खाक भी जिस ज़मी की पारस है, शहर मशहूर यह बनारस है। तो क्या बनारस पहली बार उस राजीनिति को नया जीवन देगा जिस पर से लोकतंत्र के सरमायेदारों का भी भरोसा डिगने लगा है। बनारस की तहजीब, बनारस का संगीत , बनारस का जायका या फिर बनारस की मस्ती। राजनीति के आईने में यह सब कहां फिट बैठता है। लेकिन नरेन्द्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल का सियासी अखाड़ा बनारस बना तो फिर बनारस या तो बदल रहा है या फिर बनारस एक नये इतिहास को लिखने के लिये राजनीतिक पन्नों को खंगाल रहा है। बनारस से महज १५ कोस पर सारनाथ में जब गौतम बुद्द ने अपने ज्ञान का पहला पाठ पढ़ा, तब दुनिया में किसी को भरोसा नहीं था गौतम बुद्द की सीख सियासतों को नतमस्तक होना भी सिखायेगी और आधुनिक दौर में दलित समाज सियासी ककहरा भी बौध धर्म के जरीये ही पढेगा या पढ़ाने की मशक्कत करेगा। गौतम बुद्ध ने राजपाट छोडा था। मायावती ने राजपाट के लिये बुद्द को अपनाया। इसी रास्ते को रामराज ने उदितराज बनकर बताना चाहा और केजरीवाल ने तो गौतम बुद्द की थ्योरी को सम्राट अशोक की तलवार पर रख दिया। सम्राट अशोक ने बुद्दम शरणम गच्छामी करते हुये तलवार रखी और केजरीवाल ने सत्ता गच्छामी करते हुये सियासी तलवार भांजनी शुरु की। बनारस तो मुक्ति पर्व को जीता रहा है फिर यहा से सत्ता संघर्ष की नयी आहट नरेन्द्र मोदी ने क्यो दी। मोक्ष के संदर्भ में काशी का ऐसा महात्म्य है कि प्रयागगादु अन्य तीर्थो में मरने से अलोक्य, सारुप्य तथा सानिद्य मुक्ती ही मिलती है और माना जाता है कि सायुज्य मुक्ति केवल काशी में ही मिल सकती है। तो क्या सोमनाथ से विश्वनाथ के दरवाजे पर दस्तक देने नरेन्द्र मोदी इसलिये पहुंचे कि विहिप के अयोध्या के बाद मथुरा, काशी के नारे को बदला जा सके। या फिर संघ परिवार रामजन्मभूमि को लेकर राजनीतिक तौर पर जितना भटका, उसे नये तरीके से परिभाषित करने के लिये मोदी को काशी चुनना पड़ा।
अगर ऐसा है तो फिर यह नया भटकाव है क्योंकि काशी को तो हिन्दुओं का काबा माना गया। याद कीजिये गालिब ने भी बनारस को लेकर लिखा, तआलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिस्ते खुर्रमो फिरदौसे मामूर, इबादत खानए नाकूसिया अस्त, हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त। यानी हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना, क्योंकि यह आनंदमय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों अर्थात हिन्दुओ का पूजा स्थान है, यानी यही हिन्दुस्तान का काबा है। तो फिर केजरीवाल यहां क्यों पहुंचे। क्या केजरीवाल काशी की उस सत्ता को चुनौती देने पहुंचे हैं, जिसके आसरे धर्म की इस नगरी को बीजेपी अपना मान चुकी है। या फिर केजरीवाल को लगने लगा है कि राजनीति सबसे बड़ा धर्म है और धर्म सबसे बड़ी राजनीति। संघ परिवार धर्म की नगरी से दिल्ली की सत्ता पर अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को देख रहा है। और केजरीवाल काशी की जीत से दिल्ली की त्रासदी से मुक्ति चाहते हैं। वैसे बनारस की राजनीतिक बिसात का सच भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि जितनी तादाद यहां ब्राह्मण की है, उतने ही मुसलमान भी हैं। करीब