Tuesday, September 9, 2008

बालीवुड की नजर में फेल हो चुके है राज्य

ये किताब रुसी लेखक अलेक्जेन्डर बुश्किन की है...बहुत शानदार लिखा है..सुनो....और वक्त तुर्कमानी घोड़ों की तरह भागता चला गया.........."

"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।

दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।

समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।

दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।

अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।

मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।

इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।
खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।

12 comments:

फ़िरदौस ख़ान said...

खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दो पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बालीबुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक धटनाओ पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खडा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की धटनाये बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।

बहुत ख़ूब...

Sunil Deepak said...

राज्य की बढ़ती हुई हिंसा और अन्याय के सामने सचमुच नागरिकों के सामने क्या रास्ते रह जाते हैं यह महत्वपूड़्ण प्रश्न है और इस रास्ते से जा कर हम लोग कहाँ रुकेंगे? छतीसगढ़ में डा. बिनायक सेन जैसे लोगों पर चल रहा मुकदमा राज्य की हिंसा का ही रूप है.

डॉ .अनुराग said...

फ़िर भी दुःख की बात है लोग शाहरुख़ खान के जोर शोर से मीडिया ओर तमाम साधनों का चालाकी से उपयोग करके ओमशांति ओम जैसी सदहरण फ़िल्म को देखने जाते है ,चर्चा करते है ओर इन मुद्दों पे कोई बात नही करता....न ऐसी फिल्मो की सही स्तर पर प्रशंसा

दीपक कुमार भानरे said...

प्रसून जी यह प्रशासन की नीतियों का ही खामियाजा है की बेक़सूर और मासूम को हथियार उठाने हेतु बाध्य होना पड़ता है . और उस पर उन्हें उसकी कीमत अपनी और अपने परिवार की जान जोखिम मैं डालकर चुकानी पड़ती है . सरकार और प्रशासन उनके पीछे ख़ुद हिंसक होकर हाथ धोकर पड़ जाती है . इससे इतर यह देखने की कोशिश नही की जाती है की आख़िर उसके देश और प्रदेश का नागरिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ हथियार उठाने क्यों मजबूर हुआ है ?

दिनेशराय द्विवेदी said...

राज्य की भूमिका सभी क्षेत्रों में नाकाम हो चली है। वह न्याय देने में असफल है। सभी कलाकृतियों में यह बात स्पष्ट हो कर सामने आ रही है।

Waterfox said...

राज्य विफल है इस बात में तो कोई दो राय नहीं लेकिन नक्सलवाद के आतंकवाद में बदलते चेहरे को राज्य की नाकामी हम कब तक बताते रहेंगे। नक्सलवाद का निशाना अगर राज्य है तो समझ में आता है (लेकिन मैं इसका समर्थन कतई नहीं करता। पुल, सड़क, रेलवे स्टेशन उडाना मेरी नज़र में अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने के समान है), निर्दोष ग्रामीणों को मारना, बच्चों और महिलाओं को मारना ये कैसी लड़ाई है?
आई एस आई और बंगलादेशी आतंकवादिओं का साथ देना, ये कौन सी आज़ादी चाहते हैं नक्सल्वादी?

anil yadav said...

इन फिल्मों के साथ आप मिशन कश्मीर और रोजा जैसी फिल्मों के बारे में बताना भूल गयें ....ये फिल्में भी व्यवस्था से निराश लोगों की फिल्में थी....जिनके नायकों को बंदूक उठानी पड़ी....

लेकिन व्यवस्था से निराश हर व्यक्ति अगर बंदूक ही उठा ले तो भारत को भी अफगानिस्तान बनने में देर नही लगेगी....इसलिए कृपया करके पहले कश्मीरी अलगाववादियों का और अब नक्सलवादियों का महिमामंडन न करें....ये सिर्फ आतंकवादी है और कुछ नही ....और इनके किये को किसी भी तर्क से सही नही ठहराया जा सकता....

Sanjeet Tripathi said...

मेरे मन में भी ठीक वही बात है जो मुझसे पहले अभिषेक साहब कह चुके हैं।
प्रसून साहब, बस्तर आएं और दस दिन रहकर स्टोरी करें, निवेदन है।

Unknown said...

YE FILME BANTI KYO HAI....MAHAJ KUCH LOGO KO SAMAJH ME AANE KE LIYE....YE SUCH KO DIKHAYE YA NA DIKHAYE....INHE DEKHNE WALA KAUN HAI...? N TO KITABE SABHI PADHTE HAI NA HI IN JAISE FILMO KO KOI DEKHTA HAI? RAJYA SE HI SAWAL KYO..? AAP JAISO SE KYO NAHI..?

