तीन दशक पहले उम्मीदवारों की सूची देख कर कर्पूरी ठाकुर ने एक ही नाम सूची में से काटा था और वह नाम खुद कर्पूरी ठाकुर का था। इससे पहले तमाम नेता आपत्ती करते खुद कर्पूरी ठाकुर ही बोल पड़े कि मेरे परिवार से एक ही व्यक्ति चुनाव लड़ेगा। और अगर आपको लगता है कि रामानाथ को चुनाव लड़ना चाहिये तो फिर मेरे चुनाव लड़ ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यह बात 1979 की है । और उस चुनाव में आखिरकार उनका नाम काटा गया और वह तमाम नेता जो अपने बच्चों या परिवारवालो के लिये टिकट चाहते थे , सभी ने खामोशी ओढ़ ली ।
समस्तीपुर से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे रामानाथ ठाकुर आज भी अपनी चुनावी सभा में गाहे-बगाहे कर्पूरी ठाकुर का जिक्र कुछ इसी अंदाज में करते हैं , जिससे कर्पूरी की महक अब के दौर में भी आने लगे। वहीं समस्तीपुर का किसान-मजदूर तबका अब भी कर्पूरी ठाकुर के दौर की महक याद करने के लिये रामानाथ ठाकुर से कुछ ऐसे सवाल जरुर करता है जो आज के दौर में काफुर हो चुके हैं । मसलन खेत में सिंचाई नहीं है। बीज-खाद महंगे है । साग-सब्जी बाजार तक ले जाने का साधन नहीं हैं । अन्न की कीमत कुछ है नहीं। मजदूरी में जो मिलता है, उससे पेट भरता नहीं। दवाईखाने में कोई डाक्टर बाबू नहीं रहता। थानेदार मारता -पीटता है। और रामानाथ ठाकुर की सभा किसी शिकायत केन्द्र की खिड़की बन जाती है।
80 बरस के रामाधार को तो यह भी याद है, कैसे 1970 में मुख्यमंत्री बनने से पहले कर्पूरी ठाकुर एक चुनावी सभा में लगे हर वोटर की कमाई ओर खर्चे का हिसाब करने। रामाधार की बारी आई तो हिसाब जोडने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें बीस रुपये पच्चतर पैसे गुटका-पान का खर्चा कम करने को कहा। और हमनें खर्चा कम भी कर दिया। फिर दिसंबर 1970 में कर्पूरी जब पहली बार सात महीने के लिये सीएम बने तो गांव में आकर फिर पूछा गुटका-पान कम हुआ कि नहीं। तो क्या रामानाथ ठाकुर भी कर्पूरी सरीखे हैं। नहीं रामानाथ में कर्पूरी ठाकुर का कोई गुण नही है, वह तो पैतृक घर छोड गांव में ही शानदार हवेली बनाये हुये हैं। लेकिन उनमें कर्पूंरी ठाकुर को देखने से तसल्ली तो मिलती ही है। आखिर कर्पूरी ठाकुर का बेटा है। लेकिन इस बार चुनाव में बेटों को देखने का चलन और साठ-सत्तर के दशक के दौर को याद करने की खुमारी भी खूब रेंग रही है। कांग्रेस के दमदार भूमिहार नेता एलपी साही की बेटी उज्ज्वला हाजीपुर से चुनाव लड रही हैं । कभी एल पी साही के बगैर बिहार में कांग्रेस में चूं-चपड नहीं होती थी। लेकिन बेटी को टिकट सोनिया गांधी के दरबार में आंसू बहाने के बाद मिला।
हाजीपुर के भूमिहार अब उज्जवला में एलपी साही के दौर को देखने की कोशिश कर रहे हैं । वैशाली के ट्रांसपोर्टर सत्येन्द्र नारायण क के मुताबिक हालांकि एलपी साही की पुत्रवधु वीणा साही पहले से ही लालू यादव के जरीये वैशाली से चुनाव मैदान में रही है। लेकिन बेटा-बेटी में बाप के गुण देखने का मतलब अलग है। और उज्जवला ने साही जी का उठान बचपन से देखा है तो कुछ गुण तो बाप का झलकेगा ही। लेकिन संघ परिवार तो पूरे परिवार को ही एक सरीखा मानता है। इसलिये आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक खुश है कि कभी बिहार में भीष्मपितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र की पुत्रवधु दिलमानो देवी ब्रह्मपुर से चुनाव लड़ रही हैं। कैलाशपति मिश्र आरएसएस के उन स्वयंसेवकों में से एक रहे हैं, जिन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद जेल में डाल दिया गया था। और उससे पहले गांधी के भारत छोड़ों आंदोलन में भी भागेदारी की थी।
अब वह दौर तो नहीं है लेकिन परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव मैदान में आता है तो आस तो बंधती ही है। संघ के पुराने स्वयंसेवक अखिलेश तिवारी इस बात से खफा है कि स्वयंसेवकों को बिहार में नीतिश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है । लेकिन कैलाशपति के परिवार का कोई भी चुनाव लड़े तो संघ पीछे तो हमेशा खड़ा ही रहेगा । वहीं 1970 में दस महिने मुख्यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय की पहचान सबसे बडे यादव नेता के तौर पर है। लेकिन लालू यादव के दौर में यादवों का उनसे बड़ा नेता कोई माना नहीं जाता है । लेकिन लालू की फिसलन में यादव अब जब पुराने यादव नेताओ को याद कर रहे हैं तो परसा से आरजेडी के टिकट पर लड रहे दारोगा प्रसाद राय के बेटे चन्द्रिका और कांग्रेस के टिकट पर अमनौर से लड रहे दूसरे बेटे विनानचन्द्र राय में ही दारोगा राय के गुण-दोष देखने को अभिशप्त है।
