पीएम के खाने के आमंत्रण पर बीजेपी का कोई नेता नहीं जायेगा, यह फैसला लालकृष्ण आडवाणी का था। और इसकी कोई जानकारी बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को नही थी। फैसला 22 जुलाई को देर शाम में लिया गया। इंडियन एक्सप्रेस के गोयनका पुरस्कार समारोह में सवा सात बजे आडवाणी होटल ताज पैलेस पहुंचे और पांच मिनट में ही वहां से रवाना हो गये। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली से गुफ्तगु के बाद शाम आठ बजे प्रणव मुखर्जी को इसकी जानकारी दे दी गयी थी। लेकिन दिल्ली के अपने निवास पर मौजूद नीतिन गडकरी को इसकी कोई जानकारी किसी ने नहीं दी। आडवाणी ने बीते हफ्ते बीजेपी शासित राज्यों के वित्त मंत्रियो के साथ बैठक की। इसकी कोई जानकारी नीतिन गडकरी को नहीं दी गयी। संसद में जातिगत जनगणना के पक्ष में बीजेपी जा रही है इसकी जानकारी नीतिन गडकरी को नहीं दी गयी। जबकि आरएसएस का इस पर खुला विरोध है और गडकरी भी इसके पक्ष में नहीं थे। नीतिन गडकरी ने संजय जोशी को बिहार में चुनाव से पहले सर्वे के लिये लगाया। संजय जोशी ने सवाल खड़ा किया इससे कोई लाभ होगा नहीं क्योकि चुनाव के दौरान अरुण जेटली की चलेगी जो उनके सर्वे से उलट भी होंगे। और आखिर में बात यही होगी कि बिहार में बीजेपी जीती तो वजह अरुण जेटली और हारे तो वजह नीतिन गडकरी। सोहराबुद्दीन फर्जी एनकांउटर पर दिल्ली पहुंच कर नरेन्द्र मोदी को क्या बोलना है, इसके लिये लकीर आडवाणी ने खींची। नीतिन गडकरी से पूछा तक नहीं गया। गडकरी को बिहार के मोदी समेत कई नेताओ ने समझाया कि सोहराबुद्दीन की चाल बिहार चुनाव में बीजेपी-जेडीयू के बीच कही सेंध लगा सकती है, इसलिये संभल कर बयान देना होगा। लेकिन नरेन्द्र मोदी को आडवाणी की लॉबी ने यही समझाया कि गुजरात का किला कभी ठहने ना पाये इसलिये सोहराबुद्दीन पर सीधी लकीर मुस्लिम आतंकवाद और गुजरात विकास के बीच खींचनी होगी। नरेन्द्र मोदी ने यही किया।
इसका मतलब यह कि बीजेपी के भीतर कई खानों में कई थ्योरी एकसाथ चल रही हैं। लेकिन पहली बार बीजेपी अध्यक्ष गडकरी को लेकर लालकृष्ण आडवाणी की व्यूह रचना कुछ इस प्रकार है कि 2014 से पहले बीजेपी को जो नया अध्यक्ष मिले वह आरएसएस का नहीं आडवाणी का हो। और गडकरी का नाम उनका टर्न पूरा होने पर 2013 में कोई लेने वाला ना हो। तो क्या आडवाणी में सत्ता को लेकर राजनीतिक समझ अभी से फिर कुलांचे मार रही है । क्योंकि जो राजनीति गडकरी को खारिज कर रची जा रही है, उसमें पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अगर दिल्ली की चौकड़ी एक बार फिर नजर गढ़ाये हुये है तो आरएसएस को साधने के लिये मदनदास देवी भिड़े हैं। संघ और बीजेपी की दिल्ली चौकडी के बीच पुल का काम मदनदास देवी कर रहे हैं। और जो बात मदनदास देवी राजनीतिक अर्थशास्त्र के दायरे में संघ के मुखिया भागवत और सह मुखिया जोशी के सामने रख रहे हैं, उसका लब्बोलुआब यही है कि महंगाई से लेकर पाकिस्तान और सड़ते गेंहू से लेकर कश्मीर तक के मुद्दों को लेकर जितना आक्रोश आम लोगो में है, उसमें विकल्प का सवाल देश में खुद ब खुद खड़ा हो रहा है। बीजेपी को तैयारी उसकी करनी चाहिये और संघ को बीजेपी के लिये ताना-बाना बुनना चाहिये। चूंकि महंगाई, किसान और आदिवासियो के सवाल पर पर आरएसएस के स्वयंसेवको में लगातार चर्चा हो रही है और पहली बार स्वयंसेवकों को मोहन भागवत इस तर्ज पर बांधने की नसीहत भी दे रहे हैं कि संगठन को मजबूत और व्यापक बनाने के लिये मुद्दों का ही आसरा लेना जरुरी है। ऐसे में मदनदास देवी की बात भी संघ में फिट बैठ रही है। मगर मदनदास देवी तो आडवाणी के लिये ही रास्ता बना रहे हैं, इसलिये पीएम के भोजन आमंत्रण को ठुकराने को उन्होंने गलत भी नहीं माना।
लेकिन पीएम के खाने के आमंत्रण को ठुकराने के बाद अब गडकरी ने संघ के मुखिया का सामने यह सवाल खड़ा किया है कि जिन मुद्दों पर संगठन को व्यापक करना है और बीजेपी को अपना कैडर बढ़ाना है, उसी मुद्दों पर अगर प्रधानमंत्री से संसद सत्र से पहले बात होती तो संसदीय राजनीति में बीजेपी का सकारात्मक रुप भी दिखायी देता। गडकरी ने संघ के मुखिया के सामने यह सवाल भी खड़ा किया है कि संसदीय राजनीति के ही इर्द-गिर्द अगर समूचे बीजेपी संगठन को लगाया जायेगा तो फिर संगठन और संसदीय सत्ता के बीच लकीर कैसे बनेगी। महत्वपूर्ण है कि आरएसएस में भी इस बात को लेकर बैचैनी है कि दिल्ली की राजनीति की धारा एक ही झोके में एक ही दिशा में जिस तरह बहती है, उससे ना तो बीजेपी का भला हो सकता है और ना ही संघ के प्रति अच्छी राय बन सकती है।
आरएसएस के भीतर अब नये सवाल बीजेपी के भीतर बंटती राजनीति को लेकर उफान पर है । खासकर गडकरी को आरएसएस का प्यादा करार देकर तमाम राजनीतिक निर्णयो से गडकरी को दूर रखने की प्रक्रिया में पहली बार संघ के भीतर भी यह सवाल खड़े हो रहे हैं कि क्या गडकरी को कठोर निर्णय लेने होंगे। क्या गडकरी के जरीये आरएसएस उन मुद्दों को उठायेगी जो सत्ता की राजनीति में हाशिये पर ढकेल दिये गये हैं। असल में संघ के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर भी कई सवाल हैं। नागपुर में संघ के आइडियोलॉग एमजी बैघ ने मोहन भागवत के सामने पार्टी और संगठन से बडे मानने वाले नेताओं को सबसे घातक माना है। खासकर आडवाणी की मनमानी और मोदी के एकला चलो को वह संघ और बीजेपी संगठन दोनो के लिये घातक मानते हैं। संघ के मुखिया के सामने एमजी वैघ का कद क्या मायने रखता है, यह इससे भी समझा जा सकता है कि वैघ के बेटे मनमोहन वैघ फिलहाल संघ की टीम में प्रचारकों की कमान थामे हुये हैं। और उन्होने बीजेपी की सत्ता केन्द्रित राजनीति की वजह से संघ के प्रति सामाजिक धारणा प्रदूषित होने की बात भी कही थी।
