Thursday, August 13, 2009

लालू की खामोशी..नीतीश की सादगी और 77 की याद

एयर इंडिया का आईसी 407 विमान जैसे ही पटना के जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर उतरा, मेरी नजर बिजनेस क्लास में उतरने के लिये सबसे आगे खड़े सासंद लालू प्रसाद यादव पर पडी । बिना किसी हंसी-ठहाके के खामोश लालू प्रसाद सीढ़ियों के लगते ही सबसे पहले जहाज से नीचे उतरे । नीचे उतरते ही एक प्राइवेट इनोवा गाड़ी जहाज के करीब आकर लगी । लालू प्रसाद यादव एयर इंडिया के अधिकारियो से चंद सेकेंड में औपचारिक सलाम-दुआ कर इनोवा में बैठे और गाड़ी हवाई अड्डे के एक किनारे बाहर निकलने के गेट से चंद मिनटो में ही ओझल हो गयी ।

यह सब जिस तेजी से हुआ, उसमें जहाज से उतरते दसवें यात्री को भी इसका एहसास नहीं हुआ होगा कि लालू प्रसाद यादव पटना उसी जहाज से पहुंचे होंगे, जिसमें वह खुद सफर कर रहा होगा। मेरी नजर इसलिये गयी क्योंकि मैं इकनॉमी क्लास की पहली कतार में बैठा यात्री था। लेकिन जिस खामोशी से लालू प्रसाद हवाई अड्डे से बाहर निकले. उसने मेरे जहन में तीन साल पहले के उस माहौल को आखों के सामने ला खड़ा कर दिया, जब बिहार में विधान सभा चुनाव से पहले लालू प्रसाद इसी जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर एयर इंडिया के ही जहाज से उतर रहे थे और लालू प्रसाद को लेकर जुनुन कुछ इस तरह का था कि हार पहनाने के लिये कुछ कार्यकर्त्ता जहाज में लगी सीढ़ियो तक पहुंच गये थे। गुलाल और फूल मालायें हवाई अड्डे के अंदर इस तरह बिखर चुकी थीं कि यात्रियों में खुसर-फुसर रेंगने लगी थी कि लालू इस बार भी बिहार में चुनाव जीत सकते हैं।

वहीं शनिवाल 8 अगस्त को लालू जिस खामोशी से निकले उसपर एक बुजुर्ग यात्री की त्वरित टिप्पणी जरुर आयी कि लालू प्रसाद यादव की हालत 1977 वाली हो चुकी है। उन्हें राजनीति में ऊपरी पायदान तक पहुंचने के लिये 77 की तर्ज पर संघर्ष करना होगा । इस पर पटना के मशहूर डॉक्टर, जो हवाई जहाज में साथ ही यात्रा कर रहे थे , उन्होने रिटायर नौकरशाह की टिप्पणी पर अपना फुनगा बैठाते हुये कहा कि .....लेकिन 77 में जेपी का संघर्ष था । अब जेपी के नाम पर हवाई अड्डे का नाम है । फिर तीन साल पहले बनारस में लालू ने तो यहा तक कहा कि उन्होंने ही जेपी को जेपी बनाया। फिर जेपी आंदोलन से नीतीश कुमार भी निकले है । 77 में तो सभी एकसाथ थे । इसलिये अब 77 के नहीं 2009 के नये हालात हैं, जिसमें लालू को खामोशी से निकलना ही पड़ेगा।

आप इस खामोशी में कोई आहट ना खोजिये । बात करते करते हम हवाई अड्डे से बाहर निकलने लगे तो हमें नारो की गूंज और गुलाल से नहाये लड़के और फूलों की मालाओं को लेकर खड़े लोगो के हुजुम ने बरबस रोक दिया। मुझे झटके में लगा कि कहीं लालू यादव इसी से बचने के लिये तो पिछले दरवाजे से नहीं निकल गये । लेकिन हवा में गूंजते नारो को सुना तो किसी रामजीवन सिंह का नाम सुनायी दिया । बाहर लगे बैनर को देखा तो पता चला जदयू के किन्हीं राम जीवन सिंह को नीतीश कुमार ने कोई पद दे दिया है। यह पद स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ा है। साथ चल रहे मशहूर डाक्टर ने बताया कि राम जीवन महाशय नाराज चल रहे थे तो नीतीश ने उन्हें पद देकर मना लिया होगा। उसी का हंगामा है । लेकिन निकलते निकलते यह टिप्पणी भी कर गये कि लालू यादव हंगामे की जो राजनीति खड़ी कर गये हैं, उसके अंश आपको इसी तरह छुटभैये नेताओं में नजर जरुर आयेंगे।

