Wednesday, July 3, 2013

खाकी का खून बहेगा, खादी मौज करेगा और नक्सलियों को ग्रामीणों का साथ मिलेगा

गृह मंत्रालय के नक्शे में झारखंड का संथाल परगना नक्सल प्रभावित इलाके में आता ही नहीं है, जहां नक्सलियों ने एक एसपी समेत 6 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी। दिल्ली में बैठी सरकार की रिपोर्ट में झारखंड के 16 जिले नक्सल प्रभावित जरुर हैं और इन 16 में से 9 में नक्सलियों के ट्रेनिंग कैप चलते हैं। लेकिन संथालपरगना के सभी 6 जिलों को नक्सल से मुक्त देश का गृहमंत्रालय मानता है। जबकि मंगलवार को झारखंड के दुमका जिले में नक्सली हमला हुआ है। इस हमले में दुमका से सटे पाकुड जिले के एसपी अमरजीत बलिहार समेत 5 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई। और दो पुलिसकर्मी घायल हो गये। लेकिन हमला जिस तर्ज पर हुआ उसने सरकार के नक्सलियों से भिड़ने के तौर तरीके पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। क्योंकि हमला इतना सुनियोजित था जिससे साफ लगता है कि नक्सलियों की इस इलाके में ना सिर्फ पैठ है बल्कि वह पूरी तरह इलाके में अपनी सरकार चलाते हैं। हमला दुमका और पाकुड की सीमा पर काजीकुंड में हुआ। जिससे एक जिले में हमले को अंजाम देकर दूसरे जिले से भागने या छुपने में इन्हे कोई परेशानी नहीं हुई। नक्सलियों ने हमला झुंड में किया। यानी बड़ी तादाद में नक्सलियो की मौजूदगी इस इलाके में है। जमीनी सुरंग को उस रास्ते पर ही लगाया गया, जिस रास्ते पाकुड एसपी का काफिला डीआईजी के साथ बैठक करने के लिये दुमका गया था। और उसी रास्ते लौटते वक्त विस्फोट से पहले गाड़ी ठस की गई। उसके बाद बंदूकों से पुलिस काफिले को निशाने पर लिया। यानी नक्सलियो को ना सिर्फ इलाके का भूगोल पता है बल्कि हमला करने के बाद राज्य पुलिस या सीआरपीएफ टीम को भी पहुंचने में जितना वक्त लगा उसमें भारी तादाद में हमलावर नक्सली आसानी से टहलते हुये निकल गये।

महत्वपूर्ण यह भी है संथालपरगना में नक्सलियों से प्रभावित माना नहीं गया है तो वहा सुरक्षा के कोई बंदोबस्त भी ऐसे नहीं है, जिससे नक्सली हमले से बचा जा सके। जाहिर है अपनी तरह के इस पहले नक्सली हमले ने जहां बढ़ते रेड कॉरीडोर को दिखला दिया है, वहीं सरकार नक्सलियों के रेडकारिडोर को लेकर किस मिजाज में जीती है इसका अंदेशा भी दे दिया है। महत्वपूर्ण है कि संथाल परगना के सभी छह जिले को नक्सल प्रभावित घोषित करने की मांग लगातार संथाल परगना के सांसद दिल्ली में करते रहे हैं। गोड्डा के सांसद निशीकांत दुबे ने तो 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2011 में चिदंबरम को 2012 में योजना आयोग और शिंदे को पत्र लिख कर सभी छह जिलों को नक्सल प्रभावित करने की मांग की। और जो हालात नक्सलियों पर नकेल कसने के सरकारी कामकाज के हैं, वह तो सुभान अल्लाह। क्योंकि 92 नये थाने बनाने का एलान 2011 में हुआ , लेकिन बना एक भी नहीं। क़्योकि बजट नहीं है तो 18,000 पुलिसकर्मियों का पद रिक्त पड़ा है। केन्द्र से आये बजट का 44 फिसदी का उपयोग ही नहीं हुआ। साइबर सुरक्षा, सरवाइलेंस सिस्टम और खुफिया ट्रेनिंग स्कूल अब तक नहीं है। दुमका के जिस काजीकुंड में नक्सली हमला हुआ, वहां पुलिस थाना भी नहीं है। और सरकारी दस्तावेज में नक्सल प्रभावित इलाका ना होने की वजह से यहां अर्दसैनिक बलों की कोई तैनाती भी है। इसलिये हमले के बाद यहां पाकुड और दुमका से पुलिस तो पहुंची लेकिन सीआरपीएफ नहीं पहुंच पायी। और जो जानकारी पुलिस ने दी उसके मुताबिक हमलावर नक्सलियो में बडी तादाद में आदिवासी थे।

