भारत रत्न के दायरे में खेल-खिलाड़ी आ जायेंगे यह कभी सोचा नहीं गया। लेकिन कला-संसकृति, साहित्य और समाजसेवा से लेकर स्टैट्समैन की कतार में अब अगर खिलाडि़यों की बात होगी तो इसके संकेत साफ हैं कि आने वाले दौर में बाजारवाद की लोकप्रियता भी भारत रत्न की कतार में नजर आयेगी। तो क्या भारत रत्न की जो परिभाषा आजादी के बाद गढ़ी गई अब उसे बदलने का वक्त आ गया। क्योंकि खेल को कभी राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा नहीं गया। संघर्ष और कला के मिश्रण में ही हमेशा भारत रत्न की पहचान खोजी गई। जबकि खेल के जरिए भारत को दुनिया में असल पहचान हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने ही पहली बार दी थी।
1936 में बर्लिन ओलंपिक में हिटलर के सामने ना सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया, बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर के सामने खड़े होकर तब उन्हें भरतीय होने का एहसास कराया, जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने हिटलर की उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था। लेकिन, ध्यानचंद उस वक्त भी भारत को लेकर अडिग रहे और अपने फटे जूते और लांस-नायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्व दिया। इतना ही नहीं आजादी से पहले देश के बाहर देश का झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलंपिक फाइनल में जर्मनी से भिड़ने से पहले बकायदा टीम के कोच पंकज गुप्ता, कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा हाथ में ले कर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खायी। लेकिन भारत रत्न की कतार में कभी ध्यानचंद को लेकर सोचा भी नहीं गया।
हालांकि इस कड़ी में नायाब हीरा शहनाई वादक बिसमिल्ला खान भी हैं। जिनकी शहनाई सुनकर एक बार अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुये अमेरिका में रहने की फरमाइश कर डाली थी। और कहा कि बिसमिल्ला खान जो चाहेंगे वह अमेरिका में मिलेगा। लेकिन तब बिसमिल्ला खान ने बेहद मासूमियत से यह सवाल किया था, 'गंगा और बनारस कैसे लाओगे। इसके बगैर तो शहनाई ही नहीं।' हालांकि बिसमिल्ला खान को भारत रत्न से जरूर नवाजा गया। लेकिन अब जब भारत रत्न के घेरे में खेल-खिलाड़ी को लेकर सरकार ने कवायद शुरू की है तो देश में खेल की दुनिया के सबसे बडे ब्रांड सचिन तेदुलकर को लेकर भारत रत्न चर्चा शुरु हो चुकी है। और इस कतार में लता मंगेश्कर से लेकर अन्ना हजारे और दर्जनों सांसद हैं जो बार-बार सचिन का नाम लेकर भारत रत्न देने की बात खुले तौर पर कह रहे है। समान्य तौर पर यह बहस हो सकती है कि सचिन तेंदुलकर से बड़ा नाम इस देश में और कौन है जिसने इतिहास रचा और अब भी मैदान पर है।
हालांकि चर्चा इस बात को लेकर भी सकती है कि सचिन ने देश के लिये किया क्या है। खिलाड़ी की मान्यता के साथ ही खुद को बाजार का सबसे उम्दा ब्रांड बनाकर सचिन की सारी पहल देश के किस मर्म से जुड़ती है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन जब भारत रत्न का कैनवास बड़ा किया ही गया है तो कुछ सवाल भारत रत्न को लेकर इससे पहले की सियासत को लेकर भी समझना जरूरी है। 1954 में शुरू हुई उस परंपरा में यानी बीते 57 बरस में चालीस लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया। लेकिन भारत रत्न से सम्मानित होने की सियासत पहले तीन भारत रत्न के बाद से डगमगाने लगी। 1954 में सबसे विशिष्ट नागरिक अलकरण भारत रत्न से उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व गवर्नर राजगोपालाचारी और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकटरमन को सम्मानित किया गया। लेकिन अगले ही बरस यानी 1955 में भारत रत्न के लिये प्रधानमंत्री कार्यालय से जो चौथा नाम निकला वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का था। यानी खुद के बारे में खुद ही सबसे बड़े नागरिक अलंकरण से सम्मानित होने की यह पहली पहल थी। इसके बाद इसका दोहराव 16 बरस बाद 1971 में इंदिरा गांधी ने किया। जब एक बार फिर पीएमओ से जो नाम भारत रत्न के लिये निकला उसमें खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ही नाम था।
दरअसल सत्ता की महक कैसे भारत रत्न के जरिए अपनी अहमियत बताती है यह 1991 में कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाते चद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करके दिया। प्रधानमंत्रियों की फेरहिस्त में नेहरु, इंदिरा और राजीव के अलावे दो ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई हैं जिन्हें भारत रत्न से नवाजा गया। जाहिर है इस दौर में बीजेपी बार-बार भारत रत्न के लिये अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेती है, लेकिन समझना होगा की सत्ता कांग्रेस की है। जब वाजपेयी सत्ता में थे तो अपने छह बरस के दौर में छह लोगो को भारत रत्न दिया। जिसमें 1999 में जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बरदोलई, रविशंकर, अमर्त्य सेन और 2001 में लता मंगेश्कर और बिसमिल्ला खां को भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन जब से मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से कोई नाम भारत रत्न के लिये के लिये नहीं उभरा। अब यहां सवाल सचिन तेंदुलकर का उठ सकता है। क्योंकि मनमोहन सिंह का मतलब अगर आर्थिक सुधार के जरिए भारत को बाजार में तब्दील करना है तो सचिन का मतलब उस बाजार का सबसे अनुकूल उत्पाद होना है।
