बोफोर्स तोप ने अपनी चमक करगिल युद्द के दौरान दिखायी थी। लेकिन इसी तोप की खरीद के खेल ने देश की सत्ता को पलट दिया था। मगर इन 25 बरस में सबकुछ कैसे बदल गया और सेनाध्यक्ष के सामने बैठकर कोई 14 करोड़ रुपये घूस की पेशकश कर भी आजाद घूमता रहे यह अपने आप में देश के वर्तमान सच की त्रासदी को उभार देता है। ना तो रक्षामंत्री ए के एंटोनी और ना ही सेनाध्यक्ष सीधे किसी का नाम लेते है। सिर्फ संकेत दिये जाते हैं कि सेना के ही एक रिटायर अधिकारी ने घूस देने की पेशकश की। लेकिन जो हालात भ्रष्टाचार को लेकर इस दौर में देश के सामने है उसने दुनिया की दूसरी सबसे बडी भारतीय सेना में कैसे सेंध लगा दी है, यह अब किसी से छिपा नहीं है। लेकिन मुश्किल यह है कि देश के सेनाध्यक्ष को घूस की पेशकश को भी महज एक घूसकांड ही मान कर हर कोई अपनी सियासी बिसात बिछा रहा है। यह बिसात देश के लिये कितनी खतरनाक हो रही है, यह चीन की बढ़ती ताकत या सीमा पर चीनी गतिविधियों के बीच अब श्रीलंका और पाकिस्तान की भारत विरोधी सैनिक गतिविधियों से ज्यादा खतरनाक भारतीय सेना की उस चमक का खोना है, जिसे बीते 64 बरस से हर भारतीय तमगे की तरह छाती से लगाये रहा। असल में सेना के दायरे से बाहर सेना सिविल दायरे दागदार हो रही है और सेनाध्यक्ष और रक्षा मंत्री आपसी टकराव में जा उलझे है।
अगर सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के बयान को समझे तो इसके चार मतलब है। पहला सेनाध्यक्ष की हैसियत को कोई तरजीह घूस की पेशकश करने वाले ने नहीं दी। यानी लाबिंग करने वाले शख्स के पीछे ताकतवर सत्ता है। दूसरा सेनाध्यक्ष का टेट्रा ट्रक की क्वालिटी और कीमत को लेकर एतराज कोई मायने नहीं रखता। यानी पहले भी घूस दी गई और आगे भी घूस दी जाती रहेगी। तो जनरल वीके सिंह की क्या हैसियत। तीसरा जनरल वीके सिंह ने जब डिफेन्स सर्विस रेगुलेशन के तहत अपने सीनियर रक्षा मंत्री टोनी को जानकारी दे दी तो रक्षा मंत्री ने ही कार्रवाई शुरु क्यों नहीं करवा दी। और चौथा जब सेना में पहले से 7 हजार टेट्रा ट्रक इस्तेमाल किये जा रहे है और दो बरस पहले जब सेनाध्यक्ष ने रक्षा मंत्री को जानकारी दे दी तो क्या सेना के भीतर घूस का खेल कुछ इस तरह घुस चुका है जहा सफाई का रास्ता रक्षा मंत्री को भी नहीं पता। इसलिये उन्होने आश्चर्य व्यक्त कर सेनाध्यक्ष से लिखित तौर पर शिकायत मांग कर अपने आप से पल्ला झाड़ लिया।
जाहिर है यह सारे सवाल कुछ ऐसे सवाल खड़े करते जो दुनिया में चमक पैदा करने वाली भारतीय सेना और सत्ता पर दाग लगाती है। क्योंकि पहले संकेत अगर सेना के सामानो की खरीद फरोख्त के पीछे राजनीतिक सत्ता को खड़ा करते है तो दूसरा संकेत सेना का मतलब ही अब हथियार या सेना के सामानों की खरीद फरोख्त से होने वाले मुनाफे में सिमट जाता है। सेना पर यह सबसे बड़ा दाग इसलिये क्योंकि सेना में शामिल होने के लिये सेना अब विज्ञापनों का सहारा लेकर हर बरस पांच करोड़ से ज्यादा फूंक देती है। लेकिन सेना में शामिल होने की चाहत सबसे निचले स्तर पर शारीऱिक श्रम कर जवानों भर की भीड़ में जा सिमटी