संघ अछूत हो या ना हो लेकिन संघ सर्वमान्य नहीं है, इस सच को तो संघ भी नकार नहीं सकता है। असल में संघ के भीतर यह सवाल हेडगेवार से शुरु हुआ और गोलवरकर के जाते जाते चला भी गया कि संघ को सर्वमान्य कैसे बनाया जाये। क्योंकि गोलवरकर के बाद देवरस से लेकर मोहन भागवत तक के पास इसका जवाब नहीं है कि जब संघ समाज के शुद्दिकरण पर भरोसा भी करता है और स्वयंसेवकों का शुद्दीकरण भी करता है तो राजनीतिक क्षेत्र में आये स्वयंसेवक कैसे दागदार हो गये। ऐसा भी नहीं है दागदार स्वयंसवकों को लेकर संघ परिवार के बाहर सवाल उठे। मुशकिल यह है कि हाल के दिनो में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेन्द्र मोदी और नीतिन गडकरी से लेकर प्रवीण तोगडिया तक पर संघ के भीतर ही सवाल उठे। कोई भी स्वंयसेवक यह कह सकता है कि समाज में आदर्श स्थिति तो कोई होती नहीं है, इसलिये स्वयंसेवकों के काम के तरीके पर जिन्ना के सवाल से लेकर गुजरात में मंदिरों को तोड़ने तक पर अगर सवाल उठे तो वह तातकालिक थे। तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जिस हिन्दु संस्कृति का अलख संघ जलना चाहता है, वह क्या वाकई हिन्दुओं की संस्कृति से निकली हुई है। या फिर संघ ने अपने कामकाज के तरीको को ही संस्कृति मान लिया है। संघ की इन परिस्थितियों को टटोलने के लिये संघ के जन्म को ही राष्ट्र से जोड़ना भी जरुरी है। क्योंकि हेडगेवार कांग्रेस सदस्य के तौर पर समाजिक कार्य करते हुये राष्ट्रवाद की उस अलख को जगा नहीं पा रहे थे, जिस सपने को जगाने का सपना उन्होने आरएसएस के जरीये 1925 में पाला। लेकिन ऐसे क्या कारण रहे कि 1947 के बाद संघ की राष्ट्रवाद की सोच हिन्दुत्व के आवरण में समाने लगी और 21 वी सदी में कदम रखने से पहले ही हिन्दुत्व का आवरण भी भगवा रंग में समाने लगा।
असल में मु्श्किल यह नहीं है कि संघ सर्वमान्य नहीं है। मुश्किल यह है कि संघ के सरोकार समाज के हर हिस्से को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। फिर भी संघ को लगता है कि वह समाज के बहुसंख्य तबके को ना सिर्फ प्रभावित कर रहा है बल्कि समाज को उसी के रुप में ढल जाना चाहिये। लेकिन संघ के अपने अंतर्विरोध है क्या यह इस दौर में कही तेजी से उभरते हैं। मसलन अटल बिहारी वाजपेयी संघ के स्वयंसेवक तौर पर राजनीतिक क्षेत्र में सबसे ज्यादा सफल हुये हैं। और उस कतार में अब नरेन्द्र मोदी भी चल निकले हैं। लेकिन क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भीतर यह बहस संभव है कि कि एक वक्त संघ के स्वयंसेवक प्रधानमंत्री वाजपेयी ने संघ के प्रचारक रहे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पाठ पढ़ाया था। और राजधर्म के पाठ को और किसी ने नहीं संघ परिवार ने ही खुले तौर पर खारिज किया था। लेकिन यह लकीर वक्त के साथ संघ के लिये कितनी छोटी हो गई और देश के लिये कितनी बड़ी हो गई यह दोनो सच मोदी के बढते कद से समझे जा सकते है। परेशानी यह है कि संघ को लेकर आदर्श स्थिति से दूर साफगोई और ईमानदार पहल भी बार बार कठघरे में खड़ी हो जाती है। और हर बार किसी अबूझ पहेली की तरह संघ अपने साफ कुर्ते पर लगते दाग को साफ करता हुआ नजर आता है। यहां यह सवाल बेमानी है कि संघ बाकियों से तो साफ है। संघ बाकियो की तुलना में तो ईमानदार है। यह सवाल संघ को लेकर इसलिये मायने नहीं रखते क्योंकि संघ बाकियो को ध्यान
