एफडीआई ही नहीं हर उस मुद्दे पर संसद के भीतर भाजपा अकेले पड़ी है, जिस मुद्दे पर मनमोहन सरकार पर संकट आया है। महंगाई हो या भ्रष्टाचार,कालाधन हो या एफडीआई, ध्यान दें तो सड़क पर चाहे हर राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़ा नजर आता है लेकिन संसद के भीतर एनडीए के बाहर यूपीए का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की जुबान पर एक ही राग रहता है सांप्रदायिकता। यानी भाजपा सांप्रदायिक है और सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिये मौजूदा सरकार ही चलेगी। चाहे उसकी नीतियां जनविरोधी क्यों ना हो।
तो क्या भाजपा का सांप्रदायिक रंग एक ऐसा राजनीतिक नारा बन चुका है जो सीधे चुनाव में असर करता है और कोई राजनीतिक दल भाजपा के साथ खड़े होकर अपनी राजनीतिक जमीन में सेंघ लगाना नहीं चाहता है। सीधे कहें तो जवाब हां ही होगा। क्योंकि देश के 18 करोड़ मुस्लिमों को लेकर चुनावी जवाब सीधा है कि वह खुले मन से भाजपा के पक्ष में जा नहीं सकते और भाजपा के साथ खड़े होकर कोई दूसरा राजनीतिक दल अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बचा नहीं सकता । तो क्या वाकई भाजपा सांप्रदायिक है। या फिर इस राजनीतिक नारे को खत्म करने के लिये भाजपा तैयार नहीं है,क्योंकि उसकी जड़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।
जाहिर है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा अलग हो नहीं सकती तो क्या सांप्रदायिकता के नाम पर कांग्रेस को हमेशा राजनीतिक लाभ मिलता रहेगा। या कहें भाजपा इस मिथ को तोड़ नहीं सकती कि वह भी राष्ट्रीय
राजनीतिक दल है, जिसे सांप्रदायिकता के आधार पर अछूत करार देना महज राजनीतिक चुनावी समीकरण है। जाहिर है यह मिथ टूट सकता है। लेकिन इसके लिये भाजपा को जो मशक्कत करनी होगी क्या वह इसके लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये क्योंकि भाजपा का उदय विकल्प के तौर पर हुआ। हेडगेवार ने आरएसएस को 1923-24 में जब बनाने की सोची तब वह कांग्रेस छोड़ कर संघ को बनाने में जुटे। जनसंघ को बनाने का विचार श्यामाप्रसाद मुखर्जी के जेहन में कांग्रेस के विकल्प को तौर पर आया। जबकि आजादी के बाद 1947 में जवाहर लाल नेहरु की अगुवाई में जो 14 सदस्यीय कैबिनेट देश चला रही थी, उसमें श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे। यानी ध्यान दें तो आरएसएस हो या जनसंघ से भाजपा तक सभी विकल्प बनाने के लिये बने। फिर देश की आजादी के बाद 65 बरस में कुल जमा महज बीस बरस ही रहे होंगे, जब देश के किसी राज्य या दिल्ली की सत्ता में कोई स्वयंसेवक रहा। लेकिन बीते 65 बरस में शायद ही कोई चुनाव होगा जब सांप्रदायिकता का सवाल वोट बैंक को बांटने वाला ना रहा हो।
जाहिर है यहां यह सवाल खडा हो सकता है कि क्या सांप्रदायिकता संघ के रास्ते से निकलते हुये भाजपा की भी जरुरत बन चुकी है। क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है । विकल्प सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर भी भाजपा के पास वैकल्पिक सोच बची नहीं है। यह मुद्दा इसलिये बड़ा है क्योंकि राजनीतिक तौर पर भाजपा के तौर तरीके साफ बताते है देश के किसी भी ज्वलंत मुद्दों को लेकर देश को किस राह पर चलना चाहिये उसके लिये उसके राजनीतिक समीकरण अगर कांग्रेसी सोच से आगे बढ़ नहीं पाते तो हिन्दुत्व का ऐसा रंग अपने साथ ले लेते हैं कि उसे सांप्रदायिक करार देना सबसे आसान काम हो जाता
