यह सोशल मीडिया की किस्सागोई है लेकिन इस किस्से में आजादी के बाद से इस देश को संभालने वाले चेहरों में 2014 को लेकर एक जबरदस्त उम्मीद और भरोसे का अक्स भी छुपा है। क्योंकि याद कीजिये तो कभी इससे पहले देश के किसी आम चुनाव को लेकर ऐसे हालात नहीं बने जिसमें लगे कि देश में वाकई कोई प्रधानमंत्री नहीं है। और जितनी जल्दी आमचुनाव हो जाये उतनी जल्दी देश का भाग्य बदलने वाला कोई चेहरा आ जाये। तो क्या महज 66 बरस की आजादी के बाद ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के एसिड टेस्ट का स्थिति आ गई है। क्योंकि वाकई 2014 सत्ता परिवर्तन का बरस साबित होगा। तो फिर मौजूदा वक्त में जो सवाल मनमोहन सरकार को लेकर उठ रहे हैं, क्या उसका समाधान सत्ता परिवर्तन से निकल जायेगा। और 2014 में देश की तस्वीर बदल जायेगी। तस्वीर बदलने का मतलब है कांग्रेस के बदले भाजपा और मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की जगह नरेन्द्र मोदी। लेकिन समाधान के रास्ते का मतलब क्या होगा । गुजरात मॉडल का पूरे देश में लागू हो जाना। अंबानी, अडानी या टाटा के जरीये गवर्नेस की साफ-सुधरी छवि बनाना। अल्पसंख्यकों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाना। दलित और पिछड़े समुदाय से लेकर गरीबी की रेखा से नीचे के करीब 70 करोड़ नागरिकों को उत्पादन प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास करना। सेवा क्षेत्र के सामानांतर औघोगिक उत्पादन और कृषि उत्पादन पर ज्यादा ध्यान देना। पाकिस्तान और चीन के साथ सेना का मनोबल बढाने वाले रिश्ते बनाने और सीमा सुरक्षा को लेकर देश में भरोसा पैदा करना। संभव है। मुश्किल है। अंतर्विरोध है। कुछ ऐसे ही सवाल हर मन में उठेंगे। तो क्या सत्ता परिवर्तन के बाद देश को लेकर कोई सवाल नहीं है। और परिवर्तन के बाद सत्ता संभालने को बेताब भाजपा या नरेन्द्र मोदी के पास भी कोई दूरदृष्टि नहीं है। या फिर पहली बार देश को लगने लगा है कि मनमोहन सिंह से निजात तो ले बाकि तो परिवर्तन के बाद देख लेंगे। अगर यह मिजाज है तो फिर सवाल मुद्दों का नहीं सिर्फ सरकार संभालने का है। क्योंकि सोशल मीडिया में अगर मनमोहन सिंह को लेकर किस्सागोई चल निकली है कि देश बगैर प्रधानमंत्री के भी चल सकता है तो उसकी वजह मनमोहन सिंह हैं, उनकी कैबिनेट ही है। लेकिन संसदीय लोकतंत्र का मतलब हमेशा राजनीतिक दलों की सरकार रही है। यानी राजनीतिक दल की विचारधारा। राजनीतिक दल का मैनिफेस्टो। लेकिन पहली बार मनमोहन सिंह के जरीये देश को एतिहासिक कांग्रेस कहीं दिखायी नहीं दी जो पिछड़े-गरीबों से लेकर हर समुदाय हर तबके के साथ सरोकार का सवाल उठाती रही । मनमोहन सिंह का कद तो नहीं लेकिन उनकी इक्नामिस्ट वाली छवि कांग्रेस से बड़ी हो गई। ठीक इसी तरह विकल्प की बिसात भी भाजपा से नहीं निकल रही बल्कि नरेन्द्र मोदी को ही मनमोहन सिंह का विकल्प मान लिया गया है और भाजपा इसी लीक पर जुट चुकी है। तो यहां भी राजनीतिक दल की विचारधारा, उसका मैनिफेस्टो गायब है। मोदी का कद पार्टी से बड़ा हो चला है। तो