(पिछले भाग से आगे)
चूंकि मैं दिल्ली से पटना पुस्तक मेले के लिये ही गया था लिहाजा गांधी मैदान से सटे होटल में ही रुका भी था ताकि आवाजाही में कोई परेशानी न हो और वक्त न लगे। गोलघर से लेकर बीएन कॉलेज के दौरान सड़क पर जितनी-भडक्का था, बार बार यही महसूस होता मानो पूरा शहर ही सड़क पर हो। कॉलेज से बाहर निकल आया। बाहर देखा...दीवार पर कॉलेज की परीक्षा का रिजल्ट चिपका हुआ था।
खैर,पुस्तक मेले के कार्यक्रम में जाने का वक्त हो रहा है तो वहीं से निकल पड़ा। होटल के रास्ते ट्रैफिक पुलिस का दफ्तर पड़ा। सड़ी-बिखरी खपरैल से बना दफ्तर । खपरैल पर जमी काली काई । दीवारों पर गाढ़े हरे रंग की काई। एक हिस्सा टूटा है। कुछ निर्माण का काम भी जारी है। और इस दफ्तर के ठीक दूसरी तरफ यानी सड़क पर गाड़ियों का अंबार। स्कूटर-मोटरसाइकिल-टेंपू-कार सब कुछ गंदगी और धूल में इस तरह समाये हुए कि देखकर साफ लगता, सालों साल से किसी ने सैकडों गाडियों की तरफ ठीक से देखा भी नहीं। गांधी मैदान से सटे गाड़ियों का यह जमघट कूड़े-करकट से कही ज्यादा पखाना और पेशाबघर में तब्दील होता नज़र आया।
करीब 25 साल पहले जब बिहार के मुख्यमंत्री ने ट्रैफिक पुलिस के इस दफ्तर का उदघाटन किया था तो पटना की सड़क पर चलने की तमीज सिखाने का जिम्मा इसी दफ्तर पर सौंपा था । लेकिन तमीज शब्द ही ट्रैफिक दफ्तर पर भारी पड़ने लगा । किताब मेले में जाने की जल्दी में पटना को महसूस करने तमीज मैं भी भूलने लगा या उसका रंग मुझ पर भी चढ़ने लगा यह तो नही कह सकता लेकिन रिक्शे पर सवार होटल की तरफ जाते हुये जैसे ही एक्जीविशन रोड के करीब पहुंचा, नारे और रैली से सामना हो गया। जो फिल्मी गीत की तर्ज पर नारों को गा-गा कर घर और न्यूनतम जरुरतों की मांग कर रहे थे। जिस टेंपू में लाउड स्पीकर लगा था, उसके अंदर चार महिलाएं और एक पुरुष बैठे थे। दो महिलाओं की गोदी में दूध-मुंहा बच्चा था। वो नारे लगा रही थी। किसी तरह आंधे घंटे में रैली की रफ्तार में ही होटल पहुंचे । और वहीं से तुरंत पुस्तक मेले के लिये निकले।
पुस्तक मेले में कार्यक्रम मीडिया लीडर का था। और शनिवार को मैं ही पुस्तक मेले का मीडिया लीडर था। मीडिया में खुद के सफर की बात करने के बाद जब सवाल जबाब का सत्र शुरु हुआ तो करीब चार-पांच सौ के जमघट में, जिसमे अस्सी फीसदी 15 से 35 साल के युवा होंगे, के ज्यादातर सवाल बैचेनी, बढ़ते मुद्दे और कम होते विकल्प को लेकर उठे । पटना की किसी सभा में पहली बार मैंने महसूस किया कि विकल्प को लेकर एक मौन समूचा बिहार ओढे हुआ है। इससे पहले जेपी के आंदोलन की प्रतिध्वनि किसी राजनीतिक सावल-जबाब में उभर आती थी। लेकिन जिस पीढ़ी के सामने सबसे ज्यादा मुश्किलात है, उसको जो परिवेश मिल रहा है और जिस परिवेश को पाने के लिये वह आमादा है, वह 1990 तक के बिहार से बिलकुल अलग है।