लेकिन, यही से नीतीश खुद को लेकर एक अलग लकीर खींच रहे है । वह ताहते हैं कि लालू की तर्ज पर उनके नेता पहल करें, जिससे वह खुद को अलग खड़ा कर सके । फिर 77 में नीतीश कुमार जमीन बेच कर चुनाव लड़े थे । अब वह सत्ता में हैं । इसलिये लालू का मामला 77 वाला हो नहीं सकता । चूंकि एक सार्वजिक समारोह में मुझे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलना ही था। मैंने डाक्टर साहब से यह कहते हुये विदाई ली कि मुख्यमंत्री से जरुर इन सवालो को पूछूंगा । समारोह में जब मैंने 77 का जिक्र कर नीतीश कुमार को लेकर यह कहा कि पहला चुनाव घर की जमीन बेच कर वह लड़े थे तो मैने देखा नीतीश कुमार कुछ इस तरह झेंपे जैसे यह उनकी निजी सोच थी, जिसे वह जीते है इसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिये।

77 के आंदोलन से जुड़े एक प्रोफेसर रामाश्रय प्रसाद भी सभा में मिले। जब मैंने उनसे 77 के दौर और अब के राजनीतिक हालात को लेकर लालू यादव की खामोशी का जिक्र किया । तो प्रोफेसर साहब ने बिना रुके ही कहा, नीतीश की जगह लालू होते और अगर उन्होंने जमीन बेचकर चुनाव लड़ा होता तो आपके सवाल को ही लालू यादव इस सभा में अपनी राजनीति का केन्द्र बना लेते। लेकिन नीतीश इस पर झेंप रहे हैं। लालू तत्काल को ही जीते है और नीतीश जेपी दौर से बाहर निकल नहीं सकते क्योंकि उनकी राजनीतिक ट्रेनिग जेपी और कहीं ज्यादा कर्पूरी ठाकुर के इर्द-गिर्द हुई है। इसलिये मामला 77 सरीखी स्थिति का नहीं है। सवाल है अभी के राजनीतिक हालात में पहली बार कोई नेता ऐसा नहीं उभरा है जो 77 को चैलेज कर सके। यानी स्थितियां बदल चुकी है मगर नेताओ की व्यूह रचना 77 वाली ही है। इसकी बड़ी वजह 77 से लेकर 2009 तक के दौर में सामाजिक संबंधो में कोई बडा अंतर बिहार में नहीं आया है। इसलिये लालू कल की जरुरत थे और नीतीश आज की जरुरत हैं । लेकिन बिहार में राजनीतिक जमीन के लिये जब कांग्रेस भी दरवाजा खटखटा रही है तो इसका मतलब दिल्ली में लालू विरोध और बिहार में नीतीश की विकास योजनायें कांग्रेस को रोक सकती हैं।

