यह रास्ता जंगल की तरफ जाता जरुर है लेकिन जंगल का मतलब सिर्फ जानवर नहीं होता। जानवर तो आपके आधुनिक शहर में हैं, जहां ताकत का एहसास होता है। जो ताकतवर है उसके सामने समूची व्यवस्था नतमस्तक है। लेकिन जंगल में तो ऐसा नहीं है। यहां जीने का एहसास है। सामूहिक संघर्ष है। एक-दूसरे के मुश्किल हालात को समझने का संयम है। फिर न्याय से लेकर मुश्किल हालात से निपटने की एक पूरी व्यवस्था है। जिसका विरोध भी होता है और विरोध के बाद सुधार की गुंजाइश भी बनती है। लेकिन आपके शहर में तो जो तय हो गया चलना उसी लीक पर है। और तय करने वाला कभी खुद को न्याय के कठघरे में खड़ा नहीं करता। चलते चलिये। यह अपना ही देश है। अपनी ही जमीन है। और यही जमीन पीढ़ियों से पूरे देश को अन्न देती आई है। और अब आने वाली पीढ़ियों की फिक्र छोड़ हम इसी जमीन के दोहन पर आ टिके है। इस जमीन से कितना मुनाफा बटोरा जाता सकता है, इसे तय करने लगे है। उसके बाद जमीन बचे या ना बचे। लेकिन आप खुद ही सोचिये जो व्यवस्था पहले आपको आपके पेट से अलग कर दें। फिर आपके भूखे पेट के सामने आपकी ही जिन्दगी रख दें। और विकल्प यही रखे की पेट भरोगे तो जिन्दा बचोगे। तो जिन्दगी खत्म कर पेट कैसे भरा जाता है ,यह आपकी शहरी व्यवस्था ने जंगलो को सिखाया है। यहां के ग्रामीण-आदिवासियों को बताया है। आप इस व्यवस्था को जंगली नहीं मानते। लेकिन हम इसे शहरी जंगलीपन मानते है। लेकिन जंगल के भीतर भी जंगली व्यवस्था से लड़ना पडेगा यह हमने कभी सोचा नहीं था। लेकिन अब हम चाहते हैं जंगल तो किसी तरह महफूज रहे। इसलिये संघर्ष के ऐसे रास्ते बनाने में लगे है जहां जिन्दगी और पेट एक हो। लेकिन पहली बार समझ में यह भी आ रहा है कि जो व्यवस्था बनाने वाले चेहरे हैं, उनकी भी इस व्यवस्था के सामने नहीं चलती ।
यहां सरकारी बाबुओं या नेताओं की नहीं कंपनियो के पेंट-शर्ट वाले बाबूओं की चलती है। जो गोरे भी है और काले भी। लेकिन हर किसी ने सिर्फ एक ही पाठ पढ़ा है कि यहां की जमीन से खनिज निकालकर। पहाड़ों को खोखला बनाकर। हरी भरी जमीन को बंजर बनाकर आगे बढ़ जाना है। और इन सब को करने के लिये, इन जमीन तक पहुंचने के लिये जो हवाई पट्टी चाहिये। चिकनी -चौड़ी शानदार सड़केंचाहियें। जो पुल चाहिये। जमीन के नीचे से पानी खींचने के लिये जो बड़े बड़े मोटर पंप चाहिये। खनिज को ट्रक में भर कर ले जाने के लिये जो कटर और कन्वेयर बेल्ट चाहिये। अगर उसमें रुकावट आती है तो यह विकास को रोकने
की साजिश है। जिन 42 से ज्यादा गांव के साढे नौ हजार से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी परिवार को जमीन से उखाड़कर अभी मजदूर बना दिया गया है और खनन लूट के बाद वह मजदूर भी नहीं रहेंगे, अगर वही ग्रामीण अपने परिवार के भविष्य का सवाल उठाता है तो वह विकास विरोधी कैसे हो सकता है। इस पूरे इलाके में जब भारत के टाप-मोस्ट उघोगपति और कारपोरेट, खनन और बिजली संयत्र लगाने में लगे है और अपनी परियोजनाओ को देखने के लिये जब यह हेलीकाप्टर और अपने निजी जेट से यहां पहुंचते है। दुनिया की सबसे बेहतरीन गाड़ियों से यहां पहुंचते है , तो हमारे सामने तो यही सवाल होता है कि इससे देश को क्या फायदा होने वाला है। यहां मजदूरों को दिनभर के काम की एवज में 22 से 56 रुपये तक मिलता है। जो हुनरमंद होता है उसे 85 से 125 रुपये तक मिलते हैं। और कोयला खादान हो या फिर बाक्साइट या जिंक या फिर बिजली संयत्र लगाने में लगे यही के गांव वाले हैं। उन्हे हर दिन सुबह छह से नौ किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचना पड़ता है। जबकि इनके गांव में धूल झोंकती कारपोरेट घरानो की एसी गाड़ियां दिनभर में औसतन पांच हजार रुपये का तेल फूंक देती हैं। हेलिकाप्टर या निजी जेट के खर्चे तो पूछिये नहीं। और इन्हें कोई असुविधा ना हो इसके लिये पुलिस और प्रशासन के सबसे बड़े अधिकारी इनके पीछे हाथ जोड़कर खडे रहते है। तो आप ही बताईये इस विकास से देश का क्या लेना-देना है। देश का मतलब अगर देश के नागरिको को ही खत्म कर उघोगपति या कारपोरेट विकास की परिभाषा को अपने मुनाफे से जोड़ दें तो फिर सरकार का मतलब क्या है जिसे जनता चुनती है। क्योंकि इस पूरे इलाके में ग्रामीण आदिवासियों के लिये एक स्कूल नहीं है। पानी के लिये हेंड पंप नहीं है। बाजार के नाम पर अभी भी हर गुरुवार और रविवार हाट लगता है। जिसमें ज्यादा से ज्यादा गांव के लोग अन्न और पशु लेकर आते हैं। एक दूसरे की जरुरत के मद्देनजर सामानो की अदला-बदली होती है। लेकिन अब हाट वाली जगह को भी हडपने के लिये विकास का पाठ सरकारी बाबू पढ़ाने लगे हैं। धीरे धीरे खादानो में काम शुरु होने लगा है। बिजली संयत्रो का माल-असबाब उतरने लगा है तो कंपनियो के कर्मचारी अफसर भी यही रहने लगे हैं। उनको रहने के दौरान कोई असुविधा ना हो इसके लिये बंगले और बच्चों के स्कूल से लेकर खेलने का मैदान तक बनाने के लिये मशक्कत शुरु हो रही है। गांव के गांव को यह कहकर जमीन से उजाड़ा जा रहा है कि यह जमीन तो सरकार की है। और सरकार ने इस पूरे इलाके की गरीबी दूर करने के लिये पूरे इलाके की तस्वीर बदलने की ही ठान ली है। चिलका दाद, डिबूलगंज, बिलवडा, खुलडुमरी सरीखे दर्जनो गांव हैं, जहां के लोगो ने अपनी जमीन पावर प्लांट के लिये दे दी। लेकिन अब अपनी दी हुई जमीन पर ही गांव वाले नहीं जा सकते। खुलडुमरी के 2205 लोगो की जमीन लेकर रोजगार देने का वादा किया गया।
लेकिन रोजगार मिला सिर्फ 234 लोगो को। आदिवासियों के जंगल को तबाह कर दिया गया है। जिन फारेस्ट ब्लाक को लेकर पर्यवरण मंत्रालय ने अंगुली उठायी और वन ना काटने की बात कही। उन्हीं जंगलों को अब खत्म किया जा रहा है क्योंकि अब निर्णय पर्यावरण मंत्रालय नहीं बल्कि ग्रूप आफ मनिसटर यानी जीओएम लेते हैं । ऐसे में माहान,छत्रसाल,अमेलिया और डोगरी टल-11 जंगल ब्लाक पूरी तरह खत्म किये जा रहे हैं। करीब 5872.18 हेक्टेयर जंगल पिछले साल खत्म किया गया। और इस बरस 3229 हेक्टेयर जंगल खत्म होगा। अब आप बताइये यहां के ग्रामीण-आदिवासी क्या करें। कुछ दिन रुक जाइए, जैसे ही यह ग्रामीण आदिवासी अपने हक का सवाल खड़ा करेंगे वैसे ही दिल्ली से यह आवाज आयेगी कि यहां माओवादी विकास नहीं चाहते हैं। और इसकी जमीन अभी से कैसे तैयार कर ली गई है यह आप सिंगरैली के बारे में सरकारी रिपोर्ट से लेकर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंचों से सिंगरैली के लिये मिलती कारपोरेट की मदद के दौरान खिंची जा रही रिपोर्ट से समझ सकते हैं। जिसमें लिखा गया है कि खनिज संसाधन से भरपूर इस इलाके की पहचान पावर के क्षेत्र में भारतीय क्रांति की तरह है। जहां खादान और पावर सेक्टर में काम पूरी तरह शुरु हो जाये तो मेरिका और यूरोप को मंदी से निपटने का हथियार मिल सकता है। इसलिये यहां की जमीन का दोहन किस स्तर पर हो रहा है और किस तरीके से यहा के कारपोरेट के लिये अमेरिकी सरकार तक भारत की नीतियों को प्रभावित कर रही है इसके लिये पर्यावरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालयो की नीतियो में आये परिवर्तन से भी समझा जा सकता है । जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्री रहते हुये चालीस किलोमिटर के क्षेत्र के जंगल का सवाल उठाया।
