Friday, May 28, 2010
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तपती जमीन तपते सवाल |
Sunday, May 23, 2010
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'काइट्स' यानी पैसा नहीं प्यार चाहिए ! |
Tuesday, May 18, 2010
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....अब सवाल मनमोहन के आगे का |
पहली बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड तैयार कर रहे हैं। बीते छह साल में मनमोहन सिंह को कभी जरुरत पड़ी नहीं कि वह अपनी सरकार का रिपोर्ट-कार्ड दें। अगर बीते पांच साल को देखें या यूपीए-1 के दौरान मनमोहन सिंह के रिपोर्ट कार्ड को देखें तो वह हर वर्ष बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के अभिभाषण से ही झलकता था, जिसे लेकर अक्सर यही कहा जाता कि एक रबर स्टाम्प का कच्चा-चिट्टा एक दूसरा रबर स्टाम्प अगर दे रहा है तो बहस कौन करें ?
लेकिन पहली बार यूपीए-2 में यह परंपरा टूटेगी जब दूसरी बार सरकार बनाने के एक साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मीडिया के सामने सरकार का समूचा कच्चा-चिट्टा लेकर बैठेंगे। परंपरा का टूटना क्या महज संयोग होगा या फिर प्रधानमंत्री किसी सोची-समझी रणनीति के तहत रिपोर्ट-कार्ड तैयार कर रहे हैं। पहला मौका है जब प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में शामिल कैबिनेट मंत्रियों को लेकर सवाल खड़े हुये हैं। कोई दागदार है तो कोई जनता के प्रति जिम्मेदारी निभाने के बजाय किसी खास लॉबी को मदद कर रहा है। कोई मंत्री बनकर भी लक्ष्मण रेखा पार कर रहा है तो किसी के लिये प्रधानमंत्री से ज्यादा कॉरपोरेट मायने रख रहा है। और इन सब के बीच आर्थिक नीतियों से समाज में बढ़ती खाई को बताने के लिये और कोई नहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ही मिट्टी ढोने से लेकर दलित के घर रात बिताने तक का फार्मूला अपनाये हुये हैं। यह वही राहुल गांधी हैं, जिन्होंने कभी प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल पर अंगुली नहीं उठायी लेकिन कृषि मंत्री शरद पवार से लेकर संचार मंत्री ए राजा के कामकाज को लेकर अपनी राजनीतिक कोटरी में सवाल जरुर खड़े किये। तो क्या यूपीए-2 के साल पूरा होने पर प्रधानमंत्री की रिपोर्ट कार्ड मनमोहन सिंह को राजनीतिक तौर पर स्थापित करने का प्रयास होगी। या फिर उस राजनीतिक कयास का जवाब होगी जो मनमोहन सिंह की उल्टी गिनती और राहुल की ताजपोशी में जा सिमटी है।
महिने के आखिरी हप्ते में होने वाली मनमोहन की इस प्रेस कान्फ्रेंसमें जाहिर है, पहला सवाल संचार मंत्री राजा को लेकर ही उठेगा की झक सफेद मनमोहन सिंह को दाग अच्छे क्यों लग रहे हैं। मनमोहन सिंह इस सवाल के जबाब से ही खुद के पाक-साफ बता सकते हैं। इसलिये वह भी जरुर चाहेंगे कि यह सवाल उठे। ए राजा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने का मतलब यह कतई नहीं है कि मनमोहन सिंह भ्रष्ट हैं। राजा एक राजनीति मजबूरी हैं और मनमोहन राजनीति से नहीं आर्थिक नीति से देश चला रहे हैं। अगर राजा भ्रष्टाचार में लिप्त है तो भी यह बात उन्हीं के प्रयास से ही सामने आयी है। क्योंकि राजा तक पहुंचने के राडिया के रास्ते की जांच बिना पीएमओ के इशारे पर हो ही नहीं सकती। और तत्कालीन गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने यूं ही अंधेरे में ही राडिया के फोन टैप करने का निर्देश नहीं दे दिया था। तो राजा का दाग अगर गहरा है तो मनमोहन के लिये अच्छा है। क्योकि जो दाग दिखायी दें, उसे कभी भी धोया जा सकता है।
राजा के सवाल पर संसद में हंगामे के बाद पीएमओ ने ही राजा की फाइल कानून सचिव के पास भेज कर जानकारी चाही की कानूनन राजा के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है या नहीं। और जो जवाब लॉ- सचिव का आया उसने मनमोहन सिंह को भी राजनीति का पाठ ही पढ़ाया। राजा के दस्तावेज पर लिखा गया -"नो" । लेकिन मौखिक तौर पर जानकारी दी गयी, "ऐज यू विश "। यानी पीएमओ कार्रवाई चाहे तो तुरंत हो सकती है। लेकिन राजनीति का तकाजा है कि कैबिनेट मंत्री के खिलाफ कानूनी कार्रवाई ठीक नहीं। और नौ अप्रैल 2010 को पीएमओ में जिस आखिरी फैसला पर मुहर लगायी गयी अगर उसे सही मानें तो सोनिया गांधी के किचन कैबिनेट के महारथी और राहुल गांधी के पालिटीकल मेंटर ने मनमोहन को यही रास्ता सुझाया कि राजा को भ्रष्टाचार के तहत हटाना तो आसान सा काम है लेकिन मंत्रिमंडल को सहेज कर रखते हुये आगे का राजनीतिक रास्ता साफ करना ज्यादा जरुरी काम है। यानी राजा की जरुरत राजनीतिक तौर पर कांग्रेस को भी है और मंत्रिमंडल पर लगे दाग की वजह राजनीतिक दाग को बताने की जरुरत मनमोहन सिंह की है।