पहला सवाल लोकतंत्र के चुनावी संसदीय व्यवस्था पर है। क्या 2014 की परिस्थितियां राष्ट्रपति की व्यवस्था वाले चुनाव में ढल जायेंगी। और एक तरफ मोदी और दूसरी तरफ गांधी परिवार का कोई नुमाइन्दा आपस में टकरायेंगे। अगर संसदीय राजनीतिक लोकतंत्र का पहला एसिड टेस्ट यह होने जा रहा है तो दूसरी तरफ कैबिनेट के तौर तरीके भी बदल रहे हैं। ना तो अब सरदार पटेल और नेहरु के टकराव का दौर है और ना ही कामराज के काग्रेसी ढांचे की जरुरत बची है। इंदिरा इज इंडिया में तो फिर भी बात इंडिया की हो रही थी।
लेकिन मौजूदा वक्त में जो कैबिनेट काम कर रही है, अगर उसके कामकाज के तरीके देखे तो दो ही सवाल हो सकते हैं। पहला, कैबनेट का मतलब मनमोहन सिंह की इकनॉमी के अनुसार काम करना है और दूसरा देश को पूरी तरह विश्व अर्थव्यवस्था पर निर्भर बनाकर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट के घाटे -मुनाफे के अनुसार नीतियों को बनाना है। और ये नीतियां बजट से लेकर पंचवर्षीय योजना में दिखायी दें। कैबिनेट मंत्रियों के कामकाज को ही इससे परखा जा सकता है ।
खेती या किसान से कोई वास्ता कृषि मंत्री शरद पवार का नहीं है। प्याज की कीमत आसमान छुती है तो वाणिज्य मंत्री कहते है प्याज के निर्यात पर रोक लगनी चाहिये। लेकिन कृषि मंत्री कहते है निर्यात रोकेंगे तो किसानों को घाटा होगा। सरकार तय करती है कि ज्यादा कीमत में डॉलर से भुगतान कर पाकिस्तान और चीन से प्याज मंगायेंगे। लेकिन देश के किसानों को प्याज की ज्यादा कीमत नही देंगे। पाकिस्तान और चीन की घुसपैठ से लेकर सीमा पर समझौतो को खुल्लमखुल्ला तोड़ा जाता है लेकिन विदेश मंत्री अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत की महानता बरकरार रखने के लिये शांति और बातचीत पर अडिग रहते हैं। रक्षा मंत्री तो ना सिर्फ बयानों को बदलते हैं बल्कि देश में सबमैरिन विस्फोट से उड़ा दी जाती है और रक्षा मंत्री के लिये ही यह सस्पेंस रहता है। बोधगया और हैदराबाद में धमाके होते है और गृह मंत्री को कुछ पता ही नहीं चलता। रुपया एतिहासिक गिरावट पर पहुंचता है और वित्त मंत्री को कुछ भी समझ में नहीं आता। कोयला मंत्रालय से कोल ब्लाक्स की घपले वाली फाइले गायब हो जाती है और कोयला मंत्री से लेकर पीएमओ अलग अलग बयानबाजी में वक्त निकालते है। खनन के जरीये कारपोरेट लूट का नजार खुले तौर पर सामने भी आता है और खनन के जरीये खनिज संपदा को अंतराष्ट्रीय बाजार में बेचने वाली बहुराष्टरीय कंपनियों के साथ सरकार का रवैया भी सबसे प्यारा रहता है। यही हाल पेट्रोलियम मंत्री का है। सिर्फ पेट्रोल-डीजल की कीमतें ही नहीं बल्कि देश के भीतर जहां जहां से गैस और तेल निकाला जा सकता है वह भी औने पौने दाम में कारपोरेट दोस्तों में बांट दी जाती है। यानी सिर्फ देश के प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि बल्कि कैबिनेट के आधे दर्जन मंत्रियों के फेल होने की दास्तान भी 2014 के परिवर्तन से जुड़ चुके है। यानी 2014 का मतलब सिर्फ मनमोहन कैबिनेट की जगह मोदी कैबिनेट का सत्ता में आना होगा