बंगाल का नया संकट बहुसंख्य तबके की राजनीति है,जो एक वर्ग के मुनाफे के बीच पिसने वाली हो चली है। जिस औघोगिकरण को लेकर बुद्ददेव को विकास का खांचा दिख रहा है, उसी वामपंथ ने एक वक्त औघोगिक विकास की खिंची लकीर को मिटाने में समूची ऊर्जा लगा दी थी। लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। वाम राजनीति की अर्थव्यवस्था की वजह से जूट उघोग ठप हो चुका है। जो उघोग लगे उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरो की नजर इस जमीन पर है।
वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है।
नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।
जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।
तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका ।
लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा ।
दिल्ली ब्लास्ट पर ग्राउड जीरो से बात करेगे शनिवार को.......
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Thursday, September 18, 2008
बंगाल के मरते किसानों को नहीं ढो पायेगी नैनो
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:58 AM
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10 comments:
बंगाल के कई छोटे-छोटे गाँवो में जाने का अवसर मिला है.. वहाँ के हालत देख आंखो में पानी आ जाता है..
रोटी (चावल), कपडा़ भी नसिब नहीं है.. मकान तो दुर कि बात है..
सही कहा आपने,
जरा यह भी देखिये
"भावना लापता है"
http://qatraqatra.yatishjain.com/
ye baat sirf bangal ki hi nahi .aane wale kal ke bharat ki sacchai hai. kal karkhano se hi sirf vikash nahi ho sakta.kisano ke hit ka v dhayan rakha jana cahiye.
Journalism today is not about breaking news,
It is about faking news now!
find Indian media exposed at
http://www.fakingnews.com
दिल्ली में धमाके क्या हुए लोगो ने गृहमंत्री के कपड़े बदलने पर सवाल उठाने लगे । अपने देश की अलग ही गरिमा है जहां गृहमंत्री को प्रधानमंत्री से कम नही आंका जाता है । यूं कहे कहीं-कही तो गृहमंत्री ने अपनी हैसियत चढ़ा-बढा कर दिखाने की कोशिश की है । यह सिलसिला जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री होने के समय से शुरू होता है जब पटेल ने खुद को लौह पुरूष साबित करने की कोशिश की । लोगो के दिल से अक्सर यह सुना जाता है कि पटेल को प्रधानमंत्री होना चाहिए था ..। बहरहाल हम यहां थोड़ा भटक गए है ...हम ये कहना चाह रहे थे कि लाल कृष्ण आडवाणी ने भी यही दिखाने का प्रयास किया ...जो भी हो हम शिवराज पाटिल के पास पहुंचते है ....हमारा देश आतंकियो के निशाने पर है । जिस शहर का नाम जेहन मे आता है धमाके वहां हो चुके होते है । हाथ पर नाम गिनने से कोई एसा शहर का नाम नही आता है जहां धमाके नही हुए हो ...खासकर अगर आप किसी महानगर में रहते है तो अपनी बारी के लिए तैयार रहिए...तो मैं कह रहा था गृहमंत्री के बारे में ..दिल्ली में बम धमाके हो रहे थे गृहमंत्री ने तीनो जगह का मुआयना किया जहां धमाके हुए ।तीनो जगह पाटिल साहब अलग-अलग सूट में गए..सूट कहने का मतलब लड़की का मत समझिएगा ..मसलन अपने यहा तो संजने-संबरने का काम ज्यादातर लड़किया ही करती है लेकिन गृहमंत्री ने ऐसा किया कारण था कि उन्हे अलग-अलग जगह पर कैमरो के सामने जाना था तो वे अपना सूट बदलते गए...।लेकिन इसी कैमरे वालो की बुड़ी नजर उनपर पड़ी और उसने मानो साहब को नंगा ही कर दिया । खैर साहब को इज्जत भी मिली ..बेइज्जती भी मिली ..। हमारे गृहमंत्री को इतना चिंता कहां है कि देश की सुरक्षा का जिम्मा अपने उपर ले ...उनको पता नही है कि देश की स्थितति क्या है । बेचारे वोट से चुनाब जीतकर नही आए है और न ही आगे चुनाव जीतने की चिंता है फिर जनता को क्या हो रहा है जनता किस हालात का सामना कर रही है उनको क्या मालूम । कांग्रेस की सरकार बनेगी तो बेचारे फिर मंत्री बन जाएंगे । फिर कपड़े की बात ..शौकीन है ...नए पुराने लोगो का सामना करना पड़ता है ..कपड़े हैं बदलना पड़ता है ।
इस मामले में फिल्म नया दौर याद आती है जब विलेन जीवन ने एक बस चलाकर तांगेवालों का रोजगार छीन लिया था....उससे भी पहले उसने अपने कारखाने में लकडी चीरने के लिये नई मशीने लगा लीं...मजदूर खुश हुए कि नई मशीन माने तरक्की लेकिन सबको बुलाकर कह दिया गया....कल से ईतने सारे लोगों की आने की जरूरत नही....तब फिल्म के नायक शंकर ने कहा कि मशीनें और मजदूर साथ-साथ चलने चाहिये....अलग नहीं क्योकि अलग चलने से केवल कुछ का भला होगा...साथ चलें तो सबका भला होगा....। लेकिन लगता है नैनो के जरिये जीवन नाम का वब विलेन फिर सामने आ गया है....वह बस फिर चल पडी है।
dinkar jayanti par kuch likhen sir
bengal goverment is now following the chinese counterpart path ....they shold to do this Cause we sholud allow them todo this otherwise they would be the last brid of LeFt.
खूब लिखा है बाजपेयी जी, इंसानियत की जरूरत है आज सिर्फ इंसानी शरीरो की नहीं।
आप के लेख से यह पूरी तरह साफ पता चलता है की वाम अपने विचार धारा से पूरी तरह भटक गए है ..जो गलती अब वे कर रहे है वो नई नहीं है वो तो शुरू से ही गलती कर रहे है कभी भी संतुलन बना के चलने की निति नहीं रही ..कभी वो पूंजीवादी तथ्यों को पूरी तरह से नकारते है और आज ये कहते फिर रहे है की आज बंगाल को इनकी ज़रुरत है ..पहले से ही एक संतुलन बना कर चलते तो आज ये नौबत नहीं आती ...
आज बंगाल की जो दुर्दशा है वो इन वामपंथियों की ही देन है .उनकी मनोदशा पूरी तरह से ख़राब हो गई है ..तभी तो वो केंद्र सरकार से महगाई के मुद्दे पर समर्थन वापस नहीं लेती है बल्कि नयूक्लेअर डील के मुद्दे पर समर्थन वापस लेती है ...
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