Monday, August 3, 2009

रेडकॉरिडोर में लाल क्रांति का सपना

कामरेड अब आगे आप क्या करेगे । वापस जंगल लौट जाऊंगा । कम से कम मरुंगा तो अपनों के बीच । मां के इलाज के लिये भूमिगत जीवन छोड़ कर शहर पहुंचे कामरेड की मां की मौत के बाद कामरेड के इस जबाब ने मुझे अंदर से हिला दिया । क्या वाकई जंगल इतना हसीन है कि उसकी आगोश में मौत भी आ जाये तो वह शहरी जिन्दगी से बेहतर है । फिर जंगल का मतलब है क्या । क्या यह माओवादियों की भाषा में दण्डकारण्य और सरकार की नजर में वही रेड कॉरीडोर है, जो आतंक का पर्याय बना हुआ है।

एक-दो नही बल्कि तेरह राज्यों यानी तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक के बीच खींची इस लाल लकीर के भीतर का सच क्या महज इतना ही है कि यहां विकास की कोई लकीर नहीं पहुंची और इसीलिए माओवाद यहां पहुंच गया। या फिर प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इन इलाकों में विकास के नाम पर ही लूट मची है, इसलिये मुनाफे की थ्योरी में बाजार का आतंक ही राज्य के आतंक में तब्दील होकर ग्रामीण-आदिवासियों को भी आतंकवादी करार देने से नहीं कतरा रहा। और ऐसे में समूचे रेड कॉरीडोर का जीवन चक्र सिवाय संघर्ष के बचा नही है, और माओवाद इसी में क्राति के सपने बुनने को तैयार है।

सपने कहां किस रुप में मौजूद हैं, जिसे अमली जामा पहनाने के लिये जंगल जिन्दगी की हकीकत बनी हुई है, यह महज बंदूक उठाये पांच से सात हजार माओवादियों के जरीये नहीं समझा जा सकता है । किसके सपने किस रुप में एक बेहतर जीवन के लिये हर संघर्ष के लिये तैयार हैं, इसके दो चेहरे पिछले दो अलग अलग दौर में उभरे हैं। पहला दौर 1991 का है जब आर्थिक सुधार ने प्रकृतिक संपदा से भरपूर जमीन हथिया कर विकास की लकीर खिंचने का रोमांच फैलाना शुरु किया। इस दौर ने शहरी जीवन की समझ में सीधी लकीर खींच कर समझदारो को बांट दिया। एक रास्ता विकास के बाजार में मुनाफा कमाने के घेरे में आने को बेताब हुआ तो दूसरा रास्ता मानवाधिकार के सवालों को लेकर जंगल-जमीन और शहरी जीवन में तारतम्य बैठाने की जद्दोजहद में आर्थिक सुधार को खारिज करने के लिये खड़ा हुआ।

वहीं दूसरा दौर उस मंदी का है, जो 2008 में आया और वही तबका जंगल-जमीन के सवाल को उठाने के लिये बैचेन हुआ, जिसने 1991 की लहर में मुनाफा कमाने के घेरे में जाने के लिये हर तरह की जद्दोजहद शुरु की थी। नब्बे के दौर में रेड कॉरीडोर के चार राज्य आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उडीसा के सीमान्त पर स्थित पर्वतीय औरजंगलात का इलाका सरकार और नक्सली आंदोलन के विकास और राजनीतिक प्रयोग का आखाडा बना। इस क्षेत्र में महाराष्ट्र के गढचिरोली, चन्द्रपुर, और भण्डारा जिले, आन्ध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खम्मम, पूर्व गोदावरी, विसाखापत्तनम जिले , उडीसा का मलकानगिरी जो पुराने कोरापुट के नाम से भी जाना जाता है और मध्य प्रदेश का बस्तर, राजानांदगांव, बालाधाट और मण्डला जिला आते है । असल में 1991 से पहले इस क्षेत्र में अंधेरा जरुर था लेकिन प्रकृतिक संपदा और सौन्दर्य ने ग्रामीण आदिवासियो को जिलाये रखा था। लेकिन 1991 के बाद से देशी-विदेशी कंपनियों की सांठगांठ में विकास का जो चेहरा खड़ा करने की कोशिश इस इलाके में शुरु हुई उसने उन्हीं आदिवासियों को उसी जंगल-जमीन से बेदखल करना शुरु किया, जिनकी जिन्दगी का आधार ही वही था। प्रकृतिक संपदा की लूट या ग्रामीण आदिवासियों के सवाल से इतर इन चारों राज्यो में सरकारो की पहल ने ही शहरी जीवन में एक नयी बहस शुरु की, जिसमें राज्य की भूमिका को लेकर सवाल उठने लगे।

