आर्थिक सुधार के साथ जिस अर्थशास्त्र के पाठ को देश के विकास के साथ जोड़ दिया गया है, उसके दायरे में सिर्फ महानगरीय जीवन और शहरी बाजार व्यवस्था ही क्यों हैं? और देश के सत्तर फीसदी लोग जो ग्रामीण भारत की व्यवस्था का हिस्सा है, उनके लिये यह आधुनिक अर्थशास्त्र मायने क्यों नहीं रखता। बावजूद इसके सत्ता का आधुनिक प्रतीक इसी अर्थशास्त्र को ही क्यों माना जा रहा है, जिसके सरोकार आम लोगो के साथ जुड़ नही पाते। यह सवाल अब इसलिये कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं क्योंकि अर्थशास्त्र के नये पाठ में न्यूनतम जरुरतों को भी मुनाफे के हाथ ही पूरा करने की समझ विकसित हो चली है। और यही समझ देश को हांकने के लिये कैसे काम करती है यह बजट तैयार करने के लिये देश के बारे में समझ रखने वाले जाने माने अर्शास्त्रियों के तथ्यों ने और ज्यादा उभार दिया। 2012-13 का बजट तैयार करने के लिये पारंपरिक तौर पर देश के जाने माने अर्थशास्त्रियों के साथ बैठकों का सिलसिला एक फरवरी से शुरु हुआ। यूं भी बजट के जरीये देश को समझना और देश को समझने की स्थिति में बजट बनाना दोनों दो परिस्थितियां है।
इसके प्रयोग नेहरु के दौर से वाजपेयी के दौर तक बजट तैयार करते वक्त होते रहे है। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में पहली बार जिस अर्थशास्त्र के जरीये देश को समझने का प्रयास लगातार हो रहा है, उसने अब यह संकट भी दिखाना शुरु किया है कि क्या वाकई आर्थिक सुधार की गति इतनी आगे बढ चुकी है कि देश का बहुसंख्यक हिस्सा पीछे छूट चुका है। और आधुनिक अर्थशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता कि समूचे देश को साथ लेकर चला जाये। क्योंकि वित्त मंत्री के साथ बैठे देश के चुनिंदा जाने माने अर्थशास्त्रियों को लगने लगा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर का घेरा अब बड़ा करने के जरुरत आ चुकी है। यानी अर्थशास्त्री यह मान रहे है कि आजादी के बाद जिन न्यूनतम जरुरतों को इन्फ्रास्ट्क्चर के दायरे में लाया गया, उस पर जितना काम होना था या तो हो गया या फिर देश के इन्फ्रास्ट्क्चर को नये तरीके से परिभाषित करने की जरुरत है। इसलिये अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि अब रियल इस्टेट के जरीये टाउनशीप की सोच को इन्फ्रास्टक्चर से जोड़ दिया जाये । और निजी कंपनियों की हवाई उड़ानों से जो एयरलाइन्स बाजार फल फुल रहा है, उसमें तेजी लाने के लिये भी इन्फ्रस्ट्क्चर के दायरे में एयरलाइन्स को भी ले आया जाये । यानी इन दो क्षेत्रों के विकास के लिये सबसे बड़ा संकट जमीन का है। और अगर यह दोनो सेक्टर इन्फ्रास्ट्क्चर के दायरे में आ जाते है तो सरकार के लिये भी इन क्षेत्रों के सामने जमीन की मुश्किल को दूर करने का रास्ता खुल जायेगा और निजी कंपनिया भी इस क्षेत्र में तेजी से पैर पसारेगी।
इसी तर्ज पर मनमोहन सिंह दौर के अर्थशास्त्री यह भी मानते है कि टैक्स के दायरे में खेती से होने वाली आय को भी लाना जरुरी है। यानी किसान ही नहीं बल्कि हर स्तर पर नकदी फसल से लेकर कारपोरेट फसल से होने वाली आय पर भी टैक्स लगना चाहिये। इससे देश के विकास दर में भी रफ्तार आयेगी। जाहिर है ऐसे बहुतेरे सुझाव देश के अर्थशास्त्रियो ने वित्त मंत्री को दिये। लेकिन जो सवाल इस बातचीत में नहीं उभरा वह उत्पादन को बढ़ने के तरीकों का है। खेती को उघोग की तर्ज पर इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने का है। ग्रामीण जीवन से रोजगार जोड़ने की दिशा में कदम बढाने का है । राष्ट्रीय खनिज संपदा के जरीये शहर और गांव के बीच बढती दूरी के पाटने का है। तमाम योजनाओं से लीक होने वाला पैसा जाता कहा है चर्चा इस पर भी नहीं हुई। यानी पहली बार समझ में यह भी आ रहा है आधुनिक अर्थशास्त्र का अर्थ बाजार, उपभोक्ता, कारपोरेट, निजीकरण और मुनाफे में ही समूचे देश के विकास का सच देख रहा है। यानी एक जगह से मुनाफा बनाना और दूसरी जगह उस मुनाफे का एक हिस्सा राजनीतिक लाभ देने में लगा देना। इसलिये राजनीतिक लाभ किस तबके को कितना दिया जाये यह मुनाफे की पूंजी पर टिका है। और मुनाफा कैसे बनाया जा सकता है अर्थशास्त्र इसी को कहते हैं। जाहिर है इस परिभाषा के दायरे में देश कैसे बन रहा है यह तो अब किसी से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन यही से सवाल निकलता है कि आखिर अर्थशास्त्र का कौन सा पाठ इस दौर में भूला दिया गया और अब उसकी जरुरत आ पड़ी है।
