जिस शख्स की पहचान कतार में खड़े होने की जगह कतार को अपने पीछे खड़े करने की हो,वह शख्स मनमोहन सिंह के मंत्रियों की कतार में कैसे खड़ा हो सकता है। लेकिन उस शख्स का अपना रास्ता क्या होगा। जो शख्स एक वक्त राजनीति को खुली मंडी में तब्दील करना चाहता हो और पारंपरिक या खांटी राजनेताओं के चंगुल से कांग्रेस को मुक्त कराकर युवाओं के हाथ में कांग्रेस का हाथ मजबूत होते हुये देखना चाहता हो। उस शख्स का रास्ता अब क्या होगा?
जो शख्स किसानी राजनीति के जरीये काग्रेस की पहचान लौटाने में भरोसा करता रहा और नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के मिश्रित अर्थव्यवस्था को ही देश की अर्थव्यवस्था की नब्ज मानकर संगठन में भाषण देता रहा, उस शख्स का रास्ता अब किस तरफ जायेगा। यह ऐसे सवाल है जिसे राहुल गांधी ने उठाया और अब यही राहुल गांधी के सामने आ खड़े हुये हैं। और बड़ा सवाल यह हो चला है कि आखिरी राहुल गांधी का रास्ता होगा क्या। राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष बन सकते है। लेकिन यह सिर्फ एक पद है। और पद राहुल गांधी की मजबूरी नहीं है। राहुल गांधी कांग्रेस संगठन को मथने का समूचा दारोमदार उठा सकते हैं। राहुल गांधी हारे हुये राज्यों में कांग्रेस के अनुकुल समीकरण बनाने में व्यवस्त हो सकते हैं। लेकिन यह सिर्फ जिम्मेदारी का एक भाव है। और राहुल गांधी कांग्रेस के महासचिव होकर भी हर पद, हर जिम्मेदारी से ऊपर रहे है। तो सवाल है कि जो रास्ता राहुल गांधी को अपने लिये बताना-दिखाना है, उसकी जरुरत आज क्यों महसूस की जा रही है। क्या गांधी परिवार अनुपयोगी लगने लगा है। या फिर कांग्रेस की सरकार होकर भी कांग्रेस की नीतियों वाली सरकार लगती नहीं है। या मनमोहन सिंह ने आर्थिक जीवन की एक ऐसी बड़ी लकीर खींच दी है, जिसके सामने पहली बार सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सरोकार भी छोटे हो चले हैं। और संयोग से कांग्रेस की राजनीति नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में कभी आर्थिक मंत्र के आसरे नहीं चली। औघौगिकीकरण का सवाल नेहरु ने खेती को तरजीह देते हुये उठाया।
किसान परिवार ही नहीं वरन खेती से जुड़े मजदूर और समाज को भी नेहरु ने बराबर की महत्ता दी। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी कांग्रेस की राजनीति के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन शौली को महत्व देते रहे। पूंजी के आसरे राजनीति को ढालने का प्रयास कभी हुआ नहीं। तो चुनावी संघर्ष का हर मैदान कांग्रेसी राजनीति को समाजिक जीवन से जोड़े भी रहा और कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक के सवालो का समाधान भी राजनीति के रास्ते ही मांगा गया । यहां तक की मंडल कमीशन लागू होने के बाद भी कांग्रेस के सामने पिछड़े या अगड़ों या फिर अति पिछड़ों से लेकर अगड़ों में गरीब का सवाल भी सामाजिक सरोकार को लेकर ही उठा और उसके राजनीतिक रास्ते निकालने के लिये कांग्रेस के खांटी नेताओं ने भरसक माथापच्ची की। कांग्रेस के कई राष्ट्रीय अधिवेशन इसी सरोकार को टोटलने पर स्वाहा हुये। मगर राजनीतिक के केन्द्र में सामाजिक जुड़ाव बना रहा। और शायद यही पूंजी राहुल गांधी के पास है। इसीलिये वह विदर्भ के किसानों की मजबूरियों को समझने के लिये पी साईनाथ सरीखे पत्रकार को साथ ले जाने से नही हिचकते जो लगातार अपनी रिपोर्टों से मनमोहन सिंह के उस आर्थिक मंत्र की मुखालफत करता है, जो आर्थिक विकास किसानों को लगातार खुदकुशी करने को मजबूर करता है। राहुल गांधी महज पिकनिक के मूड मिलिबैंड के साथ दलित के घर रात का भोजन नहीं करते। राहुल गांधी कांग्रेसी युवाओं की ट्रेनिंग को वर्धा में गांधी आश्रम से जोड़कर सिर्फ परंपराओं को जिन्दा रखने की नही सोचते। बल्कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में लाचार होते सामाजिक सरोकारों को कांग्रेस के अनुकुल बनाने का संघर्ष करते हुये लगते है । या फिर बदलती सामाजिक परिस्थितियों में राजनीतिक सरोकार को बनाये रखने की कांग्रेसी लाचारी का प्रतीक बन कर उभरते है, जो मनमोहन सिंह के आर्थिक मंत्र में गुम होती जा रही है। जाहिर है यह परिस्थितियां बताती है मनमोहन सिंह का दौर कांग्रेस की राजनीति को ही टक्कर दे रहा है। यानी पहली बार कांग्रेस की राजनीति से इतर काग्रेस की सरकार की नीतियां एकदम नयी राजनीति बिसात बना चुकी है। जहां सामाजिक सरोकार बेमानी हैं। जहां सांस्कृतिक समझ घाटे का सौदा है। जहां कांग्रेस की पारंपरिक राजनीतिक चकाचौंध खोकर अंधेरे में जाने का प्रतीक है। ऐसे में अब सवाल साफ है कि क्या कांग्रेस मनमोहन सरकार के पीछे चलने को अभिशप्त हो चुकी है। क्या मनमोहन सिंह आर्थिक नीतियां ही काग्रेसी राजनीति का मंत्र बन चुकी है। क्या खुली बाजार अर्थव्यवस्था में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने का ठेका पाना ही कांग्रेसी राजनेताओं की जरुरत है। तो फिर राहुल गांधी का रास्ता जाता किधर है। क्या राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष बनकर मनमोहन सिंह के उस बाजार मिथ को तोड़ सकते है जो संयोग से चुनाव लड़ने और जीतने तक का बड़ा हथियार बन चुका है। क्या राहुल गांधी कांग्रेस को उस आर्थिक मंत्र से आगे ले जा कर भारतीय समाज को मथने के लिये तैयार कर सकते हैं, जो मनमोहन सिंह के आर्थिक बिसात पर प्यादा बनकर हांफ रहा है। क्या राहुल गांधी वाकई कांग्रेस को पहली बार उस सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ा पाने की तैयारी में है, जहां सत्ता खोकर कांग्रेस को दोबारा खड़ा किया जा सके। या फिर सत्ता पाने के लिये नये समीकरणों के आसरे ही कांग्रेस संगठन को मिश्रित राजनीतिक घोल बनाने की तैयारी में है। जहां मनमोहन सरकार में पांच युवाओं को स्वतंत्र प्रभार देना राहुल का पहला रास्ता मान लिया जाये।
दूसरी तरफ हरियाणा में जाट सीएम तो गैर जाट प्रदेश अध्यक्ष का प्रयोग हो। उडीसा में श्रीकांत जेना। झारखंड में सुबोधकांत सहाय के जरीये कांग्रेस को परखा जाये। इसी तरह उत्तराखंड,महाराष्ट्र और पंजाब में कांग्रेस की अगुवाई के लिये प्रदेश अध्यक्ष का नया चेहरा देकर नया जोश पैदा किया जाये। यह हो सकता है और राहुल गांधी इस दिशा में बढ़ सकते हैं। लेकिन राहुल गांधी का यह रास्ता भी मनमोहन सिंह के आर्थिक मंत्र के पीछे चलने वाला ही होगा। सरकार की नीतियां अगर सरोकार खत्म कर आर्थिक मुनाफे पर आ टिकी हैं तो राहुल गांधी के सहमति भरे समीकरण भी पहले मुनाफा देखेंगे, बाद में समाजिक जरुरतें । यानी राहुल बिग्रेड चाहे वो मंत्रिमंडल से बाहर निकल कांग्रेस संगठन को मथने के लिये तैयार हो या फिर वर्धा के गांधी आश्रम में गोबर लीप कर महात्मा गांधी के विचारों से ओत-प्रोत होकर राजनीति के मैदान में कूदे, दोनों ही स्तर पर समाज की जरुरतें राजनीतिक सत्ता पाने के हथकंडों के पीछे चलेंगी ही। और सत्ता मुनाफा पाने से हिचकिचायेगी नहीं। तो फिर सवाल उठेंगे ही कि राहुल गांधी का रास्ता उस हांफते और गुस्से से भरे भारत को कांग्रेस से जोड़ने वाला क्या नहीं बन सकता जो मनमोहन सिंह की बिसात पर अपाहिज होकर सत्ता के दो टूक निर्णयो तले कुचला जा रहा है। यह रोमानी भी हो सकता है और धोखा भी कहला सकता है कि मनमोहन सिंह के आर्थिक मंत्र के खिलाफ राहुल कांग्रेस को खड़ा कर दें क्योंकि राहुल की जरुरत कांग्रेस को भी तभी है जब यह मान लिया जाये कि मनमोहन सरकार की नीतियों तले कांग्रेस की साख को बट्टा लगा या फिर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होकर भी कांग्रेस की राजनीतिक धुरी नहीं बन सकते। लेकिन राहुल गांधी ऐसा मानेंगे और कांग्रेस को खड़ा करने के लिये सत्ता के बदले पहली बार समाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जरुरतो को मथेंगे, जिससे 2014 नहीं तो 2019 तक भी देश नागरिकों को सम्मान दे पायेगा। क्या राहुल गांधी अब मनमोहन सरकार को कांग्रेस के पीछे चलने की दिशा दिखा सकते हैं। क्या राहुल गांधी काग्रेस के आम आदमी के नारे से सरकार के खास लोगो की नीतियों को मुक्त कर सकते हैं। या फिर पहली बार गांधी परिवार की राजनीति हर सत्ताधारी में कांग्रेसी मनमोहन सिंह को देखेंगी और भविष्य के कांग्रेस की घुरी राहुल गांधी नहीं मुनाफा बनाना और पाना होगा। जिसमें आज काग्रेस के मनमोहन सिंह फिट है कल कोई दूसरा मनमोहन होगा। तो इंतजार कीजिये राहुल गांधी के नये रास्ते का।
Wednesday, October 31, 2012
[+/-] |
राहुल गांधी का रास्ता क्या होगा? |
Monday, October 22, 2012