में रखकर नहीं बना बल्कि बाकियों के विकल्प के तौर पर बना। और पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने माना कि संघ की दृष्ठि भारतीय समाज को राष्ट्रवाद का नया पाठ पढायेगी। संघर्ष की नयी रोशनी देगी। शायद इसीलिये महात्मा गांधी हो या बाबा साहेब आंबेडकर दोनों ही संघ के समागम में पहुंचकर संघ की पीठ थपथापते हुये ही नजर आये। लेकिन यह मान्यता मौजूदा दौर में असम्भव है। और जब यह मान्यता नहीं मिलती तो संघ की तरफ अछूत कहलाने वाले सवाल उछाले जाते है तो संघ अपनी मान्यता पाने के लिये गेडगेवार और गोलवरकर के दौर की अपनी गरिमा को याद कर खुश हो लेता है। अतीत के आसरे भविष्य को तो मथा नहीं जा सकता और वर्तमान के लिये जिस संघर्ष, सादगी और शक्ति की जरुरत है अगर वह गायब है तो आरएसएस के हाथ क्या आयेगा।
इस मुश्किल सवाल का जवाब संघ अछूत है क्या ? के लेखक राजीव गुप्ता दे नहीं पाते हैं। और बहस सतही बन जाती है। जबकि संघ को लेकर समाज में पारंपरिक धरणा यही रही है कि राष्ट्रवाद की थ्योरी तले संघ को अपने कैनवास को भी इतना विस्तृत करना चाहिये जहां उसके पास स्वदेशी मंत्र हर क्षेत्र को लेकर हो। किसान से लेकर पिछड़े और जातियों में उलझे वोट बैंक की सियासत से लेकर साप्रदायिकता की लकीर को मिटाने वाली समझ पैदी करने की ताकत होगी। आदिवासी से लेकर महिलाओं के लिये स्वावलंबन की जमीन होगी। ध्यान दें तो संघ परिवार को वाकई मौजूदा दौर में देश के सामने वैकल्पिक व्यवस्था की सोच रखनी चाहिये थी। वह सक्षम हो या ना हो लेकिन इस दिशा में संघ के कदम बढ सकते थे। क्योंकि संघ की मान्यता सबसे बड़े परिवार के तौर पर देश में जरुर रही। लेकिन आरएसएस अगर संघ संस्कृति को ही हिन्दु संस्कृति मानने और मनवाने की सोच के साथ चल निकला तो उसका विजन या कहें दृष्टी संकीर्ण भी होती चली गई। इसलिये भारत को लेकर उसकी समझ हमेशा इंडिया से टकरायी। यानी सामाजिक संघर्ष का समूचा ताना बाना सत्ता के इर्द-गिर्द ही सिमटता चला गया। और सत्ता ने भी संघ पर उसी तर्ज में वार किया, जहां संघ अछूत लगे
या अछूत हो जाये। यह सत्ता की सफलता से ज्यादा बड़ी संघ की असफलता रही कि वह भी उसी कठघरे में संघर्ष करने लगा, जिस कठघरे को मिटाना संघ का काम था । ऐसे में विकल्प या सामानांतर नयी सोच को लेकर सामाजिक कार्य तो हुये नहीं सिर्फ भारत और इंडिया के बीच की दूरी पाटने के लिये भारत के भीतर संघ संस्कृति का आक्रोश समाता गया। जबकि राष्ट्रीय स्वयं संघ ना तो इतने छोटे कार्य के लिये बना था और ना ही मौजूदा वक्त में उसके संगठन का विस्तार इतनी छोटी समझ रखकर लंबे वक्त तक टिक सकता है। जाहिर है संघ मौजूदा वक्त में एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां स्वयंसेवकों के सामने ठीक वैसे ही सवाल है जैसे आजादी के बाद सत्ताधारियो को लेकर आम लोगो में थे। चूंकि सत्ता पर स्वयंसेवक के काबिज होने और काबिज कराने में ही संघ का समूचा चिंतन और उर्जा खप रहा है तो राजनीतिक स्वयंसेवक का महत्व संघ के भीतर भी सबसे ज्यादा हो चुका है। एक वक्त दत्तोपंत ठेगडी सरीखे वरिष्ठ स्वयंसेवक