15 अगस्त 1947 को आधी रात जब जवाहरलाल नेहरु भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति का एलान दिल्ली में संसद के भीतर कर रहे थे। उस वक्त देश की आजादी के नायक महात्मा गांधी दिल्ली से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कोलकत्ता के बेलीघाट में अंधेरे में समाये एक घर में बैठे थे। और शायद तभी संसद और समाजिक सरोकार के बीच पहली लकीर सार्वजनिक तौर पर खींची। क्योंकि आजादी के जश्न को गांधी आजादी के बाद की त्रासदी से इतर देख रहे थे। और बीते 62 बरस की संसदीय राजनीति की सियासत ने गांधी की खींची लकीर को कहीं ज्यादा गहरा और मोटा बना दिया। दर्द यह नहीं कि आज भी कोई अंधेरे कमरे में बैठ देश की आजादी के बाद की त्रासदी पर गुस्से में रहे। दर्द यह है कि इसी दौर में इसी त्रासदी को लोकतंत्र मान लिया गया और उसी लोकतंत्र के सुर में देश की सभी संवैधानिक सस्थायें अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सुर मिलाने लगी। और झटके में देश के 80 फीसदी तक लोगों ने महसूस करना शुरु कर दिया कि भारत के नागरिक होकर भी भारत उनके लिये नहीं। संविधान के मौलिक अधिकारों पर भी उनका हक नहीं। संसद की नीतियां उनके लिये नहीं। पीने का पानी हो या दो जून की रोटी या फिर शिक्षा हो या इलाज या महज एक छत। यह सब पाने के लिये जेब भरी होनी चाहिये और अगर जेब खाली है तो बिना सियासी घूंघट डाले कुछ नसीब हो नहीं सकता। यह रास्ता नेहरु के पहले मंत्रिमंडल की नीतियों से ही बनना शुरु हुआ था और 1991 के बाद सबकुछ बाजार के हवाले करने की नीति ने इसे इतनी हवा दे दी कि झटके में देश का सोशल इंडेक्स ही उड़नछू हो गया। यानी सामाज को लेकर ना कोई जिम्मेदारी सरकार की ना ही बाजार की।
सरकार को बाजार से कमीशन चाहिये और बाजार को समाज से मुनाफा। तो आम आदमी के खून को निचोड़ने से लेकर देश को लूटने का अधिकार पाने के लिये सरकार में आने का खेल एक तरफ और सरकार के साथ मिलकर मुनाफा बनाने-कमाने का खेल दूसरी तरफ। इस खेल में हर कोई जिम्मेदारी मुक्त। इस रास्ते को बदले कौन और बदलने का रास्ता हो कौन सा। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधारायें बेमानी लगने लगी हैं। संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं। सत्ता सरकार और हर घेरे में ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है। लेकिन पहली बार 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया जो नेहरु के एतिहासिक भाषण को सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठकर 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने ही खींची थी। तो क्या मौजूदा वक्त में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है। या फिर देश की आवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधे भागेदारी के लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि एक तरफ दिल्ली में ना तो कोई ऐसा महकमा है और ना ही कोई ऐसी जरुरत जो पहली बार नयी सरकार के दरवाजे पर इस उम्मीद और आस से दस्तक ना दे रही हो, जिसे पूरा करने के लिये सियासी तिकड़म को ताक पर रखना आना चाहिये। पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर और स्थायी रोजगार। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की
सियासत के यही आधार रहे । और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिये बज रही तुतहरी में भी सियासी गूंज इन्ही मुद्दों की है। तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है। हर किसी को लग सकता है कि देश को बहुत बदला है । काफी तरक्की देश ने की है । लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समझे तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं। फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होने वाले असर को समझना आसान होगा। देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड 32 लाख थे। और इनमें से 10 करोड़ 58 लाख वोटरों ने वोट डाले थे। और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले गये। वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे। इनमें से सिर्फ 29 करोड़ वोटरों ने वोट डाले। और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ वोटरों ने वोट दिये। जबकि 1952 के वक्त के चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से भारत है। तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा , बिजली, खाना, इलाज , घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं। तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रुप में आम आदमी के हक में रही।
हालांकि लोकतंत्र के पाठ को संविधान के खांचे यह कहकर राजनीति करने वाले दल या राजनेता सही ठहरा देते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का ही यह मिजाज है कि चुनी गई सरकारो को लगातार सबसे ज्यादा वोट दे रहे है और उनकी संख्या लगातार बढ रही है। लेकिन सच यह भी नहीं है। 