जिस आर्थिक सुधार का ताना-बाना बीते दो दशकों से देश में बुना जा रहा है और अगर अब यह लगने लगा है कि बुना गया ताना-बाना जमीन से ऊपर था। यानी जमीन पर रहने वाले नागरिकों की जगह हवा में तैरते उपभोक्ताओं के लिये अर्थवयवस्था का खांचा बनाया गया तो कई सवाल एक साथ खड़े हो सकते हैं। मसलन क्या इन बीस बरसों में संसदीय राजनीति भी जमीन से उठकर हवा में गोते लगाने लगी। क्या लोकतंत्र का राग अलापती चुनावी प्रक्रिया भी लोगों के वोट से उपर उठ गई। क्या सरकार का टिकना या चलना जनता के ऊपर निर्भर नहीं रहा। क्या सत्ता का मतलब चुने हुये नुमाइन्दों से हटकर कुछ और हो गया। जाहिर है सभी सवाल राजनीतिक हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि असल में इस दौर में राजनीतिक शून्यता ही गहराती चली गई और इस वक्त देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां विकल्प का सवाल भी विकल्पहीन हो चला है क्योंकि हर राजनीतिक अराजकता के सामने राजनीतिक शून्यता कुछ इस तरह आ खड़ी हुई है, जहां राजनीतिक अराजकता की सत्ता भी बर्दाश्त है।
देश के 14 कैबिनेट मंत्री दागदार हैं। प्रधानमंत्री चाहे दागदार नही हैं लेकिन वह दागदार मंत्रियों को देश के लिये बेदाग नीतियों को बनाने की जिम्मेदारी सौपने के गुनाहगार तो हैं। क्योंकि दागदार कभी बेदाग नीतियां बना नहीं सकते और यह गृह, रक्षा, संचार, कोयला, खनन, जहाजरानी, सडक, उर्जा, वाणिज्य मंत्रालय से लेकर योजना आयोग तक की नीतियों से सामने आया है। जाहिर है यहां सवाल सीधे सरकार का है, जिसे जनता ने चुना है। लेकिन यहीं से राजनीतिक शून्यता का वह सिलसिला शुरु होता है जो बताता है कि आखिर जनता द्वारा चुनी गई सरकार लगातार खुद की सत्ता बनाये रखने के लिये लोकतंत्र की सत्ता को खारिज कर देश के भीतर सत्ता की एक ऐसी लकीर खिंचती जिसमें हर तबके के भीतर सत्ता का कठघरा बनता चला जा रहा है। और लोकतंत्र की नयी परिभाषा हर सत्ता अपने अपने तरीके से गढ़ती चली जा रही है और वही लोकतंत्र की सत्ता कहलाने लगी है। यह सत्ता भ्रष्ट को भी पनाह देती है और ईमानदार को तमगे से नवाजती भी है। रईसों के लिये नीतियों की सुविधा बनाती है तो गरीब को भी सियासी सुविधा में तौलती है। यह हर स्वायत्त संस्था के भीतर नौकरशाह को सरकार से जुड़ने का न्यौता देकर उसकी अपनी सत्ता बनाने का मौका भी देती है और स्वायत्ता बरकरार रखने वाले नौकरशाह को सत्ता की हनक दिखाती भी है। यह जनता को वोट की ताकत समझाती भी है और कॉरपोरेट को ताकतवर बनाकर खुद उसके सामने नतमस्तक भी हो जाती है। यानी सत्ता लोकतंत्र का ऐसा ताना बाना बुनती है, जिसमें हर कोई अपने अपने घेरे में सत्ता बनने की पहल को ही लोकतंत्र मान लें।
राजनीतिक विकल्प का संसदीय सवाल यही से शुरु होता है। और विपक्ष की राजनीतिक दिशा विकल्प का ताना बाना बुनती है। लेकिन यही से एक दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि सत्ता के सरोकर अगर जन-लोकतंत्र को नहीं देखते तो क्या विपक्ष की राजनीति जन-सरोकारो को देख कर अपनी सत्ता बनाती है। अगर विपक्ष की राजनीति के सरोकार जमीन से जुड़े हैं तो फिर सरकार कैसे जमीन से उपर हवा में गोते लगा कर अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है। जाहिर है यहा सरकार को नहीं विपक्ष को परखने की जरुरत है। और विपक्ष का राजनीतिक मिजाज केन्द्र से लेकर राज्यों तक में इस एहसास को जगाता है कि सत्ता बरकरार होने या रखने का मतलब राजनीतिक शून्यता से लबरेज होना है। केन्द्र में भाजपा का रास्ता संघ परिवार यह कहकर बनाने पर आमादा होता है कि वह तो समाज और देश को देखता है। सियासत या सत्ता तो भाजपा की राजनीति के तंत्र हैं। जाहिर है कांग्रेसी सत्ता के लिये यह वाक-ओवर की स्थिति है। क्योंकि राजनीति का ककहरा भाजपा को वह परिवार पढ़ाता है जो खुद को गैर-राजनीतिक मानता है। इसका दोहरा असर भी राजनीतिक तौर पर भाजपा या संघ के भीतर से कैसे निकलता है, नरेन्द्र मोदी या संजय जोशी के सियासी कदमताल से समझा जा सकता है। गुजरात में संघ की व्यूहरचना करते करते मोदी संघ के दायरे से बाहर भाजपा