एक महीने पहले कर्नाटक के दक्षिण जिलों में संपन्न संघ शिक्षा वर्ग में जब भष्ट्रचार का मामला चर्चा में उठा तो साढे आठ सौ प्रतिनिधियों के बीच राजनीतिक भ्रष्ट्राचार को लेकर रेड्डी बंधुओ का सवाल भी स्वयंसेवकों ने उठाया और उस चर्चा में भी यही बात उभरी की बीजेपी की समूची राजनीति अगर सत्ता बचाने या बनाने के लिये होती है तो उसमें स्वयंसेवकों की भूमिका किस तरह की होनी चाहिये। और महत्वपूर्ण है स्वयसेवको ने इस पर सहमति जतायी कि बीजेपी अध्यक्ष को इस्तीफा दे चुके लोकायुक्त को समझाने आने की कोई जरुरत नहीं थी। यह चर्चा अनौपचारिक थी जो शिक्षा सत्र के दौरान होती है। लेकिन संघ के यही शिक्षा वर्ग एक तरह से संघ की जमीन का विस्तार करते हैं। और देश भर में 39823 शाखाओं को इससे जोड़ा भी जाता है। असल में संघ की समझ में गडकरी फिट बैठे और अब कठोर निर्णय लें इसके लिये संयोग से नागपुर में संघ के साथ उसी दौर में गडकरी की बैठक शुरु होगी जब संसद के भीतर गुजरात मामले पर सीबीआई को लेकर हंगामा शुरु होगा।
इस मुद्दे पर सोमवार को संसद चले या ना चले लेकिन सोमवार को नागपुर के संघ मुख्यालय में नीतिन गडकरी की संघ के नेताओ के साथ बैठक में गुजरात या अमित शाह या सीबीआई मुद्दा नहीं होगा। संघ चाहता है कि गौ-ग्राम पर बीजेपी शासित सरकारें ठोस पहल करें और कश्मीर, नक्सलवाद, मणिपुर, पाकिस्तान, मंहगाई और जातिगत जनगणना के विरोध में बीजेपी कैसे संघ से सुर मिलाये इस पर गडकरी ना सिर्फ ठोस पहल शुरु करें बल्कि पार्टी में ऐसा वातावरण भी बनायें, जिससे संसदीय राजनीति में ही सबकुछ ना सिमटे।
जाहिर है इसके लिये नीतिन गडकरी को कड़े फैसले लेने होंगे और टकराव भी होगा। सवाल है क्या गडकरी में इतनी कुव्वत है कि वह आडवाणी से टकरा सकें या फिर संघ एक बार फिर बीजेपी की दिल्ली चौकड़ी से दो दो हाथ करने की तैयारी में है।
Monday, July 26, 2010
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कई खानों की बंटी बीजेपी को साधेगी आरएसएस! |
Saturday, July 24, 2010
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अमेरिकी डॉलर वाले काबुलीवाले का इंतजार |
जिसने भी साठ के दशक की फिल्म ‘काबुलीवाला’ देखी होगी, उसके जहन में काबुल के पठान को लेकर संवेदनायें आज भी होंगी । काबुलीवाला के जरीये कुछ लकीर तब के अफगानिस्तान की भी खींची गई । जो बदहाली का शिकार या कहें मुख्यधारा के विकास से कोसों कबिलाई सोच के साथ जी रहा था। कमोवेश चार दशक बाद अमेरिकी सेना के पीछे जो भी पत्रकार काबुल पहुंचे, उन्हें कोई फर्क अफगानिस्तान में नजर आया नहीं। रहने जीने के तौर तरीके भी कमोवेश काबुलीवाला के पठान की ही महक दे रहे थे। लेकिन इस दौर में अफगानी पठान के प्रति संवेदना नहीं जहर पैदा हो चुका था। बच्चो से प्यार करता 1960 का काबुलीवाला बादाम,काजू, किशमिश बांटा करता था। लेकिन 2001 के बाद वही पठान बंदूक और बारुद से प्यार करने वाला लगने लगा।
अब यानी 20 जुलाई 2010 को जब अमेरिकी अगुवाई में पहली बार सत्तर देशों के प्रतिनिधी काबुल में जुटे तो दुनिया की दौलत से इसी अफगानिस्तान को बदलने का सपना संजोया गया। जो लकीर अफगानिस्तान को लेकर खींची गयी, उसमें ना तो काबुलीवाले की जगह है ना ही आतंक पैदा करने वाले पठान की। क्योंकि जबतक यह दोनों मौजूद हैं, तब तक दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान को मान्यता नहीं दी जा सकती।
यह अलग बात है कि 20 बिलियन डॉलर से नये अफगानिस्तान को बनाने की ट्रेनिंग बंदूक और बारुद तले ही होगी। फर्क सिर्फ इतना होगा यह बंदूक-बारुद अफगान सरकार के सैनिको के हाथ में होंगे और इसमें लगने वाली पूंजी वह तमाम देश मुहैया करायेंगे, जिन्हे अमेरिका का दुश्मन अपना दुश्मन लगता है। और जो यह सोचते है कि दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान को अगर दिखायी देना है तो विश्वव्यापी बाजार या कहे अंतराष्ट्रीय धंधे पर कोई हमला अफगानिस्तान की जमीन से ना हो या यहा साजिश रचने वाले दिमाग भी ना बचे। और इस पर खुद अफगानियो को लगाम लगानी होगी, जिनके लिये दुनिया के खजाने खोंले जायेंगे। यानी राष्ट्रपति करजई के अफगानी पठान तैयार होंगे तालिबानी पठान के खिलाफ। क्योंकि समूची दुनिया ने माना है कि एक वर्ल्ड टावर के गिरने से जब 200 करोड बिलियन डॉलर का नुकसान दुनिया के धंधे पर हो सकता है तो फिर किसी भी अगले निशाने से पहले ही तालिबानी पठानों को नेस्तानाबूद क्यों ना कर दिया जाये चाहे अगले एक दशक में इसका खर्च दो करोड बिलियन डॉलर का क्यों ना हो।
