भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर दो दशक पहले वीपी सिंह सड़क पर निकले जरुर थे, लेकिन तब भी वीपी सिंह के सामने सवाल यही था कि कांग्रेस को मात देने के लिये मुस्लिम वोट बैंक को साथ खड़ा करना ही होगा। और याद कीजिये तो तब संघ परिवार के अयोध्या आंदोलन के खिलाफ वीपी ने खूब आग उगली थी, लेकिन बोफोर्स घोटाले को लेकर भाजपा के नेता का समर्थन भी किया और गाहे बगाहे वाह वाह भी किया था। और सत्ता में पहुंचने के लिये दामन बीजेपी ने ही वीपी को थमाया। उसके आगे के किस्से पर ना जाइये सिर्फ मौजूदा वक्त में मुलायम सिंह यादव और भाजपा के बीच बनती उस महीन डोर को पकड़ने की कोशिश कीजिये जो मुलायम सिंह यादव को धीरे धीरे लालकृष्ण आडवाणी भाने लगे हैं। लेकिन संघ के हिन्दुत्व या मुस्लिमों के लिये खलनायक को तौर पर देखे जाने वाले नरेन्द्र मोदी का सवाल आते ही मुलायम भड़काते हैं। यानी मुलायम इस हकीकत को राजनीतिक तौर पर पकड़ना चाहते हैं कि बीजेपी अगर मोदी के आसरे ही लोकसभा चुनाव के लिये खुद को तैयार कर लेती हैं तो विरोध इतना तीखा होना चाहिये, जिससे की मुस्लिमों को यह लगे की मुलायम कांग्रेस की तुलना में कही ज्यादा अल्पसंख्यकों के हिमायती हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद जब आंकड़ों की जरुरत पड़े तो मुलायम और बीजेपी एक दूसरे के लिये खड़े हो सकें। इसके लिये मुलायम ने बीजेपी के भीतर दिल्ली की चौकड़ी को सेक्यूलर और राजनीतिक समझ वाला बताना शुरु कर दिया है। जाहिर है यहां सवाल कांग्रेस का उठ सकता है कि वह क्या यह नहीं समझ पा रही है कि अगर न्यूज चैनलों को सर्वे में मुलायम उत्तर प्रदेश के सबसे बडे खिलाडी के तौर पर मुस्लिमों के बीच उभर रहे हैं तो कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं बचेगा। यकीनन कांग्रेस इस हकीकत को समझ रही है, लेकिन कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह अगर नरेन्द्र मोदी को विकास के नाम पर राजनीतिक तौर पर पकड़ती है तो मोदी को ही लाभ होगा और अगर हिन्दुत्व के कार्ड पर मोदी को घेरती है तो उसे कोई लाभ नहीं होगा। ध्यान दें तो बिहार में नीतिश भी इसी राह चल पड़े हैं। और बंगाल में ममता बनर्जी भी मोदी को हिन्दुत्व के कार्ड तले ही पकड़ रही है। यानी मनमोहन सरकार के बनते खलनायक से बीजेपी के धुर विरोधी ही कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक में सेंघ लगाने की सियासत शुरु कर चुके हैं।
यानी पहली बार कांग्रेस के सामने मुश्किल है कि अपनी ही सरकार के विरोध के जरीये सत्ता पाने की कवायद उसे करनी है। जो मनमोहन सिंह के विरोध से लगातार उभरने लगी है। कांग्रेस के भीतर ही तर्क गढ़े जा रहे है कि मनमोहन का विकल्प मनमोहन के जरिए ही कांग्रेस को पैदा करना होगा। अन्यथा उसके पास कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि आर्थिक नीतियों के जिस रास्ते पर मनमोहन सिंह ने देश को ढकेल दिया है, उसमें पहली बार यूपीए-2 के दौर के घोटाले और आर्थिक आंकडे ही बताने लगे हैं कि खेती से लेकर उघोग और सेंसेक्स से लेकर खुले बाजार तक पर उसकी पकड़ ढीली हो चुकी