पर्यावरण के अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ ग्रीन पीस ने यहा के ग्रामीण आदिवासियों पर पडने वाले असर का समूचा
खाका रखा। लेकिन आधे दर्जन कारपोरेट की योजना के लिये जिस तरह अमेरिका, आस्ट्रेलिया से लेकर चीन तक का मुनाफा जुड़ा हुआ है। उसमें हर वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई जिनके सामने आने से योजनाओ में रुकावट आती। इस पूरे इलाके में चीन के कामगार और आस्ट्रेलियाई अफसरो की फौज देखी जा सकती है। अमेरिकी बैंक के नुमाइन्दे और अमेरिकी कंपनी बुसायरस के कर्मचारियों की पहल देखी जा सकती है। आधे दर्जन पावर प्लांट के लिये 70 फीसदी तकनीक अमेरिका से आ रही है। ज्यादातर योजनाओ के लिये अमेरिकी बैंक ने पूंजी कर्ज पर दी है। करीब 9 हजार करोड से ज्यादा सिर्फ अमेरिका के सरकारी बैंक यानी बैक आफ अमेरिका का लगा है। कोयले का संकट ना हो इसके लिये कोयला खादान के ऱाष्ट्रीयकरण की नीतियों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खुले बाजार में कोयला पहुंच भी रहा है और ठेकेदारी से कोयला खादान से कोयले की उगाही भी हो रही है। कोयला मंत्रालय ने ही कोल इंडिया की जगह हिंडालको और एस्सार को कोयला खादान का लाइसेंस दे दिया है। जो अगले 14 बरस में 144 मिलियन टन कोयला खादान से निकालकर अपने पावर प्लांट में लगायेंगे। तमाम कही बातों के दस्तावेजों को बताते दिखाते हुये हमने ख दान और गांव के चक्कर पूरे किये तो लगा पेट में सिर्फ कोयले का चूरा है। सांसों में भी भी कोयले के बुरादे की घमक थी। और संयोग से ढलती शाम या डूबते हुये सूरज के बीच सिंगरौली में ही आसमान में चक्कर लगाता एक विमान भी जमीन पर उतरा । पूछने पर पता चला कि सिगरौली में अमेरिकी तर्ज पर हिंडालको की निजी हवाई पट्टी है जहा रिलायस,टाटा,जिदंल,एस्सार , जेयपी समेत एक दर्जन से ज्यादा कारपोरेट के निजी हेलीकाप्टर और चार्टेड विमान हर दिन उतरते रहते हैं। और आने वाले दिनो में सिंगरौली की पहचान 35 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र के तौर पर होगी। जिस पर भारत रश्क करेगा।
Monday, May 28, 2012
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सिंगरौली के संघर्ष का सफर |
Friday, May 25, 2012
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गडकरी को शह देकर संजय जोशी को मात दी मोदी ने |
नरेंद्र मोदी तैयार थे भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी छोड़ने के लिए
'जब अटल बिहारी वाजपेयी के लिए गोविंदाचार्य को बीजेपी से बाहर बैठाया जा सकता है, तो नरेंद्र मोदी के लिए संजय जोशी को बीजेपी से बाहर का रास्ता क्यों नहीं दिखाया जा सकता.' संजय जोशी के इस्तीफे से ठीक पहले नरेंद्र मोदी का यही आखरी वाक्य रामवाण की तरह आरएसएस को भी लगा और नीतिन गडकरी को भी.
जिसके बाद नीतिन गडकरी ने संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकरिणी से इस्तीफा देने को कह दिया. लेकिन मोदी ने इस रामबाण से पहले जो बिसात संजय जोशी को लेकर बिछायी, उसने बुधवार रात को बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के भी होश फाख्ता कर दिये.
असल में नरेंद्र मोदी यह जानते थे कि नीतिन गडकरी सिर्फ कहने भर से संजय जोशी को बीजेपी से बाहर करेंगे नहीं, क्योंकि संजय जोशी से गडकरी का रिश्ता दिल्ली के राजनीतिक गलियारे या बिहार-यूपी चुनाव के दौर का नहीं है. दोनों लड़कपन से नागपुर में संघ मुख्यालय को देखते हुए राजनीति का पाठ पढ़े हैं. गडकरी का घर अगर संघ मुख्यालय से दो सौ मीटर की दूरी पर महाल में ही है, तो संजय जोशी का घर महाल के संघ मुख्यालय से 12 किलोमीटर दूर त्रिमूर्ती नगर में है. इसलिए मोदी की दुश्मनी के बावजूद नीतिन गडकरी ने अपनी पहल पर संजय जोशी की वापसी बीजेपी में की. और यही नरेंद्र मोदी को बर्दाश्त नहीं हुआ.
इसलिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी से ऐन पहले की रात (बुधवार को) गुजरात के नेता और बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पुरुषोत्तम रुपाला ने बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी से मुलाकात कर संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकरिणी से बाहर निकालने के लिए ऐसा अल्टीमेटम दिया कि गडकरी को भी तुरंत संघ प्रमुख मोहन भागवत से पूछना पड़ा.
असल में पुरुषोत्तम रुपाला ने बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के सामने सीधा प्रस्ताव रखा कि अगर संजय जोशी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटाया नहीं जाता और भविष्य में राष्ट्रीय राजनीति से दूर रखने का निर्णय नहीं लिया गया, तो गुजरात के पांच सदस्य राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे देंगे. जानकारी के मुताबिक पुरुषोत्तम रुपाला ने खुदे के नाम सहित जिन पांच लोगों के नाम गडकरी को गिनाये, उसमें हरेन पाठक, भीखूभाई डलसनिया, बालकृष्णा शुक्ला और नरेंद्र मोदी का भी नाम था. हरेन पाठक अहमदाबाद के सांसद हैं और लालकृष्ण आडवाणी के गुजरात में पाइंटपर्सन के तौर पर जाने जाते हैं. वही भीखू भाई डलसनिया संगठन मंत्री हैं और बालकृष्ण शुक्ला बड़ोदरा के सांसद होने के साथ- साथ गुजरात बीजेपी के महामंत्री भी हैं.
यानी पुरुषोत्तम रुपाला ने नरेंद्र मोदी की चाल के जरिये नीतिन गडकरी को इसका एहसास करा दिया कि अगर संजय जोशी पद पर बरकरार रहे, तो खतरा नीतिन गडकरी के दोबारा अध्यक्ष बनने पर मंडरायेगा. क्योंकि नरेंद्र मोदी समेत राष्ट्रीय कार्यकारिणी से गुजरात के पांच इस्तीफे सीधे-सीधे गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी संविधान में संशोधन के विरोध के तौर पर देखे जायेंगे. और मुश्किल आरएसएस के सामने भी खड़ी हो जायेगी. आरएसएस ने ही गडकरी को दोबारा अध्यक्ष पद पर बैठाने के लिए दो महीने पहले नागपुर में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बीजेपी के संविधान में संशोधन पर मुहर लगायी थी.
लेकिन संघ की उस कार्यकारिणी में सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2014 की लीक पकड़ने के लिए बीजेपी को राजनीतिक पाठ पढ़ाने पर भी जोर दिया था. और पहली बार इसके संकेत भी दिये थे कि हेडगेवार, देवरस और रज्जू भइया की ही तर्ज पर वह भी सामाजिक, राजनीतिक तौर पर संघ के सहयोग से बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाना चाहते हैं. इसीलिए संघ के कोर ग्रुप में इसकी भी सहमति बनी कि बीजेपी को हिंदुत्ववादी नहीं बल्किराष्ट्रवादी रास्ते को राजनीति के लिए पकड़ना होगा. और 2014 के लिए वही नेता अगुवाई करेगा, जिसे जनता पसंद करेगी. यानी हर नेता को चुनाव मैदान में तो उतरना ही होगा. और संघ का यह संकेत जेटली के लिए है और गडकरी के लिए भी.