लेकिन दुनिया की इस दौलत से अफगानिस्तान के भीतर किसी काबुलीवाले की जिन्दगी संवरेगी या फिर आंतक फैलाने के लिये उठते हाथ थम जायेंगे। इसकी कोई लकीर ना तो मौजूद सत्तर देशों के नुमाइन्दगों ने खींची और ना ही राष्ट्रपति करजई कोई योजना बता पाये कि गरीबी और कबिलाई जीवन का तोड़ उनके पास सरकारी सैनिकों को अत्याधुनिक हथियार से लैस कर ट्रेनिग के अलावे और है क्या। गुरबत के आगे आतंक मायने नहीं रखता और तालिबान के खडे होने का कारण भी गुरबत ही है। जिसमें बारुद की गंध दीन-धर्म की चादर में समेटा जाती है और आतंक एक आसान और न्यायप्रिय तरीका लगने लगता है। ऐसे में शिक्षा और जीने की न्यूनतम जरुरत तक ना रहे तो तालिबान किस आसानी से खडा हुआ या हो सकता है, इसका जिक्र पाकिस्तानी लेखक सोहेल अब्बास ने अपनी किताब प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट में किया है।
तालिबान के जेहादियों में सिर्फ 4 फीसदी ही हैं, जिन्होंने इस्लाम के इतिहास को पढ़ा है। जबकि 69 फीसदी पठान जेहादी ऐसे हैं, जिन्हें मस्जिदों के मुल्लाओं के जरीये इस्लाम का पाठ मिला है और कमोवेश सभी मानते है कि उनके हाथ में बंदूक हक के लिये है। और गरीबी का आलम अफगानिस्तान किस तरहल पसरा है, इसका अंदाजा यूएनडीपी की उस रिपोर्ट से लग सकता है जिसमें भारत के छह राज्यों को सहारा-अफ्रीकन देशो से ज्यादा गरीब बताया गया है। उस रिपोर्ट में अफगानिस्तान को इस काबिल भी नहीं समझा गया कि जो मापक गरीबी के रखे गये उसमें यह फिट भी बैठता हो।
जाहिर है अफगानिस्तान को लेकर इसीलिय हेलेरी क्लिटन काबुल में यह कहने से नहीं चूकी कि दुनिया के नक्शे पर अफगानिस्तान दिखायी दे, इसलिये उसे समूची दुनिया की मदद देनी होगी । लेकिन दौलत से अफगानिस्तान कैसे बदलेगा, जहा फैशन सिर्फ डेढ़ फीसदी को घेरे हुये है । पेंट-शर्ट सिर्फ 14.5 फीसदी लोगों तक पहुंचा है। और सूचना तंत्र जो सबसे ज्यादा आधुनिक परिस्थियो से जोडने में सहायक होता है. उसका हर रुप बदरंग है। जिन हाथों ने तालिबान की बंदूक या दिमाग में तालिबानी विचार चस्पा किये हुये हैं, उनमें 80 से 95 फीसदी तक रेडियो-टेपरिकार्डर,कम्प्यूटर, म्यूजिक, टीवी, वीसीआर, इंटरनेट को जानते नहीं हैं। यानी कोई सरोकार इस आधुनिक तौर तरीको से इनका है ही नहीं, जिसके जरीये राष्ट्रपति करजई अमेरिकी सरपरस्ती में अफगानिस्तान को दुनिया की दौलत से बदलना चाह रहे हैं।
समझना होगा कि अगर काबुलीवाले का मतलब अफगान नहीं है तो सिर्फ काबुल का भी नहीं है और अगर तालिबान अफगान का राजनीतिक चेहरा नहीं है तो करजई भी अफगानिस्तान के प्रतीक नहीं है। समूचे अफगानिस्तान के 9 फीसदी इलाके में ही करजई की सेना की आवाजाही हो सकती है। जबकि पाकिस्तान से सटा अफगानिस्तान का 36 फीसदी इलाका ऐसा है, जहां पाकिस्तान की सेना तो जा सकती है लेकिन करजई की नहीं। और इन इलाकों में अमेरिकी या कहे नाटो सेना को करजई से ज्यादा पाकिस्तान का साथ चाहिये। इसलिये काबुल में जब 70 देशों के नुमाइन्दगों की तस्वीर खींचने का मौका आया तो वहा मौजूद पाकिस्तान के विदेश मंत्री कुरैशी अमेरिकी विदेश मंत्री हेलेरी के ठीक पीछे खड़े थे। और भारत के एस एम कृष्णा एकदम बायी तरफ हिलेरी क्लिंटन से सबसे दूर। और तस्वीर ही अफगानिस्तान के उस सच को बयान कर रही थी, जहां 70 देश एकजुट हो कह रहे थे कि सभी का दुश्मन एक ही है तालिबान या कहें अलकायदा। जिसका सिरमोर और कोई नहीं ओसामा-बिन-लादेन है। और इस महासम्मेलन से ठीक 10 घंटे पहले हिलेरी क्लिंटन वाशिंगटन में फॉक्स न्यूज चैनल को इंटरव्यू में यह कहकर आयी थी कि ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान ने छुपाया है। और ऐसे में भारत काबुल में यह कहकर ताल ठोंक रहा है कि उसने इस्लामाबाद का जबाव काबुल में यह कह कर दे दिया कि आतंक के खिलाफ लड़ाई एक सरीखी होती है, उसे बांटा नहीं जा सकता।
लेकिन अब इंतजार कीजिये 2014 का, जब करजई के मुताबिक दुनिया की दौलत से अफगानिस्तान उनका होगा और काबुल से कोई काबुलीवाला भारत आयेगा तो उसके झोले में अखरोट और किशमिश की जगह डॉलर होंगे, जो बच्चों को नहीं सरकार और कॉरपोरेट को लुभायेगा
Monday, July 12, 2010
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जहां हर आक्रोश एफआईआर है या राजनीतिक बयान |
“अपने साथी की मौत पर भी हमें गुस्सा नहीं आना चाहिये। हम तो अपने गुस्से को शांतिपूर्ण प्रदर्शन के साथ बताना चाहते हैं लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। हम हाथों को हवा में लहरा कर बैनर पोस्टर से ही अपनी बात कहकर घर लौटना चाहते हैं। लेकिन आप इसकी इजाजत भी नहीं देते। आप तो हमें कोई नारा लगाने भी नहीं देते। तो हम क्या करें। यहा बंदूक तो कोई भी उठा सकता है, हमने तो पत्थर उठाये हैं, लेकिन आप हमारे पत्थरों को भी पालिटिकल स्टेटमेंट मान लेते हो। बंदूक उठायेंगे तो आतंकवादी करार दिये जायेंगे और पत्थर उठायेंगे तो अलगाववादी। आप हमें जीवित नागरिक क्यों नहीं मानते। आप हमें मशीनी कश्मीरी क्यों बनाकर रखना चाहते हो, जो हमेशा मुस्कुराता रहे। आखिर आपकी सोच के अनुसार हर कश्मीरी इस बात पर फख्र क्यों करता रहे कि वह हसीन वादियों में पला बढ़ा है। कश्मीर को लेकर आपकी तस्वीरों में भी कभी हम तो होते नहीं। खूबसूरत वादियो में सिमटा कश्मीर ही आपने अभी भी आंखो में बसा रखा है तो इसमें हमारी क्या गलती है। हम सिर्फ इन वादियों में अपनी जगह चाहते हैं। आप इसके लिये भी तैयार नहीं है।”
