बंधु...
आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।
अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।
मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है।
ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।
खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।
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Sunday, September 7, 2008
कश्मीर के बहाने एक नया सवाल
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:28 AM
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कश्मीर,
बिहार
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8 comments:
देश कश्मीर भी चाहता है और कश्मीरी भी. कश्मीर भारत का है. कश्मीरी भारत के हैं और भारत कश्मीरियों का है. कश्मीर और कश्मीरी का भेद किस के दिमाग की उपज है? कहीं इस का श्रेय मीडिया को तो नहीं जाता?
वाजपेयी जी ,
गूगल का लैगवेज चेंज किजीये । उसके बाद बहुत सी भाषाओं में से हिंदी चूज किजीये । फिर बाक्स में अंग्रेजी अल्फाबेट का कोइ एक लेटर टाइप किजीये । मसलन एम---तो निचे ड्राप डाउन लिस्ट में आएगा ..मस्तराम की कहानियां , मामी मस्तानी , मस्त कहानियां , मल्लिका शेरावत ..उसी तरह अन्य शब्द जैसे (सी ) टाइप करें तो फिर आपको शर्म आ जायेगी । इसी सूचनातंत्र के सिपाहियों की भरमार है व्लाग जगत में ..जो सोचते है कि हमने जो लिखा या हमने जो कहा वही सत्य है और बाकि बेहूदे और वाहियात है । आपने काश्मिर पर बहस शुरु की थी ..अभी चलने देते ..हो सकता था कि कोइ तालिबानी टाइप का शेर(गीदड नुमा) आपको फतवा भी जारी करता ...जैसे कि इस प्रजाति के लोगों ने एमएफ हुसैन पर तामील किया है । इंतजार रहेगा बंगाल के पूंजीवादी वेस्ड समाजवाद पर आपके आलेख का ...धन्यवाद
सर कष्मीर पर क्यों नहीं कष्मीरियों की राय ली जाती है लेकिन हम दिल्ली में बैठे लोग यह नहीं चाहते हैं
कुछेक साम्राज्यवादी शक्तियां हैं जो दक्षिण एसिया मे अशांति एवम कलह का वातावरण बना कर रखना चाहती है । लेकिन जब तक भारत, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बर्मा, भुटान आदि देश आर्थिक रुप से एक संघ मे परिवर्तित नही होते तब तक किसी के लिए आर्थिक रुप से उन्नति कर पाना सम्भव नही दिखता ।
दक्षिण एसिया मे कलह और द्वन्द पैदा करने के लिए सतत रुप से साम्रज्यवादी शक्तियो के दलाल क्रियाशील रहते है । दक्षिण एसिया एक राष्ट्र के रुप मे फिर से एकिकरण हो सके इस बात की सम्भावना नही दिखती है । लेकिन युरोपियन युनियन के तर्ज पर आर्थिक संघ की परिकल्पना साकार की जा सकती है जो इस क्षेत्र को गरिबी और अभाव से मुक्ति दिला सकता है । सदस्य देशो मे मुक्त व्यापार की अवधारणा के साथ साफ्टा के नाम से एक कोशिश चल रही है । लेकिन इस कोशिश मे सदस्य देश ईमान्दार नही दिख पडते है।
दक्षिण एसिया मे शांति के लिए हिन्दुओ और मुसलमानो के बीच भी एकता अपरिहार्य है । हिन्दुओ और मुस्लिमो के बीच खाईयो को पाटने का काम बेहद कठिन है । क्योकी अगर मुसलमान और हिन्दु न लडे तो फिर भारत मे कांग्रेस पार्टी की राजनिती हीं साफ हो जानी है|
जहां तक काश्मीर का सवाल है, यह अलगाववाद धर्म आधारित अलगाववाद है। अगर गान्धी फेल हो गए है और जिन्ना पास हो गए है तो फिर एक और बटवारा हो जाना चाहिए, चाहे जो भी मुल्य चुकाना पडे । गान्धी के मार्ग पर चलते हुए हम से आप और कितनी उदारता की अपेक्षा करते है? वैसे मार्ग तो वही सही है जो दक्षिण एसिया को भाईचारा सिखाए ।
सूचनाओं के कूड़े का ढेर इतना बड़ा है कि उसके पीछे ज्ञान की जमीन नजर ही नहीं आती. और इन सबों से बड़ा मुद्दा तो संवेदना का है. जिनके हिस्से में ज्ञान है, उनके पास संवेदना नहीं है. अपने आसपास नजर दौड़ाएं, आपको इसे समझने में देर नहीं होगी. मुक्तिबोध इस संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की ही बात किया करते थे.