वहीं यादवो में सबसे ठसक नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले लालू यादव के ठीक पहले रामलखन यादव ही थे। रामलखन यादव की तूती बिहार में कितनी जबरदस्त थी इसका जिक्र पालीगंज के महेन्द्र यादव करते हुये बताते है कि 1981 में गांधी मैदान की एक सभा में रामलखन यादव ने यादवों की सभा में जब ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि यादव एक साथ दो कदम आगे बढाये तो हजारो की तादाद में बैठे सभी यादव गांधी मैदान में ही खड़े होकर दो कदम आगे बढ़ाकर बैठ गये। अब रामलखन यादव के पौत्र जयवर्द्वन यादव पालीगंज से चुनाव लड रहे हैं तो महेन्द्र यादव उन्हीं में रामलखन यादव की यादों को खोज रहे है।
कुछ यही हाल 1973 से 1975 कर मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर के पौत्र आशिक गफूर का है। जो कांग्रेस के टिकट पर बरौली से चुनाव मैदान में है और 1979-80 में मुख्यमंत्री रहे रामसुंदर दास के बेटे संजय कुमार दास का है, जो कि जदयू के टिकट पर राजापाकड क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। हर पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे-बेटियों के जरीये अगर पुराने दौर के नेताओ को यादकर बिहार की पुरानी यादों की महक को सूंघने का प्रयास हो रहा है तो कुछ एहसास ताजे ताजे भी हैं, जिसमें कांग्रेस के आखरी दमदार सीएम जगन्नाथ मिश्र के बेटे-भतीजे से लेकर पूर्व मुखयमंत्री राबडी देवी के भाइयों के चुनाव मैदान में होने से लेकर खुद राबडी देवी के दो जगह चुनाव लड़ ने का भी खेल है, जो पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के दौर में पहले सीएम नही फिर नेता। और अब दो जगहों से चुनाव लड़ रही हैं । और इन सब के बीच रामविलास पासवान के फिल्मी बेटे और लालू के क्रिकेटर बेटे जिस तरह चुनाव प्रचार में नजर आ रहे हैं, उसमें कर्पूरी ठाकुर अब बिहार में किसी को सपने में भी दिखायी देंगे, यह सोचना ही 2010 के चुनावी गणित को बिगाड़ना होगा।
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Friday, October 22, 2010
पूर्व मु्ख्यमंत्रियों के बच्चों की रेस में गुम है बिहार
Posted by Punya Prasun Bajpai at 6:00 PM
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bihar elections,
भाई-भतीजावादए परिवारवाद
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9 comments:
prasunji
ye bihar hai yaha sab kuch jayaj hai....
prasunji
kas is baar aisa nahi hota ....
Jab pura desh hin Rahul Gandhi me Nehru se lekar Indira, Rajiv aur ab to JP ko bhi dhundh raha hai to bhala bihari kya kare? Jab vyawastha se bharosha toot jaye tab neta hin vyawastha ban jaate hain aur log unhi me we purane din jo aaj se behtar nahi the ko dhundhane lagte hain.
इससे बेहतर और रोचक तथ्य इस वक्त के लिए नहीं हो सकता।
धन्यवाद
अब एक नया शिगूफा "कांग्रेस" के एक नेता ने छेड़ा है राहुल गांधी दरअसल जेपी हैं। इसका इंटप्रेटेशन आपके जानिब से ज़रूरी है। कृपया लिखें तो ज्ञानात्मक होगा।
RAKESH JI, THIS MATTER HAS ALREADY BEEN DISCUSSED IN "BADI KHARAB".
well thanks AAINA JI but i think this chapter has come after this artcle Isn't it.
सबसे अहम बात यह है कि क्या मतदाताओं को यह सब नहीं दिखता...और अगर उन्हे दिखता है तो वो ऐसे लोगों को वोट ही क्यों देते...रही बात हमारे राजनितिज्ञों की तो...जब तक वंश बेली पर सवार होकर ऐसे नेता जीतते रहें...तब तक ये लोग उनको टिकट देते ही रहेंगे...क्योंकि उन्हे सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवारों की जरुरत है...और वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं...
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