Thursday, January 5, 2012

साड्डा हक कित्थे रख?

"जन्नत" से संसद का नजारा


जब देश सड़क पर आंदोलन और संसद के भीतर बहस से गर्म था तब बर्फ से पटे पड़े कश्मीर में आग भीतर ही भीतर कहीं ज्यादा सुलग रही थी। क्रिसमस से लेकर नये वर्ष यानी साल के आखिरी हफ्ते में इस बार कश्मीर की वादियां पहली बार खुले आसमान तले खुल कर सांस ले रही थी। आसमान इतना खुला था कि दिन में सुर्ख धूप और रात में बर्फ की तरह जमा देने वाली ठंड ने 2011 में पहली बार 21-22 दिसंबर को हुई बर्फबारी की बर्फ को गलने नहीं दिया और सोनमर्ग से लेकर गुलमर्ग तक वादियों में रंगीन मिजाज का सुर पर्यटको के जरिए लगातार परवान चढता गया। लेकिन जमीन की बर्फ को किसी पाउडर की तरह उछालने के लिये मचलते पर्यटकों के दिलों को अपने पेट से जोड़ने में लगे सोनमर्ग में स्लेज खींचने वाले मजदूर हों या घोड़े की सवारी कराने वाले घुड़साल या फिर गुलमर्ग ले जाने के लिये तंगमार्ग में टैक्सी वालों का रेला। हर दिल के भीतर पेट की आग के साथ दिल्ली से लेकर मुंबई तक यानी संसद से सड़क तक की बहस और आंदोलन लगातार चीर रही थी। उनके भीतर के सवाल लगातार हर उस पर्यटक को मौका मिलते ही कुरेदने से नहीं चूकते कि आखिर अन्ना के आंदोलन और संसद की बहस में कश्मीर क्यों नहीं है। इस बार सवाल आजादी का था। सवाल घाटी में फैलते भ्रष्टाचार का था। सत्ताधारियों के भ्रष्ट फैसले से कटते देवदार और चिनार के पेड़ों का था। सूनी घाटियों तक की जमीन तक की कीमतों को कंस्ट्रक्शन के जरिए आसमान तक पहुंचाकर धंधा करते राजनेताओं के जरिए भ्रष्टाचार में गोते लगाते हर संस्थान के उसमें डूबकी लगाने का था। बर्फ से घिरे गुलमर्ग में अगर सड़क पर खड़े पुलिस की भारी होती जेब पर गुस्सा था तो श्रीनगर में डल झील की सफाई के लिये दिल्ली से पहुंचे सात सौ करोड़ के डकारने का गुस्सा शिकारा चलाते उन मजदूरो में था, जिनकी फिरन से निकलते हाथ से पानी को काटती चप्पी के आसरे डल लेक में तैरते शिकारे में बैठ कर जन्नत का एहसास हर उस को करा रहे थे जो क्रिसमस से लेकर नये वर्ष में ही खुद को खोने के लिये वादियों में पहुंचे थे। फूलों को बटोर कर केसर बनाने वाले नन्हे हाथ हों या माथे पर टोकरी को बांध कर अखरोट जमा करने वाली कश्मीरी महिलाएं, सर्द मौसम में सबकुछ ठहरा जाता है तो इनके भीतर के सवाल इसी दौर में जाग जाते हैं। खास कर श्रीनगर का डाउनटाउन इलाका। जहांगीर होटल से जैसे ही कदम ईदगाह की तरफ मुड़ते हैं, सड़क के दोनों तरफ के घरों की खिड़कियो के टूटे शीशे कुछ सवाल किसी भी उस पर्यटक के जेहन में खड़ा करते हैं, जो ईदगाह, जामा मस्जिद या हजरतबल देखने निकलता है। और टूटे हुए शीशों के अक्स में कोई सवाल अगर किसी भी दुकान या मस्जिद के साये में बैठी महिलाओं या सड़क पर खेलते बच्चों से कोई पूछे तो हर जवाब की नजर दिल्ली पर उठती है और सवाल के जवाब सवाल के रुप में आते हैं। जिसमें हर जानकारी किसी की मौत से जुड जाती है। और फिरन में कांगडी की गर्मी आधी रात में हारते लोकतंत्र पर डल झील में बोट हाउस की रखवाली करता एहसान डार 29 को आधी रात में यह कहने से नहीं चुकता, "जैसे कश्मीर की फिजा और सियासत पर मेरा हक नहीं वैसे ही भारत पर संसद का हक नहीं"। डल झील में कतारो में खड़े हर बोट हाउस में चाहे देशी-विदेशी पर्यटक 29 की रात सो गये। लेकिन पहली बार हर बोट हाउस में किसी ना किसी बुजुर्ग की आंखें संसद में होती बहस के साये में कश्मीर को खोजती दिखीं। आधी रात तक बहस के बाद भी सुबह शिकारे में घुमाने ले जाते पर्यटकों के बीच डल लेक में ही कश्मीरी सामानों को बेचने वाले यह सवाल जरुर करते कि क्या वाकई संसद के हाथ में देश की डोर है। कही भ्रष्टाचार की डोर ने तो संसद को नहीं बांध रखा है। और तमाम सवालों के बीच आखिरी सवाल हर चेहरे पर यही उभरता कि कश्मीरी सियसतदानों ने भी कही सत्ता की खातिर कश्मीर को भी संसद के हवाले कर चैन से कश्मीर में भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस तो नहीं ले लिया। तो क्या कश्मीरियों के बस में जन्नत को ढोना है और क्रिसमस से लेकर नये वर्ष के लुत्फ को अपने पेट से जोड़कर पर्यटन रोजगार को जिन्दा रखना है। इसका जवाब आजादी का सवाल खड़ा करते चेहरों के पास भी नहीं है।