1977 में ही जिस आपातकाल के बाद पहली बार देश में कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ हवा बही, उस वक्त भी देश के कुल 32 करोड़ वोटरो में से सिर्फ 7 करोड़ 80 लाख वोटरों ने ही जेपी के हक में मोरारजी देसाई को पीएम बनाया। और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर, जो वी पी सिंह 1989 में प्रधानमंत्री बने, उन्हे उस वक्त 1957 की तुलना में भी सत्ताधारी से कम वोट मिले थे। सिर्फ 5 करोड़ 35 लाख। दरअसल, यह आंकडे इसलिये क्योंकि लोकतंत्र और आजादी का मतलब होता क्या है या फिर किसी भी देश में आम आदमी की हैसियत सत्ता के कठघरे में कितनी कमजोर होती है, इसका एहसास पढ़ने वाले को हो जाये। और उसके बाद जिन दो सवालों को 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने जन्म दिया है उस पर लौटे तो आम आदमी पार्टी ने पहली बार आम आदमी को इसका अहसास कराया कि वोट का महत्व होता क्या है और क्यों हर रईस और गरीब वोट देने के अधिकार के दायरे में अगर बराबर है तो फिर सत्ता संभालने के लिये आम आदमी की शिरकत क्या रंग दिखा सकती है । और पहली बार प्रतिनिधित्व की जगह सीधे सत्ता में भागेदारी क्यों नहीं हो सकती । और अगर सीधी भागेदारी हो सकती है तो फिर जिन्दगी जीने से जुड़े न्यूनतम जरुरत के मुद्दे पूरे क्यों नहीं हो सकते है और सियासी अर्थव्यवस्था की सिरे से उलटा क्यों नहीं जा सकता है। अगर नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तहत आने वाले सुविधाभोगी नागरिकों की तुलना में देश के तमाम नागरिकों के हालात को परखे तो सरकारी आंकड़े ही यह बताने के लिये काफी होंगे की देश के 13 फीसदी लोग देश के 65 फीसदी लोगों के बराबर संस्थानों का उपभोग कर लेते हैं। और सिर्फ देश के ढाई फीसदी लोगो के पास उपभोग की जो वस्तुये बाजार भाव से मौजूद है, उस तुलना में 52 फीसदी देश के लोग भोगते हैं। तो इतनी असमानता वाले समाज में सत्ताधारी होने का मतलब क्या क्या हो सकता है और सत्ता बनाने बिगाडने या सत्ता को चलाने वाली ताकतें जो भी होंगी उनके लिये भारत जन्नत से कम कैसे हो सकता है और जो ताकत नहीं होंगे, वह कैसे नरक सा जीवन जीने को मजबूर होंगे, यह किसे से छुपा रह नहीं सकता है। तो इसी लकीर को अगर 2013 के दिल्ली चुनावी परिणाम की सीख के
तौर पर परखे तो वह आधे दर्जन मुद्दे जो न्यूनत जरुरत पानी और बिजली शुरु होते हैं। इलाज और भोजन पर रुकते हैं। रोजगार से लेकर एक अदद छत पाने को ही सबसे महत्वपूर्ण मानते है, उससे कैसे सियासी सत्ता की आड़ में 62 बरस से खिलवाड़ होता रहा। यह सब सामने आ सकता है।
2014 के लिये यह सोचना कल्पना हो सकता कि 21 मई 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ लें तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो। जहां राजनीतिक विचारधारा मायने ना रखे। जहा वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने ना रखे। जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो। और देश के सामने यही सवाल हो पहली बार हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है वैसे ही न्यूनतम जरुरत से जुड़े आधे दर्जन मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा। तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा । और रोजगार या छत । इस दायरे में देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है । तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी। सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने के ढाई हजार रुपये पार कर चुके है तो फिर इस दायरे में तो हर परिवार को उतनी सुविधा यू ही मिल जानी चाहिये जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है। यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिये इसलिये दस्तक दे रही है क्योंकि दिल्ली चुनाव में जो जीते है वह पहली बार सरकार चलाने के लिये सत्ता तक चुनाव जीत कर नहीं पहुंचे बल्कि समाज में जो वंचित है, उन्हें उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं। और पारंपरिक राजनीति के लिये यह सोच इसलिये खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कही ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं। क्योंकि 2014 के चुनाव के वक्त देश में कुल 75 से 80 करोड़ तक वोटर होंगे। और पारंपरिक राजनीति को सत्ता में आने के लिये 12 से 15 करोड वोटर की ही
जरुरत पड़ेगी। लेकिन यह आंकडे तब जब देश में 35 से 37 करोड़ तक ही वोट पड़ें । लेकिन आम आदमी की भागेदारी ने अगर दिल्ली की तर्ज पर 2014 में समूचे देश में वोट डाले तो वोट डालने वालों का आंकड़ा 45 से 50 करोड़ तक पहुंच सकता है। यानी जो पारंपरिक राजनीति 12 से 15 करोड तक के वोट से सत्ता में पहुंचने का ख्वाब देख रही है, उसके सामानांतर झटके में आम आदमी 8 से 10 करोड़ नये वोटरो के साथ खड़ा होगा और जब पंरपरा टूटती दिखेगी तो 5 करोड़ वोटर से ज्यादा वोटर जो जातीय या धर्म के आसरे नहीं बंधा है या खुद को हर बार छला हुआ महसूस करता है, वह भी खुद को बदल सकता है। तब देश में एक नया सवाल खड़ा होगा क्या वाकई काग्रेस -भाजपा या क्षत्रपो की फौज अपने राजनीतिक तौर तरीको को बदलगी। क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था को जातीय खांचे या वोट बैंक की राजनीति या फिर मुनाफा बनाकर सरकार को ही कमीशन पर रखने वाली निजी कंपनियो या कारपोरेट की अर्थव्यवस्था से अलग होगी । तब क्या विकास का सवाल पीछे छूट जायेगी। या फिर 1991 में विकास के नाम पर जिस कारपोरेट या निजी कंपनियो के साथ सियासी गठजोड ने उड़ान भरी उसपर ब्रेक लग जायेगा । यह सवाल आपातकाल से लेकर मंडल-कंमडल या खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दायरे में बदली सत्ता के दौर में मुश्किल हो सकता है। लेकिन 2013 के बाद यह सवाल 2014 में मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खिंच कर खुद पर ही सत्ता को नहीं टिकाया है बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है । इसलिये दिल्ली में केजरीवाल फेल होते हैं या पास सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम ने 2014 के चुनाव को लेकर एक आस एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर लें तो सिर्फ वोट के आसरे वह 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है।
