Friday, December 2, 2011

देश नहीं, सत्ताधारियों की आजादी

पहली बार विदेशी निवेश पर घिरे 'मनमोहनोमिक्स' ने मौका दिया है कि अब बहस इस बात पर भी हो जाये कि देश चलाने का ठेका किसी विदेशी कंपनी को दिया जा सकता है या नही। संसदीय चुनाव व्यवस्था के जरीये लोकतंत्र के जो गीत गाये जाते हैं अगर वह आर्थिक सुधार तले देश की सीमाओं को खत्म कर चुके हैं,और सरकार का मतलब मुनाफा बनाते हुये विकास दर के आंकड़े को ही जिन्दगी का सच मान लिया गया है तो फिर आउट सोर्सिंग या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरीये सरकार चलाने की इजाजत अब क्यों नहीं दी जा सकती। अगर 69 करोड़ वोटरों के देश में लोकतंत्र का राग अलापने वाली व्यवस्था में सिर्फ 29 करोड़ [ 2009 के आम चुनाव में पड़े कुल वोट लोग ]वोट ही पड़ते हैं और उन्हीं के आसरे चुनी गई सरकार [ कांग्रेस को 11.5 करोड़ वोट मिले ] यह मान लेती है कि उसे बहुमत है और उसके नीतिगत फैसले नागरिको से ज्यादा उपभोक्ताओं को तरजीह देने में लग जाते हैं तो फिर यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि देश के 40 करोड़
उपभोक्ताओ को जो बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने साथ जोड़ने का मंत्र ले आये देश में उसी की सत्ता हो जाये।

असल में छोटे और मझोले व्यापारियों से लेकर किसान और परचून की दुकान चलाने वालो को अगर विदेशी कंपनियों के हवाले करने की सोच को सरकार ताल ठोक कर कह रही है तो समझना यह भी होगा कि आखिर आने वाले वक्त में देश चलेगा कैसे और उसे चलाने कौन जा रहा है। और आर्थिक सुधार की हवा में कैसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश दुनिया के सबसे बडे बाजार में बदलता जा रहा है । जिस पर वालमार्ट,आकिया या कारफूर सरीखी वैश्विक खुदरा कंपनियो की चील नजर लगी हुई है। इसमें दो मत नही कि एफडीआई को देश में बडी मात्रा में घुसाने का प्रयास पहली बार 2004 में चुनाव से ऐन पहले बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने ही किया। और संसद के भीतर उस वक्त लोकसभा में विपक्ष के नेता प्रियरंजनदास मुंशी और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता मनमोहन सिंह ने विरोध करते हुये सरकार को पत्र लिखा। लेकिन 2007 में वही मनमोहन सिंह पहली बार पलटे और उन्होंने एफडीआई की वकालत की और यह मामला जब संसदीय समिति के पास गया तो बीजेपी पलटी और स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर मुरली मनमोहर जोशी ने इसका विरोध किया। लेकिन यहां भी सवाल राजनातिक दलों या राजनेताओ की सियासी चालो का नहीं है।