क्योंकि संपदा की लूट को संरक्षण देते हुये राज्य व्यवस्था का एक ऐसा खाका खड़ा हुआ, जिसके खिलाफ जाने का मतलब लोकतांत्रिक मूल्यो के खिलाफ जाना था । संविधान को ना मानने वाला यानी कानून-व्यवस्था के खिलाफ पहल करने वाला होना था । यानी 1991 से पहले किसी भी राज्य में संविधान और कानून के दायरे में मानवाधिकार के सवाल शहरो में उठते थे तो कल्याणकारी राज्य की भूमिका को राजनीतिक दल भी आड़े ले लेते थे । जिससे राज्य की गलत पहल के खिलाफ आवाज उठाने का एक वातावरण बना रहता था । जिससे राज्य सत्ता पर एक तरह से दबाब बना रहता कि वह मनमर्जी न करे । लेकिन आर्थिक सुधार ने इसे नये तरीके से परिभाषित किया। जिसमें पुलिस प्रशासन और सत्ताधारी की भूमिका बदल गयी। क्योंकि विकास का जो खाका खड़ा किया गया, वह उस राजनीति पर भी भारी पड़ा जिसके जरिये लोकतांत्रिक मूल्यों का सवाल चुनावी राजानीति में किसी को सत्ता पर बैठाता था तो किसी को बेदखल कर देता था।

1991 के आम चुनाव में देश का करीब आठ सौ करोड खर्च हुआ और रेड कॉरीडोर के इन चारों राज्यो के विधानसभा चुनाव में करीब साढे तीन सौ करोड रुपये का सरकारी आंकड़ा दिया गया । अगर सरकार की बतायी रकम से ज्यादा भी रकम मान ली जाये तो दुगुनी राशि यानी लोकसभा में सोलह सौ करोड़ और राज्यों में सात सौ करोड़ से ज्यादा का खर्च नही हुआ होगा । लेकिन 1991 से लेकर 1996 तक के दौर में आर्थिक सुधार की लकीर खींचने के लिये इन चार राज्यो के नक्सल प्रभावित इलाको में पचास हजार करोड से ज्यादा की रकम राजनीति के खाते में गयी । जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनो की राजनीति और राजनेता शामिल थे। जिस संपत्ति की लूट इन इलाको में शुरु हुई, उसकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत पचास लाख करोड़ से ज्यादा की थी । देस के दस टॉप उघोगपतियो का डेरा उसी दौर में लगा, जो अब प्राकृतिक संपदा का भरपूर लाभ उठाते हुये बदस्तूर जारी है। जंगल में उघोगपतियो के लाभ को महज इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि उस वक्त एक पेड़ की कीमत उघोगपती के लिये तीन पैसे थी, जो अब बढ़ते बढ़ते नौ पैसे हो गयी है।