इस सवाल के जबाब के लिये नीतीश कुमार से मैंने निजी तौर पर जब यह सवाल किया कि बुंदेलखंड को लेकर कांग्रेस जिस तरह दो राज्यों की नीतियों से इतर प्राधिकरण बनाकर विकास की बात कर रही है तो सवाल के बीच में ही नीतीश कुमार ने सीधे टोका देश में फेडरल सिस्टम है कहां । कांग्रेस सिर्फ परसेप्शन की लड़ाई लड़ती है। परसेप्शन से विकास हो नहीं सकता और राज्यों से टकराव के जरीये केन्द्र -राज्य संबंध कभी विकसित हो नहीं सकते। बिहार को ही ले तो राहत राशि तो दूर गरीबी की रेखा से नीचे कितने लोग हैं, इसकी संख्या भी केन्द्र खुद तय करना चाहता है। हम कहते है बीपीएल परिवार सवा करोड हैं तो केन्द्र अपनी गिनती बताकर साठ लाख बताता है। फिर बीपीएल के लिये जो अन्न आना होता है, वह उसकी निर्धरित तारीख तक आता नहीं । यानी तारीख बीत जाने पर खाद्यान्न आता है तो केन्द्र कहता है आपने तो माल तक नहीं उठाया। किस तरह जमीनी हकीकत से दूर कांग्रेस या कहे केन्द्र परसेप्शन की लड़ाई में ही मशगूल रहता है, इसका अंदाज इस बात से समझ सकते है कि सूखे पर बातचीत के लिये प्रधानमंत्री राज्यों के मुख्य सचिवो का सम्मेलन बुलाते हैं। अब सूखे से कैसे लड़ना है, इसपर मुख्य सचिवों को बुलाकर राज्यों को किसी नीतिगत निर्णय लेने पर कैसे अमल में लाया जा सकता है ।

पांच दिन बाद मुख्यमंत्रियो की बैठक दिल्ली में प्रधानमंत्री ने बुलायी ही है तो उसी में सूखे पर भी बात होनी चाहिये। निर्णय तो किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री ही लेगा । अब मुख्य सचिव महज केन्द्र की बात को ड्राफ्ट कर सीएम को दिखा ही सकता है।
[संयोग से मुख्य सचिवो का सम्मेलन 8 अगस्त को ही दिल्ली में था, जिस दिन मै नीतीश कुमार से यह सवाल कर रहा था।] कांग्रेस जिस परसेप्शन को बनाना चाहती है उससे विकास नहीं हो सकता । हां, लोगो के बीच यह धारणा बन सकती है कि कांग्रेस भिड़ी हुई है । लेकिन बिहार में यह सब संभव नहीं है क्योकि जो हालात बिहार में बने हुये हैं, उसके लिये कांग्रेस भी दोषी है।

लेकिन कांग्रेस बिहार में पार्टी का अलख जगाने के लिये मशक्कत कर रही है । इसका अंदाज मुझे शहर में घुसने के साथ ही जगह जगह जगदीश टाइटलर के स्वागत मे लगे बैनरो से लग गया । क्या कांग्रेस वाकई बिहार में अपनी जमीन नही बना पायेगी, यह सवाल जब मैंने प्रेफेसर साहब से किया तो वह तपाक से बोले ....आप यह तो देखो कि कांग्रेस ने जगदीश टाइटलर को क्यों भेजा । जबाब सीधा है किसी और को भेजते तो जातीय लड़ाई में ही बिहार कांग्रेस के भीतर दुकान चलती । टाइटलर के साथ यह सब है नहीं तो कांग्रेस खुश है, लेकिन उसका बिंब आपको कांग्रेसियो के चेहरे पर दिखायी नहीं देगा।

नीतीश कुमार इसीलिये निश्चिंत हैं । लेकिन इसी दौर में मुलाकात बिहार इंडिस्ट्रयल एसोशियशन के अध्यक्ष केपी झुनझनवाला से हो गयी । उनके दुख में मुझे बिहार में रोशनी दिखायी दी । क्योकि झुनझुनवाला साहब ने माना कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना 2007-2012 के दौरान अनुमानित विकास दर 8.5 से 2 फीसदी ज्यादा पाने के लिये राज्य सार्वजनिक क्षेत्र में 58,318 करोड निवेश करने की दिशा में तो बढ़ रही है लेकिन निजी क्षेत्र में 1.08 लाख करोड रुपये निवेश करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठा रही है। झुनझनवाला के साथ मौजूद एक बडे बिल्डर ने बात बात में यह जानकारी दी कि पिछले दिनो सीतामढ़ी के एक किसान ने 85 लाख डाउन पेमेंट कर उससे एक फ्लैट खरीद लिया । वह किसान तंबाकू की खेती करता है। उस शख्स ने माना बिहार को किसी बाहरी निवेशक का इंतजार नहीं है बल्कि बिहार की पूंजी बिहार में लग जाये तो साठ फीसदी स्थिति उसी से सुधर जायेगी।

