चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की दीवार पर चिपके पुलिसिया पोस्टर ने झटके में माओवादियों को लेकर सरकार के नजरिये और सरकारी सिस्टम को लेकर एक पूरी बहस मेरी आंखों के सामने ला कर खड़ी कर दी । पोस्टर में काले घेरे में एक युवक की तस्वीर छपी थी । जिसके ऊपर मोटे काले अक्षर में लिखा था-यह माओवादी है। इसने बाईस पुलिसकर्मियों को बारुदी सुरंग से उड़ाया है, जो इसे पकड़वाने में मदद देगा उसे पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। तस्वीर के नीचे लिखा था माओवादी कामरेड मिलिन्द। यह कब से कामरेड हो गया ? चेहरा वही लेकिन नाम कुछ और था। इस लडके का नाम तो मिलिन्द नहीं था। अठारह साल पहले की वह शाम याद आ गयी, जिसमें प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन विषय पर जबरदस्त बहस हुई थी।
दिसंबर 1991 । चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र महोत्सव में शामिल होने नागपुर से चन्द्रपुर पहुंचा था। सोच कर गया था कि नक्सलवाद तेजी से आंध्रप्रदेश से सटे विदर्भ के चन्द्रपुर जिले में भी घुस चुका है और चन्द्रपुर से सटे छत्तीसगढ़, जो उस वक्त मध्यप्रदेश का हिस्सा था, वहां भी दस्तक दे रहा था, तो उस पर अखबार के लिये रिपोर्ट भी तैयार हो जायेगी। साथ ही कालेज के छात्र नक्सलियों को लेकर क्या सोचते-समझते हैं, इस पर पर रिपोर्ट तैयार होगी। इंजीनियरिंग कॉलेज पहुचा तो खासा जोश छात्रों में था। गेट पर ही छात्रों का एक झुंड स्वागत में खड़ा मिल गया। अठारह से बाईस साल के बीच के ही सभी छात्र थे। सभी ने अपनी फैक्ल्टी बतायी। नाम बताया। फिर हम कार्यक्रम में शरीक होने कालेज के कान्फ्रेन्स हॉल में चल पड़े। कालेज के अंदर जाते वक्त अचानक एक छात्र पीछे से आया और मुझसे हाथ मिलाकर कर बोला भईया आप भी प्रोफेशनल नहीं हैं। छात्र महोत्सव में मैंने ही यह विषय रखवाया है, प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन। तुम्हारा नाम। वसंत तामतुम्डे। अच्छा विषय है। लेकिन कुछ उलझा हुआ सा लगता है क्योंकि एजुकेशन तो प्रोफेशनलिज्म की तरफ ही ले जाता है। चलिये भईया इसी पर तो चर्चा करनी है। मजा आयेगा। उसने मजा आयेगा कुछ इस तरह कहा जैसे उसे सब पता था कि क्या होगा।
छात्र महोत्सव के दौरान कालेज के प्रिंसिपल भी मौजूद थे और सभी शिक्षक भी। संयोग से चन्द्रपुर की डीएम को भी आमंत्रित किया गया था। लेकिन डीएम महोदय आखिर में पहुंचे जिसका मलाल उन्हें उस वक्त तो रहा ही मेरे ख्याल से आज भी होगा। खैर एजुकेशन के तौर तरीको को लेकर छात्रों के सवाल खुद ब खुद प्रोफेशनलिज्म से जुड़ते चले गये और जब समूची बहस इस दिशा में जा रही थी कि शिक्षा का मतलब ही छात्रों को प्रोफेशनली ढालना हो चुका है और जिसका मतलब अदद नौकरी पर जा टिका है तो मैंने देखा वसंत ताम्तुबडे ने मंच पर आकर सवाल किया कि प्रोफेशनलिज्म का जिन्दगी से कुछ भी लेना देना नहीं होता और शिक्षा का मतलब जिन्दगी है। और मुझे लगता है कि हम जीवन से अमानवीय परिस्थितियों की दिशा में बढ़ रहे है, जिसे प्रोफेशनलिज्म कह कर हम साथी बेहद खुश हो रहे हैं। फिर उसने सीधे प्रिंसिपल को संबोधित करते हुये कहा कि आपने कालेज के हर फैक्ल्टी में एक डिजार्टेशन तैयार करने का प्रावधान कर रखा है, और खास बात यह है कि इस डिजार्टेशन को लेकर सिलेबस में साफ लिखा गया है कि विषय और शोध अगर आम जिन्दगी से जुड़ा हो और उसमें बदलते समाज के बिंब भी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने विषय लिया चेंजिंग लाइफस्टाइल आफ ट्राइबल्स, विद् स्पेशल