लेकिन जो सवाल संसद में उठे और जो जवाब अन्ना हजारे को चाहिए उनका वास्ता किसी आम हिंन्दुस्तानी से कितना है, यह पहली बार कश्मीरियों ने देखा और यह भी समझा कि कश्मीर में भी सियासतदान की तकरीर इससे अलग नही। श्रीनगर के लाल चौक इलाके में अपने छोटे से कमरे में फिरन और कागंडी में सिमटे जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक हों या राजबाग इलाके के अपने घर में कलम थामे कश्मीर के सच को पन्नों पर उकेरते अब्दुल गनी बट। हर किसी ने संसद की बहस और अन्ना के आंदोलन को घाटी की उस हकीकत को पिरोने की कोशिश की, जिसमें सड़क पर तिरंगे की जगह पत्थर उठाने का मतलब मौत होता है और संविधान की दुहाई देती सत्ता के लिये संसद का मतलब अपनी जरुरतों का ढाल बनाना और उससे इतर सवाल पर राष्ट्रभावना को उभारना। 29 की रात संसद की बहस देखने के बाद 30 दिसंबर की सुबह गुस्से भरे सवाल अगर यासिन मलिक के थे तो हुर्रियत कान्फ्रेन्स के अब्दुल गनी बट को अपनी किताब के लिये संसद की बहस ने ऊर्जा दे दी थी। बीते एक महीने से "बियांड मी " यानी जो मेरे बस में नही नाम से किताब लिखने में मशगूल अब्दुल गनी बट को भरोसा है कि इस ठंड में वह अपनी किताब पन्नों पर उकेर लेंगे। उनके किताबी सफर की शुरुआत 1963 से है। जब उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिली। लेकिन 1988-89 में जब पहली बार चुनाव में चोरी खुले तौर पर कश्मीरियों ने देखी और सैयद सलाउद्दीन {अब हिजबुल मुजाहिद्दीन के चीफ } को पाकिस्तान का रास्ता पकड़ना पडा और कश्मीर की सत्ता की डोर नेशनल
कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली के जरीये पकड़ी। तब जो सवाल कश्मीर में उठे वही सवाल आने वाले दौर में अन्ना हजारे के जरिए हिन्दुस्तान की जनता के सामने भी उठेंगे। क्योंकि चार दशक पहले शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर को लेकर सही सवाल गलत वक्त में उठाया था और उसका हश्र शेख अब्दुल्ला ने ही भोगा। चाहे उसका लाभ आज उनकी पीढ़ियां उठा रही हैं। कमोवेश अन्ना ने भी सही सवाल गलत वक्तं में उठाया है क्योंकि अभी सत्ता की रप्तार जनता के हक के लिये नहीं बाज़ार और पैसा बनाने की है। और कश्मीर के सवालों को समाधन के रास्ते लाते वक्त मैंने { अब्दुल्ल गनी बट } भी यह महसूस किया कि जो मेरे बस में नहीं था, वह जिसके बस में था उसकी प्रथमिकतायएं कश्मीर को कश्मीर बनाये रखने की थी। बियांड मी कुछ वैसा ही दस्तावेज होगा और शायद आने वाले वक्त में सियासत को भी लगे और हिन्दुस्तानियों को भी क्या संसद के बस में वह सब है जो अन्ना मांग रहे हैं।