और यह कैबिनेट देश को नये रास्ते पर ले चलेगी। तो नया रास्ता होगा क्या। यह अभी तक ना भाजपा ने बताया ना ही नरेन्द्र मोदी ने कहीं किसी भाषण में जिक्र किया। तो क्या समाधान का रास्ता देश में अंधेरे की तरह है। शायद हां । हां इसलिये क्योंकि मनमोहन सरकार की नाकामियों की फेहरिस्त को भी नरेन्द्र हों या भाजपा दोनो ने पूंछ से पकड़ा है, सूंड को पकड़ने की हिम्मत किसी में नहीं है। सरलता से समझे तो संसदीय राजनीति चलाने वाली सूंड मनमोहन का साथ छोड़ अब नरेन्द्र मोदी के साथ जा चिपकी है । और यही वह व्यवस्था है जहा चेहरे बदलते हुये दिखायी देगें लेकिन व्यवस्था की आंच के बदलने का भरोसा किसी को दिखायी नहीं देगा। ऐसा क्यो लगता है तो इस सिलसिले को पकड़ने के लिये शुरुआत कहीं से कर सकते हैं। मसलन अभी फुड सिक्योरटी बिल। खाघान्न सुरक्षा सीधे सीधे देश में गरीबो की तादाद और तादाद बताने वाले मीटर से जुड़ी है। योजना आयोग ने जुलाई में देश के गरीबो की तादाद भी रखी और गरीबो के माप-दंड भी बताये। इसके लिये सरकार ने जो मापदंड अपनाये उसी मापदंड को साल भर पहले सरकार ने ही खारिज कर दिया था। बकायदा प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाकार काउंसिल के चेयरमैन डा सी रंगरजन की अगुवाई में पांच सदस्यी टीम बनाकर यह एलान किया गया कि गरीब कहा किसे जाये और गरीब होने के लिये क्या क्या होना चाहिये। इसे सी रंगराजन की टीम पता लगायेगी और उसी अनुसार आने वाले वक्त में सरकार गरीबों के आंकड़े का एलान करेगी। महत्वपूर्ण यह भी है कि मनमोहन सरकार के सत्ता में आने वाले बरस 2004-05 में गरीबों की तादाद 37.2 फीसदी से 2009-10 में घटकर 29.8 फिसदी के हो जाने पर ही यह
कहकर अंगुली उठायी गयी कि तेदूलकर कमेटी की जिस रिपोर्ट को देश में गरीबो के लिये आधार बनाटा गया वही मौजूदा वक्त में सही नहीं है। और इसे मनमोहन सिंह ने माना भी और 24 मई 2012 को बकायदा भारत सरकार की तरफ से प्रेस विज्ञप्ति जारी कर यह कहा गया कि गरीबों के बारे में जानकारी के लिये एक नया एक्सपर्ट पैनल बनाया जायेगा। जिसकी अगुवाई डा सी रंगराजन करेंगे और साथ में देश के जाने माने पांच अर्थसास्त्री डा महेन्द्र देव, डां के सुन्दरम, डा के महेश व्यास और डा के एल दत्ता रिपोर्ट तैयार करेंगे । और यह रिपोर्ट 2014 में आनी है । [देखे सरकारी विज्ञपती] । तो सरकार ने अपनी ही बात के उलट 2013 में गरीबो को लेकर नया आंकडा उसी तेदुलकर कमेटी के आधार पर जारी कर दिया जिसे साल भर पहले वह खुद ही खारिज कर चुकी थी। लेकिन यहा सवाल मनमोहन सरकार का नहीं है। सवाल विकल्प के लिये खड़े हो रहे नरेन्द्र मोदी का है। मोदी ने भी मनमोहन सरकार को फुड सिक्यरटी बिल का विरोध करते हुये पत्र लिखा। 