“यू मस्ट बी द चेंज यू वांट टू बी "। महात्मा गांधी ने यह शब्द कब कहे पता नहीं लेकिन वर्धा में बापू कुटी जाने के रास्ते में बड़े बड़े अक्षरों में लिखे इन शब्दो ने बरबस शरीर में एक सिहरन जरुर दौड़ा दी कि कहीं बापू के लोग अब खड़े तो नहीं हो रहे। लेकिन कहीं कोई आंदोलन या किसी नयी पहल की खूशबू की जगह पहली बार सुपर थर्मल पावर स्टेशन का बोर्ड जरुर दिखा। फिर यूजीसीएल यानी उत्तम गलवा मेटेलिक्स लिमेटेड के इस 1400 करोड़ रुपये के 50 मेगावाट के थर्मल पावर प्रोजेक्ट के बारे में पूरी जानकारी के साथ बापू के वही शब्द हिन्दी में, "जो परिवर्तन आप चाहते है, उसे आप को ही करना होगा " बेहद छोटे अक्षरों में लिखे देखा। परिवर्तन के इस नयी बयार की अगुआ यूजीएमएल है या फिर महाराष्ट्र सरकार-समझ में नहीं आया। क्योंकि महात्मा गांधी 73 साल पहले 1936 में वर्धा गये थे और 1943 तक कमोवेश वर्धा में ही रहे। लेकिन विकास की अंधड में चाहे बापू विचार सरकार की नीतियों में उड़ गया लेकिन वर्धा की बापू कुटी अब भी 73 साल पहले के जीवन को जीता है। वहां गांधीवादियों की कुटिया बंबू और मिट्टी की दीवार से खड़ी है तो छत खपरैल की है, जिसे बनाने की कीमत आज भी सौ-दो सौ रुपये से ज्यादा की नहीं है। और मिट्टी-बंबू-खपरैल की दो दर्जन से ज्यादा कुटिया यहां इसीलिये आज भी मौजूद हैं क्योंकि कुटिया के दस किलोमीटर के रेडियस में ऐसी किसी विकास की धारा को लाने की मनाही है, जो यहा के पर्यावरण को बिगाड़ सकते हैं।
तो फिर बारबडी गांव तक सुपर थर्मल पावर स्टेशन कैसे पहुंच गया। जबकि महाराष्ट्र में सरकार उसी कांग्रेस की है जो गांधी का नाम लिये बगैर चलती नहीं। असल में यह सवाल राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते भी उठा था। तब वर्धा के भू-गांव में स्टील प्लांट लाया जा रहा था। लॉयड स्टील के नाम से लाये जा रहे इस प्रोजेक्ट को लेकर तब पहली बार गांधीवादियों ने परिवर्तन का असली मतलब समझाते हुये खुद को बदला और स्टील प्लांट के खिलाफ हंगामा खडा कर दिया। और आखिर में राजीव गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा। जिसके बाद समूचा मामला महाराष्ट्र प्रदूषण नियत्रंण बोर्ड को जांच के लिये दे दिया गया। इसी के बाद 23 परवरी 1994 को देश के पर्यावरण मंत्रालय ने बापू कुटी को हैरिटेज साइट का लाइसेंस दे दिया। इसके बाद से बापू की कुटिया के घोषित सुरक्षित क्षेत्र को लेकर कभी विकास के अंधड ने रुख किया नहीं।
लेकिन बीते पांच साल में जो अंधड विदर्भ में आया, उसने जिस तरह सबकुछ उजाड़ दिया है, उसमें एक साथ कई सवालों ने जन्म ले लिया है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यही है कि गांधी की बात अब गांधी की धारा को मिटा कर की जायेगी। क्योंकि किसानों की राहत के लिये प्रधानमंत्री राहत पैकेज का जो 3750 करोड़ सिर्फ विदर्भ के लिये पहुंचा, उसकी जानकारी अगर विदर्भ के 36 फीसदी किसानों को आज भी नही है और 52 फीसदी किसानों को एक पैसे की भी राहत नहीं मिली तो वर्धा के 55 फीसदी किसान गांदीवादी सोच लिये इस बात से अनभिज्ञ है कि कोई राहत प्रधानमंत्री ने दी है और विदर्भ के ग्यारह जिलो में सबसे ज्यादा वर्धा जिले के ही 81 फीसदी किसान हैं, जिनके पास कोई जमीन है और बतौर मजदूर जीने के लिये साहुकार पर निर्भर हैं।
