी हो चली है, जो मॉनिटरिंग करते हुए स्थायी सेवा और अधिक वेतनमान की मांग कर रहे थे. वैसे मॉनिटरिंग करने वालों को साफ़ निर्देश है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को कौन सा न्यूज़ चैनल कितना दिखाता है, उसकी पूरी रिपोर्ट हर दिन तैयार हो. कुछ लालच अपनी छवि को लेकर सूचना एवं प्रसारण मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को लेकर भी है तो वह भी अपनी रिपोर्ट तैयार कराते हैं कि कौन सा चैनल उन्हें कितनी जगह देता है. यानी न्यूज़ चैनल क्या दिखा रहे हैं… क्या बता रहे हैं… और किस दिन किस विषय पर चर्चा कराते हैं… उस चर्चा में कौन शामिल होता है… कौन क्या कहता है… किसके बोल सत्तानुकूल होते हैं… किसके सत्ता विरोध में… इन सब पर नज़र है. पर कन्टेंट को लेकर सबसे पैनी नज़र प्राइम टाइम के बुलेटिन पर और ख़ासकर न्यूज़ चैनल का रुख़ क्या है… कैसी रिपोर्ट दिखाई-बताई जा रही है… रिपोर्ट अगर सरकारी नीतियों को लेकर है तो अलग से रिपोर्ट में ज़िक्र होगा और धीरे-धीरे रिपोर्ट दर रिपोर्ट तैयार होती जाती है. फाइल मोटी होती है. उसके बाद मॉनिटरिंग करने वालों की निगाहों में वह चेहरे भर दिए जाते हैं जिन कार्यक्रम पर ख़ास नज़र रखनी है. यानी रिपोर्ट दर रिपोर्ट का आकलन कुछ इस तरह होता है जिसमें सत्तानुकूल होने की ग्रेडिंग की जाती है और जो सबसे ज़्यादा सरकार का राग गाता है उन्हें आश्वस्त वाली कैटेगरी में डाला जाता है.
जो चैनल बीच की श्रेणी में आते हैं यानी प्रधानमंत्री का चेहरा कम दिखाते हैं, उन्हें मॉनिटरिंग टीम में से कोई फोन कर देता है और दोस्ती भरे अंदाज़ में चेताता है कि आपको और दिखाना चाहिए.
संवाद कैसे होता है ये भी कम दिलचस्प नहीं है. बीते हफ़्ते ही नोएडा से चलने वाले यूपी केंद्रित एक चैनल के संपादक के पास फोन आया. पुराना परिचय देते हुए मीडिया पर बात हुई. उसके बाद दोस्ती भरे अंदाज़ में चेताया गया…
आपका चैनल कम दिखाता है…
किसे कम दिखाता है…
अरे! अपने प्रधानमंत्री जी को.
अरे नहीं! हम तो ख़ूब दिखाते हैं.
वह आपके अनुसार ‘ख़ूब’ होता होगा हम तो मॉनिटरिंग करते हैं न. रिपोर्ट देख रहे थे आपके चैनल का नंबर कहीं बीच में है.
अब आप कह रहे हैं तो और दिखाएंगे.
अरे जैसा आप ठीक समझें…
तो ये सुझाव है या चेतावनी? सोचिए, कैसे चैनलों के बीच होड़ लगती होगी कि कौन ज़्यादा से ज़्यादा प्रधानमंत्री मोदी को दिखाता होगा. और कितनों को फोन दोस्ती में चेताने के लिए किया जाता होगा. हालांकि इसके आगे मॉनिटरिंग की पहल दोस्ती नहीं देखती. सुझाव के तौर पर उभरती है और इस बार फोन सूचना भवन से बाहर निकल कर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय या बीजेपी दफ्तर तक पहुंचता है, जिसमें किसी ख़ास ख़बर या किसी ख़ास मौके पर चैनल को लाइव काटने (दिखाना) से लेकर चर्चा का विषय तक बताने के लिए होता है.
और चैनल ने अगर दिखाया नहीं या चर्चा न की जो सुझाव भरे अंदाज़ में चेतावनी भी होती है. जैसे, ‘अरे आप समझ नहीं रहे हैं… ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है. आप संपादक हैं आप ही निर्णय लें, देश के लिए क्या ज़रूरी है ये तो समझें. आप देशहित को ध्यान में नहीं रखते. देखिये, वक़्त बदल रहा है, अब पुरानी समझ का कोई मतलब नहीं… आप तो समझते हैं… हमारा ध्यान दीजिए, नहीं तो हम आपके कार्यक्रम में आ नहीं पाएंगे.’