7 अगस्त 2013 को लिखे पत्र में मोदी ने खाघान्न सुरक्षा को लेकर माइक्रो स्तर पर जो सवाल उठाये वह खाघान्न को बांटने और गरीबो की तादाद को लेकर है । साथ ही राज्य सरकार अपनी व्यवस्था के तहत जो अनाज बांट रही है उसपर कैसे असर पडेगा और कैसे खादान्न सुरक्षा लागू करने पर गरीबो को कम अनाज मिलेगा इसपर पांच सूत्र में बात समझायी [देखे पत्र] । लेकिन सी रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट आने से पहले सरकार कैसे फुड सिक्योरटी बिल के तहत गरीबो को अनाज बांटने पर संसद में सहमति बना लेती है . इतना ही नहीं एक तरफ नरेन्द्र मोदी जिन सवालो को उठाकर फुड सिक्योरटी बिल को रोकने की बात कहते है उनकी पार्टी तमाम विरोधाभास के बावजूद लोकसभा सरकार के साथ फुड सिक्योरटी पर खडी नजर आती है ।
एक तरफ पार्टी का रुख दूसरी तरफ मोदी का रुख क्या देश को ठोस विकल्प देने की स्थिति में मोदी को लेकर आता है यह एक सवाल है । यानी गरीबो को लेकर जो सवाल सरकार खुद ही उठा रही है उसपर मोदी का ध्यान नहीं गया या फिर उसे अनदेखा करना मोदी की सियासी जरुरत है यह तो दूर की गोटी है लेकिन जो बुनियादी सवाल है उस पर कैसे विकल्प देने निकले नरेन्द्र मोदी की भी आंखें बंद रहती है यह आने वाले वक्त का संकेत भी है । क्योकि मनमोहन सिंह जो छोड कर जायेंगे, उसमें बात खनन और इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर भारत निर्माण तक की आयेगी। 2007 में मनमोहन सिंह ने बारत निर्माण शुरु किया और इसी वक्त गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने वाइब्रेंट गुजरात। भारत निर्माण से देश में क्या हुआ या वाइब्रेंट गुजरात से गुजरात में कैसी चकाचौंध आयी यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन 2007 से 2013 तक सिर्फ बारत निर्माण के प्रचार में 35123 करोड़ फूंक जरुर डाले गये। और वाइब्रेंट गुजरात के प्रचार में खर्च 18 हजार करोड़ से ज्यादा का हुआ। सवाल यह नहीं है कि इतना खर्च किस कीमत पर हुआ सवाल देश को चलाने का मॉडल का है। एक तरफ देश का पेट भरने के लिये अनाज बांटने को लेकर हंगामा मचा है क्योंकि इसका सालाना बजट एक लाख करोड़ तक जा रहा है। तो दूसरी तरफ जो काम केन्द्र सरकार करती है उसके तमाम मंत्रालय करते है उसके प्रचार का सालाना बजट दो लाख करोड से ज्यादा का हो चला है और गुजरात का प्रचार बजट 80 हजार करोड तक जा पहुंचा है। तो देश के सामने सवाल यह है कि एक तरफ अगर गुजरात में आपके पास खूब पैसा है तो आपके लिये हर सुविधा उपलब्ध है। और दूसरी तरफ पिछडे राज्य होने का तमगा पाने को बेताब बिहार जैसे राज्य में अगर आपके पास खूब पैसा है तो भी आपको सुविधा नहीं मिल सकती। तो देश में कौन सा मॉडल चल सकता है यहा तो यह बहस ही बेमानी है । मुश्किल यह भी है कि देश में कैसे माडल की जरुरत है या पिर देश किन परिस्तितियों की दिशा में जा रहा है यह मनरेगा पर 30 हजार करोड बांटने के बाद 90 हजार करोड़ के फूड सिक्यूरटी बिल और इसके सामानांतर 3 लाख 20 हजार करोड रुपया आपका पैसा आपके हाथ के नारे के तहत डायरेक्ट टू कैश के लाने से भी समझा जा सकता है। इसका विकल्प मोदी मॉडल में कहां है और भाजपा के विरोध के स्वर के बावजूद सिवाय कारपोरेट के साथ के अलावा विकल्प की कौन सी धारा मोदी के आने से बहेगी, यह फिलहाल तो सवाल है । बावजूद इसके नरेन्द्र मोदी का कद लगातार सियासी तौर पर बढ़ रहा है इससे इंकार भी नही किया जा सकता लेकिन सवाल है नयी परिस्थितियो के बावजूद रास्ता जाता किधर है ।