वहीं बाजार में उस वक्त उस कटे हुये पेड़ की कीमत एक हजार थी, जो अब बढ़कर नौ हजार हो चुकी है । यह स्थित कमोवेश हर संपदा और मजदूरी से जुड़ा है या कहें लूट और मुनाफे का यह अर्थशास्त्र हर वस्तु के साथ जुड़ा था और है , लेकिन विकास से इतर बड़ा सवाल उस राज्य का था जिसकी भूमिका को लेकर जंगल नही शहर परेशान था । पुलिस-प्रशासन के जरीये विकास की इस लकीर को अंजाम देने के लिये जो बजट राज्यो द्रारा बनाया गया वह राज्य के समूचे बजट से बडा हुआ । महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में तो नक्सल प्रभावित इलाको के लिये राज्य बजट से इतर एक दूसरा बजट बनाया गया । जो करीब ढाई गुना ज्यादा था । वहीं उडीसा के जिस बस्तर के आदिवासियों की न्यूनतम जरुरतों को लेकर भी पानी,शिक्षा, स्वास्थ्य और खाने को लेकर कोई योजना आजादी के बाद भी नहीं पहुची, वही संपदा की लूट को संरक्षण देती हुई पुलिस और अधिकारी इस इलाके में लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर बकायदी योजनाओ के साथ जरुर पहुंचे। इनके पीछे भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में माल पहुंचाने की एवज में राज्य का पैसा ही था जो कमीशन से मिला था । उडीसा में बतौर कमीशन सबसे ज्यादा धन गया। करीब पांच हजार करोड तक । लेकिन इस दौर में नया सवाल राजनीतिक शून्यता का उभरा और लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत मानवाधिकार को नये तरीके से परिभाषित करने की राजनीतिक थ्योरी का उभरा । इस प्रक्रिया के विरोध का मतलब व्यवस्था का विरोध था । जिसे राज्य बर्दाश्त नहीं करता । इसका असर प्रभावित राज्यो में दोतरफा दिखा । एक तरफ कॉलेज से निकल रहे छात्रों के सामने फैलते बाजार का हिस्सा बनकर हर सुविधा को भोगना था तो दूसरी तरफ कॉलेज से काफी पहले निकल कर नौकरी करता हुआ वह तबका था जो अर्थव्यव्स्था के इस बाजारी चक्र में मानवीयता और राज्य के कल्याणकारी होने के सबब को जगाना चाहता था।

इन चारो राज्यो में राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनो से जुड़े करीब साढ़े तीन लाख से ज्यादा शहरी व्यक्तियों को सरकारी तंत्र ने उन मामलो में घेरा जो जंगल जमीन के मद्देनजर सरकार की नीतियों का विरोध करने अलग अलग जगहों पर सडक पर उतरे । मसलन नागपुर से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर तोतलाडोह के मेलघाट में टाइगर प्रोजेक्ट 1993 में लाया गया । पूरा इलाका रिजर्व फारेस्ट में ले आया गया । जहा पेड़ की एक डाली काटने का मतलब था पचास रुपये का चालान और नदी में एक मछली पकडने का मतलब था सौ रुपये का जुर्माना । संकट जंगल में रहने वाले आदिवासियो और मधुआरो पर आया । करीब बीस हजार ग्रामीण आदिवासी जाये कहा और उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी इसपर जब महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनो से जुडे लोग सडको पर उतरे तो उनपर नकेल कसने के लिये प्रशासन ने पहले इलाके को नक्सली प्रभावित वाला करार दिया। फिर सभी पर उस दौर में आतंकवादी निरोधक कानून टाडा लगाने की प्रक्रिया शुरु कर दी । इसके साथ ही जब टाइगर प्रोजेक्ट से नक्सल शब्द जुड़ा तो नक्सल उन्मूलन के बजट का बडा हिस्सा भी यहां पहुंचा। 1995 में पहुंचे बीस करोड का क्या हुआ, इसकी जानकारी राजनीति ने ही ठंडे बस्ते में डाल दी। यह इलाका अब के कांग्रेसी सांसद मुकुल वासनिक के इलाके में आता है । लेकिन उस दौर में शहर के करीब तीन हजार लोगो पर पुलिस ने अलग अलग अलग धाराये लगायी और 75 आदिवासियों पर टाडा की धारायें लगाकर जेल में बंद कर दिया । शहर के आंदोलनकारियों को समझ नही आया कि वह आदिवासियों के हक का सवाल कैसे उठायें।

