Friday, May 27, 2011

सत्ता-संगठन के आरपार गांधी परिवार

पहले आर के धवन फिर वंसत साठे। दोनों इंदिरा गांधी के सिपहसलार। दोनो के लिये काग्रेस का मतलब गांधी परिवार। और दोनों ने ऐसे वकत काग्रेस को निशाने पर लिया जब काग्रेस सात बरस के सत्ता सुकून के जश्न में डूबी । दोनों ने ऐसे वक्त गांधी परिवार की सियासी बिसात पर अंगुली उठायी जब राहुल गांधी कांग्रेंसी सत्ता के लिये बड़ी लकीर खिंचने में लगे हैं और सोनिया गांधी खिंची लकीर को मोटी बनाने में। तो क्या काग्रेस के लिये सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है या फिर इंदिरा के दौर के बुजुर्ग नेताओ को अहमियत नहीं मिलती, इसलिये वह सियासी टोंटका कर रहे हैं। या फिर इंदिरा के तौर तरीको की तर्ज पर सत्तर के दशक के काग्रेसी सोनिया-राहुल को भी चलते हुये देखना चाहते हैं। माना कुछ भी जा सकता है , लेकिन इन दो नेताओ के बहुत सारे सवालो में दो सवाल किसी को भी खटक सकते हैं। सही लग सकते हैं। सियासी बिसात बदलने के लिये प्रेरित कर सकते है।

पहला राहुल गांधी की राजनीतिक चालें और उन्हे घेरे नेताओ की जरुरतें। दूसरा , गैर कांग्रेसी राज्यो में काग्रेस का घटता कद। जाहिर है देश की सियासी बिसात पर अगर यह दोनो चाल कांग्रेस के अनुकूल हो जाये तो कांग्रेस एकला चलो का राग अलापते हुये अपने बूते केन्द्र की सत्ता में भी आ सकती है और गठबंधन तले जिन समझौतों की बात कहकर भ्रष्टाचार पर से मनमोहन सिंह आखं मूंद लेते हैं , उसकी जरुरत भी ना पड़े। उत्तर प्रदेश कांग्रेस की दुखती रग है। और उत्तर प्रदेश के एक छोर दिल्ली से सटे ग्रेटर नोयडा के भट्टा-परसौल गांव के किसानों का सवाल उठाते हुये उत्तर प्रदेश के दूसरे छोर बनारस में काग्रेस के प्रदेश अधिवेशन में जिस तरह राहुल गांधी ने मायावती की सत्ता पर अंगुली उठायी उससे यह तो जरुर लगा कि राहुल गांधी संघर्ष करना जानते हैं। लेकिन इस संघर्ष ने एक दूसरा सवाल खड़ा किया कि क्या कांग्रेस में सत्ता भी गांधी परिवार को संभालनी है और सड़क पर संघर्ष भी गांधी परिवार को करना है। तो फिर कांग्रेस के लिये संघर्ष करने वाले नेता है कहां। क्या 1989 में राजीव गांधी के सत्ता गंवाने के बाद गांधी परिवार का भविष्य यही है कि वह कांग्रेस के लिये संघर्ष करें और सत्ता बिना आधार वाले नेता संभाले।

चूंकि कांग्रेस सबसे बड़ी जरुरत गांधी परिवार की है। उसके आसित्तव की है , तो सत्ता संभालने वाले कांग्रेसी अपने आप को सिर्फ अपने लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र में ही सीमित कर लें। और चुनाव जीतना भर ही उनका मंत्र रहे । यानी गांधी परिवार का औरा संघर्ष में खपे और सत्ता संभालते हुये कांग्रेस की पहचान भी गाधी परिवार के संघर्ष में ही खप जायें। दरअसल यूपीए-2 के दो साल पूरे होने के बाद जो सवाल कांग्रेस के सामने है या कहें मनमोहन सरकार के सामने है अगर दोनो में तारतम्य देखा जाये तो मनमोहन सिंह हो या काग्रेस संगठन दोनों इस दौर में मुश्किल में हैं और दोनों का संभालने की जिम्मेदारी गांधी परिवार की है। लेकिन सरकार गांधी परिवार के हाथ में सीधे नहीं है और संगठन बनाने में राहुल गांधी के युवा भत्ती अभियान छोड दें तो संगठन को व्यापक बनाने के लिये कुछ हो भी नहीं रहा है।