सवाल है नीतिश सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कर उसी स्थिति को सुधार रहे हैं, जहां पंजाब से महज किसान-मजदूर ही बिहार न लौटे बल्कि पूंजी लगाने वाले भी गंगा किनारे बिहार की परिस्थितियो के अनुकूल पूंजी लगा सके । मुझे पटना से लौटना उसी दिन था तो लौटते वक्त हवाई अड्डे के बाहर बड़े अक्षरो में लिखे जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डा को देखते ही सुबह शुरु हुई 77 की बात और लालू यादव याद आ गये। मुझे लगा अगर लालू की जगह नीतिश होते तो क्या वह इनोवा में बैठ कर अलग दरवाजे से जाने की जगह मेन गेट से ही पैदल निकलते, जहां चाहे किसी भी नेता की जयजयकार हो रही होती क्योकि जेपी इसी जय-जयकार को दरकिनार कर संघर्ष करने निकले थे ।

12 comments:

Arshia Ali said...

जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई.
( Treasurer-S. T. )

Shankar Sharan said...

यह कहने के लिए (जो पढ़कर लगा) - लालू नाटकीय पर खोखले हैं, नीतीश सहज हैं तथा कुछ करना चाहते हैं, जबकि कांग्रेस/केंद्र गंभीरता से राज्यों के साथ काम नहीं करता - यह पूरा लेख कुछ बड़ा और अव्यवस्थित लगा।

Shankar Sharan said...

यह कहने के लिए (जो पढ़कर लगा) कि - लालू नाटकीय पर खोखले हैं, नीतीश सहज हैं तथा कुछ करना चाहते हैं, जबकि कांग्रेस/केंद्र गंभीरता से राज्यों के साथ काम नहीं करता - यह पूरा लेख कुछ बड़ा और अव्यवस्थित लगा।

संतोष कुमार सिंह said...