इसीलिये हक का सवाल भी कहीं कानून तो कही लोकतंत्र और कहीं संविधान की दुहाई में गुम हो रहा है। ब़ट ने कश्मीर के आइने में संसद की बहस को अक्स दिखाया और यह सवाल जब उस हाशिम कुरैशी के सामने रखा, जिन्होंने 1971 में जहाज का अपहरण कर लाहौर में उतारा था तो शालीमार-निशात बाग की छांव तले बने अपने आलीशान घर में चिनार से लेकर अंगूर और अखरोट से लेकर लहसन तक के पौधों को दिखाते हुये कहा कि कश्मीर में सिसमेटे किसी भी कश्मीरी के लिये मौत का सवाल अब सवाल क्यों नहीं है, यह समूचे डाउन-टाउन के इलाके में घरों और दुकानों के बीच कब्रिस्तान को देखकर होता है। दर्जनों नहीं सैकड़ों की तादाद में कब्रिस्तान। और हर मोहल्ले में कब्रिस्तान। लेकिन पर्यटको की आंखें सवाल कब्रिस्तान को लेकर नहीं बल्कि कब्रिस्तान में भी निकले चिनार को देखकर करती हैं। चिनार की इसी छांव में कश्मीर वादी की दिली आग भी हर किसी पर्यटक को लूभाने लगती है। लेकिन पहली बार संसद में आधी रात तक की बहस कश्मीरियों में बहस जगाती है कि उनके सवाल क्यों मायने नहीं रखते। जिस तरह सर्दी के मौसम में बर्फ से पटे पड़े पहाड़ों पर चिनार अपनी सूखी टहनियों के जरिए किसी विद्रोही सा खड़ा नज़र आता है, कमोवेश इसी तरह ठंड के तीन महीनो में हर कश्मीरी चाय-रोटी, कहवा-सिगरेट या फेरन-कागंडी में सिमट कर रहते हुये उन नौ महीनों के दर्द को बेहद महिन तरीके से प्रसव की तरह सहता है। शायद इसीलिये मुंबई में खाली पड़े मैदान में अन्ना के आंदोलन को लेकर बेकरी की दुकान चलाने वाला इम्तियाज यह कहने से नहीं चुकता कि जो अन्ना कश्मीर पर दिये अपने टीम के एक सदस्य के साथ खड़े नहीं होते तो वह आंदोलन को कैसे आगे ले जाएंगे।और संसद के भीतर नेमा हाल नहीं है। लेकिन फिल्म राक स्टार बनाने वाले इम्तियाज अली को सड्डा हक के बोल कश्मीर से ही मिले। मौका मिले तो उनसे पूछ लीजिएगा "साड्डा हक कित्थे रख", क्योंकि उन्होंने कश्मीर में भी खासा वक्त गुजारा है।

3 comments:

सतीश कुमार चौहान said...

