Friday, October 21, 2011

सियासी रास्ते की खोज में संघ

जिस वक्त अन्ना हजारे रालेगण सिद्दी में राजनीतिक लकीर खींच रहे थे, उसी वक्त नागपुर में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत अन्ना की सफलता के पीछे संघ के स्वयंसेवकों की कदमताल बता रहे थे। जिस वक्त विदर्भ के एक किसान की विधवा कौन बनेगा करोड़पति में शामिल होने के बाद अपनी नयी पहचान को समेटे सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अपने जीने के हक का सवाल खड़ा कर रही थी, उस वक्त बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी दिल्ली में विदर्भ की चकौचौंध के गीत दिखाते हुये अपने विकास के पथ पर चलने के गीत गा रहे थे। तो क्या आरएसएस अपने महत्व को बताने के लिये कही भी खुद को खड़ा करने की स्थिति में है और सत्ता पाने के लिये बीजेपी किसी भी स्तर पर अपनी चकाचौंध दिखाने के लिये तैयार है।

यानी एक तरफ आरएसएस को यह स्वीकार करने में कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि उसकी धार कुंद हो चली है और वह अन्ना के पीछे खड़े होकर संघ परिवार को अन्ना से जोड़ सकती है। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी इस सुरूर में है कि सत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश में अपनी गाथा अपने तरीके से गाते रहना होगा। एक तरफ अन्ना अगर राजनीति रास्ता भी पकड़ें तो भी संघ को यह बर्दाश्त है और विदर्भ की बदहाली के बीच विदर्भ से ही आने वाले नीतिन गडकरी अगर विदर्भ का सच दिल्ली में छुपाकर बताये तो भी चलेगा। दोनो घटनाओं के मर्म को पकड़ें तो पहली बार यह हकीकत भी उभरेगी कि लगातार सामाजिक मुद्दों पर हारता संघ परिवार किसी तरह भी अपनी सफलता दिखाने-बताने को बैचेन है तो दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर नेताओ की आपसी कश्मकश अपने अपने कद को बढ़ाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। तो पहले आरएसएस की बात। मोहन भागवत में स्वयंसेवक बार बारस गेडगेवार की छवि देखना चाहता है। लेकिन हेडगेवार ने कभी किसी दूसरे के संघर्ष को मान्यता नहीं दी। क्योंकि जब आरएसएस संघर्ष के दौर में था। हेडगेवार से होते हुये गुरु गोलवरकर के हाथों की थपकी तले संघ का संगठन सामाजिक तौर पर जिस तरह अपनी पहचान बना रहा था, उस दौर में आरएसएस हिन्दु महासभा से टकराया। या फिर हेडगेवार के सामने जब जब सावरकर आकर खड़े हुये, तब तब संघ ने सावरकर को खारिज किया। उस दौर में भी आरएसएस को सामाजिक शुद्दीकरण के संघर्ष से जोडकर हेडगेवार ने यह सवाल उठाया कि राजनीतिक रास्ता सफलता का रास्ता नहीं है। और वहीं सावरकर लगातार सामाजिक मुद्दों के आसरे राजनीतिक तौर तरीको पर जोर देते रहे। और सफलता का पैमाना हिन्दुत्व के आसरे राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने की दिशा में बढ़ाते रहे। लेकिन ना तो हेडगेवार इसके लिये कभी तैयार हुये और ना ही गुरु गोलवरकर। इतना ही नहीं जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरु सरकार से इस्तीफा देकर गुरु गोलवरकर से मिलने पहुंचे तो पहला संवाद भी दोनों के बीच सामाजिक शुद्दीकरण और राष्ट्रवादी राजनीतिक को लेकर हुआ। जिसके बाद 1951 में राष्ट्रवादी राजनीति के नाम पर जनसंघ तो बनी लेकिन राजनीतिक करने वाले स्वयंसेवकों को यह पाठ पढ़ाया गया कि सत्ता हिन्दुत्व समाज के शुद्दीकरण से ही बनेगी। और हर लकीर खुद स्वयंसेवकों को खींचनी होगी। यानी आरएसएस या जनसंघ ने उस वक्त भी कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व या सेकुलर राष्ट्रवादी समझ को मान्यता नही दी।