नयी पीढी के सामने सबसे बडी चुनौति आर्थिक सुरक्षा की है । जो रोजगार से लेकर विकास की ऐसी परिभाषा गठने की है, जिसमे न्यूनतम की जुगाड़ हो। कोई भी युवा जिन्दगी के किसी भी पायदान पर खड़ा हो उसके सामने सबसे बडा सवाल उस धारा का हिस्सा बनना हो चला है, जो बिहार में मौजूद नही है। या फिर बिहार के मिजाज ने हमेशा जिस समझ को नकारा है, उसे अब मान्यता दिला दी गयी है। असफल होते हुये भी सफल होने का ढोंग कर सामाजिक मान्यता के साथ हर परिवेश में मौजूद रहने की जो कला महानगरो में मौजूद है। उसको खारिज कर विकल्प का जो सवाल पटना के किसी भी सभा-सेमिनार में उभरता, वह हाशिये पर मौजूदा स्थिति ने ढकेल दिया है और नयी परिस्थितियां अपने होने को ही विकल्प के तौर पर रख रही हैं यह बखूबी उभरा।
यह कैसे संभव है कि बिहार को हाशिये पर रखकर केन्द्र की सत्ता अपने आप को न सिर्फ बनाये रख सकती है बल्कि बिहार के नेता भी इसका एहसास कराते रहे कि केन्द्र की मदद के बगैर बिहार का कुछ हो नही सकता। इस सवाल को पुरानी पीढी ने बार बार उठाया। सवाल यह भी उठा कि कि विकल्प को लेकर वर्तमान की सत्ता अपने बाद की तस्वीर को जानबूझकर भयावह बता रहे है या फिर उनकी मौजूदगी बंटाधार करने की स्थिति में समाज को ले आयी है। टकराव नैतिकता को लेकर जरुर हुआ। नयी पीढी के मिजाज ने इसके संकेत साफ दिये कि नैतिकता की नयी परिभाषा बदलते वक्त के साथ गढी जायेगी। इतना ही नही जो सवाल नयी युवा पीढी के सामने हैं, उससे कभी युवापन जी चुकी पीढी को दो-चार होना नहीं पड़ा । इसलिये नये सवालो का समाधान भी नये तरीको से होगा। वह तरीके अभी की गुमराह करने वाली सत्ता या राजनीति से प्रभावित होंगे या हाशिये पर ढकेले जा रहे बहुसंख्यक तबके की जरुरतों के लिहाज से इसको लेकर सामाजिक आंदोलन की जरुरत जरुर जतायी गयी ।
सभा के बाद पुस्तक मेले में घूमते वक्त कई पुस्तक प्रेमियों के सवाल कान से टकराये कि पुस्तक मेले में किताबें कम और यहां मेले का माहौल ज्यादा क्यों होता जा रहा है। पुस्तक मेले के आयोजक अमित झा का अपना विस्लेषण था। उन्होंने माना कि पुस्तक मेले को लेकर जो उफान 2004 तक था, वह कमजोर पड़ा है जबकि बिहार ने इस दौर में परिवर्तन को जीया है। क्या बिहार की नयी परिस्थितियां आदमी को अंदर से तोड़ कर उसे खामोश करने पर आमादा है। लालू के वक्त अच्छे विकल्प की आस लोगो में उम्मीद जगाये हुये थी, जो संघर्ष करने को उकसाती थी। वहीं नीतीश कुमार के दौर ने विकल्प की चेतना को ही खत्म कर दिया गया। संघर्ष सपने सरीखे हो गया है। पुस्तक मेले में नयी किताबो में अच्छी किताब चुनने की तरह अच्छे दंपत्ति का चयन भी एक ही मंचों से हो रहा है । गीत संगीत की फिल्मी तर्ज और नाटकों का मंचन भी एक जगह एक जैसा दिखायी दे रहा है। जादू-टोने के साथ रंग प्रतियोगिता भी उस मैदान में चल रही है। तो क्या बिहार अब सबको टटोलकर जीने वाला बन चुका है। यह सवाल बार बार पुस्तक मेले में घूमते वक्त घुमड़ता रहा।