यही से अब के दौर की वह राजनीतिक परिस्थितियां खड़ी होती है जो किसी भी कांग्रेसी को परेशान करेंगी कि आने वाले दौर में कांग्रेस का हाथ कितना खाली हो जायेगा। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के संघर्ष के बावजूद कांग्रेसी संगठन चरमराया हुआ है। राहुल कितना भी हाथ-पैर मार लें कांग्रेस का नंबर मायावती-मुलायम के बाद ही आयेगा । और इसकी सबसे बड़ी वजह वोटरों के साथ कांग्रेस का जुड़ाव होना नहीं है। राहुल गांधी को तो भट्टा-परसौल या बनारस गये बगैर भी उत्तर-प्रदेश के वोटरो से जुडने में कोई मुश्किल नहीं आयेगी। लेकिन राहुल उत्तर-प्रदेश की गद्दी संभालेंगे नहीं और उत्तर प्रदेश की गद्दी संभालने वाला कोई कांग्रेसी निकलेगा नहीं , जिसकी कनेक्टीविटी आम वोटर से कांग्रेस के नाम पर हो। यानी वोटरों से जुड़ाव के लिये जाति, धर्म , जरुरत या मजबूरी , जो भी होनी चाहिये वह कांग्रेस के पास नहीं है। और कांग्रेस गांधी परिवार के जरीये इन मुद्दों से इतर जो लोभ उत्तरप्रदेश की जनता को देती है वह केन्द्र की सत्ता से मिलने वाली सुविधा की पोटली या पैकेज है। यानी सौदेबाजी का लोभ भी कांग्रेस का हथियार बन जायेगा और इसे लागू कराने में गांधी परिवार से लेकर सरकार तक भिड़ जायेगी , यह किसने सोचा होगा।

सवाल किसानों को केन्द्र का मुआवजा देने या बुदेलखंड या पूर्वोत्तर के लिय पैकेज का ऐलान कर गांधी परिवार की महत्ता को बताना केन्द्र सरकार की जरुरत भर का नहीं है। सवाल है जिस दौर में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और पर्दे के पीछे से कांग्रेस के सिमटते आधार को देखती प्रियंका गांधी के एक ही वक्त में कांग्रेस के पास होने के बावजूद क्षेत्रीय दलों के बढ़ते आधार और उनमें से निकलते नेताओ के कद अगर कांग्रेस को चुनौती देने लगे है तो फिर आने वाला वक्त काग्रेस के लिये अचछा नहीं है , यह तो कोई भी कह सकता है। मसलन बिहार में नीतीश कुमार, यूपी में मांयावती, छत्तीसगढ में रमन सिंह, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, उड़ीसा में नवीन पटनायक, गुजरात में नरेन्द्र मोदी , तमिलनाहु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में उभरते जगन रेड्डी। यह ऐसे चेहरे हैं जो अपने बूते पार्टी को सत्ता में लाते है और सत्ता की मलाई राज्य में इनके संगठन को खुद-ब-खुद मजबूत कर देती है । और इनके खिलाफ कांग्रेस का ना कोई चेहरा है ना ही संगठन। जबकि काग्रेस शासित राज्यो में कौन सा मुख्यमंत्री अपना चेहरा लिये यह यकीन से कह सकता है कि उसके भरोसे कांग्रेस अगली बार भी जीत सकती है । या संगठन इतना मजबूत है कि गांधी परिवार फ्रक्र करें कि सोनिया-रहुल की सभाओं भर से सत्ता काग्रेस के हाथ में आ सकती है। वहीं आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री तो दिल्ली के भरोसे है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी दिल्ली से मुंबई पहुंचे है। केरल के मुख्यमंत्री के पीछे भी दिल्ली की सियासत ही खड़ी है। सिर्फ असम में तरुण गगोई ही ऐसे हैं, जो अपने काम के भरोसे अपना अलग चेहरा बना पाये हैं। असल में काग्रेस के भीतर की इस कश्मकश को भी समझना जरुरी है कि गांधी परिवार को कांग्रेस का सर्वेसर्वा मान कर केन्द्र में रखने के बदले अब जिले से लेकर दिल्ली तक और भ्र्रष्टाचार के मुद्दे से लेकर भूख मिटाने की जरुरत के लिये लाने वाले खादान्न बिल के अक्स में भी गांधी परिवार को ही क्यों जोड़ा जा रहा है। लोकपाल विधेयक हो या भूमि अधिग्रहण या फिर खाधान्न विधेयक लेकर आयेगे। यह सरकार लागू करें तो भी फायदा कांग्रेस को होगा। लेकिन कांग्रेस इसे लागू करवाती दिखे और सरकार इसे आर्थव्यवस्था के लिये सही ना मानते हुये कांग्रेस संगठन या राजनीतिक जरुरत तले जरुरी मान कर अपनी सहमति दे तो लाभ किसी को नहीं मिलेगा।

