Saturday, October 8, 2011

मीडिया से टकराव का रास्ता

इस वक्त सरकार के निशाने पर देश के दो बडे मीडिया संस्थान है । दोनों संस्थानों को लेकर सरकार के भीतर राय यही है कि यह विपक्ष की राजनीति को हवा दे रहे हैं । सरकार के लिये संकट पैदा कर रहे हैं । वैसे मीडिया की सक्रियता में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिस तरह के हालात देश के भीतर तमाम मुद्दों को लेकर बन रहे हैं उसमें मीडिया का हर संस्थान आम आदमी की परेशानी और उसके सवालों को अगर ना उठाये, तो फिर उस मीडिया संस्थान की विश्वनीयता पर भी सवाल खड़ा होने लगेगा। लेकिन सरकार के भीतर जब यह समझ बन गयी हो कि मीडिया की भूमिका उसे टिकाने या गिराने के लिये ही हो सकती है, तो कोई क्या करे?इसलिये मीडिया के लिये सरकारी एडवाईजरी में जहां तेजी आई है,वहीं जिन मीडिया संस्थानो पर सरकार निशाना साध रही है उसमें निशाने पर वही संस्थान हैं,जिनका वास्ता विजुअल और प्रिंट दोनों से है। साथ ही उन मीडिया संस्थानो के दूसरे धंधे भी है। दरअसल, सिर्फ मीडिया हाउस चलाने वाले मालिकों को तो सरकार सीधे निशाना बना नहीं सकती क्योंकि इससे मीडिया मालिकों की विश्वनीयता ही बढ़ेगी और उनकी सौदेबाजी के दायरे में राजनीति आयेगी। जहां विपक्ष साथ खड़ा हो सकता है। फिर आर्थिक नुकसान की एवज में सरकार को टक्कर देते हुये मीडिया चलाने का मुनाफा भविष्य में कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है। लेकिन जिन मीडिया हाउसों के दूसरे धंधे भी हैं और अगर सरकार वहां चोट करने लगे तो फिर उन मीडिया हाउसों के भीतर यह सवाल खड़ा होगा ही कि कितना नुकसान उठाया जाये या फिर सरकार के साथ खड़े होना जरुरी है। और चूकिं यह खेल राष्ट्रीय स्तर के मीडिया घरानों के साथ हो रहा है तो खबरें दिखाने और परोसने के अंदाज से भी पता लग जाता है कि आखिर मीडिया हाउस के तेवर गायब क्यों हो गये?दरअसल पर्दे के पीछे सरकार का जो खेल मीडिया घरानों को चेताने और हड़काने का चल रहा है,उसके दायरे में अतीत के पन्नों को भी टटोलना होगा और अब के दौर में मीडिया के भीतर भी मुनाफा बनाने की जो होड है, उसे भी समझना होगा।