हो सकता है प्रधानमंत्री के सामने दूसरा बडा सवाल शरद पवार का आये। महंगाई से लेकर आईपीएल धंधे के घेरे में आये शरद पवार को मंत्रिमंडल में कोई प्रधानमंत्री कैसे शामिल रख सकता है। पवार कद्दावर राजनीतिज्ञ जरुर हैं लेकिन वह सरकार के नहीं राजनीति के प्रतीक है और इस सवाल का जवाब देना भी मनमोहन सिंह के झक सफेद छवि पर आंच आने नहीं देगा। अगर राजा के जरीये डीएमके और तमिलनाडु की साझा सरकार चल रही है तो पवार के जरीये महाराष्ट्र की साझा सरकार भी चल रही है और राजनीति से चलने वाली सरकारों से मनमोहन सिंह का कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसीलिये सवाल आईपीएल का हो या महंगाई के जरीये आम आदमी की बढ़ती तकलीफों का। पवार अगर शुगर लॉबी से लेकर हवाला लाबी को शह देते हुये राजनीति कर रहे है तो प्रधानमंत्री क्या कर सकते है। फैसला तो उस राजनीति को करना है जो मुंबई के मेट्रो में सवार होकर ठाकरे परिवार से लेकर पवार की राजनीति को आईना दिखाने में जुटी है। यानी फैसला मंत्रिमंडलिय दायरे में नहीं कांग्रेस कार्यसमिति के दायरे में होना है। यानी फैसला पीएम को नही सीडब्लूसी को करना है। लेकिन रिपोर्ट कार्ड रखे जाते वक्त एक ही मयान की दो तलवारों पर भी सवाल हो सकते है। एक तरफ आर्थिक नीति के जरीये दुनिया में भारत के धाक जमाने की बात अगर मनमोहन सिंह कर रहे है तो राहुल गांधी गली गली धूमकर उस तबके के घावों पर मलहम लगाने में क्यो जुटे हैं, जिसे मनमोहन सिंह देश का नागरिक या कहे उपभोक्ता ही नही मानते। इस सवाल का जबाव भी मनमोहन सिंह के झक सफेद छवि को तोड़ता नहीं है। क्योंकि मनमोहन की अर्थनीति कभी राजनीति का जवाब नहीं देती और राहुल राजनीति के प्रतीक है, जिसके जरीये कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ सकता है। लेकिन सरकार महज राजनीति से नही अर्थनीति से चलती है। इसलिये राहुल कांग्रेस के लिये और मनमोहन यूपीए सरकार चलाने के लिये जरुरी है। तब सवाल यह भी खड़ा होगा कि अगर दाग भी अच्छे है और राजनीति से छत्तीस का संबंघ भी सही है तो फिर इसकी उम्र क्या होगी। यानी राहुल 2014 तक भटकते रहेंगे या आम आदमी के युवराज होने का सपना कांग्रेस बेचती रहेगी और पीएम एक अर्थशास्त्री ही रहेगा। अगर यह ज्यादा वक्त तक नहीं चलेगा तो संकेत के इन जवाबों में पहली बार दोतरफा खेल भी शुरु हुआ है। एक राजनीति का है, जिसमें दिग्विजय पाठ पढ़ा रहे हैं, तो दूसरा कॉरपोरेट जगत का है, जो नेताओं के बीच अपनी पोजिशन तय कर रहा है। चिदंबरम की नक्सल थ्योरी की यूं ही दिग्विजिय धज्जियां नहीं उड़ा रहे और देश के भीतर और बाहर पूंजी और बाजार के जरीये मुनाफा बनाने वाले घरानों का नया खेल भी य़ूं नही शुरु हुआ है। अभी तक कारपोरेट घराने अगर देश की सीमा में सिमटे थे और उनकी भूमिका बिचौलिये के जरीये होती थी, वहीं अब कॉरपोरेट ने देश की सीमा बंधन को भी तोड़ा है और बिचौलियो को छोड़ सीधे सत्ता बदलने के संकेत के बीच खुद को फिट करने में लग गये है।
मनमोहन सिंह का संकट यहीं से शुरु होता है। राजा के पीछे चाहे टाटा नजर आये और सुनिल मित्तल चाहे दयानिधी मारन के पीछे नजर आये और नीरा राडिया का रास्ता चाहे ए राजा तक जाता हुआ नजर आये। या फिर कोई भी कॉरपोरेट कहीं किसी भी मंत्रालय या मंत्री के पीछे नजर आये, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थनीति ने बीते छह सालों में जो व्यवस्था खड़ी की उसमें भारत सबसे बड़े बाजार के तौर पर ही पहचान बनाने में जुटा है। और इस बाजार पर कब्जा करने के लिये कॉरपोरेट घरानों के लिये कुछ इस तरह रेड कारपेट बिछायी गयी कि संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी नपुंसक बनाने में हर उस कारपोरेट घराने ने पहल की जिसने मनमोहन की अर्थनीति को ही गीता माना।