सचिन को क्रिक्रेट ने बनाया और देश के उन 27 उत्पाद को सचिन तेदुलकर ने पहचान दी जिनके ब्रांड एंबेसडर सचिन तेदुलकर बने। इस वक्त देश में तीस लाख करोड़ के धंधे के सचिन तेदुलकर अकेले ब्रांड एम्बेसडर हैं। यानी जो पहचान देश के क्रिक्रेट खिलाड़ी होकर सचिन ने पायी उसकी रकम वह सालाना करोड़ों में बतौर खुद के नाम और चेहरे को बेचकर कमाते हैं। जिन उत्पादों का वह गुणगाण करते हुये नजर आते हैं उनमें से नौ उत्पाद तो देश के हैं भी नहीं, बाकि 18 उत्पादों का काम खुद को बेचकर मुनाफा बनाने से इतर कुछ है नहीं। लेकिन इसमें सचिन तेदुलकर का कोई दोष नहीं है। अगर इस दौर में देश का मतलब ही बाजार हो चला है। अगर विकास का मतलब ही शेयर बाजार और कारपोरेट तले औद्योगिक विकास दर के स्तर को उपर पहुंचाना है, तो फिर बतौर नागरिक किसी भी सचिन तेंदुलकर का महत्व होगा कहां। असल और सफल सचिन तो वही होगा जो उपभोक्ताओ को लुभाये। जो अपने आप में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो। इसलिये क्रिकेट का नया मतलब मुकेश अंबानी और विजय माल्या का क्रिक्रेट है। वो क्रिकेट जिसमें शामिल होने के लिये वेस्टइंडीज के क्रिक्रेटर क्रिस गेल अपने ही देश की क्रिक्रेट टीम में शरीक नहीं होते। पाकिस्तान के क्रिक्रेटर भारत के कॉरपोरेट क्रिक्रेट में शामिल ना हो पाने का दर्द खुले तौर पर तल्खी के साथ रखने से नहीं कतराते। और सचिन तेंदुलकर भी भारतीय क्रिक्रेट टीम में शामिल होकर 20-20 खेलने के जगह कॉरपोरेट क्रिक्रेट की 20-20 में शरीक होने से नहीं कतराते।
अगर ध्यान दीजिये तो भारत रत्न की कतार में कॉपोरेट घरानों में सिर्फ जे. आर. डी. टाटा को ही यह सम्मान मिला है। लेकिन अब के दौर में जे. आर. डी. टाटा से कहीं आगे अंबानी बंधुओं समेत देश के टॉप पांच उद्योगपति आगे पहुंच चुके हैं। दुनिया में भारतीय कारपोरेट की तूती बोलने लगी हैं। चार कॉरपोरेट ने तो इसी दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले इतना मुनाफा बनाया कि जे. आर. डी. के दौर में जो विकास टाटा ने आजादी के बाद चालीस बरस में किया उससे ज्यादा टर्न ओवर सिर्फ सात बरस में बना लिया। लेकिन देश से निकल कर खुद को बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर मान्यता पाने वालो में से किसी का नाम भारत रत्न की दौड़ में नहीं हैं।
यह कमाल अब की अर्थव्यवस्था का ही है कि देश के बीस करोड़ लोग एक ऐसे बाजार के तौर बन चुके हैं जिनके जरिए अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से भी भारत कूटनीतिक सौदेबाजी करने की स्थिति में है। और जी-20 से लेकर ब्रिक्र्स और एशियन समिट से लेकर जी-8 में भी भारत के बगैर आर्थिक विकास की कोई चर्चा पूरी नहीं होती। जबकि इसी दौर में देश में जो की जो पीढ़ी युवा हुई उसके लिये आजादी के संघर्ष का महत्व बेमानी हो गया। ना गालिब का कोई महत्व इस दौर में बचा ना भगत सिंह का। और खेल-खिलाड़ी को भारत रत्न के दायरे में लाने पर अगर ध्यानचंद के साथ सचिन तेंदुलकर का नाम ही सत्ता की जुबान पर सबसे पहले आया तो फिर इस बार भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही क्यों नहीं मिलना चाहिये जिनके विकास की चकाचौंध जमीन पर सचिन सिर्फ एक ब्रांड भर हैं, जबकि मनमोहन सिंह की तो समूची बिसात है। फिर प्रधानमंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह का नाम अगर भारत रत्न के लिये आयेगा तो यह नेहरु और इंदिरा की कड़ी को ही आगे बढायेगा।
Thursday, December 29, 2011
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सवाल भारत रत्न का या सम्मान का |
Friday, December 23, 2011
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कैसे बिछी लोकपाल पर मठ्ठा डालने की सियासी बिसात |
यह पहला मौका है जब सरकार ने किसी बिल को पेश करने से ज्यादा मशक्कत बिल पास न हो इस पर की। और अन्ना टीम को बात बात में पहले ही यह संकेत दे दिया गया कि अगर वाकई लोकपाल के मुद्दे में दम होगा तो आने वाले वक्त में अन्ना टीम का भी राजनीतिकरण होगा और उस वक्त कांग्रेस राजनीतिक तौर पर इस लड़ाई को लड़ लेगी। दरअसल, लोकसभा में लोकपाल के मसौदे को पेश करने से पहले सरकार और कांग्रेस के बीच असल मशक्कत इसके राजनीतिक लाभ को लेकर हुई। तीन स्तर पर समूची बिसात को बिछाया गया। पहले स्तर पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अन्ना टीम को टोटला की वह कहां किस मुद्दे पर कितना झुक सकती है। दूसरे स्तर पर बीजेपी का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की नब्ज को सरकार ने पकड़ा और तीसरे स्तर पर अन्ना के आंदोलन से आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की राजनीति पर पड़ने वाले असर को परखा गया। इसको बेहद महीन तरीके से इस अंजाम तक ले जाया गया जिससे सरकार के हाथ में लोकपाल की डोर भी हो और यह नजर भी ना आये कि अगर लोकपाल अटका हुआ है तो उसकी डोर भी सरकार ने ही थाम रखी है।