यानी जब राजनीतिक तौर पर सरसंघचालक मोहन भागवत 2014 को लेकर इस तरह लकीर खींच रहे हैं, तो संजय जोशी को लेकर वह इस रास्ते का बंटाधार करना भी नहीं चाहेंगे. इसलिए पुरुषोत्तम रुपाला के अल्टीमेटम पर नीतिन गडकरी को आरएसएस का जवाब भी यही मिला कि जब गोविंदाचार्य बीजेपी से बाहर होकर भी संघ के लिए काम कर सकते हैं, तो संजय जोशी भी बीजेपी से बाहर होकर संघ परिवार का हिस्सा बन कर काम क्यों नहीं कर सकते.
और राजनीतिक तौर पर लोकिप्रय नेताओं के लिए रास्ता साफ करना ही पड़ता है. यानी नरेंद्र मोदी के लिए संघ सकारात्मक है और नीतिन गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बना कर संघ फिलहाल बीजेपी के कामकाज में कोई हलचल पैदा करना नहीं चाहते, इसके सीधे संकेत आरएसएस ने नीतिन गडकरी को दिये. और इसी के तुरंत बाद बुधवार रात को ही संजय जोशी से इस्तीफा लिया गया और यह तय हो गया कि मुंबई के अधिवेशन में नरेंद्र मोदी आयेंगे.
Tuesday, May 22, 2012
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यूपीए-2 में कौन मुस्कुरा रहा है |
मेरे पास मनमोहन सिंह हैं। यूपीए -2 की शुरुआत सोनिया गांधी के इसी संकेत से हुई थी । जब उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में अपनी तस्वीर अपनी हथेली से ढककर सिर्फ मनमोहन सिंह की तस्वीर दिखायी थी। यानी 2004 में मेरे पास मां है का डायलाग सोनिया ने ही 2009 में यह कहकर बदला था कि उनके पास अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह है। लेकिन सिर्फ तीन बरस बाद ही यही अर्थशास्त्र, राजनीति के छौंक के बगैर कैसे मेरे पास मनमोहन सिंह के डायलाग को खारिज कर देगी यह सोनिया गांधी ने भी नहीं सोचा होगा। बावजूद इसके यह वहली बार होगा जब सरकार को ईमानदारी का पाठ बताने में बेईमान होना ही पड़ेगा क्योंकि राजनीति का तकाजा यही है। संसद की सीढियों पर मुस्कुराते हुये सुरेश कलमाडी का हर दिन चढ़ना। 15 महिने जेल
में रहने के बाद ए राजा का संसद में बैठकर लगातार चिदबरंम और मनमोहन सिंह को देखकर मुस्कुराना। क्रिकेट को धंधा बनाने पर बहस में शरद पवार का संसद में लगातार मुस्कुराना। शाहरुख खान पर प्रतिबंध के बयान के पीछे की राजनीति को संसद की गलियारे में अपने साथियों को चटखारे लेकर विलासराव देशमुख का सुनाना। संसद परिसर में राजीव शुक्ला का आईपीएल को लेकर नीतियों का जिक्र कर ठहाके लगाना। 22 और 29 रुपये में गरीब को रईस बताकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह का कैमरे का सामने बार बार हंसना। और हंसते हुये ही मंत्रालयों के बजट को सीमित कर पीएमओ के लिये ही हर मंत्री पर निगरानी रखना। और चलते हुये संसद सत्र के बीच रेल मंत्री को बजट पेश करते करते 72 घंटे में बिना प्रधानमंत्री से सलाह मशविरा किये बदलने का ऐलान कर देना। और उसके बाद कोई पूछे कि सरकार कैसी चल रही है तो कुछ जवाब तो सीधे निकलेंगे । मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की नहीं चलती। प्रधानमंत्री की सहयोगियों की सियासत पर। और सहयोगियों की सरकार में नहीं चलती। इन सब के बीच कोई यह कहे कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं। तो यूपीए-2 के दौर का सच खंगालना ही होगा। क्योंकि पहला मौका है जब विकास दर बिना रोजगार और बिना उत्पादन के है। पहला मौका जब पूर्व चीफ जस्टिस से लेकर सेना के जनरल,सीएजी से लेकर सीबीआई,और नौकरशाही से लेकर कारपोरेट कोई भी बेदाग नहीं है।
लेकिन मनमोहन सिंह बेदाग हैं। पहली बार सरकार की जांच [ 2 जी स्पेक्ट्रम ] और जांच की नीयत [कालेधान पर एसआईटी ]पर सुप्रीमकोर्ट को शक होता है। अदालत अपनी निगरानी में सरकार की एंजेसियों से काम कराती है। आर्थिक सुधार के जिस रास्ते को मनमोहन सिंह अपने हुनर से साधना चाहते हैं, उसका बाजा उनके अपने ही यह कहकर बजाने लगते हैं कि यह हुनर नहीं देश को गिरवी रखने के तरीके हैं। पीएमओ के बंद कमरे में प्रधानमंत्री के अर्शास्त्र के हुनर पर ममता खामोश रहती हैं। लेकिन सड़क पर विपक्ष के साथ खड़े होकर होकर ममता हुंकारती भी हैं, जो राजनीतिक तौर पर मनमोहन के अर्थशास्त्र को राजनीतिक तौर पर इतना डराती है कि एफडीआई,रिटेल सेक्टर, बैकिंग, इंशोरेन्स, जीएसटी, कंपनी विधेयक, टेलिकाम पालिसी, राष्ट्रीय स्पेक्ट्रम कानून, डीजल को खुले बाजार के हवाले करना, खनन नीति, भूमि-सुधार जैसे आर्थिक सुधार के रास्ते बंद हो जाते हैं। फिर कैबिनेट की बैठक में शरद पवार खाद्य सुरक्षा बिल पर खामोश भरी सहमति देते है । लेकिन कमरे से बाहर निकलते ही सामने कैमरे देखकर यह कहने से नहीं चुकते कि कृर्षि मंत्रालय का बजट 20 हजार करोड़ का है और सोनिया गांधी खाद्द सुरक्षा विधेयक के जरीये सरकार से 65 हजार करोड़ की सब्सिडी चाहती हैं। मनरेगा को लेकर हर राज्य जानना चाहता है कि बर बरस साढ़े हजार करोड़ खर्च कर बने क्या। यानी ना इन्फ्रास्ट्रक्चर, ना पावर, ना खनन और ना ही इस दौर में पीने के पानी और स्वास्थ्य सेवा सरीखे न्यूनतम जरुरतों को लेकर सरकार कोई कदम आगे बढ़ा पाती है। और कदम आगे बढते भी है तो भ्रष्ट्राचार की फाइलें ही इस कदर सरकार को उलझाती है कि बीते साल भर में कोयले के ब्लाक्स को बांटने कोयला मंत्रालय फंसता है। खनन पर एनओसी देने पर कारपोरेट लूट में राजनीतिक साझीपन सामने आता है। पावर सेक्टर में इनर्जी पैदा करने के नाम बड़े और प्रभावी निजी व कारपोरेट में लाइसेस बांट कर इनर्जी के मामले में स्वाबलंबी होने का सपना देखा जाता है।
नियमानुसार सिर्फ सिंगरौली में 2012 तक 25 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होने लगना चाहिये। और 2014 तक 34 हजार मेगावाट। लेकिन हकीकत में अभी पांच हजार मेगावट का बिजली उत्पादन भी नहीं हो पा रही है। दरअसल यूपीए-2 की सबसे बडी उपलब्धि तो इस तीसरे बरस निकल कर सामने आयी है उसमें हर मंत्रालय में नौकरशाही का भ्रष्टाचार की फाइल पर चिड़िया बैठाने से इंकार करना है। क्योंकि भ्रष्टाचार को लेकर जो नकेल सड़क से लेकर अदालत और आंदोलनों से लेकर सत्ता की चाहत में विपक्षी राजनीति दलों के तेवरों ने परिस्थितियां एकजूट की उसमें मनमोहन सरकार को सिर्फ इतनी ही कहने की छूट मिली की सत्ता में वह हैं तो ही भ्रष्टाचार के मामले सामने आ रहे हैं। लेकिन जो लकीर प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहार सी रंगराजन और वित्त मंत्रालय के सलाहाकार कौशिक बसु ने खिंची उसने इसके संकेत भी दे दिये की पटरी से उतरती सरकारी नीतियो के पीछे सरकार की ही नीतियां हैं। तो क्या यबह कहा जा सकता है कि कि सरकार भ्रष्टाचार की सफाई में जुटी है तो उसके सामने अपनी ही बनायी व्यवस्था के भ्रष्टाचार उभर रहे हैं।