वहीं आदिवासियो को समझ नहीं आया कि अपने हक के लिये खड़े होते ही उन्हे नक्सली मान कर जेल में ठूंस दिया गया तो उनके सामने रास्ता क्या है । लेकिन टाइगर प्रोजेक्ट पर सरकार की इस नायाब पहल ने प्रोजेक्ट को कितना आगे बढाया यह 2009 में केन्द्र सरकार की रिपोर्ट से समझा जा सकता है कि मेलघाट टाइगर परियोजना में एक भी टाइगर नहीं है। वहीं इस क्षेत्र के दस आदिवासी अभी भी टाडा के तहत जेल में बंद है और 25 आदिवासी टाडा की धाराओं का जबाब देने के लिये हर महीने अदालत की चक्कर लगाते रहते है । दरअसल, यह स्थिति अलग अलग परियोजनाओं के तहत हर इलाके में आयी। पावर प्रोजेक्ट से लेकर सीमेंट-स्टील फैक्टरी और कागज फैक्टी से लेकर खनन परियोजनाओ के तहत भी आदिवासियों पर बंदिशे लगायी गयीं। ऐसे में आदिवासियो के विरोध को आदिवासियो तक ही सिमटाया जाता तो मानवाधिकार के मामले के तहत सरकारें फंस सकती थी । लेकिन इनके हक में सांसकृतिक संगठन दलित रंगभूमि से लेकर आह्वान नाट्य मंच तक के कलाकारो को पहले इन इलाको में आदिवासियो की आवाज उठाने के लिये उसी राजनीति ने प्रेरित किया, जिसने बाद में आपसी गठबंधन कर सभी को नक्सली मान कर पुलिसिया कार्रवाई को उचित ठहराया।

यानी एक पूरा तंत्र इस बात को साबित करने में लगा कि हर वह जगह जहां योजनाये पहुंच रही हैं, वहां नक्सली पहले पहुंचते है और योजनाओ को रोक देते हैं । इसलिये लड़ाई विकास और विकास विरोधी सोच की है । लोकिन 1991 में खींची यह लकीर 2008 में मंदी के साथ कैसे बदली यह भी इन इलाको के विस्तार के साथ समझा जा सकता है ।
(जारी............)

3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह विसंगति विकास के लाभों के समान वितरण की है। यही सब से बड़ा अंतर्विरोध है। इसे हल करने का यही तरीका है कि विकास के फलों के समान वितरण की व्यवस्था कायम की जाए।

Unknown said...

पुण्य जी,
जंगल का आकर्षण है या विचारधारा का। सबकुछ बड़ा गड्डमड्ड है क्या सही है क्या गलत। किसे कहें कि कौन सही राह पर है ये या वो। जब जंगल और जंगल में रहनेवालों की असली हकीकत दिखती है तो लगता है ऐसे हालातों में कदम जो लाल झंडा ताने लोग उठाते हैं उसमें गलत क्या है।(ये और साफ हुआ जब प्रथम प्रवक्ता में आपके लेख को पढ़ा)लेकिन फिर लगता है कि ये वो नहीं जिनके लिए सोचकर हम परेशान होते हैं वो तो दोनों तरफ से मारे जा रहे हैं एक उनके संपत्ति यानि वनोपज पर नज़रें गड़ाए है तो दूसरी उनकी जान पर। बहुत हुआ लाल रंग अब छोड़िए समाधान नहीं मिलेगा। क्रांति चलती रहेगी। गान चलता रहेगा। ये विषय सम्मोहित करता रहेगा। आंध्रा के ही एक माओवादी नेता 'गदर' के गीतों और उनके ढपली पर थिरकती उनकी अंगुलियों और शैली की तरह।

दरअसल said...

ठीक है कि इसे हल करने का यही तरीका है कि विकास के फलों के समान वितरण की व्यवस्था कायम की जाए।

पर द्विवेदी जी यह तो बतायें कि क्या नक्सली सत्ता पर आने के बाद यह वितरण ठीक कर पायेंगे । वे तो अभी से गुंडों की तरह वसूली, स्मगलिंग, फिरौती और तस्करी कर रहे हैं । फिर कैसे हम उम्मीद करें कि वे सत्ता पर काबिज होते ही जनता के मध्य साधनों का पूर्ण बँटवारा करेंगे । क्या चीन और रूस, युगोस्लाविया में समान बँटवारा नहीं हुआ ? यदि नहीं तो कौन जिम्मेदार था?

और होगा भी तो वह हिंसक रास्तों से नहीं हो सकेगा । इतना तो तय है ।