दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति का मोहताज हो। और संसदीय सत्ता की राजनीति समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। और सत्ता के प्रतीक संसद पर काबिज राजनीतिक दलों के नुमाइन्दे अगर सौ करोड़ लोगों के पेट से जुड़े सवालों को संसद की चौखट पर घाटे-मुनाफे में तौल कर लोकतंत्रिक होने का स्वांग करने लगे तो क्या होगा।
लोकतंत्र का मतलब है हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लेकिन बीते चार बरस में जिस तरह भ्रष्टाचार, महंगाई, काला धन और परमाणु समझौते को लेकर संसद के भीतर बहस हुई और जनता के हित-अहित को अपने अपने राजनीतिक जरुरत की परिभाषा में पिरोकर लोकतांत्रिक होने का मुखौटा दिखाया गया। उसी कड़ी में एफडीआई की बहस ने यह तो जतला दिया की लोकतंत्र का मतलब चुने हुये सत्ताधारियों के विशेषाधिकार है ना कि आम जनता को बराबरी का अधिकार। लोकतंत्र बरकरार रहे यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विधानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फीसदी से भी कम है। लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है। संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन सबसे बड़े लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा ना सिर्फ एकदम अलग बना देते हैं बल्कि उनके दायरे को ही लोकतंत्र मान लिया जाता है। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया, वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसकी कड़ियो को परखना बेहद जरुरी है। जाहिर है सत्ता के लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है कि सत्ता मिले तो सत्ता को कैसे बरकरार रखा जाये और बरकरार रखने के हर हथकंडे को लोकतंत्र का कवच बता दिया जाये। यानी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये कानून है। महंगाई को थामने के लिये राजनीतिक पैकेज है। कालेधन पर रोक के लिये अंतराष्ट्रीय समझोते हैं। और पेट की भूख मिटाने के लिये विदेशी निवेश हैं। यानी सबकुछ मौजूद है और उसे लागू करने के लिये सरकार है जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई है। यानी लोकतंत्र की पहली सत्ताधारी परिभाषा पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियो से होकर निकलती है, जिसके जरीये सत्ता मिलती है तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।
असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। माना जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है। देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगों के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बड़े वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है। यानी संसद में किसी भी मुद्दे को लेकर चर्चा-बहस हो उसका झुकाव खुद ब खुद सत्ता की तरफ इसलिये होगा क्योंकि संसद का मतलब सत्ता है। यानी सत्ता के अनुकुल बहस नहीं तो फिर सत्ता को बहस मंजूर भी नहीं। यानी लोकतंत्र को जीने के नाम पर पहली ठगी संसद की चौखट से ही निकलेगी। और उस पर अंगुली उठाने का मतलब है संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को खारिज करना जिसकी इजाजत संविधान देता नही। तो लोकतंत्र के रंग कैसे बदलते बदलते बदल गये, जरा यह भी समझें।
राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फेंक सकता है, लेकिन पांसा उसी का चलता है, जिसके हाथ से ज्यादा आस्तिन में पांसे हों। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति- असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया। शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीय जनता के आक्रोश को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। विज्ञापन और प्रायोजक खूब नजर आये। आर्थिक नीतियों तले करीब दो करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके है, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे। इसी के
प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है। लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बाखुबी चल रही है। इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते हैं, जिससे लोकतंत्र का खेल चलता रहे। इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जवाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना कहीं ज्यादा है। इसीलिये संसद के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई संसद इस चक्रव्यूह को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये संसद का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र सवा सौ करोड़ लोगों पर आ टिकता है। लेकिन लोकतंत्र की सत्ता का उपभोग करने के लिये अंगुलियों पर गिने जाने वाले नेता, कारपोरेट, नौकरशाह के इक्के ही नजर आते हैं। मौजूदा वक्त में देश के टॉप बीस राजनेताओं के परिवार, टॉप बीस कारपोरेट और टॉप छत्तीस सरकारी संस्थानों को संभाले नौकरशाहों को हटा दें तो यकीन जानिये जिस लोकतंत्र को हम-आप जी रहे हैं, वह ढह-ढहाकर गिर जायेगा। क्योंकि राजनीतिक दल इन्हीं के नाम पर चलते हैं। भारत ही नहीं दुनिया भर के 9 फीसदी धंधे यही करते हैं।