आर्थिक सुधार की जिस बिसात को कारपोरेट के आसरे मनमोहन सिंह ने बिछाया अब वही करपोरेट मनमोहन सिंह को यह कहने से नही कतरा रहा है विकास के किसी मुद्दे पर वह निर्णय नहीं ले पा रहे हैं। इतना ही नहीं भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे, रामदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर आडवाणी की मुहिम ने सरकार को गवर्नेंस से लेकर राजनीतिक तौर पर जिस तरह घेरा है उससे बचने के लिये सरकार यह समझ नहीं पा रही है कि गवर्नेंस का रस्ता अगर उसकी अपनी बनायी अर्थव्यवस्था पर सवाल उठता है तो राजनीतिक रास्ता गवर्नेंस पर सवाल उठाता है।
दरअसल महंगाई,घोटालागिरी है और आंदोलन से दिखते जनाआक्रोश ने सरकार के भीतर भी कई दरारे डाल दी हैं। इन दरारों को पाटने के लिये क्या मनमोहन सिंह पुल का काम कर पायेंगे। और कांग्रेस वाकई कहेगी कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं। या फिर यूपीए-2 का दौर मनमोहन के यूपीए -1 के दामन को भी दागदार बना देगा। क्योंकि कालेधन को लेकर जैसे ही जांच के अधिकार डायरेक्टर आफ क्रिमिनल इन्वेस्टीगेशन यानी डीसीआई को दिये गये वैसे ही विदेशो के बैंक में जमा यूपी, हरिय़ाणा और केरल के सांसद का नाम सामने आया। मुंबई के उन उघोपतियों का नाम सामने आया जिनकी पहचान रियल इस्टेट से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर है । और जिनके साथ सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर,बंदरगाह, खनन और पावर सेक्टर में मिल कर काम किया है ।यानी यूपीए-1 के दौर में जो कंपनिया मनमोहन सिंह की चकाचौंध अर्थव्यवस्था को हवा दे रही थी वह यूपीए-2 में कालेधन के चक्कर में फंसती दिख रही है। जबकि मनमोहन सिंह इसी दौर में यह कहते हुये खुद पर गर्व करते रहे कि सरकार के साथ मिलकर योजनाओ को अमली जामा पहनाते कारपोरेट-निजी कंपनियों की फेहरिस्त में एक दर्जन कंपनियों की पहचान बहुराष्ट्रीय हो गई। लेकिन सरकार इस सच को छुपा गई कि बहुराष्ट्रीय कंपनी होकर कारपोरेट ने सरकारी योजनाओं को हड़पा भी। यानी अर्थव्यवस्था की जो चकाचौंध मनमोहनइक्नामिक्स तले यूपीए-1 के दौर में देश के मध्यम तबके पर छायी रही और कांग्रेस उसी शहरी मिजाज में आम आदमी के साथ खड़े होने की बात कहती रही वह यूपीए-2 में कैसे डगमगा रही है, यह भी सरकार की अपनी जांच से ही सामने आ रहा है। अगर यह डगमगाना उपल्धि है तो सोनिया गांधी दोहरा सकती है कि हमारे पास मनमोहन सिंह हैं । लेकिन यह अगर खतरा है तो फिर सोनिया गांधी को 2004 की भूमिका में लौटाना होगा, जहां कांग्रेस एक सुर म कहे कि, हमारे पास मां है।
Thursday, May 10, 2012
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कैसे पटरी पर लौटेगी कांग्रेस |
पहले कांग्रेस देश का रास्ता बनाती थी, जिस पर लोग चलते थे । अब देश का रास्ता बाजार बनाते है जिस पर कांग्रेस चलती है। और लोग खुद को सियासी राजनीति में हाशिये पर खड़े पा रहे हैं। ऐसे वक्त में कामराज प्लान के जरीये क्या वाकई कांग्रेस में पुनर्जागरम की स्थिति आ सकती है। कामराज प्लान 1961 में चीन से मिली जबरदस्त हार के बाद नेहरु के औरे की कहानी खत्म होने के बाद तब आया जब चार उपचुनाव में से तीन में कांग्रेस को हार मिली और गैर कांग्रेसवाद का नारा बुंलद होने लगा। 1963 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहते हुये कामराज ने सरकार और संगठन में जिस तरह पार्टी संगठन को महत्ता दी उसके बाद लोहिया के गैर कांग्रेसवाद का नारा कांग्रेसियो को इस तरह अंदर से डराने लगा या कहे नेहरु के औरे के खत्म होने से सिहरन दौड़ी की केन्द्र और राज्यो में एक साथ तीन सौ कांग्रेसी मंत्रियों ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। नेहरु ने सिर्फ आधे दर्जन इस्तीफे लिये। और उसमें भी लालबहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम सरीखे नेता थे। जाहिर है नेहरु के दौर के अक्स में मनमोहन सिंह की सरकार को देखना भारी भूल होगी। क्योंकि सरकार और पार्टी संगठन पर एक साथ असर डालने वाले नेताओ में प्रणव मुख्रजी के आगे कोई नाम आता नहीं। यहां तक कि मनमोहन सिंह भी पद छोड पार्टी संगठन में चले जाये तो 24 अकबर रोड पर उनके लिये एक अलग से कमरा निकालना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि मनमोहन सिंह का औरा प्रधानमंत्री बनने के बाद बना भी और प्रधानमंत्री पद पर रहते हुये खत्म भी हो चला है।
लेकिन यहीं पर सवाल सोनिया गांधी के कांग्रेस का आता है। और यहीं से सवाल तब के कमराज और के एंटोनी को लेकर भी उभरता है और कांग्रेस के पटरी से उतरने की वजह भी सामने आती है। असल में आम लोगों से जुड़े जो राजनीतिक प्रयोग आज मनमोहन सिंह की सरकार कर रही है, वह प्रयोग कामराज ने साठ के दशक में तमिनाडु में कर दिये थे। 14 बरस तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा से लेकर मिड-डे मिल और गरीब बच्चो को उंची पढ़ाई के लिये वजीफा से लेकर गरीबी की रेखा से नीचे के परिवारो को मुफ्त अनाज बांटने का सिलसिला। और कांग्रेस को पटरी पर लाने की अपनी योजना के बाद कामराज तमिलनाडु की सियासत छोड़ कांग्रेस को ठीक करने दिल्ली आ गये। 1964 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने और लाल बहादुर शास्त्री के बाद बेहद सफलता से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने का रास्ता भी बनाया। अब के दौर में सोनिया गांधी ने यही काम मनमोहन सिंह को लेकर किया। वरिष्ठ और खांटी कांग्रेसियों की कतार के बावजूद मनमोहन सिंह को ना सिर्फ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया बल्कि प्रधानमंत्री पद को किसी कंपनी के सीईओ के तर्ज पर बनाने का प्रयास भी किया। कांग्रेस की असल हार यही से शुरु होती है। क्योंकि कामराज के रहते हुये इंदिरा गांधी ने 1967 में देश के विकास और कांग्रेस के चलने के लिये जो पटरी बनायी उसके किसी भी तत्व से उलट आज मनमोहन सरकार की नीतिया चल पड़ी हैं।