पहली नजर में लग सकता है कि सवाल सिर्फ पाठ भर का नहीं है बल्कि अर्थशास्त्र के जो नियम समाज में आर्थिक पिरामिड बना रहे हैं, जरुरत तो उसे ही उलटने की है। क्योंकि जब देश में न्यूनतम इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बीते साठ बरस में बन नहीं पाया है तो फिर आने वाले दौर में न्यूनतम की जरुरतों में फंसे तबके को ही मिटाने की दिशा में आधुनिक अर्थशास्त्र क्यों नहीं सोचेगा। अगर देश में चल रहे आर्थिक नियम-कायदों को समझें तो आजादी के बाद आर्थिक सुधार ने कुछ क्रांतिकारी बदलाव समाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में ला दिया है। मसलन इन्फ्रस्ट्रक्चर की जरुरतें भी सरकार से हटकर कॉरपोरेट हाथों में पहुंच चुकी हैं। मसलन पीने का पानी,शिक्षा, प्राथमिक इलाज, सडक-बस से सफर भी ऐसे सेक्टर में तब्दील हो चुका है जो सुविधाओं के दायरे में है। और इसके जरीये सबसे ज्यादा मुनाफा बनाने की स्थिति में निजी कंपनियां हैं। वहीं दूसरी तरफ जो सुविधायें मानी जाती थी्ं, उन्हें न्यूनतम जरुरतों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को बिगाड़कर तब्दील किया जा चुका है। मसलन शहर में रहने वाले के पास दोपहिया गाड़ी या कार, कपडा धोने की मशीन, फ्रीज, टीवी, मोबाईल यह सब न्यूनतम जरुरतें बना दी जा चुकी है। यानी बाजार अर्थव्यवस्था ने उस अर्थसास्त्र को ही बदल दिया, जिसके आसरे किसी भी देश में न्यूतम का संघर्ष पूरे देश के लिये एक सरीखा होता था। अब निचले वर्ग की जरुरत और मझोले वर्ग की जरुरत और उच्च वर्ग की भी न्यूनतम जरुरतें हैं। इतना ही नहीं किसान की जरुरत से लेकर कारपोरेट घरानों की भी जरुरते हैं। अगर किसान को बीज,खाद,सिंचाई से लेकर बाजार तक खाद्दन्न को पहुंचाने का रास्ता चाहिये तो कॉरपोरेट को खनिज संपदा, जमीन और उघोग के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये, जिसके उपर वह विकास का चकाचौंध खड़ी कर सके। मुश्किल यह है कि जो कॉरपोरेट को चाहिये, वह तो सरकार अपनी सियासी सौदबजी के जरीये लाइसेंस या योजनाओं के जरीये बांटती है। लेकिन जो किसान को चाहिये वह भी मुनाफे के सौदेबाजी तले निजी कंपनिया सरकार से ले लेती है और उसके बाद किसान को अपनी अंगुलियों पर ना सिर्फ कीमतों को लेकर बल्कि खेती के तरीको और फसल तक को लेकर नचाती है। यानी कीमत सरकार नहीं निजी कंपनियां तय करती हैं। चाहे वह बीज हो या खाद। और सिंचाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर की तो बात ही दूर है। उल्टे खेती की जमीन को ही टाउनशीप से लेकर पावर प्रोजेक्ट और स्टील-सीमेंट फैक्ट्री से लेकर एसआईजेड के लिये हड़पने का सिलसिला ऐसा चला दिया गया है कि खेती की सिचाईं के लिये जो प्रकृतिक व्यवस्था जमीन के नीचे पानी की थी वह भी किसान से दूर हो चुकी है। जमीन के नीचे का पानी आधुनिक क्रंक्रीट की योजनाओं तले इतना नीचे चला गया है कि उससे किसानी करने के लिये इन्हीं निजी हाथों को मुनाफा देकर डीजल खरीदकर मोटर चलाना है।
यानी योजनाओं के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर को खत्म कर रहा है। लेकिन देश को हांकने की स्थिति में यह मुद्दे सरकार के साथ साथ कैसे अर्थशास्त्र के पाठ से भी अलग हो चुके हैं, यह योजना आयोग में बैठे अर्शास्त्रियों से लेकर वित्त मंत्रालय को सुझाव देने वाले अर्थशास्त्रियों के उन सुझाव से समझा जा सकता है, जिनकी प्राथमिकता भारत में निवेश करने वालों के लिये आधारभूत संरचना तैयार करना है। और निवेश का मतलब बाजार का विस्तार है। और विस्तार का मतलब भारत की अर्थव्यवस्था की देसी कीमत को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर आंकते हुये बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कच्चे माल से लेकर कच्चे श्रम को सस्ते में उपलब्ध कराना है। यानी जिस खनिज-संपदा का मोल भारत में कौड़ियो का है, उसे अंतराष्ट्रीय बाजार में भेजने के लिये हर वह उपाय सरकार ही निजी कंपनियो के लिये करती है जो ज्यादा से ज्यादा
