अपनी ही बिसात पर क्या बदल गया अन्ना आंदोलन
नागपुर के वसंतराव देशपांडे हॉल में जैसे ही अरविंद केजरीवाल भाषण खत्म हुआ वैसे ही बाहर खड़े दस-पन्द्रह लोगों ने काले झंडे लहराने शुरु कर दिये। जो बाहर खड़े होकर भाषण सुन रहे थे उन्होंने काले झंडे दिखाने वालो को मारना-पीटना शुरु कर दिया। कुछ देर अफरा-तफरी मची। राष्ट्रीय मीडिया में खबर यही बनी कि केजरीवाल को काले-झंडे दिखाये गये। काले झंडे दिखाने वालो की भीड़ ने ही पिटाई कर दी। हाल के अंदर जो बात केजरीवल ने कही, उसका जिक्र कहीं खबर में नहीं था। अब जरा इस पूरे प्रकरण के भीतर झांक कर देखें। जिन्होंने काला झंडा दिखाया,वे नागपुर के घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ता थे। जिन्होंने पिटाई की उनमें सरकार को लेकर आक्रोश था। तो इस गुस्से को बीजेपी ने हड़पना भी चाहा। बताया गया घंटानाद के कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओ की पिटाई में बीजेपी कार्यकर्त्ता ज्यादा थे। केजरीवाल के भाषण की मेजबानी इंडिया अगेस्ट करप्शन के नागपुर चैप्टर ने की। लेकिन उसकी अगुवाई नागपुर के बिजनेसमैन अजय सांघी कर रहे थे। जिनका कोई ताल्लकुत राजनीति से नहीं के बराबर है।
लेकिन इस बिसात के दो सच है । पहला, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना टीम का संघर्ष इतना लोकप्रिय है कि जिस नागपुर में किसी राजनेता के भाषण में वसंतराव देशपांडे हाल आम आदमी से भरता नहीं है, वहीं अन्ना टीम को सुनने इतनी बडी तादाद में लोग पहुंचे की डेढ़ हजार का हाल छोटा पड़ गया। हाल के बाहर स्क्रीन लगानी पड़ी। करीब तीन हजार लोग बाहर बैठे और जो बात केजरीवाल ने 25 मिनट के भाषण में कही उसमें कोई खबर नहीं थी। क्योंकि जनलोकपाल को लेकर सरकार के रवैये को ही केजरीवाल ने रखा। यह परिस्थितियां देश के सामने कुछ नये सवाल खड़ा करती हैं। क्या जनलोकपाल को लेकर संघर्ष करती अन्ना की टीम में आम आदमी अपना अक्स देख रहा है। क्या अन्ना टीम को लेकर सत्ता और विपक्ष अपनी अपनी चाल ही चल रहा है। क्या चुनावी तरीका ही एकमात्र राजनीतिक हथियार है। क्या अन्ना टीम का रास्ता सिर्फ जनलोकपाल के सवाल पर लोगों को जगरुक बनाने भर का है। क्या जनलोकपाल का सवाल ही व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में देश को ले जायेगा इसलिये अन्ना हजारे ने देश के तमाम आंदोलनो को हाशिये पर ला खड़ा किया है। या फिर इन सारे सवालो ने पहली बार उस संसदीय राजनीति को ही महत्वपूर्ण बना दिया है जो राजनीति रामलीला मैदान में खारिज की गई।
याद कीजिये तो रामलीला मैदान में संसद को लेकर जन-संसद तक के सवाल अन्ना हजारे ने ही खड़े किये। सिर्फ सत्ताधारियो को ही नहीं घेरा बल्कि समूची संसदीय राजनीति की उपयोगिता पर सवाल उठाये। देश भर ने अन्ना की गैर राजनीतिक पहल से राजनीतिक व्यवस्था को चाबुक मारने को हाथों हाथ लिया। और आलम यहां तक आया कि जो प्रधानमंत्री 18 अगस्त को संसद में अन्ना हजारे के आंदोलन को देश के लिये खतरनाक बता रहे थे, वही प्रधानमंत्री 28 अगस्त को पलट गये और समूची संसद ने अन्ना से अनशन तोड़ने की प्रार्थना की। तो क्या जनलोकपाल के सवाल ने पहली बार संसदीय व्यवस्था को चुनौती दी। और भ्रष्टाचार के जो सवाल जनलोकपाल के दायरे में है, क्या वे सारे सवाल ही संसदीय चुनावी व्यवस्था की राजनीतिक जमीन है। अगर यह सारे सवाल जायज है तो फिर कही अन्ना हजारे का आंदोलन उन्हीं राजनीतिक दलों, उसी संसदीय राजनीतिक चुनावी व्यवस्था के लिये ऑक्सीजन का काम तो नहीं कर रहा, जिसे जनलोकपाल के आंदोलन ने एक वक्त खारिज किया। क्योंकि इस दौर में सरकार से लेकर काग्रेस