लेकिन रात में दिल्ली वापसी की ट्रेन पकड़ने से पहले कई लोग बिहार के अलग अलग शहरो के टकराये जो अपने अपने क्षेत्र से लेकर दिल्ली तक पर सवालिया निशान लगाते- उठाते रहे। मेले से निकलते वक्त नवादा का सुधीर कुमार सिंह भी टकराया, जिसने मिलते ही कागजों का बंडल में हाथ में थामाकर पूछा। अगर पुलिस प्रशासन से लेकर अदालत और मुख्यमंत्री का जनता दरबार भी आपकी न सुने तो आपको क्या करना चाहिये। मेरे मुंह से निकल पड़ा गोली मार देनी चाहिये। उसने कहा किसे और कहां । मै उसको साथ लेकर स्टेशन की तरफ ही निकल पड़ा। रास्ते में उसने बताया वह नवादा के कौवाकोल थाना के केवाली गांव का रहने वाला है । पिता की मौत के बाद गांव के दंबग रामचन्द्र प्रसाद सिंह,अवध किशोर सिंह ने उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया। बंटाई पर जमीन लेने के नाम पर जमीन ही रामचन्द्र प्रसाद ने अपने नाम लिखवा ली। यह सच 44 डिसिमल जमीन का है जो कौवाकोल मेन रोड से सटे प्लाट नंबर 966 में खाता नंबर 262 का है। जब बंटाई से जमीन वापस मांगने गया तो मुझे मेरे भाई बालमुकुंद को मारा पीटा गया । उल्टी रिपोर्ट पुलिस में लिखवायी गयी । पखाना खिला दिया गया। पत्नी को भी नही छोड़ा । मैंने पूछा पुलिस है कानून है। सुधीर फफक कर रो उठा । उसने कहा थाने में एफआईआर दर्ज नही की गयी। फिर एसपी और कलेक्टर दोनो ने नवादा छोड़ने की घमकी दे दी । न छोड़ने पर कहा, मारे जाओगे । डीएम पंकज कुमार और एसपी विनोद कुमार ने भी हाथ खड़े कर दिया । सुधीर के मुताबिक अदालत की चिट्टी पर थानेदार ने पेशाब कर दिया। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग की चिट्टी को पुलिस ने उसकी आंखों के सामने फाड़ दिया।
ऐसे में एक-दो बार नही बल्कि सात बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार में जा कर गुहार लगायी । नीतीश को घेरे लोगों ने सातों बार तमाम कागज लेकर न्याय करने का दरबारी ऐलान किया। लेकिन हर बार दरबार से गांव लौटने पर पुलिस प्रशासन और दंबगो ने जमकर मारपीट की। सुधीर ने बताया उसके तीन बच्चे हैं जिन्हे लेकर वह धनबाद में छिप कर रहता है। क्योंकि वह उन्हें पढ़ाना चाहता है। मेरी ट्रेन के आने का वक्त हो रहा था और सुधीर एक के बाद एक जानकारी दिये जा रहा था कि उसने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश को कब पत्र भेजा । लोकायुक्त के पास कब गया। किस किस तारीख को मुख्यमंत्री के जनता दरबार में हाजिरी दी । एसपी-डीएम ने कब उसे ही बिहार छोडने की धमकी दी। जाहिर था मैंने सुधीर को भरोसा दिलाया हम कुछ जरुर करेगे। मेरा भरोसा बरकरार है कि कुछ तो जरुर करेंगे लेकिन पहली बार लगा कि सत्ता बदलने का खेल तो महज खेल है। यहां तो लोकतंत्र ही हाशिये पर है।
Friday, December 19, 2008
पंगु बना दिया अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने (पार्ट दो)
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:26 AM
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8 comments:
प्रसून जी जरा पत्रकार के चौले के बिना पधरिये पुलिस प्रशासन का ये रुख तो हम आपको यही एन सी आर मे ही दिखा देते. जिस गुंडे की शिकायत आप करना चाहते है वही आपको थाने मे गलबहिया डाले बैठा मिलेगा और पुलिस वाला आपको एस एस पी तक की धमकी दे डालेगा कि जो यह कह रहा है अभी मान जायो . वरना बंद होकर मानोगे सालो तक सडोगे . किस भ्रामक दुनिया मे जी रहे हो साहब ?