ये महत्वपूर्ण है कि इसके आगे के तरीके चैनलों के मालिकों तक पहुंचते हैं. सामान्य तौर पर तो अब मालिक ही ख़ुद को संपादक मानने लगे हैं तो प्रोफेशनल संपादक की हैसियत भी मालिक/संपादक के सामने अक्सर ट्रेनी वाली हो जाती है.
पद-पैसा-मान्यता को बरक़रार रखने के लिए प्रोफेशनल संपादक भी अक्सर बदल जाता है. इन हालातों के बीच जब मॉनिटरिंग करने वालों की तैयार रिपोर्ट की फाइल किसी मालिक/संपादक के पास पहुंचती है तो दो प्रतिक्रियाएं साफ़ दिखाई देती हैं.
पहली, हमारा चैनल इतना शानदार है जो सरकार को नोटिस लेना पड़ा. दूसरा, इतनी मोटी फाइल में कुछ तो सच होगा. तो फिर संपादक की क्लास ली जाती है और चैनल नतमस्तक हो जाता है. हालांकि पहली प्रतिक्रिया के भी दो चेहरे हैं. एक, मालिक/संपादक को लगता है कि फाइल के ज़रिये सौदेबाज़ी की जा सकती है और दूसरा, अगर चैनल पर दिखाए गए तथ्य सही हैं तो फिर सरकारी फाइल सिवाय डराने के और कुछ नहीं. ऐसे में पत्रकारिता की साख़ पर सवाल न उठे, ये सोच भी जागती है पर इस दायरे में कितने आ पाते हैं ये भी सवाल है. ऐसे मालिक/संपादक हैं, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता. ख़ैर मॉनिटरिंग के इन तरीकों पर ग़ौर करने से पहले ये समझ लें कि मॉनिटरिंग का चेहरा मोदी सरकार की ही देन है, ऐसा नहीं है. हालांकि मोदी सरकार के दौर में मॉनिटरिंग के मायने और मॉनिटरिंग के ज़रिये मीडिया पर नकेल कसने का अंदाज़ ही सबसे महत्वपूर्ण हो गया है. इनकार इससे भी नहीं किया जा सकता कि मनमोहन सिंह के दौर में यानी 2008 में ही मॉनिटरिंग की व्यवस्था शुरू हुई थी पर तब मनमोहन के दौर में ‘भारत निर्माण’ योजना केंद्र में थी. यानी ग्रामीण इलाकों में भारत निर्माण को लेकर चैनलों की कवरेज पर ध्यान. 2009 में अंबिका सोनी सूचना एवं प्रसारण मंत्री हुईं तो मॉनिरटिंग के ज़रिये संवेदनशील मुद्दों पर नज़र रखी जाने लगी. पर न तो मनमोहन सिंह, न ही अंबिका सोनी की इसमें रुचि जगी कि मॉनिटरिंग के ज़रिये छवि निखारने की सोची जाए. हां, जानकारी होनी चाहिए ये ज़रूर था. छवि को लेकर चिंता कांग्रेसी दौर में मनीष तिवारी में जगी, जब वह सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने. उनके तेवर निराले थे. पर 2014 में सत्ता बदलते ही मॉनिटरिंग करने-देखने का नज़रिया ही बदल गया.
पहले जहां 15 से 20 लोग काम करते थे, यह तादाद 200 तक पहुंच गई और बाकायदा सूचना भवन में शानदार तकनीक लगी. ब्रॉडकास्ट इंजीनिंयरिंग कॉरपोरेशन इंडिया लिमिटेड के ज़रिये भर्तियां शुरू हुईं. ग्रेजुएट लड़के-लड़कियों की भर्ती शुरू हुई. ग्रेजुएट होने के साथ महज़ एक बरस के डिप्लोमा कोर्स वाले बच्चों को 28,635 रुपये देकर छह महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर रखा गया. कभी किसी को स्थायी नहीं किया गया.
मॉनिटरिंग पद से ऊपर सीनियर मॉनिटरिंग (37,450 रुपये) और कंटेंट एडिटर (49,500 रुपये) जिनकी कुल तादाद 50 हैं उन्हें भी स्थायी नहीं किया गया, भले ही उन्हें भी काम करते हुए चार बरस हो गए हों.
यानी मॉनिटरिंग इस बात को लेकर कभी नहीं हुई कि चैनल उन मुद्दों को उठाते हैं या नहीं जो जन अधिकार से जुड़े हों, जो संविधान से जुड़े हों. बीते चार बरस से मॉनिटरिंग सिर्फ़ इसी बात को लेकर हो रही है कि प्रधानमंत्री मोदी की छवि कैसे निखारते रहें.