घाटी के इस बुनियादी सवाल के लिऐ धन्‍यवाद, पर सवाल कब तक इसी तरह मुंह खोले खडा रहेगा ;;;

sharad said...

29 ki raat or agle 2 3 deen is etihasik moke par aap T.v par nahi the. ab pata chla shayad aap kashmir me the.. chalo aap ko waha miss kiya. lekin kashmir jake aapne hume wah sachai bi batadi jo shayad aap na hote to pata na chalta. rahi bat ab kashmir ki wo to fharukh abdula ke jariye congres cala rahi ha...

आम आदमी said...

बहुत दुःख कि आप मेरे इलाके में आये और में आपसे मिल भी नहीं पाया! आपने इस आर्टिकल में अन्ना और कश्मीर को जो जोड़ा मुझे Shyama Prasad Mookerjee की याद आगई जो "एक देश, एक विधान, एक प्रधान, एक निशान" का नारा देते हुए कश्मीर आये थे लेकिन जम्मू-कश्मीर सरकार ने उन्हें जेल में बंद कर दिया जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी! यहाँ कश्मीर में नयी पीड़ी Shyama Prasad Mookerjee के बारे में नहीं जानती, वह तो जम्मू-कश्मीर बार्डर cross कर के जब माधोपुर (पंजाब) में दाखिल होते हैं, Shyama Prasad Mookerjee मूर्ती वहाँ लगी देख पता लगता है कि वह भी कोई शक्सियत थी!

खैर छोडिये पुरानी बातों को! सर आपने कहा कि सब कश्मीरी दिल्ली कि तरफ देख रहे हैं, सर यहाँ सिर्फ जनता ही नहीं बल्कि politicians भी दिल्ली कि तरफ देख रहें हैं! क्या बताएँ यहाँ की सियासत का! सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं! कांग्रेस में पिछले कुछ सालों से ज़बरदस्त गुटबाज़ी है और उसकी जड़ें दिल्ली में है! पार्टी दो गुटों में बटी है और जिन दो नेताओं कि वजह से पार्टी बटी है वह दोनों केंद्र में बहुत ही ऊंची पदवी पर हैं! हालत तो यह है कि यहाँ का मीडिया भी मीडिया भी बटा हुआ है! कश्मीर में बहुत सारे एक्स-आतंकवादिओं को न्यूज़पेपर का लाईसेनस मिला है इसलिए वह प्रो-सेपराटिस्ट आर्टिकल छापते हैं! वहीँ जम्मू में प्राइवेट सेक्टर नामातर होने कि वजह से ads का ज़्यादातर खर्चा newspapers को Govt notices और ads से निकलना पड़ता है! इसलिए वह सरकारी भ्रष्टाचार के बारे में कुछ छापते नहीं! हालत तो यह है कि जम्मू का मीडिया भी कांग्रेस के गुटों में बटा हुआ है और Yellow journalism कि हदें तो तब पार हो गयीं जब यहाँ के दो सबसे प्रतिष्ठित अखबार Daily Excelsior और State Times ने एक दूसरे के editors के खिलाफ छापना शुरू कर दिया और यह सिलसिला पिछले एक महीने से अभी तक जारी है! (These two papers are like Times of India and Indian Express of Jammu, I mean Daily excelsior is very very popular and State Times is Popular).

यहाँ पर Cable TV का जो distributor है उसके कुछ लोकल चैनलज़ भी हैं जिन पर दिन में 2-3 बार news भी आती है! इस Cable TV distributor के उत्तर भारत में 7-8 Car Showrooms भी हैं! एक और बात, यह व्यक्ति CM का Political Advisor भी है तोह आप समझ सकते हैं कि लोकल चैनलज़ पर न्यूज़ कैसी आती होगी..

In nutshell, Govt departments में rampant corruption होनें के बावजूद लोकल मीडिया कुछ नहीं दिखाता..

(Sorry for deviating from political issue to the issue of corruption but I feel that this is also an imp issue, nevertheless ur article was Awesome !!)