के सवालिया निशान के बीच बीजेपी का लगातार मुस्कुराना और अन्ना टीम की पहल से देश में असर क्या हो रहा है, यह भी देखना होगा। चुनावी राजनीति की धुरी जनलोकपाल के सवाल पर अन्ना टीम है। कांग्रेस को इसमें राजनीतिक घाटा तो बीजेपी को राजनीतिक लाभ नजर आ रहा है। अन्ना आंदोलन से पहले सरकार इतनी दागदार नहीं लग रही थी। और बीजेपी की सड़क पर हर राजनीतिक पहल बे-फालतू नजर आती थी। आम लोगों में कांग्रेस को लेकर यह मत था कि यह भ्रष्ट है लेकिन बीजेपी के जरिये रास्त्ता निकलेगा ऐसा भी किसी ने सोचा नही था। लेकिन अन्ना आंदोलन ने झटके में एक नयी बिसात बिछा दी। लेकिन संयोग से देश में कभी व्यवस्था परिवर्तन की बिसात बिछी नहीं है तो चुनावी राजनीति से दूर अन्ना की बिसात पर कांग्रेस और बीजेपी ने अपने अपने मंत्रियों को रखकर अन्ना टीम को ही बिसात पर प्यादा बना दिया। जिसका असर यह हुआ कि एक तरफ कांग्रेस की झपटमार दिग्विजयी राजनीति ने बीजेपी और आरएसएस में जान ला दी तो दूसरी तरफ बीजेपी की चुनावी राजनीति ने सरकार की जनवरोधी नीतियों से इतर कांग्रेस की सियासी राजनीति को केन्द्र में ला दिया, वही इस भागमभाग में अन्ना टीम अपने दामन को साफ बताने से लेकर अपनी कोर-कमेटी और संसद की स्टेंडिंग कमेटी के सामने अपनी बात रखने में ही अपनी उर्जा खपाने लगी। और झटके में रामलीला मैदान के बाद देश के मुद्दों को लेकर किसी बड़े संघर्ष की तरफ बढने के बजाये अन्ना टीम का संघर्ष उस नौकरशाही के दायरे में उलझ गया जो सिर्फ थकाती है।
लेकिन बात देश की है और धुरी अन्ना का आंदोलन हो गया तो यह समझने की कोशिश खत्म हो गयी कि अन्ना का यह ऐलान सियासी राजनीति को क्यों गुदगुदाता है कि युवा शक्ति अन्ना के साथ है। जबकि देश में जो युवा शक्ति कॉलेज और विश्वविद्यालय से यूनियन के चुनाव के जरीये राजनीति का पाठ पढ़ती थी, उस पर भी तमाम राजनीतिक सत्ताधारियो ने मठ्ठा डाल दिया है। और यूपी के विश्वविद्यालय घुमती अन्ना टीम भी युवाओ को जनलोकपाल और सरकार के नजरिये में ही सबकुछ गुम कर दे रही है। यानी जो युवा कॉलेज के रास्ते राजनीति करते हुये संसद या विधानसभा के गलियारे में नजर आता था, उसे राजनीतिक दलो के बुजुर्ग आकाओं के परिवार की चाकरी कर राजनीति का पाठ पढ़ने की नयी सोच तमाम राजनीतिक दलों ने पैदा की। क्योंकि बंगाल में ममता हो या उससे पहले वामपंथी या फिर यूपी में मायावती हो या बीजेपी या काग्रेस शासित राज्य हर जगह यूनियन के चुनाव ठप हुये। ऐसे में देश की युवा शक्ति के सामने रास्ता अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच से राजनीति साधने का सही है या फिर सीधे राजनीति साधते हुये अन्ना सरीखे आंदोलन की हवा में खुद को मिलाकर चुनावी राजनीति की बिसात बदलने की सोच। अगर इस दायरे में युवाओं की राजनीतिक समझ को परखे तो अन्ना आंदोलन ने सत्ता को आक्सीजन ही दी है। दिल्ली के जेएनयू से लेकर बंगाल के खडकपुर में आईआईटी के परिसर में इससे पहले माओवाद को लेकर सत्ता पर लगातार सवाल दागने का सीधा सिलसिला था।
अन्ना आंदोलन से पहले आलम यह भी था कि गृहमंत्री पी चिदबरंम के जेएनयू जाने पर विकास के सरकारी नजरीये को लेकर बड़ी-बड़ी बहसे जेएनयू में होती रहीं। यानी विश्वविद्यालय यूनियन के चुनाव ना होने के बावजूद एक राजनीतिक पहल लगतार थी जो वर्तमान सत्ताधारियो को लेकर यह सवाल जरुर खड़ा करती कि मुनाफे की आड़ में कैसे देश के खनिज-संपदा से लेकर बिजली-पानी-स्वास्थ्य-शिक्षा तक को कॉरपोरेट और निजी हाथो में बेच रही है। वहीं आईआईटी खडकपुर में छात्र इस सवाल से लगातर जुझते कि वामपंथी हो या दक्षिणपंथी सभी ने देश के उत्पादन क्षेत्र