दरअसल जन-नीतियों को लेकर बाजार अर्थवयवस्था का यह टकराव ऐसे दौर में खुल कर नजर आ रहा है, जब जनता के मुद्दों को सोनिया-राहुल गांधी संभाले हुये हैं और बाजार अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह। और दोनों ही कांग्रेसी हैं। जाहिर है तत्काल के लिये तो यह लग सकता है कि सत्ता-विपक्ष दोनों की भूमिका में कांग्रेसी हैं। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटकर एनडीए के दौर में वाजपेयी सरकार और संघ परिवार के टकराव को याद कीजिये। इसी तरीके से उस दौर में भी जो मुद्दे संघ परिवार उठा रहा था उससे वाजपेयी सरकार कन्नी काट रहे थे। और आखिर में संघ परिवार और उसी धारा के समर्थको ने वाजपेयी सरकार को बाहर का रास्ता दिखा दिया। यूपीए में यह मामला उलट है। कांग्रेस या कहें सोनिया-राहुल की राजनीतिक पहल के पीछे मनमोहन सरकार को चलना पड़ता है। मगर एक वक्त के बाद लगता भी यही है कि सरकार मुश्किले पैदा करती है और कांग्रेस उस पर मरहम लगाती दिखती है। भूमि-अधिग्रहण पर विधेयक अभी तक नहीं आया है तो यह सरकार की असफलता है। लेकिन भूमि-अधिग्रहण पर अगले संसद सत्र में विधेयक लाया जायेगा यह कांग्रेस के लिये कितना फायदेमंद होगा, यह देखना-समझना इसलिये दिलचस्प है क्योंकि इन्ही मुद्दो को राहुल गांधी ने उठाया और अचानक कांग्रेस के नेताओं को लगने लगा कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के 21 बरस पुराने दिन फिर सकते हैं। लेकिन जो चिंता पुराने कांग्रेसी कर रहे है वह इसलिये जरुरी है क्योंकि कांग्रेस के पास गांधी परिवार के अलावा और कुछ है नहीं। और गांधी परिवार की महत्ता कांग्रेस के सत्ता में रहने के अलावे कुछ है नहीं। लेकिन इन दोनों के बीच जो कांग्रेसी सत्ता से सटकर या गांधी परिवार के करीबी होकर कांग्रेस का बंटाधार कर रहे हैं, उससे संगठन,पार्टी, सत्ता सबकुछ की चमक या मटमैली स्थिति भी गांधी परिवार के नाम ही जा रही है। और सात बरस की यूपीए सत्ता के बाद भी गांधी परिवार को ही यह सोचना है कि आखिर काग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होकर भी क्षेत्रिय दलो के आगे नतमस्तक क्यों है और हर मुद्दे को संभालने सोनिया या राहुल को क्यों निकलना पड़ता है।

13 comments:

संतोष त्रिवेदी said...

कांग्रेस की आज की हालत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है...जब वह नरसिंह राव के बाद एकदम कमज़ोर पड़ गई थी,फिर भी कुछ था जिससे वह संभल गई थी.
राज्यों में वह कई जगह मुख्य मुकाबले से भी बाहर दिखती है,केन्द्र में अभी भी विकल्पहीनता की स्थिति का लाभ उठा रही है.यही विकल्पहीनता उसे जड भी बना रही है !
भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर उसके लचर रवैये से उसका परंपरगत वोट भी छीज रहा है...राहुल बाबा कितना समेट पाएंगे ,यह अगला चुनाव बता देगा !

sudhanshu chouhan said...

राहुल की राजनीति देश के लिए दुर्भाग्य है...वे जहां भी ज़ख्म देखते हैं, वहां पंजा छाप बैक्टीरिया और वायरस लेकर निकल पड़ते हैं...लोगों के बीच विद्वेषवाद का बीज बोना तो कोई इनसे सीखे...ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के शोषण का सिद्धांत ये गांवों के निःसहाय गरीबों पर अप्लाई करते हैं...राजनीति में आने से पहले इन्हें थोड़ा दिन जेएनयू में भी गुज़ारने चाहिए था...राजीव व नेहरु रूपी बैशाखी का इस्रतेमाल कब तक करते रहेंगे... देखना है...

सम्वेदना के स्वर said...

इत्ता बड़ा खानदान, इत्ती सारी कुरबानीयां क्या देश भूल जायेगा?

इत्ती गोरी चमड़ी को भट्टा पारसौल के 40 डिग्री के तापमान में जलाकर क्या मिल गया इस देश को?

अंतिम सत्य यही है कि गांधी परिवार ही चला सकता है इस देश को, वरना सांप-सपेरों और पाखड़ी साधुओं के इस देश की क्या हालत होती आप सोच भी नहीं सकते,प्रसून जी! इतिहास में अपना नाम लिखाइये और ताज पोशी में हाथ बटाइयें।

कविता रावत said...