मृणाल, www.raviwar.com
बाजपेयी जी सही नब्ज पकडी काश्मीर के बहाने आपने, देखिये तो सही असहमती के पैराकार कैसे एक के बाद फतवे जारी करते फिर रहे है। अब अगर आप असहमती के पैराकारों से सहमती नहीं रखोगे तो मोदी लाईन के हिसाब से लीगी, तालिबानी, देशद्रोही आदि-आदि कहलाने को तैयार हो जाईये। ये तो आप जैसे बडे मिडीयाकर्मी है इसलिये इतनी संगत भाषा में बोला जा रहा है, लेकिन इस बहस के गाली-गलौज में बदलते देर नहीं लगने वाली देखते जाईये आप।
सही कहा आपने छोटे से तबके अर्थात शासक वर्ग के लिये मुनाफा मूलमंत्र रहा है, जो बहुसंख्यक वर्ग अर्थात शोषित वर्ग के श्रम को चुराकर बनाया जाता है दुर्भाग्य से ये शाश्वत सत्य है। परंतु मुनाफे के मलाई की आस में लार टपकाते 'भूमंळलीयकरण परमोधर्म' मंत्र का जाप करते वर्ग को अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता, ये तो हरिशंकर परसाई का सर्वव्याप्त 'एक मध्यवर्गीय कुत्ता' है, जिसे अंत में चुपचाप अपने सही वर्ग के बारे में चिंतन करना ही पडेगा। आज ये अमेरीकी-इंडियन या अमेरीकी-ईसरायल के चश्में से भारत को देख रहा है, लेकिन अंत में इनके आका इनको इनकी औकात जता ही देगे देखते रहिये आप।
आप का नजरिया बहुत वैज्ञानिक है। माध्यम सब फैलाते हैं। जैसे पुस्तकें ज्ञान फैलाती हैं तो अज्ञान भी और शायद अज्ञान अधिक।
समस्या यह है कि हम इंसान को इंन्सान के रूप में नहीं देखते उसे पुरुष-नारी, हिन्दू-मुसलमान, सवर्ण-अवर्ण के रूप में देखते हैं।
इस ज्ञान को फैलाना होगा।
ये परेश टोकेकर कबीरा औऱ कुमार आलोक दोनो गुरूचेला है ....दोनो ही चाटुकारिता जगत के माने हुए दिग्गज हैं....इन दोनों का काम है कि नामचीन लोंगों के ब्लॉग पर जाकर चाटुकारिता करना....और इसकी ट्रेनिंग ये दोनों ही गुरु चेला एक दूसरे से ही लेते हैं ....अगर किसी को शक है तो इन दोनों के ब्लॉग पर जाकर देख सकते हैं....ये दोनों जब भी अपने ब्लॉग पर कुछ लिखतें हैं कोई और टिप्पणी करे न करे लेकिन ये दोनों एक दूसरे की ऐसी झूठी तारीफ करेंगे कि भाई क्या कहना.... दोनों ही वहाँ चाटुकारिता का अभ्यास करने के बाद ....रवीश कुमार ,,,,अविनाश के मोहल्ले पर और अब बाजपेई जी के ब्लॉग पर पिले हुए हैं....और अगर आपने इन गुरु चेला में से किसी एक के खिलाफ कुछ भी लिखें ....तो दूसरे को ऐसी मिर्ची लगेगी कि दूसरा भी तुरंत पहले की ओर से मैदान में आ डटेगा....इन दोनों को ही बिना सर पैर की बौद्धिक पेचिश करने की बीमारी है....कोई भी किस्म का बेगान इन कीटाणुओं पर डालिए असर ही नही करेगा ....बहुत ही ढीठ किस्म के परजीवी हैं....अब देखिये न दोनो ही गुरू चेला जैसे ही बाजपेई जी का नया गाँव बसा बोरिया बिस्तर लेकर आ धमकें....लोग टिप्पणी करेंगे बाजपेई जी के लिखे पर ये दोनों गुरू चेला टिप्पणी करेंगे एक दूसरे के कमेंट पर ....और दोनों ही अपने आप को कार्ल मार्क्स का भतीजा और टेस्ट ट्यूब बेबी मानतें हैं....और अब जब बाजपेई जी वामपंथ पर चर्चा आरम्भ कर दियें हैं तो ये दोनो की लॉटरी लग गयी है....और अब ये दोनो वामपंथ पर अपने अधकचरे ज्ञान से यहाँ का कागज काला करेंगें....और अपने कुतर्कों से अपने आप को बुद्धीजीवी साबित करने की कोशिश करेंगे....
मारो दोनो गुरु चेला को ....कबीरा को तो ज्यादा ही....
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