सपनों के इस शहर के प्रचार के लिए ब्रांड एम्बेसेडर भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह घोनी हैं। तो गाहे बगाहे एफएम पर जो प्रचार की आवाज सुनायी देती है वह बीजेपी सांसद शत्रुध्न सिन्हा सरीखी है। अब आवाज डुप्लीकेट की भी हो सकती है मगर डायलॉग वही "खामोश" वाला है। खैर 6 लाख करोड़ की प्लानिंग को पास करने के लिये सरकार को राजनीतिक रकम भी चाहिये। तो अब उसकी सौदेबाजी पांच से दस हजार करोड़ के बीच की है । सौदेबाजी कितने में होगी यह तो कोई कभी नहीं बता पायेगा क्योकि यह रकम भी किसी दस्तावेज में लिखी आपको नहीं मिलेगी। लेकिन इस पर सहमति का ठप्पा भी अब एक महिने के भीतर लगेगा ही। क्योकि उत्तरप्रेदश में 2012 के विधान सभा चुनाव से पहले अगर सपनों के इस शहर की कोई योजना अटकी और कही राज्य में सत्ता परिवर्तन हो गया तो फिर करोड़ों का प्रसाद नयी सरकार को भी चढ़ाना पड़ जायेगा। इसलिये जिस तेजी से 500 एकड़ हरित जमीन को कंक्रीट बनाने के लिये ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण लगा है और लखनऊ से दिशा-निर्देश दिये जा रहे हैं, उसमंे सहमति की लकीर इतनी मोटी है कि कोई भी रकम मायने नहीं रख रही।
मगर एक नजर जरा पर्यावरण को लेकर इस सपनों के शहर से लेकर दादरी के रिलायंस पावर प्रोजेक्ट तक पर डालनी जरुरी है। लेकिन पहले यह भी समझ लेना होगा कि जिन लोगो ने यहा घर बुक किये हैं, उसमें से नब्बे फीसदी ऐसे हो जिनके पास कहीं ना कहीं पहले से अपना घर हैं। तो फिर सपनो के इस शहर की जरुरत किसे है। और विकास की इस लकीर का मतलब है क्या। यह सवाल जरुरी इसलिये है क्योकि हिंडन नदी के जिस मुहाने पर यह पूरा प्रोजेक्ट बन रहा है, अगर वहां से दादरी तक की जमीन को देखे तो करीब बीस किलोमीटर तक की जमीन पूरी तरह खेती वाली है। तीन-चार फसली इस जमीन पर सिंचाई को कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। यहा एक प्वाइंट बिजली भी नहीं है, जो किसानों को एक बल्ब की रोशनी दे सके। खेत में पानी जमीन से मोटर पंप के जरीये ही खींचा जाता है। बिजली न रहने की वजह से डीजल पर ही समूची सिंचाई व्यवस्था टिकी है। खाद और बीज भी यहां के खिसानों को सरकार से कम राशनिंग कीमत पर नहीं मिल पाता है। यानी मायावती का 21 सूत्रीय कार्यक्रम का जो बोर्ड समूचे लखनऊ शहर में पटा पडा है, उसमें किसानों को दी जानी वाली कोई भी सुविधा यहां के किसानों के पास नहीं है या कहें उन्हें मिलती नहीं है। जबकि राज्य भर में मायावती की मुनादी है कि किसानों को सिंचाई के लिये जो इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये, उसपर बाबुओं को तुंरत कार्रवाई करनी चाहिये।
जिन किसानों की जमीन सपनों के शहर के प्रोजेक्ट में चली गयी या जिन्होंने दे दी है, उनके मुताबिक उनके सामने और कोई विकल्प था भी नहीं। क्योंकि खेती को लेकर उनके साथ जानबूझकर नकरात्मक रुख और कोई नहीं सरकारी बाबू ही अपनाता। इसलिये खेती का जितना खराब इन्फ्रास्ट्रक्चर इस इलाके में मौजूद है, उतना समभवत विदर्भ में है। जहां किसानों की रिकॉर्ड खुदकुशी जारी है। लेकिन यहां किसानों को इस बात के लिये प्रेरित किया गया कि उनकी खेती यह हो नहीं सकती है। अगर उन्हें खेती करनी ही है तो जमीन के बदले जो मुआवजा मिले उससे किसी दूसरे जिले में खेती की जमीन खरीद कर खेती करें।
सरकार अगर इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना चाहे और पुलिस प्रशासन अगर काम करने लगे तो क्या कुछ नहीं हो सकता, यह अब सपनों के शहर में जाने के लिये बने रास्ते पर चलते हुये आपको एहसास हो सकता है। फरवरी 2010 तक जिन इलाको में जाने के लिये हिंडन नदी पैदल पार करनी पड़ती और जहां बैलगाड़ी का चलना भी मुश्किल होता क्योंकि मिट्टी और पत्थरों के छोटे छोटे पहाड कुकुरमुत्ते की तरह रास्ते में खड़े थे। और सूरज ढलते ही जिन जगहों पर जुगनू घुमड़ते थे। शाम पांच बजे के बाद अकेले जाना मौत को दावत देना होता था। अब वहा चार लेन की सड़क पर शानदार बीएमडब्लू-टोयटा-मर्सिडिज सरपट भागते आप कभी भी देख सकते हैं। अंधेरा होने से पहले सड़क किनारे रोशनी जगमगाने लगती है। पुलिस की पेट्रोलिग जीप हमेशा सुरक्षा के लिये खड़ी रहती है।