यह सिलसिला जिस तरह से बीते पांच दिनो में अंजाम तक पहुंचा वह अपने आप में सियासत का अनूठा पाठ है। क्योंकि कानून मंत्री सलमान खुर्शीद लगातार अन्ना टीम के संपर्क में यह कहते हुये रहे कि सरकार की मंशा मजबूत लोकपाल बनाने की है,लेकिन अन्ना टीम को ही यह सुझाव देने होंगे कि संसद के भीतर कैसे सहमति बने और सीबीआई सरीखे मुद्दे पर अगर सरकार की राय अलग है तो उसका कोई फार्मूला अन्ना टीम को बताना होगा। 34 मुद्दों को लेकर सलमान खुर्शीद के साथ चली चर्चा में अन्ना टीम के हर तरीके से रास्ता सुझाया और सलमान खुर्शीद यह संकेत भी देते रहे कि रास्ता निकल रहा है। लेकिन चर्चा में ब्रेक एक ऐसे मोड़ पर आया जब सलमान खुर्शीद ने लोकपाल के सवाल को राजनीतिक लाभ-हानि के आइने में देखना और बताना शुरु किया। और महाराष्ट्र कारपोरेशन चुनाव में शरद पवार की सफलता का उदाहऱण देते हुये सलमान खुर्शीद ने कहा कि जब चुनाव में हार जीत पर भ्रष्ट्रचार का मुद्दा या अन्ना आंदोलन महाराष्ट्र में ही असर नहीं डाल पाया तो फिर सरकार अन्ना आंदोलन के सामने क्यों झुके। और अगर लोकपाल को लेकर आंदोलन में इतनी ताकत हो जायेगी तो अन्ना टीम का भी राजनीतिककरण हो जायेगा। तो लड़ाई उसी वक्त लड़ लेंगे। और यह स्थिति तीन दिन पहले ही आयी और उसके 24 घंटे बाद ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अन्ना हजारे को चुनौती दे दी और पांच राज्यों में काग्रेस की चुनावी जीत का मंत्र भी कांग्रेसियो में फूंक दिया। वहीं इसी दौर में कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव की नब्ज को पकड़ा और कांग्रेस के दो कद्दावर नेताओं ने मुलायम को यही समझाया कि अगर मायावती भी सरकार के लोकपाल के खिलाफ है और समाजवादी पार्टी अन्ना के लोकपाल के हक में है तो फिर यूपी चुनाव में मुलायम के हाथ में आयेगा क्या।
यानी एक तरफ कांग्रेस ने अन्ना आंदोलन से बढ़ते बीजेपी के कद के संकट को बताया तो दूसरी तरफ लोकपाल के सवाल पर मायावती का सामने मुलायम को कोई लाभ ना मिलने की स्थिति पैदा की । इसी जोड़-तोड़ में अल्पसंख्यक का दांव मुलायम सिह यादव के सामने रखा गया । यानी यूपी के राजनीतिक समीकरण में मुस्लिम कार्ड को ही अगर लोकपाल से जोड दिया जाये तो लोकपाल का रास्ता भी रुक सकता है और मायावती पर मुलायम का दांव भी भारी पड़ सकता है। जबकि इसी के समानांतर राजनीतिक तौर पर कांग्रेस ने लगातार सरकार को भी इस सच से रुबरु कराया कि जब तक लोकपाल के सवाल को वोट बैंक की सियासत से नहीं जोड़ा गया और जब तक लोकपाल पर कोई भी कदम उठाने के बाद राजनीतिक लाभ कांग्रेस को नहीं मिले तब तक लोकपाल पर मठ्ठा डालना ही होगा। चूंकि राजनीतिक तौर पर लाभ उठाने या वोट बैंक को रिझाने के लिये ही सारे दल लोकपाल का खेल खेल रहे हैं तो ऐसे में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन के साथ ही सरकार को भी चलना होगा । और इसी के बाद उन मुद्दो पर ही मठ्टा डालने की दिशा में अभिषेक मनु सिंघवी स्टैंडिंग कमेटी के जरीये लगे जिसपर अन्ना का अनशन तुड़वाते वक्त संसद में सरकार की ही पहल पर सहमति बनी थी। यानी जिस अन्ना हजारे को लेकर अभी तक सरकार से लेकर सोनिया गांधी का रवैया फुसलाने-बहलाने वाला था, उसी अन्ना से उन्हीं के मुद्दो पर टकराव का रास्ता राजनीतिक बिसात के तौर पर अख्तियार किया गया। जिससे लोकपाल को लेकर आगे यह ना लगे कि टकराव बीजेपी से है।
यानी जब समझौते की स्थिति भी आये तो गैर राजनीतक तौर पर काम कर रहे अन्ना हजारे ही नजर आयें और बीजेपी राजनीतिक संघर्ष का लाभ उठाने के घेरे से बाहर हो जाये । इस बिसात का पहला राउंड लोकपाल पेश करने के साथ ही सरकार के पक्ष में रहा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन सरकार की असल परीक्षा 27 दिसंबर से शुरु होगी। क्योंकि तब संसद के सामानांतर सड़क पर जनसंसद का भी सवाल होगा । और अब सरकार-कांग्रेस के धुरंधर अपनी राजनीतक बिसात पर इसी मशक्कत में लगे है कि कैसे संसद के सामने सड़क के आंदोलन को हवा का झोंका भर बना दिया जाये।
Tuesday, December 20, 2011
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सत्ता की सांप-सीढ़ी का खेल सीबीआई |
दिल्ली में जंतर-मंतर पर अन्ना के साथ मंच पर बैठे राजनीतिक दल के नेताओं में से एक ने जब लोकपाल के ढांचे पर अरविंद केजरीवाल से सवाल किया किया गया कि वह 40 से 50 ईमानदार कर्मचारी कहा से लायेंगे। तो केजरीवाल ने बेहद मासूमियत से जवाब दिया कि सवाल ईमानदार कर्मचारियो का नहीं है, बल्कि ईमानदार व्यवस्था का है। जैसे रेलवे में भ्रष्ट अधिकारी दिल्ली मेट्रो से जुड़ते ही ईमानदार कैसे हो जाता है। इसका मतलब है बदलाव कर्मचारियों में व्यवस्था बदलने के साथ ही होगा। जाहिर व्यवस्था बदलाव की इस सोच को अगर सीबीआई के अक्स में देखें तो एक नया सवाल खड़ा हो सकता है कि सीबीआई के स्वायत्त संस्था होने के बावजूद सत्ता ने जब चाहा अपने अनुकुल हथियार बना कर सीबीआई को पैनी धार भी दी और भोथरा भी बनाया। यानी सत्ता के तौर-तरीके अगर देश के बदले सत्ता में बने रहने या निजी लाभ के लिये काम करने लगे तो फिर कोई भी स्वायत्त सस्था भी कैसे सरकार के विरोध की राजनीति करने वाले को सत्ताधारियों के लिये दबा सकती है, यह सीबीआई के जरिए हर मौके पर सामने आया है।
सीबीआई को लेकर किसी के भी जेहन में बोफोर्स घूसकांड से लेकर बाबरी मस्जिद में नेताओं को फांसने और क्लीन चिट देना रेंग सकता है। बोफोर्स कांड में गांधी परिवार के करीबी क्वात्रोकी को लेकर सीबीआई ने तीन बार यू टर्न लिया। और बाबरी कांड में लालकृष्ण आडवाणी को क्लीन चिट देने की पहल कैसे रायबरेली कोर्ट में हुई यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन सत्ता के लिये कैसे सीबीआई सत्ता के निर्देश पर काम करता है यह कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ने ऐसे ऐसे प्रयोग किये हैं कि सीबीआई देश में जांच एजेंसी से ज्यादा पिंजरे में बंद शेर लगने लगा है। जिसे पिंजरे से खोलने का डर दिख कर सत्ता अपनी सत्ता बचाती है।