रेफरेन्स आफ प्रोबलम आफ नक्सलाइट [ आदिवासियों के जीने के बदलते तरीके, नक्सल समस्या के मद्देनजर ]। लेकिन मुझे कहा गया कि आदिवासी और नक्सल को एक साथ ना जोड़ें। डीएम साहब यहां आये नहीं हैं, अगर होते तो उनसे पूछंता कि नक्सल शब्द में इतना आतंक क्यों भर दिया गया है। क्यों इस मुद्दे पर कोई चर्चा करने तक से प्रोफेसर घबराते हैं। ऐसे में आदिवासियो के सवाल भी हाशिये पर होते जा रहे हैं। कोई आदिवासियों के मुश्किल जीवन को लेकर चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने इतना नक्सलाइट के नाम पर आतंक क्यो पैदा कर दिया है कि हमारे प्रोफेसर भी इस विषय पर खामोश रहना चाहते हैं जबकि वह जानते है कि उनके इर्द-गिर्द की परिस्थितियां बदल रही हैं। मेरे ख्याल से डीएम से लेकर प्रोफेसर तक प्रोफेशनल हो चुके हैं। मै जानना चाहता हूं कि मुझे भी इन विषयों को छोडकर प्रोफेशनल होना है या फिर जिस समाज में हमें कालेज से निकलकर काम करना है, उस समाज को जानना भी एजुकेशन है।
वसंत के इस सवाल ने अचानक कुछ छात्रों के तेवर बदल दिये । मैकनिकल फैकल्टी के आलोक आर्य ने चन्द्रपुर के औघोगिक विकास और ह्यूमन इंडेक्स के घेरे में प्रोफेशनलिज्म और एजुकेशन का सवाल खड़ा किया। चन्द्पुर के दस टाप उघोगों के बारे में सिलसिलेवार तरीके उसने जानकारी दी। संयोग से सभी उघोगपति देश के भी टॉप टेन में थे । फिर उसने उन गावों के बारे में जानकारी रखी जहां उघोग लगे थे। ग्रामीण आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का जिक्र कर आलोक ने विकास को प्रोफेसनलिज्म से जोड़ते हुये आखिर में यह साबित किया कि अंधी दौड में विकास का मतलब मुनाफा है और समूचा तंत्र इसी विकास को प्रोफेशनलिज्म मान रहा है जबकि करीब चालीस हजार से ज्यादा मुफलिस-पिछडे ग्रामीण आदिवासियों का सवाल, जिनके पास दो जून की रोटी नहीं है वह शिक्षा के दायरे में भी नहीं हैं और उनके लिये कोई लकीर खिचने का मतलब है इंजीनियरिंग कालेज में तीन लाख रुपये फीस पर पानी फेरना। क्योंकि इससे कैंपस इंटरव्यू में नौकरी नहीं मिलेगी ।
उस दिन बहस में कुछ ज्यादा ही तीखे-तल्ख कमेंट प्रिंसिपल की तरफ से भी आये । जिन्होंने कालेज की बंदिशों को इशारों में समझाया । यह कालेज कांग्रेस के नेता का है। लेकिन छात्रों के सवालो ने इस दिशा में अंगुली उठा दी कि मुद्दों को ना प्रोफेशनल चादर से ढका जा सकता है और ना ही प्रशासन-पुलिस की मुश्किलों को आतंक का जामा पहना कर खामोश रहने से मुद्दे दब जाते हैं।
लेकिन इस छात्र महोत्सव के करीब सवा साल बाद यानी 1993 में एक दिन अचानक एक छात्र नागपुर में मेरे अखबार के दफ्तर में पहुंचा और मिलते ही कहा आपने मुझसे पहचाना नहीं, मैं चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज का छात्र हूं। लेकिन उसे देखते ही मैंने कहा, मुझे आपके सवाल याद हैं, जो आपने उस महोत्सव के दौरान उठाये थे । हा भईया , मैकनिकल का आलोक आर्य। बताइये नागपुर में क्या काम है। मुझे आपसे कोई काम नहीं है। मैं सिर्फ एंटी नक्सल कमीश्नर से मिलना चाहता हूं। मुझे भी याद आया कि करीब एक साल पहले ही नागपुर में कमीश्नर रैंक के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति नक्सल गतिविधियों को रोकने और इस मुद्दे के सामाजिक-आर्थिक तरीके से समझते हुये रिपोर्ट तैयार करने के लिये हुई है। मैंने पूछा काम क्या है। उसने कहा आज ही मिलवा दिजिये तो अच्छा होगा। नहीं तो कल कालेज में क्लास छूट जायेगा। अगले महीने फाइनल भी है । लेकिन मुझे भी जानकारी होनी चाहिये, मैं उन्हें क्या