राजनीतिक तौर पर अगर 2014 का लोकसभा चुनाव ही समाधान है तो पहले चुनाव के अक्स में ही देश के हालात को समझ लें । यहा भी सवाल यह है हीं होगा कि 2009 में देश के कुल 70 करोड वोटरो में से महज साढे ग्यारह करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिये और कांग्रेस बहुमत में गयी। और बीजेपी के पक्ष में सिर्फ साढे आठ करोड़ वोट पड़े तो विपक्षी पार्टी हो गयी। अब यह मान लें कि 2014 में मोदी की अगुवाई में भाजपा को दो सौ सीटों पर जीत मिल जायेगी तो मान कर चलिये की बीजेपी के पक्ष में 12 से 13 करोड से ज्यादा वोट नहीं पडेगें और कांग्रेस घटकर दस करोड़ पर आ सकती है। लेकिन जरा सोचिये देश के 74 करोड वोटरों में से 12 करोड़ वोट बहुमत। अद्भुत है यह नजरिया। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर से मोदी के दौर में जाते भारतीय लोकतंत्र का सच सिर्फ वोटिंग के आंकड़े में नहीं समाता बल्कि जनता के नुमाइन्दे होकर संसद पहुंचने के पीछे कारपोरेट के नुमान्दे बनने की होड़ और बनाने की होड़ कैसे संसद को चला रही है यह नया सच है । मौजूदा वक्त में अगर संसद में उठने वाले सवालों पर गौर करें तो बीते पांच बरस के दौरान [न्यूक्लियर डील पर वोटिंग के बाद यानी 2008 के बाद से ] 65 फिसदी सवाल सिर्फ और सिर्फ कारपोरेट हित के नजरिये से पूछे गये। पावर सेक्टर के सामने आने वाली मुश्किल, खनिज संसाधनों की लूट के मद्देनजर कॉरपोरेट के सामने आने वाली मुश्किल , निर्माण कार्य में आने वाली रुकावट, इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुडे कॉरपोरेट के सामने आने वाली मुश्किल, भूमि अधिग्रहण को लेकर होने वाली मुश्किल, खेती की जमीन पर क्रंकीट खड़ा करने से लेकर हर कारपोरेट की परियोजनाओं को एननोसी ना मिलने की मुश्किल से लेकर न्यूनतम जरुरतो को कॉरपोरेट के हाथो बेचे जाने के खेल से जुडे सवाल ही संसद के पटल पर उठे । कल्पना करना मुश्किल है कि पीने के पानी से लेकर प्रथमिक स्वास्थय सेवा और प्रथमिक शिक्षा के ना मिलने से ज्यादा सवाल संसद में इस बात को लेकर उठे जिन कंपनियों ने पीने के पानी के प्लांट लगाये हैं, उनके सामने कितनी मुश्किल आ रही है या फिर पानी की कीमत होनी क्या चाहिये। राज्यसत्ता को कैसे पानी का प्लांट लगाने में सब्सिडी सुविधा की व्यवस्था करनी चाहिये। इसी तर्ज पर स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा के निजीकरण के बाद कंपनियों और मुनाफा कमाने वाले संस्थानों के सामने आने वाली मुश्किलो का पुलिंदा ही संसद में उठता रहा। इस दौर में हालत यह रही कि कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को टैक्स में कितनी छूट दी गयी या कैसे-क्यों छूट दी जानी चाहिये उसपर भी संसद के भीतर ही सवाल उठे। तो मनमोहन सिंह के दौर से इतर क्या नरेन्द्र मोदी के दौर में यह संभव है कि संसद से यह ना लगे की कॉरपोरेट ही देश चला रहा है और संसद को कॉरपोरेट या बहुरा,ट्रीय