सीबीआई को सांप-सीढ़ी के खेल में कैसे बदला गया इसका पहला खुला नजारा अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए की सत्ता में 1998 में ही नजर आया था। तब सरकार बनाने में वाजपेयी के पीछे जयललिता भी खड़ी थी । तो एनडीए ने सत्ता में आते ही जो पहली चाल चली वह जयललिता के खिलाफ सीबीआई की उस जांच को रोक दिया जो जन्मदिन में मिली भेंट के तौर पर करोड़ों के डिमांड-ड्राफ्ट को लेकर 1996 में करुणानिधि सरकार ने शुरू की थी। तब जयललिता को जन्मदिन पर 89 डिमाड ड्राफ्ट मिले थे। जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका से भी एक-एक ड्राफ्ट आया था। जांच इनकम टैक्स के डायरेक्टर जनरल ने शुरु की और मामला सीबीआई तक जा पहुंचा।
लेकिन वाजपेयी सरकार से जयललिता की खटपट भी जल्द शुरु हो गयी और अप्रैल 1999 में जब जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया और उसके बाद वाजपेयी सरकार गिर गई। लेकिन संयोग से चुनाव बाद जैसे ही वाजपेयी सरकार को बहुमत मिला तो इस बार एनडीए के खिलाड़ी बदल गये और जयललिता की जगह करुणनिधि ने ले ली. इसके फौरन बाद सीहीआई को निर्देश दिया गया कि जयललिता की बंद फाइल खोल दी जाये। और इस बार सीबीआई ने अपने असली दांत दिखाये। 15 महीने में सीबीआई ने चार्जसीट तैयार कर ली। यह अलग मसला है कि फिर सरकार ने जयललिता के खिलाफ कार्रवाई पर ही रोक लगा दी।
सीबीआई को सांप सीढी बनाने का ऐसा ही खेल कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव को लेकर खेला। आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में जिस सीबीआई ने मुलायम को घेरा उसी सीबीआई ने मुलायम को बेदाग कहने में भी हिचक नहीं दिखायी। यह हुआ कैसे यह दुनिया के किसी भी खेल से ज्यादा रोचक है। नवंबर 2005 में मुलायम के खिलाफ जब वीएन चतुर्वेदी ने करोड़ों की संपत्ति बटोरने के तथ्य रखे तो कोर्ट ने मार्च 2007 में सीबीआई को प्राइमरी जांच का निर्देश दिया। सीबीआई ने अपनी कार्रवाई शुरू की और जांच के बाद माना कि मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार वालों के खिलाफ मामला बनता है। इसलिये केस दर्ज करने के लिये सीबीआई ने अदालत का दरवाजा खटकटाया। लेकिन इसी बीच मनमोहन सरकार परमाणु डील पर फंस गयी। वामपंथियों ने समर्थन वापस लिया तो मनमोहन सरकार को मुलायम की जरूरत आन पड़ी। जुलाई 2008 में लेफ्ट ने समर्थन वापस लिया। और जुलाई में ही मुलायम की बहू डिंपल का पत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दफ्तर यह कहते हुये पहुंचा कि उन्हे फंसाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने मुलायम की बहू के पत्र का जवाब देने में देर नहीं की और सीबीआई से इस पर कानूनी सलाह लेने की बात कही। संसद में वोटिंग हुई तो सरकार बच गयी।
मुलायम की पार्टी ने मनमोहन सरकार का साथ दिया। तीन महीने बाद ही सोलिसिटर जनरल वाहनवति ने अदालत में दलील दी की मुलायम के परिवार की संपत्ति को जांच के दायरे में लाना ठीक नहीं। और बीस दिन के बाद दिसबंर 2008 में ही सीबीआई ने मुलायम के खिलाफ मामले में यू दर्न लेते हुये कोई मामला ना बनने की बात कही। और मुकदमा दर्ज करने की भी जरूरत से इंकार कर दिया। झटके में खेल बदल गया तो 10 फरवरी 2009 को मुलायम के मामले की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस सायरस जोसेफ को कहना पड़ा कि सीबीआई के कामकाज का तरीका ऐसा लगता है जैसे वह केन्द्र सरकार और कानून मंत्रालय के लिये काम कर रही है। लेकिन जब खिलाड़ी ही खेल बदलने लगें तो रेफरी क्या करे। फैसला सुरक्षित हो गया।
लेकिन मायावती को लेकर तो सीबीआई के जरिए सांप-सीढ़ी से आगे का खेल भाजपा और काग्रेस दोनों ने खेला। पहले वाजपेयी की अगुवाई वाले एनडीए ने , तो उसके बाद मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए ने। यह खेल कही ज्यादा ही रोचक रहा। ताजमहल के पीछे खुले आसमान में कॉरिडोर बनाने के मायावती के सपने को लेकर वाजपेयी सरकार तबतक आं,ा मूंदे रही जब तक मायावती का समर्थन मिलता रहा। लेकिन अगस्त 2003 में जैसे ही मायावती ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लिया वैसे ही सीबीआई ने मायावती के खिलाफ 175 करोड़ के ताज प्रोजेक्ट के मद्देनजर ना सिर्फ केस रजिस्टर किया बल्कि घर और दफ्तर पर सीबीआई के ताबड़तोड़ छापे भी पड़ने लगे।
