मेरे सामने पत्रकारों की जमात जब सवाल कर रही थी, तो लगा जैसे सवाल पत्रकार नहीं कॉरपोरेट के दलाल पूछ रहे हैं? और यह सुनते ही हॉल में तालियां बज उठीं। यह वाक्या 31 जुलाई को हंस के सालाना जलसे में स्वामी अग्निवेश के भाषण के दौरान का है। इसी तरह 11 जुलाई को उदयन शर्मा की पुण्यतिथि के मौके पर जो जमावड़ा हुआ और उसमें पेड न्यूड से निकली चर्चा जिस तरह हाशिये पर जा पहुंची और सत्ता के आगे पत्रकार से लेकर चुनाव आयोग भी जैसे नतमस्तक दिखा, उसने कई सवाल एक साथ खड़े किये।
चुनाव आयुक्त कुरैशी बोले कि चुनाव आयोग की सिर्फ तीन महीने चलती है और उस दौरान भी सत्ता के आगे उसके हाथ बंधे होते हैं। तो कांग्रेस के नेता दिग्विजय यह कहने से नहीं चूके की चुनाव में भागेदारी जनता की होती है, आप उसमें खर्च होने वाले धन को लेकर क्यों परेशान होते हैं। चुनाव आयोग रोक का एक रास्ता बनायेगा तो नेता कोई दूसरा रास्ता निकाल लेगा।जाहिर है, इन बहसों ने पहली बार एक नया सवाल यही उठाया कि क्या अब लोकतंत्र ही खतरे में है। जहा हर सत्ता संस्थान अपने आप में अधूरा है। और इसके जवाब के लपेटे में कई संपादको ने जिस तरह पंतग उड़ाई उससे एक हकीकत तो साफ तौर पर उभरी कि अगर लोकतंत्र का पैमाना इस देश में बदला जा रहा है और राजनीतिक अर्थशास्त्र की थ्योरी नये रुप में परिभाषित हो रही है तो उसमें सूचना-तंत्र की भूमिका सबसे बड़ी है और मीडिया को पत्रकारिता से इतर सूचना-तंत्र में तब्दील किया जा रहा है। यानी पत्रकारिता की शून्यता इसी मीडिया में सबसे ज्यादा घनी है। और उसे भरेगा कौन यह सवाल लगातार कुलांचे मार रहा है।
असल में मीडिया को लोकतंत्र के चौथे खम्भे के तौर पर देखने से ही बात शुरु करना होगी। चौथे खम्भे का मतलब है बाकि तीन खम्भे अपनी अपनी जगह काम कर रहे हैं। और काम करने से मतलब संविधान के दायरे में काम कर रहे है, यानी सामाजिक सरोकार के तहत देश में संसदीय राजनीति की जो भूमिका है, उसे जीया जा रहा है। लोगो को लग रहा है कि उनकी नुमाइन्दगी संसद कर रही है। और संसद संविधान के तहत चल रही है इसके लिये न्यायपालिका अपनी भूमिका में मुस्तैद है। इसी तरह विधायिका भी देश को चलाने और नीतियों को लागू कराने को लेकर कहीं ना कहीं जिम्मेदारी निभा रही है। और निगरानी के तौर पर मीडिया जनता और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभा रहा है। अगर सत्ता अपनी सुविधा के लिये आम आदमी से जुडे मुद्दों को हाशिये पर ढकेल रही है तो मीडिया हाशिये पर मुद्दों को केन्द्र में लाकर सत्ता पर दबाव बनाये की उस तरफ ध्यान देना जरुरी है। नहीं तो जनभावना सत्ता के खिलाफ जा सकती है और संसदीय चुनाव का लोकतंत्र सत्ता परिवर्तन की दिशा में भी जा सकता है।
लेकिन संसदीय चुनावी तंत्र ही लोकतांत्रिक मूल्यों को समाप्त करने की दिशा में हो और हर खम्भा इसी दिशा को मजबूत करने में लगा हो तो मीडिया की भूमिका निगरानी की कैसी रहेगी। यह एक लकीर कैसे समूचे लोकतांत्रिक पहलुओं पर अंगुली उठाती है, इसे समझने के लिये महज खबरें खरीदने या बेचने की स्थितियों से जाना जा सकता है। सभी ने माना की 2009 के चुनाव में समाचार पत्र और न्यूज चैनलों ने जमकर पैकेज सिस्टम चलाया। यानी चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों से धन लेकर खबरो को छापा। सरकार की नजरों तले, प्रेस काउसिंल और एडिटर्स गिल्ड से लेकर चुनाव आयोग की सहमति के साथ इस बात पर सहमति बनी कि खबरों को धंधा बनाना सही नहीं है। जाहिर है इसका मतलब साफ है कि यह गैरकानूनी है । लेकिन कानून कभी एकतरफा नहीं होता । जैसे ही किसी मीडिया हाउस का नाम इस बिला पर लिया गया कि यह खबरों को धंधा बना रहा है तो सवाल यह उठा कि खबरों को खरीदने वाला अपराधी है या नहीं। यानी लोकतंत्र का चौथा खम्भा अगर बिक रहा है तो उसे खरीद कौन रहा है । और चौथे खम्भे को खरीदे बगैर क्या सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। या फिर सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में मीडिया की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी है कि बगैर उसके नेता की विश्वसनीयता बनती ही नहीं। और मीडिया अपनी विश्वविशनियता की कीमत खुद को बेच कर खत्म कर रहा है।
जाहिर है यहां सवाल कई उठ सकते हैं। लेकिन पहला सवाल है कि अगर चुनाव आयोग के बनाये दायरे को संसदीय चुनाव तंत्र ही तोड़ रहा है तो उसकी जिम्मदारी किसकी होगी। कहा जा सकता है यह काम चुनाव आयोग का है, जिसे संविधान के तहत चुनाव के दौर समूचे अधिकार मिले हुये हैं। लेकिन अब सवाल है कि अगर लोकसभा के कुल 543 में से 445 सीटों के घेरे में आने वाले इलाको की मीडिया ने नेताओ की खबर छापने के लिये पैकेज डील की , तो जाहिर है किसी भी नेता ने यह पूंजी चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित पूंजी में नहीं दिखायी होगी। तो क्या उन सभी चुने हुये संसद सदस्यो की सदस्यता रद्द नहीं हो जानी चाहिये? लेकिन यह काम करेगा कौन? चुनाव आयोग के पास अधिकार तो है लेकिन समूची संसदीय राजनीति पर सवालिया निशान लगाने की हैसियत उसकी भी नहीं है और खासकर जब चुनाव आयोग के पद भी राजनीति से प्रभावित होने लगे हो तो सवाल कहीं ज्यादा गहराता है। यहां समझना यह भी चाहिये कि संसदीय तंत्र की जरुरत चुनाव आयोग है। अकेले चुनाव आयोग की महत्ता न के बराबर है। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी संसद के सामने नतमस्तक है। क्योकि देश के लोकतंत्र की खूशबू यही कहकर महकायी जाती है कि संसद को तो जनता गढ़ती है। और उससे बडी संस्था दूसरी कोई कैसे हो सकती है।
यानी आखिरी लकीर संसद को ही खींचनी है और संसद के भीतर की लकीर बाहर के लोकतांत्रिक मूल्यो को खत्म करके ही बन रही है,तो फिर पहल शुरु कहां से हो। जाहिर है यहां मीडिया की निगरानी काम आ सकती है। लेकिन निगरानी का मतलब यहां संसदीय सत्ता से सीधे टकराने का होगा। टकराने से ही मीडिया को कोई घबराहट होनी नहीं चाहिये क्योकि मीडिया की मौजूदगी ने आजादी के दौर से लेकर इमरजेन्सी और शाईनिंग इंडिया तक के दौर से दो दो हाथ किये हैं। तो अब क्यों नहीं । अब भी का सवाल अब इसलिये गौण होता जा रहा है, क्योकि लोकतंत्र का पहला रास्ता ही खुद को बेचने के लिये तैयार खड़ा है। तो फिर यह लड़ाई कहां जायेगी। जाहिर है मिडिया के भीतर पत्रकारिता की शून्यता के बीच इन सवालों की गूंज कहीं ज्यादा है कि देश का मतलब अब नागरिक नहीं उपभोक्ता होना है। हक का मतलब मनुष्य