सोपोर के थाने में दर्ज यह एक कश्मीरी की शिकायत की एफआईआर कॉपी है। जिसे सोपोर के इंजमाम ने केन्द्र सरकार के खिलाफ दर्ज कराया है। पालिटिकल साइंस में ऑनर्स की पढ़ाई कर रहे इंजमाम ने सरकार पर आरोप लगाया है कि 27 जून को अपने मित्र बिलाल की मौत से आहत होकर वह सिर्फ शांति प्रदर्शन करना चाहता था । क्योंकि अर्धसैनिक बलों की गोली उसके मित्र को सड़क पर लगी। और अपने घर में वह बताकर उस प्रदर्शन में शरीक होने पहुंचा जो उसके मित्र के परिवार वाले सोपोर की गलियो में निकाल रहे थे। लेकिन पुलिस और सेना ने उनके नंगे हाथों को भी हवा में लहराने की इजाजत नहीं दी। और एकमात्र बैनर को लोगो की आंखों के सामने बूटों तले कुचल दिया, जिस पर सिर्फ इतना लिखा था, वी वांट जस्टिस। लेकिन 48 घंटे तक जब सेना की गश्त ने उनका घर से निकलना बंद कर दिया तो सोपोर बाजार के थाने में जाकर रपट लिखाने के अलावे और कोई रास्ता नही बचा। थाने ने भी इंजमाम के इस दर्द को दस्तावेजो में समेट लिया । और एफआईआर की शक्ल में एक कॉपी पर सरकारी ठप्पा लगाकर इंजमाम को सौंप भी दिया ।
लेकिन इंजमाम की यह मासूमियत कश्मिरियों के दर्द की सिर्फ एक बानगी भर है। बारह साल पहले सोपोर के थाने में हुर्रियत नेता अब्दुल गनी बट ने पुलिस वालों से यह सवाल किया था कि क्या वह आसमान में पंछी को उड़ते देखकर दोनो हाथों को हवा में उठाकर जोर से चिल्ला कर कह सकते हैं कि काश मैं भी इस तरह आजाद होता। तो पुलिसवाले का जबाब था घाटी में आप आजादी शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। यह सरकार के खिलाफ माना जायेगा। तब अब्दुल गनी बट ने थाने में रपट लिखायी कि उनकी शिक्षा बेजा जा रही है और कश्मीर वह छोड़ नहीं सकते। तो सरकार बताये कि वह अगर आजाद पंछी से खुद की तुलना करते हुये कोई कविता लिखे तो उसे पालिटिकल स्टेटमेंट क्यों माना जाता है। और बारह साल पहले भी सोपोर थाने में सरकार के खिलाफ इस शिकायत पर सरकारी ठप्पा लगाते हुये एक कापी अब्दुल गनी बट को सौप दी गयी।
कविता से पत्थर तक को राजनीतिक बयान मानने के सरकारी मिजाज में कश्मीरी किस तरह फंसा हुआ है इसका अंदाजा कश्मीरी पुलिस और सेना के बीच की दूरी से भी समझा जा सकता है और थानों में दर्ज कश्मिरियों की शिकायत से भी पता चल सकता है। घाटी के थानो में औसतन हर दिन पांच सौ से ज्यादा मामले दर्ज होते हैं। और इसमें 70 से 80 फीसदी मामले सेना और सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ होते हैं। और हर शिकायत पर मरहम और कोई नहीं कश्मीरी पुलिस ही लगाती है। यह एक अजीबोगरीब त्रासदी है कि स्थानीय पुलिस या कहें राज्य पुलिस कश्मीरियों के मर्म को समझती है और अर्ध सैनिक बलो के खिलाफ हर कश्मीरी के दर्द को थाने में ही सही एक कोना जरुर देती है, जिससे जीने की समूची आस नहीं टूटे।
6 जुलाई को जब मारे गये लड़को के शवों को प्रदर्शन के शक्ल में कश्मीरी ले जा रहे थे तो भी सेना से झड़प हुई और शवों को सडक पर छोड कर उनके परिजनो को इस डर से भागना पडा कि कहीं वह भी शव में तब्दील न हो जायें। लेकिन उसी भीड में जे एंड के पुलिस ने भागते कश्मीरियों को रास्ता दिया। लाठी और बंदूक के कुंदे की मार से घायल कश्मिरियों को उठाया। उन्हें शांत रहने की सलाह दी । कश्मीरियो के दर्द के साथ खड़ी स्थानीय पुलिस में सिर्फ इंस्पेक्टर स्तर पर ही ऐसी पहल नही है बल्कि कश्मीरियों के दर्द के दक्षिणी श्रीनगर के एसपी समेत कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियो ने समझा और उनके दर्द पर मलहम लगाने का प्रयास यह कहकर किया कि पुलिस आपके साथ हैं। लेकिन साथ खडे अर्द्दसेनिक बल भी इसे बर्दाश्त नही कर पाये और एसपी स्तर के अधिकारी से सड़क पर ही भिड़ गये। घाटी में तैनात साठ हजार से ज्यादा अर्धसैनिक बल में सत्तर फीसदी जवान दक्षिण भारत के हैं। यानी भाषा और संसकृति के लिहाज से भी कोई मेल कश्मीर के साथ इनका होता नहीं है। समूचे घाटी में रिहायशी इलाकों के बीच अर्धसैनिक बलो के तीन सौ से ज्यादा कैंप टैंट में कंटीली तारो से घेरकर बने हुये हैं जिसमें करीब बारह हजार जवान रहते हैं। वहीं पुरानी इमारतो या स्कूल में करीब सवा सौ से ज्यादा कैंप सीआरपीएफ के हैं। जिसमें छह से सात हजार जवान रहते हैं। यानी कश्मीरियो की दिनचर्या के बीच करीब बीस हजार जवानों की मौजदूगी हमेशा रहती है। लेकिन इस मौजूदगी का मतलब सिवाय कैंप के भीतर का जीवन और हर दिन नौ से बारह घंटे तक सडक पर पैदल पैट्रोलिंग से आगे कुछ भी नही है। लेकिन कश्मीरियों के लिये हर मोड और हर कैप से सामने से सहमते हुये निकलना जीवन का हिस्सा है। जवानों के हर कैंप के सामने बालू की बोरिया और टीन की छत के बीच ड्रम के बीच से झाकती बंदूक की नली कश्मीरियों को देखती रहती हैं। यानी एक आम कश्मीरी और जवानों के बीच संवाद का एकमात्र माध्यम जवानों की गरजती आवाज के बीच सहम कर ठहरे कश्मीरी के कपड़ों की जांच या फिर उसका पहचान पत्र देखना है।