याद कीजिये आपातकाल लगाने के तुरंत बाद जो पहला काम इंदिरा गांधी ने किया वह मीडिया पर नकेल कसने के लिये योजना मंत्रालय से विद्याचरण शुक्ल को निकालकर सूचना प्रसारण मंत्री बनाया और मंत्री बनने के 48 घंटे बाद ही 28 जून 1975 को विद्याचरण शुक्ल ने संपादकों की बैठक बुलायी। जिसमें देश के पांच संपादक इंडियन एक्सप्रेस के एस मुलगांवकर,हिन्दुस्तान टाईम्स के जार्ज वर्गीज, टाइम्स आफ इंडिया के गिरिलाल जैन,स्टैट्समैन के सुरिन्दर निहाल सिंह और पैट्रियॉट के विश्वनाथ को सूचना प्रसारण मंत्री ने सीधे यही कहा कि सरकार संपादकों के काम से खुश नहीं है,उन्हें अपने काम के तरीके बदलने होंगे। चेतावनी देते मंत्री से बेहद तीखी चर्चा वहां आकर रुकी जब गिरिलाल जैन ने कहा ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाये गये थे। इस पर मंत्री का जवाब आया कि यह अग्रेंजी शासन नहीं है, यह राष्ट्रीय आपात स्थिति है। और उसके बाद मीडिया ने कैसे लडाई लड़ी या कौन कहां, कैसे झुका यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन 36 बरस बाद भ्रष्ट्राचार के कटघरे में खड़े पीएमओ, कालेधन को टालती सरकार और मंहगाई पर फेल मनमोहन इक्नॉमिक्स को लेकर देश भर में सवाल खडे हुये और 29 जून 2011 को जब प्रधानमंत्री ने सफाई देने के लिये संपादकों की बैठक बुलायी। और प्रिट मिडिया के पांच संपादक जब प्रधानमंत्री से मिलकर निकले, तो मनमोहन सिंह एक ऐसी तस्वीर पांचों संपादको ने खींची जिससे लगा यही कि देश के बिगडते हालात में कोई व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशान है और कुछ करने का माद्दा रखता है, तो वह प्रधानमंत्री ही है। यानी जो कटघरे में अगर स्थितियां उसे ही सहेजनी हैं, तो फिर संपादक कर क्या सकते हैं या फिर संपादक भी अपनी बिसात पर निहत्थे हैं । यानी लगा यही कि जिस मीडिया का काम निगरानी का है वह इस दौर में कैसे सरकार की निगरानी में आकर ना सिर्फ खुद को धन्य समझने लगा, बल्कि सरकार से करीबी ही उसने विश्वनीयता भी बना ली। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन को जिस तरह मीडिया ने हाथों हाथ लिया उसने झटके में सरकार के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि जिस मीडिया को उसने अपनी छवि बनाने के लिये धंधे में बदला और बाजार अर्थव्यवस्था में बांधा अगर उसी मीडिया का धंधा सरकार की बनायी छवि को तोड़ने से आगे बढने लगे, तो वह क्या करेगी । क्या सत्ता इसे लोकतंत्र की जरूरत मान कर खामोश हो जायेगी या फिर 36 बरस पुराने पन्नों को खोलकर देखेगी कि मीडिया पर लगाम लगाने के लिये मुनाफा तंत्र बाजार के बदले सीधे सरकार से जोड़ कर नकेल कसी जाये। अगर सरकार के संकेत इस दौर में देखें तो वह दोराहे पर है।