नहीं है पूंजी के ढेर पर बैठा कोई भी हो सकता है। कह सकते हैं पांच सितारा होटल से लेकर पुलिस थाने तक में किसी आम आदमी से ज्यादा कहीं उस बुलडांग की चल सकती है, जिसके पीछे ताकत हो। और ताकत की मतलब अब पूंजी की सत्ता है। यहां से अब दूसरा सवाल जब नेता बनने से लेकर सत्ता तक चुनावी तंत्र का रास्ता पूंजी पर ही टिका है तो फिर आम आदमी या समाज से सरोकार की जरुरत है क्यो । यानी सौ करोड लोगो के हक के सवाल या जीने की न्यूनतम जरुरतो से जुड़कर संसदीय सत्ता गाठने की जरुरत है क्यों। जब एक तबके के लाभ मात्र से उसके जुठन के जरीये बाकियों की विकास धारा को संसद में ही परिभाषित किया जा सकता हो। यानी संसद के लिये देश का मतलब जब देश के 10 से 20 करोड़ लोगों से ज्यादा का न हो और बकायदा नीतियों के आसरे इन्हीं बीस करोड़ के लिये रेड कारपेट बिछाकर उसके नीचे दबी घास से बेफिक्र होकर कारपेट फटने पर कारपेट बदलकर उसी फटी करपेट के भरोसे देश का पेट और विकास की धारा को घेरे में लाया जा रहा हो तो फिर लोकतंत्र की नयी परिभाषा क्या होगी। क्योंकि यहां मीडिया भी रेड कारपेट तले दबी घास से ज्यादा कारपेट के फटने और उसे बदलने पर नजर टिकाये हुये है और उसकी निगरानी इसलिये भी घास को नहीं देख पायेगी क्योंकि लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाली संसद के चारों तरफ गरी घास नहीं रेड-कारपेट है और जीने की समूची परिभाषा ही रेड-कारपेट के जरीये बुनी जा रही है। यहां से तीसरा सवाल नुमाइन्गी का शुरु होता है।
पंचायत से लेकर संसद तक नुमाइन्दगी के लोकतांत्रिक तौर तरीके कितने बदल चुके है और नुमाइन्दगी का मतलब किस तरह सिर्फ खरीद-फरोख्त पर आ टिका है, उसमें लोकतंत्र के चौथे खम्भे की भूमिका क्या हो सकती है, यह भी समझना जरुरी है । जो जिस क्षेत्र का है उसे वहीं के लोगों की नुमाइन्दगी करनी चाहिये। यह कोई ब्रह्म-वाक्य नहीं है। मगर लोकतंत्र की यही समझ है और इसी आधार पर समूचे लोकतंत्र का ताना-बाना बुना गया। लेकिन इस लोकतंत्र को पूंजी ने कैसे, कब , किस तरह हर लिया यह लोकसभा के 75 तो राज्यसभा के 135 सदस्यों के जरीये समझा जा सकता है। पहले जाति और अब पूंजी के खेल ने लोकतंत्र को किस तरह निचोड़ा है, इसका अंदाजा असम से राज्यसभा में पहुंचे मनमोहन सिंह के जरीये भी समझा जा सकता है और बीते दिनो कर्नाटक से राज्यसभा में पहुंचे विजय माल्या या फिर राजस्थान से पहुंचे राम जेठमलानी समेत 11 सांसदो की कुंडली देखकर बी समझा जा सकता है। ऐसे कैसे हो सकता है कि मनमोहन सिंह के घर का जो पता असम का है, उस घर के पड़ोसी को भी जानकारी नहीं कि उनका पड़ोसी सांसद है और फिलहाल देश का प्रधानमंत्री। असल में नुमान्दगी अगर बिकी है तो उसके पीछे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाता एक लंबा दौर भी रहा है जिसमें संविधान की परिभाषा तक बदल दी गयी। और इसे बदलने वाला और कोई नहीं वही सत्ता रही जो खुद संविधान का राग जपकर बनी। गांव, किसान , आदिवासी , खेती , कश्मीर, मणिपुर, भोपाल गैस कांड, चौरासी के दंगे , 122 करोड का टी-3 टर्मिनल बनाम बिना फाटक के 345 रेल लाइन, करोड़पतियो में सवा सौ फीसदी की बढोत्तरी बनाम गरीबो में पैतीस फीसदी की बढोत्तरी। एक ही