ढाई-ढाई लाख की तादाद दोनों की है। पटेल डेढ़ लाख तो यादव एक लाख है और जायसवाल करीब सवा लाख। मारवाडियों की तादाद भी ४० हजार है। इसके अलावा मराठी, गुजराती, तमिल , बंगाली, सिख और राजस्थानियों को मिला दिया जाये तो इनकी तादाद भी डेढ लाख से उपर की है। तो १६ लाख वोटरों वाले काशी में मोदी का शंखनाद गालिब की तर्ज पर हिन्दुओं का काबा बताकर मोदी का राजतिलक कर देगा या फिर काशी को चुनौती देने वाले कबीर से लेकर भारतेन्दु की तर्ज पर केजरीवाल की चुनौती स्वीकार करेगा। क्योंकि गालिब बनारस को लेकर एकमात्र सत्य नहीं है। इस मिथकीय नगर की धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता को चुनौतिया भी मिलती रही हैं। ऐसी पहली चुनौती १५ वी सदी में कबीर से मिली। काशी की मोक्षदा भूमि को उन्होंने अपने अनुभूत-सच से चुनौती दी और ऐसी बातों को अस्वीकार किया। उन्होंने बिलकुल सहज और सरल ढंग से परंपरा से चले आते मिथकीय विचारों को सामने रखा और बताया कि कैसे ये सच नहीं है। अपने अनुभव ज्ञान से उन्होने धार्मिक मान्यताओं के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जो एक ओर काशी की महिमा को चुनौती देता था तो दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता को। उन्होंने दो टूक कहा-जो काशी तन तजै कबीरा। तो रामहिं कौन निहोरा। यह ऐसी नजर थी , जो किसी बात को , धर्म को भी , सुनी -सुनायी बातो से नहीं मानती थी। उसे पहले अपने अनुभव से जांचती थी और फिर उस पर भरोसा करती थी।
काशी का यह जुलाहा कबीर कागद की लेखी को नहीं मानता था, चाहे वह पुराण हो या कोई और धर्मग्रंथ। उसे विश्वास सिर्फ अपनी आंखो पर था। इसलिये कि आंखों से देखी बातें उलझाती नहीं थी…तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखन की देकी। मै कहता सुरझावनहरी, तू देता उरझाई रे। वैसे बनारस की महिमा को चुनौती तो भारतेन्दु ने १९ वी सदी में भी यह कहकर दी…..देखी तुमरी कासी लोगों , देखी तुमरी कासी। जहां बिराजे विस्वनाथ , विश्वेश्वर जी अविनासी। ध्यान दें तो बनारस जिस तरह २०१४ का सियासी अखाडा बन रहा है और सियासी आंकड़े में कूदने वाले राजनीति के महारथियो को जैसे जैसे बनारस के रंग में रंगने की सियासत भी शुरु हुई है। वह ना तो बनारस की संस्कृति है और ना ही बनारसी ठग का मिजाज। बिस्मिल्ला खां ने अमेरिका तक में बनारस से जुड़े उस जीवन को मान्यता दी, जहां मुक्ति के लिये मुक्ति से आगे बनारस की आबो हवा में नहाया समाज है। शहनाई सुनने के बाद आत्ममुग्ध अमेरिका ने जब बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में हर सुविधा के साथ बसने का आग्रह किया तो बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से पूछा, सारी सुविधा तो ठीक है लेकिन गंगा कहा से लाओगे। और बनारस का सच देखिये। गंगा का पानी हर कोई पूजा के लिये घर ले जाता है लेकिन बनारस ही वह जगह है जहा से गंगा का पानी भरकर घर लाया नहीं जाता । तो ऐसी नगरी में मोदी और केजरीवाल किसे बांटेंगे या किसे जोड़ेंगे। वैसे भी घंटा-घडियाल, शंख, शहनाई और डमरु की धुन पर मंत्रोच्चार से जागने वाला बनारस आसानी से सियासी गोटियो तले बेसुध होने वाला शहर भी नहीं है। बेहद मिजाजी शहर में गंगा