[+/-] |
भाजपा की डोर थमाने से पहले मोदी को संघ का आखिरी पाठ |
आम चुनाव के लिये भाजपा किस रास्ते पर चलेगी और उसका खेवनहार कौन होगा, इस पर मुहर लगाने से पहले आखिरी मंथन राष्ट्रीय स्वयंसेवक ने शुरु कर दिया है। और इसी डोर को थामने और थमाने के लिये नागपुर के महाल स्थित संघ मुख्यलय में संघ के मुखिया के बुलावे पर ही नरेन्द्र मोदी रविवार को पहुंचे। यानी राजनीतिक तौर पर संघ के भीतर पहली बार इस हकीकत को लेकर बैचेनी है कि अगर उसने रास्ता नहीं बनाया तो बीजेपी राजनीतिक तौर पर उलझेगी और आरएसएस के दर्जनों संगठनों के सामने कोई साफ एजेंडा नहीं बचेगा। तो राजनीतिक कोहरा साफ करने की कवायद के तहत ही मोदी को नागपुर बुलाया गया। पहली बार सरसंघचालक मोहन भागवत, सहसरसंघचालक भैयाजी जोशी और भाजपा के साथ तालमेल बिठाने वाले सुरेश सोनी के सामने नरेन्द्र मोदी की पेशी कुछ इस तरह हुई, जिसमें राजतिलक से पहले सवालों की बौछार थी और जवाब कैसे दिया जाये इसे समझाने का प्यार था।
संघ के भीतर एक तबके से लेकर विहिप के रुठे नेताओं को साथ लेकर चलने के लिये मोदी को कितना किस तरह झुकना होगा, इसका पाठ भी पढ़ाया गया। और राजनीतिक तौर पर भाजपा की ही राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को धमकी देने से लेकर बिहार के भाजपा नेताओं को प्रचार के लिये गुजरात ना बुलाने का खुला ऐलान करने की राजनीति से बचने का रास्ता भी बताया गया। यानी मोदी भाजपा की अगुवाई के लिये आरएसएस की पहली पसंद हैं, इसके खुले संकेत नागपुर में यह कहकर दे दिये गये कि अगुवाई करने के लिये झुकना आना चाहिये।
दरअसल संघ ने एक तरफ नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी से पहले संघ के आइने में मोदी कैसे दिखने चाहिये अगर इसके नियम बताये तो दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी और नीतिन गडकरी की भूमिका को लेकर अपनी योजना का पूरा खाका सामने रखा। आडवाणी सीनियर मेंटर को तौर पर किस तरह भाजपा में राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहेंगे और नीतिन गडकरी किस तरह संघ के संगठनों के साथ भाजपा नेताओं की आपसी गुत्थम-गुत्थी को संभालेंगे। इस पर सरसंघचालक ने आरएसएस के भीतर भैयाजी जोशी और सुरेश सोनी से मंथन शुरु करवाने पर जोर दिया। लेकिन उससे पहले खुद ही लालकृष्ण आडवाणी को उनकी भूमिका के बारे में जानकारी भी दी और दी गई जानकारी को मोदी के सामने रखा भी गया। यानी मोदी के आने से पहले ही शनिवार को ही सरसंघचालक ने आडवाणी को उनकी भूमिका की जानकारी दे दी। लेकिन खास बात यह है कि जिन मुद्दों के आसरे संघ राजनीतिक संघर्ष के लिये भाजपा या नरेन्द्र मोदी को तैयार करना चाहता है, उसमें पहली बार हिन्दुत्व शब्द गायब है। इसके उलट गडकरी को साप्रंदायिक सौहार्द वाले मोर्चे को भी संभालना है। हप्ते भर पहले देवबंद में उनका भाषण शुरुआत है। संघ का जोर शहरी मिजाज से जुड़ने का भी है तो भ्रष्टाचार के खिलाफ और विकास के साथ का नारा कैसे बुलंद किया जा सकता है, इस पर संघ की रणनीति का राजनीतिक मजमून दशहरा के दिन सरसंघचालक नागपुर से विजयादशमी के अपने सालाना भाषण में देंगे।
यानी पहली बार विजयादशमी का भाषण भाजपा के लिये राजनीतिक मंत्र भी होगा और आम चुनाव की दिशा में जाते देश को किस लीक पर भाजपा ले जाये यह चिंतन-पाठ नरेन्द्र मोदी के लिये भी होगा। और उसके तत्काल बाद चेन्नई में संघ की महत्वपूर्ण बैठक है, जिसमें सामाजिक मुद्दों के आसरे संघ के आला संगठन के सर्वेसर्वा राजनीतिक लकीर भी खिचेंगे। और मोदी के नाम पर पहली मुहर चेन्नई बैठक में ही लगेगी जो 24 से 27 अक्तूबर तक चलेगी। मोदी पर मुहर लगने का मतलब है संघ इस बार भाजपा का राजनीतिक रास्ता दिल्ली के राजनीतिक चिंतन से इतर खिंचना चाहता है। यानी गठबंठन की मजबूरी या गठबंधन की सियासत के बदले भाजपा अकेले क्यों नहीं चल सकती है। यानी आम चुनाव में भाजपा अकेले नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में चलेगी, इस पर भी चेन्नई बैठक में मुहर लगेगी। यानी बिहार के सवाल पर जो उलझन भाजपा के दिल्ली के नेताओं के सामने नरेन्द्र मोदी को लेकर आ सकती है, उससे टकराने के लिये संघ खुद को आगे करने को तैयार है। यह भरोसा आरएसएस का मोदी को है। और मोदी को संघ का सुझाव यह है कि नीतिश कुमार को तो छोड़ा जा सकता है लेकिन नीतिश कुमार के भरोसे बिहार के भाजपा और संघ के स्वयसेवकों को तो नहीं छोड़ा जा सकता। यानी मोदी बिहार के स्वंयसेवकों के दर्द को भी समझे और बिहार के नेताओं को राजनीति का पाठ ना पढाने लगें। जिससे भाजपा नेताओं को मोदी से बेहतर नीतिश कुमार ही लगने लगे। करीब ढाई घंटे तक लगातार मोहन भागवत, भैयाजी जोशी, सुरेश सोनी और नरेन्द्र मोदी संघ के हेडक्वार्टर के जिस कमरे में चर्चा करते रहे, उस कमरे का महत्व संघ के कई निर्णयों से देश को प्रभावित करने वाला रहा है। खासकर जेपी के आंदोलन के साथ खड़े होने की पूरी व्यूहरचना भी संयोग से नानाजी देशमुख के साथ मिलकर तत्कालीन सरसंघचालक देवरस ने इसी कमरे में बनायी थी। उस वक्त पहली बार देवरस ने जेपी आंदोलन की रुपरेखा के जरीये ही भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष का विजयादशमी भाषण दिया था। संयोग से दो दिन बाद मोहन भागवत नरेन्द्र मोदी के आसरे कुछ ऐसे ही राजनीतिक भाषण की तैयारी कर रहे हैं।
Friday, October 19, 2012
[+/-] |
अब पत्रकार क्या करें |
आपको दस्तावेज चाहिये, हम तुरंत दे देगें। लेकिन हमारा नाम न आये इसलिये आप आरटीआई के तहत दस्तावेज मांगे। इसके लिये लिये तो नोटरी के पास जाना होगा। दस रुपये का पेपर लेना होगा। ना ना आप सिर्फ दस रुपये ही नत्थी कर दीजिये और दस्तावेज भी आपको हम हाथों हाथ दे देते हैं। आपको महीने भर इंतजार भी नहीं करायेंगें। आप खबर दिखायेंगे तो गरीबों का भला होगा। और सादे कागज पर आरटीआई की अर्जी के साथ दस रुपये नत्थी कर देने के बाद जैसे ही बाबू खबर से जुड़े दस्तावेज रिपोर्टर के हाथ में देता है वैसे ही कहता है, खबर दिखा जरुर दीजिएगा।। मंत्री महोदय से कोई समझौता ना कर लीजियेगा या डर ना जाइयेगा।
यह संवाद दिल्ली-यूपी के सरकारी दफ्तर के बाबू और पत्रकार के हैं। तो सत्ता को लेकर टूटते भरोसे में तमाशे में तब्दील होती पत्रकारिता में भी सरकारी दफ्तरों के बाबूओं में भी आस हैं कि अगर पत्रकार खड़ा हो गया तो गरीब और हाशिये पर पड़े लोगों को न्याय मिल सकता है या फिर भ्रष्ट मंत्री की भ्रष्ट तानाशाही पर रोक लग सकती है। और यह स्थिति दिल्ली से लेकर देश के किसी भी राज्य में है। जैसे ही किसी राजनेता या सत्ताधारी के खिलाफ दस्तावेज बंटोरने के लिये कोई रिपोर्टर सरकारी दफ्तरों में बाबुओं से टकराता है तो कमोवेश यही स्थिति हर जगह आती है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के जाकिर हुसैन ट्रस्ट की कारगुजारियों को लेकर भी कुछ इसी तरह रिपोर्टर को दस्तावेज मिलते चले गये। तो क्या यह मान लिया जाये कि मीडिया की साख अब भी बरकरार है। या फिर ढहते सस्थानों के बीच सिर्फ मीडिया को लेकर ही आम लोगों में आस है कि वहां से न्याय मिल सकता है।
जाहिर है पत्रकारिता की साख भी इसी पर टिकी है कि किसी भी रिपोर्ट को लेकर जनता किसी भी ताकतवर मंत्री को कठघरे में खड़ा देखे। लेकिन कोई मंत्री अगर कानून की धमकी देकर अदालत के कठघरे में पत्रकार की रिपोर्ट के सही-गलत होने की बात कहने लगे तब पत्रकार क्या करे। यह सवाल कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की अदालत में देख लेने की धमकी के बाद कमोवेश हर पत्रकार के सामने है। अगर तथ्यों के आसरे किसी पत्रकार की कोई खोजी रिपोर्ट किसी भी सत्ताधारी की राजनीतिक जमीन खिसकाती है और तथ्यों का जवाब देने के बदले अगर सत्ताधारी अदालत के कठघरे में ही जवाब देने की बात कहने लगे तो संकेत साफ है कि अब कानून की जटिलता के आसरे पत्रकारिता पर नकेल कसने की तैयारी शुरु हो चुकी है। यानी लोकतंत्र का वह मिजाज अब सत्ताधारियो को नहीं भाता, जहां संविधान चैक एंड बैंलेस के तहत मीडिया को सत्ता पर निगरानी का हक भी देता है और जनता के बीच मीडिया की विश्वसनीयता के जरीये लोकतंत्र को जिलाये रखना भी होता है। सलमान खुर्शीद ने दोनों परिस्थितियों को उलट दिया है। मीडिया की विश्वसनीयता को कानून की विश्वसनीयता तले दबाया है तो चुनी हुई सत्ता को सर्वोपरि करार देकर पांच बरस तक हर अपराध से बरी मान लिया है।