दिलचस्प तो ये भी है कि मॉनिटरिंग के निशाने पर सबसे पहले डीडी न्यूज़ ही आया, जिसने शुरुआत में ही प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा को सबसे कम कवरेज दिया. उसके बाद डीडी न्यूज़ में ही ख़ासा बदलाव हो गया.
यानी मॉनिटरिंग का मतलब छवि बनाने, नीतियों के प्रचार-प्रसार में प्राइवेट चैनलों को भी लगा देना. तरीके कई रहे और प्रधानमंत्री के साथ बीते छह महीनों में दूसरा नाम बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का जुड़ा है.
अब चैनल दर चैनल उनके कवरेज के पैमाने को भी मापा जा रहा है और नए-नवेले सूचना प्रसारण मंत्री इस कड़ी में अपनी कवरेज की रिपोर्ट भी मंगाने लगे हैं. पहली बार ‘मास्टरस्ट्रोक’ प्रकरण के बाद सूचना भवन के इमरजेंसी सरीखे हालात हो गए हैं.
लगातार पूछताछ, मीटिंग या निगरानी की जा रही है कि मॉनिटरिंग की कोई बात मॉनिटरिंग करने वाला बाहर न भेज दें, इस पर नज़र रखी जा रही है. अब मॉनिटरिंग करने वालों के मोबाइल तक बाहर दरवाज़े पर रखवा लिए जा रहे हैं.मोबाइल नंबरों को भी खंगाला जा रहा है कि आख़िर कैसे मॉनिटरिंग करने वाले शख़्स ने ही ‘मास्टरस्ट्रोक’ पर तैयार हो रही रिपोर्ट को बाहर पहुंचा दिया. अब मीडिया पर नकेल कसने के लिए मॉनिटरिंग की अनोखी मशक्कत जारी है.
Wednesday, August 8, 2018
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71 बरस बाद भी क्यों लगते हैं, "हमें चाहिए आजादी" के नारे |
आजादी के 71 बरस पूरे होंगे और इस दौर में भी कोई ये कहे , हमें चाहिये आजादी । या फिर कोई पूछे, कितनी है आजादी। या फिर कानून का राज है कि नहीं। या फिर भीडतंत्र ही न्यायिक तंत्र हो जाए। और संविधान की शपथ लेकर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदो में बैठी सत्ता कहे भीडतंत्र की जिम्मेदारी हमारी कहा वह तो अलग अलग राज्यों में संविधान की शपथ लेकर चल रही सरकारों की है। यानी संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी भीड़ का ही हिस्सा लगे। संवैधानिक संस्थायें बेमानी लगने लगे और राजनीतिक सत्ता की सबकुछ हो जाये । तो कोई भी परिभाषा या सभी परिभाषा मिलकर जिस आजादी का जिक्र आजादी के 71 बरस में हो रहा है क्या वह डराने वाली है या एक ऐसी उन्मुक्त्ता है जिसे लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है। और लोकतंत्र चुनावी सियासत की मुठ्ठी में कुछ इस तरह कैद हो चुका है, जिस आवाम को 71 बरस पहले आजादी मिली वही अवाम अब अपने एक वोट के आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में खुद को आजाद मानने का जश्न मनाती है। लालकिले के प्राचीर से देश के नाम संदेश को सुनकर गदगद हो जाती है । और अगली सुबह से सिस्टम फिर वही सवाल पूछता है कितनी है आजादी। या देश के कानों में नारे रेंगते हैं, हमें चाहिये आजादी । या कानून से बेखौफ भीड़ कहती है हम हत्या करेंगे-यही आजादी है । बात ये नहीं है कि पहली और शायद आखिरी बार 1975 में आपातकाल लगा तो संविधान से मिले नागरिकों के हक सस्पेंड कर दिये गये । बात ये भी नहीं है कि संविधान जो अधिकार एक आम नागरिक को देता है वह उसे कितना मिल रहा है या फिर अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल तो हर दौर में अलग अलग तरीके से बार बार उठता ही है । सवाल ये है कि बीते 70 बरस के दौर में धीरे धीरे हर सत्ता ने संविधान को ही धीरे धीरे इतना कुंद कर दिया कि 71 बरस बाद ये सवाल उठने लगे कि संविधान लागू होता कहां है और संविधान की शपथ लेकर आजादी का सुकून देने वाली राजनीतिक सत्ता ही संविधान हो गई और तमाम संवैधानिक संस्थान सत्ता के गुलाम हो गये । सुप्रीम कोर्ट के भीतर से आवाज आई लोकतंत्र खतरे में है।
