Friday, August 19, 2011

जनसंघर्ष की मुनादी

मी शरद पोटले। रालेगन सिद्दि हूण आलो। रात साढ़े बारह बजे तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन पर अचानक एक व्यक्ति ने जैसे ही पीछे से हाथ पकड़ते हुये मराठी में कहा-मैं शरद पोटले । रालेगन सिद्दि से आया हूं। तो मुझे 1991 में महाराष्ट्र में अन्ना का वह आंदोलन याद गया जो नौकरशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की शुरुआत कर उन्होंने राज्य सरकार को सीधे कहा था कि या तो भ्रष्ट अधिकारी हटाने होगे नहीं तो अनशन जारी रहेगा। हफ्ते भर के भीतर ही जिस तरह का समर्थन आम लोगो से अन्ना को मिला, उससे उस वक्त की कांग्रेस सरकार इतना दबाव में आयी कि उसने समयबद्द सीमा में जांच करवाने के आदेश दे दिये और उसके बाद 40 भ्रष्ट नौकरशाहों को बर्खास्त कर दिया।

उस आंदोलन में अन्ना हजारे को अनशन के बाद नीबू-पानी का पहला घूंट पिलाने वाला यही शरद पोटले था। उसी बरस स्कूल से कॉलेज में शरद पाटिल ने कदम रखा था और अन्ना हजारे ने पूछा था बनना क्या चाहते हो। तो शरद ने पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनने की इच्छा जतायी थी। और बीस बरस बाद जब तिहाड़ जेल के सामने शरद पोटले से पूछा कि कहा बाबूगिरी कर रहे हो तो उसने बताया कि पढ़ लिखकर भी खेती कर रहा है। और बाबू बनने का सपना उसने तब छोड़ा जब 199 में अन्ना ने महाराष्ट्र के भ्रष्ट्र मंत्रियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उस वक्त की शिवसेना सरकार अन्ना के जान के पीछे पड़ गयी। तब रालेगन सिद्दि के पांच लोगों में से एक शरद पोटले भी था जो उन अपराधियों को अन्ना की सच्चाई बताकर उनकी जान की कीमत बतायी थी, जिन्हें अन्ना को जान से मारने की सुपारी दी गयी थी। और फिर अन्ना पर कोई अपराधी हाथ भी नही उठा सका। लेकिन पहली बार 16 अगस्त को दिल्ली पहुंचे शरद ने अन्ना की गिरपफ्तारी देखी तो उसे लगा कि दिल्ली में अपराध की परिभाषा बदल जाती है। मगर रात होते होते जब तिहाड़ जेल के बाहर युवाओ का जुनून देखा तो मुलाकात की पुरानी यादों को टटोलते हुये लगभग रोते हुये सिर्फ मराठी में इतना ही बोल पाया कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है।

लेकिन शरद के इस जवाब ने बीते 20 घंटों की सियासी चाल और संसद से लेकर राजनीतिक दलों के भीतर की पहल कदमी ने पहली बार सवाल यह भी खड़ा किया कि अन्ना हजारे की जनलोकपाल के सवाल को लेकर शुरु हुई लड़ाई अब संसदीय लोकतंत्र को चुनौती भी दे रही है और राजनीति अन्ना को या तो अपना प्यादा बनाने पर आमादा है या फिर आंदोलन को हड़पने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। क्योंकि एक तरफ सरकार ने चाहे अन्ना की हर शर्त मानते हुये रिहाई का रास्ता साफ किया लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर संसद के भीतर किसी सांसद ने अन्ना हजारे को मान्यता नहीं दी। मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को संसदीय लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा खतरा भी बताया और अपनी विकास अर्थव्यवस्था के खांचे को पटरी से उतरने के लिये अन्ना के आंदोलन के पीछे अंतर्राष्ट्रीय साचिश के संकेत भी दिये। वहीं कमोवेश हर पार्टी के सांसदो ने जिस तरह अन्ना को मजाक में बदलने की कोशिश की संसद से सारे संकेत यही निकले की पहली बार संसदीय राजनीति को सड़क के आंदोलन से खतरा तो लग रहा है। क्योंकि जिस तादाद में शहर दर शहर हर तबके के लोग सड़क पर उतरे उसने उन पुराने आंदोलन के समानांतर एक तिरछी बड़ी रेखा खींच कर पहली बार इसके संकेत भी दिये कि राजनीतिक मंच से ज्यादा भरोसा गैर राजनीतिक मंच पर आम लोगो का आ टिका है। इसलिये अन्ना की महक 1974 के जेपी या 1989 के वीपी आंदोलन में खोजना भूल होगी। यह भूल ठीक वैसी ही है जैसे महात्मा गाधी का 1923 में अपनी गिरफ्तारी के विरोध में एक रुपये की जमानत लेने से भी इंकार करना था और जज को यह कहना पडा कि "अगले निर्णय तक वह बिना जमानत ही एम के गांधी को रिहा कर रहे हैं।" यह ठीक बैसे ही है जैसे अन्ना ने 16 अगस्त को जमानत लेने से इंकार कर दिया और मजिस्ट्रेट की पहल पर दिल्ली पुलिस ने सरकार के निर्देश पर बिना जमानत लिये ही अन्ना को रिहाई का वार्ट थमा दिया।