को भी स्वदेशी जागरण मंच के बैनर तले तात्कालिन वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा के बाजारवादी अर्थव्यवस्था से संघर्ष करना पड़ता है। जबकि सरकार स्वयंसेवक वाजपेयी की थी। और बीतते वक्त के साथ सरसंघ चालक मोहन भागवत के दौर में उन्हीं मुरलीधर राव को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल होना पड़ता है जो ठेंगडी के प्रिय भी थे और स्वदेशी अर्थव्यवस्था को लगता भी था कि बीजेपी जब जब आर्थिक सुधार के नम पर फिसलेगी तब तब मुरलीधर
सरीखे युवा स्वदेशी जागरण मंच के स्वयसेवक विकल्प का रास्ता सुझायेंगे। यानी संघ की विकल्प की धारा ही लुप्त हो गई और वह उसी सियासत में समाने के लिये बेचैन है। सौ बरस से कम के संघ परिवार की सोच इस तरह भौथरी होगी यह तो होहगेवार ने भी नहीं सोचा होगा। और संगठन को विस्तृत करते गुरु गोलवरकर ने भी कभी महसूस नहीं किया होगा।
याद किजिये तो महात्मा गांधी की हत्या के बाद नेहरु की सत्ता ने संघ को खारिज इसलिये किया था क्योंकि संघ को लेकर उस दौर में यह माना गया कि उसका विश्वास भारत के संविधान पर नहीं है। और खुद संघ का भी अपना कोई संविधान नहीं है। तब गुरु गोलवरकर ने आरएसएस का संविधान बनाकर तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल को सौंपा। लेकिन मौजूदा हालात में क्या संविधान के जरीये देश के कल्याण की बात कही जा सकती है। संविधान जो अधिकार आम आदमी को देता है वह अधिकार आज की तारिख में सत्ता के लिये लड़ते राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो का हिस्सा बन चुके हैं। राजनीतिक दल संविधान से ही छल कर रहे हैं। सत्ताधारी संविधान को ढाल बनाकर अपने अपराध को विशेष अधिकार में तब्दील किये हुये हैं। कानून भी पैसे वालों की रखैल बन चुका है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक इस देश के सौ करोड़ चाहकर भी पहुंच नहीं सकते। जो पहुंचता है वह खुद को बेच चुका होता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पीने के पानी जैसी न्यूनतम जरुरतों को भी धंधे से उसी आर्थिक व्यवस्था ने जोड़ा है जो विकास दर के आईने में देश की खुशहाली देखती है लेकिन संविधान के उस सच को खारिज करती है जो देश के नागरिकों के लिये लिखा गया। नरेगा, खाद्सुरक्षा विधेयक, बेटी बचाओ अभियान, पीडीएस सिस्टम , एक बल्ब योजना, पहले घर के लिये बिना इंटरेस्ट लोन और ना जाने क्या क्या योजनाये देश में उसी दौर में आयी हैं, जब संघ परिवार इन सारे क्षेत्रों में बकायदा अलग अलग संगठन के जरीये ना सिर्फ अलख जगाने का दावा कर रहा है बल्कि उसे लगने लगा है कि देश उसके भरोसे जाग जायेगा। लेकिन जरा सोचिये जिस देश की व्यवस्था जिन्दगी चुनावी सत्ता के नाम गिरवी रखवाकर जीने का हक दे उस देश में संविधान और आजादी के मतलब क्या है। संघ की सोच इस दायरे में कहां टिकती है। असल में संघ अछूत है या नहीं, यह सवाल भी वर्तमान हालात में बेमानी हो चले हैं क्योकि संघ को लेकर भरोसा उसी समाज का टूटा है, जिसका भरोसा सियासत और चुनावी सत्ता को काफी पहले ही टूट चुका था। और चूकि संघ के कामकाज आजादी के बाद चीन से युद्द का वक्त हो या इमरजेन्सी का दौर भरोसा आम लोगो में था। इसलिये संघ से भरोसा टूटने का मतलब है कहीं ज्यादा सामाजिक अवसाद लोगो के जहन में उतरना। और उसी का नतीजा है कि संघ को लेकर बहस समझौते ब्लास्ट या मालेगांव घमाके के बीच भी