मनमोहन सिंह की विकास की थ्योरी में कारपोरेट घरानो की भूमिका नब्बे के दशके के एनजीओ सरीकी हो गयी। और एक वक्त जिस तरह एनजीओ ने देश के भीतर के उन आंदोलनों को खत्म किया जो मावाधिकार और हक का सवाल खड़ा करते थे तो कारपोरेट घरानों ने उस संसदीय व्यवस्था को खत्म किया, जिसमें जनता की नुमाइन्दगी करने वालो का समूह ही प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में देखा जाता था । नयी परिस्थितियों में किसी मंत्री या मंत्री के विभाग का मतलब आम जनता की जरुरत या जनता से जुड़े सरोकार नही बचे बल्कि मंत्रालय के जरीये कितनी की उगाही कॉरपोरेट कर सकते हैं, अचानक यह महत्वपूर्ण हो गया। सरल शब्दों में कहा जाये तो हर मंत्रालय की एक कीमत होती है और आधुनिक विकास की थ्योरी यह कहती है कि जो मंत्रालय सबसे ज्यादा मुनाफा दे पाये उसका मंत्री सबसे लायक होता है। इसीलिये अपने विभाग की बोली कोई मंत्री खुद इसलिये नहीं लगा सकता क्योंकि वह उस जनता के बीच से राजनीति कर के निकला होता है, जहां भी संघर्ष दो जून की रोटी का है। लेकिन कॉरपोरेट इस खेल में माहिर होते है, और मंत्रिमंडल में कौन सा मंत्री उनके अनुकूल काम कर सकता है। इसकी राजनीति अगर पर्दे के पीछे तय होती है तो मंत्रिमंडल की बोली खुले तौर पर लगती है, जैसे संचार मंत्रालय की लगी। यहां राजनीतिक संकेत मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री होने से भी समझा जा सकता है। चूंकि मनमोहन सिंह राजनेता नहीं अर्थशास्त्री है, तो वह बाजार के महत्व को समझते है। लेकिन राहुल गांधी उस परिवार के है, जिसका जीवन ही राजनीति के मैदान से शुरु होता है। तो क्या अर्थशास्त्र की राजनीति की जगह राजनीति के अर्थशास्त्र की जरुरत कांग्रेस को है और इसीलिये कारपोरेट जगत में हलचल खुद को नये तरीके से फिट करने की है। या फिर कारपोरेट और अंतराष्ट्रीय पूंजी मिलकर सत्ता बदलने या हथियाने का खेल देश में शुरु कर रही है।
यह तो सही है कि ए राजा के खेल ने कुछ नये नियम-कायदे भी बना दिये, जिसके बाद मनमोहन सिंह को लेकर यह कयास लगाये जा रहे है कि उनकी अर्थनीति का रास्ता यही तक आता था। और मनमोहन की बनायी लीक पर अब किसी ऐसे नेता को बैठाना जरुरी है जो इसके नुकसान को ना समझे। क्योंकि मनमोहन सिंह अपनी बाजार अर्थव्यवस्था को इतना खुला नहीं छोड़ सकते ही आईपीएल सरीखे धंधे ही विकास की चकाचौंध बन जाये। खासकर अरब वर्ल्ड और उसमें भी संयुक्त अरब अबीरात का पैसा हर हाल में भारत आने के लिये जब बेताब हो तो उस पर अंकुश की अर्थनीति राजनीति में बदल जाती है। नयी परिस्थितिया कुछ इसी तर्ज पर कारपोरेट राजनीति में भी चल निकली है। अगले साल अंबानी बंधुओं के बंटवारे के सात साल पूरे हो रहे है यानी उसके बाद समझौते के मुताबिक मुकेश और अनिल हर वह धंधा कर सकते हैं, जो दोनों में से कोई भी एक कर रहा है। तो रुका हुआ पैसा कहा किस रुप में लगेगा और नये धंधे के लिये नये रास्तों से भी पूंजी की जरुरत अंबानी बंधुओं को पड़ेगी, तो उसके लिये मंत्रालय भी अनुकूल होने चाहिये और सरकार भी। इसमें देश के भीतर निशाने पर कोई आयेगा तो वह टाटा ही है। यानी कारपोरेट युद्द में अग्रणी टाटा के पर और कोई नहीं भविष्य में अंबानी समूह की कतरेगा। इसलिये समझना यह भी होगा कि नीरा राडिया सरकार और कारपोरेट घरानो की एक नयी प्रतीक है, जो मंत्रालय को ही धंधे में बदलने की कुव्वत रखती है और लेकिन नयी परिस्थितयों में सवाल सरकार को ही धंधे में बदलने का है। जिसके लिये मनमोहन सिंह फिट नहीं बैठते। फिट वही बैठेगा जो चुनाव जीतकर देश को बाजार में बदलने का माद्दा रखता हो क्योंकि सरकार तभी टिकेगी या कहे संसदीय राजनीति को लोकतंत्र का चोगा तभी पहनाया जा सकेगा। मनमोहन इस सच को समझ रहे है इसीलिये सरकार की यूपीए-2 के एक साल पूरे होने पर रिपोर्ट-कार्ड बताकर एक आखिरी दांव भी खेलना चाह रहे हैं, जहां आकाओं को बता सकें कि खिलाड़ी वह भी हैं।
Thursday, May 13, 2010
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शहीद और मौत का फर्क |