इंदिरा गांधी ने राष्ट्रहित की लकीर खींचते हुये जिन आर्थिक नीतियों को देश के सामने रखा उसके अक्स में अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को रखे तो पहला सवाल यही खड़ा हो सकता है कि कांग्रेस के साथ उसका पारंपरिक वोट बैंक पिछड़े, गरीब,आदिवासी, किसान, अल्पसंख्यक क्यों रहे। ऐसे में विधानसभा चुनावों से लेकर दिल्ली कॉरपोरेशन में हार के बाद कांग्रेस में अगर एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट यह कहते हुये सामने आती है कि उम्मीदवारो के गलत चयन और वोट बैंक को लुभाने के लिये आरक्षण से लेकर बटला एनकांउटर तक पर अंतर्विरोध पैदा करती लकीर सिर्फ वोट पाने के लये खिंची गई और इन सबके बीच महंगाई और भ्रष्ट्राचार ने कांग्रेस का बंटाधार कर दिया। तो सवाल सिर्फ कांग्रेस संगठन का नहीं है बल्कि सरकार की नीतियों का बुरा असर किस हद तक आमलोगो पर पड़ा है और कांग्रेस अगर इसके लिये सिर्फ पार्टी संगठन देख रही है तो इससे बुरी त्रासदी कुछ हो नहीं सकती। सोनिया गांधी को समझना होगा कि कामराज योजना के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक पहल भी शुरु की थी और 1967 के दस सूत्री कार्यक्म के साथ सरकार चलाना भी शुरु किया और कांग्रेस भी पैरो पर खड़ी होती गई। क्योंकि इंदिरा का रास्ता समाजिक ढांचे को बरकरार रखते हुये रास्ता आम लोगो के लिये सोचने वाला था। इंदिरा गांधी ने जो लकीर खींची उस दौर में खींची वह मनमोहन सरकार के दरवाजे पर कैसे खुले बाजार में बिक रही है। जरा नजारा देखें। जिस बैकिंग सेकटर को मनमोहन सिह खोल चुके है उस पर इंदिरा की राय थी कि बैकिंग संस्थान सामाजिक नियंत्रण में रहें। वह आर्थिक विकास में भी मदद दें और सामाजिक जरुरतों के लिये भी धन मुहैया करायें। जिस बीमा क्षेत्र को मनमोहन सरकार विदेशी निवेश से लेकर आम आदमी की जमा पूंजी को आवारा पूंजी बनाना चाहती है। उसको लेकर इंदिरा गांधी की सीधी राय थी कि बीमा कंपनियां तरह सार्वजनिक सेक्टर का हिस्सा हों। इसलिये बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीकरण किया गया। गरीब, आम आदमी और कारपोरेट को लेकर जो उडान मनमोहन सरकार भर रही है। इंदिरा गांधी ने उसे ना सिर्फ जमीन पर ऱखा बल्कि देश के बहुसंख्यक लोगों के लिये पहले जीने की जमीन जरुरी है और उसी अनुरुप नीतियां बन सकती हैं, इसके साफ संकेत अपनी नीतियों में दिखाये। जहां उपभोक्ताओ के लिये जरुरी वस्तुओं के आयात-निर्यात तय करने की जिम्मेदारी बाजार के हवाले ना कर राज्यों की एजेंसियों के हवाले की। पीडीएस को लेकर राष्ट्रीय नीति बनायी। एफसीआई और को-ओपरेटिव एंजेसिंयों के जरीये पीडीएस स्कीम चलाने की बात कही। उस दौर में अनाज रखने के गोदामों की जरुरतो को पूरा करने पर जोर दिया। अब जहां सबकुछ कारपोरेट और निजी कंपनियो के हवाले किया जा रहा है। वहीं इंदिरा गांधी ने उपभोक्ता को-ओपरेटिव के जरीये जरुरी बस्तुओं को शहर और ग्रामीण क्षेत्रों में बांटने का जिम्मदारी सौंपी। इंदिरा गांधी को इसका भी अहसास था कि आर्थिक ढांचे को लेकर अगर सामाजिक दवाब ना बनाया गया तो कारपोरेट और निजी कंपनियां अपने आप में सत्ता बन सकती हैं। इसलिये मोनोपोली के खिलाफ सरकारी पहल शुरु की। इतना ही नही जिस तरह मनमोहन सिंह के दौर में सबकुछ पैसे वालो के लिये खोल दिये गये हैं। इंदिरा गांधी ने 45 बरस पहले देश की नब्ज को पकड़ा और शहरी जमीन पर एक सीमीत अधिकार या खरीदने की बात कही। यानी कोई रियल एस्टेट यह ना सोच लें कि वह जितनी चाहे जमीन कब्जे में ले सकता है या फिर राज्य सत्ता किसी अपने प्रिय को ही एक सीमा से ज्यादा जमीन दे दें। यानी मोनोपोली किसी निजी व्यवसायी या कारपोरेट की ना हो इसका खास ध्यान रखते हुये भूमि सुधार कार्यक्रम का सवाल भी तब काग्रेस में यग कहते हुये उठा कि खेती की जमीन को बिलकुल ना छेड़ा जाये । जंगल बिलकुल ना काटे जायें। बंजर और अनुपयोगी जमीन के उपयोग की नीति बनायी जाये। इतना ही नहीं काग्रेस 45 बरस पहले सरकारी नीति के तहत कहती दिखी कि किसान-मजदूरों के लिये बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना जरुरी है । सिंचाई को खेती के इन्फ्रास्ट्रकचर के ढांचे में लाना है। पशुधन के लिये नीति बनानी है और खेत की उपज किसान ही बाजार तक पहुंचायें, इसके लिये सडक समेत हर तरह के इन्फ्रस्ट्रक्चर को विकसित करना जरुरी है। लेकिन आर्थिक सुदार की हवा में कैसे यह न्यूनतम जरुरते ही हवा हवाई हो गई यह किसी से छिपा नहीं है। अब तो आ म तो यह हो चला है कि मिड-डे मिल से लेकर पीडीएस की लूट और आम आदमी की न्यूनतम जिम्मेदारी तक से सरकार मुंह मोड़ रही है । लेकिन इंदिरा गांधी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी पर हर किसी के अधिकार का सवाल भी उठाया। बच्चो को हाई प्रोटिन भोजन मिले इसपर कोई समझौता करने से भी इंकार कर दिया।
जाहिर है नीतियों को लेकर जब इतना अंतर काग्रेस के भीतर आ चुका है तब यह सवाल उठने जायज होंगे कि आखिर कांग्रेस संगठन को वह कौन से नेता चाहिये जिससे कांग्रेस सुधर जाये। नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में काग्रेस संगठन को लेकर सारी मशक्कत सरकार पाने या चुनाव में जीतने को लेकर ही रही। पहली बार सत्ता या सरकार के होते हुये कांग्रेस को संगठन की सुध आ पड़ी है तो इसका एक मतलब तो साफ है सरकार की लकीर या तो कांग्रेस की धारा को छोड़ चुकी है या फिर कांग्रेस के लिये प्राथमिकता 2014 में सत्ता गंवाने के लिये अभी सरकार बचाना है या अभी सरकार को ठीक कर 2014 में सत्ता बरकरार रखना। यह सवाल खासतौर से उन आर्थिक नीतियों के तहत है जिसमें आर्थिक सुधार का पोसटर ब्याय क्षेत्र टेलिकाम में सरकार तय नहीं कर पाती की कॉरपोरेट के कंघे पर सवाल हुआ जाये या देश के राजस्व की कमाई की जाये। एक तरफ सुप्रीम कोर्ट के 122 लाइसेंस रद्द करने के खिलाफ सरकार कारपोरेट के साथ खड़ी भी होती है और ट्राई आक्शन की नयी दर पुरानी दरों की तुलना में दस गुना ज्यादा भी ऐलान करती है। यही हाल इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर खनन, कोयला, पावर, स्टील, और ग्रामीण विकास तक को लेक है । लेकिन याद कीजिये इन्ही कारपोरेट पर इंदिरा गांधी ने कैसे लगाम लगायी थी और यह माना था जब जनता ने कांग्रेस को चुन कर सत्ता दी है तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जनता का हित देखे। इसलिये इंदिरा ने कारपोरेट लाबी के अनुपयोगी खर्च और उपयोग दोनो पर रोक लगायी थी। राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को सामाजिक जरुरतो के लिहाज से काम करने की बात कही थी। पिछड़े क्षेत्रो में विकास के लिये राष्ट्रीय शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों से लेकर ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना था जो अपने आप में स्थानीय अर्थवय्वस्था विकसित कर सकें। इतना ही नही अब तो सरकारी नौ रत्नो को भी बेचा जा रहा है । जबकि इंदिरा गांधी सार्वजनिक क्षेत्रो को ज्यादा अधिकार देने के पक्ष में थी जिससे वह निजी क्षेत्रो को प्रतिस्पर्धा दे सके। और तो और जिन क्षेत्रो में को-ओपरेटिव काम कर रहे है उन क्षेत्रो में कॉरपोरेट ना घुसे इसकी भी व्यवस्था की थी। विदेशी पूंजी को देसी तकनीकी क्षेत्र में भी घुसने की इजाजत नहीं थी। जिससे खेल का मैदान सभी के लिये बराबर और सर्वानुकुल रहे। मुश्किल तो यह है राहुल गांधी के जरीये युवा वोट बैंक की तलाश तो कांग्रेस कर रही है लेकिन सरकार के पास देश के लेन्टेड युवाओं के लिये कोई योजना तक नहीं है। जबकि इंदिरा गांधी ने 1967 में भी कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में युवाओ के लिये राजोगार के रास्ते खोलने के साथ साथ युवाओं को राष्ट्रीय विकास से जोड़ने के लिये स्थायित्व मदद का बात भी कही और सरकार में आने के बाद नीतियों के तहत देसी टैलेंट का उपयोग भी किया । लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में टैलेंट का मतलब आवारा पूंजी की पीठ पर सवार होकर बाजार से ज्यादा से ज्यादा माल खरीदना है। तो यह सवाल अब उठेंगे ही कि आखिर कांग्रेस पटरी पर लौटेगी कैसे जब सरकार भी वही है और सरकार की नीतियो को लेकर सवाल भी वहीं करने लगी है।
