Monday, June 14, 2010

महाभारत की "राजनीति" में नये भारत की खोज

आतंक पैदा कर पूछने का अधिकार मीडिया को भी नहीं है। यह फिल्मी डायलॉग है। बिहार के चुनावी जंग में हाथ आजमा चुके प्रकाश झा की इस नयी "राजनीति" ने सियायत और मीडिया को लेकर कई सवाल खड़े किये हैं। सियासत अगर चरम पर पहुंच जाये तो हर रिश्ता सौदेबाजी में बदल जाता है और मीडिया के सरोकार अगर खत्म हो जाये तो वह आतंक का पर्याय बन जाता है। यह दौर चरम का है या उसके चरम का एहसास है। बहुत बारीकी से सामाजिक व्यवस्था के इस ताने-बाने को राजनीति ने पकड़ने की कोशिश की है। भूख-रोजगार या आम आदमी की त्रासदी भी राजनीति के लिये मायने नहीं रखती लेकिन सियायत की आंधी में आम आदमी का पेट भी राजनीति को ही ताकने लगे, यह एहसास महाभारत को देखते या पढ़ते वक्त चाहे ना जागे, लेकिन महाभारत के चरित्रों को आधुनिक दौर में सिल्वर स्क्रीन पर राजनीति में जरुर महसूस किया जा सकता है।


आदर्श राजनीति का जो भभका नसीरुद्दीन शाह के जरीये पांच मिनट में चमक दिखाकर ओझल हो जाता है
, वह झटके में नक्सलवाद से उठ रहे मुद्दों की आंच में दिखायी भी देते है, साथ ही शहर और जंगल का फर्क भी समझा देते हैं। संसदीय राजनीति एक दौर के बाद सत्ता चाहती है या फिर संन्यास । अच्छा है जो संन्यास की समझ अतिवाम ने नहीं पाली है, क्योंकि "राजनीति" में नसीरुद्दीन के सवाल जिस तरह हाशिये पर चले जाते हैं, कमोवेश वही आलम मेधा पाटकर से लेकर अरुंघति राय या फिर देश भर में चल रहे आंदोलनों का है। सियासत के लिये जमीनी मुद्दे मायने नहीं रखते और सत्ता को सौदे से ज्यादा कुछ दरकार होती नहीं। राजनीति इस मर्म को न सिर्फ समझती है बल्कि जीती है। तत्काल के दौर में देश के मंत्री ही अगर कारपोरेट सेक्टर और लॉबियों को मुनाफा पहुंचाने में लगे हैं तो उसका चरम क्या हो सकता है, राजनीति ने इसे ही पकड़ने की कोशिश की है।

शुगर और चावल लॉबी को जनता की कीमत पर मुनाफा पहुंचवाना या फिर बिचौलियों के जरिये सरकार को ही चूना लगाकर कारपोरेट सेक्टर को लाभ पहुंचाना अगर तत्काल की सियासत है तो फिर भविष्य में कारपोरेट लॉबी से रिश्तों की गांठ परिवार से होते हुये देश की सत्ता को हथियाने या चलाने में भी होगी। महाभारत के चरित्र हर काल खंड में फिट हो सकते हैं लेकिन चरित्रों का चरित्र भी आधुनिक राजनीति के चरम के साथ बदलता चला जायेगा
, यह हो तो रहा है,लेकिन यह कितना खतरनाक हो सकता है, इसे ही राजनीति महसूस कराती है। महाभारत के दुर्योधन और कर्ण के चरित्र आधुनिक दौर में युधिष्ठिर और अर्जुन से बेहतर और धर्म-परायण लगने लगते हैं। सियासत की हिंसा को धर्म का जामा चाहे महाभारत में कृष्ण ने पहनाया लेकिन आधुनिक राजनीति का चरम हिंसा के जरीये राजनीतिक जीत को ही असल सियासत मानती है। जिसमें कर्म का मतलब ही पहले गोली दागना है।