2004 में यूपीए की सत्ता बनने का मौका आया तो सोनिया गांधी ने मायावती का दरवाजा खटखटाया और सत्ता में मनमोहन सिंह के आते ही ताज कोरिडोर मामले पर सीबीआई खामोश हो गयी। राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने मायावती के खिलाफ ताज फाइल बंद करवा दी। लेकिन 2007 में जैसे ही मायावती की यूपी की सत्ता में घमाकेदार वापसी हुई वैसे ही कांग्रेस को लगा कि माया की कोई ना कोई पूंछ तो पकड कर रखनी ही होगी। नहीं तो जयललिता की तर्ज पर यह भी कभी भी फिसल सकती है। तो सत्ता मे आने के बाद के जश्न में मने जन्मदिन के मौके पर सरकार ने घेराबंदी की। केस रजिस्टर हुआ। मामला आगे बढ़ा। मनमोहन सरकार 2010 में कट मोशन के दौरान सदन में फंसी तो 23 अप्रैल 2010 को इनकम टैक्स और सीबीआई माया के खिलाफ सक्रिय हो गई। 27 अप्रैल को सरकार कट मोशन मे मायावती के समर्थन से बची तो तुरंत ही इनकम टैक्स ने मायावती को आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अपनी तरफ से क्लीन चिट दे दी। लेकिन अब यूपी के विधानसभा चुनाव करीब हैं और राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगाने में यूपी के हर नुक्कड़-चौराहे पर मायावती को घेर रहे हैं तो सितबंर 2011 में सीबीआई ने इन्कम टैक्स विभाग से अपनी जांच को अलग रखते हुये कोर्ट में बयान दिया कि इनकम टैक्स के कहने भर से मायावती की फाइल बंद नहीं की जा सकती। जो धन मायावती के पास आया है उसकी जांच जरूरी है, कहीं यह पूंजी अपराधिक गठजोड से तो नहीं आई। तो, जो मामला इनकम टैक्स विभाग के जरिए सीबीआई तक पहुंचा उसी मामले में इनकम टैक्स को ओवरटेक कर सीबीआई ने अपनी जांच के पैंतरे को बदल दिया।
हुआ यह कि 18 नवंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला आया तो सुनवाई की अगली तारीख 1 फरवरी 2012 तय की गई। यानी ऐसी तारीख जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार चरम पर होगा। वैसे मोके पर मायावती के खिलाफ मामला जाये या समर्थन में दोनों परिस्थितियो में यह तो तय है कि चुनाव के केन्द्र में मायावती ही होगी। यानी सांप-सीढी का ऐसा खेल जिसमें सीबीआई के घेरे में जो आया वह ऊपर जा कर भी नीचे आयेगा और नीचे से ऊपर की चढ़ान भी डर से चढ़ ही लेगा। अब ऐसे खेल में लोकपाल की कितनी ज्यादा जरूरत देश को है और देश के सामने वह कौन सा फार्मूला है जिसमें सत्ताधारी भविष्य में अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये नहीं बल्कि देश में ईमानदारी बचाने के लिये खेल खेलेंगे। और जो सवाल जंतर-मंतर पर ईमानदार कर्मचारी का उठा वह नये तरीके से संसद में कल नहीं उटेगा इसकी गांरटी कौन ले सकता है।
Wednesday, December 7, 2011
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कठघरे में पत्रकार क्यों? |
अंडरवर्ल्ड के कठघरे में एक पत्रकार मारा गया। और मारे गये पत्रकार को अंडरवर्ल्ड की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। और सरकारी गवाह भी एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी खबरों को नापते-जोखते पत्रकार कब अंडरवर्ल्ड के लिये काम करने लगे यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है, जिसमें पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्नसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है जब मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर सवाल और कोई नहीं प्रेस काउंसिल उठा रहा है। और पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिये मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में इंडस्ट्री मान लिया गया है और खुले तौर पर शब्द भी मीडिया इंडस्ट्री का ही प्रयोग कया जा रहा है।
तो मीडिया इंडस्ट्री पर कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम को समझ लें। जो मुंबई में मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज नोटिंग्स बताती हैं कि मिड डे के पत्रकार जे डे की हत्या अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन ने इसलिये करवायी क्योंकि जे डे छोटा राजन के बारे में जानकारी अंडरवर्ल्ड के एक दूसरे डॉन दाउद इब्राहिम को दे रहा था। एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा ने छोटा राजन को जेडे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिये बिना हिचक दी क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जेडे से भी बड़ा करना था। दरअसल, पत्रकारीय हुनर में विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे, उसका कद बड़ा माना ही जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाउद इब्राहिम ने किया तो यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नो पर जेडे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ पड़ा। क्योंकि अंडरवर्ल्ड की खबरों को लेकर जेडे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। और उस खबर को देखकर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनेता भी सक्रिय हुये। क्योंकि सियासत के तार से लेकर हर धंधे के तार अंडरवर्ल्ड से कहीं ना कहीं मुबंई में जुड़े हैं। यानी अंडरवर्ल्ड से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिये क्या मायने रखती है और अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने वाले पत्रकार की हैसियत ऐसे में क्या हो सकती है, यह समझा जा सकता है।
ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को कवर करता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उसी संस्थान या व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है। या फिर यह अब के दौर में पत्रकारीय मिशन की जरुरत है। अगर महीन तरीके से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते है, अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कारपोरेट घरानो के नये वेंचर की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार के बारे में पहले से जानकारी देने और कौन मंत्री बन सकता है, इसकी जानकारी देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है, जब वह सही होता है। लेकिन क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरे देते हैं, वह उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता के नये मापदंड हों। और क्या यह भी संभव है जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता जिस पत्रकार को खबर देती हो उसके जरीये वह अपना हित पत्रकार की इसी विश्सवनीयता का लाभ न उठा रही हो। और पत्रकार सत्ता के जरीये अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक ना बना रहा हो।