Tuesday, December 31, 2013
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2014 की उम्मीद तले 62 बरस का अंधेरा |
Thursday, December 26, 2013
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क्यों दिल्ली की सत्ता संभालने में बेखौफ हैं केजरीवाल? |
दिल्ली की सरकार को लेकर एक सस्पेंस है। जो किसी को डरा रहा है। किसी को सुख की अनुभूति दे रहा है। किसी को नौसिखिये का खेल लग रहा है। किसी को बदलती सियासी बिसात की खूशबू आ रही है। सस्पेंस में ऐसा है क्या और क्या वाकई दिल्ली की राजनीति समूचे देश को प्रभावित कर सकती है। यह ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन परिस्थितियों को पढ़ें तो कांग्रेस के माथे की शिकन भाजपा की सियासी उड़ान पर लगाम और केजरीवाल की मासूम मुस्कुराहट सस्पेंस को लगातार बढ़ा भी रही है और रास्ता भी दिख रही है। ध्यान दें तो समूची राजनीति का शोध मौजूदा वक्त में गवर्नेंस के उस सच पर आ टिका है जो पारंपरिक आंकड़ों के डिब्बे में बंद है। इसलिये बिजली बिल में पचास फीसदी की कमी और सात सौ लीटर मुफ्त पानी देने के केजरीवाल के वादे को पूरा करने या ना करने पर ही दिल्ली सरकार का पहला सस्पेंस टिका है। जाहिर है आंकड़ों के लिहाज से बिजली-पानी की सुविधा परोसने के केजरीवाल के वादे को परखें तो हर किसी को लगेगा कि यह असंभव है। सब्सिडी पर ही संभव है, लेकिन वह भी कब तक। हजारों-करोड़ों रुपये का खेल हर किसी को नजर आने लगेगा। और फिर शुरु होगा राजनीतिक फेल-पास का आंकलन। लेकिन
यहीं से आम आदमी पार्टी की राजनीति के उस पाठ को भी पढ़ना जरुरी है जो मौजूदा राजनीति के तौर तरीकों के खिलाफ खड़ा हुआ। दिल्ली वालों को अच्छा लगा कि कोई तो है जो उनकी रसोई, उनके घर के भीतर झांक कर बाहरी दरवाजे पर लगे परदे के अंदर के उस सच को समझ रहा है कि आखिर सत्ता की नीतियों तले कैसे हर घर के भीतर लोगो का भरोसा राजनेताओ से डिग चुका है। जीने के लिये जिस रोजगार को करने या रोजगार की तालाश में हर घर से कोई ना कोई काम पर निकलता तो उसे यह पता होता है कि हर दिन नौ से बारह घंटे काम करने के बाद भी उसे अगले दिन उसी जद्दोजहद में निकलना है, जहां उसे आराम नहीं है।
लेकिन मोहल्ले या इलाके का कोई शख्स बिना काम किये राजनीति करते करते हर सुविधा ना सिर्फ जुगाड़ता चला जाता है बल्कि झटके में एक दिन पार्षद, विधायक या सांसद बनकर हेकड़ी दिखाता है और हर उस पढ़े-लिखे आम आदमी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके तय करना लगता है, जिसने हमेशा रोजगार पाने के
लिये पढ़ाई से लेकर हर उस ईमानदार सोच को जीया, जिससे उसका जीवन बेहतर हो सके। तो पहली बार केजरीवाल ने हर आम आदमी के घर के दरवाजे पर लगे चमकते पर्दे को उठाकर घर के अंदर की बदहाली को अपनी राजनीतिक बिसात में जगह दी । इसलिये बिजली-पानी का सवाल दिल्ली के माथे पर चुनावी जीत हार तय करने वाला हो गया, इससे किसी को इंकार नहीं है। लेकिन अब सवाल आगे है। इसे पूरा कैसे किया जायेगा। दिल्ली में किसी भी नौकरशाह या कांग्रेस-बीजेपी की कद्दावर-समझदार नेता से पूछ लीजिये। उसका जवाब होगा। असंभव। फिर वह मौजूदा व्यवस्था को समझाएगा। दिल्ली को खुद 900 मेगावाट बिजली पैदा करती है। जबकि दिल्ली की जरुरत छह हजार मेगावाट की है। बाकी वह निजी कंपनियों से खरीदती है। जिसमें अनिल अंबानी की बीएसईएस से 65 फिसदी तो टाटा से 30 फिसदी। लुटियन्स की दिल्ली के लिये एनडीएमसी 5 फिसदी बिजली देती है। कुल 27 पावर प्लांट हैं। एनटीपीसी, एनएसपीसी सरीखे आधे दर्जन
कंपनियों से भी करार हैं। सिंगरौली से लेकर सासन तक से बिजली लाइन दिल्ली के लिये बिछी है। हर निजी कंपनी से अलग अलग करार है। प्रति यूनिट बिजली एक रुपये बीस पैसे से लेकर छह रुपये तक खरीदी जाती है। औसतन चार रुपये प्रति यूनिट बिजली पड़ती है। और उसमें ट्रासंमिशन, लीकेज सरीखे बाकि खर्चे जोड़ दिये जायें तो पांच रुपये प्रति यूनिट बिजली की कीमत पड़ती है। अब इसे आधी कीमत में केजरीवाल बिना सब्सिडी कैसे लायेंगे। जाहिर है इसी तरह 700 लीटर मुफ्त पानी देने का सवाल भी राजनेताओं के आंकड़े और नौकरशाहों के गणित में दिल्ली सरकार के सस्पेंस को बढ़ा सकता है कि कैसे यह सब पूरा होगा। लेकिन अब जरा यह सोचे कि जो राजनीति हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के बाहरी दरवाजों पर लगें पर्दे को उठाकर भीतर झांक कर सरोकार बनाने को ही राजनीति बना लें तो क्या इन आंकड़ों का कोई महत्व है। तो जरा इसके उलट सोचना शुरु करें। मुख्यमंत्री पद की शपद लेते ही केजरीवाल 700 लीटर मुफ्त पानी देने का एलान कर देते हैं।