संविधान के दायरे में कैसे इतनी परिभाषा एक सरीखी हो सकती हैं। जहां लाखों आदिवासियों के जीने का हक चंद हाथों में बेच दिया जाये और संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में सिर्फ इसकी गूंज ही सुनायी दे और समेटने वाला सबकुछ समेट कर चलता बने। तो फिर मीडिया किसे जगाये। असल में इस पूरे दौर में हर मुद्दे को लेकर एक सवाल कहीं तेजी से सहमति बनाता हुआ बड़ा हुआ है कि जो सत्ता सोच रही है, और जिस पर संविधानिक संस्थानो की मुहर लगी है, अगर उस पर कोई सवाल कोई भी खड़ा करे तो वह लोकतंत्र के खिलाफ माना जा सकता है। मीडिया तो लोकतंत्र का पहरुआ है। ऐसे में जिस लोकतंत्र की बात सत्ता करती है अगर उससे इतर मीडिया कोई भी सवाल खडा करती है या फिर सत्ता के निर्णयों पर सवाल खडा करती है तो फिर मीडिया खुद को लोकतंत्र से कैसे जोड सकता है। यह संकट लोकतंत्र के हर खम्भे के सामने है।
चूंकि चारों खम्भो की सामूहिकता के बाद ही लोकतंत्र का नारा लगाया जा सकता है तो इसका एक मतलब साफ है कि किसी को भी इन परिस्थियों में टिके रहना है तो सत्ता के साथ खड़ा होना होगा और मीडिया इससे इतर अपनी भूमिका कैसे देख समझ सकता है ।
यानी लोकतंत्र की इस परिभाषा में पहले संसदीय राजनीतिक सत्ता पर लोकतंत्र के बाकि खम्भों को कुछ इस तरह आश्रित बनाया गया कि वह खुद को सत्ता भी माने और बगैर संसदीय सत्ता के ना नुकुर भी ना कर सके। इसलिये पूंजी या कॉरपोरेट सेक्टर की अपनी सत्ता है और अदालत या जांच एंजेसी की अपनी सत्ता। इसी तरह मीडिया की अपनी सत्ता है। और हर सास्थानिक सत्ता की खासियत यही है कि बाहर से वह लोकतंत्र को थामे नजर आ सकता है लेकिन अंदर से हर संस्था सत्ता बेबस है। कहा यह भी जा सकता है कि इस दौर में लोकतंत्र की परिभाषा ठीक वैसे ही बदली जैसे ग्लोबलाइजेशन आफ प्रोवर्टी में मिशेल चोसडुवस्की कहते है कि आर्थिक सर्वसत्तावाद गोलियों से नहीं आकालों से हत्या करता है। और यह नीतिगत फैसलो में इस तरह खो जाते हैं कि इन्हें कानूनन अपराधी भी नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि अपराध की इस परिभाषा मे तो इसका उल्लेख तक नहीं है। अगर मीडिया की नजरों से इस हकीकत को समझना है तो न्यूज प्रिंट की किमत से लेकर न्यूज चैनलो की कनेक्टेविटी के खर्चे और इसे पाने या दिखाने के लिये सत्ता की ठसक से भी समझा जा सकता है। जिस तरह खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुसी और खाद से लेकर बीज तक को अपने शिकंजे में कस कर किसानों की खुदकुशी का रेडकारपेट यह कह कर बिछाया कि अब खेती का कल्याण होगा क्योंकि उसे विकसित करने खुले बाजार की पूंजी पहुंची है।
ठीक इसी तर्ज पर न्यूज प्रिंट पर से सरकारी दबदबा हटाकर हर अखबार छापने वाले के लिये एक ऐसा खांचा बनाया गया, जिसमें अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिये वह बाजार के प्रोडक्ट पर जा टिके। यानी विज्ञापन उसकी न्यूनतम जरुरत बने। और खुद की सत्ता बनाये रखते हुये विज्ञापन के लिये हर सत्ता के सामने उसे नतमस्तक होना पड़े। जिसमें सबसे ज्यादा आश्रय सरकारी हो। यही स्थिति न्यूज चैनलों की है। सफेद पूंजी से कोई चैनल तो निकाला जा सकता है लेकिन वह घर घर में दिखायी कैसे