बाजपेयी जी काफी लम्बे अरसे के बाद आप इन दिनों लगातार किसी न किसी कार्यक्रम के बहाने बिहार आ रहे हैं।कार्यक्रम से वापस लौटने के बाद आपके ब्लांग पर नजर लगी रहती हैं की आप बिहार को लेकर आप क्या सोच रहे हैं।आपका आलेख पढकर काफी निराशी हुई हैं लालू प्रसाद समाजिक न्याय के नाम पर बिहार की जनता को 15वर्षों तक लूटता रहा और नीतीश कुमार सुशासन और विकास के नाम पर बिहार की जनता को बेवकूफ बना रहे हैं।मीडिया मनैंजमेंट और प्रोपगेंन्डा के बल पर बिहार के साथ नीतीश कुमार भी वही कर रहे हैं जो लालू किया था।दोनों में फर्क सिर्फ इतना ही हैं कि लालू व्यवहार और बोलने में फुहर हैं और नीतीश मीडिया की भाषा बोलने में माहिर हैं।दुखद पहलु यह हैं कि लालू का भूत दिखा कर नीतीश बिहार में वही कर रहा हैं जो लालू कर रहे थे।लालू बिहार के शिक्षा को यू कहे तो पटरी से उतार दिया तो नीतीश पटरी से कई किलोमीटर दूर पहुंचा दिया हैं जहां से वापस पटरी पर लाने में कई दशक लग जायेगा।जरा आप अपने दरभंगा के स्कूल एम0एल0ऐकडमी और आपके चाचा जी जिस बहेड़ी कांलेज में पढाते थे उसका हाल आप अपने किसी पुराने मित्र से पता कर ले आपको नीतीश के सुशासन के बारे में पता चल जायेगा।जिस तरीके से शिक्षक और कांलेज के प्रिंसपल की बहाली में पैसे का खेल हुआ वह किसी चारा घोटाले से कम नही हैं।नीतीश जी के कार्यकाल का चार वर्ष होने को हैं विकास के बड़े बड़े दावे किये जा रहे हैं।जिस सड़क और फलाई ओभर को दिखा कर बिहार बदल रहा हैं उस पर गौर करेगे तो पायेगे की अधिकांश योजना लालू प्रसाद के 2000से 2005 के कार्यकाल के दौरान स्वीकृत हुए थे और उन सभी योजनाओं का टेंडर भी हो गया था।यह अलग बात हैं कि लालू शासन में रहते तो सड़के और पुल भी नही बनता।जरा आप ही बताये नीतीश कुमार निवेश के बड़े बड़े दावे कर रहे हैं और बिहार चेम्बर आंफ कोमर्श नीतीश के सुर में सुर मिला रहा हैं।आप को पता हैं बिजली के क्षेत्र में शून्य जेनरेशन अपना हैं केन्द्रीय सेक्टर के बिजली पर काम चल रहा हैं आप को यह जानकर हैरानी होगी गुजरात के एक छोटे जिले में बिजली की जितनी खपत हैं उतनी खपत पूरे बिहार में बिजली का हैं मात्र 900से 1000मेंगावाट बिजली बिहार को मिल रही हैं उसी में नेपाल और रेलवे को भी दिया जाता हैं।आप ही बताये ऐसे हालात में कोई व्यपारी यहा निवेश करने क्यों आयेगा। बाढ को रोकने के नाम पर वही लूट मची हैं जो लालू प्रसाद के समय मची थी।बाढ के स्थायी समाधान की बात नीतीश जी भी करते हैं लेकिन कोई प्रस्ताव इनके पास भी नही हैं एक क्वीन्टल आनाज और दो सौ रुपये इमानदारी के बाढ पीड़ितों के बीच बाट देना हैं यही ऐंजेडा इनका हैं। कोसी में इसी ऐंजडा के बल पर चुनाव भी जीते हैं।दुरभाग्य हैं इनजीनयर मुख्यमंत्री होते हुए भी कोई सोच अभी तक सामने नही आया हैं।सूबे का 26जिला सूखे के चपेट में पूरी तरह हैं सभी नदियों में लवालब पानी भरा हैं लेकिन उसका कोई उपयोग नही हो रहा हैं।पानी गंगा के माध्यम से समुद्र में गिर रहा हैं,काश इस पानी के उपयोग पर सोचा जाता तो बिहार आज सोने की चिड़िया रहती लेकिन दुरभाग्य हैं इस धरती का जिसे इसने प्यार से पाला वही उसके सीने में चाकू भोक रहा हैं।बाजपेयी जी बिहार को बचाये नही तो आने वाला कल काफी भयावह होगा।

सिद्धार्थ प्रियदर्शी said...

Bajpai ji ! Kafi had tak aapne sahi kaha hai. sunder post !!

DILEEP SHARMA said...

केन्द्र और राज्य की राजनिति में गरीब जनता पिस रही है. आखिर कबतक ऐसा होता रहेगा.

PD said...

आपका यह पोस्ट कमेंट्स के साथ पढ़ा.. पढ़कर यही लगा कि जो जिस चश्में से इस पोस्ट को देखे उसे वैसा ही दिखेगा..

खैर मैं अपना विचार यहां रख रहा हूं.. मेरे पिताजी पूरे 33 वर्षों के प्रसाशनिक अधिकारी के नौकरी से अभी हाल में ही रिटायर हुये हैं, और जैसा मैं उनसे सुनता आया हूं उस आधार पर मुझे काफी हद तक आपका यह पोस्ट सही लगता है..

अगर मेरे अपने निजी अनुभव की बात की जाये तो मैं बताना चाहूंगा कि नितिश जी का बेटा स्कूल में मेरा सहपाठी हुआ करता था.. मैंने केंद्रिय विद्यालय बेली रोड से सन् 1996 में मैट्रिक पास किया था.. मेरा सेक्शन 'ए' हुआ करता था और उसमें कुल 35 विद्यार्थी थे जिनमें कम से कम 15-20 के माता या पिता एम.पी. या एम.एल.ए. थे.. सभी अपने माता-पिता के सत्ता के नशे में चूर रहते थे और जम कर दिखावा करते थे.. मगर मुझे लगभग छः महिने बाद पता चला था कि नितिश का बेटा भी मेरे ही साथ पढ़ता है.. उसमें कोई दिखावा नहीं था.. मेरे ख्याल से कहीं ना कहीं कोइ संस्कार वाली बात नितिश के परिवार में जरूर रही होगी तभी ऐसा था..

baadlav.blogspot.com said...