है। अब ना तो युवाओं में सेना में शामिल होने का जुनून है और ना ही सत्ता "जय जवान जय किसान" सरीखा नारा लगाने में विश्वास करती है। जो दो सवाल सेना को लेकर इस दौर में खड़े हुये वह या तो सेना के आधुनिकीकरण के मद्देनजर निजी क्षेत्रों को सेना के सामानों से जोडने वाले रहे या फिर सेना का इस्तेमाल आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर नक्सलवाद के खिलाफ देश में किया जाये या नहीं, इसपर ही टिके। और संयोग से इन दोनों सवालों पर सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सरकार का साथ नहीं दिया।
अब सेनाध्यक्ष के तर्क सत्ता को रास आये या नहीं आये लेकिन इस दौर में कुछ नये सवाल जरुर उभर पड़े, जिसने साफ तौर पर बताया कि देश का मिजाज बोफोर्स कांड के बाद पूरी तरह बदल चुका है। 1987 में वीपी सिंह जेब से कागज निकाल कर बोफोर्स के कमीशनखोरों की पहचान को सत्ता में आने के लिये इस्तेमाल करते रहे और राजीव गांधी के सत्ता पलट गयी। लेकिन अब सेनाध्यक्ष के घूस की पेशकश भी संसद के हंगामे में ही सिमट कर रह गयी। तब ईमानदारी का सवाल सेना में बेईमानी की सेंघ लगाने पर भारी पड़ रहा था। लेकिन अब बेइमानी की सेंध कैसे ईमानदारी को आर्थिक विकास की चकाचौंध तले दबा देती है य़ह सेना के भीतर के दाग से भी समझ में आता है जो सिविल क्षेत्र में सेना को बदनाम करते है और देश के विकास की थ्योरी में भी सेना कैसे बेमतलब होती जा रही है यह सामरिक नीति से भी समझा जा सकता है। अफगानिस्तान से लेकर इराक युद्द और अब ईरान संकट से लेकर इजरायल के साथ सामरिक संबंधों के मद्देजनर जो रुख भारत का है उसमे देश के विकास का मतलब बाजारवाद के दायरे में पूंजी का निवेश ही है। यानी माहौल ऐसा रहे जिससे देश में आर्थिक सुधार की हवा बहे इसके लिये राष्ट्रवाद की थ्योरी के मासने बदल चुकी है। इसके लिये सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर संबंध इस दौर में बेमानी हो चुके हैं। इसलिये यह सवाल कितना मौजूं है कि चीन की सेना की सक्रियता भारतीय सीमा पर बढ़ी है और श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान का रुख सेना को लेकर इस दौर में कही ज्यादा उग्र हुआ है लेकिन भारत का मतलब इस दौर में खुद को एक ऐसा अंतराष्ट्रीय बाजार बनाना है, जहां सेना का मतलब भी एक मुनाफा बनाने वाली कंपनी में तब्दील हो।
सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर बजट में इजाफा इसके संकेत नहीं देता कि अब भारतीय सीमा सुरक्षित है बल्कि संकेत यह उभरते है कि अब भारत किस देश के साथ हथियार की सौदेबाजी करेगा। और विदेश नीति से लेकर सामरिक नीति भी हथियारों की डील पर ही आ टिकती है। लेकिन सेनाध्यक्ष को घूस के संकेत सिर्फ इतने नहीं है कि लाबिंग करने वाले इस दौर में महत्वपूर्ण और ताकतवर हो गये हैं बल्कि सेना के भीतर भी आर्थिक चकाचौंध ने बेईमानी की सेंघ लगा दी है। इसलिये बोफोर्स घोटाले तले राजनीतिक ईमानदारी जब सत्ता में आने के बाद बेईमान होती है तो करगिल के दौर में भ्रष्टाचार की सूली पर और कोई नहीं शहीदों को