विदर्भ के तेरह लाख अड़तालिस हजार किसान गरीब हैं, जिसमें चार लाख चौतिस हजार किसान अति गरीब की श्रेणी में आते हैं। वहीं इनमें सबसे ज्यादा गरीब किसान भी वर्धा के हैं और सबसे ज्यादा गरीब तादाद अगर किसानों की कही एक गांव में रहती है तो वह वर्धा ही है। गांधी को बदल कर अपनी सोच को परिवर्तन की सोच देने वाला सिर्फ यूजीएमएल नहीं है। बल्कि जमीन पर मालिकाना हक भी वर्धा में विदर्भ के दूसरे जिलों की तुलना में सिमटा हुआ है। यानी चंद लोगो के पास ही जमीन है। किसानी के नाम पर मजदूरो की तादाद वर्धा में इसलिये ज्यादा है क्योकि एक वक्त यहां छोटी छोटी जमीन तो भूमिहीनों को मिल गयी, लेकिन विकास की अंधड में जब सवाल पेट पालने का आया तो सिवाय कट्टा और आधे एकड़ की जमीन के मालिक होने का सुकून ही बचा। झटके में साहूकार भूपति होते हया और छोटी छोटी जुड़कर बड़ी होती गयीं। जिसके मालिको ने जब तक चाहा किसान से मजदूर बनाया और फिर निर्माण मजदूर।
असल में बारबडी गांव की वह जमीन जिसपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट लगाने की योजना है वह भी उन्हीं साहूकारों की है, जो छोटे छोटे किसानो से ली गयी । जिसे किसी भी प्रोजेक्ट के लिये लेने में कोई परेशानी ना किसी कंपनी को आती ना ही राज्य सरकार के जहन में कोई आंशाका जनमती कि सिंगूर या नंदीग्राम सरीखा कोई आंदोलन यहा खड़ा हो सकता है। और ना ही लोग उस तरह एकजुट हो पाते जैसा वर्धा से सटे नागपुर में वर्धा रोड पर ही बन रहे अंतराष्ट्रीय कार्गो हब को लेकर विरोध हो रहा है । गांधी के परिवर्तन शब्द का इस्तेमाल कर विकास की अंधड कैसे सबकुछ मैनेज कर रही है, यह सरकार की उन नीतियों में भी झलकता है जिसमें सबकुछ खत्म कर दाने दाने के लिये सरकार पर निर्भर करने की नयी सोच पनप रही है। किसानों की बढ़ती खुदकुशी से घबरायी राज्य सरकार ने पांच साल पहले जब राशन में ज्यादा अन्न भेजना शुरु किया तो पहली बार लगा कि भूख को लेकर सरकार जागी है। लेकिन इसी साल विदर्भ के पौने सात लाख राशन कार्ड को बोगस करार देकर महाराष्ट्र सरकार ने जब रद्द कर दिया तो यह सवाल उठा राशन का अन्न भूखों तक पहुंचता नहीं है। लेकिन वर्धा में इसका नया नजारा ही देखने को मिला। जिन किसान-मजदूर या कहे बीपीएल परिवारों के पास राशन कार्ड है उन्हें राशन दुकान से ही कम कीमत में चावल मिल जाता है। और राशन कार्ड के बगैर उसी अन्न की कीमत दुगनी हो जाती है। यानी राशन का अन्न गरीबों को मिले इसके सार्वजनिक वितरण में अगर दुकानदार घपला कर कमा रहा है तो भी राशनकार्डधारी खुश हैं कि बाजार से कम कीमत में उसे राशनकार्ड दिखाकर अन्न तो मिल जाता है।
लेकिन राशनकार्ड न होने पर अन्न की कीमत इतनी बढ़ जाती है कि उसे पाने का रास्ता साहूकार के कर्ज लेने से होकर गुजरता है। ऐसे में वर्धा का किसान-मजदूर न तो पूरी तरह खड़ा हो पाता है और ना ही झुक कर टूटता है। लेकिन बापू कुटिया में सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के साथ ही वैश्नव कहीये... की वह धुन आज भी बजती है, जो 30 अप्रैल 1936 में महात्मा गांधी के पहुंचने के बाद से शुरु हुई थी और 1943 में बापू जब कुटिया छोड़ रहे थे तो उन्होने उस दौर में जिस भूमंडलीकरण का जिक्र किया, उसमें साम्राज्य स्थापित करते यूरोप के देशों का जिक्र था जो भारत जैसे देशो का दोहन कर उसके संसाधनो का उपयोग अपने देश के लिये कर रहे थे। लेकिन 67 साल बाद किसने सोचा होगा कि देश के भीतर ही बाजार का भूमंडलीकरण शुरु होगा और वर्धा की जमीन भी खामोश रहेगी।
12 comments:
kafi vistar se likha hai aapne , accha laga. kabhi mauka lage to ise bhi padhiyega.
www.taarkeshwargiri.blogspot.com
आईये पढें ... अमृत वाणी।
सादर वन्दे !