यह सारे सवाल इसलिये मौजूं हैं क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है, यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि एशियन ऐज की पत्रकार जिगना वोरा पर तो मकोका लग जाता है क्योंकि अंडरवर्ल्ड उसी दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में कभी किसी पत्रकार के खिलाफ कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिये भी यह विशेषाधिकार है।
दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। और धीरे धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागेदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है, उसे आगे बढ़ाने में राजनेताओं से लेकर कॉरपोरेट या अपने अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। और यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया इंडस्ट्री का सबसे चमकता हीरा माना जाता है । और यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया इंडस्ट्री में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होता है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को मीडिया हाउस के धंधे में ला कर काली समझ को विश्वसनीय होने का न्यौता भी देता है।
हाल के दौर में न्यूज चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिट-फंड करने वाली कंपनियो से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के न्यूज चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही फ्रॉड तरीके से चलती है। मसलन लाइसेंस पाने वालो की फेरहिस्त में वैसे भी हैं, जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं। लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार के जो नियम पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिये चाहिये उसमें वह फिट बैठते है, तो लोकतांत्रिक देश में किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह कोई भी धंधा कर सकता है। लेकिन यह परिस्थितियां कई सवाल खड़ा करती हैं, मसलन पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की अर्थव्यवस्था पर ही टिका है। या फिर सरकार का कोई फर्ज भी है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये-टिकाये रखने के लिये पत्रकारीय मिशन के अनुकुल कोई व्यवस्था भी करे।
दरअसल इस दौर में सिर्फ तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारो का कद महत्वपूर्ण भी बनाया गया जो सत्तानुकुल या राजनेता के लाभ को खबर बना दें। अखबार की दुनिया में तो पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन न्यूज चैनलों में कैसे पत्रकारीय हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों की होड को देखे तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है, जिसके स्क्रीन पर सबसे महत्वपूर्ण नेताओ की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने बताने के सामानांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का एहसास कराने का ही है। यानी इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिये पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा था। पत्रकारिता को सरकार पर निगरानी करने का काम माना गया। लोकतांत्रिक राज्य में चौथा स्तंभ मीडिया को माना गया । अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो। पैसा है तो काम करने का अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाओ । और अपने प्रतिद्दन्दी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो। ध्यान दीजिये तो मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कारपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है। और अगर नहीं हो सकती है तो फिर चौथे खंभे का मतलब है क्या। सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कारपोरेट में क्या फर्क होगा। कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यो नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन सरकार कौन सी नीति ला रही है। कैबिनेट में किस क्षेत्र को लेकर चर्चा होनी है। पावर सेक्टर हो या इन्फ्रास्ट्रक्चर या फिर कम्यूनिकेशन हो या खनन से सरकारी दस्तावेज अगर वह पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह ना बता पायें कि सरकार किस कारपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा।