Friday, May 4, 2012
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कलेक्टर की रिहाई के पीछे का अंधेरा |
पसीने से लथपथ। कांधे पर काले रंग का बैग। थके हारे। और पूछने पर एक ही जवाब- बहुत थका हुआ हूं, सबसे पहले घर जाना चाहता हूं, बात कल करुंगा। यह पहली तस्वीर और पहले शब्द हैं एलेक्स पाल मेनन की। सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन। दक्षिणी बस्तर के चीतलनार जंगलों के बीच न्यूज चैनलों के कैमरे से महज सवा किलोमीटर की दूरी पर जैसे ही माओवादियों ने एलेक्स मेनन को रिहा किया वैसे ही सुकमा में एलेक्स की पत्नी ने चाहे राहत की सांस ली और एलेक्स मेनन के पैतृक घर चेन्नई में चाहे आतिशबाजी शुरु हो गई लेकिन रायपुर में सीएम दफ्तर ने यही कहा कि अभी तक एलेक्स हमारे अधिकारियो तक नहीं पहुंचे हैं, और जब तक वह अधिकारियो तक नहीं पहुंचते तब तक रिहाई कैसे मान लें। तो बस्तर के जंगल में माओवादियों के सामानांतर सरकार की यह पहली तस्वीर है। या फिर सरकार का मतलब सिर्फ सुरक्षा घेरे में अधिकारियों की मौजूदगी होती है यह जंगल में एलेक्स को लेने पहुंचे अधिकारियों के 35 किलोमीटर मौजदूगी से समझने की दूसरी तस्वीर है। संयोग से ठीक दो बरस पहले 6 अप्रैल 2010 को जिस चीतलनार कैंप के 76 सीआरपीएफ जवानो को सेंध लगाकर माओवादियों ने मार दिया था। उसी चीतलनार कैंप से महज 55 किलोमीटर की दूरी पर कलेक्टर एलेक्स मेनन जंगल में बीते 13 दिनों तक रहे। लेकिन सुरक्षा बल उन तक नहीं पहुंच सके। जबकि दो बरस पहले गृह मंत्री चिदंबरम ने देश से वादा किया था कि चार बरस में माओवाद को खत्म कर देंगे और नक्सल पर नकेल कसने के साथ साथ विकास का रास्ता भी साथ साथ चलेगा। लेकिन इस जमीन का सच है क्या।
23 बरस पहले पहली बार नक्सली बस्तर के इस जंगल में पहुंचे। दण्डकारण्य का एलान 1991 में पहली बार बस्तर में किया गया। पहली बार नक्सल पर नकेल कसने के लिये 1992 में बस्तर में तैनात सुरक्षाकर्मियो के लिये 600 करोड़ का बजट बना। लेकिन आजादी के 65 बरस बाद भी बस्तर के इन्ही जंगलों में कोई शिक्षा संस्थान नहीं है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नहीं हैं। साफ पानी तो दूर पीने के किसी भी तरह के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। रोजगार तो दूर की गोटी है। तेदूं पत्ता और बांस कटाई भी ठेकेदारों और जंगल अधिकारियो की मिलीभगत के बाद सौदेबाजी के जरीये होती है। जहां 250 तेदू पत्ता की गड्डी की कीमत महज 55 पैसे है। और जंगल की लकड़ी या बांस काटने पर सरकारी चालान 50 रुपये का होता है। यह सब 2012 का सच है। जहां सुकमा के कलेक्टर के घर से लेकर चितलनारप के कैंप तक के 100 किलोमीटर के घेरे में सरकार सुरक्षा बलों पर हर साल 250 करोड़ रूपये खर्च दिखा रही है। 1200 सीआरपीएफ जवान और 400 पुलिसकर्मियों के अलावा 350 एसपीओ की तैनाती के बीच यहां के छोटे छोटे 32 गांव में कुल 9000 आदिवासी परिवार रहते हैं। इन आदिवासी परिवारों की हर दिन की आय 3 से 8 रुपये है। समूचे क्षेत्र में हर रविवार और गुरुवार को लगने वाले हाट में अनाज और सब्जी से लेकर बांस की लकडी की टोकरी और कच्चे मसले और महुआ का आदान प्रदान होता है। यानी बार्टर सिस्टम यहां चलता है। रुपया या पैसा नहीं चलता। जितना खर्चा रमन सिंह सरकार और जितना खर्च केन्द्र सरकार हर महीने नक्सल पर नकेल कसने की योजनाओं के तहत इन इलाकों में कर रहे है, उसका 5 फीसदी भी साल भर में 9 हजार अदिवासी परिवारों पर खर्चा नहीं होता। इसीलिये दिल्ली में गृहमंत्री चिदंबरम की रिपोर्ट और सुकमा के कलेक्टर की रिपोर्ट की जमीन पर आसमान से बड़ा अंतर देखा जा सकता है। एलेक्स मेनन की रिपोर्ट बताती है कि जीने की न्यूनतम जरुरतों की जिम्मेदारी भी अगर सरकार ले ले तो उन्हीं ग्रामीण आदिवासियों को लग सकता है कि उन्हें आजादी मिल गई जो आज भी सीआरपीएफ की भारी भरकम गाड़ियों के देखकर घरों में दुबक जाते हैं। सुकमा कलेक्टर के अपहरण से पहले उन्हीं की उस रिपोर्ट को रायपुर में नक्सल विरोधी कैंप में आई जी रैंक के अधिकारी के टेबल पर देखी जा सकती है, जहां एलेक्स ने लिखा है कि दक्षिणी बस्तर में ग्रामीण आदिवासियों के लिये हर गांव को ध्यान में रखकर 10 - 10 करोड़ की ऐसी योजना बनायी जाये, जिससे बच्चों और बड़े -बुजुर्गों की न्यूनतम जरुरत जो उनके मौलिक अधिकार में शामिल है, उसे मुहैया करा दें तो भी मुख्यधारा से सभी को जोडने का प्रयास हो सकता है। और मौलिक जरुरत की व्याख्या भी बच्चों को पढ़ाने के लिये जंगल स्कूल, भोजन की व्यवस्था, पीने के पानी का इन्फ्रास्ट्रक्चर और बुजुर्गो के इलाज के लिये प्रथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और जंगल में टूटी पेड़ों की टहनियों को जमा करने की इजाजत। साथ ही जगह जगह सामूहिक भोजन देने की व्यवस्था।
लेकिन रायपुर से दिल्ली तक इन जंगलों को लेकर तैयार रिपोर्ट बताती है कि जंगल-गांव का जिक्र कहीं है ही नहीं। सिर्फ माओवादी धारा को रोकने के लिये रेड कारिडोर में सेंध लगाने की समूचे आपरेशन का जिक्र ही है। और उसपर भी जंगल के भीतर आधुनिकतम हथियारों के आसरे कैसे पहुंचा जा सकता है और हथियार पहुंचाने के लिये जिन सड़को औऱ जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरुरत है, उसके बजट का पूरा खाका हर रिपोर्ट में दर्ज है। इतना ही नहीं बजट किस तरह किस मद में कितना खर्च होगा अगर सारी रिपोर्ट को मिला दिया जाये तो केन्द्र और राज्य मिलकर माओवाद को खत्म करने के लिये हर बरस ढाई हजार करोड़ चाहते हैं। असल में जमीनी समझ का यही अंतर मध्यस्थों के मार्फत कलेक्टर की रिहाई तो करवाता है और रिहाई के लिये जो सवाल मध्यस्थ उठाते हैं, उस पर यह कहते हुये अपनी सहमति भी दे देता है कि माओवाद का इलाज तो उनके लिये बंदूक ही है। लेकिन जो मुद्दे उठे उसमे सरकार मानती है कि नक्सल कहकर किसी भी आदिवासी को पुलिस-प्रशासन जेल में ठूस सकती है। और नक्सल विरोधी अभियान को सफल दिखाने