जैसे 76 सीआरपीएफ जवान माओवादियों के बारुदी सुरंग की चपेट में आकर सवा महीने पहले शहीद हुये थे, ठीक वैसे ही सीआरपीएफ के 8 जवान सवा महीने बाद 8 मई को मारे गये। सवा महीने पहले देश के गृहमंत्री पी चिंदबरम खुद छत्तीसगढ़ के दांत्तेवाड़ा गये थे। लेकिन सवा महीने बाद छत्तीसगढ़ के बीजापुर में देश के गृहमंत्री नही गये। सवा महीने पहले हर शहीद जवान का शव उसके घर पहुंचाने के लिये समूचा देश भिड़ा हुआ था। राज्यों के मुख्यमंत्री से लेकर जिले के अधिकारी तक राजकीय सम्मान के साथ शहीदों के शवों पर गमगीन नेत्रों से सेल्यूट मारते दिख रहे थे। सवा महीने बाद कोई मु्ख्यमंत्री तो दूर, मारे गये जवान के गृह जिले के अधिकारियो को भी इतनी फुर्सत नहीं थी कि वो मारे गये जवान के घर पहुंचकर परिजनों के आंसुओं और गम में शरीक हो पाते। सवा महीने पहले संसद का सिर झुका हुआ था। माओवादी हमले पर जवाब देते गृहमंत्री चिदंबरम की आवाज डबडबा रही थी। लेकिन सवा महीने बाद संसद का बजट सत्र खत्म हो गया था तो हर कोई सर उठा कर चल रहा था। गृहमंत्री की आवाज भी नहीं डगमगायी। और इन तमाम दृश्यों को पकड़ने के लिये सवा महीने पहले हर न्यूज चैनल का कैमरा भी दांत्तेवाडा से लेकर शहीद जवानों के घरो की चौखट पर लगातार घूम रहा था। गृहमंत्री का इस्तीफा देने के बाद संसद के भीतर आंखों में आंसू और बोलते बोलते गले का भर्राना भी न्यूज चैनल ने पकड़ा और शहीद जवानों के परिजनो के दर्द को भी न्यूज चैनल के स्क्रीन पर उभारा गया। लेकिन सवा महीने बाद किसी न्यूज चैनल के स्क्रीन पर ऐसा कुछ भी दिखायी नहीं दिया।
सवा महीने पहले हर न्यूज चैनल ने बताया कि शहीद हुये 76 जवान देश के हर प्रांत के हैं। बकायदा नाम से लेकर घर के पते भी टीवी स्क्रीन पर 48 घंटे तक नीचे की पट्टी में चलते रहे । लेकिन सवा महीने बाद किसी न्यूज चैनल वाले को पता नहीं है कि मारे गये जवान किस प्रांत के हैं और किसका नाम क्या है। जबकि बंगाल के एस के घोष, बिहार के हजारीलाल वर्मा, यूपी के संतोष कुमार, महाराष्ट्र के इलाप सिंह पटेल, राजस्थान के राकेश मीणा से लेकर दक्षिण भारत के सुब्रमण्यम तक इस हमले में मारे गये। लेकिन किसी न्यूज चैनल में यह सवाल तो दूर कि सीआरपीएफ की 168 बटालियन कैसे देश की विभिन्नता में एकता का प्रतीक है, यह सवाल भी नहीं रेंगा कि मारे गये जवानों के आंगन का दर्द कितना गहरा है।
सवा महीने पहले ही सीआरपीएफ की उस बख्तरबंद गाड़ी पर सवालिया निशान लगा था जो बुलेट प्रुफ और बारुदी सुरंग का सामना करने के लिये ही बनायी गयी थी। लेकिन सवा महीने बाद बुलेट प्रुफ और बारुदी सुरंग का सामना करने वाली जीप को लेकर कोई सवाल नहीं उठा कि उसके परख्च्चे कैसे उड़ गये। सवा महिने पहले शहीद हुये सीआरपीएफ जवानों की बदहाली का सवाल भी उठा था, कि वह कैसे किन परिस्थितियों में बिना सुविधाओं के जंगल नापते फिरते थे। लेकिन सवा महिने बाद मारे गये 8 जवानो की त्रासदी पर कोई सवाल नहीं उठा कि वह बिना पानी और बिना बुलेट प्रुफ जैकेट और बिना स्थानीय पुलिस के सहयोग के बूटो में छेद के साथ कैसे जंगलों को नापते फिरते हैं ।
सवा महिने पहले शहीद जवानों की ट्रेनिंग पर भी सवाल उठे थे, जिसका जवाब गृहमंत्रालय ने 18 से लेकर 45 दिनों की ट्रेनिंग कराने के दस्तावेजों के साथ दिये थे । लेकिन सवा महीने बाद सीआरपीएफ की बटालियन 168 के मारे गये जवानो को जंगल की कोई ट्रेनिंग नही है, इस पर किसी ने कोई सवाल नहीं किया। संसद में जवाब देते गृहमंत्री से जब लालकृष्ष आडवाणी ने शहीद जवानों को मिलने वाली राहत का वक्त तय करने की मांग की थी तो गृहमंत्री ने तीस अप्रैल की तारीख नियत की थी और 30 अप्रैल को बकायदा गृह सचिव पिल्लई ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जानकारी दी कि सभी शहीद जवानों के परिजनो को राहत मिल गयी है। लेकिन आठ जवानो के परिजनों को मिलने वाली राहत पर सरकार भी मौन है और जो पारंपरिक राहत मिलती है उसकी भी कोई तारीख तय नहीं है क्योंकि कोई पूछने वाला नहीं है। और यह तमाम सवाल भी सवा महीने पहले कमोवेश हर राजनीतिक दल के सांसद उठाते रहे। लेकिन सवा महीने बाद किसी पार्टी का कोई सांसद भी नहीं है जो इन सवालों को उठाये और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर यह सवाल रेंगने लगे। सवा महिने पहले शहीद हुये 76 जवानो को लेकर करीब 48 घंटे तक माओवाद और चिदंबरम की थ्योरी को लेकर न्यूज चैनलों में बहस इस तरह गरमायी कि काग्रेस के नेता दिग्विजय के इकॉनामिक टाइम्स में छपे लेख पर भी तमाम राष्ट्रीय न्यूज चैनल भिड़ गये कि माओवाद को रोकने का कौन सा तरीका सही होगा। लेकिन सवा महिने बाद किसी चैनल ने ऐसे कोई सवाल नहीं उठाये कि मारे गये 8 जवानों की संख्या में और इजाफा न हो इसके लिये माओवादियो को लेकर सरकार का नजरिया ग्रीन हंट का होना चाहिये या फिर विकास का।