जाहिर है ऐसे में चार सवाल सीधे खड़े होते हैं। पहला कोई भी पत्रकार किसी भी सत्ताधारी के खिलाफ कैसे रिपोर्ट बनायेगा, जब धमकी अदालत की होगी। दूसरा कोई भी मीडिया हाउस अपने पत्रकारों को किसी भी मंत्री के खिलाफ तथ्यों को जुगाड़ने और दिखाने की जहमत क्यों उठायेगा, जब उसे यह अनकही धमकी मिलेगी कि अदालत के चक्कर उसे भी लगाने होंगे। तीसरा पत्रकारिता का स्तर खोजी रिपोर्ट के जरीये सिर्फ छोटे स्तर के भ्रष्टाचार को ही दिखा कर ताली पिटने वाला नहीं हो जायेगा। मसलन हवलदार या बीडीओ या जिला स्तर के बाबुओं या छोटी फर्जी चिट-फंड कंपनियों के गड़बड़झाले के खिलाफ रिपोर्टिंग हो नहीं पायेगी। और चौथा समूची पत्रकारिता सत्ता को बनाये या टिकाये रखने के लिये होगी और मीडिया हाउस की भूमिका भी सत्तानुकुल होकर सरकार से मान्यता पाने के अलावा कुछ होगी नहीं। यानी पत्रकारिता के नये नियम खोजी पत्रकारिता को सौदेबाजी में बदल देंगे। यह खतरे पत्रकारिता को कुंद करेंगे या फिर मौजूदा व्यवस्था में यही पत्रकारिता धारधार मानी जायेगी। यह दोनों सवाल इसलिये मौजूं है क्योंकि जिस तरह से लोकतंत्र के नाम पर आर्थिक सत्ता मजबूत हुई है और जिस तरह मुनाफा लोकतंत्र का नियामक बन रहा है, उसमें मीडिया हाउसो के लिये साख की पत्रकारिता से ज्यादा मुनाफे की पत्रकारिता ही मायने रख रही है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि मुनाफा साख के आधार पर नहीं बल्कि बाजार के नियमों के साथ साथ सरकार या सत्ता की मदद से ज्यादा तेजी से बनाया जा सकता है, यह बीते ढाई बरस में हर घोटाले के बाद सामने आया है। संयोग से इसी कड़ी में मीडिया को लेकर भी सरकार ने जो भी निर्णय लिये हैं, वह भी कहीं न कहीं पत्रकारिता को सफल धंधे की नींव पर ही खड़ा कर रहे हैं। न्यूज प्रिंट को खुले बाजार के हवाले करने से लकेर विदेशी पूंजी को मीडिया के लिये खोलने के सिलसिले को समझें तो एक ही लकीर सीधी दिखायी देती है कि कोई भी समाचार पत्र या न्यूज चैनल जितनी पूंजी लगायेगा, उससे ज्यादा कमाने के रास्ते उसी तलाशने होंगे। नहीं तो उसकी मौत निश्चित है। यानी आर्थिक सुधार या खुले बाजार ने मीडिया को उस आम आदमी या बहुसख्यक तबके से अलग कर दिया जिसके लिये बाजार नहीं है। तो क्या पत्रकारिता के नये नियम भी उपभोक्ताओ पर टिके हैं। यकीनन यही वह सवाल है जो चुनाव में जीतने के बाद मंत्री बने राजनेता या सरकार चलाने वाली राजनीतिक पार्टी के कामकाज के तौर तरीके से सामने आ रहा है। और मीडिया को भी उस सरोकार से दूर कर उसके लिये पत्रकारिता की जो जमीन राज्य के आर्थिक नियम बना रहे हैं, उसे ही लोकतंत्र का राष्ट्रीय राग मान लिया गया है। जाहिर है ऐसे में प्रेस काउंसिल से लेकर एडिटर्स गिल्ड या फिर राष्ट्रीय ब्राडकास्टिग एसोशियशन [एनबीए ] से लेकर ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोशियशन [बीईए] के तौर तरीकों को समझे तो यह भी उस वातावरण से दूर है जो आर्थिक सुधार के बाद सूचना तकनीक के बढते कैनवास के साथ साथ देश के सामाजिक, आर्थिक या सास्कृतिक पहलु हैं। यानी देश के अस्सी फीसद लोग जिस वातारण को जी रहे हैं, अगर उनके अनुकुल सरकार के पास सिवाय राजनीतिक पैकेज के अलावे कुछ नहीं है और उन्हीं के वोट से बनी सरकार की प्राथमिकता अगर पन्द्रह फीसद उपभोक्ताओं को लेकर है तो फिर असमानता की इस कहानी को बताना विकास में सेंध लगाना माना जाये या फिर देश को समान विकास की सोच की तरफ ले जाना।
अगर ध्यान दें तो असमानता का यही वातावरण मीडिया को भी बहुसंख्यक तबके से अलग कर ना सिर्फ खड़ा कर रहा है बल्कि उसे लोकतंत्र के पहुरुये के तौर पर सरकार ही मान्यता भी दे रही है। यानी आजादी के बाद पहले प्रेस आयोग से लेकर इमरजेन्सी के दौर में दूसरे प्रेस आयोग के जरीये मीडिया को लेकर जो बहस समूचे देश को ध्यान में रखकर हो रही थी वह आर्थिक सुधार के दौर में गायब है। बाजार व्यवस्था में तीसरे प्रेस आयोग की जरुरत समझी ही नहीं जा रही है। और मीडिया को भी उन्हीं सस्थानों से हांकने की तैयारी हो चली है जो सत्ता के साथ सहमति के बोल बोल कर मौजूदा दौर में मान्यता पा रहे हैं। जाहिर है नये खांचे में संविधान को देखने का नजरिया भी बदला है और लोकतंत्र के लिये चैक एंड बैलेस की सोच भी। अब ऐसा वातावरण तैयार किया गया है जिसमें कार्यपालिका के नजरिये से विधायिका भी चले और न्यायपालिका भी। और चौथा स्तम्भ भी इसी कार्यपालिका को टिकाये रखने को ही लोकतंत्र मान ले। चाहे इन सबके बीच समाज के भीतर सरकारी दफ्तर का बाबू यह कहकर कार्यपालिका के खिलाफ चौथे खम्भे को दस्तावेज दे दें कि अब तो न्याय होगा। और जनता की साख पर होने वाला न्याय का सवाल भी मंत्री की धमकी पर अदालत के कठघरे में चला जाये। और पत्रकार सोचता रहे कि अब वह क्या करे।
Monday, October 15, 2012
[+/-] |
मीडिया को सूली चढ़ाकर सत्ता की साख बचाने का फर्रुखाबादी खेल |
कांपती जुबान से जैसे ही रंगी मिस्त्री ने कहा, उन्हें दो बरस पहले कान में सुनने के लिये लगाने वाली मशीन मिल गई थी, वैसे ही देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद खुशी से ताली बजाने लगे। और झटके में मंत्रीजी के पीछे खडे दो दर्जन लोग भी हो-हो करते हुये तालियां बजाते हुये सलमान खुर्शीद जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे। यह दिल्ली की उस प्रेस कॉन्फ्रेन्स की तस्वीर है, जिसे डा. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट पर विकलांगों के लिये मिले भारत सरकार के बजट को हड़पने का आरोप लगने के बाद सफाई और सबूत देने के लिये खुद मंत्रीजी ने बुलवाया था। आरोप ने सलमान खुर्शीद की साख पर बट्टा लगाया तो प्रेस कान्फ्रेन्स में सलमान खुर्शीद ने अपने खिलाफ खबर बताने-दिखाने वाले चैनल और इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटर-इन-चीफ और प्रोपराइटर अरुण पुरी की साख पर भी यह कहकर सवाल उठा दिया कि रुपर्ट मर्डोक की तर्ज पर जांच होनी चाहिये। सबूत के तौर पर फर्रुखाबाद में अपने गांव पितौरा के कासगंज मोहल्ला के 57 बरस के रंगी मिस्त्री को मीडिया का सामने परोस कर खुद को आरोपो से बरी मान लिया।
तो क्या वाकई सत्ता अब अपनी आलोचना तो दूर अपने खिलाफ किसी भी खबर को देखना-सुनना नहीं चाहती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि पहली बार आरोपों का जवाब देने से पहले ही कानून मंत्री ने प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम-कायदे यह कहकर तय किये कि वह जो मूल सवाल सोचते है, जवाब उसी का देंगे। और सड़क से उठने वाले सवालों से लेकर मीडिया के उन सवालो का जवाब नहीं देंगे, जिसे वह देना नहीं चाहते हैं। यानी मीडिया जिस खबर को दिखा रहा है, उसके मूल में ट्रस्ट की साख पर फर्जीवाडे का जो बट्टा लगा है, उस फर्जीवाड़े का जवाब और जो सवाल केजरीवाल ने सीधे मंत्रीजी से पूछे उनके जवाब को मंत्रीजी ने पहले ही प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम से बाहर कर दिया। हालांकि प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मीडिया के सवालो पर नो कमेंट कहकर बात आगे बढ़ायी भी जा सकती थी।
लेकिन पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेन्स में आजतक के रिपोर्टर दीपक शर्मा के सवाल पर मंत्रीजी ने धमकी दी, नाउ विल सी यू आन कोर्ट [अब अदालत में तुम्हे देखेंगे]। अगर याद कीजिये तो इमरजेन्सी के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेस में जब इंडिया-टुडे के पत्रकार सुमित मित्रा ने इंदिरा गांधी से सवाल किया तो इंदिरा गांधी ने कहा था, मैं एंटी इंडिया पत्रिका के सवाल का जवाब क्यों दूं। इस पर उस दौर में इंडिया-टुडे के एडिटर अरुण पुरी ने बाकायदा कवर स्टोरी की थी, जिसमें देवकांत बरुआ की प्रसिद्द टिप्पणी का जिक्र करते हुये लिखा था इंडिया इज इंदिरा और जो इंदिरा के खिलाफ है वह एंटी इंडिया है। हालांकि इंडिया टुडे की इस कवर स्टोरी के बाद अरुण पुरी इंदिरा सरकार के निशाने पर जंरुर आये। लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी मंत्री ने इंडिया टुडे के रिपोर्टर को सवाल पूछने पर कहा कि आदालत में देख लूंगा। असल में सवाल सिर्फ सलमान खुर्शीद का नहीं है अगर साख के सवाल पर आयेंगे तो सवाल मीडिया से लेकर राजनीति और संस्थानों से लेकर आंदोलन तक पर है। ढह सभी रहे हैं। इंडिया टुडे भी किस स्तर तक बीते दिनों में गिरा, यह कोई अनकही कहानी नहीं है और आजतक ने भी खबरों के नाम पर कैसे तमाशे दिखाये, यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन इसी दौर में राजनेताओं और कैबिनेट मंत्रियों को लेकर कैसी कैसी किस्सागोई मीडिया से लेकर सड़क तक पर हो रही है, यह भी किसी से छुपाने की चीज नहीं है। न्यूयार्क टाइम्स ने तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर रिपोर्ट लिखते लिखते एसएमएस में चलते उस चुटकुले तक का जिक्र कर दिया, जिसमें दांत के डाक्टर के पास जाकर भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुंह नहीं खोलते हैं।
