ना तो सियासत में सुकुन । ना ही सिनेमा में सुकुन । ना तो संगीत में सुकुन । आपकी हथेलियों में घडकते मोबाइल और दिलो में कौघतें विचार ही जब जल्दबाजी में सबकुछ लुटा देने पर आमादा हो तब आप कौन सा गीत और किस संगीत को सुनना पसंद करेगें । यकीनन भागती दौडती जिन्दगी में आपको सुकुन गंगा, गांधी और गीत में ही मिलेगा । और इन तीनो के साथ एक इत्मिनान का संगीत ही आपको किसी दूसरी दुनिया में ले जायेगा । और इस कडी में नाम कई होगें लेकिन कोहूनूर तो मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी उर्फ 'ख़य्याम' ही है । जिनका ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है जहाँ इत्मीनान और सुकून के साये तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है । ख़य्याम का नाम किसी फ़िल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फ़िल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखने वाले संगीत की जगह बनती है, इसलिए यह संगीतकार वहाँ मौजूद है । ख़य्याम का होना ही इस बात की शर्त व सीमा दोनों एक साथ तय कर देते थे कि उनके द्वारा रची जाने वाली फ़िल्म में स्तरीय ढंग का संगीत होने के साथ-साथ भावनाओं को तरजीह देने वाला रूहानी संगीत भी प्रभावी ढंग से मौजूद होगा । फेरहिस्त यकीनन लंबी है । लेकिन इस लंबी फेरहिस्त में से कोई भी चार लाइनें उठा कर पढना शुरु किजिये , चाहे अनचाहे आपके दिल-दिमाग में संगीत बजने लगेगा और यही संगीत ख्य्याम का होगा । और ख्य्याम यू ही ख्य्याम नहीं बन गये । सहगल के फैन । मुंबई जाकर हीरो बनने की चाहत । लाहौर में संगीत सीखने का जुनुन और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही ख्य्याम है । ख्य्याम के इश्क में गोते लगाने से पहले सोचिये ख्ययाम संगत दे रहे है और पत्नी गीत गा रही है । और गीत के बोल है ......"तुम अपना रंज-ओ-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो , / तुम्हें ग़म की क़सम, इस दिल की वीरानी मुझे दे दो , / मैं देखूँ तो सही दुनिया तुम्हें कैसे सताती है , / कोई दिन के लिए अपनी निगहबानी मुझे दे दो" .ख़य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे.अच्छे ख़ासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मज़हब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका । यहा ख्य्याम को याद करते करते जिक्र जगजीत कौर [ पत्नी ] का जरुरी है क्योकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र आपने कानो में ख्य्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नही नहीं पाता । क्यकि ख्य्याम साहेब की पत्नी जगजीत कौर ख़ुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं। अगर आपने ना सुना हो ये नाम तो फिर उनकी आवाज में फिल्म बाजार का नगमा ...' देख लो हमको जी भरके देख लो...' या फिर फिल्म उमराव जान में ...."काहे को बयाहे बिदेस.." सुनते हुये आपी आंखो में आंसू टपक जायेगें और एक इंटरव्यू में ख्य्याम साहेब ने जिक्र भी किया संगीत देते वक्त वह भावुक नहीं हुये लेकिन पत्नी की आवाज ने जिस तरह शब्दो को जीवंत कर दिया उसे सुनने वक्त वह रिकार्डिंग के वक्त ही रो पडे । लेकिन ख्य्याम के पीछे संगीत में संगत देने के लिये हर वक्त मौजूद रहन वाली जगजीत ने फिल्मो के गीतो को गाने को लकर ना तो जलदबाजी की ना ही गीतकारो में अपनी शुमारी की । सिर्फ सुकुन भरे संगीत के लिये ख्यायम के साथ ही खडी रही । इसका बेहतरीन उदाहरण उमराव जान और कभी कभी का संगीत है । और कल्पना किजिये साहिर की कलम । मुकेश की आवाज । उसपर ख्य्याम का संगीत.... यहाँ याद आता है कभी कभी का गीत - "मैं पल दो पल का शायर हूँ"….."कल और आएँगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले / मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले / कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे / मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यूँ वक़्त अपना बर्बाद करे / मैं पल दो पल का शायर हूँ.....70 के दशक के शायरो की पूरी पीढी ही इस गीत को गुनगुनाते ही बडी हो गयी । दरअसल ख़य्याम हर लिहाज़ से एक स्वतंत्र, विचारवान और स्वयं को सम्बोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग क़िस्म का कलाकार बनाया है । लेकिन ये सब इतनी आसानी से हुआ नहीं । क्योकि जिस परिवार का फिल्म या संगीत से कोई वास्ता ही नहीं था । उल्टे परिवार में कोई इमामको कोई मुअज्जिन । और 18 फ़रवरी 1927 को पंजाब में जन्मे ख़य्याम पर नशा