संसद के भीतर से अवाज आई सत्ता को अपने अपराध का एहसास है इसलिये सत्ता के लिये सत्ता कही तक भी जा सकती है। लोकतंत्र को चुनाव के नाम पर जिन्दा रखे चुनाव आयोग को संसद के भीतर सत्ता का गुलाम करार देने में कोई हिचकिचाहट विपक्ष को नहीं होती। तो चलिये सिलसिला अतीत से शुरु करें। बेहद महीन लकीर है कि आखिर क्यों लोहिया संसद में नेहरु की रईसी पर सवाल उठाते हैं। देश में असमानता या पीएम की रईसी तले पहली बार संसद के भीतर समाजवादी नारा लगा कर तीन आना बनाम सोलह आना की बहस छेड़ते है । क्यों दस बरस बाद वहीं जयप्रकाश नारायण कांग्रेस छोड इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के खिलाफ जन आंदोलन की अगुवाई करते हुये नजर आते हैं। क्यों उस दौर में राजनीतिक सत्ता के करप्शन को ही संस्थानिक बना देने के खिलाफ नवयुवको से स्कूल कालेज छोड़ कर जेल भर देने और सेना के जवान-सिपाहियों तक से कहने से नहीं हिचकते की सत्ता के आदेशों को ना माने । क्यों जनता के गुस्से से निकली जनता पार्टी महज दो बरस में लडखड़ा जाती है । क्यों आपातकाल लगानी वाली इंदिरा फिर सत्ता में लौट आती है । क्यों एतिहासिक बहुमत बोफोर्स घोटले तले पांच बरस भी चल नहीं पाता। क्यों बोफोर्स सिर्फ सत्ता पाने का हथकंडा मान लिया जाता है। क्यों आरक्षण और राम मंदिर सत्ता पाने के ढाल के तौर पर ही काम करता है। और क्यों 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट देश के सामने नहीं आ पाती जो खुले तौर पर बताती है कि कैसे सत्ता किसी माफिया तरह काम करती है। कैसे पूंजी का गठजोड सत्ता तक पहुंचने के लिये माफिया नैक्सेस की तरह काम करता है। कैसे क्रोनी कैपटलिज्म ही सत्ता चलाता है । कैसे 84 में एक भारी पेड़ गिरता है जो जमीन हिलाने के लिये सिखों का कत्लेआम देश इंदिरा की हत्या के सामने खारिज करता दिखायी देता है। कैसे गोधरा के गर्भ से निकले दंगे सियासत को नई परिभाषा दे देते हैं। और राजधर्म की नई परिभाषा खून लगे हाथो में सत्ता की डोर थमा कर न्याय मान लेते हैं। क्यों अन्ना आंदोलन के वक्त देश के नागरिकों को लगता है की पीएम सरीखे ऊपरी पदों पर बैठे सत्ताधारियों के करप्ट होने पर भी निगरानी के लिये लोकपाल होना चाहिये । और क्यों लोकपाल के नाम पर दो बरस तक सुप्रीम कोर्ट को सत्ता अंगूठा दिखाती रहती हैा चार बरस तक सत्ता कालेधन से लेकर कारपोरेट सुख में डुबकी लगाती नजर आती है पर सबकुछ सामान्य सा लगता है । और धीरे धीरे आाजद भारत के 71 बरस के सफर के बाद ये सच भी देश के भीतर बेचैनी पैदा नहीं करता कि 9 राज्यो में 27 लोगो की हत्या सिर्फ इसलिये हो जाती है कि कहीं गौ वध ना हो जाये या फिर कोई बच्चा चुरा ना ले जाये । और कानों की फुसफुसाहट से लेकर सोशल मीडिया के जरीये ऐसी जहरीली हवा उड़ती है कि कोई सोचता ही नहीं कि देश में एक संविधान भी है। कानून भी कोई चीज होती है। पुलिस प्रशासन की भी कोई जिम्मेदारी है । और चाहे अनचाहे हत्या भी विचारधारा का हिस्सा बनती हुई दिखायी देती है । सुप्रीम कोर्ट संसद से कहता है कड़ा कानून बनाये और कानून बनाने वाले केन्द्रीय मंत्री कहीं हत्यारों को ही माला पहनाते नजर आते हैं या फिर हिंसा फैलाने वालो के घर पहुंचकर धर्म का पाठ करने लगते हैं।