असल में मुश्किल यही है कि जो हमला बड़ा हो, जहां मारे गये जवानों की संख्या एक रिकार्ड बना दे और जिन परिस्थितियों से सरकार को लगे कि वह कोई निर्णय ले सकती है यानी निर्णय लेने की सफलता का एहसास सरकार या मंत्री को हो, तब तो वह हादसा राष्ट्रीय हो जाता है। लेकिन छिटपुट हमले और आठ-दस जवानों की मौत कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है इसीलिये सवाल लोकतंत्र के हर खम्भे पर उठ रहा है। क्योंकि शक नियत पर हो चला है। माओवाद अगर संकट है और जवानों के मरने पर अगर सरकार को दुख होता है तो फिर हर माओवादी हमले के बाद ग्राउंड जीरो पर उसी तरह की पहल क्यों नहीं दिखायी देती जो सवा महिने पहले 76 जवानों के मरने पर दिखायी दी थी। फिर जवानो की संख्या 76 हो या 8 अंतर या ट्रीटमेंट अलग अलग क्यों होना चाहिये। जबकि बीते सवा साल में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवान और दो सौ से ज्यादा पुलिसकर्मी माओवादी हिंसा में मारे गये। हर बार मरने वालो की संख्या सात-आठ ही रही है। लेकिन गृहमंत्री या मुख्यमंत्री तो दूर स्थानीय विधायक तक की राजनीति में यह फिट नहीं बैठता है कि वह दो-चार जवानों के मरने पर दो आंसू बहाकर शवों को सुविधा के साथ उनके परिजनों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी करा दें। सवा महिने पहले जो 76 जवान शहीद हुये, उनके शवों को तो 24 घंटे के भीतर दांत्तेवाडा के जंगलों से निकाल कर घरों तक पहुंचाया गया लेकिन सवा महिने बाद ग्राउंड जीरो से ही चंद किलोमीटर दूर बीजापुर लाने में ही शवों को 24 घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया। और शवों को रखने के लिये लकड़ी के आठ ताबूत भी नहीं मिल पाये।
यह हालात एक नये संकट की ओर इशारा करते हैं। जिसमें जवान का मतलब नौकरी बजाना है। और नौकरी का मतलब माओवाद या ऐसी ही किसी भी उस समस्या से जुझते हुये जान दे देना है, जिसके आसरे सत्ता को राजनीति की छांव मिल जाये। और लोकतंत्र के हर खम्भा इस छांव की ओट में आकर सत्ता से हमझोली करें। इसीलिये लाल गलियारे में ग्रीन हंट करते जवान अब यही मनौती मांगते हैं कि मरे तो एक साथ रिकॉर्ड संख्या में। क्योंकि शहीद तभी कहलायेंगे और खबर तभी बनेंगे अन्यथा सिर्फ इतना भर कहा जायेगा कि 8 जवान मारे गये।
Friday, May 7, 2010
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कौन मिटाएगा 26/11 का तिलक? |
Monday, May 3, 2010
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कॉरपोरेट के आगे प्रधानमंत्री भी बेबस |
ठीक एक साल पहले प्रधानमंत्री अपने नये मंत्रिमंडल में जिन दो सांसदों को शामिल नहीं करना चाहते थे, संयोग से दोनो ही डीएमके के सांसद थे और दोनो पर ही भ्रष्टाचार के आरोप थे। असल में 2009 के आमचुनाव में जिस तरह कांग्रेस का आंकडा 200 पार कर गया और यूपीए गठबंधन को बहुमत मिला उसके पीछे मनमोहन सिंह की साफ छवि को एक बडा कारण बताया गया। मनमोहन सिंह के जेहन में भी यह सवाल था कि 2004 में चाहे वह कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी के आशीर्वाद से प्रधानमंत्री बन गये लेकिन 2009 में चुनावी जीत के पीछे उनकी मेहनत रंग लायी है और प्रधानमंत्री बने रहने के उनके दावे को कोई डिगा नहीं सकता। खुद सोनिया गांधी भी नहीं। इसीलिये 2004 के मंत्रिमंडल को बनाते वक्त जो मनमोहन सिंह खामोश थे, वही मनमोहन सिंह 2009 में अपने मंत्रिमंडल को लेकर कितने संवेदनशील हो गये थे, इसका अंदाज उनकी इस मुखरता से समझा जा सकता है कि उन्होंने साफ कहा कि मंत्रिमंडल में कोई दाग नहीं लगेगा। और डीएमके के टी.आर. बालू और ए राजा को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किये जाने के संकेत भी दे दिये।