है। यूपीए-2 अगर चार बरस पूरा होने पर ही हांफती नजर आ रही है तो उसकी बडी वजह यूपीए-1 की पोपली आर्थिक जमीन है। यूपीए-1 सफल इसलिये रही क्योकि उसे एनडीए के दौर की मजबूत आर्थिक जमीन मिली । इसे इस रुप में भी समझा जा सकता है कि 10 जनवरी 2008 में जो शेयर बाजार 21208 को छू रहा था उसके बाद के पांच बरस चार महिने में भी उसके आगे ससेक्स बढ नहीं पाया । फिर शेयर बाजार का मार्केट कैप और जीडीपी के कैप में इतना तर आ गया कि विदेशी निवेश ही शेयर बाजार को संभालने लगा । फिलहाल शेयर बाजार का मार्केट कैप 65 लाख करोड का है तो जीडीपी 113 लाख करोड का । और अर्थशास्त्र का कोई छात्र भी बता सकता है कि जीडीपी के बराबर शेयर बाजार के मार्केट कैप को आना ही पडेती है । यानी विदेशो में मंदी के दौर में भी भारत में विदेशी निवेश मुनाफे के लिये लगता ही रहेगा ।
लेकिन सियासत के इन दो छोर से इतर पहली बार एक तीसरा छोर भी सियासी तौर पर देश में हाशिये पर है और वह है वामपंथ की धारा। वाम सोच को मौजूदा वक्त में कही फिट माना नहीं जा रहा है क्योंकि पहली बार कारपोरेट से लेकर गवर्नेस के सवाल में वामपंथ को विकल्प की धारा तो मानना दूर तीसरे मोर्चे के साथ खड़ा करने में तीसरा मोर्चा ही कतरा रहा है। यानी पहली बार देश का सियासी माहौल विकल्पहीन विकल्प का रास्ता बनाने में जुटा है।
Friday, May 24, 2013
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विकल्पहीन विकल्प का रास्ता |
Monday, May 20, 2013
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अर्थशास्त्री ली कचियांग ने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को ताड़ा |
क्या अर्थशास्त्री ली कचिंयांग ने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को ताड़ लिया है। क्या मनमोहन के बाजारवाद में अब चीनी सामानों की खुली घुसपैठ होगी। क्या उत्पादन समझौते से चीन भारत की खेती पर भी कब्जा करेगा। क्या चीन पड़ोसियो के जरीये भारत को सरहद पर घेरेगा। क्या चीन की नयी विदेश नीति भारत की आत्मनिर्भरता खत्म करने की है। यह सारे सवाल इसलिये क्योंकि जिस तरह चीन के साथ मीट, मछली, पानी, उत्पाद, इन्फ्रास्ट्रकचर और आपसी संवाद या रिश्तों को लेकर समझौते हुये, उसने कई सवाल समझौते के तौर तरीको को लेकर ही खड़े कर दिये हैं। मसलन चीनी सैनिकों ने लद्दाख में खुल्लम-खुल्ला घुसपैठ की। 22 किलोमीटर तक घुस आये। टैंट अभी भी भारत की सीमा के भीतर लगे हुये हैं। लेकिन चीन के प्रधानमंत्री के साथ खडे हुये तो मनमोहन सिंह घुसपैठ शब्द तक नहीं कह पाए। बोले घटना हुई। समझौते को लेकर कहा गया कि बॉर्डर मेकैनिज्म को और कारगर बनाया जाएगा। लेकिन कैसे, ना विस्तार से चर्चा हुई और ना ही कुछ बताया गया। और तो और चीन ब्रह्मपुत्र नदी के बहाव की जानकारी साझा करेगा यानी भारत में बाढ़ आने से पहले चीन बता देगा कि क्या होने वाला है, लेकिन मनमोहन सिंह यह भी पूछ नहीं पाये कि नदी पर जो डैम बनाए गए हैं, उस पर तो कोई जानकारी दीजिये ।