वहीं समूचे घाटी में तकरीबन पांच सौ थाने, चौकी और पुलिस मदद केन्द्र हैं। कमोवेश घाटी के हर अस्पताल में एक पुलिस चौकी है, जिससे कोई कश्मीरी गोली खाकर इलाज के लिये पहुंचे तो उसे पुलिस कार्रवाई का इंतजार न करना पडे । यानी गोली से तो जम्मू-कश्मीर पुलिस किसी को नहीं रोक सकती लेकिन इलाज में कोई रुकावट न आये इसके लिये पुलिस का सहयोग है। फिर घाटी के रिहाइशी इलाको में थानो और चौकी पर तैनात पुलिसकर्मियों का घर भी कश्मीर के उन्हीं रिहायय़ी इलाकों में है, जिसमें कोई आम कश्मीरी रहता है। मसलन घाटी में बीस साल पहले जब आतंक की हवा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया के अपहरण से जोर पकड़ा, उस वक्त सोपोर के बाजार थाने का इंस्पेक्टर हुर्रियत नेता के घर किरायेदार था। और अलगाववादियों के आंदोलन ने जबतक राजनीतिक उड़ान नहीं भरी, तब तक हुर्रियत के तमाम नेताओं की आवाजाही कश्मीरियों के बीच ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी आम शख्स की होती है। मसलन बेकरी के धंधे में एक साथ कामगार का काम अलगाववादियों से जुडे सैकड़ों कार्यकर्ता भी नजर आते थे ।
लेकिन आंदोलन या संघर्ष को जो राजनीतिक जगह दिल्ली और इस्लामाबाद से मिली, उसमें झटके में अलगाववादी कश्मीरियों से कटते गये। क्योंकि जिन्दगी जीने के लिये रोजगार बदल गये। अचानक राजनीति ही रोजगार का रुप ले बैठी। कह सकते हैं रिहाइशी उलाको में आम कश्मीरियो के बीच रहते हुये भी अलगाववादियों का जीवन अलग हो गया। लेकिन इस दौर में पुलिस की जरुरत जब सबसे ज्यादा सरकार को प्रशासन चलाने में पड़ी तो जम्मू-कश्मीर पुलिस आम लोगो से जुडती चली गयी। लेकिन पुलिस के सामने इसी दौर में अगर बाहर से पहुंची सेना के पीछे चलने और रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी आयी तो दूसरी तरफ राज्य सरकार का नजरिया भी सेना को कश्मीरियों का दोस्त बनाने और कश्मीरियों की हिंसा को थामने में ही लगा। यानी कश्मीर पुलिस झटके में राज्य सरकार की पहली जरुरत नही बनी। टूटते संवादो के बीच संस्थानो का महत्व भी सत्ता पाने और उसकी ताकत के आसरे ही चल पड़ा ।
उमर अब्दुल्ला चाहे विरासत का बोझ उठाये संसद में कश्मीरियो के दर्द का इजहार कर कश्मीरियों के दिल में जगह बनाने में सफल हुये। लेकिन सत्ता के तौर तरीकों में उन्हे सत्ता की मुखालफत कैसे करनी होगी, यह तमीज भी संसदीय राजनीति ने उन्हें सिखा दी। यानी सीआरपीएफ हो या अलगाववादी, राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार , सरकारी महकमो की नीतियां हो या केन्द्र की राहत नीति सबकुछ कश्मीरियों के सामने किसी सत्ता की ठसक की तरह ही आ रही हैं। जिसमें कश्मीरियों के सामने पहली बार कश्मिरी पंडितों सरीखा संकट आया है, जब सारे संस्थान उसके लिये होकर भी उसके नहीं बच रहे क्योकि सत्ता की जरुरत और उसकी भावनाओं के बीच कोई संवाद का जरीया नही बच रहा है। जिसमें पहली बार कश्मिरियों को यह भी समझ में आ रहा है कि टूटते संवादों के बीच वह निरा अकेला होता जा रहा है। क्योकि रोजी रोटी के जुगाड से लेकर शवों को दफनाने तक के बीच उसकी भावनाओ के लिये कोई जगह बच नही है। इसलिये सवाल सिर्फ पत्थर उठाने का नहीं है बल्कि 11 जून को राजौरी कडाल क्षेत्र मारे गये 19 साल के तुफैल से लेकर 6 जुलायी मैहसूना में मारे गये 18 साल अबरार खान के बीच बाकी नौ लडकों की मौत से आहत कुल ग्यारह गांव अलग-थलग हैं। और सभी अलग थलग है। और इस बीच इन ग्यारह जगहो पर तैनात जवान एक गांव से दूसरे गांव पहुंचे है, लेकिन सरकार कहीं नहीं पहुंच पायी। उमर अब्दुल्ला श्रीनगर में ही कैद रहे। ऐसे में सेना और कश्मीरी के बीच सिर्फ जम्मू-कश्मीर पुलिस खड़ी है। और कश्मीरियों के आक्रोश की एफआईआर दर्ज करने के लिये अब भी तैयार है, जिसमें कोई भी थाने में जाकर लिखवा सकता है कि उसे खुली हवा में सांस लेने की इजाजत तो मिलनी चाहिये। या फिर यह भी पालिटिकल स्टेटमेंट है। यकीन जानिये पुलिस इसे भी दर्ज करेगी और यही राहत घाटी में बची है, जो सभी को जिलाये हुये है।
Thursday, July 8, 2010
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शरद जी, शुक्र मनाइये न्यूज चैनल पटरी पर नहीं हैं |
भारत बंद के दिन लालकृष्ण आडवाणी घर से नहीं निकले। लेकिन अगले दिन बंद को सफल बताने के लिये घर पर कार्यकर्ताओं को बुलाकर बंद को सफल बनाने के लिये भाषण देकर उनकी पीठ जरुर ठोंकी। आडवाणी के करीबियों ने न्यूज चैनलों में अपने खासम-खास को यह कहकर कवर करने का न्यौता दिया कि यह आपके लिये एक्सक्लूसिव है। भारत बंद के एक दिन पहले दिल्ली से लेकर पटना तक एनडीए का हर नेता न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों से पूछ रहा था आप कब कहाँ पहुँचकर बंद को कवर करेंगे। वक्त बताइये तो हम भी वहाँ उसी वक्त पहुँच जायें। कुछ नेताओं ने अपना वक्त और जगह पहले ही रिपोर्टरों को बताया, जिससे उनके आंदोलन की छवि न्यूज चैनलों के जरिये घर-घर पहुँचे। यानी मंहगाई को लेकर न्यूज चैनलों और नेताओं के बीच सहमति की एक महीन लकीर खींची जा चुकी थी कि बंद का प्रोपगेंडा कैसे नेताओं और भीड़ के जरिये होगा।