लेकिन सत्ता बगैर वोट बैक के चलती नहीं और महाभारत समाजिक ढांचे को धर्म-अधर्म में बांटे बगैर हक का सवाल खड़ा करता नहीं है। तो फिर राजनीति का चरम होगा क्या। दलित-आदिवासी-किसान समाज के भीतर से कोई सौदेबाजी के लिये निकल तो सकता है और राजनीति की चूलें भी हिला सकता है
, लेकिन आखिर में यह तबके रहेंगे वोट बैंक ही। और अगुवाई करने वाला दलित-आदिवासी-किसान कुछ भी हो उसका ट्रांसफारमेशन उसी सियासत के अनुकूल होगा, जिसके खिलाफ उसके संघर्ष की शुरुआत होती है। यह संसद के हालात देखकर भी समझा जा सकता है, जहां दर्जन भर आदिवासी नेता हैं। साठ से ज्यादा दलित और अस्सी के करीब किसानी से निकले नेता हैं। लेकिन संसद विकास का नाम लेकर माओवाद के खिलाफ सबसे बडी लड़ाई आदिवासी इलाकों को लेकर लड़ रही है। जबकि हकीकत यही है कि देश के करीब 65 फीसदी आदिवासी भूमिहीन हैं। और देश के साठ फीसदी जंगल में करीब 80 फीसदी आदिवासी रहते हैं, जो देश के 187 जिलों में फैला पड़ा है।

लेकिन माओवाद महज
30 जिलों में है, मगर बाकी डेढ़ सौ जिलों में दो जून की रोटी भी बीते साठ सालों की संसदीय राजनीति नहीं पहुंचा सकी है। वहीं देश के सत्तावन फीसदी दलित भूमिहीन हैं। 65 फीसदी के पास रोजगार नाम की कोई चीज नहीं है। 85 फिसदी दलित दिहाड़ी मजदूरी पर जीता है । और किसानो की हालत इस देश में क्या हो चुकी है यह किसी से छुपा नहीं है। बीते पांच साल में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं।

महाभारत में इस भूमिका को कर्ण जीता है तो राजनीति में दलित समाज से निकला अजय देवगन । महाभारत में कर्ण को आश्रय दुर्योधन देता है तो राजनीति में परिवारवाद में सत्ता को हक मानने वाला मनोज वाजपेयी। महाभारत में सत्ता के लिये द्रौपदी को भी दांव पर लगाने वाला युदिष्ठिर धर्म का राग जपता है तो राजनीति में अपराध और बलात्कार करने के बावजूद अर्जुन रामफल सत्ता का हकदार खुद को ही बताता है। महाभारत में अर्जुन का पराक्रम पांडवो को सत्ता दिलाता है तो राजनीति में अमेरिकी शिक्षा और तकनालाजी का ज्ञान रणबीर कपूर को पराक्रमी बनाता है, जिसके जरीये सत्ता के संघर्ष के हर नियम-कायदे बदल जाते हैं। वहीं महाभारत में कृष्ण धर्म के लिये गैर-अपनों का भेद खत्म करते हैं तो राजनीति में नाना पाटकर निहत्थों की हत्या का पाठ सत्ता के लिये पढ़ाते हैं। लेकिन महाभारत के अंत में युद्दभूमि पर गिरे योद्दाओं के जमघट के अलावे कुछ बचता है तो वह हत्याओं से सराबोर धर्म और उसकी छांव में करहाते पांडव। लेकिन राजनीति के अंत में सिवाय सत्ता के कुछ नहीं बचता। और सत्ता की प्रतीक द्रौपदी यानी कैटरिना कैफ और उसके पेट में सत्ताधारियो का अंश। और पराक्रमी अर्जुन यानी रणबीर कपूर राजनीति के चरम को बखूबी समझता है इसलिये सत्ता से बडी सत्ता अमेरिका ही उसकी रगो में दौड़ती है। तो फिर आधुनिक दौर के चैक एंड बैलेंस करने वाले संस्थान कहां गुम हो गये या फिर राजनीति का चरम क्या सत्ता में ही सबको समाहित कर लेगा।

यहां सवाल चौथे खम्भे का है, जिसे राजनीति आतंक मानती है और संस्थान सवाल खड़े करते हैं कि मीडिया किसी से भी सवाल पूछ सकती है तो मीडिया से कौन सवाल पूछेगा। और मीडिया खुद से सवाल पूछवाने से बचने के लिये उसी राजनीति की ओट लेने से नहीं चुकता जो खुद मुनाफे और सौदे का पर्याय बनने लगा है। राजनीति संस्थानो के भ्रष्ट होने से ज्यादा भ्रष्टाचार को ही संस्थान में बदल कर लोकतंत्र पर भी सवालिया निशान लगाती है। तो क्या राजनीति के चरम में वह संविधान भी नही बचेगा जो संसदीय राजनीति में लोकतंत्र की चाशनी लपेटकर पुरातनपंतियो को धर्म का उपदेश और आधुनिक दौर में कानूनी-गैरकानूनी का पाठ पढाकर मानवाधिकार से लेकर हक के सवाल को हाशिये पर ढकेल देता है। या फिर राजनीति का चरम महाभारत के अंत और प्रकाश झा की राजनीतिक सीमाओ से बाहर निकल कर कुन्ती पुत्र कर्ण के पिता या राजनीति के नसीरुद्दीन की क्रांति के सपने को दोबारा जगाने के लिये संन्यास छोड़ लौटेगा और विकल्प लुटियन्स के शहर से नहीं खेत-खलिहान और जंगल से शुरु होगा। जो सत्ता-कारपोरेट-मीडिया के कॉकस को भी तोडेगा और उस लॉबिंग के मिथ को भी चकनाचूर कर देगा जो मानता और मनवाता है कि मुनाफा बनाना-कमाना ही विकास की अर्थव्यवस्था का धर्म है।