है। मसलन एफडीआई यानी विदेशी निवेश का विरोध भाजपा करती है। लेकिन जरा सोचिये अगर भाजपा एफडीआई से होने वाले नुकसान के सामानांतर उस अर्थव्यवस्था के खांके को रख पाती जो देश की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों के लिये विदेशी निवेश का विकल्प बन जाता तो क्या कोई राजनीतिक दल यह कह सकता था कि सांप्रदायिक ताकत को सत्ता से बाहर रखने के लिये उसे जनविरोधी एफडीआई का समर्थन करने वाली मनमोहन सरकार के साथ खड़ा होना पड़ रहा है। भाजपा शासित राज्यों का ही हाल देख लें। भाजपा को जिन तीन राज्यों पर सबसे ज्यादा गुमान है वह गुजरात,छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश हैं। गुजरात की अर्थव्यवस्था की जमीन ही कॉरपोरेट और विदेशी पूंजी पर टिकी है। छत्तीसगढ़ तो दो रुपये चना और चावल देकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था के जरिये सामाजिक राजनीति को मजबूती दिये हुये है। मध्यप्रदेश में तो न्यूनतम जरुरत की संरचना भी विकसित नहीं हो पायी है। पीने का पानी, इलाज के लिये स्वास्थ्य
केन्द्र और पढ़ाई-लिखाई के लिये शिक्षा का कोई ऐसा खाका मध्य प्रदेश में आज भी खड़ा नहीं हो पाया है, जहां लगे कि वाकई सरकार के सरोकार आम लोगों से है और अर्थव्यवस्था स्वावलंबन की दिशा दे सकती है। यहां कांग्रेस शासित राज्यों की बदहाली का सवाल भी खड़ा किया जा सकता है। लेकिन समझना यह भी होगा कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक मोटी लकीर मौजूदा परिस्थितयों के ताने बाने को चलाने और उसके विकल्प को देने का है। और भाजपा ने इस दिशा में ना तो कोई काम किया है और ना ही विकल्प की राजनीति की जमीन बनाने की कभी सोची भी। भाजपा के सामानांतर जिस विकल्प की बात आरएसएस करता है भाजपा ना तो उससे जुड़ पाती है और ना ही उससे कट पाती है। मसलन संघ परिवार के किसी संगठन पर भाजपा का बस नहीं है। विहिप हो या स्वदेशी जागरण मंच , भारतीय मजदूर संघ हो या विघार्थी परिषद इन पर भाजपा की नहीं आरएसएस की चलती है । ध्यान दें तो सत्ता में आने के बाद भाजपा राजनीतिक तौर पर संघ से ज्यादा वक्त रुठी हुई नजर आती है। उसे लगता है कि संसदीय राजनीति की जो जरुरतें हैं, उसे आरएसएस समझता नहीं है। लेकिन रुठने के सामानांतर क्या भाजपा ने कभी संघ से असहमति जताते हुये कोई रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा है। क्या भाजपा में किसी नेतृत्व ने राजनीतिक तौर पर अपने कार्यक्रमों के जरिये भाजपा में ही सार्वजनिक सहमति बनायी है, जिससे संघ को भी लगे कि भाजपा के राजनीतिक दिशा को मथने की जरुरत नहीं है।
असल में भाजपा सांप्रदायिक होने के लिये तब तक अभिशप्त है, जब तक उसके पास देश चलाने का कोई वैकल्पिक नजरिया नहीं होगा । और संयोग से संघ के नजरिये से आगे विकल्प का सवाल राजनीतिक स्वयंसेवकों के सामने है ही नहीं। किसी भी मुद्दे को परख लें। आरक्षण सिर्फ राजनीतिक प्रभाव को बढाने का शस्त्र है , भाजपा सिर्फ यह कहकर कैसे बच सकती है कि जब तक आरक्षण के बदले सामाजिक और आर्थिक स्थितियों पर विचार ना हो कोई वैकल्पिक खाका देश के सामने ना रखा जाए। वही जो यह सोचते है कि भाजपा अगर विकल्प यह सोच कर नहीं दे सकती कि उसकी उत्पत्ति तो संघ से हुई है और संघ को ही विकल्प खड़ा करना होगा, भाजपा तो वैकल्पिक सोच को महज उसकी राजनीतिक परिणति तक पहुंचा सकती है। तो इस दौर में संघ परिवार के तमाम संगठनों की पहल को परखे तो हर संगठन ठिठक कर रह गया है। सोच सिमटी है और आरएसएस के भीतर भी सत्ता को परिभाषित करने का सिलसिला शुरु हो चुका है। यानी कल तक जो संगठन अपने कामकाज से सत्ता पर दवाब बनाते थे। जो आरएसएस राजनीतिक शुद्दिकरण की प्रक्रिया को आजमाते हुये सामाजिक बदलाव की दिशा में सत्ता को ले जाना चाहती थी। अब वही संगठन सत्ता के लिये काम करने को बेचैन हैं। आरएसएस सत्ता की परिभाषा गढने में मशगूल है। शिक्षा के तौर तरीके हो या स्वदेशी स्ववलंबन की सोच,हिन्दुत्व की व्यापक समझ हो ग्रमीण भारत की अर्थव्यवस्था को विकसित करने की सोच,सभी कुछ भाजपा की सत्ता समझ में जा सिमटे है। इसलिये मौजूदा वक्त में नौजवानों के लिये संघ का रास्ता भाजपा के जरीये समाज को गढने के बदले सत्ता के नजदीक पहुंचने की कवायद हो चला है। और दूसरे राजनीतिक दलों के लिये सत्ता तक पहुंचने का रास्ता भाजपा को सांप्रदायिक करार देना हो चला है। जाहिर है ऐसे में भाजपा के लिये राजनीतिक रास्ता उसे अपने विकल्प को खुद ही गढ़ने का हो सकता है। और यह