ही चढ़ाया जाता है। करगिल के दौर में ताबूत घोटाले में एक लाख डालर डकारे जाते हैं और कटघरे में देश के रक्षा मंत्री आते हैं। ढाई हजार डालर का ताबूत तेरह गुना ज्यादा रकम में खरीदा जाता है। दो बरस बाद ही बराक मिसाइल की घूसखोरी में पूर्व नौसेना अध्यक्ष एम के नंदा के बेटे सुरेश नंदा के साथ साथ रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस भी आते हैं। और इसी दौर में किसी नेता और नौकरशाह की तर्ज पर सेना के ही लेफ्टिनेंट जनरल पी के रथ, लें अवधेश प्रकाश, लें रमेश हालगुली और मेजर पी के सेन को सुकना जमीन घोटाले का दोषी पाया जाता है । यानी सेना की 70 एकड़ जमीन बेच कर सेना के ही अधिकारी कमाते हैं। दरअसल, इस दौर में आर्थिक चकाचौंध ने सामाजिक तौर पर सियासत के जरीये ही बकायदा नीतियों के जरीये जितनी मान्यता दे दी है उसमें इससे ज्यादा वीभत्स स्थिति क्या हो सकती है कि सबसे मुश्किल सीमा सियाचिन में तैनात जवानो के रसद में भी घपला कर सेना के अधिकारी कमा लेते हैं। रिटायर्ड ले जनरल एस के साहनी को तीन बरस की जेल इसलिये होती है कि जो राशन जवानों तक पहुंचना चाहिये, उसमें भी मिलावट और घोटाले कर राशन सप्लाई की जाती है। और तो और शहीदों की विधवाओं के लिये मुंबई की आदर्श सोसायटी में भी फ्लैट हथियाने की होड़ सेना के पूर्व सेनाअध्यक्ष समेत कई अधिकारी करते हैं। और सीबीआई जांच के बाद ना सिर्फ पूछताछ होती है बल्कि रिटार्यड मेजर जनरल ए आर कुमार और पूर्व ब्रिग्रेडियर एमएम वागंचू की गिर्फतारी भी होती है। यानी भ्रष्टाचार को लेकर कहीं कोई अंतर सेना और सेना के बाहर सियासत के जरीय संसदीय राजनीति के भ्रष्टाचार के तौर तरीकों में नजर नहीं आती। तो क्या आने वाले वक्त में भारत की सेना का चरित्र बदल जायेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि सेना का कोई चेहरा भारत में कभी रहा नहीं है। और राजनीतिक तौर पर नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में युद्द के मद्दनजर जो भी चेहरा सेना का उभरा वह प्रधानमंत्री की शख्सियत तले ही रहा। लेकिन मनमोहन के दौर में पहली बार सेना को भी चेहरा मिला।
जनरल वीके सिंह अनुशासन तोड़ कर मीडिया के जरीये आम लोगों के बीच जा पहुंचे। क्योंकि दो बरस पुरानी शिकायत रिटायरमेंट के पड़ाव तक भी यूं ही पड़ी रही। और रक्षा मंत्री ने भी सेनाअध्य़क्ष को जनता के बीच ऐसा चेहरा दे दिया जहां अपने उम्र की लड़ाई लड़ते जनरल सरकार के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देते हैं। लेकिन सियासत और सेना के बीच की यह लकीर आने वाले वक्त में क्या देश के संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं करेगी क्योंकि आर्थिक सुधार धंधे में देश को देखते हैं और सियासत सिविल दायरे में सेनाअध्यक्ष से भी सीबीआई को पूछताछ की इजाजत देती है। ऐसे में यह सवाल वाकई बड़ा कि पद पर रहते हुये जनरल वी के सिंह से अगर सीबीआई पूछताछ करती है तो फिर कानून और अनुशासन का वह दायरा भी टूटेगा जो हर बरस 26 जनवरी के दिन राजपथ पर परेड़ करती सेना में दिखायी देता है, जहां सलामी प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति लेते हैं।