दरअसल यह वैसी ही समानता है जैसे 1974 में गुजरात की मंहगाई को लेकर जेपी से संघर्ष शुरु किया। मामला भ्रष्टाचार तक गया। गिरफ्त में बिहार भी आया। और गुजरात में मोरारजी देसाई अनशन पर भी बैठे। इंदिरा गांधी ने अपना दामन बचाने के लिये गुजरात में विधानसभा भंग भी की। लेकिन जेपी ने इंदिरा की चुनौती को जिस स्तर पर लिया और धीरे धीरे समूचा भारत उसकी गिरफ्त में आता गया और सत्ता परिवर्तन के बाद ही संघर्ष थमा । हो सकता है जंतर मंतर से तिहाड़ तक जा पहुंचे आंदोलन का रुख भी अब महज भ्रट्राचार का नहीं रहा और आंदोलन धीरे धीरे उस दिशा में बढता चला जाये जहा संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुये संसदीय राजनीति में बडे सुधार की बात शुरु हो जाये। समझना यह भी होगा कि 74 में जेपी हो या 89 में तत्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देकर सड़क पर उतरे वीपी सिंह। दोनों के मामले चाहे भ्रष्टाचार को लेकर सत्ता को चुनौती अभी की ही तरह देते दिखायी पड़े लेकिन दोनो नेताओ की पहचान राजनीतिक थी। अन्ना राजनेता नहीं हैं। आंदोलन के लिये रणनीति बनाती अन्ना की टीम राजनीतिक नहीं है। और इससे पहले के दोनों दौर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेहद महीन तरीके से हड़पा। और इस बार भी उज्जैन के चिंतर शिवर से 24 घंटे पहले 16 अगस्त को ही हर स्वसंसेवक को यह निर्देश भी दे दिया गया कि उसकी भागेदारी आंदोलन में सड़क पर बैठे लोगो के बीच ना सिर्फ होनी चाहिये बल्कि संघर्ष का मैदान खाली ना हो इसके लिये हर तरह का संघर्ष करना होगा।

यह निर्देश भाजपा के कार्यकर्ता और युवा विंग को भी है। लेकिन पहली बार बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा कि जो संसद अन्ना को अपने अंगुठे पर रखती है। जो सांसद अन्ना को संसदीय लोकतंत्र को चुनौती देने वाला मानते हैं। वह अन्ना से इसलिये सहमे हुये है क्योकि पहली बार सड़क पर अन्ना आंदोलन के समर्थन में देश भर में लोग जुटे हैं। और यह लोग चाहे उत्साह से अन्ना का साथ दे रहे हैं लेकिन उनके भीतर इस बात का आक्रोष है कि जो काम संसद को, जो काम सांसदो को और जो काम सरकार को करनी चाहिये वह कर नहीं रही है। इसलिये कॉलेज या कामगारो से इतर इस बार सडक पर वह कारपोरेट , बहुराष्ट्रीय कंपनी और आईटी सेक्टर में काम करते प्रोफेशनल उतरे हैं, जिनके सामने सवाल यह है कि टैक्स देने के बाद उनका जीवन त्रासदी में डूबा है। अगर कालाधन नहीं है तो सफेद रास्ता बढ़ती मुद्रास्फीती से बैंक के जरीये भी घाटा ही देगा । और मुनाफे का रास्ता सिर्फ जमीन या सोना खरीद पर आ टिकेगा।

यानी पहली बार देश का हर तबका अगर परेशान है तो पहली बार इसे अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच में समाधान की जगह संसद को चुनौती देते हुये अपने आक्रोष को व्यक्त करने की खुली जगह मिली है। ऐसे मौके पर अगर प्रधानमंत्री संसद में अपने भाषण की समाप्ती यह कहकर करे कि , ' हम जनता के चुने हुये प्रतिनिधी है और हम अपने लोकतंत्र पर आंच आने नहीं देगे। " तो जेहन में सुपारी देने वालो से बचाने वाले शरद पोटले का चेहरा याद आ गया जो तिहाड़ के बाहर अब भी यह सोच कर बैढा है कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है । और देश में पहली बार लोकतंत्र को लेकर ही संसद और सडक ना सिर्फ अलग अलग राह पकड़ रहे हैं। बल्कि संविधान में संसद सत्ता बड़ी है या जनतंत्र यह सवाल भी निशाने पर चुनावी व्यवस्था को ला रही है।

10 comments:

संतोष त्रिवेदी said...