रास्ता भाजपा की टूट से ही निकल सकता है। क्योंकि भाजपा बैकल्पिक राजनीति का मुलम्मा ओढ़कर बरगद की तरह हो चुकी है और बरगद तले कोई नया पौधा पनप ही नहीं सकता है। ऐसे में भाजपा जबतक टूटेगी नहीं तबतक कोई क्रांतिकारी परिवर्तन भी नहीं होगा। और मौजूदा राजनीतिक चुनावी व्यवस्था में भाजपा के लिये जरुरी है कि वह टूटे जिससे राजनीतिक तौर पर जो सोच हेडगेवार ने 1925 में कांग्रेस से इतर वैकल्पिक राजनीति की सोच कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव डाल कर रखी उसे आने वाले वक्त में नये तरीके से संघ भी आत्मसात करे। क्योंकि राजनीतिक तौर पर जो रास्ता भाजपा अपना चुकी है सामाजिक तौर पर वही रास्ता आरएसएस का है।
Thursday, December 13, 2012
भाजपा का संकट
Posted by Punya Prasun Bajpai at 9:50 PM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
11 comments:
सर में मध्य प्रदेश से हु, बीजेपी और काग्रेस मई अगेर कोए अंतर है तो वो या है की कांग्रेस नै १० साल मई मध्य प्रदेश को - ve में ला दिया था बीजेपी अभी तक उस को + ve में ला कर आ पायी है. हाँ डेवलपमेंट अब पानी, बजली से थोडा आगे जाना चाहिए!! फिर भी कांग्रेस नै १० साल बिना कुछ गुजर दिया और बीजेपी नै कुछ तो किया है. ये सच है.
मैँ इस बात से सहमत हूँ कि आर्थिक कार्यक्रम स्तर पर कांग्रेस और भाजपा मेँ बहुत ज्यादा अंतर नहीँ है। भाजपा को तो सामने रखी परोसी हुई थाली न खाने की आदत हो गई है।
फिर मातदाओँ की निर्णयन क्षमता भी मजेदार है, उन्हेँ गडकरी या येदीयुरप्पा पर लगे आरोप तो दिखते हैँ लेकिन ऐसे आरोप और दलोँ के नेताओँ पर लगे आरोप राजनीति मेँ सामान्य लगते हैँ।
उम्मीद थी कि खुद के हालिया संकट के बारे में कुछ सच्ची बात कहेंगे आप. वह जानना चाहते हैं सब. बीजेपी का संकट तो आपके की बोर्ड से जानता ही रहता हूं लगातार.
BJP needs to seriously think and revamp its ideology and its approach towards all social and economic issues if it really want to pose an alternative for the Congress. Also required is a total Nationalist approach above caste, creed, religion and above petty politics. BJP has already lost many opportunities from Anna's dharna to corruption, crimes in society, and many others. There were many chances when BJP should have taken lead and prove itself.
भाजपा 60% सांप्रदायिक है, पर कहने करने से कतराते है। उन्हें अब ऐसे साथी चाहिए जो पलटी ना मारें। डीएमके, ऐ आई डीएमके, सपा, बसपा पर भरोसा करना मतलब छेद की हुई नांव में सफ़र करना है। येदियुरप्पा को तो पहले ही निकाल कर सत्ता छोड़ने की हिम्मत भाजपा को दिखानी चाहिए थी। अरविन्द केजरीवाल से हाथ मिलाने में भी उन्हें परहेज नहीं करना चाहिए। क्योंकि अगर केजरीवाल की पार्टी को फायदा हुआ तो कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को नुक्सान होने की आशंका है। पर संघठन में ही बवाल है तो दुनिया के सवाल को कौन जवाब दे।
CONGRESS KO JHELNA DES KI NIYATI HO CHUKI HAI.. BJP TUT BHI JAYE TO BHI US PAR LAGA ABHISAP WO DHONE KE LIYE VIWAS HAI.. JAISE CONGRESS SE NIKLI HAR PARTY KE SATH YE JUDA HOTA HAI KI KABHI TO HAMNE DESH KI AAJADI ME ROLE ADAA KIYAA THA, WAISE HI BJP SE NIKLNE WALI PARTIES KE SATH YE KAHAWAT JUDNI HI HAI KI ..NIKLE TO RSS SE HI HAI AUR BABRI MASID TODNE ME YE BHI SHARIKH THE..KAISE DAMAN BACHAYEGE..BJP KA NAAM HI SANSAY HAI ..WO VIKALP DENE KE LIYE BANI HI NAHI HAI..
sir aap zee chod diye kya???
RSS jati ko nahi Manta for bjp aarkshan ka support Kaise kar sakti hai
RSS jati ko nahi Manta for bjp aarkshan ka support Kaise kar sakti hai
Post a Comment