देश की नीतियों को लागू कराने से लेकर कानूनों की आड़ में गलत-सही बताने के अधिकार इन्हीं के पास हैं। यानी यह कहा जा सकता है कि देश के सौ से कम परिवारों के जरीये देश का लोकतंत्र चल रहा है। तो ऐसे में संसद की बिसात क्या और संसदीय लोकतंत्र का मतलब क्या है, जिसके जरिये जवाहरलाल नेहरु से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर को याद कर लोकतांत्रिक देश होने का तमगा लगाया जाता है। और विरासत के जरिये पीढ़ियो को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है, जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सवा सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहु के तौर पर है। नाम तो अब हर किसी के जुबान पर हैं। महत्वपूर्ण है कि पहली बार देश के छह हजार गांवों में भी सत्ताधारी की राजनीति और उसके परिवार की अहमियत ने एक नया तबका पैदा कर दिया है जो राजनीतिक जाति का है। और यह राजनीतिक जाति हर जाति पर भारी भी है और सत्ताधारी बनाकर लोकतंत्र की लूट का आधार भी है।
दरअसल देश में चार स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं। फिर इसमें नगर निकाय,विधानसभा और लोकसभा के तमाम नुमाइन्दों को जोड़ दे तो तादाद उनचालिस लाख के करीब पहुंचेगी। और इन नुमाइन्दों के कोटरी में अगर औसतन 10 लोगों को रखें और फिर कोटरी के हर सदस्य की कोटरी में 10 लोगों को रखे। इसी तरह कॉरपोरेट और नौकरशाहो की फेरहिस्त को भी अगर सत्ताधारी मान लिया जाये तो इसी आधार पर इनकी कोटरी को भी सत्ताधारी या विशेषाधिकार वाला मान कर गिनती की जाये तो देश में यह तादाद पांच करोड से ज्यादा होती नहीं है। और सरकार खुद ही अपने आंकडो से बताती है कि देश के 28 हजार 650 परिवारों के पास जो संपत्ति है, देश की कुल तादाद का 42 फीसदी है और इन पर देश का जो संसादन खर्च होता है वह 19 फीसदी से ज्यादा है। जबकि देश के 65 करोड़ लोगों पर 19 फीसदी संसाधन खर्च होता है। और देश के 110 करोड़ लोगों के हिस्से में 42 फीसदी संपत्ति आती है। यानी असमानता का चरम सत्ता की छांव में ही नहीं बल्कि सत्ता के भागेदारी से जिस देश में हो, वहां संसद के भीतर की बहस चाहे सौ करोड़ लोगो के पेट से जुड़ी हो उस पर संसदीय राजनीति का फैसला तो शून्य दशमलव एक फीसदी के लिये ही होगा। ऐसे में एफडीआई की गिरफ्त में रोजगार गंवाने वाला खुदरा क्षेत्र के 6 करोड़ व्यापारी मजदूर हो या महंगाई से परेशान का सबसे व्यापक चालीस करोड़ का मध्यवर्ग हो। फैसला इनके हित में कैसे जा सकता है। जबकि संसद में बनती नीतियों के आसरे ही देश में एक करोड साठ लाख युवाओं की रोजी रोटी छिनी हो। 6 करोड़ किसान जमीन से बेदखल हुये हों। 9 करोड़ मनरेगा पर टिके हों। 42 करोड का जीवन राशन कार्ड पर टिका हो। साढ़े छह करोड़ सरकारी कैश का इंतजार करने लगे हों। और सत्ता में आने के लिये महज साढे ग्यारह करोड वोट चाहिये हों।और देश में सत्ताधारियों का समाज महज सौ परिवारों में टिक जाये तो क्या लोकतंत्र की जय कहा जाये। और संसदीय बहस के जरिये लोकतांत्रिक जय पर ठप्पा लगा दिया जाये।
Thursday, December 6, 2012
संसदीय लोकतंत्र की जय हो !
Posted by Punya Prasun Bajpai at 4:34 PM
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5 comments:
लोकतांत्रिक विरोध की नई परिभाषा गढ़ते करुणानिधि, मायावती और मुलायम की जय हो.!!
इन लोगोँ को संसद के दरवाजे दिखाने लायक बनाने बाली जनता की जय हो.!!
त्याग की मूर्ति सोनिया गांधी की जय करने बाली जनता की जय हो.!!
जिस बात को बी जे पी ने बढाई थी काग्रेस ने बेहतर ढंग से उसे खत्म किया ,ये उस संसद में ही हुआ जिसे हम देश के प्रजातांत्रिक सयानो की जमात कहते हैं, राज तो बी जे पी ने भी किया शायद आगे भी करे , सी बी आई तब भी थी आगे भी रहेगी हिसाब करने का अधिकार मिलेगा इसलिऐ धुंधली बाते न करना ही बेहतर हैं
जनतंत्र में जनता की ही जय हो तो बेहतर हैं .!!
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मुद्दस्सिर खान
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