बहुत सही आकलन है,पर राजनैतिक दल अपने हितों के
चलते इसे खुलकर स्वीकार नहीं कर रहे हैं.सभी राजनैतिक दलों को लगता है की 'जनलोकपाल' उनके लिए फंदा है.
अन्ना संसद से बड़े नहीं हैं,यह उत्तर उन नेताओं की तरफ से दिया जा रहा है जिन्होंने संसद की गरिमा को गिराया है.क्यों नहीं समय रहते ऐसा बिल लाने की या अन्ना को समझाने की ज़रुरत महसूस की गयी? अन्ना कोई ब्लैक मेलर नहीं हैं,जनता उनसे इसीलिए जुड रही है कि किसी भी दल से उसे उम्मीद नहीं है !
वर्तमान सरकार ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है और यह चोट भी उसे अभी समझ नहीं आ रही है !

Arun sathi said...

सवाल तो सचमुच देश का है और तभी तो पूरा देश अन्ना के साथ उठ खड़ा हुआ है। खासकर वह युवा वर्ग जिसे नकारा कहा जाता था वह आज बंदे मातरम का नारा लगा रहा है। प्रसुन जी मै यहां गांव मंे ही रहता हूं और गांव के चौपाल पर भी इसकी गूंज है। मेरे यहां घोबी काला बिल्ला लगा कर काम कर रहा है, युवा और पत्रकार शांतिपूर्ण मार्च कर रहा है तो व्यापारी अपनी दुकानों को बंद रख कर अन्ना अन्ना चिल्ला रहा है। यह महज जोश मंे नहीं है। सच बात तो यही है यहां बिहार में भ्रष्टाचार सबसे चरम पर है और लगभग सरकारी और सर्वस्वीकार्य। अदद मोबाइल खोने का एफआइआर के लिए 200, मारपीट के लिए 500 और हत्या की प्राथमिकी करने के लिए 5000 लगते है। किसी भी प्रमाण पत्र को बनाने के लिए 50 से 200 तक लगता है तथा लाखों रूप्ये खर्च अंगूठा छाप नकली प्रमाणपत्र के सहारो मास्टर बन गया। इतना ही नहीं अस्पतालों में फर्जी डाक्टर बहाल हो गए जो बाद में पकड़े जा रहे है पर वह दो तीन साल तक अस्पताल में काम कर चुका है।

Arun sathi said...

मैं आपको बताना चाहूंगा कि शेखपुरा जिला के घाटकुसुम्भा अस्पताल में तीन फर्जी डाक्टर पकड़ा गया पर वह प्रशासन की वजह से नहीं आम आदमी की वजह से। मरीज जब इलाज के लिए जाता था तो डाक्टर से बुखर के जगह पेट दर्द की दबा दे देता था और पेट दर्द रहने पर बुखार की । यह बात लोगों को समझ में आ गई और उसने इसकी शिकायत उच्चाधिकारियो से की तब छानबीन मंे फर्जीबाड़ा सामने आया।

कितनी ही बातें है जो दिल को तकलीफ देती है। मेरे जिले में अकेले 1000 घरों में चुलौआ दरू बनता है। प्रति भठठी पुलिस और उत्पाद विभाग 500 से 1000 बसुल करती है। बरबीघा थाना से सटे शिवपुरी मोहल्ले में नीलकम सिंह का नकली शराब बनाने का कारखाना चलता है वह मेरा मित्र है फिर भी समय समय पर उसकी खबर अखबारों में छपती रहती है और वह शिकायत करते हुए इतना ही कहता है कि खबर आने पर लाख पच्चास हजार और खर्च हो जाता है। बकौल उसके महीना का दो लाख रूप्या वह पुलिस पर खर्च करता है।


अभी हमने पालनबाड़ी नामक एनजीओ का खुलास किया जिसने आंगनबाड़ी के तर्ज पर केन्द्र खोलने के लिए महिलाओं से 15 से 25 हजार बसुले और महिलाओं ने अपने जेबरात बेच कर दिया पर वह फर्जी संस्था का खुलास होने के तीन चार माह बाद भी पुलिस और प्रशासन किसी को गिरफतार नहीं कर सकी और संस्था के संचालक संजीव कुमार खबर भेजबाता है कि कहे अरूण जी यह सब करते है हमारा दो तीन लाख खर्च हो गया। सब रूप्या कुत्ता के मंुह में जा रहा है अरूण जी ही ले लेते?





प्रसुणजी आप महानगर में है और बड़े स्तर पर चीजों को देखते है पर यहां कस्बाई ईलाके में भ्रष्टाचार चरम पर है गांव पंचायत का मुखीया करोड़ो कमा चुका है और पंचायत सेवक जो अदना सा कर्मचारी है करोड़ों का मालीक है सब शिक्षक बहाली में मालामाल हो गया?