के एल सहगल का । लेकिन असफलता ने पहुंचा लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती) के पास ले गई जिनके फ़िल्मी घरानों में ख़ूब ताल्लुक़ात थे. लाहौर तब फ़िल्मों का गढ़ हुआ करता था । उस चौखट से जो सीखा उसकी परीक्षा की घडी भी भारत की आजादी के साथ जुडी है 1947 में हीर रांझा से ख्य्याम का सफर शुरु होता है । फिर रोमियो जूलियट जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया. । लेकिन सबसे बेहतरीन वाकया है कि राजकपूर 1958 में जब फिल्म ' फिर सुबह होगी ' बनाते है तो वह ऐसे शख्स को खोजते है जिसने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढी हो । क्योकि फिल्म इसी उपन्यास से प्ररित या कहे आधारित थी । और ख्ययाम ने ये किताब पढ रखी थी तो राजकपूर उनसे ही संगीत निर्देशन करवाते है । ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था.। याक किजिये इस गोल्डन दौर का एक गीत....."कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता / जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है / ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता"...1981 में इस गीत को संगीत ख्य्याम ने ही दिया । क्या कहे ख्य्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ । या फिर उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नज़र आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहाँ ख़य्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है । तो क्या अब सुकुन और ठहराव की मौत सिल्वर स्क्रिन पर हो चुकी है । पर आधुनिक तकनीक की दौर में गीत-संगीत कहां मरेगें....मौका मिले तो अकेले में कभी इस गीत को सनिये....ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है / हर हे निगाह तक जहां , गुबार ही गुबार है ये किसी मकां पर हयात , मुझको ले कर आ गई / न बस खुशी पे है जहां ना गम पे इख्तियार है ... फिर सोचिये कोई अकेला और स्वतंत्र संगीतकार अपने भीतर क्या कछ समेटे रहा है । जो अंदर तो हिलोरे मारता है लेकिन बाहर ठहराव देता है ।
Tuesday, August 20, 2019
दिल में हिलोरे हो और बाहर ठहराव तो समझ लिजिये ये ख्य्याम का संगीत है
Posted by Punya Prasun Bajpai at 12:14 PM
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17 comments:
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः 🙏
बेहतरीन लेख
Lajawab,,
लाजवाब सर जी
Kya mujhe insaaf milega 28saalho gye kya sanvidhan kisi sanstha vishash ke liye banaya gya
Dhanyawad punya prasun bajpai ji
Kya mujhe insaaf milega
बेहतरीन मौसिकी ख़य्याम साब ने अपने सुनने वालों की नज़्र की।एक से एक बेहतरीन ग़ज़लो नज्मो को कर्णप्रिय बना के दिलों को चुरा लिया....न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया खिला गुलाब की तरह मेरा बदन.....
गुलाब जिस्म का यूँ ही नही खिला होगा हवा ने पहले तुझे फिर मुझे छुआ होगा....
हाय जलता है बदन प्यास भड़की है सरे शाम से जलता है बदन......इस तरह के बिंदास बोलो को इतने शऊर के साथ संगीतबद्ध किया कि कहीं भी बेपर्दगी नही थी ...बल्कि एक लज्जत जबरदस्त थी....अफ़सोस इस बात का है कि हुनरमन्द लोगो को जीते जी लोग सही सम्मान नही बख्शते हाँ उनके जाने के बाद उन पर जरूर लिखते है ...काश आपने भी उनके जीते जी उन पर कई आर्टिकल लिखे होते और वो सब उन्होंने भी पढ़े होते ....
बहूत सुन्दर लेख
ठहराव जीवन का सत्य
प्रणाम चचा! क्या आपका पर्सनल mobile no. मिलेगा,,,?
आपसे बेहद गोपनीय व व्यक्तिगत जीवन पर तथा अन्य प्रकरण पर बात करनी है!
मेरे mail ID पर सेंड करियेगा
{मेरे इमेल में "ए" के बाद "डबल एल" है।}
आपका पुत्रवत:विजय
☠🕯☠शं☠🕯☠
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My mail : vjcall980@gmail.com
बहुत ही लाजवाब लेख।और फिल्मों के अतिरिक्त संजय खान द्वारा निर्मित " टीपू सुल्तान " द ग्रेट मराठा" , " जय हनुमान " में पार्श्व संगीत भी इन्होंने ही दिया था। जो मुझे आज तक याद है।तब मेरा बचपन था।वह संगीत उन कार्यक्रमों को एक अलग ही पहचान और स्तर
Can I ask you any personal Question here Sir.?
सर प्रणाम सर आपसे मिलना चाहता हूं आपकी बहुत ही कृपा होगी ईश्वर का आभारी होगा यदि आप अपना फोन नंबर मुझको उपलब्ध करवाने का कष्ट करें
प्रसूनजी आपसे विनती है एक बार राजीव दीक्षित जी पर vdo बनाइए
जिनकी मौत में बाबा रामदेव का हाथ है..
Nice
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