लेकिन 22 मई 2009 को जिन 19 कैबिनेट मंत्रियों ने शपथ ली, उसमें टी आर बालू का तो नहीं लेकिन ए राजा का नाम था। उस वक्त कहा यही गया कि मनमोहन सिंह की यूपीए में सहयोगी दल डीएमके पर नहीं चली और डीएमके के सर्वसर्वा करुणानिधि ने बालू के नाम से तो पल्ला झाड़ लिया लेकिन अपनी तीसरी पत्नी राजाथी के अड़ जाने पर ए राजा को कैबिनेट मंत्री बनाने पर सहमति दे दी। जिसे मानना प्रधानमंत्री की मजबूरी थी। लेकिन प्रधानमंत्री की मजबूरी के संकेत यही नहीं रुके। जब पोर्टफोलियो यानी विभागों के बंटवारे की बात आयी तो डीएमके के हिस्से में कैबिनेट के जो तीन विभाग गये थे, उसमें टेक्सटाइल, संचार व सूचना तकनीक और कैमिकल-फर्टिलाइजर थे।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस हकीकत को समझ रहे थे कि सबसे संवेदनशील कोई मंत्रालय है तो वह संचार व सूचना तकनीक का है, जो न सिर्फ देश को आधुनिकतम सूचना क्रांति से जोड़ेगा बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास में तालमेल बनाये रखने के लिये जो पूंजी सरकार को चाहिये होगी, वह भी संचार मंत्रालय से ही आयेगी। क्योकि स्पेक्ट्रम के जरीये ही पूंजी बनायी जा सकती है। इसलिये प्रधानमंत्री यह भी नहीं चाहते थे कि ए राजा को यह मंत्रालय दिया जाये
, क्योकि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राजा के जरीये संचार मंत्रालय को चलाने का मतलब यह भी था कि निजी मुनाफे के लिये एक लॉबी के अनुकुल ए राजा कार्रवाई करें। प्रधानमंत्री की यहां भी नहीं चली और ए राजा देश के संचार व सूचना तकनीक मंत्री बने। लेकिन प्रधानमंत्री की अगर यहां नहीं चली तो इसके पीछे डीएमके प्रमुख करुणानिधि या उनकी तीसरी पत्नी राजाथी का भी दबाव नहीं था। फिर कौन थे राजा के पीछे जो हर हाल में संचार मंत्रालय को अपने हक में देखना चाहते थे और जिनके सामने प्रधानमंत्री भी कमजोर पड़ गये?
देश के बड़े चुनिन्दा कॉरपोरेट जगत के महारथी, जिनकी जरुरत संचार मंत्रालय के जरीये अपने काम को बेरोक-टोक विस्तार देते हुये मुनाफा कमाना था, असल में राजा के पीछे वही लॉबी थी। लेकिन संचार मंत्रालय हथियाने से लेकर उसे अपनी जरुरतों के अनुकूल चलाने का खेल जिन माध्यमों के जरीये रचा गया, उसकी सीबीआई जांच के दस्तावेज बताते हैं कि सरकार के गलियारे में सबकुछ मैनेज करने के लिये कॉरपोरेट सेक्टर को वित्तीय सलाह देने वाली चार कंपनियो की सर्वेसर्वा नीरा राडिया को हथियार बनाया गया। और नीरा राडिया का मतलब है सरकार की नीतियों तक में परिवर्तन। सरकार को करोड़ों का चूना लगाकर कॉरपोरेट के हक में अंधा मुनाफा बनाने की परिस्थितियां बना देना। और इसके लिये एक ही लाइन मूल मंत्र- किसी भी कीमत पर।
नीरा राडिया टेलीकॉम,पावर,एविएशन और इन्फ्रास्ट्रचर से जुड़े कॉरपोरेट सेक्टरों को सरकार से लाभ बनाने और कमाने के उपाय कराती हैं। इसके लिये नीरा राडिया ने चार कंपनियों को बनाया है। जिसमें वैश्नवी कॉरपोरेट कंसलटेंट प्राइवेट लिमिटेड सबसे पुरानी है। जबकि नीरा राडिया की तीन अन्य कंपनियां नोएसिस कंसलटिंग, विटकॉम और न्यूकाम कंसलटिंग भी अपने कॉरपोरेट क्लाइंट को सरकारी मंत्रालयों से लाभ पहुंचाने में लगी रहती हैं। सीबीआई ने नीरा राडिया के खिलाफ पिछले साल 21 अक्टूबर को प्रिवेंशन ऑफ करपशन एक्ट 1988 के तहत मामला दर्ज किया है।
नीरा राडिया जिन चार कंपनियों की मालिक हैं, उन सभी कंपनियों के टेलीफोन टेप किये गये। आयकर निदेशालय के मुताबिक टेलीफोन टैप से जो बाते सामने आयी,उसमें अपने कॉरपोरेट क्लाइंट की व्यवसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिये सरकार के कई विभागो के निर्णयो को बदला गया और कई मामलो में तो नीतिगत फैसलों को भी बदलवाकर अपने क्लाइंट को लाभ पहुंचाया गया। और खासकर संचार मंत्री ए राजा ने कई फैसलों को इसलिये बदल दिया क्योंकि उससे उन कॉरपोरेट घरानों को लाभ नहीं हो रहा था, जिसे नीरा राडिया लाभ पहुंचवाना चाहती थीं। फोन टैप के रिकार्ड बताते हैं कि
- -नीरा राडिया की सीधी पहुंच संचार मंत्री ए राजा तक है। और टेलीफोन भी सीधे राजा को ही किया जाता रहा । बीच में कभी कोई राजा का निजी सचिव भी नहीं आया।
- -राजा के ताल्लुकात नीरा राडिया के साथ जितने करीबी हैं, उसकी वजह नीरा राडिया के पीछे कुछ खास कॉरपोरेट घरानो का होना है। जिनकी कीमत पर मंत्रालय में कोई पत्ता भी नहीं खड़कता ।