अब यहां सवाल संघ के मुखिया मोहन भागवत का खड़ा होता है कि जिस दशहरे की सभा का इंतजार स्वयंसेवक साल भर करते है उस सभा में जब अपने भाषण से आरएसएस की सफलता दिखाने के लिये अन्ना हजारे के आंदोलन को हड़पने की कोशिश होती है तो फिर यह रास्ता जायेगा किधर। क्योंकि संघ के भीतर बीते 85 बरस से मान्यता बनी हुई है दशहरे के दिन संघ के मुखिया अक्सर आने वाले दौर का रास्ता ही स्वयंसेवकों को दिखाते हैं। हिन्दुत्व की बिसात पर सामाजिक शुद्दीकरण की वह चाल चलते है, जिससे राष्ट्रवाद जागे। मोहन भागवत पर सवाल करना इसलिये भी जरुरी है कि जिस दौर में जेपी के जरीये आरएसएस देश में राजनीतिक सत्ता पलटने की कवायद कर रहा था उस दौर में भी दशहरे के दिन तब के संघ के मुखिया गोलवरकर ने कभी जेपी संघर्ष के पीछे खड़े स्वयंसेवकों पर एक लाइन भी नहीं कहा था। ऐसे में अब अन्ना के आंदोलन की सफलता के पीछे अगर स्वयंसेवक का ही संघर्ष हो तो भी उसे इस तरह बताने का मतलब है, संघ के मुखिया भागवत की राजनीतिक चेतना सबसे कमजोर है। या फिर कमजोर होते संघ परिवार में आरएसएस अपनी जरुरत को बनाये रखने में जुटा है। या फिर आरएसएस के भीतर के तौर तरीके इतने लुंज-पुंज हो गये हैं कि उसे एक आधार चाहिये जो उसे मान्यता दिलाये। या सरकार जिस तरह आरएसएस को आतंक के कटघरे में खड़ा कर रही है, उससे बचने के लिये आरएसएस राजनीतिक सत्ता को डिगाने में लगे अन्ना आंदोलन में ही घुसकर अपनी पूंछ बचाना चाहता है।

दरअसल, इस सवाल का जवाब बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के तौर तरीको में भी छुपा है। देश में सबसे त्रासदीदायक क्षेत्र की पहचान विदर्भ की है। जहां बीते दस बरस में सवा लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। लेकिन अन्ना के दोलन की महक से जब बीजेपी को यह समझ में आया कि देश के बहुसंख्यक आम लोगों में सरकार के कामकाज के तरीको को लेकर आक्रोश है तो नरेन्द्र मोदी ने उपवास कर अपने कद को बढ़ाना चाहा। आडवाणी रथयात्रा शुरु कर अपने जुझारु व्यक्तित्व को बताने लगे। और इसी मौके पर नीतिन गडकरी ने अपने भाषणों का संकलन "विकास के पथ पर.. " के जरीये खुद का कद बढ़ाने की मशक्कत शुरु की। दिल्ली के सिरी फोर्ट में किताब के विमोचन के मौके पर नीतिन गडकरी ने संयोग से विदर्भ के उन्हीं जिलो में अपने कामकाज के जरीये विकास की लकीर खींचने का दावा फिल्मी तरीके से किया, जिन जिलो में सबसे ज्यादा बदहाली है।

20 मिनट तक कैमरे के जरीये ग्रामीण आदिवासियों को लेकर फिल्माये गयी फिल्म में हर जगह गडकरी की विकास की सोच थी या फिर खुश खुश चेहरे। लेकिन संयोग से 8 अक्टूबर को जब विदर्भ की यह फिल्म दिखायी जा रही थी उसी दिन विदर्भ के ही किसान की विधवा अपर्णा मल्लीकर की चिठ्टी 10 जनपथ पर पहुंची। जिसमें अपर्णा मल्लीकर ने अपने पति संजय की खुदकुशी के बाद अपने जीने के हक और अपने दोनों बेटियों के भविष्य के लिये बिना खौफ का जीवन मांगा था। क्योंकि जिस बेबसी में अपर्णा मल्लिकर रह रही हैं, उसमें पति की खुदकुशी की एवज में मिले सरकारी पैकेज कौन बनेगा करोडपति से जीती छह लाख चालीस हजार की रकम बचाने में ही उसकी जान पर बन आयी है। और पैसे हडपने में अपर्णा की जान के पीछे और कोई नहीं उसका अपने रिश्तेदार और पति के बडे भाई रधुनाथ मल्लीकार पड़े हैं। जो काग्रेस के नेता है और नागपुर के डिप्टी मेयर भी रह चुके हैं। इसलिये अपर्णा के लिये जीने के रास्ते भी बंद होते जा रहे हैं। क्योंकि किसानों की हालत विदर्भ में जितनी दयनीय है, उसमें बीजेपी अपनी विकास गाथा की लकीर खिंच रहे हैं तो कांग्रेस के स्थानीय नेता किसानों के पैकेज में अपना लाभ खोज रहे हैं।