के लिये इस सरल रास्ते का उपयोग बार बार सुरक्षाकर्मियों ने किया। जिस वजह से दो सौ से ज्यादा जंल में बंद आदिवासियों की रिहाई के लिये कानूनी पहल शुरु हो जायेगी। सुरक्षाबलों का जो भी ऑपरेशन दिल्ली और रायपुर के निर्देश पर जंगल में चल रहा है, उसे बंद इसलिये कर दें क्योकि ऑपरेशन की सफलता के नाम पर बीते तीन बरस में 90 से ज्यादा आदिवासियों को मारा गया है। सरकार ने मरनेवालो पर तो खामोशी बरती लेकिन यह आश्वासन जरुर दिया कि सुरक्षाबल बैरक में एक खास वक्त वक्त तक रहेंगे। जो सरकारी योजनाये पैसे की शक्ल में जंगल गांव तक नहीं पहुंच पा रही है उसका पैसा बीते दस बरस से खर्च कहां हो जाता है यह सरकार को बताना चाहिये। क्योंकि अगवा कलेक्टर इसी विषय को बार बार उठाते रहे। सरकार के अधिकारियों ने इस पर भी खामोशी बरती लेकिन योजनाओं के तहत आने वाले पैसे के खर्च ना होने पर वापस लौटाने की ईमानदारी बरतने पर अपनी सहमति जरुर दे दी। यानी जो दूरबीन दिल्ली या रायपुर से लगाकर बस्तर के जंगलों को देखा जा रहा है, उसमें तीन सवाल सीधे सामने खड़े हैं। उड़ीसा में विधायक अपहरण से लौटने के बाद विधायकी छोडने पर राजी हो जाता है। कलेक्टर थके हारे मानता है कि बीते 13 दिनो में उसने जंगल के बिगड़े हालात देखे वह बतौर कलेक्टर पद पर रहते हुये देख नहीं पा रहा था। तो माओवादियो के कंधे पर सवार होकर बंगाल में ममता सत्ता पाती हैं तो जवाब निकलता है कि सत्ता पाने के बाद ममता की तरह माओवादियो के निपटाने में लग जाया जाये। छूटने के बाद कलेक्टर की तरह सुधार का रास्ता पकड़ा जाये। या रिहाई के बाद विधायकी छोड कारपोरेट के खनन लूट से आदिवासी ग्रामीण के जीवन को बचाया जाये। असल में इन्हीं जवाब में सत्ता की तस्वीर भी है और बस्तर सरीखे माओवाद प्रभावित जंगलों का सच भी।
Thursday, May 3, 2012
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सौ बरस का सिनेमा और चंद हीरे |
सौ बरस के सिनेमा को कहीं से भी शुरु तो कर सकते हैं लेकिन यह खत्म नहीं हो सकता। क्योंकि सिनेमा का मतलब अब चाहे बाजार और मुनाफा हो लेकिन इसकी शुरुआत परिवार और समाज से होती है। जहां सिनेमायी पर्दें का हर चरित्र हर घर और समाज के भीतर का हिस्सा होता। इसलिये घर की चारदीवारी और समाजिक सरोकार इतर जैसे ही भारतीय सिनेमा धंधे की रफ्तार पकड़ता है तो सिनेमा के उस स्वर्ण दौर को जीने की इच्छा या कहें डूबने की चाहत बढ़ती जाती है। यह कुछ वैसा ही है से फिल्म मिर्जा गालिब एक शायर की आपबीती कम, उसकीशा यरी और दिलकश फसाने की दास्तान ज्यादा थी। सोहराब मोदी ने तब परदे पर इस शायर के वक्त की नाजुक मिजाजी और तासीर को यकीन में बदल दिया। लेकिन सिनेमा का मतलब संगीत और गीत भी है। इसलिये मिर्ज़ा गालिब की पांच गजलों को जब सुरैया की आवाज मिली तो सुनने वालो में से एक जवाहर लाल नेहरु ने एक महफिल में सुरैया से कहा, तुमने गालिब की रुह को जिन्दा कर दिया। असल में फिल्म मिर्जा गालिब में एक शाइस्ता किरदार था सुरैया का। और सुरैया की आंखों में कुछ ऐसा था कि जो भी देखता, उसमें कैद हो जाता। इसलिये जब सुरैया ने गाया, नुक्ता ची है गमे दिल, आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, ये ना थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता। तो यह हर सुनने वाले दिल को भेदती चली गई।
लेकिन हिन्दी सिनेमा का असल स्वर्ण दौर तो मुगल-ए-आजम है। जहा तंज संवाद सिर्फ दिलों को नहीं भेदते बल्कि इतिहास को आंखों के सामने इस खूबसूरती से ला देते है कि नाजुक पल भी हुनर खोजने को बैचेन हो जाते हैं। ...शाहंशाह बाप का भेष बदल कर आया है। शहंशाह रोया नहीं करते शोखू, ये एक बाप के आंसू हैं। कहां से पैदा गा अब ये खालिसपन। क्योंकि कहते हैं मुगल-ए-आजम बनाने वाले के आसिफ हर संवाद को दिल में कुछ इस तरह उतरते हुये देखना चाहते थे जिसे निगलना आसान ना और उगलना तो नामुमकिन हो। शायद इसीलिये अकबर और अनारकली का संवाद आज भी दर दिल अजीज है। ....अंधेरे बढ़ा दिये जायेंगे....। आरजुएं और बढ़ जायेंगी...। और बढ़ती हुई आरजुओं को कुचल दिया जायेगा....। और जिल्ले-इलाही का इंसाफ। गजब का नशा है इन संवादों में जो सियासी रंगत को भी सरलता के साथ नश्तर में पेश करती है। एक कनीज ने हिन्दुस्तान की मल्लिका बनने की आरजू की और इसके लिये मोह्ब्बत का बहाना ढूढ लिया। ऐस संवाद किसी नूर की चाहत में नहीं लिखे गये। बल्कि किरदारों को उनके आसन पर बैठाने की ईमानदारी की मेहनत है। इसलिये तो के आसिफ ने जब बड़े गुलाम अली को मुगल-ए-आजम से जोड़ने का सोचा तो नौशाद मना करने के बावजूद जयपुर जाकर कर बड़े गुलाम अली के सामने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा, जिसे नकारने के लिये बड़े गुलाम अली साहब ने भी 40 हजार की ग रख यह जता दिया कि उनकी कीमत लगाना किसी की हैसियत नहीं और सिनेमाई पर्दे पर वह अपना जादू बिखेरना चाहते नहीं। लेकिन के आसिफ तो इतिहास को सिल्वर स्क्रीन पर जीवंत करने का जुनुन पाल कर बड़े गुलाम अली के दरवाजे पर दस्तक देने पहुंचे थे। तो जवाब में कहा, खां साहब । मैं तो और ज्यादा सोच कर आया था। इस तरह एक बड़े गायक की बेमिसाल कला हमेशा के लिये सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गई और खां साहब की खुद्दरी को आंच भी नहीं आयी। असल में बड़े गुलाम अली खां ने दो मिनट की एक ठुमरी ..प्रेम जोगन बन के ... के लिये 25 हजार रुपये लिये थे। परदे पर लहराती वही ठुमरी मुगले-आजम का नायाब नगीना है। जिसने मौसीकी की क्लासिकी पैदा की। हम आप कह सकते हैं , ऐसे उस्ताद और ऐसी उपज अब कहां।
लेकिन सौ बरस के सिनेमा में एक मील का पत्थर फिल्म पाकीजा है, जो मीना कुमारी को तन्हाई और भटकाव से मुक्त करने का कमाल अमरोही साहब का सबसे खूबसूरत तोहफा है। कोई सोच भी सकता है कि जो मीना कुमारी साहब,बीबी और गुलाम में छोटी बहु के किरदार को निभाते हुये सिनेमाई संवाद को खुमारी में कह दें। वह मीना कुमारी की जिन्दगी का सच हो और कमाल अमरोही उसी सौगात को देने के लिये पाकीजा को सिनेमाइ पर्दे पर उकेरने का जादू पाल बैठें। छोटी बहु के किरदार को जीती मीना कुमारी कहती है, जब मैं मर जाउ तो मुझे खूब सजाना और मेरी मांग सिंदूर से भर देना। इसी में मेरा मोक्ष है । तो क्या पाकीजा मीना कुमारी का मोक्ष है। यकीनन सिनेमा अगर सांसों के साथ जीने लगे तो क्या हो सकता है यह पाकीजा में मीना कुमारी से कमाल अमरोही का काम करवाना। और हर पल मरते हुये पाकीजा के लिये जीने में मोक्ष को देखना शायद सिनेमाई इतिहास का अनमोल पन्ना है। साहिबजान के किरदार को जीती मीना कुमारी कब साहिबजान है और कब मीना कुमारी इस महीन लकीर को कमाल अमरोही ही समझ पाये। इसीलिये तन्हा जिन्दगी