इसके बावजूद शरद यादव बंद के बाद मीडिया पर यह कहते हुये बिफरे की उस बहस का क्या मतलब है कि बंद से मंहगाई कम नहीं होगी, तो फिर आम लोगों को तकलीफ देकर बंद की जरुरत क्या थी। शरद यादव का दर्द जायज है, क्योंकि बंद तो राजनीतिक व्यायाम सरीखा होता है और यह पाठ उन्होंने लोहिया से लेकर जेपी तक से जाना है। जेपी तो संसदीय राजनीति को मजबूत बनाने के लिये बंद और प्रदर्शन को एक महत्वपूर्ण हथियार मानते थे। वही लोहिया तो जनता को उकसाते थे कि सरकार काम ना करे या सांसद-मंत्री बेकार हो जायें तो पाँच साल इंतजार ना कीजिये। ऐसी राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद अगर न्यूज चैनल बंद पर ही बहस खड़ी कर मनोरंजन परोसने लगे, तो शरद यादव को गुस्सा तो आयेगा ही। लेकिन यहाँ सवाल मीडिया का है जिसे खबरों को कवर करने की भी एक ट्रेनिंग मिली है। अगर वही ट्रेनिंग न्यूज चैनलों के जरिये इसी भारत बंद को कवर करने निकल पड़े तो फिर क्या होगा। चूँकि मुद्दा मंहगाई का है तो बात आम लोगों के दर्द और बंद कराने निकले नेताओं की रईसी से शुरु होगी। बीते छह साल में जबसे यूपीए की सरकार है देश में मंहगाई औसतन तीस से पचास फीसदी तक बढ़ी है और इसी दौर में बाबुओं की आय में औसतन इजाफा 12 फीसदी का हुआ है। मजदूर और कामगार स्तर पर मजदूरी में आठ फीसदी का इजाफा हुआ है। मनेरेगा के आने से कामगारो की किल्लत हर राज्य में हुई है जिसकी एवज में देश के नौ फिसदी कामगारो का आय सौ फीसदी तक बढी है और जिसका भार मध्यम तबके पर पचास फीसद तक पड़ा है। वहीं इसी दौर में कॉरपोरेट सेक्टर के मुनाफे या टर्नओवर में औसतन सवा सौ फिसद तक की बढ़ोतरी हुई है।
लेकिन मंहगाई को मुद्दा बनाकर राजनीति साधने निकले राजनेताओं की आय में सौ से दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ है। खासकर सांसदो की संपत्ति और सरकारी खजाने से मिलने वाली सुविधायें दुगुनी हुई हैं। जितने भी चेहरे बंद के दौरान सड़क पर नजर आये, उन सभी की संपत्ति करोड़ों में है। चाहे वह बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी हों या फिर संसद के दोनों सदनों के विपक्ष के नेता। खुद शरद यादव की भी संपत्ति भी करीब डेढ़ करोड़ की है। जबकि शरद यादव जानते होंगे कि लोहिया की जब मौत हुई तो उनके घर का पता भी कोई नहीं था और जानकारी के लिये बैंक एकाउंट के जरिये पता खोजने की बात हुई तो यह जानकारी मिली की लोहिया का कोई एंकाउंट भी नहीं है। मीडिया को यकीनन यह कवर करना चाहिये था कि आम जनता से कैसे और क्यो नेताओ के सरोकार खत्म हो चले हैं, इसलिये बंद का मतलब सिर्फ राजनीतिक कवायद पर आ टिका है। करोड़पति नेताओं के सामने आम आदमी की औकात क्या है यह सरकार के ही प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से समझा जा सकता है। क्योंकि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बंगाल समेत उत्तर-पूर्व के सभी सातों राज्यों में आज भी प्रति दिन की औसत कमाई 50 रुपये से 80 रुपये के बीच है। लेकिन सासंदो की लॉण्ड्री का औसत प्रतिदिन का खर्चा सौ रुपये से ज्यादा का है। और जो आम आदमी के टैक्स से दिये रुपये से खर्च होता है।
देश के आज जो हालात हैं उसमें न्यूज चैनलों को नेताओं के चमकते-दमकते कपड़ों पर कितने खर्च हुये - यह सवाल भी करना चाहिये। पूछना यह भी चाहिये कि सड़क पर आने से पहले आपने नाश्ता क्या किया और दूध या जूस किस फल का पिया? लेकिन मुश्किल है कि रिपोर्टर यह सवाल पूछने से इसलिये नहीं घबराता है कि नेता गुस्से में आ जायेगा, बल्कि उसका अपना पेट उसी तरह भरा हुआ है। लेकिन जनता से नेता यूँ ही नहीं कटा है। संसद ही आमजन से कैसे दूर है यह इनकी संपत्ती देखकर समझा जा सकता है। राज्यसभा के दो सौ सांसदो की संपत्ति को अगर सभी में बराबर-बराबर बांटा जाये, तो हर के हिस्से में बीस से पच्चीस करोड़ आयेगा और लोकसभा के 545 सांसदो की संपति अगर बराबर बांटी जाये तो हर के हिस्से में पांच से छः करोड़ आयेगा। यहाँ नेता सवाल खड़ा कर सकते हैं कि करोड़पति नेता को आंदोलन करने की इजाजत नहीं है क्या? यकीनन है। और सासंदो की तनख्वाह अस्सी हजार महिनावार हो जाये इस पर सभी सांसद एकजूट भी हैं। फिर भारत बंद को 74 के आंदोलन से जोड़ने की जो जल्दबाजी नेताओं ने दिखायी, वह भी कम हसीन नहीं है। जबकि सड़क पर उतरे सभी नेताओं के जहन में 74 की तस्वीर जरुर होगी। उस वक्त नेताओं की फेरहिस्त में जेबी कृपलानी, मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर , चरण सिंह , जार्ज फर्नांडिस सरीखे नेता थे। जो खास तौर से संपत्ति और सुविधाओं को लेकर सचेत रहते थे। जिससे आम आदमी को यह महसूस ना हो कि नेता उससे कटा हुआ है। और यह संवाद अक्सर संसद के भीतर नेहरु से लेकर इंदिरा की रईसी पर उंगली उठाकर किया जाता था।
लेकिन आम आदमी के बीच सड़क से राजनीति करते हुये सत्ता की अब की राजनीति ही जब मंहगाई जैसे मुद्दे पर ममता बनर्जी, लालू यादव , मायावती और राज ठाकरे को घर में कैद कर देती है, तो यह सवाल उठना जायज है कि भारत बंद राजनीतिक व्यायाम है और मंहगाई एक तफरी का मुद्दा। क्योकि चंद दिनो बाद संसद का मानसून सत्र शुरु होगा और यकीन जानिये सत्र की शुरुआत होते ही मंहगाई के मुद्दे पर संसद ठप कर दी जायेगी। और संसद की कैंटीन में कौड़ियों की कीमत में बिरयानी-चिकनकरी खाकर या एक रुपये में ग्रीन लीफ की शानदार चाय पीकर न्यूज चैनलों के कैमरों के सामने मंहगाई पर आंदोलन के गीत गाये जायेंगे और न्यूज चैनल के संपादक भी इसे ही खबर मानकर दिखायेंगे और न्यूज चैनल होने का धर्म निभायेंगे। इन हालात में तो शरद यादव को खुश होना चाहिये कि अगर राजनीति पटरी से उतरी है तो मीडिया भी पटरी से उतरा है और बीते छह साल में संपादक भी करोड़ों बनाकर मॉडल की मौत की गुत्थी सुलझाने से लेकर धौनी की शादी में खो जाते हैं। क्योंकि मीडिया पटरी पर लौटी तो मुश्किल राजनेताओं को होगी। आईये हम-आप दोनों प्रर्थना करें काश ऐसा हो जाये।