भी चन्द्राकार बहती है बनारस हिन्दु विश्वविघालय के ३५ हजार छात्र हो या काशी विघापीठ और हरिश्चन्द्र महाविघालय के दस -दस हजार छात्र। कोई भी बनारस के मिजाज से इतर सोचता नहीं और छात्र राजनीति को साधने के लिये भी बनारस की रंगत को आजमाने से कतराता नहीं। फिर बनारस आदिकाल से शिक्षा का केन्द्र रहा है और अपनी इस विरासत को अब भी संजोये हुये हैं। ऐसे में पूर्व टैक्स कमीश्नर केजरीवाल हो या पूर्व चायवाले मोदी, दोनों की बिसात पर बनारसी मिजाज प्यादा हो नहीं सकता और दोनों ही वजीर बनने के लिये लालालियत है तो फिर बनारस का रास्ता जायेगा किधर। नजरें सभी की इसी पर हैं। क्योंकि बनारस की बनावट भी अद्भुत है….यह आधा जल में है । आधा मंत्र में है । आधा फूल में है । आधा शव में है । आधा नींद में है। आधा शंख में है । तो केजरीवाल की मोदी को चुनौती देने के अंदाज में बनारसी मिजाज में आधी राजनीति है। लेकिन पहली बार अंदाज गालिब का हो या कबीर का। जीत मोदी की हो या केजरीवाल की। मगर मौका बनारस को ही मिला है कि वह सियासत का पूर्ण विराम तय करें । या फिर दिल्ली की दोपहरी और गुजरात की रात को बनारस की सुबह से नयी रंगत दे दें !
Wednesday, March 26, 2014
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मोदी या केजरी, किसे पारस साबित करेगा बनारस? |
Wednesday, March 12, 2014
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भटकते राहुल गांधी क्या खोज रहे हैं |
देश के हर रंग को साथ जोड़कर ही कांग्रेस बनी थी और आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को कांग्रेस को गढ़ने के लिये देश के हर रंग के पास जाना पड़ रहा है। दिल्ली में कुलियों के बीच। झारखंड में आदिवासियों के बीच,बनारस में रिक्शा, खोमचे वालों के साथ तो गुजरात में नमक बनाने वालों के बीच। और संयोग देखिये कि 1930 में जिस नमक सत्याग्रह को महात्मा गांधी ने शुरु किया उसके 84 बरस बाद जब राहुल गांधी ने नमक से आजादी का सवाल टटोला तो नमक की गुलामी की त्रासदी ही गुजरात के सुरेन्द्रनगर में हर मजदूर ने जतला दी। मुश्किल यह है कि राहुल गांधी के दौर में नमक बनाने वालों का दर्द वहीं है जो महात्मा गांधी के दौर में था। अंतर सिर्फ इतना है कि महात्मा गांधी के वक्त संघर्ष अंग्रेजों की सत्ता से थी और राहुल गांधी के वक्त में हक की गुहार केन्द्र और राज्य सरकार से की जा रही है। तो हर किसी के जहन में यह सवाल उठ सकता है कि क्या देश के सामाजिक आर्थिक हालातों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। तो जरा हालात को परखें और नरेन्द्र मोदी के राज्य में राहुल गांधी की राजनीतिक बिसात पर प्यादे बनते वोटरों के दर्द को समझें कि कैसे संसदीय राजनीति के लोकतंत्र तले नागरिकों को वोटर से आगे देखा नहीं जाता और आर्थिक नीतियां हर दौर में सिर्फ और सिर्फ देश के दो फीसदी के लिये बनती रही।