जाहिर है इसका मतलब साख अब सत्ता के सिरहाने की चीज हो चुकी है। यानी जो सत्ता में रहे साख उसी की है। राडिया टेप आने के बाद भी सत्ताधारियों की साख की साख पर कोई बट्टा नहीं लगा। और उसमें शरीक मीडिया कर्मी भी बीतते वक्त के साथ दुबारा ताकतवर हो गये और सत्ता के साथ खड़े होने का लाइसेंस पा कर कहीं ज्यादा साख वाले संपादक माने जाने लगे। फिर साख का मतलब क्या अब सिर्फ जनता के बीत जाकर चुनाव जीतना है। क्योंकि कानून मंत्री ने अपने इस्तीफे के सवाल पर उल्टा सवाल यह कहकर दागा कि मैं इस्तीफा देता हूं तो अऱुण पुरी भी इस्तीफा दें। वह भी जनता के बीच जायें। जनता ही तय करेगी कि कौन सही है। तो जिस पत्रकारिता का आधार ही जनता के बीच साख के आसरे खड़ा होता है उसी की परिभाषा भी अब नये तरीके से गढ़ी जा रही है। या फिर चुनाव में जीत के बाद सत्ता संभालते और भोगते हुये राजनेता यह मान चुका है कि साख उसी की है, जो अगले पांच साल तक रहेगी। यानी सारी लड़ाई और सारे संस्थानों की बुनियादी साख को ही राजनीति के पैमाने में या तो मापने की तैयारी हो रही है या फिर अपनी साख बचाने के लिये हर किसी को अपने पैमाने पर खड़ा करने की सत्ता ने ठानी है। हो जो भी लेकिन इस दौर में राजनीतिक की साख भी कैसे धूमिल हुई है यह हेमवंती नंदन बहुगुणा के पोते साकेत बहुहुणा के चुनावी प्रचार और चुनावी हार से भी समझा जा सकता है। साकेत बहुगुणा को जिताने के लिये उत्तारांचल के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपनी और कांग्रेस की सारी ताकत वैसे ही चुनाव में झोंकी जैसे 1982 में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हराने के लिये इंदिरा गांधी ने झोंकी थी। याद कीजिये तो मई 1981 से लेकर जून 1982 तक के दौरान इंदिरा गांधी हर हाल में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हरवाना चाहती थी। पहली बार जमकर वोटों की लूट हुई तो चुनाव आयोग ने वोट पड़ने के बाद भी चुनाव रद्द कर दिया। दूसरी बार इंदिरा ने तारीखों को टलवाया और जून 1982 में जब मतदान हुआ तो उस चुनाव में बहुगुणा के टखने की हड्डी टूट गई थी। तो देहरादून में बुढिया के होटल से जाना जाने वाले होटल के कमरे में बेठकर ही उन्होंने गढवाल के हर गांव में सिर्फ एक पोस्टकार्ड यह लिखकर भेजा था, टखना टूटने से चल नहीं पा रहा हूं। चुनाव प्रचार करने भी आपके पास नहीं आ पाउंगा। आपके लिये जो किया है उसे माप तौल कर आप देखलेंगे। आपका हेमवंती नंदन बहुगुणा। तो पोस्टकार्ड में वोट देने को भी सीधे तौर पर नहीं कहा गया था। फिर भी 18 जून 1982 को चुनाव परिणाम आया तो बहुगुणा ने कांग्रेस के उम्मीदवार चन्द्र मोहन नेगी को 29,024 वोटो से हरा दिया था। तो सत्ता की ठसक को बहुगुणा ने अपनी उसी साख से हराया जिसे एक दौर में इंदिरा गांधी ने खारिज किया था।
लेकिन अब के दौर में नया सवाल यह है कि साख को लेकर जिस परिभाषा को कानून मंत्री सलमान खुर्शीद गढ़ रहे हैं, उस पर खरे उतरने से ज्यादा संस्थानों को ढहाते हुये साख बरकरार रखने का आ गया है। जाहिर है अऱुण पुरी तो चुनाव लड़ने मैदान में उतरेंगे नहीं और सलमान खुर्शीद पत्रकारिता के मिजाज को जीयेंगे नहीं। तो शायद साख की राजनीतिक परिभाषा को विकल्प के तौर पर सड़क से अरविन्द केजरीवाल गढ़ सकते हैं। क्योंकि इस वक्त इंडिया टुडे की रिपोर्ट और कानून मंत्री के अदालती घमकी के बीच आंदोलन लिये सड़क पर केजरीवाल ही खड़े हैं। और अब दिल्ली के घरना स्थल से उनका रास्ता सलमान खुर्शीद के राजनीतिक शहर फर्रुखाबाद ही जाता है। जहां जाकर वह सलमान को राजनीतिक चुनौती दें। क्योंकि पहली बार जनता को तय करना है की चुनाव में जीत का मतलब ही साख पाना है तो फिर फर्रुखाबाद भी साख की कोई नयी परिभाषा तो गढ़ेगा ही। तो केजरीवाल के ऐलान का इंतजार करें।
Wednesday, October 10, 2012
[+/-] |
किसान का दर्द और राजनेताओं का मजा |
मिर्ची-धान छोड़ो, गन्ना उगाओ..ज्यादा पाओ। यह नारा और किसी का नहीं भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी का है। विदर्भ में भंडारा के उमरेड ताल्लुका मेंपूर्ति साखर कारखाना [शुगर फैक्ट्री] लगाने के बाद भाजपा अध्यक्ष का किसानों को खेती से मुनाफा बनाने का यह नया मंत्र है। यानी जो किसान अभी खुले बाजार में मिर्ची और धान बेचकर दो जून की रोटी का जुगाड किसी तरह कर पा रहे हैं, वह गन्ना उगाकर कैसे गडकरी के पूर्ति साखर कारखाने से मजे में दो जून की रोटी पा सकते हैं, इसका खुला प्रचार भंडारा में देखा जा सकता है। और अगर गन्ना ना उगाया तो कैसे किसानों के सामने फसल नष्ट होने का संकट मंडरा सकता है, इसकी चेतावनी भी शुगर फैक्ट्री के कर्मचारी यह कहकर दे रहे हैं कि डैम का सारा पानी तो शुगर फैक्ट्री में जायेगा तो खेती कौन कर पायेगा। फिर डैम का पानी उन्हीं खेतों में जायेगा, जहां गन्ना उपजाया जायेगा। और यह डैम वही गोसीखुर्द परियोजना है, जिसके ठेकेदारों का रुका हुआ पैसा रिलीज कराने के लिये भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने जल संसाधन मंत्री पवन बंसल को पत्र लिखा। यानी जिस गोसीखुर्द परियोजना को लेकर राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह दस्तावेजों में विदर्भ की एक लाख नब्बे हजार हेक्टेयर सूखी जमीन पर सिंचाई की सोच रहे हैं, उस डैम के पानी पर न सिर्फ शुगर फैक्ट्री बल्कि इथिनाल बनाने की फैक्ट्री से लेकर पावर प्रोजेक्ट तक का भार है। और यह तीनों ही भाजपा अध्यक्ष की नयी इंडस्ट्री हैं।
ऐसे में किन खेतों तक डैम का पानी पहुंचेगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल इसलिये भी होता जा रहा है क्योंकि विदर्भ में किसानों से ज्यादा पानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम यानी एमआईडीसी में जाता है और बीते तीन बरस में सिर्फ भंडारा की शुगर फैक्ट्री ही नहीं या पावर प्रोजेक्ट ही नहीं बल्कि विदर्भ में चार अन्य शुगर फैक्ट्री भी भाजपा अध्यक्ष ने ली हैं। जिसे कांग्रेस की सत्ता ने बेचा और भाजपा नेता ने खरीदा। मौदा में बापदेव साखर कारखाना। वर्धा के भू-गांव में साखर कारखाना। नागपुर से सटे सावनेर में राम नरेश गडकरी साखर कारखाना। खास बात यह है कि सभी कारखाने नदियों के किनारे हैं या फिर सिंचाई को लेकर विदर्भ में जो भी परियोजना बन रह हैं, उसके करीब हैं। जिससे पहले उघोगों में पानी जाये। असल सवाल यहीं से खड़ा होता है कि क्या वाकई विदर्भ में खुदकुशी करते किसानों की फिक्र भाजपा अध्यक्ष को है या फिर खुदकुशी करते किसानों के नाम पर परियोजना लगा कर उससे अपना मुनाफा बनाने की होड़ ही नेताओं में ज्यादा है। क्योंकि सिर्फ भाजपा अध्यक्ष ही नहीं बल्कि कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना के नेताओं के 50 से ज्यादा उघोग भी विदर्भ के 12 एमआईडीसी क्षेत्र में हैं। और सभी की जरुरत पानी है। विदर्भ के करीब एक दर्जन पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस भी राजनेताओ के ही पास है और चन्द्रपुर, गढ़चिरोली, वर्धा, भंडारा में देश के टॉपमोस्ट पहले दस उघोगपतियों की इंडस्ट्री चल रही है, जिन्हें पानी की कोई किल्लत नहीं होती है। जबकि किसान की जमीन पर पानी है ही नहीं। खासकर कपास उगाने वाले किसानों की हालत देखें तो परियोजनायें त्रासदी
दिखायी देंगी। क्योंकि 1987 में गोसीखुर्द परियोजना के भूमिपूजन के बाद से सिर्फ कपास के 16 हजार किसानों ने खुदकुशी कर ली।