Friday, July 2, 2010
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मोदी-नीतीश टकराव की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा |
सोमनाथ मंदिर के परिसर में कैमरा जैसे ही समुद्र की विराट लहरों से मंदिर की अट्टलिकाओं को दिखाता है, वैसे ही अमिताभ बच्चन की आवाज गूंजनी शुरु होती है और सोमनाथ की कथा के बीच मंदिर के घंटों और नगाड़ों के शोर के बीच खो जाती है। कभी गजनी ने सोमनाथ मंदिर को लूटा था और कभी लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से ही अयोध्या के लिये कूच किया था। गजनी के आसरे सोमनाथ की कथा में राजनीतिक पैनापन आता है। यह आज भी सोमनाथ मंदिर के पिछवाड़े मुक्ताचल थियेटर में होने वाले साउंड एंड म्यूजिक कार्यक्रम में सुन कर महसूस किया जा सकता है। लेकिन अयोध्या रथयात्रा की गूंज अब सोमनाथ में नहीं होती। आडवाणी की रथयात्रा ने अयोध्या को राममंदिर तो नहीं दिया लेकिन बाबरी मस्जिद को जमीनदोख्त करने की जमीन जरुर तैयार कर दी और उससे उपजे सांप्रदायिक सवाल आज भी समाज के ताने बाने को छिन्नभिन्न किये हुये हैं। मगर अमिताभ बच्चन की गुजरात कथा में इसका एहसास नहीं है। गुजरात कथा कहने का पहला आइडिया अमिताभ बच्चन का ही था और राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से पहली मुलाकात में इस आइडिया को देने से चंद घंटे पहले ही अमिताभ ने हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला नरेन्द्र मोदी को भेंट में दी थी। वही मधुशाला जिसमें बच्चन ने साफगोई के साथ लिखा मंदिर-मस्जिद भेद बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला।
लेकिन गुजरात में नरेन्द्र मोदी की राजनीति में मधुशाला फिट बैठती नहीं है, तो क्या मोदी मधुशाला के जरिये गुजरात से आगे की राजनीति देख रहे हैं। अमिताभ बच्चन चाहे अपने बाबूजी यानी हरिवंश राय बच्चन की कविताओं को गाहे-बगाहे गुनगुनाकर अपने कवि प्रेम को छलकाते रहें लेकिन नरेन्द्र मोदी का दिल कवि ह्रदय नहीं है, जो वह संकेत और बिंब की भाषा का प्रयोग करें। उन्हे मंदिर-मस्जिद से ज्यादा हिन्दू-मुस्लिम समझ में आता है। इसीलिये बच्चन की गुजरात गाथा में चंद मुस्लिम चेहरे भी हैं। जो युवा हैं। छात्रायें हैं। जिन्हे गर्व है कि वह गुजरात में हैं।
लेकिन मुस्लिम चेहरो को गुजरात में समेटने का मतलब मोदी की गाथा को अब गुजरात में समेटना सही नहीं होगा। भाजपा जिस मिसफिट तरीके से खुद को बनाये हुये है उसमें मोदी की राजनीति को अगर हटा दें तो लगता यही है कि 2014 में भी भाजपा के रनवे पर ही कांग्रेस उतरेगी । अमिताभ बच्चन गुजरात में फिट बैठते हैं लेकिन गुजरात के बाहर नहीं और गुजरात के बाहर निकलने के लिये अमिताभ बच्चन की जरुरत मोदी को है। यह सवाल इसलिये मौजूं है क्योंकि मोदी की पहचान गुजरात से है या गुजरात की पहचान मोदी से है , दोनो परिस्थितयों में गुजरात कथा बगैर मोदी के पूरी होती नहीं है। तो अमिताभ बच्चन एक हाथ में मधुशाला और दूसरे हाथ में मोदी का हाथ थामे कैसे बीते एक दशक के गुजरात के सच को छुपाकर कथा वाचन करेंगे। भुज से लेकर सूरत और द्वारका से लेकर गांधीनगर घूमते अमिताभ बच्चन को कैसे वह सब नजर नहीं आयेगा जो गुजरात की हकीकत है। अमिताभ क्या मोदी के उस राजनीतिक प्रयोग की गंध से दूर रह पायेंगे जो गुजरात में बतौर संविधान की रक्षा करने वाले पद पर बैठ कर उसकी घज्जियां उड़ाते हुये मोदी ने किया। अमिताभ तो बाबूजी यानी हरिवंशराय बच्चन का नाम बार बार लेते हैं। वह यह भी जानते है कि नेहरु ने हरिवंशराय बच्चन की नौकरी के लिये क्या कुछ किया। और नेहरु ने ही संविधान लागू होने वाले दिन अपने भाषण में यही कहा था , भारत की सेवा का मतलब देश के करोड़ों लोगों की सेवा है । गरीबी और असमानता दूर करना है । हर आंख से आंसू पोंछना है । यह मुश्किल जरुर है । लेकिन नेताओं का काम यही है और जब तक सभी आंखों से आंसू खत्म नहीं होते तब तक हमारा काम अधूरा है।
लेकिन मोदी की राजनीति ने एक कौम की आखो में आंसू और दिल में जख्म दे कर ही अपनी सत्ता संवारी। यह सब अमिताभ बच्चन को दिखायी तो नहीं देगा क्योंकि कब्र पर उगी हरी घास की तरह ही गुजरात के घाव पर वाईब्रेंट गुजरात रेंग रहा है। जिसमें मनमोहन सिंह की विकास गाथा भी है और कारपोरेट घरानों का संसदीय राजनीति को ठेंगा दिखाने का रुतबा भी। तो अमिताभ के वाचन में गुजरात कथा भी इसी में खो जायेगी। लेकिन हीरे की चमक और तराशी के लिये जब सूरत का जिक्र होगा तो क्या अमिताभ भूल जायेगे कि वाईब्रेंट गुजरात में सूरत ही एकमात्र शहर था, जहा मंदी के दौर में हर दिन दो डायमंड वर्कर खुदकुशी कर रहे थे। और आज भी सैकड़ों कामगार हीरे का हुनर छोड़ मजदूर बन चुके हैं।