कहूंगा। मैं उन्हें चन्द्रपुर की परिस्थितियों से वाकिफ कराना चाहता हूं। हम कालेज के थर्ड ईयर के छात्रो ने चन्द्रपुर की तीन तहसीलों के सामाजिक-आर्थिक परिवेश का जो आंकलन अपने रिसर्च के लिये किया है, उसमें आदिवासियों की कल्याण योजनाओं की हकीकत मै बताना चाहता हूं। क्यों कल्याण योजनाओ को लेकर आपकी रिसर्च में क्या है। कुछ नहीं हमेशा की तरह कोई योजना लागू नहीं हुई है। करीब एक हजार करोड बीते छह साल में पुलिस-प्रशासन के पास चले गये। लेकिन नयी परिस्थितियां इसलिये ज्यादा खतरनाक हैं क्योंकि पचास से ज्यादा वह आदिवासी पुलिस फाइल में नक्सली करार दिये जा चुके हैं, जिनके गांव में हमने बकायदा दस दिनो तक काम किया। उनकी पूरी प्रोफाइल हमारे पास है। सवाल है जो हमारे डिजार्टेशन में ग्रामीण आदिवासी हैं, वह पुलिस फाइल में नक्सली हैं। मै कमीश्नर को बताना चाहता हूं कि यह परिस्थितियां किस खतरनाक समाज का निर्णाण कर रही हैं।
मुझे याद है सारी जानकारी एंटी नक्सल कमीश्नर को आलोक आर्य ने बतायी थी करीब तीन घंटे तक। आलोक ने अपना रिसर्च पेपर भी अधिकारियो को सौपा था। जिसके कुछ हिस्से और नक्सल बताकर बंद किये गये आदिवासियो की फेरहिस्त भी हमने अखबार में छापी। लेकिन ठीक 18 साल बाद जब उसी लडके की तस्वीर बतौर माओवादी उसी कालेज के दीवार पर चस्पां देखी तो इस बारे में और जानकारी के लिये स्थानीय अखबार देशोन्नती की फाइलों को देखा और आदिवासी और नक्सलियो की स्टोरी करने वाले रिपोर्टर सुरेश से बातचीत की। मिलिन्द के बारे जानकारी मिली कि फिलहाल वहीं एरिया कमांडर है और चन्द्रपुर से लेकर दांतेवाडा तक के दो दर्जन से ज्यादा दलम उसके साथ काम करते हैं। मिलिन्द के बारे में और जानकारी तो रिपोर्टर से नहीं मिली लेकिन चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर ने इसकी जानकारी जरुर दी कि मिलिन्द और कोई नहीं आलोक ही है। 1994-95 में कैपंस इंटरव्यू में ही उसे लार्सन एंड ट्रूब्रो में नौकरी मिल गयी थी। लेकिन मिलिन्द ने यह नौकरी एक साल में ही छोड़ दी। उसके बाद चन्द्रपुर में होने वाली माईनिंग को लेकर उसने उस दौर में मजदूरों के सवालों को उठाया। उसी दौर में नक्सली संगठन पीपुल्सवार के संपर्क में आया और मजदूरों को लेकर महाराष्ट्र कामगार किसान-मजदूर संगठन के बैनर तले काम करना भी शुरु किया। लेकिन 1997 से लेकर 2007 तक यानी करीब दस साल तक आलोक क्या करता रहा इसकी जानकारी कभी किसी को मिली नहीं लेकिन आलोक से मिलिन्द बनने को लेकर चन्द्रपुर इंजीनियरिंग कालेज के परिसर में किस्सागोई जरुर जारी रही। जिस दौर में नंदीग्राम में माओवादियों की गतिविधियां सामने आयीं, उसी दौर में कई बडी बारुदी सुरंग से पुलिस पर हमले भी हुये और उनके पीछे मिलिन्द का नाम ही आया लेकिन सितंबर 2009 में जब 22 पुलिसकर्मियों की मौत चन्द्रपुर-गढचिरोली की सीमा पर हुई तो पहली बार पुलिस ने पोस्टर निकाला और मिलिन्द को पकड़ने वाले को 50 हजार रुपये ईनाम देने का एलान किया। जानकारी यह भी मिली कि आलोक के बैच के दो और छात्र भी मिलिन्द के साथ हैं। मेरे दिमाग में वसंत ताम्तुमडे का चेहरा रेंग गया । हालांकि उसकी किसी ने पुष्टी नहीं की लेकिन 1990-94 के बैच को लेकर कालेज के प्रोफेसरो ने भी माना उस वक्त छात्रो ने जो सवाल खडे किये थे, उसके जवाब तो आजतक नहीं मिले लेकिन वह समस्या इस रुप में बड़ी हो सकती है, इसका अंदेशा छात्रो ने जरुर दिया था। यह अलग सवाल है कि किसी ने यह नहीं सोचा था कि कालेज के छात्र ही निकल कर इस धारा में बह जायेंगे।