काफी दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़ने को मिली ! आपकी जानकारी और आकंडे यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि गाँधी के कपूत इस देश को कहाँ ले जा रहे हैं|
रत्नेश त्रिपाठी
एक और गाँधीवादी को जानना चाहते है तो पढ़ें ..
http://aaryashri.blogspot.com/2010/06/blog-post_05.html
रत्नेश त्रिपाठी
sir,
aapki lekhan shaili mujhe bahut pasand hai. main aapko apna adarsh manta hoon. aapke 10 baje vali bulletin ka mujhe besavri se intzar rahta hai. aapka ye lekh bahut accha laga. main sir abhi amar ujala aligarh unit mein as a trainee sub editor kaam kar raha hoon. main aapka anusaran karte huey is field main apni alg pahchan banana chahta hoon.
प्रसून जी आपने ही लिखा था इस देश को संसद नहीं पैसा चलाएगा ,हमारा मानना है इस देश के सारे इमानदार और इन्सान को ईमानदारी और इंसानियत को छोड़कर बईमान और हैवान बन जाना चाहिए क्योकि इस देश को महा बईमान और हैवान लोग चला रहें हैं ,जो गाँधी क्या भगवान की भी व्याख्या अपने मन मुताबिक कर लेते हैं ,अगर हमें संसाधन मुहैया कराया जाय तो एकसाल के भीतर सबूतों के आधार पर यह साबित भी कर देंगे | फ़िलहाल तो यही कह सकते हैं की हमने जरूर कोई महान कुकर्म किया होगा जिसकी सजा इस देश में जन्म लेकर हमें भोगना पर रहा है |
आपको जब भी पढ़ता हूँ कुछ जानने को मिलता है.
..आभार.
बढिया प्रस्तुति...
मेरा शनि अमावस्या पर लेख जरुर पढे।आप की प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ....आभार
http://ruma-power.blogspot.com/
यक़ीनन एक विचारणीय प्रशन है ....इस देश के अलग अलग हिस्सों में प्रगति भी अलग अलग है ....कल कुंवर नारायण का इंटरव्यू देख रहा था ...उन्होंने कहा .जब तक इस देश की सत्ता ये नहीं समझेगी के इस देश में अलग अलग विचारधारा .अलग अलग सोच के लोग है ....कुछ ऐसे तबके भी जिन्हें अपने अधिकारों को माँगना भी नहीं आता ....इसका समुचित विकास संभव नहीं है
देखो बुरा न मानना पर आदमखोर कांग्रेस के हर कुकर्म पर परदा डालने का काम मिडीया व सेकवर गिरोह ने ही किया है।अगर आप लोगों में दम है तो चलाओ समाचार एंटोनिया ने अपने पुरूषमित्र क्वात्रोची के वोफोर्स दलालीकांड के पैसे निकलवाकर उसके उपर से सारे केश खत्म करवाए।
या ये मान लो आप लोग कायर,डरपोक व चापलूस हैं सिरफ नाम चमकाने व पैसा बनाने के लिए पत्रकारिता कर रहे हैं।
बैसे ये लेख आपका आम लोगों के हित में है जिसका हम समर्थन करते हैं।
asal me sar swarthi log apni banyi paribhasha ko apne matlab ke liye badlate rahte hai samay samay par. aajkal bhi wahi ho raha hai..
asal me sar swarthi log apni banyi paribhasha ko apne matlab ke liye badlate rahte hai, samay samay par. aajkal bhi wahi ho raha hai..
भूमंडलीकरण...वैश्वीकरण में हम कहीं अधिक गुलाम हो गए हैं ? आम नागरिक भूखो मर रहें हैं और पूँजीपति और सरकार के बीच एक गहरी साँठगाँठ है...जिसे तोड़े जाने की दूर तक कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती ।
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