- -इसलिये संचार मंत्रालय के जरीये नीरा राडिया ने चंद महिनों में करोड़ों के वारे न्यारे किए गए।
- -टेलिकॉम लाइसेंस से लेकर सरकार को आर्थिक चूना लगाने का काम किया गया।
- -नये टेलिकॉम आपरेटरों का मार्गदर्शन कर यह समझाया गया कि लाइसेंस लेकर किस तरह विदेशी इन्वेस्टरों से होने वाले आपार मुनाफे को सरकार से छुपाया जाये।
नीरा राडिया ने अपने काम को अंजाम देने के लिये मीडिया के उन प्रभावी पत्रकारों को भी मैनेज किया किया, जिनकी हैसियत राजनीतिक हलियारे में खासी है। यानी जिस नीरा राडिया को सीबीआई से लेकर आयकर महानिदेशालय बिचौलिया, दलाल, फ्रॉड सबकुछ कह रहा है और जांच की सुई आपराधिक साजिश रचने से लेकर सरकार के नीतिगत फैसलों को बदलवाने तक की भूमिका को लेकर कर रहा है, उसका सीधा टेलीफोन देश के संचार मंत्री के पास जाता है और संचार मंत्री एक-दो नही कई बार बातचीत भी करते हैं।
असल में ए राजा को संचार मंत्री बनवाने वाली ताकतों का मुखौटा ही जब नीरा राडिया रहीं तो मंत्री महोदय की खासमखास नीरा राडिया क्यों नहीं होंगी। लेकिन नीरा राडिया के पीछे हैं कौन? वो इतनी ताकतवर हैं कैसे? यह नीरा राडिया के कॉरपोरेट क्लाइंट की फेरहिस्त से भी समझा जा सकता है और टेलीफोन टेप के दौरान बातचीत के जो अंश सीबीआई के इंटरनल विभागीय टॉप सीक्रेट दस्तावेज में दर्ज हैं, उससे भी जाना जा सकता है कि आखिर प्रधानमंत्री भी अपने मंत्रिमडल के विभागों को जिसे चाहते होंगे, उसे क्यो नहीं दे पाये या फिर राजा कैसे संचार मंत्री बन गये। जिस समय यूपीए-2 यानी 2009 में मनमोहन सिंह अपने मंत्रिंडल को लेकर जद्दोजहद कर रहे थे और राजा के मंत्रिमंडल में शामिल करने के खिलाफ थे, अगर उस दौर के नीरा राडिया के टेलीफोन से हुई बातचीत पर गौर किया जाये, जिसका जिक्र आयकर महानिदेशालय के टॉप सीक्रेट दस्तावेजों में है तो कॉरपोरेट सेक्टर को सलाह देने वाली नीरा राडिया और उसकी कंपनी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। कैबिनेट के शपथ ग्रहण से 11 दिन पहले यानी 11 मई 2009 से जो बातचीत नीरा राडिया टेलीफोन पर कर रही थी अगर उसे दस्तावेजों के जरीये सिलसिलेवार तरीके से देखे तो साफ झलकता है कि कॉरपोरेट लाबी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। और नीरा राडिया हर उस हथियार का इस्तेमाल इसके लिये कर रही थीं, जिसमें मीडिया के कई नामचीन चेहरे भी शामिल हुये, जो लगातार राजनीतिक गलियारों में इस बात की पैरवी कर रहे थे कि राजा को ही संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय मिले। मंत्रियों के शपथ से पहले नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच बातचीत का लंबा सिलसिला चला। दस्तावेजों के मुताबिक टाटा किसी भी कीमत पर दयानीधि मारन को संचार मंत्री बनने देने के पक्ष में नही थे। टाटा की रुचि टेलिकॉम में एयरसेल की वजह से भी थी, जिसकी एक्वेटी पर मैक्सीस कम्युनिकेशन और अपोलो के जरीये टाटा का ही कन्ट्रोल था। और टाटा ने यहां तक संकेत दिये थे कि अगर मारन संचार मंत्री बनेंगे तो वह टेलिकॉम के क्षेत्र से तौबा कर लेंगे। टाटा इसके लिये वोल्टास के जरीये नीरा राडिया और रतनाम [करुणानिधी की पत्नी के सीए] से भी संपर्क में थे।
चूंकि नीरा राडिया अपनी सबसे पुरानी कंपनी वैश्नवी के जरीये टाटा ग्रुप से जुड़ी। टाटा के लिये मीडिया मैनेजमेंट से लेकर इन्वॉयरमेंट मैनेजमेंट तक का काम नीरा राडिया की वैश्नवी कंपनी ही देखती हैं। तो टाटा के हित की प्राथमिकता उसकी पहली जरुरत बनी। लेकिन राजा को संचार मंत्री बनवाने के बाद कॉरपोरेट जगत के एक लॉबी की किस तरह संचार मंत्रालय में चली इसका अंदेशा आयकर निदेशालय के टाप सीक्रेट दस्तावेजों से सामने आता है, जिसमें जांच विभाग की रिपोर्ट साफ कहती है कि स्वान टेलिकॉम
,एयरसेल,यूनिटेक वायरलैस और डाटाकॉम को लाइसेंस से लेकर स्पेक्ट्रम तक के जो भी लाभ मिले उसके पीछे वही लॉबी रही, जिसने राजा को संचार मंत्री बनाया। चूंकि नीरा राडिया की तमाम कंपनियों में रिटायर्ड नौकरशाह भरे पड़े हैं तो मंत्री को मैनेज करने के बाद नौकरशाहों को मैनेज करना राडिया के लिये खासा आसान हो जाता है। और कॉरपोरेट कंपनी भी सीधे नीरा राडिया की कंपनी के जरीये अपने धंधे को विस्तार देती है तो भ्रष्टाचार के आरोप के घेरे में कोई कॉरपोरेट आता भी नहीं।