अब सेनाध्यक्ष के तर्क सत्ता को रास आये या नहीं आये लेकिन इस दौर में कुछ नये सवाल जरुर उभर पड़े, जिसने साफ तौर पर बताया कि देश का मिजाज बोफोर्स कांड के बाद पूरी तरह बदल चुका है। 1987 में वीपी सिंह जेब से कागज निकाल कर बोफोर्स के कमीशनखोरों की पहचान को सत्ता में आने के लिये इस्तेमाल करते रहे और राजीव गांधी के सत्ता पलट गयी। लेकिन अब सेनाध्यक्ष के घूस की पेशकश भी संसद के हंगामे में ही सिमट कर रह गयी। तब ईमानदारी का सवाल सेना में बेईमानी की सेंघ लगाने पर भारी पड़ रहा था। लेकिन अब बेइमानी की सेंध कैसे ईमानदारी को आर्थिक विकास की चकाचौंध तले दबा देती है य़ह सेना के भीतर के दाग से भी समझ में आता है जो सिविल क्षेत्र में सेना को बदनाम करते है और देश के विकास की थ्योरी में भी सेना कैसे बेमतलब होती जा रही है यह सामरिक नीति से भी समझा जा सकता है। अफगानिस्तान से लेकर इराक युद्द और अब ईरान संकट से लेकर इजरायल के साथ सामरिक संबंधों के मद्देजनर जो रुख भारत का है उसमे देश के विकास का मतलब बाजारवाद के दायरे में पूंजी का निवेश ही है। यानी माहौल ऐसा रहे जिससे देश में आर्थिक सुधार की हवा बहे इसके लिये राष्ट्रवाद की थ्योरी के मासने बदल चुकी है। इसके लिये सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर संबंध इस दौर में बेमानी हो चुके हैं। इसलिये यह सवाल कितना मौजूं है कि चीन की सेना की सक्रियता भारतीय सीमा पर बढ़ी है और श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान का रुख सेना को लेकर इस दौर में कही ज्यादा उग्र हुआ है लेकिन भारत का मतलब इस दौर में खुद को एक ऐसा अंतराष्ट्रीय बाजार बनाना है, जहां सेना का मतलब भी एक मुनाफा बनाने वाली कंपनी में तब्दील हो।
सेना के आधुनिकीकरण के नाम पर बजट में इजाफा इसके संकेत नहीं देता कि अब भारतीय सीमा सुरक्षित है बल्कि संकेत यह उभरते है कि अब भारत किस देश के साथ हथियार की सौदेबाजी करेगा। और विदेश नीति से लेकर सामरिक नीति भी हथियारों की डील पर ही आ टिकती है। लेकिन सेनाध्यक्ष को घूस के संकेत सिर्फ इतने नहीं है कि लाबिंग करने वाले इस दौर में महत्वपूर्ण और ताकतवर हो गये हैं बल्कि सेना के भीतर भी आर्थिक चकाचौंध ने बेईमानी की सेंघ लगा दी है। इसलिये बोफोर्स घोटाले तले राजनीतिक ईमानदारी जब सत्ता में आने के बाद बेईमान होती है तो करगिल के दौर में भ्रष्टाचार की सूली पर और कोई नहीं शहीदों को ही चढ़ाया जाता है। करगिल के दौर में ताबूत घोटाले में एक लाख डालर डकारे जाते हैं और कटघरे में देश के रक्षा मंत्री आते हैं। ढाई हजार डालर का ताबूत तेरह गुना ज्यादा रकम में खरीदा जाता है। दो बरस बाद ही बराक मिसाइल की घूसखोरी में पूर्व नौसेना अध्यक्ष एम के नंदा के बेटे सुरेश नंदा के साथ साथ रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नाडिस भी आते हैं। और इसी दौर में किसी नेता और नौकरशाह की तर्ज पर सेना के ही लेफ्टिनेंट जनरल पी के रथ, लें अवधेश प्रकाश, लें