शायद एकाध राजद नेताओं को छोड़ दे तो लालू जी वाला अक्खड़पनन राजद के सभी नेताओं में दिख जाएगा। लालू के पहले राजनीतिक दौर के शुरुआती दिनों में यह बात साफ थी कि लालू और मुलायम सीधे जमीन से जुड़े हुये हैं। दूसरी बात ये है कि नीतीश का कियाधरा यदि किसी को बिहार में नहीं दिख रहा है तो..............यह सीधे तौर पर माननेवाली बात नहीं है। भाई संतोष जी दरंभगा ही क्यों चले गये। नीतीश की सरकार में बाढ़ राहत धोटाला नहीं हुआ है.............और लोग मानते हैं कि राहत मिली है। कमोवेश उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं कि ऐसा हुआ है। नीतीश के धुर आलोचकों में से पूर्व कांग्रेस के हालिया नेता प्रेमचंद मिश्रा भी रहे हैं....................लेकिन जब आईजीआईएमएस में इंदिरा गांधी की टूटी हुई मूर्ती दुबारा नीतीश ने लगा दी तो कांग्रेसी आपस में भीड़ गये। क्योंकि अभी भी कुछ बुद्दिजीवी लोग कांग्रेस को स्वार्थी पार्टी की श्रेणी में जरुर रखते हैं। काम निकल जाने के बाद कोई पुछनेवाला नहीं वाली पार्टी । अब थाने में गुंडे नहीं बैठते.....रात में पुलिस गांव में जाती है...अपराध मेट्रों पालिटन की हाईटेक पुलिस की उपेक्षा बिहार पुलिस ने रोका है....शिक्षा में सुधार के साथ कुछ कमियां दिख रही हैं...तो कमियां तो हमलोगों में भी है ...क्योंकि हम आज भी जब दस लाख रुपये खर्च करके अपना घर बनाते हैं लेकिन सामने की नाली पर पांच सौ रुपया खर्च नहीं करते। हम साफ जगहों पर थुकना पसंद करते हैं। बौद्दिक आतंकवाद हम पैदा कर सकते हैं लेकिन कर्म की जगह फिर से एक्सक्यूज लेना नहीं भूलते। लालू जी की रेल मुनाफे में गई, लेकिन राकेश मोहन समिति की रिपोर्ट और वेलफेयर स्टेट की धारणा को ताक पर रखकर पेरेनियल वर्क वाले रेलवे के कामों को भी ठेके पर दे दिया। सफाईकर्मियों की बहाली आज तक रुकी हुई है। परमानेंट वर्क नेचर को भी आपने ठेकेदारी प्रथा में बदल दिया। रामविलास पासवान के बाद रेलवे में कहां बहाली हुई है सफाईवालों की। रहा सवाल बिहेव का तो यह जग जाहिर है कि लालू जी कैसे बात करते हैं.....................आज भी उन्हे किसी कार्यक्रम में एंकर इंडिया का पोलिटिकल इंटरटेनर कहकर मंच पर आमत्रित करता है...जबकि वहीं आडवाणी जी को लेने चैनल के चेयरमैन मंच से नीचे आते हैं। मनमोहन के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी आडवाणी का राजनीतिक कद और विदेशी सहित कई महत्वपूर्ण मामलों में उनका कद छोटा नहीं हुआ है। भले वे प्रधानमंत्री न हों। लालू अपने विहेव से अभी भी ठीक ठाक रह सकते थे लेकिन कार्यकर्ताओं तक को कुते की तरह झिड़की देकर भगा देना अब कैसा लग रहा है । अब तो प्रखंड स्तर के कार्यक्रम में दांत निपोरकर चले जाते हैं। देखिये नीतीश का काम दिख रहा है ..................और इंतजार किजिए बहुत जल्द पंद्रह साल का कचड़ा निकल जाएगा................बाजपेयी सर अपनी जगह ठीक हैं।
आशुतोष कुमार पांडेय।

Aadarsh Rathore said...