साहिबजान के जरीये जिन्दगी और मौत दोनों को एक साथ छूती है। यानी एक अनहोनी और बगावती बैचेनी का ऐसा नशा जिसे मुस्लिम सिनेमा के पहरेदारी में कभी कोई देख नहीं सकता लेकिन कमाल अमरोही घर की अस्मत को तवायफ के कोठे से उतारते भी है और हवेली के दलदल को जिन्दा भी ऱखना चाहते हैं। यह फंतासी नहीं जिन्दगी की वह खुरदुरी जमीनी है जो कमाल अमरोही और मीना कुमारी की जिन्दगी की हकीकत थी। और कमाल अमरोही जिन्दगी में ना सही लेकिन सिनामाई पर्दे पर साहिबजान के जरीये मीना कुमारी के साथ न्याय करना चाहते थे। तो उन गर्म सांसो में खून की डूबकी लगाने का माद्दा भी सिनेमाई इतिहास के पन्नों में दर्ज है। अगर उन सुहरे पन्नों को पलटेंगे तो आंखों के सामने साहिबजान के रुह में मीनाकुमारी की गुम हुई तस्वीरों की तलाश में पाकीजा सुपर-डुपर हिट होती चली गई। सोचिये कैसा मंजर रहा होगा। एक तरफ मीनाकुमारी की मौत। दुसरी तरफ सिनेमाघरो में टूटता लोगो का सैलाब। और सिनेमाई पर्दे पर उभरता गीत....चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो .....या फिर इन्हीं लोगों ने ले लीना दुप्पटा मेरा....यानी आधी हकीकत और पूरे फसाने की रुहानी फिल्म पाकीजा को दर्शकों ने तो देखा लेकिन मीना कुमारी को आखिरी सांस तक कमाल अमरोही ने पाकीजा के रशेज भी देखने नहीं दिये। लेकिन जरा सोचिये 1964 में बस शाईरी के नोट थामे मीना कुमारी ने कमाल अमरोही का घर छोड़ा....जिसमें दर्द बयां था, चांद तन्हा है आस्मां तन्हा, दिल मिला है कहां-कहां तन्हा , जिन्दगी क्या इसी को कहते है, जिस्म तन्हा है, जां तन्हा।
और उसी मीना कुमारी को पाकीजा में साहिबजान बनाकर कमाल अमरोही खुद सलीम[राजकुमार] बन बैठते है और कहते है,...आपके पांव देखे , बहुत खूबसूरत है । इन्हें जमीन पर मत रखियेगा....मैले हो जायेंगे। जहां मीना कुमारी की तन्हाई ठहरती है। सिल्वर स्क्रीन पर गुरुदत्त उसी तन्हाई को देवदास से भी कही आगे ले जाकर जमाने की चौखट पर इस कदर पटकते है कि जिन्दगी और फिल्म की दूरिया खत्म होती सी लगती है। जिसकी तह में सफलता का शिखर पाना नहीं बल्कि असफलता और अतृप्ती की कड़वी मगर दिव्य अनुभूतियां है। ...ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है...गुरुदत्त के नवयथार्थ का चरम है। समाज में महानता और तुच्छता का ढोंग एक साथ एक लकीर पर चलते हुये सबकुछ कैसे मटियामेट कर सकता है, इसे अपनी ही आंखों और चेहरे के खालीपन में अंधकार से बाहर झांकने की कुलबुलाहट गुरुदत्त सिल्वर स्क्रीन पर दिखा गये। आज भी हर कोई गुरुदत्त की मंशा को टटोलना चाहते हैं। कोई पिगमेलियन प्रेम से आगे नहीं जा पाता। तो कोई अवांगार्द शैली में भटकाव खोजता है। लेकिन कागज के फूल और प्यासा जिस तरह कैनवास पर बेरंग की आकृति उभारते हैं, वह रंगों पर भारी पड़ जाती है। और यह सवाल सौ बरस के सिनेमा के सामने बार बार खड़ा करती है, ....जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला....और इसे सुनकर आवाक शायर यह फिरका करने से नहीं कतराते....वाह भाई वाह...आपके यहा तो नौकर-चाकर भी शायरी करते है। लेकिन गुरुदत्त रुकते नहीं..वह कागज के फूल में जमाने का सच जमाने के सामने लाकर कहते है...देखी जमाने की यारी, बिछडे सभी बारी बारी....।
सिनेमाई दौर के एक कोहिनूर फिल्म आवारा है। राजकपूर का ऐसा मेटाफर, जो रुमानियत और हकीकत को फर्क को जानबूझकर झुठलाता है। बे-ख्याली और मसखरेपन में दिल के दर्द को छुपाकर बडबोले अमीर या गरीब गंवई की तंज पर सबको बहलाता है। लेकिन आवारा का राजू कुलीनता को आइना भी दिखाता है, और जमाने के फंसाने में जिन्दगी की प्रेम गाथा लिखने से भी नहीं हिचकता। इसलिये शक्तिशाली समाज का मूलमंत्र--अच्छा आदमी बनाया नहीं जा सकता, वह एक संस्कारवान समाज में ही बनता है, पैदा होता। इसे फिल्म में न्यायाधीश के जरिये फैसला देते हुये जब कह जाता है, शरीफो की औलाद हमेशा शरीफ, और चोर-डाकुओं की औलाद हमेशा चोर डाकू होती हैं तो अंधेरे में बैठे राजकपूर के सपनों को बिनते हर आंख में आक्रोश की झलक से ज्यादा आवारा राजू की बेबसी रेंगती है। जो व्यवस्था का सच है। लेकिन यह फिल्म सिर्फ
राजकपूर के अधूरे या कहे आवारा ख्वाब भर नहीं है बल्कि नर्गिसी जादू भी फिल्म में रेंगता है। इसलिये याद कीजिये राजकपूर के एक हाथ में वायलिन और दूसरे हाथ में नर्गिस। और फिर पाल वाली नौका में नर्गिस की तरफ बढ़ते राजकपूर को अपनी अठखेलियों से लुभाती नर्गिस का संवाद, आगे ना बढ़ो, किश्ती डूब जायगी.....लेकिन आगे बढ़ते राजकपूर.....और अब......इसे डूब जाने दो। यह प्यार की ऐसी तस्वीर है जो उत्तेजक है लेकिन अश्लील नहीं है। लेकिन यह राजकपूर ही है जो प्यार को पर्दे पर हर रंग में जीते हैं। आवारा, बरसात, आग, अंदाज को याद कीजिये तो पारदर्शी गाउन से आगे बात बढ़ी नहीं। लेकिन पद्मिनी, सिम्मी ग्रेवाल, जीनत अमान और मंदाकनी के साथ अधखुले दरवाजों को पूरी तरह खोल कर भी प्यार की तस्वीर को स्क्रीन पर जिलाये रखा । अब तो प्यार सैक्स में तब्दील हो चुका है। जहां यौन कमनीयता स्क्रीन पर रेंग कर प्यार को मिटा देती है। इसलिये आज की नायिका खूबसूरत होकर भी नखलिस्तान में खडी लगती है और राजकपूर इसी लिये शो मैन रहे क्योकि उन्होंने स्क्रीन पर प्यार को भी प्रयोगशाला में बदल दिया। असल में रोमांस राजकपूर की शिराओ में दौड़ता था। आवारा और श्री 420 राजकपूर की ख्याति के शिखर हैं। माओत्से तुंग तक को आवारा पंसद आई।
दरअसल, सौ बरस के सिनेमा का सफर हर दौर की दास्तान भी है और जीने का मिजाज भी। लेकिन अंधेरे में बैठकर चालीस फिट के पर्दे पर जिन्दगी से बड़ी तस्वीर देखने का एक मतलब अगर देवानंद की गाइड है तो दूसरी तस्वीर शोले है । गाइड जिन्दगी के तमाम गांठो को खोलने का प्रयास है तो शोले हिन्दी सिनेमा के रंगीन उजाड़ में एक ऐसा पुनराविष्कार है जहां बतकही है। मौन विलाप के एंकात क्षण हैं। क्रूरता से उपजी अमानवीयता की लकीर है। वहीं इसी सौ बरस के दौर में समाज से आगे सिनेमा कैसे निकलता है, यह फिल्म निकाह जतलाती है। औरत का वजूद, उसकी अस्मत मुसलिम समाज की ताकतवर पुरुषों के हाथ में महज एक खूबसूरत खिलौना है, जिसे तलाक के जरीये जब चाहे तोड़ा जा सकता है। फिल्म निकाह इसी बदगुमानी से टकराने की जुर्रत करती है। असल में यह एक ऐसे भयावह विडम्बना की होरतजदा तस्वीर है जिसे समाज, सत्ता दोनो छुना तक नहीं चाहते लेकिन फिल्म निकाह यह कहने से नहीं चुकती , ....दिल के अरमा आसूंओ में बह गये...।
लेकिन सिनेमा अब जिस रफतार को पकड धंधे में खो चुका है, वहां सौ बरस का इतिहास यह हिम्मत भी दिलाता है कि जब आधुनिकता को ओढ़ हर कोई संग चल पड़ा
है तो फिर सिनेमा ही इस रफ्तार से टकरायेगा। जो अंधेरे में रौशनी दिखायेगा।