असल में देश के भीतर ही देश को बेचने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अब वह लूट सामने आ रही है तो पहली बार प्रशनचिन्ह सरकार चलाने और राजनीति साधने में तालमेल बैठाने पर पड़ा है। मनमोहन सिंह के दौर में अर्थशास्त्र के नियमों ने पहली बार देशी कारपोरेट को बहुराष्ट्रीय कंपनियो में तब्दील कर दिया। देश के टॉप कारपोरेट घरानों ने भारत छोड़ यूरोप और अमेरिका में अपनी जमीन बनानी शुरु की । सिर्फ 2004 से 2009 के दौर के सरकारी आंकडे बताते हैं कि समूचे देश में जो भी योजनायें आई चाहे वह इन्फ्रस्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो या पावर के या फिर या फिर शिक्षा,स्वास्थ्य,पीने का पानी या खनन और संचार तकनीक। सारे ठेके निजी कपंनियों के हवाले किये गये और सरकार से सटी निजी कंपनियों को औसतन लाभ इस दौर में तीन सौ फीसदी तक का हुआ। जबकि किसी भी क्षेत्र में काम पूरा हुआ नहीं। पूंजी की जो उगाही इन निजी कंपनियों ने विदेशी बाजार या विदेशी कंपनियो से की संयोग से वह भी इन्हीं निजी कंपनियों की बनायी विदेशी कंपनिया रही। यानी कौडियों के मोल भारत की खनिज संपदा से लेकर जमीन और मजदूरी तक का दोहन कर उसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचने से लेकर भारत में योजनाओ को पूरा करने के लिये हवाला और मनी-लैडरिंग का जो रास्ता काले को सफेद करता रहा अब उसकी फाइले जब सीबीडीटी और प्रवर्तन निदेशालय में खोली जा रही है तो सरकार के सामने संकट यह है कि आगे देश में किसी भी योजना को कैसे पूरा किया जाये। और अगर योजनाये रुक गयीं तो सरकार के खजाने में पैसा आना रुकेगा। और यह हालात सरकार के लिये जितने मुश्किल भरे हो लेकिन यह राजनीतिक तौर पर कांग्रेस के लिये शह और मात वाली स्थिति है। क्योंकि जब देश में सत्ता का मतलब ही जब राजनीति सौदेबाजी का दायरा बड़ा करना हो तो फिर देसी की जगह विदेशी ही सही, सौदेबाज को अंतर कहां पड़ेगा। इसलिये एफडीआई के आसरे यह तर्क बेकार है कि जहां जहां रिटेल सेक्टर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पांव पड़े वहा वहा बंटाधार हुआ। क्या यह आंकड़ा सरकार के पास नहीं है कि अमेरिका में इसी खेल के चलते बीते 30 बरस में 75 लाख से ज्यादा रोजगार उत्पादन क्षेत्र में कम हो गये। क्या वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा वाकई नहीं जानते कि दुनिया भर में कैसे किराना कारोबार पर बडी कंपनियों ने कब्जा किया। देश के तमाम मुख्यमंत्रियो को पत्र लिखते वक्त क्या वाकई मंत्री महोदय को उनके किसी बाबू ने नही बताया कि आस्ट्रेलिया, ब्राजील, मैक्सिको, कनाडा, फ्रांस तक में रिटेल बाजार पर कैसे बडी कंपनियों ने कब्जा किया और इस वक्त हर जगह 49 से 78 फीसदी तक के कारोबार पर बडी कंपनियों का कब्जा है। क्या सरकार वाकई मुनाफा बनाती कंपनियों के उस चक्र को नहीं समझती है जिसमें पहले खुद पर निर्भर करना और बाद में निर्भरता के आसरे गुलाम बनाना। यह खेल तो देसी अंदाज में वाइन बनाने वाली कंपनियां नासिक में खूब खेल रही हैं। नासिक में करीब 60 हजार अंगूर उगाने वाले किसानों को वाइन के लिये अंगूर उगाने के बदले तिगुना मुनाफा देने का खेल संयोग से 2004 में ही शुरु हुआ। और 2007-08 में वाइन कंपनियों को खुद को घाटे में बताकर किसानों से अंगूर लेना ही बंद कर दिया। किसानों के सामने संकट आया क्योंकि जमीन दुबारा बाजार में बेचे जाने वाले अंगूर को उगा नहीं सकती थीं और वाइन वाले अंगूर का कोई खरीददार नहीं था। तो जमीन ही वाइन मालिकों को बेचनी पड़ी। अब वहां अपनी ही जमीन पर किसान मजदूर बन कर वाइन के लिये अंगूर की खेती करता है और वाइन इंडस्ट्री मुनाफे में चल रही है। तो क्या देसी बाजार पर कब्जा करने के बाद बहुराष्ट्रीय़ कंपनिया उन्हीं माल का उत्पादन किसान से नहीं चाहेगी

जिससे उसे मुनाफा हो। या फिर सरकार यह भी समझ पाती कि जब मुनाफा ही पूरी दुनिया में बाजार व्यवस्था का मंत्र है तो दुनिया के जिस देश या बाजार से माल सस्ता मिलेगा वहीं से माल खरीद कर भारत में भी बेचा जायेगा। यानी कम कीमत पर उत्पादों की सोर्सिंग ही जब रिटेल सेक्टर से मुनाफा बनाने का तरीका होगा तो भारत में समूचे रोजगार का वह 51 फीसदी रोजगर कहां टिकेगा जो अभी स्वरोजगार पर टिका है। क्योंकि नेशनल सैंपल सर्वे के आंकडे बताते हैं कि आजादी के 64 बरस बाद भी देश में महज 16 फीसदी रोजगार ही सरकार चलाने की देन है। बाकि का 84 फीसदी रोजगार देश में आपसी सरोकार और जरुरतो के मुताबिक एक-दूसरे का पेट पालते हैं। जिसमें 33.5 फीसदी तो बहते हुये पानी की तरह है। यानी जहां जरुरत वहां काम या रोजगार। अगर सरकार यह सब समझ रही है तो इसका मतलब है सरकार किसी भी तरह सत्ता में टिके रहने का खेल खेलना चाहती है। क्योंकि उसके सामने बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा है। करीब 56 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हो चुके हैं। घाटे का आंकड़ा बढ़कर 6 लाख करोड़ तक हो रहा है। इन सबके बीच महंगाई चरम पर है। उघोग विकास दर ठहरी हुई है। विनिवेश रुका हुआ है ।

राजस्व का जुगाड़ जितना होना चाहिये वह हो नहीं पा रहा है। और इन सबके बीच राजनीतिक तौर पर सरकार से कांग्रेस को सौदेबाजी के लिये जो चाहिये वह भी उलट खेल होता जा रहा है। अब सरकार कह रही है कि डी एमके, टीएमसी, यूडीएफ, मुलायम,मायावती,लालू सभी को अपने राजनीतिक दायरे में लाये। तभी कुछ होगा । और इन सबके बीच मनरेगा और फूड सिक्योरटी बिल को लाकर सोनिया गांधी के राजनीतिक सपने को भी सरकार को ही पूरा करना है। यानी कमाई बंद है और बोझ सहन भी करना है।