बहुत मुश्किल है सौराष्ट्र की जमीन पर खड़े होकर औधोगिक विकास की कथा बाची जाये और सौराष्ट्र-भुज के उन एनआरआई के दर्द को भूल जाया जाये जो दंगो से लेकर भूंकप में सबकुछ गंवा बैठे और उनकी जमीन पर राजनीतिक विकास का अनूठा खेल शुरु हुआ, जिसकी एफआईआर आज भी कहीं लिखी नहीं जाती। लेकिन नरेन्द्र मोदी अब अमिताभ बच्चन के जरीये मनमोहन सिंह और चिदंबरम की नीति को ही जिस सलीके से राजनीतिक एफआईआर बना रहे है, वह एक साथ कई सवाल खड़ा कर रहा है। देश की समझ और विकसित कहलाने की कला में एक सच तो यह है ही कि अब इस देश में कोई दूसरा गुजरात संभव नहीं है। लेकिन गुजरात का मिजाज अगर बदल दिया जाये तो देश के कई हिस्सो में आज भी गुजरात हो रहा है और सत्ता अपना राजधर्म छोड कर काम कर रही है , इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
मोदी गुजरात के दाग को धोना चाहते है लेकिन तरीका बाइब्रेंट गुजरात का है । जिसमें मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति और चिंदंबरम की आंतरिक कानून व्यवस्था ही सहारा है । और उसपर कांग्रेस के मुस्लिम प्रेम का लोप है। समूचे सौराष्ट्र में जो धंधे दंगों में चौपट हुये और हुनर खत्म हुये उसे दुबारा जगाने के लिये बडी पूंजी वालो को मुनाफे का चस्का दिखाकर नये उद्योग शुर किये जा रहे हैं । बाइब्रेंट गुजरात का यह रंग बाजार में तो सजेगा लेकिन सौराष्ट्र के अल्पसंख्यक समुदाय के ताबूत पर एक कील और गाढेगा। क्योंकि राहत शिविरों से लेकर अलग अलग रास्तों से हाथ का जो हुनर बाजार में पहुंचता है, उसकी कीमत के आगे मशीनी कारीगरी बेहद सस्ती है। इसलिये गुजरात की मुश्किल बाइब्रेंट होना भर नहीं है बल्कि हथियारो का धार के बाद अब बाजार की धार उन्हें खत्म कर रही है।
मुस्लिम छात्राओं की तस्वीरें तो गुजरात गाथा के साथ जोड़ी जा सकती है लेकिन मुस्लिमों के रोजगार के सारे रास्ते और राहत देने वाले सारे सरकारी रास्ते उन्हें 2002 का मुस्लिम ही बनाये रखना चाहते हैं। क्योकि तभी हिन्दू मन को राहत मिल सकती है। लेकिन गुजरात के विकास दर की छलांग अगर मनमोहन सिंह की अर्थनीति को छूने लगे तो मोदी को खारिज कौन कर सकता है। मनमोहन सिंह भी परतों को उठाकर सामाजिक हकीकत तो देखना चाहेगे नहीं क्योकि उनकी विकास की धारा तले की परतें उठी तो सामाज का सच किसान-आदिवासी-ग्रामीण के सवाल पर कही ज्यादा छीछा-लेदर कर सकता है। तो बाइब्रेट गुजरात का तमगा तो मनमोहन सिंह भी मोदी से नहीं छिन सकते। फिर आंतरिक सुरक्षा की जिस लडाई को चिदंबरम तूल दे रहे हैं, मोदी उसी को औजार बनाकर अपनी गाथा को भी लिख रहे हैं। गुजरात के आदिवासी और जंगलों को बचाने का संघर्ष भी दो दशक से ज्यादा पुराना नहीं है। लेकिन चिदंबरम ने जिस तरीके अब माओवाद की हवा बहायी तो उसका लाभ नरेन्द्र मोदी भी लेने से नही चूक रहे। आतंक के फंदे में मुस्लिमों को लाने के खेल से आगे का खेल माओवाद के घेरे में अब उन संघर्ष करने वालो को लाने का शुर किया गया है जो किसी ना किसी रुप में मोदी के राजधर्म के खिलाफ है। कभी डांग में आदिवासियो को खदेड़ कर उनसे जमीन छिनने के खिलाफ हुये संघर्ष से जुडे लोग दस-पन्द्रह साल बाद माओवादी करार दे कर जेल में ठूंसे जा रहे हैं। सूरत में दर्जन भर बंद है तो राजकोट-बडोदरा में कई दर्जन। माओवाद का तमगा लगाने के बाद राज्य पर कोई अंगुली उठा नहीं सकता क्योकि यह लाइसेंस भी देश के गृमंत्रालय ने दे दिया है। तो मोदी इस लाभ को उठा कर अपनी राजनीतिक गाथा को भी केन्द्र सरकार से कहीं आगे ले जा रहे हैं।
ऐसे में जो सवाल मोदी को बार बार डिगा सकता है वह मुस्लिमों का है। इस पर कांग्रेस का लेप चढाकर मोदी एक नयी राजनीति की शुरुआत भी बिहार से कर रहे हैं। कांग्रेस ने मुस्लिमों को सिर्फ इस्तेमाल किया यह बात बिहार की राजनीति में खुलकर लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार करते है। बिहार की राजनीति में कांग्रेस ना सिर्फ हाशिये पर है बल्कि भागलपुर दंगों के बाद से वनवास का दर्द छेल रही है। और भागलपुर की टीस बिहार में अयोध्या और गुजरात से आज भी ज्यादा है। लेकिन बिहार में कोई भी कांग्रेसी पोस्टर मुस्लिम के बगैर अधूरा माना जाता है । मोदी ने कांग्रेस के इसी मुस्लिम प्रेम में अपने मुस्लिम प्रेम को जोडकर एक तीर से कई निशाने साधने की पहल की है। मुस्लिमों को लेकर भाजपा का राजनीति दर्द यही है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद कोई नेता है नहीं जो मौलाना टोपी पहन कर संघ राजनीति को आगे बढ़ाये। और बाइब्रेंट मोदी के अलावे भाजपा के पास कोई नेता है नहीं जो हिन्दुत्व की गर्मी तले विकास की चादर भी ओढे और केन्द्र सरकार को ठेंगा भी दिखाये। मोदी की यही राजनीतिक समझ उन्हें बार बार गुजरात से बाहर ले जाने के लिये प्रेरित करती है। बिहार में नीतीश के साथ खुद को दिखाकर मुस्लिम प्रेम की जो लकीर नरेन्द्र मोदी खींचना चाहते थे, वह उनकी राष्ट्रीय मान्यता पाने की महत्वकांक्षा का अक्स है। लेकिन दूसरी तरफ मोदी को गुजरात में समेट देना नीतीश की राष्ट्रीय मान्यता पाने की महत्वकांक्षा का भी हिस्सा है। बिहार के सभी मुस्लिम नीतीश के साथ आ जायेगे यह सोचना भूल होगी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम समुदाय नीतीश को मौलाना नीतिश के तौर पर मान्यता दे देगा, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिये नीतीश-मोदी की तकरार बीजेपी-जेडीयू की तकरार नही है बलिक गुजरात और बिहार के बाहर राष्ट्रीय महत्वकांक्षा लिये हुये मोदी-नीतीश का टकराव है, जिसका लाभ संसदीय राजनीति में कौन तीसरा उठायेगा....देखना यह दिलचस्प होगा।