इसका असर क्या होगा। पानी की सप्लाई तो जारी रहेगी। हां जब बिल आयेगा तो उसमें 700 लीटर पानी का बिल माफ होगा। जाहिर है जितना पानी लुटियन्स की दिल्ली, पांच सितारा होटल और दक्षिणी दिल्ली के 3 फिसदी लोग [ दिल्ली की जनसंख्या की तुलना में ] पानी का उपभोग करते हैं, अगर उनमें से सिर्फ 9 फिसदी पानी की कटौती कर जाये या फिर उनके बिल में 12 फीसदी का इजाफा कर दिया जाये तो समूची दिल्ली को 700 लीटर मुफ्त पानी देने में केजरीवाल को कोई परेशानी नहीं होने वाली। और मुख्यमंत्री बनने के 48 घंटे के भीतर ही अगर केजरीवाल बिजली बिल में भी 50 फिसदी की कटौती का एलान कर देते हैं तो क्या होगा। बिजली सप्लाई में तो कोई असर नहीं पड़ेगा। हां, कुछ निजी कंपनियां सिरे से यह सवाल उठा सकती है कि उनकी भरपाई कैसे होगी। और उसके बाद केजरीवाल अगर निजी कंपनियों को कहते हैं कि या तो बिल कम करो या बस्ता बांधो तो क्या होगा। जाहिर है कोई निजी कंपनी अपना बस्ता नहीं बांधेगी। और हर कीमत पर केजरीवाल की बात को मानने लगेगी। क्योंकि देश में बिजली की दरें किस आधार पर तय होती हैं, यह आज भी किसी को नहीं पता। फिर दिल्ली को ही सासन से सप्लाइ होने वाली बिजली एक रुपये बीस पैसे प्रति यूनिट मिलती है और सिंगरौली से मिलने वाली बिजली 3.90 पैसे प्रति यूनिट। इतना अंतर क्यों है, यह भी किसी को नहीं पता। ध्यान दें तो जबसे देश में बिजली निजी क्षेत्र को सौंपी गयी और उसके बाद
सिलसिलेवार तरीके से कोयला से लेकर पानी और जमीन से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर त निजी कंपनियों के जिस सस्ते दाम में दे दिया गया और उस पर बैक ने भी बिना कोई तफतीश किये सबसे कम इंटरेस्ट पर बिजली कंपनियों को रुपये बांटे वह अपने आप में एक घोटाला है। और इसका सबूत कोयला खादानों के बंदर बांट से लेकर झारखंड सरकार के सीएम रहे मधु कोड़ा पर लगे आरोपों के साये में देखा-समझा जा सकता है। इतना ही नहीं एनरॉन इसका सबसे बडा उदाहरण है कि कैसे वह खाली हाथ सिर्फ प्रोजेक्ट रिपोर्ट के आधार पर अरबों रुपये लूटने की योजना के साथ भारत में कदम रखा था। और एनरान के बाद टाटा से लेकर अंबानी समेत देश के टापमोस्ट 22 कंपनिया क्यो बिजली उत्पादन से जुड़ी है। और कैसे देश में सौ से ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस राजनेताओं के पास है। जिसमें कांग्रेस के राजनेता भी है और भाजपा के भी। और यह सभी बेहद कद्दावर राजनेता हैं। तो फिर बिजली उत्पादन से जुडकर बिजली बेचकर मुनाफा कमाने के खेल में कितना लाभ है।
अगर इसके आंकडे पर गौर करें तो बिजली उत्पादन करने वाली हर कंपनी के टर्न ओवर में 80 फीसदी तक का मुनाफा बिजली बेच कर कमाने से है। कोयला खादान किस कीमत में दिये गये और कैसी कैसी
कंपनियों के दिये गये यह कोयला घाटाले पर सीएजी की रिपोर्ट आने के बाद किसी से छुपा नहीं है। बेल्लारी से लेकर झारखंड और उडीसा तक में कैसे निजी कंपनियो के विकास मॉडल या इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर औने पौने दाम में कैसे खनिज संपदा लूटी जा रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। और इसकी एवज में कैसे राजनितिक दलों या फिर राजनेताओं की अंटी में कितना पैसा जा रहा है, जो चुनाव लडते वक्त निकलता है यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो कैसे मौजूदा वक्त में संसद के भीतर ही चुने हुये सौ से ज्यादा सांसदों के पीछे कोई ना कोई कारपोरेट है, यह भी किसी से छुपा नहीं है। तो फिऱ जो कारपोरेट और निजी कंपनियां भारत में क्रोनी कैपटिलिज्म से आगे निकल कर खुद ही सत्ता में दस्तक दे रहा है, वह कैसे और क्यो नहीं केजरीवाल की बात मानेगा। असल में कांग्रेस और भाजपा दोनों यह मान कर सियासत कर रहे हैं कि पारंपरिक तौर तरीके में केजरीवाल फंसेंगे। लेकिन दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस सच को समझ नहीं पा रहे हैं कि देश में विकास के नाम पर या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर जिस तरह की जो नीतियां बनी और उन्हें जिस आंकड़े तले परोसा गया, वह देश के उन बीस फिसदी लोगों की सोच से आगे निकल नहीं पाया जो उपभोक्ता हैं या फिर कमाई के जरिये बाजार अर्थव्यवस्था के नियम कायदों को बनाये रखने में ही खुद को बेहतर मानते हैं और सुकून का जीवन देखते हैं। बाकि हाशिये पर पड़े देश के अस्सी फीसदी के लिये जो कल्याण योजनायें निकलती हैं, वह देश की उसी रुपये से बांटी जाती है जिसे निजी कंपनियों या कारपोरेट के आसरे कही ज्यादा कमाई की गई होती है। इसलिये दिल्ली को लेकर केजरीवाल की रफ्तर सिर्फ बिजली या पानी तक रुकेगी ऐसा भी नहीं। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और डीटीसी से लेकर मेट्रो तक में 72 हजार लोग जो कान्ट्रेक्ट पर काम कर रहे हैं, सभी को स्थायी भी किया जायेगा और जो झुग्गी झोपडी राजनीतिक वायदो तले अपने होने का एहसास करती थी उन्हे खुले तौर पर मान्यता भी मिल जायेगी। यह सब केजरीवाल हफ्ते भर में कर देंगे। फिर सवाल होगा जो पैसा दिल्ली के विकास या इन्फ्रास्ट्रक्चर को पूरा करने के नाम पर खर्च नीतियो के जरीये किया जाता रहा वह मोहल्ला सभाओं के जरीये तय होगा तो बिचौलिये और माफिया झटके में साफ हो जायेंगे, जिनकी कमाई का आंकड़ा कमोवेश हर विभाग में एक हज़ार करोड़ से 20 हजार करोड़ तक का है। जाहिर है लूट की राजनीति से इतर केजरीवाल की सियासी बिसात जब दिल्ली में अपने मैनिफेस्टो को लागू कराने के लिये उन्हीं कारपोरेट और निजी कंपनियों पर दबाब बनायेगी तब दिल्ली छोड़कर बाकि देश में लूट में खलल ना पडे इसलिये वह समझौता कर लेंगी या फिर कांग्रेस और भाजपा के दरवाजे पर जा कर दस्तक देंगी कि सरकार गिराये नहीं तो लूट का इन्फ्रास्ट्रक्चर ही टूट जायेगा। जाहिर है इन हालात में केजरीवाल की सरकार भी अगर गिर जाती है तो फिर चुनाव में देश का आम आदमी क्यों सोचेगा। कांग्रेस को यह डर होगा। लेकिन जिस रास्ते केजरीवाल की सियासी बिसात बिछ रही है, उसमें कांग्रेस या भाजपा अब छोटे खिलाड़ी हैं। एक वक्त के बाद तय देश के उसी कारपोरेट को करना है जिसने मनमोहन सरकार पर यह कहकर अंगुली उंठायी कि गवर्नेंस फेल है और वह नरेन्द्र मोदी के पीछे इसलिये खड़ा हो गया कि गवर्नेंस लौटेगी। लेकिन इस सियासी दौड़ में किसी ने हाशिये पर पड़े लोगों के घरों के पर्दे के भीतर झांक कर नहीं देखा कि हर घर के भीतर की त्रासदी क्या है। पहली बार वह दर्द उम्मीद बनकर केजरीवाल के घोषणापत्र तले उभरा है और संयोग से उस बिसात को ही बदल रहा है जिसे आजादी के बाद से किसी राजनीतिक दल ने नहीं छुया। तो लडाई तो वाकई दिये और तूफान की है। और तूफान पहली बार अपनी ही बिसात पर फंसा है।