ऐसे में कांग्रेस हो या बीजेपी दोनो का नजरिया किसानो को लेकर तभी जागता है, जब उन्हें कोई सियासी फायदा हो। यह खेल राहुल गांधी के कलावती के जरीये विदर्भ के यवतमाल ने पहले ही देखा चखा है। लेकिन सत्ता के विरोध की राजनीति करती बीजेपी का रुख भी जब किसानो के दर्द से इतर अपने चकाचौंघ में लिपट जाये और विदर्भ के केन्द्र नागपुर से खडी आरएसएस भी जब सावरकर के क्षेत्र रालेगण सिद्दी से निकले अन्ना हजारे के पीछे चलने को मजबूर हो, तब यह कहना कहा तक सही होगा कि देश का सबसे बड़ा परिवार देश को रास्ता दिखा सकता है। क्योंकि अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद से बीजेपी के भीतर सत्ता पाने की जो खलबलाहट शुरु हुई है, उसमें पहली बार आरएसएस भी अपनी बिसात बिछा रहा है। संघ को लगने लगा है कि इस बार सत्ता उन्हीं स्वयंसेवकों के हाथ में आये जो संघ परिवार का विस्तार करे। यानी बीजेपी के भीतर के मॉडरेट चेहरे और नरेन्द्र मोदी सरीखे तानाशाह उसे मंजूर नहीं हैं। क्योकि 1998 से 2004 के दौर में संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता जरुर भोगी लेकिन आरएसएस उस दौर में हाशिये पर ही रही। और गुजरात में नरेन्द्र मोदी चाहे मौलाना टोपी ना पहन कर संघ को खुश करना चाहते हों लेकिन अंदरुनी सच यही है कि मोदी ने गुजरात से आरएसएस का ही सूपडा साफ कर दिया है। खास कर मराठी स्वयंसेवको को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। प्रांत प्रचारकों में सिर्फ गुजराती बचे हैं जो मोदी के इशारो पर चलने के लिये मजबूर हैं। मधुभाई कुलकर्णी हो या मनमोहन वैघ सरीखे पुराने पीढियो से जुड़े स्वयंसेवक सभी को गुजरात से बाहर का रास्ता रणनीति के तहत ही नरेन्द्र मोदी ने किया। इससे पहले संजय जोशी को भी बाहर का रास्ता मोदी ने ही दिखाया। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के भीतर जिस तरह बड़ा नेता बनने के लिये संघ से दूरी बनाकर सियासत करने की समझ दिल्ली की चौकडी में समायी है, उससे भी आरएसएस सचेत है । और इसीलिये आरएसएस अब अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक छवि को तोड़ते हुये राजनीतिक तौर पर करवट लेते देश में अपनी भूमिका को राजनीतिक तोर पर रखने से कतरा भी नहीं है।

इसलिये अब सवाल यह नहीं है कि आडवाणी की रथयात्रा के बाद बीजेपी के भीतर आडवाणी की स्थिति क्या बनेगी । बल्कि सवाल यह है कि क्या इस दौर में आरएसएस अन्ना से लेकर बीजेपी की राजनीतिक पहल को भी अपने तरीके से इसलिये चलाना शुरु कर देगा जिससे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर संघ की सोच उभरे। और भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई तक के मुद्दो पर हाफंता संघ परिवार आने वाले दौर में एकजुट होकर संघर्ष करता नजर आये।

4 comments:

Saurav Gupta said...

प्रसूनजी,
आरएसएस के बारे मे आपने काफ़ी सटीक लिखा है लेकिन जिस अन्ना हज़ारे के आंदोलन का श्रेय संघ लेना चाहता है उसे युवाओं ने समर्थन दिया था जो समर्थन आरएसएस को हिन्दुत्व के नाम पर मिलन मुश्किल है

दीपक बाबा said...

गेंहूँ उपजा कर घर लाना फिर साफ़ कर के पीसने देना ... उसके बाद आटा माड कर रोटी पकाना.... अब बीते जमाने की बातें हो गयी हैं. :)

Sarita Chaturvedi said...

SANGH AB HAI HI KAHA....? FILHAL ADAWANI KA RATH TO KAI BAR RUK CHUKA HAI..PAR BANGLORE PAR BJP KI HARKAT....KYA KAHA JAY..RAJNITI KE SAMNE KITNA BADA SUNYA HAI ISE DEKH KAR LAGTA HAI..

daredevil said...

Bajpai ji ek baar ye clip chla deejiye Badi khabar mein
yakeen maniye aaj tak ka sabse bada joke hai

http://www.youtube.com/watch?v=Boi0qWrgwEg