होती है। और डांग के आदिवासियो से लेकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढहाने पर भी सिमटती है। मोदी के 2002 के आचरण में भी संघ का हिन्दुत्व ही नजर आता है और विकास की अंधी दौड में बीजेपी का शरीक होना भी संघ के भीतर के परिवर्तन को ही दिखलाता है। यानी जो संघ साफगोई के साथ देश को एक दिशा देने में आगे बढ़ सकता है, वह संघ आज अपने आस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुये दिखायी देता है। क्योंकि संघ के पास युवा पीढी के लिये कोई सरोकारी-सांस्कृतिक समझ नहीं है। किसान मजदूर को लेकर कोई पेट भरने का विजन नहीं है। आदिवासियो को मुख्यधारा से जोड़कर उनकी अपनी जमीन पर उन्हें खड़ा करने का माद्दा नहीं है। महिलाओ के जरीये समाज को आगे बढ़ाने की हिम्मत वाली समझ नहीं है। सत्ताधारियो को सिर्फ चुनावी तंत्र का हिस्सा बतलाने की हिम्मत नहीं है। अपने राजनीतिक स्वयसेवकों को राजनीति की वैकल्पिक धारा खिंचने देने का ज्ञान नहीं है। तो फिर संघ का मतलब क्या उसके अपने घेरे में संघ संस्कृति को जिन्दा रखना भर है। शायद आरएसएस मौजूदा वक्त में इसी मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, जहां उसकी अपनी एक संस्कृति है जिसका सम्यता के विकास से कोई लेना देना नहीं है। और यह स्थिति अछूत कहलाने से ज्यादा बुरी है।
Tuesday, March 19, 2013
सिर्फ अपने में सिमट गया है आरएसएस
Posted by Punya Prasun Bajpai at 10:58 AM
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6 comments:
ये नौकरी ब्लाग पर तो छोडिये
डिअर प्रसूनजी , आपका जी न्यूज़ वाला फॉर्मेट परफेक्ट था । पूरे दिन के खबरों का सारांश आप आधे घन्टे में ही बड़े अच्छे ढंग से सुनते थे । आज तक वाले फॉरमेट में मज़ा नहीं आ रहा है । रिपोर्टिंग करना , एक्सपर्ट्स के साथ चर्चा करना सब ठीक है , पर न्यूज़ जो "दस तक" में आता था उसका कुछ और ही मज़ा था । कुछ किया जाये ।
ब्रजेश
मेरे विचार से तो संघ अछूत नही माना जाना चाहिए ,संघ के शिविर बिना भेदभाव के राष्ट्रभक्ति कि अलख जगाने में लगे है ,इनमें कोई भी देशवासी झा सकता है !अब तो मुस्लिम भी इन शिविर में जाते है ,फिर इसके अलावा संघ सामाजिक सहयोग के लिए भी अनेक कार्य करता है !भूकंप कि तबाही हो या अति वृष्टि कि मार ,स्वंय सेवक हर जगह आगे खड़े मिलते है तो बदले में उन्हें अछूत क्यूँ समझा जाएँ ???
बाजपेयी जी कोई भी सर्वमान्य नहीं हो सकता अगर ऐसा होता तो मुसलमान श्री राम की पूजा करते और हिन्दू अल्ला की ?
इसका मतलब ये नहीं की जो सर्वमान्य हो वही सही ?
मिडिया भी तो जितना प्रचार संघ का करना चाहिये उतना कभी नही किया ..जितना बेवकूफ नेतावो का गुडगान मिडिया करता नजर आता है ?
आपको संघ के विरुद्ध बक-बक करने के लिए किसी ने पे-रोल पर रखा है क्या ?
Only one thins i can comment here "Punyaji never understood concept of RSS. He should first get what is RSS and how it works" then after his any write-up will make sense.
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