मैं तो बस यह कहना चाहता हूं कि भ्रष्टाचार अफीम की तरह सबको लती तो बना गया है पर अब यह जानलेबा साबीत हो रहा है और जानलेबा बिमारी से बचने के लिए लोग अन्ना की तरह देख रहे है।

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी, अन्ना् के नाम पर जो नया मसाला आप मीडिया वालो को मिला हैं, क्या. आप को लगता हैं कि सवा सौ करोड लोगो में से कुछ लाख लोग जो जुटे हैं उनमें से कुछ सौ लोग भी अपने कर्म क्षेत्र में ईमानदार होगे या हैं, आपकी भाषा में सवाल महज भ्रट्राचार का नहीं रहा और आंदोलन धीरे धीरे उस दिशा में बढता चला जाये जहा संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुये संसदीय राजनीति में बडे सुधार की बात शुरु हो जो सीधे तौर पर संविधान पर सवाल उठाती हैं, आपका ही चैनल तमाशबीनो से पुछता हैं कि आप अन्ना के साथ हैं या काग्रेससरकार के .....वैसे तो वहां होना ही जबाब हैं पर सवाल गजब का हैं , जो प्रजातंत्र और उसके चुनाव्‍ आयोग को खत्म कर दिया जाऐ,और फिर सांसदो विधायको का क्यां औच्तिय हैं, जिस तरिके से सुधारो की बात अन्नाा कर रहे हैं तो फिर शिवसेना / राज ठाकरे का आमची मुबंई, गुजरात का हिन्दुलतत्वर या फिर देश के प्राईम टाईम पर उ;प्र;सरकार का स्तुकतीगान सब ठीक है ......क्यो्की यही तो है भीडतंत्र हैं......

दीपक बाबा said...

मेरे ख्याल से गुब्बारा कुछ ज्यादा तो नहीं फूला दिया...

ER.R.L.PAWAR said...

PUNY PRASOON JI HARI OM.
I Heard about u from some one that you are different from the other media persons.So I thaught to join & read your articles,other wise I never like to read the article from todays media persons.I comletly agree with your openion.Now a days it is very very difficulte for a comman man to resolve his problume from the government offices.Some time people do not know who & where the problume will be resolved & from here curruption starts.ANNA HAZARE is doing the things which not done by the politician.Every indian should support this resolution.

himmat said...

wah wah, kamaal ki bat kahi aapne, isme bhi, Sharad potle ki baat jehan me churi ki tarah chal gai...bhut khub sir.

आम आदमी said...

प्रसून जी, जम्मू कश्मीर का नागरिक होने के कारण मैं आपको अपने personal experience से कुछ बताना चाहूँगा!

मैंने लाल चौक पर हुरियेत की रैलीयाँ और उन रैलियों को मिलता आपार जन समर्थन देखा है! मैंने 1999 में करगिल युद्ध देखा है ! रोजाना फौजियों का कारवां जब भी जम्मू से करगिल के लिए कूच करता तो highway के दोनों तरफ हजारों-लाखों की भीड़ उमड़ती और उनका मनोबल बडानें के लिए नारे लगाती और तालियाँ बजाती! मैंने 2008 में अमरनाथ ज़मीन विवाद और उसके बाद बिगड़े हालात को देखा है ! मैंने कर्फ़यू लगने के बाद हज़ारों की भीड़ को सड़क पर उतरते देखा है पर यकीन मानिये प्रसून जी, अन्ना के एक आवाहन पर जो जनसैलाब उमड़ा वैसा जनसैलाब आज तक मैंने कभी नहीं देखा!

अगर हमारे नेताओं ने हमें बांटा तो अन्ना ने हमें जोड़ा है! नेताओं को लगता है की हम संविधान पर ऊँगली उठा रहे है! हमारी शिकायत संविधान से नहीं बल्कि सिस्टम से है!

On a lighter note : तिहाड़ के बहार कुछ बड़े ही मज़ेदार नारे लगाये गए जैसे कि :-
"सोनिया जिसकी मम्मी है वो सरकार निकमी है"
"सारे युवा यहाँ हैं राहुल गाँधी कहाँ हैं"

Rupesh Dubey said...

Dear Prashun G,
I your fan .. Your narration and explanation on the current affairs are really very tremendous.

I never missed BADI KHABAR (10:00PM) in last 6 months. But feels upset when you generally not come with Badi Khabar. I and my wife always wait with excitement of 10PM..

We all love you....and pray for your long life so in order to get real analysis on the News.

thanks
Rupesh Dubey

संजय भास्‍कर said...

सचमुच देश का सवाल है तभी तो पूरा देश अन्ना के साथ उठ खड़ा हुआ है।