Thursday, December 19, 2013
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केजरीवाल की बिसात पर राहुल और मोदी |
दिल्ली का 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस हेडक्वार्टर हो या 10 अशोक रोड यानी बीजेपी हेडक्वार्टर, दोनों ही जगह 8 दिसंबर को एक अजीबो-गरीब खामोशी थी। शाम में दोनों ही हेडक्वार्टर में 2014 के पीएम पद के दावेदार मीडिया के सामने आये। हाथों को हवा में लहराने की जगह पीछे हाथ को बांध कर राहुल गांधी ने
जिस खामोशी से चुनावी हार मानी और नरेन्द्र मोदी ने ढोल नगाड़ों के बीच भी जिस शालीनता से हाथ जोड़कर अभिवादन भर किया, उसने पहली बार यह संकेत तो दे दिये कि चुनाव परिणाम ने दोनों ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को अंदर से हिला दिया है। क्योंकि देश का राजनीतिक मिजाज पहली बार एक ऐसे विकल्प को मान्यता देने को तैयार है जो पारंपरिक राजनीति से इतर हो। और दिल्ली के चुनावी परिणाम ने कांग्रेस और बीजेपी को डरा दिया है। वजह भी यही रही कि 8 दिसंबर के बाद बीते बीते दस दिनो में राहुल गांधी आधे दर्जन से ज्यादा बार मीडिया से रुबरु हुये। इन्हीं दस दिनों में नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ एक रैली को संबोधित किया, जिसमें दिल्ली के चुनाव परिणाम पर खामोशी बरती। और हो यही रहा है कि केजरीवाल के राजनीतिक प्रयोग ने राहुल गांधी को कांग्रेस के भीतर केजरीवाल बनने को मजबूर कर दिया है। तो नरेन्द्र मोदी बीजेपी के कांग्रेस विरोधी राजनीतिक प्रयोग से आगे निकल नहीं पा रहे हैं। यूपी और बिहार के क्षत्रप मुलायम सिंह यादव को केजरीवाल की सफलता पानी के बुलबुले सरीखे लग रही है तो लालू यादव को केजरीवाल बहुरुपिया लग रहे हैं। तो क्या दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद झटके में केजरीवाल वर्सेज ऑल के हालात राजनीतिक तौर पर देश में उभर गये हैं। इसीलिये वैचारिक विरोध होने के बावजूद काग्रेस और बीजेपी केजरीवाल को धराशायी करने वाले मुद्दों पर एक होने से नहीं कतरा रहे हैं। और लोकपाल का 45 बरस बाद संसद में पास होना क्या इसी का प्रतीक है।
यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि लोकपाल को लेकर तब तक कांग्रेस और बीजेपी में सहमति नहीं बनी जब तक चुनावी राजनीति में जनलोकपाल का सवाल उठाकर आंदोलन करने वाली आम आदमी पार्टी को सफलता नहीं मिली। याद कीजिये तो कांग्रेस के साथ खड़ी समाजवादी पार्टी हमेशा लोकपाल का विरोध करती रही और सरकार चलती रहे इसलिये कांग्रेस ने कभी लोकपाल पर वह हिम्मत नहीं दिखायी जो दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद राहुल गांधी से लेकर समूची कांग्रेस ने बोल बोल कर दिखा दिये। जबकि समाजवादी पार्टी आज भी लोकपाल का विरोध कर रही है। तो पहला सवाल मुलायम के समर्थन पर आम आदमी की चुनावी सफलता अब कांग्रेस को कही ज्यादा खतरनाक लगने लगी है। और दूसरा सवाल, तो क्या यह माना जाये कि लोकपाल की तर्ज पर ही अगर देश में महिला आरक्षण को लेकर भी कोई आंदोलन खड़ा हो और फिर वही आंदोलन राजनीतिक पार्टी में तब्दील होकर चुनावी राजनीति में बाजी मार लें तो महिला आरक्षण भी संसद में पास हो जायेगा। क्योंकि महिला आरक्षण का विरोध करने वाले भी वही मुलायम और शरद यादव सरीखे नेता हैं, जो कांग्रेस और बीजेपी के एक होने पर महिला आरक्षण को भी संसद में पास होने से रोक नहीं पायेंगे। यानी केजरीवाल ने पहली बार उस राजनीतिक व्यवव्सथा में सेंध लगा दी है जो सत्ता के जोड तोड में ही आम जनता को उलझाये रखती है और मुद्दो के नाम पर नूरा-कुश्ती इसलिये करती है जिससे राजनीतिक दलों की उपयोगिता बनी रहे। यानी मंडल-कंमडल के बाद पहली बार देश का आम आदमी एक ऐसी राजनीति को देख रहा है, जहां उससे जुड़े मुद्दे उसी के जरीये चुनावी जीत या हार पैदा कर उसे ही सत्ता में पहुंचा रहे हैं।
यानी दिल्ली के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश के आम वोटर ने अगर यह मन बना लिया है या फिर मन में यह मान लिया है कि सभी सत्ताधारी एक सरीखे होते हैं चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर जातीय समीकरण पर क्षत्रपों की सत्ता। तो फिर 2014 को लेकर चल रही राहुल गांधी या कांग्रेस की रणनीति हो या फिर बीजेपी पर भारी नरेन्द्र मोदी। या मुलायम सिंह यादव और वामपंथियो का तीसरे मोर्चे का सपना। सबकुछ धरा का धरा रह सकता है ,अगर यह परिस्थितियां वाकई 2014 के लोकसभा चुनाव में तेजी पकड़ ले गईं तो।