की नई राजनीति के मार्गदर्शक बनते नजर आते हैं। तो भाजपा की राजनीति के संगठनिक व्यूह को रचते संजय जोशी भाजपा के बाहर निकाल दिये जाते हैं। और उनका आसरा संघ हो जाता है। राजनीतिक शून्यता का यह खेल संयोग से हर प्रांत में उभरता है और सत्ता अपने लोकतंत्र का जाप सत्ता की भरपूर मलाई खा-खाकर करती जाती है। मसलन नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक टक्कर देते नीतिश कुमार का लोकतंत्र बिहार से आगे जाता नहीं। और बिहार में लोकतंत्र का मतलब नीतिश की सत्ता पर अंगुली ना उठा पाने की शून्यता है। अगर कानून व्यवस्था को छोड दें तो बिहार के हालात में कोई परिवर्तन आया हुआ दिखता नंहीं है लेकिन बिगड़े हालात के मर्म में जाने का मतलब है नीतिश पर हल्ला बोल कम और लालू यादव की सत्ता को जगाना ज्यादा होगा, जो कोई बिहारी चाहेगा नहीं। और राजनीतिक तौर पर विपक्ष की यही शून्यता नीतिश को टिकाये भी रखेगी और मनमाफिक तानाशाह बनने से रोकेगी भी नहीं। अगर बारीकी से परखे तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पंजाब सरीखे राज्यों में यही स्थिति है। उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी यादव परिवार की बहू को कोई राजनीतिक चुनौती इसलिये नहीं मिलती क्योंकि राजनीतिक गणित में समाजवादी की स्थिति शतरंज की बिसात पर इस वक्त घोड़े की ढाई चाल वाली है। और हर किसी को लगता है कि जो हालात देश के हैं, उसमें मुलायम की किसी भी चाल की जरुरत उन्हें कभी भी पड़ सकती है । लेकिन लोकतंत्र के तकाजे में जरा अतीत के पन्नों को टटोले तो इससे पहले यादव परिवार की बहु को उस कांग्रेसी उम्मीदवार ने मात दी थी, जिसकी पहचान राजनीतिक तौर पर नहीं थी और यूपी में कांग्रेस की साख नहीं थी। तब कांग्रेसी टिकट पर राज बब्र्बर इसलिये जीत गये क्योंकि तब डिंपल की जीत का मतलब सफेद पैंट-शर्ट पहने वसूली करने वालो का हुजुम होता। तो राज बब्र्बर की जीत के साथ वोटरों ने खुद को वसूली के आतंक से निजात दिलायी। लेकिन इस दौर में क्या सपा बदल गई। यकीनन नहीं। लेकिन सवाल है अब सपा के विरोध का मतलब है दुबारा उस मायावती की साख को जगाना जिसने राजनीतिक साख को भी नोटों की माला में बदला कर पहना और दलित संघर्ष के गीत गाये। तो बेटे के जरीये पिता मुलायम का समाजवाद लोकतंत्र के जैसे भी गीत गाये, वह बर्दाश्त करना ही होगा। यही सवाल पंजाब में अकालियो को लेकर खड़ा है। वहां कांग्रेसी कैप्टन का दरवाजा ही आम लोगों के लिये कभी नहीं खुलता तो खुले दरवाजे से बादल परिवार का भ्रष्टाचार ज्यादा बर्दाश्त है। छत्तीसगढ़ में जिसने भी कांग्रेसी जोगी की सत्ता के दौर को देखा-भोगा उसके लिये रमन सिंह की सत्ता की लुट कोई मायने नहीं रखती। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इसलिये बरदाश्त है क्योंकि उनकी सत्ता जाने का मतलब है कांग्रेस के सियासी शंनशाहो का कब्जा। दिग्गी राजा से लेकर सिंधिया परिवार तक को लगता है कि उनका तो राजपाट है मध्यप्रदेश। कमोवेश यही स्थति उड़ीसा की है। वहां कांग्रेस या भाजपा जिस खनन के रास्ते लाभ उठाते रहे और इन्फ्रास्ट्रक्चर चौपट रहा। ऐसे में नवीन पटनायक चाहे उड़ीसा में कोई नयी धारा अभी तक ना बना पाये हो लेकिन नवीन पटनायक के विरोध का मतलब उसी कांग्रेस-भाजपा को जगाना होगा जिससे आहत उडीसा रहा। यानी सत्ता ने ही इस दौर में अपनी परिभाषा ऐसी गढी जिसमें वही जनता हाशिये पर चली गई जिसके वोट को आसरे लोकतंत्र का गान देश में बीते साठ बरस से लगातार होता रहा। क्योंकि जो सत्ता में है उसका विकल्प कही ज्यादा बदतर है। तो सवाल संसदीय चुनावी राजनीति पर है और राजनीतिक तौर पर पहली बार लोकतंत्र ही कठघरे में है क्योंकि जिन माध्यमो के जरीये लोकतंत्र को देश ने कंघे पर उठाया उन माध्यमों ने ही लोकतंत्र को सत्ता की परछाई तले ला दिया और सत्ता ही लोकतंत्र का पर्याय बन गया। इसलिये अब यह सवाल उठेंगे ही जो राजनीतिक व्यवस्था चल रही है उसमें सत्ता परिवर्तन का मतलब सिर्फ चेहरों की अदला-बदली है। और हर चेहरे के पीछे सियासी चेहरा एक सा है तो फिर जब उसके दायरे में आम आदमी या