विकल्प का यह राग उस राजनीति के मर्म को भी बदल देगा जो दलित को दलित और आदिवासी को आदिवासी बनाये रखकर पहले असुरिक्षत करते हैं फिर आतंक तले सुरक्षित कर लोकतंत्र का ऐलान करते हैं। यह भूख की उस आग को भी शांत करेगा जो राजनीति में अगर एक निवाले के लिये कभी लाल तो कभी नीला और किसी भी रंग का झंडा उठाकर राजनीति को लोकतंत्र का पर्याय बनाने से नहीं चूकती। तो उस राजनीतिक भ्रम को भी खत्म करेगी जो राजनीति को साफ-स्वच्छ बनाने के लिये पढ़े-लिखे युवाओं को साथ खड़ाकर खुद को पाक-साफ करारने का खेल भी खेल रही है। क्या राजनीति के चरम के बाद विकल्प का राग करोड़ों अकेले लोगों को साथ जोड़ेगा और देश के कमोवेश हर प्रांत में चल रहे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोकर इस एहसास को जगायेगा कि मुद्दा चाहे भूमि पर कब्जे का हो या खनन का या फिर पर्यावरण से लेकर रोजगार का। खेती में उजड़ते किसानों का सवाल हो या जमीन पर क्रंकीट का जंगल खड़ा कर पानी के संकट का। विकास की अंधी दौड़ में सबकुछ समेटने का मिजाज हो या फिर सबकुछ ध्वस्त कर तकनीक पर टिका जीवन। अगर देश में इन मुद्दों पर टिके आंदोलनों से जुडे लोगों की संख्या को जोड़ें और उन्हें ही देश मान कर सियासत की शुरुआत करें तो एक नया लोकतंत्र जन्म ले सकता है। और ऐसे में नयी "राजनीति " महाभारत पर नहीं नये भारत के आधार पर बनेगी जिसमें अजुर्न बने रणबीर कपूर की बिसात और आतंक पैदा करते मीडिया पर डायलॉग नहीं होगा बल्कि विकल्प बनाता नसीरुद्दीन डायलॉग बोलेगा
, लोकतंत्र के नाम पर मुनाफा-सौदेबाजी की सियासत से बनी सत्ता को आतंक पैदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

14 comments:

सम्वेदना के स्वर said...

फिल्म में दिखाया गया निराशावाद न जानें क्यो मुझे वास्तविक लगा.
जैसे व्यव्स्था मे सहज हो चली हुई अराजकता सिर्फ विदेशी महिला को झंझोरती है बाकी सब उसे कब से स्वीकारे हुए लगे.
समर भी जब महाराजा अशोक की तरह हिंसा से उब गया तो विदेश जाकर ही शांति पाने की सोचता है.
कैटरीना बड़ी आसानी से अपने प्रेमी के बड़े भाई से विवाह के लिये तैयार हो जाती है.
फिल्म में इतने खून-खराबे के बाद लगा कि न्याय व्यव्स्था, विधायिका के सामने आत्म-समर्पण कर चुकी है.

भारत तो खो गया लगता है, प्रसून भाई!

Nikhil Srivastava said...