फिर आर्थिक-व्यापारिक समझौतों ने बता दिया कि जो कारोबार अभी 66 अरब डॉलर का है वह समझौतों के बाद बढ़कर 100 अरब डालर हो जायेगा। यानी अभी चीन की कमाई भारत के साथ तमाम व्यापारिक रिश्तों के 80 फिसदी लाभ की है, वह समझौते के बाद 90 फिसदी तक पहुंच जायेगी । तो फिर मनमोहन सिंह कर क्या रहे थे। जबकि इसी दौर में समझना यह भी चाहिये कि चीन भारत को चौतरफा घेर रहा है। पाकिस्तान के पीओके और अक्साई चीन ही नहीं बल्कि ग्वादर बंदरगाह उसके रणनीतिक कब्जे में हैं। श्रीलंका के हम्बटोटा बंदरगाह पर उसी का कब्जा है। बांग्लादेश की सेना में जल, थल वायु तीनो के लिये चीनी हथियार, टैंक, जहाज सभी चीनी ही हैं। जबकि यह वही चीन है जो बांग्लादेश को मान्यता देने के लिये 1971 में तैयार नहीं था। यही हाल म्यांमार का है। वहां भी चीन ने भारी निवेश किया है। नेपाल के साथ तो हर स्तर पर अब चीन जा खड़ा हुआ है । यानी भारत की चौतरफा घेराबंदी चीन के प्रधानमंत्री ली कचिंयाग ने शुरु की है। यह अलग बात है ली कचिंयाग ने राजनीति 1962 के बाद शुरु की। लेकिन जो रणनीति चीन बिछा रहा है उस बिसात को चीनी प्रधानमंत्री की मौजूदा यात्रा से ही समझना चाहिये कि दिल्ली से मुंबई होते हुये वह पाकिस्तान ही जायेंगे।
Wednesday, May 15, 2013
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गांधी मैदान को ना ठगिये |
परिवार, परिवर्तन या पद। चाहिये क्या । पटना के गांधी मैदान में पटे पड़े पोस्टर को देख कर हर किसी ने कहा परिवार। पोस्टर को पढ़ा तो हर किसी को लगा बात तो परिवर्तन की हो रही है। और जब भाषण हुआ तो लगा लड़ाई तो सत्ता की है, पद पाने की है। पटना के गांधी मैदान ने इतिहास बनते हुये भी देखा है और बने हुये इतिहास को गर्त में समाते हुये भी देखा है। लेकिन पहली बार गांधी मैदान ने जाना समझा कि वक्त जब बदलता है तो संघर्ष के बाद परिवर्तन से ज्यादा संघर्ष करते हुये नजर आना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सवाल लालू यादव के लिये इसलिये है क्योंकि कभी जेपी के दांये-बांये खड़े होकर लालू और नीतीश दोनों ने इंदिरा गांधी को घमंडी और तानाशाह कहते हुये जेपी की बातों पर खूब तालियां बजायी हैं। और सत्ता में खोते देश में सत्ता के लिये हर संघर्ष करने वाले को सत्ताधारी अब तानाशाह और घमंडी नजर आने लगा है। यह सच भी है कि कमोवेश हर सत्ताधारी तानाशाह और घमंडी हो चला है। लेकिन इसे तोड़ने के लिये क्या वाकई कोई राजनीतिक संघर्ष हो रहा है। असल में लालू यही चूक रहे हैं और नीतिश इसी का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल, इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पटना के गांधी मैदान में लालू यादव और नीतिश कुमार ने 1974 से 1994 तक एक साथ संघर्ष किया। और अब इसी गांधी मैदान से नीतिश की सत्ता डिगाने के लिये लालू यादव अपने बेटे की सियासी ताजपोशी करते दिखे।