वोटर कितना मायने रखेगा। ऐसे में जो नीतियां बन रही हैं, जो संस्थाये नीतियों को लागू करवा रही हैं, जो विरोध के स्वर हैं। जो पक्ष की बात कर रहे है। सभी एक ही है। यानी इस दायरे में राजनेता, नौकरशाही, कारपोरेट और स्वायत्त संस्थाये एक सरीखी हो चली हैं तो फिर बिगड़ी अर्थव्यवस्था या सरकार के कारपोरेटीकरण के सवाल का मतलब क्या हैं। और 2014 को लेकर जिस राजनीतिक संघर्ष की तैयारी में सभी राजनीतिक दल ताल ठोंक रहे हैं, वह ताल भी कही राजनीतिक तौर पर साझा रणनीति का हिस्सा तो नहीं है। जिससे देश के 72 करोड वोटरो को लगे कि उनकी भागेदारी के बगैर सत्ता बन नहीं सकती चाहे 2009 में महज साढ़े ग्यारह करोड़ वोटरों के आसरे कांग्रेस देश को लगातार बता रही है कि उसे जनता ने उसे चुना है और पांच बरस तक वह जो भी कर रही है वह जनता की नुमाइन्दगी करते हुये कर रही है। यह अलग बात है कि इस दौर में जनता सड़क से अपने नुमाइन्दों को ससंद को चेताने में लगी है और संसद कह रही है कि यह लोकतंत्र पर हमला है ।
Sunday, June 24, 2012
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राजनीतिक शून्यता का लोकतंत्र |
Thursday, June 21, 2012
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संघ की चौसर पर नीतीश का वार ही है मोदी का हथियार |
जनसंघ के दौर में आडवाणी की तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा कट्टर संघी थे। और वाजपेयी की इसी पहचान ने उन्हें दीनदयाल उपाध्याय के बाद जनसंघ का अध्यक्ष बनवाया। लेकिन वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के दौर में आडवाणी की पहचान कट्टर संघी के तौर पर हो गई। और वाजपेयी सेक्युलर पहचान के साथ पहचाने जाने लगे। अब नरेन्द्र मोदी के लिये दिल्ली का रास्ता संघ खोल रहा है तो आडवाणी सेक्युलर लगने लगे हैं। नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक हो चुके हैं। जबकि अयोध्या मामले में आडवाणी के खिलाफ अभी भी आपराधिक साजिश का मामला दर्ज है। और गुजरात को झुलसाने के बाद जिस नरेन्द्र मोदी को देश ने ही नहीं दुनिया ने सांप्रदायिक माना, उन्हीं को डेढ महीने पहले टाइम मैगजीन ने कवर पर छाप कर 2014 का नायक करार दिया।
यानी सवाल सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढने का नहीं है। सवाल है कि जब राष्ट्रपति के उम्मीदवार को लेकर चर्चा चल रही है तब प्रधानमंत्री के उम्मीदवार की परिभाषा नीतीश ने क्यों गढ़ी। और नीतीश की परिभाषा सुनते ही बीजेपी नेताओ से पहले सरसंघचालक मोहन भागवत ने नरेन्द्र मोदी की तरफदारी कर नीतीश को खारिज करने का बीड़ा क्यों उठा लिया। असल में आरएसएस की बिसात पर पहले दिल्ली के बीजेपी नेता फंसे और अब नीतीश कुमार फंसे। ध्यान दें तो मोदी का कद मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बढ़ाया और नीतीश कुमार ने विरोध के स्वर के जरिये उस पर ठप्पा लगा दिया। क्योंकि झटके में आडवाणी, सुषमा और जेटली सरीखे कद्दावर नेता हाशिये पर आ गये। लेकिन पहली बार देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों ने आरएसएस में भी आस जगायी है और क्षेत्रीय दलो में भी उम्मीद बढ़ायी है कि वह अपने तरीके से अपने कद को बढा सकते हैं।
इसी का असर है कि नीतीश कुमार को लगने लगा है कि वह बिहार से बाहर राष्ट्रीय राजनीति को एनडीए से बाहर होकर ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं। और संघ को लगने लगा है कि नरेन्द्र मोदी गुजरात से बाहर निकल कर राजनीतिक तिकड़म वाले वोट बैक को राष्ट्रवाद तले दबा भी सकते हैं और राजनीतिक धारा को मोड़ भी सकते हैं । मजा यह है कि मोहनभागवत जिस थ्योरी पर बहस चाहते थे उसे नीतीश कुमार ने हवा दे दी। क्योंकि हिदुत्व को लेकर संघ की परिभाषा में मुस्लिम और ईसाई को भी जगह देने की बात हेडगेवार ने 1925 में ही उठाई। और हिन्दुत्व की परिभाषा गढ़ने की जरुरत हेडगेवार को इसलिये पड़ी क्योंकि 1923 में वीर सावरकर ने हिन्दुत्व की परिभाषा में दूसरे किसी धर्म को जगह नहीं दी थी। हेडगेवार खुद कांग्रेस से निकले थे। और एक वक्त ऐसा भी था कि कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुये 1918 में मदनमोहन मालवीय हिन्दु सभा की अगुवाई भी कर रहे थे और तब सेक्यूलर या साप्रदायिकता को लेकर कोई सवाल हिन्दुत्व के मद्देनजर नहीं उठा। लेकिन अयोध्या आंदोलन के दौर में संघ के भीतर सावरकर के हिन्दुत्व का समर्थन जागा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। विहिप ने हिन्दुत्व को लेकर सावरकर की थ्योरी पकड़ी तो संघ के भीतर भी हिन्दुत्व का उग्र चेहरा अयोध्या से लेकर आतंकवाद के मद्देनजर उभरा। इसीलिये अयोध्या आंदोलन की आग शांत होते होते जब गुजरात में गोधराकांड हुआ तो संघ के भीतर का सावरकर हिस्सा तेजी से सक्रिय हुआ। माना यही जाता है कि एक तरफ अटल बिहारी वाजपेयी राजधर्म का सवाल उठाकर नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा कर रहे थे तो दूसरी तरफ संघ का भीतर का सावरकर धड़ा तत्कालिक सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन को बदला लेने के मोदी पाठ की वकालत कर रहा था। और इसी अंतर्विरोध में मोदी को हटाने पर बनी सहमति भी एक महीने में पलट गई। लेकिन अब सवाल आगे का है। संघ पूरी ताकत से नरेन्द्र मोदी के पीछे खड़ा होने को तैयार है । और दिल्ली में बैठे बीजेपी के कद्दावर नेता पूरी ताकत से नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिये तैयार हैं। यानी नरेन्द्र मोदी को लेकर जो लड़ाई अपनी सियासी बिसात के लिये नीतीश कुमार लड़ रहे हैं, असल में उससे कहीं ज्यादा बड़ी लडाई संघ और बीजेपी के नेताओ के बीच शुरु हो चुकी है। नीतीश कुमार की पहल बीजेपी के नेताओ के लिये आक्सीजन है। लेकिन सवाल है कि जब खुद आरएसएस बीजेपी ही नहीं बल्कि देश की राजनीति को अपने तरीके से परिभाषित करने पर उतारु है तो उसमें एनडीए के टूटने की धमकी दिल्ली के बीजेपी नेताओ को तो डरा सकती है। लेकिन संघ के लिये तो लड़ाई से पहले यह टूट भी राजनीतिक हथियार ही बन रही है। और नरेन्द्र मोदी गुजरात में खामोश रहकर भी दिल्ली की समूची राजनीति के केन्द्र में आ खड़े हुये हैं।
Monday, June 18, 2012
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राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति ने सोनिया को पढ़ाया राजनीति का नया पाठ |
तो क्या सोनिया गांधी बदल गई हैं? प्रणव मुखर्जी को राषट्रपति पद के उम्मीदवार बनाये जाने का जिस तरह खुद सोनिया ने यूपीए की बैठक में चार लाइनें पढ़कर ऐलान किया, उसके बाद से दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में चर्चा यही है कि क्या गांधी परिवार बदल गया है। या सोनिया गांधी बदल गई है। चर्चा की वजह एक ही है। जिस सोनिया गांधी ने राजनीति का ककहरा इंदिरा गांधी के काम करने के तरीके को खुद राजनीति में आने से पहले इंदिरा गांधी की वीडियो क्लिप के जरीये पढ़ा, उस पाठ को सोनिया भूल कैसे गई। क्योंकि इंदिरा गांधी ने कभी खुद से बढ़ा कद राजनीति का भी नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी ने तो रायबरेली की हार के बाद रायबरेली के वोटरों को भी नहीं बख्शा। दोबारा रायबरेली और मेढ़क से जब एक साथ चुनाव जीती तो इंदिरा ने रायबरेली को छोड़ मेढक की सीट बरकरार रखी। और उसके बाद रायबरेली में कभी कोई परियोजना नहीं गई। जबकि उससे पहले हर उद्योगपति लाइसेंस लेने के लिये दस्तावेज में रायबरेली में भी एक यूनिट लगाने का जिक्र करता था। यह अलग मसला है कि लाइसेंस मिलने के बाद चाहे चाहे सिर्फ एक टिन-टप्पर ही रायबरेली में नजर आये। तो जब वोटरों को सीख देने तक की राजनीति इंदिरा ने की तो जिन नेताओं ने इंदिरा को जरा भी झटका दिया उस कड़ी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ललित नारायण मिश्र को याद किया जा सकता है। लेकिन सोनिया गांधी को लेकर सवाल सिर्फ णव मुखर्जी का नहीं है। सवाल मुलायम सिंह यादव का भी है और ममता बनर्जी का भी है।