कपास के लिये ज्यादा पानी चाहिये और 1988 के बाद से जिस तरह हर जिले में एमआईडीसी के लिये पानी जाने लगा उससे किसानो को मिलने वाले पानी में 60 से 80 फिसदी तक की कमी आती चली गई। वहीं विकास परियजनाओ के खेल में एक तरफ हर परियोजना से जुड़ी लाभ की जमीन पर ही उघोग लगने लगे तों दूसरी तरफ किसानों की जमीन के छिनने से लेकर उनके विस्थापन का दर्द खुले तौर पर विदर्भ में उभरा। 122 उघोगों और सिंचाई की छह छोटी बड़ी परियोजनाओं से विदर्भ के करीब एक लाख किसान परिवार विस्थापित हो गये। सिर्फ गोसीखुर्द परियोजना में 200 गांव के बीस हजार से ज्यादा परिवार विस्थापित हुये। ऐसा भी नहीं है कि आज कांग्रेस सत्ता में है तो किसानों की फिक्र कर रही है या फिर जब शिवसेना-बीजेपी की सरकार थी तो उसे किसानों की सुध थी। असल में सत्ता में जो भी जब भी रहा विदर्भ के किसानों की त्रासदी को राहत देने वाली योजनाओं के जरीये लूट का खेल ही खेला। लूट के खेल में किसानो की बलि कैसे चढ़ती चली गई यह महाराष्ट्र में वंसत राव नाईक की हरित क्रांति के नारे से जो शुरु हुई वह भाजपा के महादेवराव शिवणकर से होते हुये राष्ट्रवादी कांग्रेस के अजित पवार तक के दौर में रही। 1995 से 1999 तक शिवणकर विदर्भ में सिंचाई क्रांति की बात करते रहे। और 1999 में जब अजित पवार मंत्री बने तो वह सिंचाई परियोजनाओ की लूट में विकास देखने लगे। जो 2012 में सामने आया। खास बात यह भी है कि 1995-99 के दौरान नीतिन गडकरी सार्वजनिक बांधाकाम मंत्री भी थे और नागपुर के पालक मंत्री भी। और उस दौर में नीतिन गडकरी जनता दरबार लगाते थे। मंत्री रहते हुये उन्होंने आखिरी जनता दरबार 1999 में नागपुर के वंसतराव देशपांडे हॉल में लगाया। जिसमें गोसीखुर्द के विस्थापित किसानों को राहत दिलाने के लिये बनी संघर्ष समिति [गोसीखुर्द प्रकल्पग्रस्त संघर्ष समिति] के सदस्य भी पहुंचे। समिति के अध्यक्ष विलास भोंगाडे ने जब विस्थापितों का सवाल उठाया तब नीतिन गडकरी ने विदर्भ के विकास के लिये परियोजनाओ का जिक्र कर हर किसी को यह कहकर चुप करा दिया कि अगले पांच बरस में विदर्भ की तस्वीर बदल जायेगी। ऐसे में टक्का भर किसानों की सोचने से क्या फायदा।
संयोग है कि वही किसान 13 बरस बाद एक बार फिर जब अपने जीने के हक की मांग करने नागपुर पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि नीतिन गडकरी ही गोसीखुर्द से लेकर हर परियोजाना को पूरा करवाने की लडाई लड़ रहे हैं। लेकिन परियोजनाओ को अंजाम कैसे दिया जा रहा है, यह गोसीखुर्द डैम की योजना से समझा जा सकता है। डैम को बनाने के लिये खड़ी की गई 107 किलोमीटर की दीवार [राइट कैनाल] जो भंडारा के गोसीखुर्द से चन्द्रपुर के आसोलामेंडा तक जाती है, 24 बरस में आधी भी नहीं बनी है। जबकि लेफ्ट कैनाल की 23 किलोमीटर की दीवार [स्लापिंग वाल ] खुद-ब-खुद ढह गयी है। फिर डैम तैयार करते वक्त जिन गांव वालों को बताया गया कि पहले चरण में उनके गांव डूबेंगे। उसकी जगह पहले चरण में ही दूसरे चरण के गांव डूब गये। इसमें पात्री गांव की हालत तो झटके में बदतर हो गई क्योंकि उनका गांव डूबना नहीं था। लेकिन डैम की योजना की गलती निकली। और पात्री गांव डूब गया। फिर पात्री गांव के लोगों के लिये जिस जमीन एक नया गांव तैयार कर उसका नाम साखर गांव रखकर बसाया गया। तीन करोड़ से ज्यादा का खर्च किया गया। बसने के तीन महीने बाद ही वन विभाग ने कहा कि गांव तो जंगल की जमीन पर बसा दिया गया है। आलम यह हो गया कि कि मामला अदालत में चला गया। और अदालत में भी माना कि गांव तो अवैध है। और जमीन वन विभाग की है। उसके बाद इस नये साखर गांव को भी खत्म कर दिया गया। गांव में रह रहे दो हजार लोग बिना जमीन-बिना घर के हो गये। और जब इन्होंने अपने लिये घर और खेती की जमीन की मांग की तो मुबंई सचिवालय से विदर्भ के किसानों के विकास और पुनर्वास की फाइल यह कहकर नागपुर भेजी गई कि इन्हें तो बकायदा घर और तमाम सुविधाओं वाले गांव में शिफ्ट किया जा चुका है। और फाइल पर तत्कालीन उपमुख्यमंत्री अजित पवार के हस्ताक्षर थे। यानी विदर्भ के किसानों की त्रासदी राजनीतिक किस्सागोई की तरह मुंबई में भी कैसे ली जाती है, इसका सच महाराष्ट्र सरकार के दस्तावेज ही बताते हैं। जहां बीते बीस बरस में खुदकुशी करने वाले 18 हजार किसानों के साथ साथ किसानो ने पुनर्वास के लिये खर्च किये गये सवा लाख करोड रुपये का भी जिक्र है और इससे दुगने से ज्यादा करीब तीन लाख करोड़ से ज्यादा की विकास योजनाओं का जिक्र यह लिखकर किया गया है कि विदर्भ के किसानों की हालात बीते तीन बरस में चालीस टक्का तक सुधरे हैं। खास बात यह है कि बीते बीस बरस के दौर में हर तीन बरस बाद की फाइल में विदर्भ के किसानों के हालात सुधारने का दावा क्षेत्र के पालक मंत्री, सिंचाई मंत्री, कृर्षि मंत्री, उघोग मंत्री, उपमुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री तक ने किया है। और छह फाइलों में हर बार बीस से चालीस टक्का [फिसदी] सुधार हुआ है। यानी रफ्तार की धारा को अगर जोड़ दिया जाये तो विदर्भ अब तक स्वर्ग बन जाना चाहिये था क्योंकि बीस बरस में 120 फिसदी से ज्यादा सुधार तो दस्तावेजों में हो चुका है। और सरकारी दस्तावेजों के इस सुधार में अगर विपक्ष के नेता नीतिन गडकरी भी अगर अब कहते है कि उन्हें तो विदर्भ के किसानों की पड़ी है, इसीलिये वह गोसीखुर्द डैम जल्द जल्द चाहते हैं तो इसमें बुरा क्या है।
Sunday, October 7, 2012
[+/-] |
24 बरस में 372 करोड़ का गोसीखुर्द 14000 करोड़ पार कर गया |
करोड़ों की लूट के ठेकेदारों को तमगा है गडकरी का पत्र
विदर्भ के जिन खुदकुशी करते किसानों का रोना बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी यह कहते हुये रो रहे हैं कि गोसीखुर्द परियोजना पूरी कराने के लिये वह जल संसाधन मंत्री पवन बंसल को दस और चिट्ठी लिखने को तैयार हैं, असल में वही गोसीखुर्द परियोजना बीते 24 बरस से सिर्फ लूट की योजना बनी हुई है। जबकि इस दौर में क्या दिल्ली क्या महाराष्ट्र हर जगह सत्ता में बीजेपी भी आई लेकिन गोसीखुर्द का मतलब करोड़ों डकारने का ही खेल रहा। 1995 से 1999 तक अगर महाराष्ट्र की सत्ता में शिवसेना के साथ बीजेपी थी और गडकरी हैसियत वाले मंत्री थे तो केन्द्र में भी 1999 से 2004 के दौरान वाजपेयी सरकार ने भी गोसीखुर्द को कागजों पर विदर्भ के विकास से जरुर जोड़ा। काफी पैसा रिलीज भी किया लेकिन परियोजना पूरी हुई नहीं और राजनीति को साधने वाले ठेकेदार गोसीखुर्द के पैसे से नेता जरुर बन गये। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेसी नेता भी गोसीखुर्द परियोजना को पूरा करने से ज्यादा इंदिरा-राजीव की भावनाओं से ही खुद को जोड़ कर तरे। जबकि गोसीखुर्द के कुल 70 राजनीतिक ठकेदारों में से नौ ठेकेदार नागपुर-चन्द्रपुर में कांग्रेस की ही राजनीति करते हैं। और इन सबके बीच विदर्भ के करीब 22 हजार किसानों ने खुदकुशी कर ली और हर किसी ने राजनीति आह भरी।
असल में देश की महत्वपूर्ण चौदह राष्ट्रीय योजनाओं में से एक गोसीखुर्द परियोजना अपने आप में राष्ट्रीय लूट की मिसाल है। क्योंकि 1983 में इंदिरा गांधी के दौर में गोसीखुर्द परियोजना का नोटिफिकेशन हुआ। लागत 372 करोड़ बतायी गई। और नोटिफिकेशन के पांच बरस बाद जब 22 अप्रैल 1988 को राजीव गांधी ने गोसीखुर्द परियोजना का भूमिपूजन किया तब भी परियोजना की लागत 372 करोड़ ही बतायी गई। परियोजना को पांच बरस में पूरा करने का लक्ष्य भी रखा गया। और राजीव गांधी ने 200 करोड रुपये रिलीज भी कर दिये। गोसीखुर्द का काम शुरु होता उससे पहले ही परियोजना की 22358 हेक्टेयर जमीन पर बसे 200 गांव के 15 हजार परिवारों को नोटिस दे दिया गया कि वह जमीन खाली कर दें। यानी एक तरफ मुआवजे और पुनर्वास का आंदोलन तो दूसरी तरफ आंदोलन की आड़ में ठेकेदारों की लूट का खुला खेल गोसीखुर्द में शुरु हुआ। 1994 में गोसीखुर्द प्रकल्प संघर्ष समिति के अध्यक्ष विलास भोंगाडे ने उचित मुआवजा और विस्थापितों के लिये खेती की जमीन की मांग की और संघर्ष तेज किया तो कांग्रेस की कान में जूं रेंगी। और 1995 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव गोसीखुर्द जा पहुंचे। मुआवजे और पुनर्वास से निपटने के लिये राज्य सरकार को कहा तो गोसीखुर्द परियोजना को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का सपना बताते हुये तत्काल वाकी पैसा रिलीज करने का भरोसा दिया। लेकिन तब नरसिंह राव को बताया गया कि गोसीखुर्द की लागत 372 करोड़ से बढ़कर 3768 करोड़ हो गई है। बावजूद इसके पीवी नरसिंह राव के दौर में 2341 करोड़ रिलीज किये गये। जो भी पैसा आया वह कहां गया और गोसीखुर्द परियोजना की जमीन जस की तस क्यों पड़ी है, इसकी छानबीन वाजपेयी सरकार के दौर में हुई। जो रिपोर्ट बनायी गई उसमें ठेकेदारों का रोना ही रोया गया कि जितनी परियोजना की लागत है, उसका आधा पैसा भी नहीं आया है और ठेकेदारों का पैसा अटका हुआ है। 2001 में परियोजना की लागत 8734 करोड़ हो गई। केन्द्र सरकार यानी वाजपेयी सरकार ने भी माना कि विदर्भ के लिये योजना महत्वपूर्ण है और किसानों की खुदकुशी के मद्देनजर गोसीखुर्द परियोजना से भंडारा, चन्द्रपुर और नागपुर की ढाई लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी। और 1345 करोड़ तुरंत रिलीज किये गये। बाकि किस्तों में देने की बात कही गई।