Prasunn jee,
Patna sudhar raha hai. Wahan ka environment desh ki kisi bhi shaharo se kam nahin hai. Haan Bihar arthik tangi se gujar raha hai. ees kaaran bade bade mercedese aur luxary cars kum dikhengi. Rikshaw jyada dikhate hain.
Rahi baat Sudhir kee to jaroor aap madad kijiye. Hindustan me law enforcement abhi bhi weak hai. Aap khud patrakar hain aur aapko malum hai ki hindustan ke bahut serious cases media pressure ke karan resolve hue hain. Aise me chhote chhote logo ki baat kaun sunega.
Janta darbar ke alawa kyon naa ek media darbaar shuru ki jaye? How fourth piller can help this type of situations?
हजारों सुधीर रोजाना,देशभर में प्रशासन-शासन,पुलिस,नेता और पैसे के डंडे से पीटे जा रहे हैं..दबाये जा रहे हैं..भूखे-प्यासे सो रहे हैं..बहरहाल...आपसे उम्मीद है...कि जिस सुधीर से आप मिलें है..हो सके तो उसे इंसाफ दिलाने के लिये जरूर कुछ कीजिये...
Bihar ka yah durbhagya hi hai jahan ke tathakathit jaganath mishra, lalu, nitish jaise neta paida huye. In logo ne bihar ko jatigat mein is tarah baant diya hai kee bihar ko vikash ka marg tay karane mein koso mil ka safar karana hoga.
Sudhir inhi netao ka sikar hai. Aapne thik hi bewak kaha kee GOLI maar dena chahiye.
आपने सही कहा है ।अंतुले जी जो कह रहे है वह भारत के लिए नही बल्कि पाकिस्तान के लिए कह रहे है । एक कसाब का मामला अभी तक सुलझा नही है । लेकिन भारतीय शहीद पर बेचारे अपनी राजनीतिक रोटी सेक रहे है । प्रसिध्द होने का यही सबसे अच्छा उपाय है बरना अंतुले जी क्या है सबको पता है । मुस्लिम बोट बैक की जुगार में है चुनाव आगे है न । मेरे ब्लाग पर भी आए
आपने विहार की राजनीति पर जो लिखा है पढ़ने को मजबूर करता है । दिल में कचोट तब आती है जब यह पढ़ने को मिला । विहार की राजनीति में लोगो को नितीश से उम्मीद काफी लम्बे समय से रही है । लालू के जाने की तैयारी तो लोग काफी समय से कर रहे थे । लोगो का सोचना था कि लालू के जाने के बाद विहार में विकास की गंगा बहेगी । लेकिन नितीश भी वही कर रहे है जो लालू कर रहे थे तो विहार के मालिक भगवान है । विकास की बात सोचना भी बेमानी होगी । अमर अकबर एंथोनी तो होते ही रहेगे ।
सर इस दुनिया में न jane कितने ही सुधीर कुमार पड़े है जो व्यवस्ता की मार से परेसान हैं. लेकिन अब जब कोई व्यवस्ता से लड़ने के लिए खड़ा ही नही होगा तो 'सुधीर kumar' तो परेसान होगा ही. इसीलिए जरूरी यह होगा की आप जैसे लोग आगे आयें और व्यवस्ता से जमकर मुकाबला करे. आप में मजबूत इचाशक्ति भी हैं. आप जरूर सफल होंगे.
www.prakharhindu.blogspot.com
हे द्विजश्रेष्ठ,
आपके लेखों में हमेशा ही सेक्युलरवाद की ज़हरीले विचार रहे हैं.... पर इस बार आपने कैसे एक महान् क्रान्तिकारी अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान के बलिदान को भुला दिया.... 19 दिसम्बर को कैसे भूल गए आप.. और आप ही नहीं आप जैसे तमाम पत्रकार जो इन दिनों चमक दमक को ही अपना सर्वस्व माने बैठे हैं
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