प्रणव मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाली थी । मुलायम सिंह यादव ने अप्रैल 1999 में सोनिया गांधी के सत्ता की तरफ बढते कदम को समर्थन न देकर रोका था। और ममता बनर्जी ने खुले तौर पर रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को बिना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भरोसे में लिये हटाने का एकतरफा फैसला कर मनमोहन सिंह को आइना दिखाने का काम किया था। जाहिर है 10 जनपथ को जानने वाले यह मानते है कि वहां से कभी विरोध करने वालो को माफी नहीं मिलती। तो क्या सोनिया गांधी ने सभी को माफ कर दिया या फिर राजनीति की बिसात समझने या बिछाने में चूक हुई। असल में चूक तो हुई है और इसे साधने के लिये ही पहली बार 10 जनपथ में इंदिरा गांधी के रणनीतिकार आर के धवन और माखनलाल फोतेदार को एक साथ बुलाया गया और उसी के कांग्रेस की जान में जान आयी। किन सियासत की जिन चालों को राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार को लेकर साधा गया, उसमें सोनिया गांधी के सिपहसलार अहमद पटेल पहली बार चूके, यह भी सच है। अगर प्रणव मुखर्जी के नाम के ऐलान से पहले के पन्नों को उलटे तो 10 जनपथ की मुहर लगने से पहले ही प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बनने की इच्छा खुले तौर पर जताने लगे। प्रणव की इच्छा को विपक्ष ने भी हवा दी। बीजेपी नेता यशंवत सिन्हा और समाजवादी सांसद शैलेन्द्र कुमार ने लोकसभा में खुले तौर पर बजट भाषण के बाद ही प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति के लिये बधाई दे दी। 10 जनपथ ना तो इस सियासत को समझ पाया और ना ही विरोध की राजनीति में सहमति का घोल, घोल पाया । विरोध के तेवर सहमति ना बनाने के जरीये उभारा गया। और मुलायम सिंह यादव ने 10 जनपथ के इसी राजनीतिक मिजाज को पकड़ा। इसलिये जब ममता बनर्जी और मुलायम ह मिले तो 10 जनपथ इस चाल से भी अनजान रहा कि मुलायम की बिसात पर प्रणव मुखर्जी ना सिर्फ उनके साथ है बल्कि प्रणव मुखर्जी ने ही मुलायम को यह संकेत दिये की आने वाले वक्त में अगर राजनीति तीसरे मोर्चे की तरफ झुकती है तो फिर उनका राष्ट्रपति बनना मुलायम को दो-तऱफा फायदा पहुंचा सकता है। पहला तो 2014 के आम चुनाव के बाद अगर बहुमत किसी दल या गठबंधन को नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति का निर्णय खासा अहम होगा। और दूसरा नेताओं की फेरहिस्त में मुलायम कितने भी स्वीकृत नेता हो लेकिन प्रणव मुखर्जी से ज्यादा स्वीकृति उनकी हो नहीं सकती। यानी भविष्य के लिये प्रणव को राष्ट्रपति बनाने में मुलायम को लाभालाभ है।
इसी समीकरण में प्रणव मुखर्जी इस हकीकत को समझते थे कि उनके नाम का विरोध 10 जनपथ को सहमति की दिशा में ले जायेगा और मुलायम यह जानते समझे रहे कि अगर राजनीतिक हमला मनमोहन सिंह पर होगा तो 10 जनपथ हर हाल में प्रणव मुखर्जी को दी ढाल बनायेगा। हुआ यही। क्योंकि जो बात अब समाजवादी पार्टी से निकल रही है, उसमें मुलायम के बेटे और यूपी के सीएम अखिलेश यादव से लेकर मुलायम के भाई और सपा के रणनीतिकार रामगोपाल यादव तक पहले दिन से लगातार कहते रहे कि राष्ट्रपति तो प्रणव मुखर्जी ही होंगे। और ममता के विरोध को मुलायम सिंह यादव ने यह कहकर शह दी कि अगर राष्ट्रपति के नाम की फेरहिस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम डाल दिया जाये तो सोनिया गांधी को पहले अपने बनाये पीएम को बचाना होगा। यानी एक तरफ प्रणव मुखर्जी की मुलायम के जरीये ममता को अपने खुले विरोध के लिये फांसना। दूसरी तरफ मुलायम का मनमोहन के जरीये प्रणव मुखर्जी पर ही सोनिया गांधी की राजनीति केन्द्रित करना। असल में इस राजनीति बिसात को आखिर में आरके धवन ने तब समझाया जब सबकुछ हाथ से निकल चुका था। और धवन के साथ फोतेदार को लाकर जब 10 जनपथ ने आगे की रणनीति का सवाल उठाया तो पहला और आखिरी सवाल प्रधानमंत्री की मजबूती के साथ साथ कांग्रेस की मजबूती का उठा। लेकिन इन सबके बीचे 10 जनपथ की साख को सबसे उपर रखने का फैसला लिया गया। इसीलिये प्रधानमंत्री का नाम राषट्रपति पद के लिये सामने आने के 24 घंटे बाद ही 10 जनपथ की सिपहसलार और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवदी सामने आये और मनमोहन सिंह को 2014 तक की सत्ता सौपने की बात कह गये। जबकि राष्ट्रपति के उम्मीदवार की सियासत से पहले के दौर को याद कीजिये तो महंगाई, भ्रष्टाचार,कालेधन और यूपी विधानसभा चुनाव में काग्रेस की करारी हार के बाद यह मथा जाने लगा था कि मनमोहन सिंह के आसरे 2014 तक मौजूदा परिस्थितियों को बदलना जरुरी है।