और गांधी मैदान जो बिहार ही नहीं देश की बदलती सियासत का गवाह रहा है, उसे एक बार फिर उसे संघर्ष में सत्ता पाने का लेप लगते हुये देखना पड़ा। क्योंकि जेपी और कर्पूरी ठाकुर के दौर में नाते-शिश्तेदारों के खिलाफ राजनीतिक जमीन पर खड़े होकर संघर्ष करने की मुनादी करने वाले लालू यादव कितना बदले इसकी हवा परिवर्तन रैली में बहेगी। परिवर्तन की नयी बयार बिहार की सियासत के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी तक सत्ता के लिये लालू का हर संघर्ष नीतिश की सत्ता को ही मजबूत करता रहा है। और नीतिश हमेशा ठहाका लगाकर यह कहने से नहीं चूकते कि मुझे हटाकर क्या लालू की सत्ता चाहते हैं। और बिहार की जनता खामोशी से नीतिश धर्म को ही बेहतर मान चुप हो जाती है। लेकिन इस बार लालू का वार दोहरा है, जिसमें वह खुद को माइनस कर चलते दिखे और गांधी मैदान में युवा बिहार के लिये अपने बेटों के जरीये विकल्प का सवाल उठाते दिखे तो मोदी के डंक को मुस्लिमो को चुभाकर नीतिश के आरएसएस के गोद में बैठने की बात भी कह गये।
लेकिन लालू की सबसे बड़ी मुश्किल वही कांग्रेस है, जिसकी पीठ पर सवार होकर उन्होंने दिल्ली की सत्ता का स्वाद भी लिया। अब वही कांग्रेस लालू को पीठ दिखा कर नीतिश को साधने में जुटी है। और लालू के पास इसका जवाब नहीं है जबकि कभी जेपी ने गांधी मैदान में जब नारा लगाया था इंदिरा हटाओ देश बचाओ तब लालू जेपी के साथ खड़े थे। ऐसे मोड़ पर गांधी मैदान परिवर्तन की गूंज कैसे सुन पायेगा और परिवर्तन के नाम पर सिर्फ भीड भड़क्का को ही देखकर इतना ही कह पा रहा है कि लालू का मिथ टूटा नहीं है। क्योंकि भरी दोपहरी और फसल में फंसे किसान-मजदूरों के बीच भी रैली हो गई। यह अलग बात है कि रैली ने यह संदेश भी दे दिया कि बिहार परिवर्तन चाहता है और उसे विकल्प की खोज है। लेकिन कोई परिवार, परिवर्तन या पद के नाम पर गांधी मैदान के जरीये बिहार को ठग नहीं सकता है।
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अपनी छवि से जुझते मोदी |
नरेन्द्र मोदी की माया और मोदी के बाबू। 2002 से लेकर 2007 तक तक तो हर जुबान पर यही रहा। लेकिन महीने भर पहले ऐसा क्या हुआ कि मोदी ने माया कोडनानी से भी पल्ला झाड़ा और बाबू बजरंगी से भी। जिस माया बेन को दंगों के दाग के बावजूद मोदी ने मंत्री बनाया और जिस बाबू बजरंगी को मोदी सरकार के मंत्रियों ने हत्या करने के बाद भी फरार करवाया, उसी माया और बाबू को लेकर जो सवाल 10 अप्रैल को मोदी सरकार ने उठाये उसपर 10 मई को जिस तरह पलटे, उसने सबसे बड़ी राहत किसी को दी है तो वह माया बेन कोडनानी और बाबू बजरंगी ही हैं। सवाल है ऐसा क्या हुआ जो 30 दिनों में मोदी ने अपना ही निर्णय उलट लिया। 10 अप्रैल को माया बेन और बाबू बजरंगी के लिये फांसी की सजा मांगी थी मोदी सरकार ने। और 10 मई को मोदी सरकार ने ही फांसी की अपनी अपील वापस ले ली।
अब दलील यही दी जा रही है फांसी की अपील करने से पहले एडवोकेट जनरल से सलाह-मश्विरा नहीं किया गया। सियासी मजबूरी का मतलब साफ है कि माया बेन कोडनानी की पहचान नरोदा पाटिया में 2002 के बाद से अब तक जो है और बाबू बजरंगी ने बजरंग दल और विश्वहिन्दु परिषद की छतरी तले जिन नारों को 2002 में लगाया, वह दोनों ही मोदी की गुजरात प्रयोगशाला के सफल सियासी कैमिकल रहे। लेकिन 2012 की चुनावी जीत और 2014 के दिल्ली मिशन के लिये मोदी के बढते कदम के लिये यह सियासी कैमिकल फायदेमंद है या घाटे का सौदा इस पर कोई ठोस राय मोदी खुद अब तक नही बना पाये हैं। क्योंकि