कांग्रेस के पास गांधी परिवार के अलावा और कुछ है नहीं। और गांधी परिवार की महत्ता कांग्रेस के सत्ता में रहने के अलावे कुछ है नहीं...ekdam sachi baat..

डॉ .अनुराग said...

सच तो ये है के इस शासन के बाद पढ़े लिखे वर्ग में सोनिया ओर राहुल की इमेज गिरी है ..दूसरी पार्टिया वाले खामखाँ डरते है राहुल से ....एक ओर बात इंदिरा गांधी ने
. .. आलोचना को पर्सनल लेकर कोंग्रेस में एक किस्म की तानाशाही ला दी थी तब से अब तक कोंग्रेस में स्वस्थ आलोचना का दौर ख़त्म हो गया .

आशुतोष की कलम said...

कांग्रेस की सांसे राजैतिक विकल्पहीनता के वेंटिलेटर पर चल रही हैं...
राहुल को मीडिया ने करिश्माई दिखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी मगर..राजनैतिक अग्निपरीक्षा में भी उनके अंक उनके कालेज के दिनों की अंकतालिका की याद दिलाते हैं..
कांग्रेस का एकमात्र भला करने वाला ब्यक्ति था तो नरसिम्हाराव जी जिसने कांग्रेस को गाँधी परिवार की बैसाखी से काफी हद तक मुक्त करने में सहायता की...

आशुतोष की कलम said...
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Yogesh Bajpai said...

Prasoon Sir, i agree with you, i am working in Africa, most of the Africans they believe that these gandhis (Rahul, Sonia) are the real successor of Mahatama Gandhi. Don't you think that we are in democratic monarchy. i m 100% sure that Congress party is biggest corrupt party in the world. whatever amount deposit in swiss bank, 80% belongs to the Congressman only. that's why congress don't want to take initiative on this issue.

sharad said...

rahul sirf stunt karna jante hai.. kisi bhi ghatna ko anjam tak puhchana unke bus me nahi hai... kalavati ke ghar me aaj bhi bijli nahi hai.. is leye rahul ab rahul ka drama yuva jante hai... unse badi umede thi par tumme aur netao me kay fur hai gandhi ka naam lekar desh ko lut liya hai

Unknown said...

दरअसल जिस कांग्रेस को केंद्र में सत्ता में लाने का काम गाँधी परिवार या यु कहें सोनिया गाँधी ने किया उनकी वही रस्तियता वाली छवि के कारन लोगो ने दिल्ली की सता के लिए तो कांग्रेस को vote दिया पर राज्यों में उन्होंने अपने आप को या यु कहे अपने क्षेत्र के नेताओ को ज्यादा महता दी जिसमे कांग्रेस की rastriyata वाली थ्योरी फिट नहीं बैठती ..............
दरअसल सारे कांग्रेस को सोनिया गाँधी या यु कहे की गाँधी परिवार ने अपनी जागीर समझी है और कुछ अच्छा होने पर सारा श्रेय कांग्रेस को नहीं बल्कि गाँधी परिवार को मिलता है और जब प्रधानमंत्री ही गौण है तो राज्यों के नेताओ की क्या औकात तब जनता भी यह समझती है की जब कांग्रेस ने कुछ किया नहीं तो राज्यों में नेतृत्वा के लिए गाँधी परिवार आएगा नहीं तो फिर बाकि कांग्रेस में जनता का बिस्वास है नहीं इसलिए कांग्रेस की इसी थ्योरी ने छेत्रिय दलों को मजबूत बनाया है

murar said...
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murar said...

आखिर काग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होकर भी क्षेत्रिय दलो के आगे नतमस्तक क्यों है और हर मुद्दे को संभालने सोनिया या राहुल को क्यों निकलना पड़ता ह
janab: jab tak cog ma damdaar nayta nhe hoga tab tak yahi haal rahay gaa
rahul jashay nata nahi bansaktay agar cong say 'gandhi' sabad hata leey jaay too cong ka naam laanay walaa koee nhi hogaa cong ko jo lobhe cala rahi hai corprat word ki hai or ahamad pataly esh ka kartaa darta hai jo kahatay hai rahul or degi raja totay ki taraha boo kar caldattay hai.

Satish kumar Roy said...

Es Link ko Bhi saath mein Padhen http://www.jatland.com/forums/showthread.php?9164-Nehru-s-Family-Why-Did-Indira-Abort-her-Third-Son-%28to-be%29&s=4ade27da43abdd55886738c8790934bd