जो कल तक अपराध था वह सामान्य घटना लगने लगती है । लगता है कि इस अपराध में शामिल ना होगें तो मारे जायेंगे या फिर अपराधी होकर ही सत्ता मिल सकती है क्योंकि देश के भीतर अभी तक के जो सामाजिक आर्थिक हालात रहे उसके लिये जिम्मेदार भी सत्ता रही और अब खुद न्याय करते हुये अपराधी भी बन जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि ये सत्ता का न्याय है । और इस "न्यायतंत्र " में बिना चेहरों के अपराध में भागीदार बनाकर सत्ता ही न्याय कर रही है । और सत्ता ही इस संदेश को देती है कि 70 बरस में तुम्हे क्या मिला , बलात्कार , हत्या , लूटपाट सामान्य सी घटना बना दी गई । दोषियों को सजा मिलनी भी बंद हो गई । अपराध करने वाले 70 से 80 फीसदी छुटने लगे । कन्विक्शन रेट घट कर औसत 27 से 21 फिसदी हो गया । तो समाज के भीतर अपराध सामान्य सी घटना है । और अपराध की परिभाषा बदलती है तो चकाचौंध पाले देश में इनकम-टैक्स के दफ्तर या ईडी नया थाना बन जाता है । जुबां पर सीबीआई की जांच भी सामान्य सी घटना होती है । सीवीसी , सीएजी , चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई मायने नहीं रखता । तो ये सवाल किसी भी आम नागरिक को डराने लगता है कि वह कितना स्वतंत्र है । न्याय की आस संविधान में लिखे शब्दो पर भारी प़डती दिखायी देती है । तो फिर जो ताकतवर होगा उसी के अनुरुप देश चलेगा । और ताकतवर होने का मतलब अगर चुनाव जीत कर सत्ता में आना होगा तो फिर सत्ता कैसे जीता जाता है समूचा तंत्र इसी में लगा रहेगा । और चुनाव जीतने या जिताने के काम को ही सबसे महत्वपूर्ण माना भी जायेगा और बना भी दिया जायेगा । और जितने वाला अपराधी हो तो भी फर्क नहीं पडता । हारने वाला संविधान का हवाला देते रहे तो भी फर्क नहीं पडता । यानी आजादी पर बंदिश नहीं है पर आजादी की परिभाषा ही बदल दी गई । यानी ये सवाल मायने रहेगा ही नहीं कि आजादी होती क्या है । गणतंत्र होने का मतलब होता क्या । निजी तौर पर आजादी के मायने बदलेंगे और देश के तौर पर आजादी एक सवाल होगा । जिसे परिभाषित करने का अधिकार राजनीति सत्ता कोहोगा । क्योकि देश में एकमात्र संस्था राजनीति ही तो है और देश की पहचान पीएम से होती है और राज्य की पहचान सीएम से । यानी आजादी का आधुनिक सुकून यही है कि 2019 के चुनाव आजाद सत्ता और गुलाम विपक्ष के नारे तले होंगे । फिर 2024 में यही नारे उलट जायेंगे । आज आजाद होने वाले तब गुलाम हो जायेगें । आज के गुलाम तब आजाद हो जायेंगे। तो आजादी महज अभिव्यक्त करना या करते हुए दिखना भर नहीं होता । बल्कि आजादी किसी का जिन्दगी जीने और जीने के लिये मिलने वाली उस स्वतंत्रता का एहसास है, जहा किसी पर निर्भर होने या हक के लिये गुहार लगाने की जरुरत ना पड़े।
संयोग से आजादी के 71 बरस बाद यही स्वतंत्रता छिनी गई है और सत्ता ने खुद पर हर नागरिक को निर्भर कर लिया है । जिसका असर है कि शिक्षा-स्वास्थ्य से लेकर हर कार्य तक में कोई लकीर है ही नहीं । तो रिसर्च स्कालर पर कोई बिना पढा लिखा राजनीतिक लुपंन भी हावी हो सकता है और कानून संभालने वाली संस्थाओ पर भीडतंत्र का न्याय भी हावी हो सकता है । मंत्री अपराधियो को माला भी पहना सकता है और मंत्री सोशल मीडिया के लुंपन ग्रूप से ट्रोल भी हो सकता है । और इस अंधी गली में सिर्फ ये एहसास होता है कि सत्ता की लगाम किन हाथो ने थाम रखी है । वही सिस्टम है वहीं संविधान । वही लोकतंत्र का चेहरा है । वहीं आजाद भारत का सपना है ।
Monday, August 6, 2018
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"ये इमरजेन्सी नहीं,लोकतंत्र का मित्र बनकर लोकतंत्र की हत्या का खेल है " |