जाहिर है, ऐसे में संसद में पास लोकपाल क्या वाकई आम लोगों के जहन में सत्ताधारियों को लेकर बढ़ते आक्रोश को थाम सकेगा। क्योंकि संसद के गलियारे में लोकपाल का जश्न तो यही एहसास कराता है कि जिस जनलोकपाल के आंदोलन से दो बरस पहले संसद थर्रायी थी, उसी संसद ने जब लोकपाल पास कर दिया तो आम आदमी का आक्रोश भी खत्म हो गया। लेकिन जमीनी सच है क्या। खासकर यूपीए -2 के दौर के भ्रष्टाचार के पैमाने में अगर संसद के जश्न को गौर करें तो हर किसी को 2 जी स्पेक्ट्रम, कोयला घोटाला और कॉमनवेल्थ घपले जरुर याद आयेंगे। क्योंकि यह तीन धब्बे यूपीए 2 की खास पहचान हैं और इसके कटघरे में पहली बार सरकार, नौकरशाह और कॉरपोरेट तीनो आये। और सरकार पर निगरानी रखने वाले मीडिया के नामचीन चेहरे भी दायरे में आये। तो देश में पहली बार हर स्तर पर यह सवाल उठा की रास्ता निकलेगा कैसे। क्योंकि देश की सबसे बडी जांच एजेंसी भी इसी दौर में सरकारी पिजंरे में कैद तोता करार दे दी गयी। तो हर किसी के सामने दो सवाल सबसे बड़े थे। अगर प्रधानमंत्री के दामन पर दाग लगे तो उसकी जांच कौन करेगा। और जांच करने वाली एजेंसी सीबीआई ही अगर सरकार के अधीन है तो वह अपने ही बास पीएम की जांच सामने आने पर क्या करेगी।
क्योंकि जैसे ही सीबीआई पीएम से पूछताछ करेगी वैसे ही नैतिकता के आधार पर पीएम से इस्तीफे की मांग देश में सबसे महत्वपूर्ण हो जायेगी। फिर ध्यान दें तो 2जी घोटाले की जांच हो या फिर कोयला घोटाले की जांच दोनों ही जांच सीबीआई कर जरुर रही है लेकिन यह जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है। यानी इन घोटालो में सरकार की भूमिका ही नहीं बल्कि सीबीआई जांच में सरकार की भूमिका को लेकर भी सवाल उठे। इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने सीधे कमान अपने हाथ में ली। ऐसे में अब सवाल है कि लोकपाल अगर पहले से होता तो क्या देश में सरकार के स्तर पर घोटाले ना होते। घोटाले होते तो जांच के लिये हंगामा ना मचता।
हंगामा नहीं मचता तो आरोपी दोषी भी साबित होता। वह भी एक समयसीमा में। तो आखरी सवाल यह खड़ा होता है कि क्या वाकई पीएम और सीबीआई को लेकर जो सवाल जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से उठे थे उनका समाधान हो गया या फिर यह फरेब है जैसा अरविन्द केजरीवाल लगातार कह रहे हैं। असल में लोकपाल के दायरे में पीएम पर लगने वाले आरोपो को भी खास प्रावधान के तहत जांच के दायरे में रखा गया है। और सीबीआई को भी सिर्फ लोकपाल के किसी जांच के दौरान ही लोकपाल के अधीन रखा गया है। यानी पीएम के लिये सामान्य कटघरा न है और सीबीआई भी सामन्य परिस्थिति में स्वतंत्र है। और सबसे महत्वपूर्ण है कि लोकपाल हो या राज्यो में लोकायुक्त दोनों चाहे राजनेता ना बन पाये। लेकिन दोनो की नियुक्ति में राजनेताओं की ही सबसे बड़ी भूमिका होगी। और तो और लोकपाल को हटाने की शुरुआत भी उसी संसद से होगी, जिस संसद में मौजूदा दौर में 242 सांसद दागी हैं। क्योंकि 100 सांसद लोकपाल के खिलाफ लिख कर देंगे तो ही सुप्रीम कोर्ट जांच करेगा और जांच में अगर लोकपाल का कोई सदस्य दोषी पाया गया तो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति से सस्पेंड करने की गुहार लगायेगा। इसी तर्ज पर लोकायुक्त की नियुक्ति से लेकर सस्पेंड कराने तक में उसी विधानसभा की भूमिका बड़ी होगी, जिसमें दागी नेताओ की भरमार है। तो सवाल यही है कि राहुल गांधी हों या नरेन्द्र मोदी या जातिय राजनीति के आधार पर टिके क्षत्रप वह अरविन्द केजरीवाल से घबराये हुये इसीलिये हैं क्योंकि केजरीवाल पहली जनता की भागेदारी से आगे निकल कर आम आदमी को ही सत्ताधारी बनाने का रास्ता दिखा रहे हैं। और सियासत अब भी तिकड़मों के आसरे खुद को पाक साफ बताने-बनाने पर चल रही है।
Thursday, December 12, 2013
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सियासत की नयी परिभाषा गढ़ी केजरीवाल ने |
अन्ना हजारे जनलोकपाल को लेकर रालेगणसिद्दी में सिमट गये हैं। तो जनलोकपाल पर संघर्ष के आसरे आम आदमी पार्टी दिल्ली की सत्ता पर दखल देने की स्थिति में आ गयी है और संसद में एक बार फिर लोकपाल को लेकर गहमागहमी शुरु हो चुकी है। तो बरस भर में नजारा बदल भी गया और बरस भर बाद सारे नजारे 360 डिग्री में घूम भी गये। याद कीजिये तो दो बरस पहले रामलीला मैदान से जनलोकपाल को लेकर जो जन लहर उठी थी, उसने संसद की सांस बांध दी थी। और दिसंबर 2011 में ही लोकपाल को लेकर जो हुआ उसे जनीतिक दलों ने ही नाटक करार दिया था। और संयोग देखिये उसी जनलोकपाल को लेकर रालेगण सिद्दी में अनशन पर बैठे अन्ना हजारे के इर्द-गिर्द की तस्वीर बदल चुकी है। दो बरस पहले जनलोकपाल आंदोलन में साये की तरह रहने वाले अरविन्द केजरीवाल की जगह पत्रकार संतोष भारतीय ने ले ली है। मंच पर साये की तरह दिखने वाले कुमार विश्वास, गोपाल राय और संजय सिंह को अब मंच की जगह जमीन पर भीड का हिस्सा बनना पड़ रहा है।
और संसद में फिर लोकपाल बिल को लेकर हरकत वही पार्टी शुरु कर रही है, जिसने इसे ठंडे बस्ते में डाला था। संसद के पटल पर सरकार लोकपाल बिल रखेगी। उसमें कुछ संसोधन का प्रस्ताव लायेगी। जिसपर लोकसभा में मुहर लगने के बाद उसे राज्यसभा में सोमवार को बहस के लिये लाया जायेगा। तो अब सवाल है जनलोकपाल आंदोलन से निकली राजनीतिक पार्टी भी जीत कर सियासी मैदान में हो और अन्ना का अनशन भी सामाजिक दबाव बना रहा है। तो क्या वाकई इस बार लोकपाल जोकपाल ना होकर वाकई जनलोकपाल के तौर पर मंजूर हो जायेगा ।