कंपनियो के मुनाफे की ही चिंता है । यह इसलिये संभव नहीं है क्योकि मौजूदा वक्त में संसद के भीतर 162 दागी सासंद है यह तो सभी जानते हैं लेकिन कितने सांसद कॉरपोरेट या बडे औद्योगिक घरानों के पेरोल पर संसद में काम करते है यह कोई नहीं जानता। क्योंकि खुले तौर पर कोई यह कह नहीं सकता कि रिलायंस या टाटा या मित्तल या अडानी के लिये फलां सांसद काम कर रहे हैं और जिस कारपोरेट के पेरोल पर है उसी से जुडे सवाल वह सांसद उठाता है । तो इसका नायाब तरीका यही है बीते पांच बरस में लोकसभा और राज्यसभा के सासंदो के उठाये सवालो को परख लें। आंकड़ा कमोवेश सौ सांसदो को लेकर साफ उभरेगा कि इन 100 सांसदो ने जो भी सवाल उठाये वह किसी ना किसी कारपोरेट या घरानो से जुडे थे । उनका हित साधने वाले थे । तो क्या विकल्प के तौर पर बनने वाली मोदी सरकार के दौर में यह सब बंद हो जायेगा । यह सवाल अबूझ नहीं है क्योकि चुनाव जीतने के लिये जो खर्च होता है अगर वह सारे संसाधन कोई कॉरपोरेट लगाये तो नेता सांसद बनने के बाद संसद में किसके लिये काम करेगा । इस लिहाज से समझे तो मौजूदा वक्त में झारखंड, उडीसा, छत्तिसगढ,राजस्थान,यूपी और आध्र प्रदेश के 85 सासंद ऐसे है जो संसद में 80 फिसदी से ज्यादा सवाल कारपोरेट से जुडे हुये ही उठाते रहे हैं। तो देश का संकट समझें। जिस संसद के उपरी सदन में आने के लिये एक वक्त देश की राजनीति ने हाथ खड़े कर दिये थे और बिरला तक राज्यसभा में नहीं पहुंच पाये, उसी राज्यसबा में आज की तारिख में 65 सासंद कॉरपोरेट और औघोगिक घरानो के सीदे सीधे नुमाइन्दे हैं। लोकसभा के सौ सांसदों को लेकर कॉरोपरेट टारगेट किये हुये हैं और इससे ना तो कांग्रेस को इंकार है ना ही बीजेपी को।
असल में मौजूदा दौर को लेकर 1991 की याद हर किसी को आ सकती है क्योंकि तभी आर्थिक सुधार की हवा बही। तभी खुली अर्थव्यवस्था चल निकली। और आज के कॉरपोरेट के मद्देनजर 1991 के दौर को परखे तो बहुत सी स्थितियां साफ हो जायेंगी। 1991 में कॉरपोरेट और औघोगिक घरानों के लिये मनमोहन सिंह डार्लिग इकनॉमिस्ट थे । 2013 में उसी कॉरपोरेट और औघोगिक घरानों के लिये नरेन्द्र मोदी डार्लिग वेटिंग प्राइम मिनिस्टर हैं। यह सब कैसे 360 डिग्री में घुम रहा है। इसे समझने के लिये 1991 में लौटना होगा। प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर बलिया में थे। और तब सोना गिरवी रखने की फाइल पर हस्ताक्षर कराने प्रिसिपल सेक्रेटरी एस के मिश्रा बलिया पहुंचे थे। चन्द्रशेखर चौके थे कि इतनी इमरजेन्सी क्यों आ गयी। चन्द्रशेखर ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष और अपने मित्र मोहन धारिया से फोन पर पूछा कि सोना गिरवी रखने की स्थिति कैसे आ गयी। इस पर मोहन धारिया ने कहा कि यह तो आपको अपने आर्थिक सलाहकार से पूछना चाहिये और प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर के आर्थिक सलाहकार और कोई नहीं मनमोहन सिंह थे। जिन्होंने जोर देकर चन्द्रशेखर को समझाया कि सोना गिरवी रखना जरुरी है। और एक बार प्रिंसिपल सेकेट्री बलिया से लौट चुके थे लेकिन वह दोबारा बलिया गये और फिर चन्द्रशेखर ने फाइल पर साइन किये।