दें इसके लिये कोई नियम कायदे नहीं है। कैबल सिस्टम पर समूचे विज्ञापन की की थ्योरी सिमटी हुई है। कैबल यानी टीआरपी और टीआरपी यानी कमाई की शुरुआत। लेकिन कैबल के जरिये कनेक्टीविटी का मतलब होता क्या है। इसे समझने के लिये फिर उन ब्रांड कंपनियो से होते हुये भारत के भीतर बनते इंडिया में घुसना पडेगा। जहां सबसे बेहतर और महंगे या कहे बेस्ट शहर या राज्य का मतलब है मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बेगलुरु, दिल्ली, महाराष्ट्र,गुजरात, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़। यानी टीआरपी इन्हीं जगहों से आ सकती है तो फिर भारत को कवर करने की जरुरत है क्या। लेकिन मसला यही खत्म नहीं होता। संसदीय सत्ता यहां सीधे कैबल सिस्टम पर काबिज है। यानी हर राज्य , हर शहर कही भी कोई भी कैबल अगर चल रहा है तो उसके पीछे कोई ना कोई राजनेता है। और किसी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को अगर देश भर में कैबल के जरीये दिखना है तो उसका सालाना खर्चा 30 से 40 करोड़ का है। लेकिन यह पूंजी सफेद नहीं काली है। इसे कोई मीडिया वाला कहां से लायेगा। यह सवाल किसी नये न्यूज चैनल वाले के सामने खड़ा हो सकता है लेकिन जो पुराने न्यूज चैनल चल रहे है उनके पास यह पूंजी किस गणित से आती है और कैसे यही बाजार उन्हें टिकाये रकता है, यह समझना कोई दूर की गोटी नहीं है क्योकि लोकतंत्र का यह समाजवादी चेहरा ही असल सत्ता है ।
ऐसे में लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर उसका समाजवादीकरण ही अगर चारों खम्भे कर लें तो सवाल खड़ा होगा कि इस नये लोकतंत्र की निगरानी कौन करेगा। मीडिया फिट होता नहीं। आंदोलन या संघर्ष देशद्रोही करार दिये जा सकते हैं। आम आदमी का आक्रोश गैर कानूनी ठहराया जा सकता है। तो फिर संसदीय राजनीति का कौन सा तंत्र है, जिसमें लोकतंत्र के होने की बात कही जाये। असल मुश्किल यही है कि अलग अलग खांचो में मीडिया और राजनीति या पूंजी की नयी बनती सत्ता को देखा-परखा जा रहा है। जिसमें बार बार मीडिया को लेकर सवाल खड़े होते हैं कि वह बिक रही है । खत्म हो रही है । या सरोकार खत्म हो चले हैं । अगर सभी को एकसाथ मिलाकर विश्लेषण होगा तो बात यही सामने आयेगी कि खतरे में तो लोकतंत्र है, और लोकतंत्र का चौथा खम्भा तो उसी लोकतंत्र से बंधा है जिसका आस्तित्व खत्म हो चला है।
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Monday, August 2, 2010
मीडिया नहीं लोकतंत्र की परिभाषा बदल चुकी है
Posted by Punya Prasun Bajpai at 2:05 PM
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मीडिया
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11 comments:
सही कहा! आपने प्रसून जी.
दरअसल जो उंगली गलत काम करने वालों पर उठनी चाहिये थी उसने उन लोगों से हाथ ही मिला लिया. मनमोहनी बाज़ार की यही लीला अब सब ओर है!
मज़ा यह है कि सारे शेखचिल्ली मिल गयें हैं..और चारों खम्बों में एक दूसरे से गले लगने की होड़ लगी है.
खलील जिब्रान का कहना था कि इमारत के खम्बों की परस्पर दूरी ही इमारत को सम्भाले रखती है. वो दिन दूर नहीं जब यह खम्बे तो गल-बहियाँ डाले खड़े होंगे परंतु इमारत भरभरा कर गिरेगी.