रमेश हालगुली और मेजर पी के सेन को सुकना जमीन घोटाले का दोषी पाया जाता है । यानी सेना की 70 एकड़ जमीन बेच कर सेना के ही अधिकारी कमाते हैं। दरअसल, इस दौर में आर्थिक चकाचौंध ने सामाजिक तौर पर सियासत के जरीये ही बकायदा नीतियों के जरीये जितनी मान्यता दे दी है उसमें इससे ज्यादा वीभत्स स्थिति क्या हो सकती है कि सबसे मुश्किल सीमा सियाचिन में तैनात जवानो के रसद में भी घपला कर सेना के अधिकारी कमा लेते हैं। रिटायर्ड ले जनरल एस के साहनी को तीन बरस की जेल इसलिये होती है कि जो राशन जवानों तक पहुंचना चाहिये, उसमें भी मिलावट और घोटाले कर राशन सप्लाई की जाती है। और तो और शहीदों की विधवाओं के लिये मुंबई की आदर्श सोसायटी में भी फ्लैट हथियाने की होड़ सेना के पूर्व सेनाअध्यक्ष समेत कई अधिकारी करते हैं। और सीबीआई जांच के बाद ना सिर्फ पूछताछ होती है बल्कि रिटार्यड मेजर जनरल ए आर कुमार और पूर्व ब्रिग्रेडियर एमएम वागंचू की गिर्फतारी भी होती है। यानी भ्रष्टाचार को लेकर कहीं कोई अंतर सेना और सेना के बाहर सियासत के जरीय संसदीय राजनीति के भ्रष्टाचार के तौर तरीकों में नजर नहीं आती। तो क्या आने वाले वक्त में भारत की सेना का चरित्र बदल जायेगा। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि सेना का कोई चेहरा भारत में कभी रहा नहीं है। और राजनीतिक तौर पर नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक के दौर में युद्द के मद्दनजर जो भी चेहरा सेना का उभरा वह प्रधानमंत्री की शख्सियत तले ही रहा। लेकिन मनमोहन के दौर में पहली बार सेना को भी चेहरा मिला।
जनरल वीके सिंह अनुशासन तोड़ कर मीडिया के जरीये आम लोगों के बीच जा पहुंचे। क्योंकि दो बरस पुरानी शिकायत रिटायरमेंट के पड़ाव तक भी यूं ही पड़ी रही। और रक्षा मंत्री ने भी सेनाअध्य़क्ष को जनता के बीच ऐसा चेहरा दे दिया जहां अपने उम्र की लड़ाई लड़ते जनरल सरकार के खिलाफ ही सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देते हैं। लेकिन सियासत और सेना के बीच की यह लकीर आने वाले वक्त में क्या देश के संप्रभुता के साथ खिलवाड़ नहीं करेगी क्योंकि आर्थिक सुधार धंधे में देश को देखते हैं और सियासत सिविल दायरे में सेनाअध्यक्ष से भी सीबीआई को पूछताछ की इजाजत देती है। ऐसे में यह सवाल वाकई बड़ा कि पद पर रहते हुये जनरल वी के सिंह से अगर सीबीआई पूछताछ करती है तो फिर कानून और अनुशासन का वह दायरा भी टूटेगा जो हर बरस 26 जनवरी के दिन राजपथ पर परेड़ करती सेना में दिखायी देता है, जहां सलामी प्रधानमंत्री नहीं राष्ट्रपति लेते हैं।
6 comments:
बहुत बढ़िया विश्लेषण
सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सच्चाई को सामने लाने की हिम्मत दिखायी है. उन्होंने अब तक जो खेल परदे के पीछे होता था उसे सामने लाया है. वोह इस साहस के लिए निःसंदेह बधाई के पात्र हैं. उन्होंने सेना में समाते जा रहे भ्रष्ट्र तंत्र के विरुद्ध युद्ध का शंखनाद किया है. सत्य परेशान हो सकता है परास्त नहीं. और उनके लिए - वतन पे जो फिदा होगा अमर वो नौजवां होगा......