मैकनिकल का छात्र बतौर माओवादी किस तरह का आदिवासियों के मुद्दो को लेकर प्रयोग या हिंसा को अंजाम दे रहा है, यह भी स्थानीय लोगों से बातचीत में सामने आया । खासकर आदिवासी युवक-युवतियों को बडी तादाद में इस पूरे इलाके में अपने साथ माओवादियो ने जोड़ा है। उसमें भी युवतियों को हाथ में अधिकतर दलम की कमान है। महाराष्ट्र पुलिस के मुताबिक महिलाओं की भूमिका महाराष्ट्र - छत्तीसगढ़ सीमा के दलमो में सबसे ज्यादा बढ़ी है । करीब अस्सी फीसदी दलम की कमान महिलाओं के हाथ में है। क्योंकि यहां धारणा यही है कि आदिवासी समुदायों में महिलाओ की जो स्थिति है उसमें उनके सामने संकट गांव में रहने के दौरान ज्यादा है क्योंकि नयी आदिवासी पीढी से लेकर क्षेत्र में तैनात पुलिस कास्टेबल से लेकर बडे अधिकारियो की हवस का शिकार आदिवासी लडकियां होती हैं। और माओवादियो ने उनके हाथ में बंदूक थमा दी है। ऐसे में करीब नौ सौ से लेकर दो हजार तक ऐसी लडकियां माओवादियों के साथ बंदूक थामे हुये हैं, जो अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने बुजुर्ग मां-बाप की सुरक्षा भी बंदूक तले देख रही हैं। इससे इन क्षेत्रों में अपराध भी कम हुए हैं । आदिवासी लडके भी माओवादियो ते साथ इसलिये जुड़ रहे हैं क्योकि उनके सामने जीने का कोई दूसरा चेहरा नहीं है। समूचे इलाके में रोजगार है नहीं। जो उघोग काम रहे हैं, चाहे वह पेपर मिल हो या सीमेंट फैक्टरी या कोयला खनन, सभी में मजदूरो को दूसरे क्षेत्रो से लाने की परंपरा शुरु हो चुकी है। क्योंकि अकुशल मजदूरों का काम ठेके पर नीलाम होता है। कमोवेश सारे ठेकेदार दूसरे प्रांतो के हैं तो मजदूर भी दूसरे प्रांतो से लाये जाते हैं। जिससे किसी तरह से मजदूरी को लेकर कोई कानूनी अड़चन ना आये या किसी तरह का कोई आंदोलन ना खड़ा हो जाये। हर नौ-दस महिनो के बाद मजदूरों को भी बदल दिया जाता है।
ऐसे वातावरण में आदिवासी युवकों को अपने साथ जोडने की पहल दो-तरफा हुई है । एक तो सीधे बंदूक उठाकर जंगल जाने को तैयार है और दूसरे गांव में रहकर ही स्वावलंबन की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में लगे हैं। खास कर खेती और बंबू के जरीये कुटीर उघोग का चलन इन क्षेत्रो में शुरु किया गया है। जिसका पैसा बैंको से नहीं तेंदू पत्ता को खरीदने वाले ठेकेदार देता है। क्योकि इन ठेकेदारो पर दलम की बंदूक सटी होती है। इसी तरह से आदिवासी जंगल पदार्थो से जो कुछ भी बाजार में बिकने लायक बनाते हैं, उसके लिये धन का मुहैया इसी स्तर पर उघोगों से लेकर ठेकेदारों तक से माओवादी ही करते हैं। चन्द्रपुर कालेज के प्रो रानाडे और एडवोकेट सालवे के मुताबिक करीब चलीस हजार अदिवासी ग्रामीणों की रोजी रोटी इसे से चलती है। चन्द्पुर के एडवोकेट सालवे के मुताबिक माओवादियों को लेकर पुलिस और अर्द्दसैनिक बलो की नयी पहल ने एक मुश्किल जरुर खडी कर दी है कि माओवादी अपने साथ किसी भी आदिवासी को साथ लेने से पहले जो स्थानीय मुद्दो से दो-चार करवाते थे और एक लंबी ट्रेनिग होती थी, उस पर रोक लग गयी है क्योंकि पुलिस ऐसे किसी भी संगठन को अब काम करने की ना तो इजाजत देती है और कोई किसी भी स्तर पर मानवाधिकार से लेकर मजदूरी या रोजगार का सवाल उठाता भी है तो पहले ही राउंड में वह माओवादी करार देकर जेल में बंद कर दिया जाता है। ऐसे में बिना कोई ट्रेनिंग ही बंदूक उठाने की आदिवासी पहल ने बड़ी तादाद में हिंसा को भी बढ़ावा दिया है और खासे आदिवासी मारे भी जा रहे हैं। और यह पूरा इलाके उसी माओवादी कामरेड मिलिन्द के इलाके में आता है जहां उसे पकड़वाने का इनाम पचास हजार रुपये है।