पैसा जाता रहा और ठेकेदार उसे डकारते गये। दिल्ली में सत्ता बदली और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो विदर्भ के मरते किसानों की याद उनको भी आई। 1 जुलाई 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ की यात्रा पर गये तो किसानों की विधवाओं के साथ मुलाकात की और गोसीखुर्द परियोजना की भी खबर ली। मनमोहन सिंह ने गोसीखुर्द को राजीव गाधी का सपना बताया और बेहद भावुक होकर हर हाल में जल्द से जल्द पूरा कर विदर्भ के कायाकल्प की बात कही। लेकिन तब उन्हे बताया गया कि गोसीखुर्द परियोजना की लागत 12 हजार करोड़ से ज्यादा की हो गई है। बावजूद इसके उन्होने तत्काल केन्द्र का पैसा रिलीज करने की बात कही और राष्ट्रीय परियोजना के मद्देनजर गोसीखुर्द को पूरा करना सरकार की जिम्मेदारी बताया। इसके बाद साल दर साल पैसा रिलीज होने लगा। आखिरी बार पैसा 2010-11 में दो किस्तों में भेजा गया। पहली किस्त 635.28 करोड़ की तो दूसरी किस्त 777.66 करोड़ की। लेकिन इस पूरे दौर में गोसीखुर्द परियोजना को लेकर कई स्तर पर ठेकेदार लगातार जुड़ते गये। चूंकि केन्द्र से लगातार पैसा आ रहा ता तो ठेकेदारों को कागजों पर काफी कुछ दिखाना भी था। तो हालात यहां तक आ गये कि परियोजना का काम तो पूरा हुआ नहीं। उल्टे परियोजना के दायरे में पानी टंकी बनाने से लेकर नाली बनाने और सड़क बनाने का काम भी शुरु होता दिखाया गया। करीब दो सौ से ज्यादा छोटे बड़े ठेकेदार प्रभाव डालने वाले नेताओं की चिट्ठी पाकर गोसीखुर्द परियोजना की लूट में शामिल हो गये। इन सबके बीच गोसीखुर्द परियोजना के नाम पर जो भी काम हुआ तो वडनेरे कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ठेकेदारों की लूट का खुले तौर पर यह कहकर जिक्र किया किया काम का स्तर बेहद घटिया है।
सेन्ट्रल वाटर कमीशन ने भी प्रोजेक्ट में इस्तेमाल मेटेरियल को घटिया दर्जे का बताते हुये काम कर रही कंपनियों पर रोक लगाने तक की बात कही। वहीं वडनेरे कमेटी ने भी ठेकेदारों के दस्तावेजों के जरीये लगातार परियोजना की बढ़ती लागत पर भी अंगुली उठायी। यानी जांच रिपोर्ट को लेकर सवाल यह भी उठा कि क्या ठेकेदारों के लाइसेंस रद्द कर दिये जाने चाहिये और जिस बकाया की बात ठेकेदार लगातार कर रहे हैं, उल्टे उनसे पैसों की वसूली की जानी चाहिये। लेकिन ठेकेदार से राजनेता बन चुके गोसीखुर्द परियोजना से जुड़ी कंपनियों का कोई बाल बांका भी क्या करता। क्योंकि भंडारा और नागपुर जिले के 16 नेताओं की कंपनियों को परियोजना के ठेके मिले हुये हैं। योजना से प्रभावित होने वाले तीन जिलों के 45 पार्षदों की ठेकेदारी भी इसी योजना के तहत जारी है। इसलिये मनमानी से ज्यादा सत्ता की ठसक में परियोजना की लागत बढाने और पैसा ना मिलने की एवज में काम रोकने का सिलसिला ही चला । और बीजेपी सांसद अजय संचेती की एसएमएस कस्ट्रक्शन कंपनी हो या बीजेपी के एमएलसी मितेश बांगडिया की एम.जी बांगडिया व महेन्द्र कंस्ट्रक्शन कंपनी या फिर इसी तरह की दो दर्जन कंपनी जो सीधे गोसीखुर्द परियोजना में डैम बनाने से जुड़ी हैं, उन्होंने ही और पैसा रिलीज करने का दवाब बनाया। और ऐसे मोड़ पर बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने जब पवन बंसल को पत्र लिखकर विदर्भ के लिये जरुरी गोसीखुर्द के बकाया पैसों के रिलीज का सवाल उठाया तो विदर्भ में नीतिन गडकरी को लेकर पहला सवाल यही उठा कि चूंकि भंडारा में नीतिन गडकरी ने शुगर फैक्ट्री लगायी है तो उन्हें अपनी फैक्ट्री के लिये पानी चाहिये इसलिये अचानक गोसीखुर्द परियोजना की याद आई है। तो दूसरी तरफ खुदकुशी करते किसानों के बीच काम करते किशोर तिवारी ने कहा जब जांच रिपोर्ट में ठेकेदारों पर ही अंगुली उठी है तो बीजेपी अध्यक्ष को तो ठेकेदारों से पैसा वसूलने और लाइसेंस रद्द करने की मांग करनी चाहिये थी। जिससे प्रोजेक्ट पूरा होता। उल्टे ठेकेदारों को पैसा देने का सवाल उठा कर नीतिन गडकरी परियोजना पूरी ना करने वाले ठेकेदारों को चढ़ावा चढ़ाकर बढ़ावा ही दे रहे हैं। क्योंकि 1988 में 382 करोड़ की गोसीखुर्द परियोजना 2012 में 14000 करोड़ पार कर गई है।
Wednesday, October 3, 2012
[+/-] |
बदलते कांग्रेसी, बदलती राजनीति |
क्या कांग्रेस की राजनीति बदल रही है। क्या कांग्रेस यह मान चुकी है कि पारंपरिक वोट बैंक अब उसके लिये नहीं है। क्या कांग्रेस राजनीतिक अर्थशास्त्र के दायरे खुद को खड़ा कर एक नयी राजनीति को गढ़ने में लग गई है । यानी कांग्रेस को खड़ा करने से लेकर सरकार चलाने तक में अब उस खांटी काग्रेसी की जरुरत नहीं है जो जमीनी संघर्ष से निकले और कांग्रेस की परंपरा को कंधे पर उठा कर चले।
ये सवाल इसलिये क्योंकि पहली बार कांग्रेसी परंपरा काग्रेसी सरकार के जरिए पलटी जा रही है। किसान, मजदूर, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक का सवाल वोट बैंक के दायरे से निकल कर विकास के अनूठे
मंत्र में समा रहा है, जहां राष्ट्रवाद पिछड़ रहा है और क्षेत्रीयता दकियानूस लग रही है। यह सवाल बीते दिनो का सच हो चला है कि कांग्रेस और सरकार की नीतियों में कोई मेल नहीं है। खांटी कांग्रेसी हाशिये पर हैं और
जनता के बीच गये बगैर पिछले दरवाजे से घुसने वाले हुनरमंद कांग्रेसियों की ही चल निकली है। कल तक हुनरमंद कांग्रेसियों की मदद खांटी कांग्रेसी लेते रहे और सरकार चलाते रहे। राजीव गांधी ने सूचना क्रांति के आधुनिक राजनीतिक जनक सैम पित्रोदा की मदद ली। तो सोनिया गांधी ने आधुनिक अर्थशास्त्र के राजनीतिक जनक मनमोहन सिंह को देश की बागडोर ही सौप दी। और खुद ही अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की मदद करने लगी। हुनरमंदी के इस दौर में खांटी कांग्रेसियों को यह समझ नहीं आया कि आने वाले वक्त में उनका राजनीतिक ज्ञान कहां टिकेगा।
यह सवाल कांग्रेस के भीतर अचानक बड़ा और बड़ा होने लगा क्योंकि हुनरमंद कांग्रेसी राजनीति की लकीर भी खींचने लगे और सरकार चलाने से लेकर चुनावी राजनीति की परिभाषा भी बदलने लगे। सात महीने
पहले यूपी चुनाव में कांग्रेस का चुनावी घोषणापत्र जारी करते हुये लखनऊ में सैम पित्रोदा ने खुद के हुनरमंदी को वोटबैंक का तमगा देते हुये कहा कि वह बढ़ई के बेटे हैं। तो क्या 2014 में हुनरमंद प्रधानमंत्री मनमोहन
सिंह भी बतायेंगे कि वह किसके बेटे हैं। यह सवाल इसलिये क्योंकि भारत की विकास दर दुनिया में छाने और बाजार की चकाचौंध में दुनिया समाने के खेल के बावजूद ना तो सामाजिक तौर पर और ना ही राजनीतिक तौर पर देश की परंपरा, उसके सरोकार और सामाजिक ताना-बाना बदला है। लेकिन राजनीति करने के तरीके और सरकार चलाने के तौर तरीको में ना सिर्फ परिवर्तन आ रहा है बल्कि जिन हाथों में कमान है उनका समाज को देखने का नजरिया भी नयी राजनीतिक जमीन बनाने पर आमादा है।
शायद इसीलिये मनमोहन सिंह, पी चिंदबरम, मोटेक सिंह अहलूवालिया और आंनद शर्मा सरीखे कांग्रेसियों का नाम हर जुबान पर आ जाता है । लेकिन पुराने खांटी कांग्रेसी माखनलाल फोतेदार से लेकर कमलनाथ और नटवर सिंह से लेकर गुलाम नबी आजाद तक का नाम जुबां पर आता नहीं। इस कड़ी में दिग्विजय सिंह सरीखे कांग्रेसी नारदमुनि की भूमिका में आये लगने लगे हैं और इंदिरा के दौर की अंबिका सोनी एक चुकी हुई कांग्रेसी नेता लगने लगी हैं। जबकि इस कड़ी में बिना राजनीतिक जमीन के सलमान खुर्शीद जमीनी राजनेता लगने लगे हैं और मुकुल वासनिक से लेकर व्यालार रवि तक आधुनिक कांग्रेस के सिपहसलार बनने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखे। यानी झटके में खांटी कांग्रेसियों के चेहरे के बदले हुनरमंद आधुनिक कांग्रेसी चेहरे ही सबसे महत्वपूर्ण और कांग्रेस के खेवैया के तौर पर मान्यता पाने लगे। असल में मान्यता पाने से ज्यादा कांग्रेस की सत्ता में जगह बनाने की होड़ ने काग्रेस के राजनीतिक तौर तरीकों को भी बदलना शुरु कर दिया। जिसका असर अब आर्थिक सुधार के पीछे खड़े होकर सरकार के सुर में कांग्रेसी सुर के मिलने से भी समझा जा सकता है और पारंपरिक वोट के आसरे कांग्रेस के खांटी नेताओं के हाशिये पर जाने से भी जाना जा सकता है। उडीसा, छत्तीसगढ, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से लेकर मध्यप्रदेश का एक बडा हिस्सा जो कभी कांग्रेस की सियासत का प्रतीक था, आज वहां कांग्रेस है ही नहीं। कहा जा सकता है कांग्रेस के वोट बैंक को क्षत्रपों ने हड़प लिया। लेकिन इसका राजनीतिक मिजाज यह भी है कि कांग्रेस की अपनी प्राथमिकता भी इस दौर में या तो बदलती चली गई या फिर कांग्रेस ने अपना विस्तार सामाजिक-आर्थिक तौर पर नहीं किया। विस्तार का सरल मतलब राजनीतिक संघर्ष है और व्यापक तौर पर इसका मतलब ट्रासंफारमेशन है। कांग्रेस की सत्ता में बदलाव तो आर्थिक लाभ को लेकर खूब आया लेकिन जमीनी तौर पर कांग्रेसी उसी जड़ में उम्मीदे बांधे रहे जो आजादी के बाद कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता दिलायी हुई थी। यह उम्मीद किसान, आदिवासी. दलित, अल्पसंख्यक पर आश्रित खांटी कांग्रेसियों में टूटी क्योंकि कांग्रेस की हुनरमंद धारा ने खांटी कांग्रेसियों की जमीन पर खड़े वोटबैंक के लिये राजनीतिक पैकेज और पैकेज से पेट भरने वाले वोटबैंक की सामाजिक-सरोकार की जमीन को राष्ट्रीय नीति से जोड़ दिया। यानी बजट से लेकर योजना आयोग की धारा ने वोट बैंक के उस मिथ को ही तोड़ दिया खांटी कांग्रेसियों को यह लगता कि राजनीति के जरीये पीढ़ियों तक कांग्रेस से वोटरों के मन को जोड़ा जा सकता है। इसी का नतीजा है कि देश के 225 लोकसभा सीटों पर