राजनीति का चरम महाभारत के अंत और प्रकाश झा की राजनीतिक सीमाओ से बाहर निकल कर कुन्ती पुत्र कर्ण के पिता या राजनीति के नसीरुद्दीन की क्रांति के सपने को दोबारा जगाने के लिये संन्यास छोड़ लौटेगा और विकल्प लुटियन्स के शहर से नहीं खेत-खलिहान और जंगल से शुरु होगा। जो सत्ता-कारपोरेट-मीडिया के कॉकस को भी तोडेगा और उस लॉबिंग के मिथ को भी चकनाचूर कर देगा जो मानता और मनवाता है कि मुनाफा बनाना-कमाना ही विकास की अर्थव्यवस्था का धर्म है।

मैं प्रकाश झा और उनकी राजनीति से भले ही सहमत न हूँ लेकिन आपके साथ हूँ. आपकी लेखनी और इस विचार में जादू है...काश ये अलख हम भारतीय जल्दी जगा लें. मैं हाज़िर हूँ. जहाँ कहिये, जैसे कहिये देश के लिए आगे आने के लिए तैयार हूँ. कहीं भी मोर्चा ले लूँगा.

Nikhil Srivastava said...
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1st choice said...

अंकल अंकल क्या लिखे हो मुझे कुछ समझ नही आया मैं अभी बच्चा हूं हा हा हा ।

anoop joshi said...

सर असल में महाभारत सच में एक कथा है या हकीकत हम कह नहीं सकते. लेकिन इस महाभारत की हकीकत हम सब कह सकते है.की ये सच है चाहे परदे में सही, पर सच है.

Sarita Chaturvedi said...

AISE VISLESAR KE LIYE IS "RAJNITI" KA REFERENCE TO BILKUL BHI NAHI LENA CHAHIYE THA. "RAJNITI" ATISHYOKTI SE JYADA KUCHH BHI NAHI HAI.MEDIA KO JIS TARAH SE DIKHYA GAYA HAI US PAR UFF KI JA SAKTI HAI PAR BHAROSA BILKUL NAHI. BINA TARK KE AUR TATHYO KE KUCH BHI BOLA HUAA AUR LIKHA HUAA PURN NAHI MANA JATA AUR YE FILM USI TARJ PAR CHALTI GAI HAI AUR AAP HAI KI USKO HI ADHAR BANA LIYA.

CLUTCH said...

dar lagta hai aacha laga ish kalyug mai mere saat parsson tho khada hai........

delhi hai meri jaan.....

daar lagta hai kya likhu sach koi safdar hasmi ki tarah maar na de mujhe bhi ......

yaad hai aaj bhi aap ka woh episode jab halabol ke barre mai app nei bataya tha , dar lagta hai parsoon koi mujhko bhi sach bolne par maar na de.....

love you so much....

jitendra kumar gupta said...

krara jabab mileyga..

CLUTCH said...

superb program on honur killing but did not tell about sitapura at Lucknow honour killing case.....

please read my blog also i will also write something on honour killing ....

CLUTCH said...

superb program on honur killing but did not tell about sitapura at Lucknow honour killing case.....

please read my blog also i will also write something on honour killing ....

mridula pradhan said...

bahut achcha likhen hain. badhaee.

प्रवीण पाण्डेय said...

देश के राजनैतिक चरित्र को फिल्म के माध्यम से व्यक्त करती फिल्म । जानी पहचानी इसलिये है क्योंकि राजनीति भी फिल्मी होती जा रही है ।

प्रमोद ताम्बट said...

Mr Bajpai,
You have not given your Email address that is why I am doing this.
Can this be a issue for midia
Neha Sharad
Mehernosh Shroff August 10 at 2:00pm SINCE YEAR 1996 when I came completed contract as Chief Engineer in the Offshore supply vessel Garware III ( which worked in Mumbai High ) I realized there were huge oil leaks going on and there were no Mop up and support vessels , no sludge recovery vessels

Please see her wall
http://www.facebook.com/profile.php?id=100001240214878

This is Mr Shroff's wall
http://www.facebook.com/profile.php?id=1002323634&ref=sgm

सतीश कुमार चौहान said...

माओवाद महज 30 जिलों में है, मगर बाकी डेढ़ सौ जिलों में दो जून की रोटी भी बीते साठ सालों की संसदीय राजनीति नहीं पहुंचा सकी है। वहीं देश के सत्तावन फीसदी दलित भूमिहीन हैं। 65 फीसदी के पास रोजगार नाम की कोई चीज नहीं है। 85 फिसदी दलित दिहाड़ी मजदूरी पर जीता है । और किसानो की हालत इस देश में क्या हो चुकी है यह किसी से छुपा नहीं है। बीते पांच साल में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं।
प्रसून जी बस अपनी इस बात को ही हवा दे दिजीऐ बहुत सी समस्‍याऐ छूमंतर हो जाऐगी इस बात में दम हैं ...सतीश कुमार चौहान भिलाई