Wednesday, October 5, 2011

सत्ता-संगठन का बीजेपी पाठ

किसी भी राजनीतिक दल को सत्ता संगठन के आसरे मिलती है या फिर संगठन ही सत्ता के आसरे खड़ा होता है। किसी भी राजनीतिक दल की सियासी जमीन उसके खडे मुद्दों से बनती है या फिर दूसरे राजनीतिक दलों के मुद्दों पर राजनीति कर सियासी जमीन बनायी जा सकती है। दरअसल, यह दो ऐसे सवाल हैं जो बीजेपी को अंदर से परेशान किये हुये हैं। क्योंकि बीजेपी का जो रास्ता 1980 से शुरु होता है और वह 1998 में सत्ता मिलने बाद एकदम पलट जाता है। और 1998 से जो रास्ता शुरु होता है, वह 2011 में 1980 और 1998 से इतर पार्टी को ही सत्ता मान कर एक नयी दिशा में चलने की बैचेनी दिखाने लगता है। तो बिना सत्ता बीजेपी में प्रधानमंत्री की रेस का मतलब है क्या। यह समझने के लिये बीजेपी के ही पन्नों को पलटना जरुरी है। 1998 तक बीजेपी को संभालने और संगठन को मुद्दों के आसरे बढ़ाने के लिये अटल बिहारी वजपेयी,लालकृष्ण आडवाणी,भैरों सिंह शेखावत और मुरली मनोहर जोशी लगे रहे। और इसी दौर में बीजेपी संगठन के तौर पर मजबूत हुई। लेकिन 1998 में सत्ता मिलते ही बीजेपी के हर चेहरे ने मान लिया की अब सत्ता संभालना ही सबकुछ है। और पार्टी संगठन में भी होड सत्ता संभालने की ही मची।

इसलिये जो चेहरे सरकार से जुडे उन्हे पार्टी संगठन संभाले किसी भी पद वाले कार्यकर्ता से बड़ा बीजेपी नेता माना गया। यहां तक कि सत्ता संभाले मंत्रियों की ठसक के आगे बीजेपी के अधयक्ष की भी नहीं चली। इसलिये 1998 से 2004 तक ,जबतक सत्ता रही, इस दौर में जो भी बीजेपी अध्यक्ष बना उसकी हैसियत और उसका संघर्ष अध्यक्ष को लेकर पार्टी आफिस में पावर सेंटर बनने में ही गुजरा।

अगर एक कुशाभाउ ठाकरे को छोड दे तो बंगारु लक्ष्मण,जेना कृष्णमूर्ती और वैंकया नायडू ने बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर यही चाहा कि उन्हें भी कोई मंत्री की तरह तरजीह दे। कुशाभाउ का संकट यह रहा कि वह बीजेपी में आरएसएस के गुण डालने में संघर्ष करते रहे। जबकि बाकि तीन संघ की पढ़ाई करके अध्यक्ष बने लेकिन अध्यक्ष बनते ही इन्होंने संघ की समझ में राजनीतिक सत्ता का पाठ पढने और भोगने में वक्त गुजारा। तो पहला पाठ बीजेपी ने यही पढ़ा कि अगर सत्ता मिल जाये तो संगठन देखने-बनाने की जरुरत होती नहीं, वह खुद-ब-खुद बन जाता है। लेकिन 2004 में सत्ता जाते ही एक दूसरे पाठ की शुरुआत हुई। वाजपेयी को लगा कि पीएम बनने के बाद उनका कद पार्टी से बड़ा हो गया है तो उन्होने 2004 में मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान यह कहकर हंगामा मचाया कि अब रिटायर होने का वक्त आ गया है।

वहीं सत्ता का दूसरा चेहरा पार्टी का अध्यक्ष पद सत्ता गंवाने के बाद क्यों नहीं बनाया जा सकता है,यह सोच लालकृष्ण आडवाणी में पनपी। तो उन्होंने बिना देर किये 2004 में बीजेपी का अध्यक्ष पद हड़पा। यानी जिस आडवाणी के लिये 1998 से 2004 तक बीजेपी को विकसित करना मायने नही रखा। आरएसएस के उठाये मुद्दे तो दूर संघ के स्वंयसेवक भी बेमानी हो गये। (नार्थ इस्ट में 4 स्वयंसेवकों की हत्या पर संघ ने आडवाणी से कार्रवाई करने को कहा लेकिन आडवाणी बतौर गृहमंत्री सत्ता के गैर संघी मिजाज के लिये खमोश हो गये ।) उसी आडवाणी के लिये बीजेपी अध्यक्ष का पद अपने कद और अपनी साख के लिये जरुरी हो गया। तब बीजेपी ने दूसरा पाठ पढ़ा कि बीजेपी के अध्यक्ष का मतलब पार्टी का पावर सेंटर होता है। यानी संगठन तत्व वहा से भी गायब।