एक तरफ फैलती सूचना टेक्नॉल्जी के सामने उसकी विवशता है, तो दूसरी तरफ मीडिया पर नकेल कस अपनी छवि बचाने की कोशिश है । 36 बरस पहले सिर्फ अखबारों का मामला था तो पीआईबी में बैठे सरकारी बाबू राज्यवार अखबारों की कतरनों के आसरे मंत्री को आपात स्थिति का अक्स दिखाते रहते, लेकिन अन्ना हजारे के दौर में ना तो बाबुओं का विस्तार टेक्नॉल्जी विस्तार के आधार पर हो पाया और ना ही सत्ता की समझ सियासी बची । इसलिये आंदोलन को समझ कर उस पर राजनीतिक लगाम लगाने की समझ भी मनमोहन सिंह के दौर में कुंद है। और राजनीति भी जनता से सरोकार की जगह पैसा बनाकर सत्ता बरकरार रखने की दिशा को ज्यादा रफ्तार से पकड़े हुये है। यानी सियासत की परिभाषा ही जब मनमोहन सिंह के दौर में आर्थिक मुनाफे और घाटे में बदल गयी है तो फिर मीडिया को लेकर सरकारी समझ भी इसी मुनाफा तंत्र के दायरे में सौदेबाजी से आगे कैसे बढ़ेगी। इसलिये जिन्होंने अन्ना हजारे के आंदोलन को प्रधानमंत्री की परिभाषा संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा तले देखा, उन्हें सरकार पुचकार रही है और जिस मीडिया ने अन्ना के अन्ना के आंदोलन में करवट लेते लोकतंत्र को देखा, उन्हें सरकार चेता रही है । लेकिन पहली बार अन्ना आंदोलन एक नये पाठ की तरह ना सिर्फ सरकार के सामने आया बल्कि मिडिया के लिये भी सड़क ने नयी परिभाषा गढ़ी । और दोनों स्थितियों ने मुनाफा बनाने की उस परिभाषा को कमजोर कर दिया जिसके आसरे राजनीति को एक नये कैनवास में मनमोहन सिंह ढाल रहे है और मीडिया अपनी विश्वसनीयता मनमोहन सिंह के कैनवास तले ही मान रही है । मीडिया ने इस दौर को बेहद बारीकी से देखा कि आर्थिक विकास के दायरे में राजनीति का पाठ पढाने वाले मनमोहन सिंह के रत्नों की चमक कैसे घूमिल पड़ी । कैसे सत्ता के गुरूर में डूबी कांग्रेस को दोबारा सरोकार कि सियासत याद आयी । कैसे कांग्रेस की बी टीम के तौर पर उदारवादी चेहरे को पेश करने में जुटी बीजेपी को राजनीति का 36 बरस पुराना ककहरा याद आया । और कैसे तमाशे में फंसा वह मिडिया ढहढहाया जो माने बैठा रहा कि अन्ना सडक से सासंदो को तो डिगा सकते है लेकिन न्यूज चैनल के इस मिथ को नहीं तोड सकते कि मनोरंजन का मतलब टीआरपी है । असल में मिडिया के अक्स में ही सियासत से तमाशा देखने की जो ललक बाजार व्यवस्था ने पैदा की उसने अन्ना के आंदोलन से पहले मिडिया के भीतर भ्रष्ट्राचार की एक ऐसी लकीर बनायी जो अपने आप में सत्ता भी बनी और सत्ता चलाने वालो के साथ खडे होकर खुद को सबसे विश्वनिय मानने भी लगी । लेकिन अन्ना के आंदोलन ने झटके में मिडिया की उस विश्वनियता की परिभाषा को पलट दिया जिसे आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन सिंह लगातार गढ रहे थे । विश्वनियता की परिभाषा बदली तो सरकार एक नही कई मुश्किलो से घिरी । उसे मीडिया को सहेजना है। उसे अन्ना टीम को कटघरे में खड़ा करना है । उसे संसदीय लोकतंत्र का राग अलापना है। उसे लाभ उठाकर विपक्ष को मात देने की सियासत भी करनी है। उसने किया क्या?