शैली अच्छी लगी। बिहार के बारे में सिर्फ पढ़ा और सुना ही है। दुर्भाग्य है कि अभी घूम नहीं पाया। इसलिए कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।

loksatt said...

bajpay ji namskar aur danyawad
ap bihar per jab bhi kuch likhats hain to mai uska besbri se intjar karta hun. ratnakar mishra

Hitendra Patel said...

बाजपेयी जी ने बात को सतही स्तर पर ही लिया है. न तो इस बात का कोई खास मतलब है कि किसने 1977 में जमीन बेच कर चुनाव लडा था और न ही कि कौन कितनी सादगी दिखा रहा है. बिहार संकट से तभी उबर सकता है जब लालू और नीतिश के समीकरण को बेमानी कर दिया जाये. हो सकता है अपनी अपील और कुछ विशेषताओं के कारण लालू भी बिहार की प्रगति के लिए सहायक हों. हमरा फोकस इस बात पर होना चाहिए कि बिहार की जनता को सही परिप्रेक्ष्य मिल सके, प्रशासन जिम्मेदार बन सके और सरकारी तंत्र से जितना संभव हो आम आदमी को राहत मिल सके. बिहार में सर्वत्र बदहाली है, तीव्र असंतोष है और बहुत संभव है कि अगर नीतिश जी बहुत जल्द कडे और बुनियादी सुधार का जोखिम न उठा सके तो उनके प्रति भी लोगों का विश्वास हिल जाएगा. याद होगा आपको कि जब लालू के खिलाफ कोई बोलता था तो लोग कहते थे कि ये जगन्नाथ मिश्र के घूसखोरवा युग से तो अच्छा ही है और फिर पिछडों को वे शक्तिशाली ही तो कर रहे हैं. आज इस सोच का परिणाम सामने है. पूरा बिहार रो रहा है. नीतिश लालू की छाया में कुछ कुंठित हो गये थे और वे अभी भी लालू के व्यक्तित्व के मुकाबले अपने व्यक्तित्व को रखकर ही सोचते हैं. समय सचमुच बदल गया है. बिहार में चाहे जिसकी सरकार रहे, चाहे कोई भी आए या जाए वहां जाति के नाम पर राजनीति खत्म होनी चाहिए और सब बिहारी को यह समझना चाहिए कि दूसरा बिहारी भी पहले बिहारी है बाद में भूमिहार या यादव है. एक और बात. बडी खूबसूरती से आप इस बात को गौण कर गये कि आप पटना एक मीडिया इंसटीच्यूट के उद्गाटन के लिए गये थे. ये सब खोल करके नीतिश क्या करना चाहते हैं मेरी समझ में नहीं आता. उनका मुख्य ध्यान स्कूल कालेज विश्वविद्यालय या अस्पताल को ठीक से चलवाने के बजाय इस तरह के संस्थानों के उद्घाटन के ऊपर ज्यादा है. 77 की याद में वे पेंशन की बात सोच पाते हैं लेकिन राज्य की राजधानी में कोई भी संस्थान अपना काम ठीक से करता दिखाई नहीं देता. नीतिश अच्छे आदमी हैं , ईमानदार भी. पर अगर उन्हें सचमुच कुछ करना है तो वे सांस्थानिकन पराभव को रोकें. आप भी मीडिया स्कूल के उद्घाटन के लिए कम जाएं थोडा स्कूल कालेज और महान पटना विश्वविद्यालय का हाल देखने जाएं तो ज्यादा उपकार होगा. आप इकानामी क्लास में चलते हैं अच्छी बात है लेकिन इससे भी अच्छी बात होगी अगर आप कष्ट करके ए एन सिन्हा इंस्टीच्यूट जाकर दो आंसू बिहार के बौद्धिक परिवेश पर बहा आएं. बाकी फिर कभी.

Amrita Tanmay said...

बिहार-- हाथी के सुन्दर दांतों का दर्शन तो हो रहा है पर आशंका भी घेरे जा रही है कि हाथी का मुंह खोला जाएगा तो खाने वाला दांत मसूड़ा छोड़ चूका होगा..