दस्तावेजों के मुताबिक झारखंड में माइनिंग की लीज बढ़ाने के लिये एक वक्त राज्य के तत्कालीन सीएम मधुकोड़ा टाटा ग्रुप से 180 करोड़ रुपये की मांग रहे थे। लेकिन नीरा राडिया ने बिना पैसे के यह काम राज्यपाल से करवा लिया। इसकी एवज में नीरा राडिया को कितनी रकम दी गयी, इसका जिक्र तो दस्तावेजों में नहीं है लेकिन राडिया की जिस टीम ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाया, उसे एक करोड़ रुपये बतौर इनाम दिया गया।
सीबीआई और आयकर निदेशालय के जांच दस्तावेजों को देखकर पहली नजर में यह तो साफ लगता है कि जिस नीरा राडिया को शिकंजे में लेने की तैयारी हो रही है उसकी पहुंच पकड़ का कैनवास खासा बड़ा है क्योंकि इसकी कंपनियां टाटा ग्रुप के अलावे यूनिटेक, मुकेश अंबानी के रिलांयस से लेकर कई मीडिया ग्रुप के लिये भी काम कर रही है। लेकिन दस्तावेजों के पीछे का सच यह भी उबारता है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था जिस कॉरपोरेट तबके के लिये हर मुश्किल आसान कर देश को विकास पर लाने के लिये आमादा है, असल में समूची व्यवस्था पर वही कॉरपोरेट जगत हावी हो गया है। और देश की जो लोकतांत्रिक संसदीय पद्धति है, अब वह मायने नही रख रही है क्योंकि सरकार किस दिशा में किसके जरीये कहां तक चले, यह भी कॉरपोरेट समूह तय करने लगे हैं। क्योंकि मुनाफा बनाने के खेल में किस तरह सरकार को चूना लगाकर करोड़ों के वारे न्यारे किये जाते हैं, यह फंड ट्रांसफर के खेल से समझा जा सकता है। स्वान को लाइसेंस 1537 करोड में मिला । लेकिन चंद दिनो बाद ही स्वान ने करीब 4200 करोड में 45 फीसदी शेयर यूएई के ETISALAT को बेच दिया। इसी तरह यूनिटेक वायरलैस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस डीओटी से 1661 करोड में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलेनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड में बेच दिये। इसी तर्ज पर टाटा टेलीसर्विसेस ने भी 26 फीसदी शेयर जापान के डोकोमो को 13230 करोड में बेच दिये।
17 दिसबंर 2008 को स्वान टेलिकॉम प्राइवेट लिमिटेड के फंड ट्रासफर के तौर तरीको से समझा जा सकता है। स्वान ने महज चार महीने पहले बनी चेन्नई के जेनेक्स इक्जिम वेन्चर को 380 करोड के शेयर एलॉट कर दिये, वह भी महज एक लाख रुपये के मर्जर कैपिटल पर। वहीं यूनिटेक वायरलैस को टेलिकॉम लाइसेंस दिलाने के लिये नीरा राडिया ने अपने प्रभाव से मंत्रालय के नीतिगत फैसलो को भी बदलवा दिया। असल में कॉरपोरेट के खेल में सरकारें कितनी छोटी हो गयी है, इसका अंदाज अगर सिंगूर प्रोजेक्ट के फेल होने पर गुजरात जाने की कहानी में छुपी है तो हल्दिया प्रोजेक्ट को लेकर कॉरपोरेट के आगे झुकती सरकारों के साथ साथ विदेशी पूंजी के लिये बनाये गये रास्तों से भी लगता है। जहां मंदी की चपेट में आकर डूबने से ठीक पहले लिहमैन ब्रदर्स का अरबों रुपया भारत पहुंचता भी है और मंदी आने के बाद जो पूंजी नहीं पहुंच पायी, उसे दूसरे माध्यमो से मैनेज भी किया जाता है। यानी विदेशी पूंजी निवेश के नियमों की धज्जियां भी खुल कर उड़ायी जाती हैं। यह खेल सिर्फ संचार व सूचना तकनीक के क्षेत्र में हो रहा हो ऐसा भी नहीं है। बल्कि पावर, एविएशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में भी बिचौलियों के माध्यम से कॉरपोरेट हितों को साधना और पावर प्लाट लगाने के लाइसेंस से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये जमीन कब्जे में लेने की प्रक्रिया में किस तरह अलग अलग राज्यों के नौकरशाह लगे हुये हैं, यह भी सीबीआई जांच के दायरे में है। लेकिन सबसे खतरनाक परिस्थितियां देश की व्यवस्था के भीतर बन रही है जहा सत्ता--कॉरपोरेट जगत--नौकरशाह का कॉकटेल नीरा राडिया सरीखे बिचौलियो के जरीये बन रहा है और इसे तोड़ने वाला कोई नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ इनके आगे बंधे हुये हैं। और जांच की शुरुआत करने वाला सीबीआई के एंटी करप्शन ब्रांच के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल आफ पुलिस विनित अग्रवाल का तबादला किया जा चुका है।