मीडिया से सिर्फ अन्ना नहीं सरकार की बात रखने के कड़े संकेत दिये। लेकिन इस दौर में सरकार इस हकीकत को समझ नही पा रही है कि उसे ठीक खुद को भी करना होगा । प्रणव मुखर्जी न्यूयार्क में अगर प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद यह कहते है कि दुर्गा पूजा में शामिल होने के लिये उन्हें 27 को बंगाल पहुंचना जरुरी है और दिल्ली में पीएम से मुलाकात संभव नहीं हो पाती इसलिये मुलाकात के पीछे कोई सरकार का संकट ना देखे । तो समझना यह भी होगा कि मीडिया की भूमिका इस मौके पर होनी कैसी चाहिये और हो कैसी रही है। और सरकार का संकट कितना गहरा है जो वह मीडिया का आसरे संकट से बचना चाह रही है । यानी पूरी कवायद में सरकार यह भूल गयी कि मुद्दे ही सरकार विरोध के है । आम लोग महंगाई से लेकर भ्रष्ट्राचार मुद्दे में अपनी जरूरतों की आस देख रहे हैं । ऐसे में जनलोकपाल का आंदोलन हो या बीजेपी की राजनीतिक घेराबंदी वह सरकार का गढ्डा खोदेगी ही । तो क्या मनमोहन सिंह के दौर में राजनीति से लेकर मीडिया तक की परिभाषा गढ़ती सरकार अपनी ही परिभाषा भूल चुकी है । और अब वह मीडिया को बांधना चाहती है। लेकिन इन 36 बरस में कैसे सरकार और मीडिया बदले है इसपर गौर कर लें तो तस्वीर और साफ होगी । उस दौर में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा चापलूसो ने कहा । अब अन्ना टीम की एक स्तम्भ ने अन्ना इज इंडिया और इंडिया इज अन्ना कहा । उस वक्त इंडिया दुडे के दिलिप बाब ने जब इंदिरा गांधी से इंटरव्यू में कुछ कडे सवाल पूछे तो इंदिरा ने यहकहकर जवाब नहीं दिया कि इंडिया दुडे तो एंटी इंडियन पत्रिका है । तब इंडिया दुडे के संपादक अरुण पुरी ने कवर पेज पर छापा । इंदिरा से इंडिया एंड एंटी इंदिरा इज एंटी इंडिया । और वहीं से इंडिया दुडे ने जोर पकडा जिसने मिडिया को नये तेवर दिये । लेकिन अब 17 अगस्त को जब संसद में पीएम मनमोहन सिंह ने अन्ना के आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र के लिये खतरा बताया तो कोई यह सवाल नहीं पूछ पाया कि अगर अन्ना इज इंडिया कहा जा रहा है तो फिर सरकार का एंटी अन्ना क्या एंटी इंडियन होना नहीं है । असल में 36 बरस पुराने ढोल खतरनाक जरुर है लेकिन यह कोई नहीं समझ पा रहा कि उस ढोल को बजाने वाली इंडिरा गांधी की अपनी भी कोई अवाज थी। और इंदिरा नहीं मनमोहन सिंह है। जो बरसों बरस राज्यसभा सदस्य के तौर पर संसद की लाइब्रेरी अक्सर बिजनेस पत्रिकाओ को पढकर ही वक्त काटा करते थे । और पडौस में बैठे पत्रकार के सवालो का जवाब भी नहीं देते थे । यह ठीक वैसे ही है जैसे 15 बरस पहले जब आजतक शुरु करने वाले एसपी सिंह की मौत हुई तो दूरदर्शन के एक अधिकारी ने टीवीटुडे के तत्कालिक अधिकारी कृष्णन से कहा कि एसपी की गूंजती आवाज के साथ तो हेडलाईन का साउंड इफैक्ट अच्छा लगता था। लेकिन अब जो नये व्यक्ति आये हैं उनकी आवाज ही जब हेडलाइन के घुम-घडाके में सुनायी नहीं देती तो फिर साउंड इफैक्ट बदल क्यो नहीं देते । और संयोग देखिये आम लोग आज भी आजतक की उसी आवाज को ढूंढते है क्योंकि साउंड इफैक्ट अब भी वही है। और संकट के दौर में कांग्रेस भी 36 बरस पुराने राग को गाना चाहती है।

16 comments:

anoop joshi said...

hamesa ki tarah sir bebak or rochak..............

dr.dharmendra gupta said...

govt. possess power and power currupts so it always try to gag honest effort of men of values. according to ANNA if someone lived life without a single spot in personal life, can dare to challange absolute power. jornalist like u r daring to say public voice before public and govt. without any hesitation as jounalism is passion for u . some media house with spotted journalist will succumb to govt. power as they have passion for money n other profits..........
RAJEEV SHUKLA became famous with programme RU-BA-RU with his crtical talk show but how shamelessly he now gives reply of jornalist looks very awkward, it just shows jornalism is only mean for this type of people to to achieve power as end..........

Sarita Chaturvedi said...

KYA IS SARKAR ME ITNI TAKAT HAI KI WO MEDIA KO BAADH SAKE,YADI AISA HUA TO ISASE DURBHAGYAPURN KUCH HO NAHI SAKTA..MEDIA KA ROLE KYA HOTA HAI ,PICHLE KUCH PAKRANO ME KHUL KAR SAMNE AAYA HAI AUR JO KAPHI SUKHAD RAHA HAI..PAR SAWAL YE HAI JIS SATA KA ASTITWA HOTE HUYE BHI NAHI HAI ..KYA MEDIA KO APNI OR SE KHUD PAHAL KAR US SATTA KI MADHOSI NAHI TODNI CHAHIYE..

Gyan Darpan said...