कांग्रेस का उम्मीदवार गिनती में नहीं आता है या कहे चुनाव लड़ता भी है तो उसका नंबर चौथा या पांचवा रहता है। बाकि सवा तीन सौ सीटों पर कांग्रेस की इतनी हैसियत नहीं कि 272 सीटे जीत ले। यानी चुनावी गणित के फेल होते मॉडल को तोड़ने की जरुरत कांग्रेस की भी है और हुनरमंद कांग्रेसियों के निर्णय ने इस मॉडल को तोड़ने की दिशा में कदम भी उठा दिये। यानी पहली बार मनमोहन सरकार की नीतियों के खिलाफ ना सिर्फ विपक्ष बल्कि सत्ता में बने रहने के लिये गठबंधन का जो जोड़ कांग्रेस ने किया या सहयोगियों ने यह सोचकर किया कि वह उस कांग्रेस के साथ खड़े हैं, जिसने देश की आजादी के लिये संघर्ष किया उसके साथ खडे होकर वह अपने वोटरो से कह सकते हैं कि सिर्फ सत्ता नहीं चाही बल्कि राजनीतिक अस्थिरता खत्म की। पहली बार इस विचारधारा के दामन पर भी दाग लगे। क्योंकि हुनरमंद कांग्रेसियों के आर्थिक सुधार की उड़ान ने सिर्फ कांग्रेसी धारा को ही नहीं उलटा बल्कि आने वाले वक्त में उन क्षत्रपों के सामने भी यह सवाल बड़ा हो गया कि चुनाव के बाद अगर वह भाजपा के साथ सांप्रदायिकता के सवाल पर साथ खड़े नहीं हो सकते तो कांग्रेस के साथ आर्थिक गुलामी के सवाल पर कैसे खड़े हो सकते हैं। जबकि उनका अपना वोट बैंक पहली बार सांप्रदायिकता के सवाल से कहीं ज्यादा आर्थिक गुलामी से प्रभावित हो रहा है और आने वाले वक्त में अपने वोटरों के सामने उन्हें जवाब देना है कि उनका रास्ता जायेगा किधर।
यह सवाल समाजवादियों के सामने भी है और वामपंथियो के सामने भी। लेकिन इस कडी में अगर पहला सवाल खांटी कांग्रेसियों का है, जिनके सामने नयी राजनीतिक विचारधारा हुनरमंद कांग्रेसियों के आर्थिक सुधार की है। तो दूसरा सवाल उन युवा कांग्रेसियों का है, जो पिता की विरासत को लेकर संसद में पहुंचे। और अब विरासत को ढोते हुये कांग्रेस की धारा को बदलने के लिये उन्हे तैयार होना है। सचिन पायलट या जितेन्द्र
प्रसाद सरीखे युवा कांग्रेसी किस रास्ते चले। और राहुल गांधी के कहने पर कांग्रेसी परंपरा को निभाने के लिये जो युवा कांग्रेस से जुड़े अगर उन्हें वर्धा के गांधी आश्रम से राजनीति का ककहरा पढ़ाया जा रहा है तो फिर वर्धा
से निकलकर वह किसी कांग्रेस की पालकी उठायेंगे। इतना ही नहीं राहुल गांधी ही जब कांग्रेस संगठन को किसी राजनीतिक मंडी की तरह खोलकर चंद चेहरों या खांटी कांग्रेसी परिवारों में सिमटे कांग्रेस को विस्तार देना चाहते हैं तो फिर आने वाले वक्त में कांग्रेस का रास्ता होगा क्या । क्योकि मौजूदा वक्त में काग्रेस ना तो नेहरु की लीक पर मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने को तैयार है। ना उसे इंदिरा गांधी की गरीबो से जुडी धारा में रुची है और ना ही राजीव गांधी के आधुनिक भारत के नजरिये से कुछ लेना-देना है । यानी ना उद्योग ना खेती अब कारपोरेट के बाजार में पूंजी के बुलबुले में विकास दर को मापने का वक्त है । यानी काग्रेस में पीवी नरसिंह राव के दौर से उपजे हुनरमंद कांग्रेसियों की राजनीति जिसके बाद से काग्रेस कभी अपने पैरों पर अपने बूते खडी हो नहीं पाई और सत्ता का मतलब सरकार के बिना बाजार पर कब्जा कर कारपोरेट के जरीये अपनी सत्ता बरकरार रखने का ढोल पिटना ही हो गया। यह सत्ता मंत्रिमंडल विस्तार में कांग्रेसियों को मिलने वाले मंत्रालय से भी मापी जा सकती है । यह सत्ता संगठन को दुरस्त करने के लिये खांटी काग्रेसियो की उपयोगिता से भी मापी जा सकती है । यह सत्ता युवा कांग्रेसियों को मंत्रिमंडल में स्वतंत्र प्रभार से भी मापा जा सकता है। यह सत्ता 10 जनपथ की कोटरी में भी समाती है । और यह सत्ता अल्पमत की सरकार को चलाने के हुनर के जरीये भी जानी जा सकती है । वहीं सरकार टिकाये रखना भी समाजवादियों की सत्ता का प्रतिक है । और वोट बैंक के आसरे दलितों के सवालो को देश से काट कर सरकार के साथ खडे रहना भी बहुजन समाज की सत्ता है । तो क्या पहली बार हुनरमंद काग्रेसियो ने चुनावी राजनीति की धारा और उससे मिलने वाली सत्ता के प्रतीकों को भी बदल दिया है। गांधी परिवार की समझ काग्रेस की जरुरत नहीं रही। लोहियावाद समाजवादियों की जरुरत नहीं रही। बहुजन समाज के लिये आंबेडकर और कांशीराम की राजनीतिक समझ बेमानी हो गई। बीजू पटनायक की थ्योरी नवीन पटनायक की जरुरत नहीं है और जेपी का संघर्ष लालू के लिये बेमतलब का है। भाजपा भी संघ के राजनीतिक स्वंयसेवक के तौर पर रहना नहीं चाहती और सडक के आंदोलनो भी राजनीति का वही ककहरा पढना चाहते है जहा सत्ता उनकी सोच के अनुकूल चले। तो क्या राजनीति का यह दौर लोकतंत्र के पारंपरिक प्रयोगों को भी बदल रहा है और 2014 को लेकर चाहे खांटी काग्रेसी या दूसरे दल पारंपरागत तरीके से शह मात देने को तैयार हो रहे है मगर हुनरमंद काग्रेसी व्यवस्था अब चुनावी तरीको को भी बदल रही है । यह सवाल इसलिये क्योंकि पहली बार वोट बैक के लिये नहीं बल्कि समूचे देश के नाम पर बन रही नीतियो पर सवालिया निशान है और एक तरफ पारंपरिक राजनीति है तो दूसरी तरफ हुनरमंद काग्रेसी सत्ता।
Tuesday, October 2, 2012
[+/-] |
राजनीतिक बाजार का प्यादा युवा |
पहली बार बिहार में युवा न किसी धारा और न ही किसी विचारधारा के रास्ते सत्ता के खिलाफ सड़क पर हैं। उसे महज वेतन चाहिये। ठेके पर काम करने वाले युवाओं का आक्रोश महज वेतन चाहता है। बेसिक और स्नातक प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित वर्ग के शिक्षकों की उम्र 22 से 35 बरस के करीब है और इनकी संख्या करीब तीन लाख है। वेतन 6 से 8 हजार तक है और वेतन न पाने के आक्रोश को राजनीतिक तौर लालू-पासवान भुनाने में लगे हैं।
तो क्या पहली बार राजनीति के पास अपना कोई राजनीतिक विकल्प या एजेंडा नहीं है। जबकि इससे पहले कई मौकों पर देश ने बिहार के युवाओं के जरीये सड़क के आंदोलन से देश की राजनीति को बदलते हुये देखा है। याद कीजिये तो दो बरस पहले राहुल गांधी बिहार के युवकों को युवा कांग्रेस से जोड़ने निकले थे। तब 18 से 35 साल के युवको के लिये बाकायदा ऑनलाइन फार्म से लेकर सामाजिक-आर्थिक समझ को राजनीतिक तौर पर लागू कराने की समझ वाले इंटरव्यू की व्यवस्था की गयी । बिहार में यूं भी करीब साढ़े-चार लाख युवक राजनीतिक दलों से सीधे जुड़े हुये हैं। और लाख छात्रों का आवेदन कांग्रेस के पास पहुंचा, यह बात हाशिये
पर सिमटे कांग्रेस के नेताओं ने तब राहुल गांधी से कही। लेकिन जब चुनाव परिणाम में कांग्रेस कही नहीं टिकी तो युवा कांग्रेस से निकले कांग्रेसियों ने तर्क यही गढ़ा कि जो सत्ता में होता है या आ रहा होता है युवा उसी दिशा में चलते हैं। लेकिन कांग्रेस की कमान थामे बिहार के कांग्रेसी भी जेपी आंदोलन से ही निकले हुये हैं। लेकिन जेपी आंदोलन के बाद बिहार का नया सच यही है कि सबसे ज्यादा बेरोजगार युवाओ की फौज रोजगार दप्तर में दर्ज है। जेपी के दौर में बिहार के करीब पांच लाख छात्र आंदोलन से जुड़ गये थे। फिलहाल बिहार के रोजगार दफ्तर में करीब ग्यारह लाख छात्रों के नाम दर्ज हैं। संयोग से बेरोजगार छात्रो की उम्र भी 18 से 35 के बीच ही है। यूं याद कीजिये तो महात्मा गांधी ने मुंबई अधिवेशन में कांग्रेस को चेताया भी था कि राजनीति बिसात पर देश के पढ़े-लिखे बेरोजगार साढ़े तीन लाख युवाओं की जगह कहां है। और यह एकजुट हो गये तो कांग्रेस के लिये मुश्किल होगी और आज देश का सच यह है कि करीब सवा करोड़ बेरोजगार युवाओं के नाम रोजगार दफ्तरों में दर्ज हैं। ये सभी अकेले हैं। सवाल है देश को राह दिखाने वाली युवा पीढ़ी आर्थिक सुधार के बाद जिस चौराहे पर आ खड़ी हुई है, उसमें यह सवाल उठने लगा है कि युवा पीढ़ी के सामने रास्ता क्या है। सपना टूटने के एहसास में इस बरस देश भर में 18 से 27 साल के 23132 बच्चों ने खुदकुशी कर ली। सपनो को सहेजना अब वामपंथ की जरुरत रही नहीं। तो अठारह से पैतिस की उम्र जो हमेशा लेफ्ट सोच लिये रहती अब वह भी नदारद हो चुकी है। यानी विद्रोही युवा समाज से गायब हो चुका है।