इतना ही नहीं पहले एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी अब कंपनियों की भरमार है और नागरिकों के पेट पीठ से सटे जा रहे हैं। तो पहले बात नमक के मजदूरो की ही। जहां नमक का दारोगा बनकर राहुल गांधी गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में एक किलोग्राम नमक बनाने पर मजदूरों को दस पैसा मिलता है। सीधे समझे तो बाजार में 15 से 20 रुपये प्रति किलो नमक हो तो मजदूरों को 10 पैसे मिलते हैं। इतना ही नहीं जब से आयोडिन नमक बाजार में आना शुरु हुआ है और नमक का धंधा निजी कंपनियों के हवाले कर दिया गया है उसके बाद से नमक बनाने का समूचा काम ही ठेके पर होता है। चूंकि चंद कंपनियों का वरहस्त नमक बनाने पर है तो ठेके के नीचे सब-ठेके भी बन चुके है लेकिन बीते दस बरस में मजदूरो को कंपनियो के जरिए दिये जाने वाली रकम में दो पैसे की ही बढोतरी हुई है। यानी 8 पैसे प्रति किलो से 10 पैसे प्रति किलो। लेकिन काम ठेके और सब ठेके पर हो रहा है तो मजदूरो तक यह रकम 4 से 6 पैसे प्रति किलोग्राम नमक बनाने की ही मिल रही है।
वैसे महात्मा गांधी ने जब नमक सत्याग्रह शुरु किया था तो साबरमती से दांडी तक की यात्रा के दौरान गांधी ने अक्सर नमक बनाने के दौरान मजदरो के शरीर पर पडते बुरे असर की तरफ सभी का ध्यान खींचा था। खासकर हाथ और पैर गलाने वाले हालात। इसके साथ ही नमक बनाने के काम से बच्चे ना जुडे इस पर महात्मा गांधी ने खासतौर से जोर दिया था। लेकिन किसे पता था कि महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के ठीक 84 बरस बाद जब राहुल गांधी नमक बनाने वालो के बीच पहुंचेंगे तो वहां बच्चे ही जानकारी देंगे कि उनकी पढ़ाई सीजन में होती है। यानी जिस वक्त बरसात होती है उसी दौर में नमक बनाने वालों के बच्चे स्कूल जाते हैं। यानी नमक बनाने में जिन्दगी बच्चे भी गला रहे हैं और राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी दोनों को यह सच अंदर से हिलाता नहीं है।
दरअसल, संकट मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है। या फिर कांग्रेस या बीजेपी भर का भी नहीं है। संकट तो उन नीतियों का है, जिसे कांग्रेस ट्रैक वन मानती है सत्ता में आने के बाद बीजेपी ट्रैक-टू कहकर अपना लेती है। फिर भी डा मनमोहन सिंह के दौर की आर्थिक नीतियों तले राहुल गांधी की जन से जुड़ने की यात्रा को समझे तो देश की त्रासदी कही ज्यादा वीभत्स होकर उभरती है। जिन आर्थिक नीतियों के आसरे देश चल रहा है, असर उसी का कि बीते दशक में 40 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवारों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी। 2 करोड़ ग्रामीण परिवारों का पलायन मजदूरी के लिये किसानी छोड़कर शहर में हो गया। ऐसे में झरखंड के आदिवासी हो या बनारस के रिक्शा-खोमचे वाले। इनके बीच राहुल गांधी क्या समझने जाते हैं। इनका दर्द इनकी त्रासदी तो फिर मौजूदा वक्त में देश के शहरो में तीन करोड से ज्यादा रिक्शावाले और खोमचे वाले हैं। जिनकी जिन्दगी 1991 से पहले गांव से जुड़ी थी। खेती जीने का बड़ा आधार था। लेकिन बीते दो दशक में देश की नौ फीसदी खेती की जमीन को निर्माण या परियोजनाओं के हवाले कर दिया गया। जिसकी वजह से दो करोड़ से ज्यादा ग्रामीण झटके में शहरी मजदूर बन गये। ध्यान दें तो राहुल गांधी गुजरात जाकर या झारखंड जाकर किसान या आदिवासियों को रोजगार का विकल्प देने की बीत जिस तरह करते हैं, उसके सामानांतर मोदी भी गुजरात का विकास मॉडल खेती खत्म कर जमीन खोने वाले लोगों को रोजगार का लॉलीपाप थमा कर बता रहे हैं। कोई भी कह सकता है कि अगर रोजगार मिल रहा है तो फिर किसानी छोड़ने में घाटा क्या है। तो देश के आंकडों को समझें। जिन दो करोड़ किसानों को बीते दस बरस में किसानी छोड़कर रोजगार पाये हुये थे, मौजूदा वक्त में उनकी कमाई में डेढ सौ फीसदी तक की गिरावट आयी। रोजगार दिहाड़ी पर टिका। मुआवजे की रकम खत्म हो गयी।