दरअसल, बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा है कि क्या संसदीय लोकतंत्र की चाहत में अपनी आजादी को गिरवी रखने की स्थिति में तो देश नहीं आ गया। क्योंकि आजादी के बाद दो सवाल महात्मा गांधी ने कांग्रेस से बहुत सीधे किये थे। पहला जब सरकार का गठन हो रहा था तब गांधी ने नेहरु से कहा आजादी देश को मिली है कांग्रेस को नहीं। और दूसरा मौका तब आया जब संविधान के पहले ड्राफ्ट को देखते वक्त महात्मा गांधी ने राजेन्द्र प्रसाद से कहा था कि देखना, आजादी का मतलब अपनी जमीन पर अन्न उपजा कर देश का पेट भरना भी होता है। जाहिर है 1947-48 के दौर से देश बहुत आगे निकल गया है लेकिन समझना यह भी होगा आजादी के वक्त 31 करोड़ लोग थे और आज उस दौर का ढाई भारत यानी 75 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। और इसी बीपीएल के नाम पर जारी होने वाले 30 हजार करोड़ के अन्न को भी बीच में लूट लिया जाता है। और यह लूट अपने ही देश के नेता,नौकरशाह और राशन दुकानदार करते हैं। फिर विदेशी कंपनिया आयेगी तो क्या करेंगी। यह अगर सरकार नहीं जानती तो वाकई आजादी देश को नहीं सत्ताधारियो को मिली है।

8 comments:

देवांशु निगम said...

बहुत ही रोचक तथ्य पुण्यप्रसून जी...कई बातें हैं जो यहाँ ध्यान देने वाली हैं...देश कि आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था चरमरा रही है...राजनीतिज्ञों को कुछ सूझ नहीं रहा है...कई मुद्दों में घिरे हैं...
और रही बात महात्मा की..ये तो ज़ाहिर हो चला है उनको अनसुना करने वाले उन्ही के दल में बहुत लोग हैं...
और अंत में ये बात भी..वालमार्ट को अपने स्टोर्स खोलने की इज़ाज़त तो न्यूयोर्क में भी नहीं है..पाता नहीं हमारी सरकार इतनी ज़ल्दी में क्यूँ है...

रंजना said...

शब्दशः सहमति है आपसे...

स्थिति की सटीक विवेचना की है आपने...

आभार इस आँख खोलते सुगढ़ आलेख के लिए ....

mani ram said...

वाजपेयीजी, आपके इस कथन मैं ही सब निहितार्थ है कि शुरुआत बीजेपी ने की! यह भारतीय जनता की त्रासदी है कि जिसको भी अपना समझा उसने ही हमेशा लूटा है!

सतीश कुमार चौहान said...

प्रसून जी जब मैकडानल्‍ड का पिज्‍जा बर्गर आया था तब भी हल्‍ला मचा था, पर ढाबे और होटल खत्‍म नही हुऐ बल्कि इनके सेवा और गुणवत्‍ता में सुधार ही हुआ, देश के कुछ शहर इस सुविधा से जुड रहे हैं या फिर राज्‍यो का अधिकार हैं इस को अपने क्षेत्र् में लागू करने का तो क्‍यो चिल्‍ल पौ,फिर आम उपभोक्‍ता का हक नही की वह कहां अपना पैसा खर्च करे '''''

आम आदमी said...

आज जंतर मंतर की stage पर मैंने वृंदा करात जी का भाषण सुना, उनके और आपके विचार काफी मिलते हैं!

प्रसून जी communism से किसका भला हुआ है ?? China जैसा देश भी politically communist है पर economically capitalist! सरकार ने 10 लाख जनसंख्या और 30% छोटे उद्योगों से खरीद्दारी कि जो condition रखी है उसे हमारा ही फ़ायदा है! साथ ही मैं इस बात पर भी जोर देना चाहूँगा कि retail में FDI से किसानों को बहुत फायदा होगा! उन्हें अपनी फसल कि सही कीमत मिलेगी और उनका शोषण भी बंद होगा! (लेकिन हमें यह भी ख़याल रखना होगा की अंगूर किसानों की तरह बाकी किसानों के साथ न हो)

चाहे मेरे विचार आपसे कितने ही अलग क्यों न हो लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी कि आपका article वाकई में ज़बरदस्त है और आदमी को सोचने पर मजबूर कर देता है! खासतोर पर last para जो मेरे दिल को छूगया!

धन्यवाद !!!

jara sahyog karo said...

bhai kya aapko nahi lagta ki hum or aap pahle se jayada gullaam ho gai.hai ab time aa gaya hai ki bharat me b ek kranti ho or sub kuch badal diya jai. bhai kuch nojawaan ye kosis kar rahe hai par media me faila bharastachar unko aaage badne se rok raha hai.ager ho sake to is sandesh par gour kare or sampark kare.sandeep kumar 9891785487

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