को हाशिये पर ढकेल कर सर्विस सेक्टर को बढ़ावा देना क्यों शुरु कर दिया है। यहां तक की बंगाल में आने वाले आईटी सेक्टर के जरीये सरकारी विकास के नारे को यह कहकर खारिज किया कि जो किसान अन्न उपजाता है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण विप्रो, टीसीएस या इन्फोसिस कैसे हो सकते हैं। युवाओं के बीच इन्ही सवालो को राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अपने तरीके से रखा। चूंकि इन सारे तर्को को सत्ता कानूनी घेरे में लेकर आयी और जेएनयू से लेकर खडकपुर तक में नक्सली हिंसा से ही इन विचारो को जोड़ा गया और चूंकि नक्सली धारा संसदीय राजनीति का विकल्प खोजने की दिशा में चाहे ना लगी हो लेकिन उसने चुनावी राजनीति को हमेशा अपने तरीके से खारिज किया। ऐसे में सत्ताधारियो के सामने जब अन्ना का आंदोलन आया तो उन्हें यह अनुकूल भी लगा क्योंकि झटके में राजनीतिक सत्ता को लेकर बढ़ते आक्रोश की अन्ना दिशा आखिर में सत्ता से ही गुहार लगा रही है कि वह सुधर जाये। पटरी पर लौट आये। संविधान के तहत पहले जनता को स्वीकारे। ग्राम पंचायत को संसदीय राजनीति के विकेन्द्रीकरण के तहत मान्यता दे। नीतियों को इस रुप में सामने रखे, जिससे राज्य की भूमिका कल्याणकारी लगे। यानी वह मुद्दे जो कही ना कही देश को स्वावलंबी बनाते। वह मुद्दे जो उत्पादन को सर्विस सेक्टर से ज्यादा मान्यता देते। वह मुद्दे जो ग्रामीण भारत में न्यूनतम के लिये संघर्ष करने वालो की जरुरत को पूरा करते। और यह सब आर्थिक सुधार की हवा में जिस तरह गुम किया गया और लोगों में सियासत करने वालो को लेकर आक्रोश उभरा धीरे धीरे बीतते वक्त के साथ सभी अन्ना हजारे के आंदोलन में गुम होने लगा। क्योंकि आंदोलन वे देश को लेकर कोई बड़ी भूमिका निभाने और संघर्ष शुरु करने से पहले ही अपने चेहरे को साफ दिखाने की जरुरत महसूस की। अन्ना टीम इस सच से फिसल गयी कि देश की रुचि अकेले खड़े किसी भी सदस्य को लेकर नहीं है। जरुरत और रुचि दोनो संघर्ष को लेकर है। इसलिये भावुक फैसले ही अन्ना टीम को प्रबावित करने लगे। खडकपुर में प्रधानमंत्री के हाथों एक छात्र का डिग्री ना लेना अन्ना आंदोलन की सफलता की चेहरा बना। जेएनयू में शनिवार की रात में होने वाली बहसो में अन्ना और सरकार की कश्मकश में भ्रष्टाचार और आंदोलन अन्ना के लिये सफलता का सबब बना। लेकिन अन्ना आंदोलन की इस पूरी प्रक्रिया को वही राजनीति अपने तरीके से हांकने लगी जिसे एक दौर में अन्ना आंदोलन हांक रहा था। और वही मीडिया अन्ना टीम की बखिया उघेड़ने लगा जो संघर्ष के दौर में साथ खड़ा था। स्थितियां यहा तक बदली कि अन्ना के संघर्ष को आंदोलन की शक्ल जिस मीडिया ने दी, और जिसे बांधने के लिये अब सत्ता बेताब है। जबकि मीडिया का अन्ना आंदोलन से पहले का सच यह भी है कि वह मनोरंजन और तमाशे को दिखाकर पैसा कमाती रही। और सरकार मस्ती में रही। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद सरकार ने उसी मीडिया पर नियंत्रण करने की बात कहकर मीडिया को विश्वसनीय भी बना दिया। यानी अन्ना की बिसात की रामलीला ने झटके में उसी संसदीय राजनीति को राम और रावण बना दिया जिसे खारिज कर वह खुद महाभारत के मूड में कृष्ण बनकर रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे।
You are here: Home > अन्ना हजारे > अन्ना आंदोलन की मुश्किल
Wednesday, November 16, 2011
अन्ना आंदोलन की मुश्किल
Posted by Punya Prasun Bajpai at 1:03 PM
Labels:
अन्ना हजारे
Social bookmark this post • View blog reactions
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