आर के धवन से जो राजनीतिक ज्ञान 10 जनपथ को मिला उसका मजमून यही निकला की राजनीतिक बिसात हमेशा 10 जनपथ को अपनी ही बिछानी होगी। इसीलिये यूपीए के तमाम फैसलो को खारिज करने वाली ममता बनर्जी को लेकर फैसला यही लिया गया कि उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जायेगा। मुलायम की इन्ट्री यूपीए के भीतर नहीं होगी। मायावती की सियासत को कुछ और शह दी जायेगी। लेकिन इस राजनीतिक कवायद ने पहली बार 10 जनपथ को भविष्य की राजनीति के लिये नये मापदंड तय करने के मोड पर ला खड़ा किया । जिसमें यह माना गया कि यूपी की बिगडती कानून व्यवस्था के मद्देजनर अखिलेश पर निशाना साध कर मुलायम पर लगाम लगायी जायेगी। आर्थिक तौर पर लिये जाने वाले राजनीतिक फैसलों में सहयोगियों को जोड़ा जायेगा,जिससे सिर्फ प्रधानमंत्री का ही हर फैसला ना लगे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बदलाव जो आर के धवन और माखनलाल फोतेदार ने सुझाये उसके मुताबिक 10 जनपथ को अब पर्देदारी की राजनीति छोड़नी होगी। यानी जिस तरह 10 जनपथ ने यूपीए सहयोगियों के उम्मीदवार के तौर पर प्रणव मुखर्जी और हामिद अंसारी का नाम रख कर ममता बनर्जी को टटोलना चाहा उसकी जगह 10 जनपथ अब निर्णयात्मक तौर पर ही खुद को रखेगा। और यह राजनीतिक समझ आने वाले वक्त में मंत्रियों के पत्ते फेंटने से लेकर अगले वित्त मंत्री को बनाने में साफ झलकेगा। इतना ही नहीं कुछ राजनीतिक सुधार भी अब 10 जनपथ करना चाहते है। और उसकी पहली नजर आन्ध्र प्रदेश में बढ़ते जगन रेड्डी के कद पर है । यानी संकेत बहुत साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के खेल ने 10 जनपथ को जो पाठ पढ़ा दिया है, उसमें सोनिया गांधी अब कांग्रेस से लेकर सरकार को मथने के लिये तैयार है। जिसमें पहली बार इंदिरा गांधी के दौर के रणनीतिकार से लेकर खांटी कांग्रेसियों के दिन लौटेंगे या उनकी हैसियत बढ़ेगी। यही संकेत बताते है कि सोनिया गांधी बदल रही हैं।
Tuesday, June 12, 2012
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बीजेपी की बिसात पर संघ की चौसर |
संजय जोशी और नरेन्द्र मोदी के टकराव ने चाहे बीजेपी की उन जमी परतों को उघाड दिया, जो संघ के गैर राजनीतिक सियासत तले छुपी रहती थीं। लेकिन इस टकराव ने क झटके में सरसंघचालक मोहन भागवत के उस डी-4 [दिल्ली की चौकड़ी ] को पूरी तरह खारिज कर दिया, जिसे खारिज करने का सपना नीतिन गडकरी को अध्यक्ष नाने के साथ ही मोहन भागवत ने पाला था। अध्यक्ष बनने के बाद भी गडकरी डी-4 को खारिज नहीं कर पाये लेकिन खुद की गद्दी बचाने के लिये जिस तरह नीतिन डकरी मोदी के सामने नतमस्तक हुये, उसने संघ के भीतर बदलाव का सपना तो जगा ही दिया। इसलिये पहले दौर में अगर आडवाणी, जेटली, सुषमा, वैंकेया, अंनत कुमार, राजनाथ सरीखे कद्दावर नेता झटके में ना सिर्फ 2014 की रेस से बाहर हो गये बल्कि उनके सामने गुमनामी में रहने वाले संजय जोशी इस तरह उभरे, जिससे हर किसी को लगा कि नरेन्द्र मोदी का विरोध करने के लिये संजय जोशी को हथियार बनाना ही होगा। यानी बीजेपी से इस्तीफा देने वाले संघ के संजय जोशी, बीजेपी के नरेन्द्र मोदी से ज्यादा बेहतर नेता मोदी विरोधियों को नजर आने लगे।
सवाल है कहीं यह संघ की 2014 के लिये पहले से लिखी गई स्क्रिप्ट तो नहीं है। क्योंकि संघ राजनीति से दूर है, लेकिन बीजेपी के लिये राजनीतिक रास्ता नरेन्द्र मोदी के जरीये संघ बनाने में लगा है। बीजेपी राजनीतिक तौर पर सक्रिय है लेकिन उसे संघ के प्रचारक संजय जोशी के राजनीतिक तरीके भा रहे हैं। और इस खेल में 2014 की बिछती बिसात पर बीजेपी और संघ ही कुछ इस तरह आमने सामने आ खड़े हुये हैं ,जिसमें संघ के भीतर से लकर बीजेपी तक में हर कद्दवर नेता और वैचारिक मुद्दों का चाल, चरित्र, चेहरा बदल रहा है। संघ का मुखपत्र राजनीतिक लकीर खींचना चाहता