तो सवाल तीन हैं। क्या झारखंड के आदिवासी नक्सलियों के साथ है। क्या पुलिस पर हमला कर आदिवासी अपने क्षेत्र को आजाद चाहते हैं। और क्या आदिवासियों में सरकारी योजनाओ को लेकर आक्रोश है। यह तीन सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चन्द्र देव ने 12 दिन पहले ही यह माना कि झारखंड के आदिवासियों में सरकारी योजनाओं और खनन को लेकर बेहद आक्रोश है। मंत्री ने 21 जून को बकायदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को पत्र लिखा।
जिसमें लिखा की संविधान की धज्जियां उड़ाते हुये गैर कानूनी तरीके से झारखंड में खनन हो रहा है और इसपर तत्काल रोक लगनी चाहिये। मंत्री ने संविधान के अनुच्चछेद 244 और शिड्यूल 5 का हवाला देकर आदिवासियों के अधिकारों के हनन का आरोप लगाया। और इसके लिये खास तौर से पश्चमी सिंहभूम के सारंडा इलाके का जिक्र किया।

लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि जिस पाकुड जिले के एसपी की मौत नक्सलियो के हमले में हुई उसी पाकुड के अमरापाडा में पंचवारा कोयले की खादान से कोयला निकाल कर पंजाब भेजा जा रहा है और यहां के आदिवासी लगातार उसका विरोध भी करते रहे हैं। लेकिन कोयला खादान के मालिक बंगाल इमटा और ईसीएल की बपौती ऐसी है कि विरोध करने वाले आदिवासियों को पकड़ कर मारने पीटने का काम पुलिस खादान मालिकों के इशारे पर करती रहती है।

असल में समूचे झारखंड में बीते दस बरस में ढाई दर्जन से ज्यादा ऐसी योजनाओं पर हरी झंडी दी गई है, जो आदिवासियों को उन्हीं की जमीन से बेदखल और संविधान के तहत आदिवासियों के हक के सारे सवाल हाशिये पर ढकेलती है। लेकिन कारपोरेट पैसे और योजनाओं के मुनाफे के खेल में समूचे झारखंड को ही ताक पर रखा गया है। और यही सवाल पहली बार मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल के आदिवासी मामलो के मंत्री ने भी उठाया है लेकिन कांग्रेस ने इस दिशा में कोई कदम उटाने के बदले झरखंड में जोड़ तोड़ से सरकार कैसे बने इसके लिये झमुमो के साथ कांग्रेस दिल्ली में बैठक में ही मशगुल है। और त्रासदी देखिये जब हमला हुआ उस वक्त दिल्ली में झारखंड के नेता काग्रेस के साथ बैठकर जोड़-तोड़ की अपनी सरकार बनाने में मशगुल थे। यानी खाकी का खून बहेगा और खादी मौज करेगा। वह भी उस इलाके में जहां 72 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। 73फिसदी महिलाएं एनीमिक हैं और 52 फिसदी बच्चे कुपोषित हैं।

4 comments:

Unknown said...

लिखते रहिये। आपका का लिखना कितनो को रास्ता दिखा देता है और कितनो को सड़क पर उतार देता है ये आप खुद नहीं जानते। अच्छा लेखक पढने वाले को भी लिखने वाला बना देता है।

Unknown said...

लिखते रहिये। आपका का लिखना कितनो को रास्ता दिखा देता है और कितनो को सड़क पर उतार देता है ये आप खुद नहीं जानते। अच्छा लेखक पढने वाले को भी लिखने वाला बना देता है।

Unknown said...

लिखते रहिये। आपका का लिखना कितनो को रास्ता दिखा देता है और कितनो को सड़क पर उतार देता है ये आप खुद नहीं जानते। अच्छा लेखक पढने वाले को भी लिखने वाला बना देता है।

Unknown said...

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