Unknown said...

AAJ AISI KOI CHIJ NAHI JO SUCH KA AAINA DIKHAYE...KYOKI YE WAHI SAMAJ HAI JISME SABHI KO MANYATA MIL JATI HAI....PRASN ...PRASN..YE FILME BHI SAMADHAN KI OR AGRASAR NAHI HAI...HA BIRODHABHASI BATE JAROOR KARTI HAI......................

nitin said...

wednusday एक आशा इस फ़िल्म को देख कर जगी है ! एक सत्य है की मोत से सबको डर लगता है ! आतंकवादी को भी मालूम होना चाहिए की वक्त हर आदमी का ख़राब हो सकता है ! हर आदमी को यह फ़िल्म जरुर देखनी चाहिए !
जय हिंद .........

kumar Dheeraj said...

दिल्ली के जामिया नगर में आतंकवादियो और एनएसजी के जवानो के बीच मुठभेड़ जारी है । दिल्ली में पांच सीरियल बलास्ट करने के बाद आतंकवादी शायद शहर से निकलने के फिराक में थे या छुपे हुए थे ...। एनएसजी के जवानो को किसी तरह इस बाबत सूचना मिली और उसने पूरे इलाके को घेर लिया ...फिर क्या था मुठभेड़ जारी हो गई ..दो आतंकवादी मारे गए और एक को पकड़ा गया है ...बहरहाल मुझे इस घटना की जानकारी नही देनी है ..मेरी मिशन कतई नही है कि इस घटना में क्या हुआ कैसे हुआ। मेरा मकसद है इस घटना से पहले और बाद की स्थिति में सरकार के फैसले और सरकार की प्रतिबध्दता को दशाॆने की ...। सुवह मैने अकवार खोली तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री का बयान पढ़ने को मिला-कहना था कि पोटा जैसे अमानवीय कानून की इस देश में कोई जरूरत नही है । देश में कई कानून है जिसके सहारे आतंकवाद से लड़ा जा सकता है । सोचने लगता हू कि अमानवीय कानून के बारे में ...क्या आतंकवादी इस तरह हमारे देश में लोगो की जान ले रहा है ,वह अमानवीय घटना नही है ..फिर अंमानवीय लोगो के लिए अमानवीय कानून क्यो नही ....सरकार किस तरह का वयान देती है समझ से परे है । सरकार कहती है कि पहले से हमारे देश में कई कानून है जिसको ठीक तरीके से क्रियान्वयन की जरूरत है फिर इसे लागू करने के लिए सरकार क्या कर रही है । लागू सरकार ने अबतक क्यो नही किया ...जबकि इस तरह की घटनाए होती ही रहती है । फिर किस समय का इंतजार सरकार कर रही है । जबकि आतंकबादियो ने सरकार के सामने दिल्ली में मुठभेड़ कर चुनौती पेश कर दी तो सरकार को अब क्या करना चाहिए ...।सरकार के हर रोज के बयान से एसा दिखता है कि सरकार को इस बाबत कुछ लेना-देना नही है केवल सरकार दिखाना चाहती है कि हम आम जनता के लिए कुछ कर रहे है । आतंकवादियो से ल़ड़ने के लिए नया कानून बना रहे है । लगता तो एसा है कि सरकार चुनाव का अपना कायॆक्रम तैयार कर रही है । चुनावी मोहरे पर कई विसात बिठाने की तैयारी सरकार कर रही है । इस मुठभेड़ में बहुत सारी चीजे और भी सामने आयी है कि अपने देश में भी इस तरह के लोगो से लड़ना आसान नही है ।जिस ढ़ंग से घटना को तुल दिया जा रहा है उससे क्या समझा जा सकता है । लोगो ने इस घटनाओ को मस्जिद से जोड़कर तुल देने पर जोर दिया...या साम्प्रदायिक माहौल खराब करने का भी इरादा होगा कहा नही जा सकता है । लेकिन इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि सरकार के ये कानून और ये बयान आतंकवादियो से लड़ने के लिए काफी नही है ...और सरकार को सख्त कदम उठाने की जरूरत है ।लेकिन सरकार इस प्रति काफी कमजोर दिखाई दे रही है । आखिर माजरे को समझने की जरूरत है ।