है तो बीजेपी का कमल संदेश संघ के सामाजिक शुद्दिकरण के विचार फैलाना चाहता है। असल में यह मोदी और संजय जोशी को लेकर इतिहास का ऐसा दोहराव है जहां सरसंघचालक मोहन भागवत राजनीति की धार पर चलने को तैयार है और बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी अपनी खातिर नतमस्तक है। याद कीजिये दस बरस पहले जब नरेन्द्र मोदी गुजरात में हिन्दुत्व की प्रयोगशाला में राजघर्म स्वाहा कर रहे थे तब दिल्ली के संघ मुख्यालय में सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन गर्व से सीना तान कर मोदी की पीठ थपथपा रहे थे। और चौदह बरस पहले जब संजय जोशी संघ के प्रचारक के तौर पर हिन्दुत्व के नाम पर बीजेपी के संगठन को गुजरात में मजबूत कर रहे थे तब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी गर्व से सीना चौड़ा किये हुये थे। 1998 में बीजेपी को इसका एहसास हो चला था कि अगर संजय जोशी सरीखे प्रचारक जुट जायें तो बीजेपी के लिये सियासी रास्ता खुद ब खुद बन जायेगा। वहीं 2002 में आरएसएस को इसका एहसास हो चला था कि अगर नरेन्द्र मोदी सरीखे नेता के हाथ में बीजेपी की कमान आ जाये तो संघ के विस्तार का रास्ता खुद ब खुद बनता चला जायेगा। इसलिये वाजपेयी के राजधर्म के पाठ को संघ ने चंद दिनों बाद ही यह जानते समझते हुये खारिज कर दिया कि इससे प्रधानमंत्री वाजपेयी का कद घटेगा। बीजेपी की साख घटेगी। और बीजेपी की सियासी समझ पर मोदी का दाग गहरा हो जायेगा। और यह दाग बीजेपी की संसदीय राजनीति में आरएसएस के होने का एहसास करायेगा। लेकिन इसी दौर में आरएसएस ने गोविन्दाचार्य का कद छोटा कर स्वयंसेवक वाजपेयी को महत्ता भी दी थी। और संयोग देखिये एक दशक बाद गोविन्दाचार्य की तर्ज पर संजय जोशी को संघ ने ही दरकिनार किया। और मोदी को वाजपेयी की तर्ज पर स्थापित करने की सोच भी पाल ली। 2002 में वाजपेयी मुखर हुये थे तो लालकृष्ण आडवाणी खामोश थे। और आडवाणी की मोदी को लेकर हर खामोशी ने उन्हे मोदी का गुरु बना दिया। लेकिन दस बरस बाद जब मोदी की हुकांर के सामने बीजेपी अध्यक्ष खामोश हो गये और संघ मोदी के पीछे खड़ा हो गया तो आडवाणी को दस बरस पहले के वाजपेयी के तर्ज पर मुखर होना पड़ा। तो क्या आरएसएस जानबूझकर मोदी को बीजेपी की राजनीति के केन्द्र में ले कर आयी। जिससे आडवाणी की अगुवाई करने की लीला टूटे। और जब शिष्य मोदी ही सामने खड़े होंगे तो आडवाणी कुछ नहीं बोलेंगे। और आडवाणी ने जानबूझकर संजय जोशी के पक्ष में हवा बनायी। हो जो भी लेकिन इस प्रकरण ने राजनीतिक तौर पर 2014 को लेकर संघ और बीजेपी के भीतर की सोच के अंतर को ना सिर्फ सतह पर ला दिया बल्कि रणनीति के फर्क को भी साफ कर दिया।
दिल्ली में बीजेपी के कद्दावर नेता 2014 के लिये जिस राजनीति को देख रहे है उसमे उनके सामने तीन सवाल ही है। पहला, कई मोर्चे पर विफल होती मनमोहन सरकार की कमजोरी का लाभ उठाना। दूसरा, मंदी की तरफ बढ़ते देश के सामने अर्थव्यवस्था का नया खाका रखना। और तीसरा, वोट के गुणा-भाग से एनडीए के पक्ष में ढाई से तीन करोड ज्यादा वोट लेकर आना। क्योंकि 2009 में बीजेपी को साढे आठ करोड़ वोट मिले जबकि कांग्रेस को साढे ग्यारह करोड़। और कुल 29 करोड वोट ही पड़े। यानी बीजेपी की रणनीति के केन्द्र में फेल होती मौजूदा सरकार से लाभ उठाने के लिये वोट की ही जोड़-तोड़ है। क्योंकि 2014 के मंदी के घनघोर बादलों का सामना बीजेपी कैसे करेगी इसकी कोई वैकल्पिक सोच अभी तक तो बीजेपी ने जतलायी-दिखायी नहीं है। खासकर बाजार अर्थव्यवस्था से इतर उत्पादन के जरीये भी अर्थव्यवस्था काबू में रखी जा सकती है इसको लेकर कोई समझ अभी तक बीजेपी के जरीये सामने आयी नहीं है। यानी दिल्ली में बीजेपी के कद्दावर नेताओ के सामने 2009 वाला मंत्र ही 2014 तक मजबूत होकर काम करेगा। लेकिन सरसंघचालक मोहनभागवत की समझ को परखे तो तीन महिने पहले नागपुर में आरएसएस की कार्यकारिणी में जिस तरह
2014 के लिय राजनीतिक योजना बनाने की बात कही गई वह हेडगेवार, देवरस और रज्जू भईया के राजनीतिक प्रयोग की लकीर को ही आगे बढ़ाती नजर आती है। यानी संघ भी तीन स्तर रणनीति बना रहा है। लेकिन संघ की रणनीति बीजेपी से बिलकुल जुदा है। संघ राजनीति के केन्द्र में मनमोहन सरकार को नहीं