आज जिस तरह से मिडिया के अधिकांश लोग चाहे सरकारी दबाव व व्यवसायिक मजबूरियों के चलते सरकार के पक्ष में बोलते है या विपक्ष को इग्नोर करते है इससे जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग मिडिया को सरकारी छद्म सेकुलर भौंपू समझता है जनता में एक आम धारणा बनती जा रही है कि मिडिया की नजर सिर्फ सरकारी विज्ञापन रूपी हड्डी पर ही रहती है|

बहरहाल आपने मिडिया की मज़बूरी और इस सरकार के धूर्त हथकंडों को बड़ी बेबाकी से यहाँ लिखा है|
इसके लिए आपको पहली बार साधुवाद|

चंदन कुमार मिश्र said...

कुछ खास नहीं लगा। पढ़ा, बातें हैं भी…

दीपक बाबा said...

साधुवाद प्रसून जी, बहुत दिनों बाद आपने बेबाक चर्चा में सरकार को आईना दिखाया.

रोहित बिष्ट said...

सबको सन्मति दो भगवान.......

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी हम नासमझ एक बात ही देख रहे हैं पत्रकार का मिशन सच हो न हो पांच सितारा जीवन तो हैं ही ......

Satyavrat said...

Yes, the government is becoming more and more tyrannical as it sees no opposition. It is finding recluse in putting blame on earlier regimes, cunningly and falsely linking popular movements to select organisations. It is time that Anna and team understood the real motive behind these allegations: to take the movement away from its noble goals and engage the team Anna in shallow bickering. Every individual and organization of the country has a right to support the cause pursued by team Anna. There is nothing wrong if RSS or VHP decides to support Anna. However, it would be wrong if team Anna sought support from these organizations.(Congress has been seeking blessings from Imams and Shankaracharyas to further their shady political sgenda. The team Anna need not to respond to each allegation and render itself more and more vulnerable. moreover, the Team Anna should not have a negativity around its movement. It should focus on rooting out corruption rather than sacking the Congress government. The team Anna should be ready with the dossiers of all the probable candidates for Lok Sabha and also identify and motivate socially minded, upright individuals to be presented as alternative. Otherwise all their energy will be wasted in negativism and reacting to the commnets and allegations/inquiries and the country will miss a golden opportunity to transform itself.

shrawan mavai said...

shaandar or pura sach

sharad said...

good. lekin sawal ab bhi yahi hai ki media check n balance ka khel kar rahi hai. samay ke nusar media bhi maliko ki hatho dabai jati hai. aap to acha hai ki blog ke aasre hum tak ye bate pohchate hai. dhanyawad.....

worldchat said...

Punya jee, Aap bolte zyaada hain aur saokaar kam rakhte hain, yahi Media ka durbhaagya hai. Kaash ! Aap sarokaar bhi rakhte . Par kismat ko kaun badal sakta hai. Khuda meharbaan to...............

रौशन चौधरी said...
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रौशन चौधरी said...
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रौशन चौधरी said...

मैंने बहुत से पत्रकार और एंकर को देखा और सुना लेकिन इतना बेबाक राय रखने वाला किसी भी पत्रकार को नहीं देखा , मिडिया में आज मैं देख रहा हूँ किस हद तक सिर्फ सरकार से पुरस्कार लेने के लिए चापलूसी करते रहते हैं , जो खबर ही नहीं बननी चाहिए उसे पूरा पूरा दिन का समय दिया जाता हैं , और जो खबर बनती हैं या जो बननी चाहिए वो सबसे पहले लाने वाला शख्स हैं वो हैं पुण्य प्रसून बाजपेयी वो भी जी न्यूज की बड़ी खबर में , और रही बात सरकार की निति की तो वो किसी से छुपी हुई नहीं हैं , वो सच को दबाना चाहते हैं , और आप जो समाचार लाते हो जीसकी बिश्वस्नियता १०० % रहनी की गारंटी होती हैं , उसके लिए दिल से आपको धन्यबाद.

Unknown said...

kya baat hai sir... rajnaitik barikion se anjaan kabhi kabhi kahbron ko dekh kar aamaadmi ke man mai uthne wale sawalo ka jawab hai ye article...