मुनाफा विश्व बाजार में बना सके। इसकी एवज में सरकार सिवाय राजनीतिक सौदेबाजी से इतर कुछ कर भी नहीं पाती है। क्योंकि आर्थिक सुधार के बाद से देश में विकास के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर अलग अलग योजनाओं की फेहरिस्त में अस्सी फीसदी काम निजी कंपनियो या कारपोरेट ने किया है। सार्वजनिक उपक्रम को चलाया कैसे जाता है और उसके जरीये लोगों के लिये विकास योजनाओ कैसे बनायी जाती है, यह पाठ आधुनिक अर्थशास्त्र से गायब है। अर्थशास्त्र की नयी समझ यह मानने को तैयार नहीं है सरकार के सरोकार आम लोगों से भी हो सकते है और योजनाओ के जरीये पूंजी की उगाही के साथ साथ रोजगार से लेकर खनिज-संपदा को भी अपने बूते सरकार उपयोग में ला सकती है। सवाल सिर्फ बेल्लारी से लेकर मध्यप्रदेश, झारखंड और उड़ीसा की खनिज संपदा की लूट भर का नहीं है। जहां से करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा के राजस्व का चूना सरकारों की कॉरपोरेट नीति या सबकुछ निजी कंपनियो के हवाले कर विकास के ढोल पिटना भर है। दरअसल आर्थिक सुधार के बाद से कैसे बाजार की हवा में बहने वालों के लिये सबकुछ अपनी हथेलियों पर सिमटना आसान हो गया और कैसे देश का भविष्य भी निजी कंपनियों के हाथो गिरवी होता जा रहा है, यह वैकल्पिक उर्जा के क्षेत्र में लगी पूंजी से समझा जा सकता है। मनमोहन सिंह चाहे परमाणु उर्जा को लेकर बेहद आशावान हो और दुनिया भर की कंपनियों के भारत में परमाणु प्लांट लगाने से विकास दर में भी कुलाचे मारने वाली स्थिति देख रहे हों लेकिन दुनिया के तमाम देश यहल जान चुके हैं कि एक वक्त के बाद सूर्य और हवा के जरीये पैदा होने वाली उर्जा खासी जरुरी भी होगी और मुनाफा भी देगी। और भारत की त्रासदी यह है कि वैकल्पिक उर्जा के नाम पर कैबनेट स्तर का मंत्री भी है और भरा-पूरा मंत्रालय भी काम कर रहा है लेकिन उसका काम सिर्फ वैकल्पिक उर्जा वाले क्षेत्रो को कमीशन ले कर बेचना भर है । समुद्र इलाके की वह सारी जमीन जहा पवन चक्की चल सकती है और जहा सूर्य की तीक्ष्ण उर्जा होती है, वह सब निजी कंपनियों को बेचा जा चुका है । और यह सभी अभी से एनटीपीसी को बिजली बेचते हैं। और दस बरस बाद जब इसकी जरुरत और कीमत दोनो आसमान छूएंगे तो सरकार भी निजी कंपनियों की मनमानी कीमत के सामने वैसे ही नतमस्तक होगी जैसे आज अंबानी के हाथ में गैस और निजी कंपनियो को पेट्रोल-डीजल को सौंपकर सियासी चालो में ही देश की जरुरत की सौदेबाजी कर रही है। ऐसे बहुतेरे तथ्य यह सवाल खड़ा कर सकते हैं कि क्या सरकार के पास वाकई कोई अपना अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके जरीये लोगों की जरुरत के अनुकुल देश को आगे बढ़ाया जा सके। या फिर आर्थिक सुधार के जरीये देश इतना आगे जा चुका है कि उसके साथ उपभोक्ताओं से इतर सभी नागरिकों को भी साथ लेकर चलना अब नामुमकिन है।
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Monday, February 20, 2012
राजनीतिक अर्थशास्त्र की सत्ता
Posted by Punya Prasun Bajpai at 5:40 PM
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राजनीतिक अर्थशास्त्र
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1 comment:
प्रसून जी आपकी पुरी बातो से सहमत होकर भी दुख होता हैं कि इसमें राजनीति की बू आती हैं, आपके अनुभव से हम आपसे से ही अपेक्षा करते हैं कि किसी एक कस नाम सुझा दे जो कम से कम आपकी ही कसौटी पर खरा उतरे ...
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