अभी यह सवाल है लेकिन आकलन अब यही हो रहा है कि जब आंदोलन भी सफल और आंदोलन से निकली राजनीति भी सफल तो फिर संसद अलग राह कैसे पकड़ सकती है। लेकिन बदलती राजनीति और गिरते पारंपरिक राजनीतिक खंभों के बीच भी हर कोई अब आस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगा है क्योंकि उसे लगने लगा है कि 2014 समूची सियासी बिसात ही बदल देगी। शायद इसीलिये आम आदमी पार्टी की इस भीड़ में ऐसा कोई खास दिखायी नहीं देगा, जिस पर नजर टिके तो टिकी रह जाये। ना ही इसमें कोई जमीनी नेता होने का दावा करने वाला है ना ही कोई चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ है। हफ्ता भी नहीं हुआ जब आम आदमी पार्टी के विधायकों के चेहरे सड़क पर नारे लगाते हुये धूल फांक रहे थे और दिल्ली की विधानसभा से लेकर संसद के गलियारे तक में कभी इन्हें तरजीह देना तो दूर इन पर चर्चा भी जरुरी नहीं समझी गयी। फिर ऐसा क्या है कि दिल्ली के जनादेश से निकलती आवाज पर या तो बडे बडे नेताओं की धिग्घी बंधी है या फिर जोकर या बुलबुला कहकर खारिज करने पर आ तुले हैं। वजह इसकी है क्या। जाहिर है आम आदमी पार्टी के तमाम नेता मौजूदा दौर के राजनेताओं से एकदम अलग हैं। और मौजूदा दौर के तमाम राजनेता चाहे अलग अलग राजनीतिक दल में हो लेकर बीते ढाई दशक में हर नेता एक सरीखा लगने लगा और हर राजनीतिक दल सत्ता के लिये ही संघर्ष करती नजर आयी। इसलिये विचारधारा गायब हुई। सत्ता समीकरण लोकतंत्र का आखिरी सच बन गया। और सभी राजनीतिक दल सत्ता के लिये दौड़ते हाफ्ते दिखायी देने लगे। जाहिर है इसमें पहली बार ब्रेक दिल्ली से निकले उस जनादेश ने लगायी जो पारंपरिक राजनीति से ऊब चुकी है। सरोकार के बदले सत्ता की हनक वाली राजनीति से डरने लगी है। सत्ता को लूट का पर्याय बना चुकी है। यानी परिवर्तन की लहर या विचारधारा के बदले सिर्फ और सिर्फ कामनसेंस मायने रख रहा है। और ध्यान दें तो आम आदमी पार्टी उसी कामनसेंस की बात कर रही है जो संविधान में दर्ज है। जो भारतीय लोकतंत्र की पहचान है। संयोग से बीते ढाई दशक की सियासत ने इसी कामनसेंस की समझ को ही ही ताक पर रख ऐसी सियासी बिसात बिछायी की वही आम आदमी ही हाशिये पर चला गया, जिसके भरोसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का तमगा भारत पाये हुये है। और अब आम आदमी ही जब जनादेश से खद्दरधारी पांच सितारा नेताओं को बदलने को कह रहा है तो उन्हे कोई जोकर तो कोई पानी का बुलबुला मान कर अपनी ठसक बरकरार रखना चाह रहा है। यानी सत्ता पाने के लिये चुनाव नहीं लड़ा जाता या फिर सत्ता के लिये ही चुनाव लड़ा जाता है, यह भी उलझन बनेगी यह भी किसी ने नहीं सोचा होगा। लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटे तो कई सच अबके दौर में बेमानी लगेंगे।
मसलन सत्ता अगर बहुमत के आंकड़ों से चलती है तो सबसे ज्यादा सीट राजीव गांधी को 1984 में मिली। लोकसभा में दो तिहाई से ज्यादा। इस तुलना में 1957 में नेहरु की अगुवाई में काग्रेस को 371 सीटें मिली। उस वक्त कांग्रेस ने 490 सीटों पर उम्मीदवारों को खड़ा किया था। और उसके बाद 1971 युद्द के तुरंत बाद इंदिरा गांधी को 352 सीट मिलीं। दो तिहाई से महज 13 सीट कम। लेकिन हुआ क्या। नेहरु के दौर को छोड़ दें तो राजीव गांधी और इंदिरा गांधी इतनी बड़ी सफलता के गर्त में ही डूबी।
भ्रष्टाचार की छांव में राजीव गांधी और इमरजेन्सी तले इंदिरा गांधी की सत्ता पांच बरस के कार्यकाल से पहले ही लड़खड़ायी और विकल्प के तौर पर आंदोलन करते हुये सियासी अलख जगा कर सत्ता में आये वीपी सिंह 143 सीट पाकर भी पांच बरस का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये और जेपी आंदोलन से निकली जनता पार्टी की अगुवाई करते मोरराजी देसाई 295 सीट पाकर भी दो बरस में लड़खड़ा गये। तो पहला सवाल -बहुमत पा कर अकेले सत्ता हो या गठबंधन के जरिये मिली सत्ता दोनों फेल हो सकती हैं।
और इस लकीर को आगे खींचे तो नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी दो ऐसे पीएम निकले जो बहुमत ना होने के बावजूद सत्ता बनाये रखने के हुनरमंद कहलाये। नरसिंह राव को 1991 में 232 सीट मिली और उन्होंने सांसदों की खरीद फरोख्त की, जिससे झारखंड घूस कांड निकला तो वाजपेयी 24 राजनीतिक दलों को एक साथ लेकर चले। जिन्हें 1999 में सिर्फ 182 सीट ही मिली थीं। ध्यान दें तो 1984 के बाद से कभी किसी भी राजनीतिक दल को देश ने बहुमत दिया नहीं। और बहुमत ना पाने के बावजूद हर बड़े दल ने जोड़-तोड़ कर सत्ता का दावा भी ठोंका। सत्ता बनायी भी। और 13 दिन से लेकर 4 महीने तक भी केन्द्र में सरकार चली। यानी बीते 25 बरस का सच यही है कि केन्द्र में सरकार जोड़-तोड़, गठबंधन के आसरे ही चली। और इस दौर ने देश ने सात प्रधानमंत्रियों को देखा। वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, पीवी नरसिंह राव, देवेगौडा , आई के गुजराल, वाजपेयी, और फिलहाल मनमोहन सिंह। और इतिहास के पन्नों में सबसे सफल मनमोहन सिंह ही कहलायेंगे, जिन्होंने आंदोलन तो दूर राजनीति का ककहरा तक नहीं पढ़ा। लोकसभा का चुनाव तक नही लड़ा।
यानी सत्ता हर किसी को चाहिये लेकिन यही सवाल 2013 में दिल्ली की सत्ता को लेकर एक नयी परिभाषा गढ़ रहा है।
सत्ता में ना आने के तर्क बहुमत के आंकड़े को लेकर बीजेपी भी गढ़ रही है आम आदमी पार्टी भी। दिल्ली की सत्ता के लिये बीजेपी को 5 सीट चाहिये तो केजरीवाल को 8 सीट। और दोनों ही माने बैठी हैं कि चुनाव होंगे तो किसी को तो बहुमत मिलेगा और सरकार तभी बनायेंगे। तो पहली बार दो सवाल सीधे निकले हैं, बहुमत के बगैर सरकार बेमानी है। और चुनावी राजनीति में खंडित जनादेश बेमानी है। यानी पहली बार चुनावी राजनीति में जीत का आंकड़ा ही ना सिर्फ सबसे महत्वपूर्ण हो चला है बल्कि विचारधारा भी बहुमत के आंकड़े तले बेमानी हो चली है। तो देश बदल रहा है अब इसके लिये जनलोकपाल आंदोलन को तमगा दें या आंदोलन से निकले आम आदमी पार्टी को या फिर देश के नागरिकों के आक्रोश को जो पहली बार सियासत की नयी परिभाषा गढ़ने के लिये बैचेन है।