आर्थिक सुधार के बाद से सबसे लोकप्रिय फलसफा अगर युवाओं के कानों से होते ही दिमाग की धमनियो में दौड़ाया गया तो वह मुनाफा कमाने या कहें बनाने की अंधी दौड़ है। ऐसा नहीं है कि यह समझ सिर्फ महानगरों या बड़े शहरों का सुरुर है। छोटे शहरो से लेकर गांवों तक में स्कूल-कॉलेजो के परिसर से होते हुये चकाचौंध माल और मुफलिसी में खोये परचून की दुकानो का अर्द्ध-सत्य तो यही हो चला है कि मुनाफा नहीं तो जिन्दगी नहीं। और पूरा सत्य उस समझ का कत्ल किये हुये है जो सहभगिता से लेकर बौद्दिकता को कभी आश्रय देता था। यहीं से एक नयी लकीर भी उस भारत में खिंच रही है, जहां आर्थिक सुधार की मनमोहन-इकनामिक्स तो पहुंची है लेकिन उसने जमीन पर निर्भर करोड़ों लोगों के बीच से अंगुलियों पर गिने जा सकने वाली संख्या को बाजार का मर्म समझा दिया है। और बाकियों को हाशिये पर ढकेल दिया गया है। अंगुलियों पर मौजूद इन उपभोक्ता के लिये थाने-पुलिस से लेकर बीडीओ-कलेक्टर तक हैं। सरकार की नीतियों को परिभाषा देने का मंत्र भी इसी उपभोक्ता तबके के पास है। इस घेरे में जगह ठीक वैसी है जैसी राजनीति में युवाओ के लिये पद की जगह। युवा को पद अपने परिवार के आसरे मिल सकता है। इसलिये देश के 545 सांसदों में से तीन सौ साठ सांसदों के लड़के युवा हैं। और उनके पीछे उन युवाओं की फौज है जो भेड-बकरी की तर्ज पर पार्टी को ढोते है और नेता का बेटा जब बड़ा हो जाता है तो युवा नेता के नाम पर उस युवा को भी ढोते हैं। क्योंकि पार्टी और युवा बेटे के बीच एक तालमेल बरकरार हो जाता है तो दोनों को ढोया जाता है। इसलिये राहुल गांधी युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिये आधुनिक तकनीक का आसरा लेते है और मुलायम के बेटे अखिलेश यादव पारंपरिक तरीका
अपनाते हैं। कंम्प्यूटर के जरिए इंटरनेट पर आनलाइन युवा कांग्रेसियो के लिये फार्म उपलब्ध हैं। जिनकी उम्र 18 से 35 है, वे अपना रजिस्ट्रेसन करा सकते हैं। वहीं समाजवादी पार्टी में 18 से 35 साल का युवा सीधे अपने क्षेत्र में अपनी ताकत का एहसास अगर कराये हुये है और उसका कच्चा-चिट्ठा अगर पत्र-पत्रिकाओं में छपा है तो उसकी कतरनो से ही पार्टी में जगह मिल जायेगी। सिर्फ उत्तर प्रदेश में तीस लाख से ज्यादा युवाओं ने राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाये। यह रोजगार और अपनी जमीन बनाने का नया रुतबा है। लेकिन बाजार का पारा ढोने पर नहीं चलता। इसके लिये मुनाफा शब्द सबसे बड़ा होता है। और मुनाफे की थ्योरी टकसाल में बनने वाले किसी बोरे सरीखी है ।
जहां बुद्दि नहीं चतुराई मायने रखती है और चतुराई बुद्दि पर हावी हो जाती है। बाजार की यह थ्योरी युवाओं को एकजुट नहीं करती बल्कि पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर बिना डिग्रीधारी के लिये भी बाजार का सामाजवादी मंत्र पैदा करती है। जिसमें बैंक से लेकर नौकरशाहों और स्थानीय राजनीतिक सत्ता के ठेकेदार जिस युवा के बिसनेस पर अपना ठप्पा लगा देते हैं, वही मुनाफे की दौड़ में शामिल हो जाता है। लेकिन ठप्पे का लाइसेंस युवा की समझ से ज्यादा उसकी अंटी में बंधे पैसे को तोलता है।
लेकिन युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ने की यह बाजारवादी पहल हर जगह एकसमान रहे ऐसा भी नहीं है। इस वातावरण के बीच मनमोहन-इकनामिक्स और संसदीय राजनीति के विकासमय पाठ को लेकर किस तरह का
वातावरण लाल गलियारे में बन रही है, यह समझना जरुरी है। क्योंकि सरकार और ससंदीय वयवस्था यह मान रहे है कि विकल्प की धमकी कहीं से आ सकती है तो वह लाल गलियारा ही है। गृहमंत्रालय की रिपोर्ट दर रिपोर्ट इस बात पर सरकार को अगाह किये हुये है कि जहां विकास पहुचा नहीं है और जहां विकास बहुसंख्यक आम-आदमी की जरुरत से जुदा पहुंचा है,वहां आक्रोश है। यानी जहां खेतों के लिये बीज और फसलों के लिये पानी-बिजली पहुंचना था, वहां अगर सड़क पहुंच गयी है तो भी लोगो में गुस्सा है। इतना ही नहीं सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट और योजना आयोग का भी मानना है कि करीब 64 फीसदी ग्रामीण लोगों के लिये सरकार के पास नीतियां है ही नहीं। और इस 64 फीसदी भारत का 85फीसदी हिस्सा उसी लाल गलियारे में पड़ता है, जहां की जमीन को लेकर ही सरकार के पास योजनाओ की भरमार है। टाइगर परियोजना से लेकर एसइजेड तक और कोयला या बाक्साइट खनन स लेकर पावर प्रोजेक्ट के लिये जो जमीन देश भर में चुनी गयी, उस जमीन पर निर्भर ग्रामीण लोग पारपंरिक तौर पर हाशिये पर ही रहे है। खासकर ग्रामीण आदिवासियों की तादाद उन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा है। पारंपरिक ग्रामीण आदिवासियों की नयी पीढ़ी अपनी खिड़की से विकासमय भारत की अनूठी लकीर को अगर कौतूहल से देख रही है तो आर्थिक सुधार के बाद से उसमें आक्रोश आया है क्योंकि आदिवासियों की युवा पीढ़ी को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये शिक्षा-दीक्षा की योजनायें तो बीते साठ साल में जरुर बनी लेकिन वह लागू तभी हुई जब राजनीति ने पंचायत तक पैर पसारने चाहे या फिर बाजारबाद के मुनाफे के घेरे में आदिवासियो की जमीन आयी। दोनो अवस्था में नीतियों की निगाहें कही और रही और निशाना कोई और बनता गया । इसलिये लाल गलियारा उन आदिवासी क्षेत्रों में कहीं ज्यादा घातक हो उठा है जहां विकास के पदचिन्ह दिखायी देते हैं। सिंगूर, नंदीग्राम से लालगढ़ और झारखंड से लेकर छत्तीसगढ से होते हुये उडीसा के मियानगिरी से लेकर महाराष्ट्र के विदर्भ तक में आदिवासी युवकों की नयी शिरकत कई स्तर पर बिलकुल नयी है। चूंकि इनके लिये बाजार की नीतियां और राजनीति का युवाप्रेम नहीं है ऐसे में इनकी उर्जा कहां खपत होगी। जाहिर है आदिवासी युवाओं की नयी ट्रेनिंग हक की लडाई के ही इर्द-गिर्द जा सिमटी है। इनका पहला संघर्ष उस व्यवस्था से होता है जिसकी नीतियां उनके दरवाजे् तक नहीं पहुंच पाती। दूसरा संघर्ष उन नीतियों के खिलाफ होता है, जो उनके आंगन तक को उघोग में तब्दील करने से नहीं कतराती। तीसरा संघर्ष बतौर नागरिक मानवीय अधिकारों को लेकर पुलिस प्रशासन से होता है और आखिरी संघर्ष अपनी ही उस सरकार से हो जाता है जिसे चुनने का तमगा भी उन्हीं के माथे पर लगा होता है।
लाल गलियारे के करीब चालीस लाख से ज्यादा युवा ग्रामीण आदिवासियों के पास संघर्ष के अलावे कोई दूसरा काम है नहीं। और संघर्ष भी उन्हें अपने आस्तितव को लेकर करना पड़ रहा है। जहां उसे कोई रास्ता नहीं दिखा रहा, सिर्फ उस आक्रोश या विरोध को पनाह दे रहा है जिसकी एवज में आदिवासी युवा को सबकुछ गंवाना पड़ रहा है। यानी गंवाने का रास्ता दोनों तरफ है। इस प्रक्रिया में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा हाशिये पर आ चुकी है। न्यूनतम जरुरतों को लेकर लोकतांत्रिक राज्य की मौजूदगी जब पानी,घर और रोटी को भी निजी हाथो में मुनाफे के लिये सौप चुकी है तो शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार का सवाल तो दूर की बात है। ऐसे में एक तरफ सरकार की बाजारवादी नीतियां सबकुछ हड़प लेने को आमादा है तो दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता युवाओं के आक्रोश को उसी सत्ता से जोड़ने की फिराक में है जो सब कुछ हड़पने या बेचने को तैयर हैं। यानी पहली बार युवा भारत भी विकासमय भारत की चौसर पर एक प्यादे या मोहरे से ज्यादा कुछ नहीं। क्योंकि प्यादा या मोहरा बने बगैर उस के बचने का रास्ते तंग होते जा रहे हैं। सवाल कई है मगर सच यही है कि युवाओं को बांधने की कुव्वत न तो राजनीति के पास है ना ही किसी विचारधारा में। सिर्फ बाजार ही युवाओं को बांधे हुये है। और संयोग से यही बाजार सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत भी बन गयी है और युवाओं की सबसे बडी कमजोरी भी। इसलिये राहुल गांधी राजनीति को युवाओं की मंडी बनाना चाहते है और नीतीश कुमार शिक्षा का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किये बगैर ठेके पर शिक्षकों का बाजार बनाकर बचना चाहते हैं। सवाल यही है क्या भारत में अब युवा आक्रोश का मतलब सिर्फ राजनीतिक बाजार से हक पाना है या उसे राजनीति का मोहरा बन गंवाना है।