जाहिर है सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिये बैचेन किसी कॉरपोरेट हाउस के लिये काम करने लगेगा। और राजनेताओं के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुबंई में तो पत्रकारों की एक बडी फौज मीडिया छोड़ कारपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिये दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी है। यह परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया हाउस की रप्तार निजि कंपनी से होते हुये कारपोरेट बनने की ही दिशा पकड़ रही है और पत्रकार होने की जरुरत किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। और ऐसे में प्रेस काउंसिल मीडिया को लेकर सवाल खड़ा करता है तो झटके में चौथा खम्भा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आती है। लेकिन नयी परिस्थितियों में तो संकट दोहरा है। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होते ही जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल के चैयरमैन बन जाते है और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने अपने मीडिया हाउसों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की ही मशक्कत में जुटे संपादकों की फौज खुद ही का संगठन बनाकर मीडिया की नुमाइन्दी का ऐलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिये प्रेस काउसिंल के तौर तरीको पर बहस शुरु कर देती है। और सरकार मजे में दोनो का साख पर सवालिया निशान लगाकर अपनी सत्ता को अपनी साख बताने से कतराती। ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के दायरे में मीडिया पर बहस हो। अगर नही तो फिर आज एशियन एज की जिगना वोरा अंडरवर्ल्ड के कटघरे में है, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले के खेल की बिसात पर है तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे।
Friday, December 2, 2011
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देश नहीं, सत्ताधारियों की आजादी |
पहली बार विदेशी निवेश पर घिरे 'मनमोहनोमिक्स' ने मौका दिया है कि अब बहस इस बात पर भी हो जाये कि देश चलाने का ठेका किसी विदेशी कंपनी को दिया जा सकता है या नही। संसदीय चुनाव व्यवस्था के जरीये लोकतंत्र के जो गीत गाये जाते हैं अगर वह आर्थिक सुधार तले देश की सीमाओं को खत्म कर चुके हैं,और सरकार का मतलब मुनाफा बनाते हुये विकास दर के आंकड़े को ही जिन्दगी का सच मान लिया गया है तो फिर आउट सोर्सिंग या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरीये सरकार चलाने की इजाजत अब क्यों नहीं दी जा सकती। अगर 69 करोड़ वोटरों के देश में लोकतंत्र का राग अलापने वाली व्यवस्था में सिर्फ 29 करोड़ [ 2009 के आम चुनाव में पड़े कुल वोट लोग ]वोट ही पड़ते हैं और उन्हीं के आसरे चुनी गई सरकार [ कांग्रेस को 11.5 करोड़ वोट मिले ] यह मान लेती है कि उसे बहुमत है और उसके नीतिगत फैसले नागरिको से ज्यादा उपभोक्ताओं को तरजीह देने में लग जाते हैं तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि देश के 40 करोड़
उपभोक्ताओ को जो बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने साथ जोड़ने का मंत्र ले आये देश में उसी की सत्ता हो जाये।
असल में छोटे और मझोले व्यापारियों से लेकर किसान और परचून की दुकान चलाने वालो को अगर विदेशी कंपनियों के हवाले करने की सोच को सरकार ताल ठोक कर कह रही है तो समझना यह भी होगा कि आखिर आने वाले वक्त में देश चलेगा कैसे और उसे चलाने कौन जा रहा है। और आर्थिक सुधार की हवा में कैसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश दुनिया के सबसे बडे बाजार में बदलता जा रहा है । जिस पर वालमार्ट,आकिया या कारफूर सरीखी वैश्विक खुदरा कंपनियो की चील नजर लगी हुई है। इसमें दो मत नही कि एफडीआई को देश में बडी मात्रा में घुसाने का प्रयास पहली बार 2004 में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने ही किया। और संसद के भीतर उस वक्त लोकसभा में विपक्ष के नेता प्रियरंजनदास मुंशी और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने विरोध करते हुये सरकार को पत्र लिखा। लेकिन 2007 में वही मनमोहन सिंह पहली बार पलटे और उन्होंने एफडीआई की वकालत की और यह मामला जब संसदीय समिति के पास गया तो बीजेपी पलटी और स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर मुरली मनमोहर जोशी ने इसका विरोध किया। लेकिन यहां भी सवाल राजनातिक दलों या राजनेताओ की सियासी चालो का नहीं है।
असल में देश के भीतर ही देश को बेचने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अब वह लूट सामने आ रही है तो पहली बार प्रशनचिन्ह सरकार चलाने और राजनीति साधने में तालमेल बैठाने पर पड़ा है। मनमोहन सिंह के दौर में अर्थशास्त्र के नियमों ने पहली बार देशी कारपोरेट को बहुराष्ट्रीय कंपनियो में तब्दील कर दिया। देश के टॉप कारपोरेट घरानों ने भारत छोड़ यूरोप और अमेरिका में अपनी जमीन बनानी शुरु की । सिर्फ 2004 से 2009 के दौर के सरकारी आंकडे बताते हैं कि समूचे देश में जो भी योजनायें आई चाहे वह इन्फ्रस्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो या पावर के या फिर या फिर शिक्षा,स्वास्थ्य,पीने का पानी या खनन और संचार तकनीक। सारे ठेके निजी कपंनियों के हवाले किये गये और सरकार से सटी निजी कंपनियों को औसतन लाभ इस दौर में तीन सौ फीसदी तक का हुआ। जबकि किसी भी क्षेत्र में काम पूरा हुआ नहीं। पूंजी की जो उगाही इन निजी कंपनियों ने विदेशी बाजार या विदेशी कंपनियो से की संयोग से वह भी इन्हीं निजी कंपनियों की बनायी विदेशी कंपनिया रही। यानी कौडियों के मोल भारत की खनिज संपदा से लेकर जमीन और मजदूरी तक का दोहन कर उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने से लेकर भारत में योजनाओ को पूरा करने के लिये हवाला और मनी-लैडरिंग का जो रास्ता काले को सफेद करता रहा अब उसकी फाइले जब सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय में खोली जा रही है तो सरकार के सामने संकट यह है कि आगे देश में किसी भी योजना को कैसे पूरा किया जाये। और अगर योजनाये रुक गयीं तो सरकार के खजाने में पैसा आना रुकेगा। और यह हालात सरकार के लिये जितने मुश्किल भरे हो लेकिन यह राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिये शह और मात वाली स्थिति है। क्योंकि जब देश में सत्ता का मतलब ही जब राजनीति सौदेबाजी का दायरा बड़ा करना हो तो फिर देसी की जगह विदेशी ही सही, सौदेबाज को अंतर कहां पड़ेगा। इसलिये एफडीआई के आसरे यह तर्क बेकार है कि जहां जहां रिटेल सेक्टर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पांव पड़े वहा वहा बंटाधार हुआ। क्या यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं है कि अमेरिका में इसी खेल के चलते बीते 30 बरस में 75 लाख से ज्यादा रोजगार उत्पादन क्षेत्र में कम हो गये। क्या वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा वाकई नहीं जानते कि दुनिया भर में कैसे किराना कारोबार पर बडी कंपनियों ने कब्जा किया। देश के तमाम मुख्यमंत्रियो को पत्र लिखते वक्त क्या वाकई मंत्री महोदय को उनके किसी बाबू ने नही बताया कि आस्ट्रेलिया, ब्राजील, मैक्सिको, कनाडा, फ्रांस तक में रिटेल बाजार पर कैसे बडी कंपनियों ने कब्जा किया और इस वक्त हर जगह 49 से 78 फीसदी तक के कारोबार पर बडी कंपनियों का कब्जा है। क्या सरकार वाकई मुनाफा बनाती कंपनियों के उस चक्र को नहीं समझती है जिसमें पहले खुद पर निर्भर करना और बाद में निर्भरता के आसरे गुलाम बनाना। यह खेल तो देसी अंदाज में वाइन बनाने वाली कंपनियां नासिक में खूब खेल रही हैं। नासिक में करीब 60 हजार अंगूर उगाने वाले किसानों को वाइन के लिये अंगूर उगाने के बदले तिगुना मुनाफा देने का खेल संयोग से 2004 में ही शुरु हुआ। और 2007-08 में वाइन कंपनियों को खुद को घाटे में बताकर किसानों से अंगूर लेना ही बंद कर दिया। किसानों के सामने संकट आया क्योंकि जमीन दुबारा बाजार में बेचे जाने वाले अंगूर को उगा नहीं सकती थीं और वाइन वाले अंगूर का कोई खरीददार नहीं था। तो जमीन ही वाइन मालिकों को बेचनी पड़ी। अब वहां अपनी ही जमीन पर किसान मजदूर बन कर वाइन के लिये अंगूर की खेती करता है और वाइन इंडस्ट्री मुनाफे में चल रही है। तो क्या देसी बाजार पर कब्जा करने के बाद बहुराष्ट्रीय़ कंपनिया उन्हीं माल का उत्पादन किसान से नहीं चाहेगी
जिससे उसे मुनाफा हो। या फिर सरकार यह भी समझ पाती कि जब मुनाफा ही पूरी दुनिया में बाजार व्यवस्था का मंत्र है तो दुनिया के जिस देश या बाजार से माल सस्ता मिलेगा वहीं से माल खरीद कर भारत में भी बेचा जायेगा। यानी कम कीमत पर उत्पादों की सोर्सिंग ही जब रिटेल सेक्टर से मुनाफा बनाने का तरीका होगा तो भारत में समूचे रोजगार का वह 51 फीसदी रोजगर कहां टिकेगा जो अभी स्वरोजगार पर टिका है। क्योंकि नेशनल सैंपल सर्वे के आंकडे बताते हैं कि आजादी के 64 बरस बाद भी देश में महज 16 फीसदी रोजगार ही सरकार चलाने की देन है। बाकि का 84 फीसदी रोजगार देश में आपसी सरोकार और जरुरतो के मुताबिक एक-दूसरे का पेट पालते हैं। जिसमें 33.5 फीसदी तो बहते हुये पानी की तरह है। यानी जहां जरुरत वहां काम या रोजगार। अगर सरकार यह सब समझ रही है तो इसका मतलब है सरकार किसी भी तरह सत्ता में टिके रहने का खेल खेलना चाहती है। क्योंकि उसके सामने बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा है। करीब 56 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं। घाटे का आंकड़ा बढ़कर 6 लाख करोड़ तक हो रहा है। इन सबके बीच महंगाई चरम पर है। उघोग विकास दर ठहरी हुई है। विनिवेश रुका हुआ है ।
राजस्व का जुगाड़ जितना होना चाहिये वह हो नहीं पा रहा है। और इन सबके बीच राजनीतिक तौर पर सरकार से कांग्रेस को सौदेबाजी के लिये जो चाहिये वह भी उलट खेल होता जा रहा है। अब सरकार कह रही है कि डी एमके, टीएमसी, यूडीएफ, मुलायम,मायावती,लालू सभी को अपने राजनीतिक दायरे में लाये। तभी कुछ होगा । और इन सबके बीच मनरेगा और फूड सिक्योरटी बिल को लाकर सोनिया गांधी के राजनीतिक सपने को भी सरकार को ही पूरा करना है। यानी कमाई बंद है और बोझ सहन भी करना है।
दरअसल, बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय लोकतंत्र की चाहत में अपनी आजादी को गिरवी रखने की स्थिति में तो देश नहीं आ गया। क्योंकि आजादी के बाद दो सवाल महात्मा गांधी ने कांग्रेस से बहुत सीधे किये थे। पहला जब सरकार का गठन हो रहा था तब गांधी ने नेहरु से कहा आजादी देश को मिली है कांग्रेस को नहीं। और दूसरा मौका तब आया जब संविधान के पहले ड्राफ्ट को देखते वक्त महात्मा गांधी ने राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि देखना, आजादी का मतलब अपनी जमीन पर अन्न उपजा कर देश का पेट भरना भी होता है। जाहिर है 1947-48 के दौर से देश बहुत आगे निकल गया है लेकिन समझना यह भी होगा आजादी के वक्त 31 करोड़ लोग थे और आज उस दौर का ढाई भारत यानी 75 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। और इसी बीपीएल के नाम पर जारी होने वाले 30 हजार करोड़ के अन्न को भी बीच में लूट लिया जाता है। और यह लूट अपने ही देश के नेता,नौकरशाह और राशन दुकानदार करते हैं। फिर विदेशी कंपनिया आयेगी तो क्या करेंगी। यह अगर सरकार नहीं जानती तो वाकई आजादी देश को नहीं सत्ताधारियो को मिली है।