इस पावर सेंटर का राज्यों के बीजेपी मुखियाओं से बढ़कर कैसे दिखाया हताया जा सकता है, इसकी मशक्कत राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरु की। और उनका पहला प्रयोग झारखंड को लेकर बेहद सफल भी हुआ। जहां सत्ता का मतलब भ्रष्टाचार की लकीर को दिल्ली में बीजेपी दफ्तर में अध्यक्ष के कमरे तक कैसे खींची जा सकती है, इसे राजनाथ ने अर्जुन मुंडा के जरीये खींच कर बताया । तो बीजेपी ने तीसरा पाठ अध्यक्ष की सत्ता का पढा जिसकी पहल बीजेपी शासित राज्यो को दिल्ली के अनुकुल कर सकती है । और इस प्रक्रिया में पार्टी संगठन या मुद्दो को लेकर सत्ता में पहुंचने या सत्ता में दिखायी देने की ललक ने बीजेपी के उन चेहरो को राष्ट्रीय नेता बना दिया जो 1998 से 2004 के दौर में केन्द्र में मंत्री रहे । यानी बीजेपी में अध्यक्ष रहे नेताओ के बाद झटके में उन चेहरो ने पार्टी या संगठन के लिये मु्द्दो के आसरे काम करना ही बंद कर दिया जो मंत्री रहे थे । और इन्होने ही खुद को दूसरी कतार का नेता भी माना और राष्ट्रीय नेता की स्वयं-भू पहचान लिये देशभर में आज घूमते है।

अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, शहनवाज हुसैन, जसंवत सिंह, अंनत कुमार सरीखे बीजेपी के दर्जनो चेहरो के
नाम लिये जा सकते है ,जो देश भर में किस भी मुद्दे पर राष्ट्रीय नेता के तौर पर प्रतिक्रिया या भाषण देने के लिये जाने जाते हैं। तो चौथा पाठ बीजेपी ने राष्ट्रीय नेता होने और कहलाने के तरीके का पढ़ा। चूंकि राष्ट्रीय पहचान किसी की बची नहीं तो राष्ट्रीय पहचान को 1925 से ढोते आरएसएस ने अपनी पहचान का तमगा बिजेपी अध्यक्ष की छाती में ठोंका। और समूची बीजेपी में ऐसा भी कोई चू-चपड नहीं कर सका जो लगातार सत्ता के खातिर दिल्ली में संघ से बीजेपी को दूर कर बीजेपी के कांग्रेसीकरण की दिशा में जाते रहे। तो दिल्ली की छाती पर संघ ने नीतिन गडकरी को बैठा कर पांचवा पाठ साधा कि राष्ट्रीय पहचान सिर्फ आरएसएस की है। और राष्ट्रीय नेता का मुखौटा लगा कर घुमते किसी भी बीजेपी नेता की इतनी हैसियत नहीं कि वह संघ को हाशिये पर ढकेल सके। इन परिस्थितियों में चलती-गिरती बीजेपी के सामने जब सड़क से उठते आंदोलनों ने कांग्रेस के संकट या कहे मनमोहन सरकार मुश्किलो को बढ़ाया तो बीजेपी ने मिचमिचाते हुये आंखें खोली। बीजेपी कुछ समझती उससे पहले ही संघर्ष-सत्ता के अनुभवी आडवाणी सबसे पहले जागे और खुद को सबसे पहले ही सत्ता की लालसा में पीएम का उम्मीदवार बना बैठे।