आरएसएस के राष्ट्रवाद को रखना चाहता है। मंहगाई और भ्रष्टाचार सरीखे मुद्दो के जरीये स्वदेशी की सोच को उभार कर बाजारवाद की थ्योरी को खारिज करना चाहता है। किसान और विकास में तालमेल बैठाते हुये एक वैसे चेहरे को सामने लाना चाहता है, जिसके जरीये बहुसंख्यक हिन्दू समाज और राष्ट्रवाद झलके। इस लकीर को खींचने में नरेन्द्र मोदी से ज्यादा बेहतर चेहरा संघ के पास कोई दूसरा इसलिये नहीं है क्योकि मोदी की उग्र हिन्दुत्व की छवि तोड कर राष्ट्रवादी मोदी की छवि बनाने में उसे सिर्फ हिन्दुत्व की एक नयी छवि ही गढ़नी है। बाकि काम तो मोदी का अपना काम ही करेगा। क्योंकि संघ को लगने लगा है कि मध्यम वर्ग से लेकर कारपोरेट तबका और हिन्दु समाज से लेकर मुनाफा बनाने में जुटा मुसलिम तबके को भी नरेन्द्र मोदी से कोई गिला शिकवा नहीं है। खास बात यह भी है कि सरसंघचालक का नजरिया बीजेपी के साथ खड़े राजनीतिक दलों को लेकर भी राजनीतिक तौर पर बेहद साफ है।
संघ का मानना है कि जातीय और क्षेत्रीय वोट बैंक के आसरे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित तो किया जा सकता है लेकिन उसकी अगुवाई नहीं की जा सकती है। ऐसे में अगर बीजेपी राष्ट्रीय राजनीति की अगुवाई राष्ट्रवाद के नाम पर करती है और जनमानस उसे मान्यता देता है तो क्षेत्रीय दलों को भी अपने वोट बैंक के कवच से बाहर आना होगा। खास बात यह भी है कि पहली बार सरसंघचालक की राजनीति में जाति या धर्म का वोट बैंक मायने नहीं रख रहा है। यानि जिस हिन्दुत्व के कंघे पर सवार होकर बीजेपी नब्बे के दशक में चमकी इस बार संघ खुद ही हिन्दुत्व के वोट बैंक को खारिज कर राष्ट्रवाद के आसरे राष्ट्रीय राजनीति की अगुवाई ही बीजेपी के जरीये चाहता है। और अगुवाई की कमान दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता इसलिये नहीं थाम सकते क्योंकि कांग्रेस के बाजारवाद या आर्थिक सुधार को लेकर कोई अलग सोच डी-4 में नहीं है। जबकि पहली बार राष्ट्रवाद की भावना के पीछे मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों का विरोध है। इसलिये रामदेव के कालेधन को लेकर आंदोलन हो या अणा हजारे का भ्रष्ट्राचार के खिलाफ आंदोलन, आरएसएस का मानना है कि दोनों ही आंदोलन मुद्दो से ज्यादा राष्ट्रवाद का संदेश दे रहे हैं। और राष्ट्रवाद की भावना से ही लोग देश भर में आंदोलन से जुड़ रहे हैं। जबकि इन्हीं मुद्दों पर बीजेपी के आंदोलन को उतनी सफलता इसलिये नहीं मिलती है क्योंकि संसद या सड़क पर विरोध करते हुये काग्रेस से इतर नजरिया बीजेपी का भी नहीं झलकता।
जाहिर है आरएसएस के लिये यहा बीजेपी का मतलब दिल्ली के नेता है और राष्ट्रवाद का मतलब नरेन्द्र मोदी को स्थापित करना। और ऐसे मोड़ पर अगर नरेन्द्र मोदी को लेकर बीजेपी चौसर बिछा लें और संजय जोशी को लेकर संघ शतरंज खेलने लगे तो एक संकेत तो साफ है कि 2014 जैसे जैसे नजदीक आयेगा वैसे वैसे मोदी का दायरा बढेगा और संजय जोशी का कद। क्योंकि राष्ट्रवाद का मुद्दा अगर राजनीतिक जमीन बना लें और संघ का राजनीतिक संगठन बीजेपी की सियसत को थाम लें तो संघ की स्क्रिप्ट बेहद साफ है कि कि मोदी और संजय जोशी एक वक्त के बाद एक साथ खड़े होकर उस बीजेपी को दरकिनार करेंगे जो ना तो संघ के स्वयंसेवकों की बची है और ना ही काग्रेस के लिये चुनौती है। और तो और ना ही सत्ता में लौटने का माद्दा रखती है। ऐसे में जनसंघ के बाद बीजेपी को बनते-उठते देखने वाले 2014 तक बीजेपी के उस ट्रासंफारमेशन को भी देखेंगे जहां संघ गैर राजनीतिक होकर भी राजनीति की बिसात बिछायेगा और महंगाई, कालेधन, विदेशी निवेश से लेकर पूंजी के कारपोरेटीकरण का मुद्दा राष्ट्रवाद से टकरायेगा। मुश्किल यह है कि नागपुर से आरएसएस को लगता है ऐसा ही होगा। लेकिन दिल्ली से बीजेपी को लगता है ऐसा हो नहीं सकता
क्योंकि राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल चुकी है। इसीलये अब सवाल सिर्फ नरेन्द्र मोदी है कि वह 2014 के लिये कौन सी परिभाषा गढ़ते हैं।