सवाल है यह सब कुछ किसानों के लिये क्यो संभव नहीं है। आखिर क्यों सरकार या राज्य की प्राथमिकता अन्न का उत्पादन नहीं है। आखिर क्यों सत्ता यह नहीं चाहती की देश स्वावलंबी हो। आखिर किसान, मजदूर, आदिवासी या ग्रामीणों को इस देश में नागरिको के अधिकार भी नहीं मिलते। आखिर क्यों अपने ही नागरिको से छलकपट कर सत्ता एक हाथ राजनीतिक सौदा भी करती है और देश को बाजार में तब्दील कर खुद मुनाफे में हिस्सेदारी कर लोकतंत्र की दुहाई भी देती है। यह कैसे संभव है कि खादान्न की कमी को लेकर गरीबी की रेखा से नीचे वालों की संख्या को लेकर लगातार राज्य और केन्द्र टकराव हो। क्योकि अगर उत्तर प्रदेश में ही बीपीएल परिवार उसकी संख्या से ज्यादा होगे तो उसे अन्न ज्यादा देना होगा और राज्य लगातार कहे कि जो संख्या केन्द्र बता रहा है वो बीपीएल की असल संख्या का आधा भी नहीं है। बावजूद इसके सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही बीते दस साल में कुल खेती की जमीन का साढ़े छह फीसदी इसी तरह कंक्रीट के जंगल में तब्दील करने की इजाजत सरकार ने बिल्डरों को दे दी। और जहां जहां जमीन कंक्रीट में बदली वहां की जमीन के नीचे पानी पानी औसतन 200 फीट नीचे चला गया।
वैसे देश की हालत उत्तर प्रदेश से कही ज्यादा वीभत्स है। क्योकि खेती योग्य जमीन का आठ फीसदी इस दौर में कंक्रीट के हवाले कर दिया जा चुका है। फिर सोनिया गांधी की अगुवाई में एनएसी जब खाद्यान्न सुरक्षा कानून के जरीये गरीबी की रेखा से नीचे जिलो का ब्यौरा दिया गया तो केन्द्र सरकार ने उस पर सवाल खड़ा किये । यानी जब समूचा देश और समूची राजनीति और सारी सत्ता इस तथ्य से वाकिफ हो कि अन्न इस देश का पेट भरने के लिये पूरा नहीं है और अन्न का होना देश की पहली जरुरत है तो फिर विकास की लकीर उस घेरे को मजबूत करने की दिशा में क्यों बह रही है। जहां घरवालो के लिये घर बने। जिससे वह अपनी पूंजी को आर्थिक सुधार की धारा में बढ़ा सके। पैसेवालो के लिये घर के आहाते में ही पांच सितारा होटल,अस्पताल,मल्टीप्लेक्स,शापिंग सेंटर बने। और यह सब किसानों से धोखाघडी कर खेती की जमीन को स्वाहा कर बने। क्या विकास का यह खेल सिर्फ इसलिये नहीं खेला जा रहा है जिससे दस करोड़ की एवज में छह लाख करोड का धंधा कर एक तबके को इस भरोसे में लिया जा सके कि देश में लोकतांत्रिक विकास का ढांचा यही है। और इसका लाभ उठाने में जब सामूहिकता का बोध है तो यह अपराध नही लोकतंत्र है। ऐसे में अगर अपराध के लोकतंत्र के घटित होने से पहले और बाद का सीन आप नंगी आंखो से देखना चाहते हैं तो एक बार अभी जा कर इस पूरे इलाके की हरियाली के बीच खड़े होकर जमकर सांस लीजिये। आपको एहसास होगा की आपके भीतर शुद्द हवा जा रही है। और इसके बाद 2014 में आकर फिर देखियेगा। जहां सांस लेने का मतलब कंक्रीट के कणों को सांसों में ले जाना होगा। क्योकि 500 एकड़ पर जब ईंट-गारे का जंगल तैयार होगा तो अगली खेप में बाकि 500 एकड़ पर काम शुरु होगा। जिसका लाइसेंस यूपी की अगली सरकार देगी। और तब हो सकता है किसानों को 10 की जगह 15 करोड़ मिल जाये या फिर इस दौर में खेती और गांव कंक्रीट तले पूरी तरह खुद ही खत्म हो जाये और मुआवजा वह भी ना मिले। लेकिन यह तय है कि अगले फेस का धंधा 6 लाख करोड़ का नहीं 10 लाख करोड से ज्यादा का होगा। सवाल है विकास की यह धारा किसे मंजूर है और अविरल बह रही इस धारा में देश के 80 करोड़ लोगों टिकते कहां हैं?
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Thursday, August 26, 2010
10 करोड़ के मुआवजे पर 6 लाख करोड़ का धंधा (पार्ट-2)
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:23 AM
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नोएडा किसान
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2 comments:
Sir,
Aapne yeh bahut hi Jawlant Mutha UThaya. Done hi kishat bahut hi Satik Thi. Thank You. Ajit Sharma
"लाभ उठाने में जब सामूहिकता का बोध है तो यह अपराध नही लोकतंत्र है।"- शायद भ्रष्टाचार की मूल वजह आपकी इन्ही पंक्तियों में है...एक सामाजिक मान्यता...जिसमें आपको ग़लत ठहराने वाला कोई न हो...खेल तो चलता ही रहता है..विडंबना ये है कि जिसको भी लाभ दिखता है...वो विरोध नहीं...इसी सामूहिकता का हिस्सा बनना चाहता है...भले ही लोकतंत्र का नाम बेच कर क्यूं न हो.....
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