लेकिन इस पाठ को बीजेपी पढ़े उससे पहले ही नरेन्द्र मोदी ने एक नया पाठ बीजेपी को पढ़ाया। और छठा पाठ बीजेपी ने पढ़ा या नहीं लेकिन यह पाठ समूची बीजेपी को समझ में आ गया कि सत्ता तक पहुंचने के लिये जो रसद संघ और कारपोरेट से चाहिये, वह कांग्रेस का खांटी विकल्प बनकर ही जुगाड़ी जा सकती है। और नरेन्द्र मोदी ने मौलाना बनने से इंकार कर और 2002 के दंगों को जिन्दा रखने के जिन तरीको को अपने सियासी उपवास में दिखाया, उसने एक तरफ जहां यह संकेत दे दिये कि आरएसएस आडवाणी को चाहे खारिज कर दें लेकिन मोदी को खारिज नहीं कर सकता। वहीं मोदी ने वाईब्रेंट गुजरात के मंच पर मनमोहन सिंह की इक्नामिक्स के कारपोरेट कर्णधारो [ अंबानी बंधु,टाटा,जेवी एस रेड्डी,रुईया ] को जमाकर जब उन्हीं से यह बुलवा दिया कि मोदी में पीएम बनने का एलीमेंट है तो फिर आडवाणी समेत समूची बीजेपी को भी समझ में आया कि मोदी अब नेता नहीं मुद्दा हैं। लेकिन इन सात पाठ को पढ़ते पढ़ते बीजेपी कहां है और कहां चली गई, इस पर हर तरफ खामोशी ही बरती गई।

क्योंकि तीन दशक पहले मुद्दों को खड़ा कर सत्ता तक पहुंची बीजेपी ने नया पाठ यह भी पढ़ा कि मुद्दों को लेकर उसके संघर्ष को सरोकार की मान्यता मिलती नहीं है और ऐसे में जमे जमाये मुद्दो पर अपनी सियासी बिसात बिछा कर शार्टकट की सत्ता का भभका पैदा किया जा सकता है। लेकिन 180 डिग्री में घुम चूकी इस राजनीति का कौन सा छोर सही है संयोग से यही बीजेपी की मुश्किल भी है और वर्तमान की ताकत भी । क्योकि बीजेपी अध्यक्ष गडकरी हो या लोकसभा-राज्यसभा में बीजेपी के प्रतिपक्ष के नेता सुषमा स्वराज या फिर अरुण जेटली या फिर एनडीए के नेता आडवाणी हो या गुजरात के सीएम मोदी और तो और आरएसएस को साधे हुये बीजेपी के आधे दर्जन नेता लग सभी को रहा है कि सत्ता मिलेगी तो पीएम वह क्यो बन सकता । और संयोग से पीएम पद का कोई हकदार चौबिसो घंटे सातो दिन राजनीति करता नहीं । सभी के अपने अपने बाजारानुकुल धंधे है जिसके आसरे हर कोई अपनी अपनी मार्केटिंग में व्यवस्त है । ऐसे में अगर सत्ता पाये बगैर हर कोई पीएम बनने का ख्वाब संजोय है तो दिल्ली से लेकर हर जिले में बीजेपी का छोटा-बडा कार्यकर्ता बिना एक राष्ट्रीय नेता के सत्ता पाने का ख्वाब संजोये हुये है ।

और संघ की मुश्किल है कि यह सबकुछ मदहोशी में नहीं बल्कि होशो-हवास में बीजेपी के भीतर एक सोच के तहत हो रहा है ।

3 comments:

सम्वेदना के स्वर said...

बीजेपी अब न भारत का प्रतिनिधित्व करती है न इंडिया का...
यह भांडिया (इंडिया में रहने वाला सुविधाभोगी भारत)पार्टी है!
कांगेस के साथ इसे भी दफन कर दिया जायेगा अगले चुनावों में !

सतीश कुमार चौहान said...

काग्रेस सिविल सोसाइटी, मीडिया और विपक्ष से लड रही हैं, बी जे पी महत्‍वकांक्षा से..............

dr.dharmendra gupta said...

RSS is very away from principles laid down by its founder dr. baliram hedgewar who emphasized on self discipline, he didn`t criticise d person or organisation with different opinion and worked without any political ambition but in later years his successor started to execute their political ambition in form of jana sangh which metamorphosised as BJP. so there is no fundamental thinking of BJP in real sense n thatswhy BJP remained always in a dilemma, n alwyas behaved as oppurtunist to take benefit of public emotions (every one knows when country was passing throug problem of poverty, unemployment, curruption, international pressure n economic crisis what was d need to raise temple issue, it was to just encash hindu emotion by dividing society n RULE over country without any national interest). BJP is like SODA WATER n RSS is like whisky, in TV advertisement rules to promote whisky is offence so whisky company also make soda water n then promote BRAND by advertising soda water only.........