गुजरात के विकास पर गुजरात दंगे धब्बा भी है और राजनीतिक लाभ भी। दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाते मोदी को गुजरात प्रयोगशाला रोकती भी है और संघ परिवार ढकेलता भी है। विहिप और संघ से टकरा कर भी मोदी सिर्फ विकास का जाप करते हैं तो मोदी का अपना वोट बैंक डगमगाता है। यानी मोदी ने लिये मुश्किल यह है कि उन्हें एक छवि तोड़नी और एक छवि बनानी है। लेकिन बनी छवि तोड़नी भी मुश्किल है और सिर्फ नयी छवि के सहारे आगे बढ़ना भी मुश्किल।
2002 के मोदी और 2013 के मोदी में फर्क कितना भी ढूंढा जाये लेकिन राजनीतिक तौर पर मोदी 2002 की छवि से मुक्त हो नहीं पायेंगे। मोदी 2014 के मिशन के लिये 2002 का रास्ता छोडने के लिये छटपटायेंगे जरुर। लेकिन जिस हिन्दुत्व के आसरे मोदी की छवि को तलाशा जा रहा है उसका सच है क्या। ध्यान दें तो हिन्दुत्व की जमीन पर खड़े विहिप और हिन्दु महासभा से मोदी का छत्तीस का संबंध है। इसलिये जैसे ही मोदी सरकार ने फांसी की मांग वापस ली वैसे ही विहिप ने मोदी पर यह कहते हुये दोहरा हमला कर दिया कि मोदी सरकार हिन्दुत्व के भी खिलाफ है और लिबरल बनने के चक्कर में सियासत भी कर रही है। बकायदा गुजरात विहिप के महासचिव रणछोड भाई ने बयान जारी किया। और तीन सवाल रखे- पहला माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को पूरी तरफ माफ किया जाये। दूसरा जितने भी हिन्दुओं के खिलाफ मामले हैं, वह खारिज किये जायें और तीसरा एसआईटी का बहाना लेकर मोदी फांसी पर सियासत कर रहे हैं। दूसरी तरफ मोदी को लेकर संघ भी बंटा हुआ है। संघ का एक धड़ा तो हिन्दुत्व के मसले विहिप के ही खिलाफ है तो आरएसएस के भीतर मोदी का खुला विरोध कट्टर हिन्दुत्व वाला धड़ा ही करता है। वहीं बाबरी मस्जिद पर ताल ठोकने वाली शिवसेना ही मोदी का विरोध करती है। लेकिन राजनीतिक तौर पर कांग्रेस कभी मोदी को हिन्दुत्व से इतर मानाने को तैयार नहीं है। और 2007 में सोनिया गांधी का मोदी को मौत का सौदागर कहना इसकी पहचान है। असल में मोदी पहली बार कांग्रेस की राजनीतिक जमीन और बीजेपी की दिल्ली चौकड़ी में फंस चुके हैं। कांग्रेस को बीजेपी में हिन्दु लाइन बरकरार रखनी है तो सबसे लोकप्रिय नेता में हिन्दुत्व का लेप लगाना ही होगा। तभी मुस्लिम वोट उसकी छोली में आ सकते है। इसलिये 2009 में आडवाणी हार्ड थे और 2014 के लिये मोदी को हार्ड बनाना दिकाना ही होगा। और दूसरी तरफ बीजेपी की दिल्ली चौकडी गठबंधन की सियासत तले खुद को लिबरल ठहराने के लिये मोदी पर कट्टर हिन्दुत्व का तमगा ठोकेगी ही । आडवाणी लिबरल हो चुके है । सुषमा और जेटली तो कानूनची रहे और संघी रंग में लगे नहीं । यूं बीजेपी की सियासत का यह सच भी है कि जब वाजपेयी कट्टर थे तो संघ उनके साथ था । सत्ता मिलने के बाद वाजपेयी ने संघ से खुद को दूर किया तो वाजपेयी लिबरल लगने लगे और आडवाणी कट्टर हो गये । और अब आडवाणी खुद को बीजेपी या संघ से दूर कर रहे है तो उनकी छवि लिबरल बनायी जा रही है और मोदी कट्टर नजर आते है । लेकिन सच यही है कि मोदी को लेकर संघ भी उसी उहापोह में है जिसे लेकर बीजेपी के लिबरल। तो मोदी क्या करें।