इस पूरे वाकये का जिक्र चन्द्रशेखर की जीवनी में भी है और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय, जो उस वक्त बतौर जनसत्ता के रिपोर्टर के तौर पर बलिया में थे, उन्होने भी लिखा है। लेकिन यह वाकया इतना भर नहीं है। असल में चन्द्रशेखर की सरकार गिरने के बाद मोहन धारिया ने ही चन्द्रशेखर को बताया कि कैसे भारत के आर्थिक दिवालियेपन को लेकर विश्व बैंक ने रिपोर्ट तैयार की है और उसकी 14 कॉपी भेजी है। लेकिन यह सभी 14 कॉपी मनमोहन सिंह ने तब तक अपने पास रखी जब तक चन्द्रशेखर ने सोना गिरवी रखने वाली फाइल पर हस्ताक्षर नहीं कर दिये। विश्व बैंक की यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोहन धारिया के अलावे वित्त मंत्रालय के नौकरशाहो के लिये आयी थी। जिसमें भारत की अर्थव्यवस्था को किस पटरी पर ले जाना है इसका जिक्र किया गया था। और सोना गिरवी रखे जाने के बाद इसे राजीव गांधी के काग्रेस का मुद्दा भी बनाया और पीवी नरसिंह राव ने कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री बनकर विश्व बैंक की रिपोर्ट को देश में लागू भी किया। लेकिन उस दौर को याद कीजियेगा तो तब विकल्प का सवाल स्वदेशी जागरण मंच ने तैयार किया था । और तब पहली बार खुली अर्थव्यवस्था के विकल्प के तौर पर स्वदेशी जागरण मंच के आंदोलन ने एक जमीन बनानी शुर की थी। जिस आसरे भाजपा को भी राजनीतिक लाभ मिल रहा था । और उस वक्त भाजपा के जरीये देश में संवाद यही बन रहा था कि काग्रेस के राजनीतिक विकल्प के तौर पर भाजपा है । क्योकि तब किसान, मजदूर, उत्पादन बढाने से लेकर डालर के मुकाबले रुपये को मजबूत करने के पीछे राष्ट्रीय भावना को जगाने का प्रयास आंदोलनो के जरीये शुरु हुआ था । डंकल, गैट से लेकर स्वदेशी उत्पाद तक को लेकर संघर्ष ट्रेड यूनियन और राजनीतिक दल करने को तैयार थे । लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद जब यशंवत सिन्हा ने बतौर वित्तमंत्री मनमोह सिंह के आर्थिक सुधार पर ट्रैक-2 की लकीर खिंची तभी यह बात खुल गई । कि आर्थिक सुधार और खुली अर्थव्यवस्था को वर्लड बैक और आईएमएफ की तर्ज पर भारत के सत्ताधारियो को लागू करना है । चाहे सत्ता में कांग्रेस रहे या भाजपा । उसके बाद से ही स्वदेशी जागरण मंच भी हाशिये पर गया । संघ परिवार का भी वैचारिक बंटाधार हुआ ।
भाजपा का भी काग्रेसीकरण हुआ । और सारा संघर्ष सिर्फ सत्ता पाने की होड में सिमटा । और अब एक बार फिर जब यह देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है । मनमोहन सिंह की गवर्नेस फेल हो रही है ।विदेशी निवेश तो भारत में नहीं ही हो रहा है उल्टे पहली बार भारत के कारपोरेट और औघोगिक घराने भी भारत में निवेश करने की जगह विश्व बाजार को देख रहे है और ऐसे मोड़ पर नरेन्द्र मोदी उनके लिये डार्लिग वेटिंग प्राइम मिनिस्टर बन चुके है। तो 2014 में सत्ता परिवर्तन को लेकर कोई सपना ना पालें। यह कॉरपोरेट युग है और उसकी जरुरत है कि सत्ता उसके लिये काम करे।