Sunday, December 8, 2013
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विकल्प की तलाश में जनादेश |
कांग्रेस के खिलाफ गये चार राज्यों के जनादेश का सबसे बडा संकेत 2014 में एक नये विकल्प को खोजता देश है। भारतीय राजनीति में पहली बार ऐसा मौका आया है जब लोकसभा चुनाव की छांव में चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को चेताया है कि मौजूदा वक्त में देश विकल्प खोज रहा है। और अगर बीजेपी यह सोच रही है कि कांग्रेस की नीतियों को लेकर बढ़ता आक्रोश बीजेपी को सत्ता में पहुंचा देगा तो यह उसका सपना है क्योंकि दिल्ली में जैसे ही कांग्रेस और बीजेपी से इतर आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी, वैसे ही जनता ने कांग्रेसी सत्ता के विकल्प के तौर पर बीजेपी से कही ज्यादा तरजीह आम आदमी पार्टी को दी। हालांकि राजस्थान और मध्यप्रदेश ने कांग्रेस को खारिज कर बीजेपी को जिस तरह दो तिहाई बहुमत दिया, यही स्थिति दिल्ली में भी बीजेपी की हो सकती थी लेकिन इसके लिये जरुरी था कि आम आदमी पार्टी चुनाव मैदान में ना होती।
इसी तर्ज पर पहला सवाल यही है कि क्या राजस्थान या मध्यप्रदेश या फिर छत्तीसगढ में अगर वाकई "आप" सरीखा राजनीतिक दल होता तो कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी को मुश्किल होती। क्योंकि तब सत्ता बदलने का नहीं राजनीतिक विकल्प का सवाल वोटरों के सामने होता। तो क्या चारों राज्यों के परिणाम ने हर राजनीतिक दल को नया ककहरा पढ़ाया है कि वह पारंपरिक राजनीति से इतर देखना शुरु करें और देश की राजनीति को केन्द्र में रखकर राज्यों की राजनीति का महत्व समझें। क्योंकि राजस्थान में अशोक गहलोत के विकास के नारे और कल्याणकारी योजनाओं पर यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार और महंगाई भारी पड़े। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सेक्यूलरवाद की सोच पर बीजेपी के शिवराज सिंह चौहान की सरोकार की राजनीति भारी पड़ी। छत्तीसगढ में विकास की चादर को सरकारी दान के दायरे में लपेटने की कोशिश बीजेपी के चावल वाले बाबा यानी रमन सिंह ने की और सत्ता के लिये वह ऐसे मुहाने पर आ खडे हुये जो बीजेपी के केंद्रीय लीडरशीप को दिल्ली में डराने लगे। क्योंकि चावल बांटने से वोट बटोरा जा सकता है लेकिन शिवराज चौहान की तरह राजनीतिक साख बनायी नहीं जा सकती है। इस लकीर को कही ज्यादा गाढ़ा दिल्ली में "आप" ने बनाया। क्योंकि विकास के ढांचे से लेकर कांग्रेस-बीजेपी की हर उपलब्धि को "आप" ने एक ऐसे कटघरे में रखा, जहां वोटर और पारंपरिक राजनीति के बीच "आप" खड़ी नजर आने लगी। शायद इसीलिये कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह मानना पड़ा कि चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस को नये सिरे से मथने के बारे में वह दिल-दिमाग से सोचने लगे हैं।
वहीं बीजेपी को अपनी नीतियों के समानांतर कांग्रेस के प्रति जनता के आक्रोश और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की चादर अपनी जीत के साथ लपेटनी पड़ी। और यहीं से भविष्य के भारत के नये राजनीतिक संकेत मिलने लगे हैं। क्योंकि कांग्रेस का साथ छोड़कर मध्यप्रदेश में मुस्लिम बहुल इलाके भी बीजेपी के साथ नजर आ रहे हैं। और राजस्थान में मीणा जाति के वोट बैंक भी गहलोत के राजनीतिक गठबंधन को लाभ पहुंचा नही पाये। और चुनावी संघर्ष में शीला दीक्षित जैसी अनुभवी और कांग्रेस की कद्दावर नेता भी एक बरस पुराने "आप" के नेता केजरीवाल से हार गयी। तो अगर जातीय गठबंधन बेमानी लगने लगा। धर्म के आधार पर राजनीतिक लकीर छोटी हो गयी। विकास के मुद्दे का ढोल खोखला लगने लगा। युवाओं का सैलाब नयी राजनीति की परिभाषा गढ़ने के लिये चुनाव को नये तरीके से देखने के लिये विवश करने लगा है तो पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी 10 जनपथ से बाहर निकल कर प्रधानमंत्री पद के लिये उम्मीदवार के जल्द ऐलान के संकेत देने पड़े। यानी मनमोहन सरकार के दायरे से बाहर सोचना कांग्रेस की जरुरत हो चली है और जिस युवा को अभी तक राहुल गांधी महत्व देने को तैयार नहीं थे उन्हें कांग्रेस के साथ खड़ा करने की बात राहुल गांधी को चुनाव परिणाम के बाद कहना पड़ा। जिस सोशल मीडिया के जरीये पारदर्शी राजनीति की बहस शुरु हुई, उसे चुनाव से पहले जिस तरह कांग्रेस और बीजेपी खारिज कर रही थी उसी सोशल मीडिया पर उभरे खुले विचारो को भी "आप" की जीत के बाद मान्यता मिलने लगी है। और यह वाकई आश्चर्यजनक है कि दिल्ली में शीला दीक्षित की समूची कैबिनेट को जिन उम्मीदवारों ने हराया, वह एक बरस पहले तक सड़क पर जनलोकपाल के लिये सरकार से गुहार लगाते हुये जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक नारे लगा रहे थे।
यानी 2014 के आम चुनाव से पहले राज्यों के चुनाव परिणाम ने एक ऐसा सेमीफाइनल हर किसी के सामने रखा है, जिसमें कांग्रेस अब गांधी परिवार के 'औरा' के जरीये सत्ता पा नहीं सकती है। बीजेपी सिर्फ नरेन्द्र मोदी की पीठ पर सवार होकर सत्ता पा नहीं सकती है। तीसरा मोर्चा महज जातीय समीकरण के आसरे 2014 में अपनी बनती सरकार के नारे लगा नहीं सकता है। क्योंकि चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने जतला दिया है कि देश पारंपरिक राजनीति से इतर नये भारत को बनाने के लिये विकल्प खोज रहा है। जहां आम आदमी की राजनीति अब कद्दवार और कद पाये नेताओं को भी जमीन सूंघाने को तैयार है