कलियुग का महाभारत शकुनी , शिखंडियों , ब्रिह्नल्ला जैसे चरित्रों के बीच हो रहा है. हम लोग तो दर्शक-दीर्घा के हवाले हैं.
आगे-आगे देखिए होता है क्या?
अन्ना एक लोकलुभावना नारे के सिवा कुछ नही हैं उससे कुछ लोग अपनी राजनीति चमका रहे हैं, कुछ अपने भष्ट्राचार के पाप छुपा रहे हैं,क्योकी सब को पालूत हैं व्यवस्था को कोसना सबसे आसान काम हैं और विपक्ष से कुछ सहूलियते भी मिल ही जाती हैं,मीडियापरस्तो के पौबारह हो जाते हैं.....
अन्ना, अन्ना, अन्ना, अन्ना और अन्ना। प्रबन्धन और पैसा खर्च करके दस-बीस लाख लोग इकट्ठा करना मुश्किल है?…मन्दिर-मस्जिद मामले में भी लाखों लो शामिल हुए थे। ये आन्दोलन है, इसमें शक ही है…
wating for next artical.... good one but kuch uljha hua laga.
In a country where every individual is on sale, all probes are questionable.Fast and speedy collection of evidence are important for true justice, but we see large scale tampering with evidence and key witnesses turning.hostile. Can we expect justice in such a scenario? We are fast getting bereft of values. Religion, which was the prime vehicle to inculcate values has taken a back seat and has not been replaced by other credible sources/institutions. The Indian society finds itself at cross roads and is more prone to fall prey to immoral methods to gain success, wealth and fame.The opening of the economies, internet etc. have removed all bars and limitations on our society and we are all trying to scale new heights in all spheres of life and our motto is 'maximization of luxuries, pleasure etc.' and not 'happiness'. We are blindly following western social model: culture and practices, which have failed and proved incapable of providing true happiness. We are a bit confused about what we actually want: sensual pleasure of happiness of the soul. When we find seeking happiness too difficult,we turn back to sensual pleasure hoping that it will lead to ultimate happiness. This is the time when our Gurus can take lead and guide us, make us more confident in following a true, just path. We need a true light, not opportunists like Swami Agnivesh. Therefore, before commenting on incidents like 2 G scam, Bhanwari episode in Rajasthan or deaths of poor peasants, tribals in different parts of the country, we need to ask ourselves are we ready to accept whatever the judgement with complete trust, rising above caste, religion, class or language affiliation and ready to face adverse economic consequences of that judgement on ourselves? I am sure none of us is ready for it. It is the very reason that Anna's movement is bound to fail because we are not justice oriented citizens and we do not have any mechanism to develop our next generation also into justice orented citizens. The young generation is not ready to experience difficulties entailed by treading such path of justice. This generation does not have guts to walk the talk. Even if we get a Jan Lokpal Bill, our poor people will not get justice. ' Sona (gold) to tapane par hi chamakta hai. Bina tape chamak ki ummid bekar hai. The only road to happiness is life of morality and contentment all other theories are just useless junk.
Post a Comment