यक्ष प्रश्न.
..उत्तर दो युधिष्ठिर!
सर पेड न्यूज पर लोग इतना हल्ला कर रहे हैं। मीडिया को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। गालियां दे रहे हैं। इतने दिन बाद आपने पूरे मामले को एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। मीडिया दोषी है यह सच है, पर वह अकेली दोषी नहीं है यह भी सच है। मीडिया अपने काम को अंजाम दे रहा है इसमें कभी कभी किन्हीं कुछ गलतियां हो जाती हैं। इसका यह मतलब नहीं कि मीडिया अपने लक्ष्य से भटक गया है।
हमेशा की तरह शानदार पोस्ट। हम जैसे नए पत्रकारों के लिए बहुत अच्छी सामग्री।
कभी-कभी सब कुछ निरर्थक लगता है. जब सारा खेल ही पूंजी पर टिका हो - नेताओं और मीडिया को गाली देना गलत लगता है. नोकरशाही कहाँ पीछे है. कल ही २ अगस्त की बड़ी खबर में आप बता रहे थे - जहाँ १०० रु वाला टिसू पेपर ४००० रु में आ रहा है - ज़ाहिर सी बात है ३९०० रु किसी एक नेता की जेब में तो जा नहीं रहे. विचारधारा के युद्ध में समाजवाद कहीं कोने में पराजित होकर लहूलुहान पड़ा है. और पूंजीवाद विजयी अटहास करता चहुँ और अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच चूका है. और कहते हैं पैसा बोलता है - आज के युग में पैसे की खनखनाहट सुनिए ...................
जी हाँ ये पैसा बोलता है...............
और सब की बोलती भी चुप करवाता है........ चाहे मीडिया और, पर्यावरण या सामाजिक सरोकार वाले, सूचना अधिकार वाले कार्यकर्ता हों - पैसा सबकी बोलती बंद करवट है.
Raising finger over democracy and system is very much easier than that of acting some thing concrete.Rajiv gandhi had once said that one rupee started from up becomes 10 paise till it is reached down but didnt ever said 10 paise started from down becomes 1 rupee when it is reached at the top each and every person involved in system gets his part and keep his mouth shut.
Your intellectual illustrations always provide a crystal clear truth but I suppose its waste untill all like you are united and raise a voice ag against the system. History is significant of the truth that system can be reformed but it could only be done by the volunteers, like it was done in JP movement.I will end up with a question and will eagerly wait for your reply that will Mr.Punya Prasoon Bajpayee lead this movement of actual reform?????????????
Kranti Kishore Mishra
Kya ajadi ke pahle media ke liye rahe assan thi ya phir emergency ke waqt kuchh bhi sahj tha. Us samay to media is kadar jhukne ko to raji nahi thi. Kam se kam aaj jhuti hi sahi Loktatr ki dhmak to hai phir kaise sansadiy rajniti ki kamjori ka bahana lekar media ko baksha ja sakte hai. Pahle break lete the kyoki advertisement dikhana tha par ab to kuchh ajib hi hai ...Anchor kahta hai ..break ke baad MAHENDRA TRACTOR ka kamal dekhiye..ye khabar hai..aakhir hai kya ye?
janaab aapki baaten toh aisi hain........... jaise kaatil dwara katl karne ko jaayaj tahrana
Punya Prasoon Ji
Main aapka blog niyamit roop se padhta hoon. Jo baat aapme sabse adhik prabhawit karti hai, wah ye ki aap jis gali me rahte hain uski gandagi bhi ujaagar karne se pichhe nahi rahte.
jab bhi tv me news dekhta hoon to sirf aap hin ko dekhta hoon, kyonki baki log news nahi nautanki karte hain.
kabhi bhi aap par satta ka prabhav ya netaon ka dhouns nahi dekha.
sochta hoon jab aap patrakarita band karnge to yah mashal kaun uthayega.
You are right in saying that democracy itself is in adnger. However, we cannot afford to lose hope. Even if the fourth pillar does its job well it will support the entire building. Haven't you seen that some buildings are saved due to one big bulwark when all others are ruined during earthquakes.
kp,
http: indiachatbox.blogspot.com
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