namashkar, lekh kafhi vichar karne wala hai. magar jese aap kehate hai. ye bharat hai yaha jo sochte nahi vahi hota hai.
hame job se deri se ane ki vajaha se aapki badi khabar dekhane nahi milti. pls wo link bhej digiye taki hum office me hi dekh sake thanku
namashkar, lekh kafhi vichar karne wala hai. magar jese aap kehate hai. ye bharat hai yaha jo sochte nahi vahi hota hai.
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कैग की रिपोर्ट के बाद अब ये प्रमाणित हो चला है कि आर्मी चीफ ने सब सच कहा था ! इसका मतलब है कि - वर्तमान सर्कार भ्रष्ट लोगों को सरंक्षण दे रही है ! ऐसा लगता है कि वर्तमान सरकार बेहद गोपनीय तरीके से आर्मी चीफ के खिलाफ ताना-बाना बुन रही है और उन्हें बदनाम करने कि साज़िश रच रही है ! आखिरकार भ्रष्टाचार और कमज़ोर होती सेना की बात सच साबित हो रही है ! मामला बेहद गंभीर है , पर ये सरकार इस कदर लापरवाह कि - भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्यवाही की बजाय अपने ही आर्मी चीफ से उलझ पड़ी ! शर्म आती है ऐसी सरकार पर ! पर सरकार को अब ये बखूबी समझ लेना चाहिए कि अब आम जनता, आर्मी चीफ के साथ खड़ी है ! सोनिया गांधी , लाल कृष्ण आडवानी और मनमोहन सिंह जी (देश के तीन प्रमुख नेताओं ) से ये गुजारिश है कि हमारे आर्मी चीफ का कार्यकाल बढ़ाया जाए ताक़ी वो सख्त कार्यवाही कर सकें !
ANUSHASAN KE DAYRE ME RAHNA HAMESA ACHHA NAHI HOTA...UAR JAB DHIRE DHIRE HAR AIK VYAWASTHA APNA MAHTWA KHO RAHI HAI TO SENA ME AISE KUCHH BHI NAHI HUA JO CHAUKA DE KYOKI JAB CHUPA HUA KUCH BHI SAAMNE AATA HAI TO PAL BHAR KE LIYE HAIRANI JAROOR HOTI HAI. DUKHAD BAAT YE HAI KI SAMJHOTA KARNE KI YA SAR JHUKAKAR BAAT MAAN JAANE KA CHALLAN VARTMAN SARKAR ME IS KADAR HAI KI AB SAMJHOTA KISI BHI ISTAR PAR KIA JAAYE USE GUREJ NAHI..BHAY TO IS BAAT KA HAI KI DES KYA KOI BHI PHAISALA BINA DABAW KE AAJ LE SAKTA HAI.?AISI SARKAR JISE KOI BHI JUHKA DE ,USKE HATH ME DES BHALA KAISE SURAKCHIT RAH SAKTA HAI..CHAHE DES KE BHITAR KE BINA MAKSAD WALE HADTAL HO YA PHIR SARKAR HI SAHYOGI PARTIES JO VIDESI MASLE PAR BHI SIRF APNA CHETRIYA RAJNITIK HIT DEKHTI HAI..
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