कमोवेश 80 फीसदी किसान, जिन्होंने किसानी छोड शहरों में रोजगार शुरु किया उनकी औसत आय 2004 में 22 हजार रुपये सालाना थी। वह 2014 में घटकर 18 हजार सालाना हो गयी। यानी प्रति दिन 50 रुपये। जबकि उसी दौर में मनरेगा के तहत बांटा जाने वाला काम सौ से 120 रुपये प्रतिदिन का हो गया। और इन्ही परिस्थितियों का दर्द जानने के लिये राहुल गांधी शहर दर शहर भटक रहे हैं। और देश के हर रंग को समझने के सियासी रंग में वही त्रासदी दरकिनार हो गयी है, जिसने देश के करीब बीस करोड लोगों को दिहाड़ी पर जिन्दगी चलाने को मजबूर कर दिया है। और दिहाडी की त्रासदी यही है कि ईस्ट इडिया कंपनी के तर्ज पर देसी कंपनियां काम करने लगी हैं। और नमक के टीलों के बीच नमक बनाने वाले मजदूर भी हाथ गला कर सिर्फ पेट भरने भर ही कमा पाते हैं। तो 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी साबरमती के आश्रम से नमक सत्याग्रह के लिये थे तो अंग्रेजों का कानून टूटा और 11 मार्च 2014 में जब राहुल गांधी गुजरात के सुरेन्द्रनगर पहुंचे तो कांग्रेस के चुनावी मैनिफेस्टो में एक पैरा नमक के दारोगा के नाम पर जुड़ गया। तो सियासत के इस सच को जानना त्रासदी है या इस त्रासदी को विस्तार देना सियासत हो चला है। और संयोग यही है कि 2014 का चुनाव इसी दर्द और त्रासदी को समेटे हुये हैं। जिसमें हम आप दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का तमगा बरकरार रखने के लिये महज वोटर हैं।
Thursday, March 6, 2014
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बीजेपी को संघ पढ़ा रहा है राजनीति का ककहरा |
नरेन्द्र मोदी गुजरात के बाहर यूपी में चुनाव लड़ेंगे कहां से। इस पर फैसला बीजेपी या मोदी नहीं बल्कि संघ परिवार करेगा। यानी यूपी में जिन दो लोकसभा सीटों को लेकर लगातार कयास भी लगाये जा रहे हैं कि मोदी बनारस या लखनऊ से। तो इस पर आखिरी मुहर अगले दो दिनों में संघ लगायेगा। और एलान दिल्ली में 8 मार्च को संसदीय बोर्ड में होगा।
जानकारी के मुताबिक बेंगलूरु में आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा कल से शुरु हो रही है। लेकिन बीते तीन दिनो से संघ के सभी प्रमुख बेगलूर पहुंच चुके हैं। और बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी बुलाया गया है। जानकारी के मुताबिक राजनाथ के साथ बैठक में ही संघ मोदी के चुनाव लड़ने वाली सीट पर मुहर लगायेगा। क्योंकि बनारस या लखनऊ को लेकर बीजेपी के सामने उलझन यह है कि बीजेपी के लिये सेफ और प्रतिष्ठित सीट दो है लेकिन इसपर चुनाव लड़ने वाले तीन उम्मीदवार हैं।
मुश्किल यह है कि राजनाथ खुद लखनऊ से लड़ना चाहते हैं। और मुरली मनमोहर जोशी बनारस की सीट छोड़ना नहीं चाहते है। ऐसे में मोदी चुनाव लड़ें कहां से उलझन यही हो गयी है। बनारस की सीट को लोकर सबसे बड़ी उलझन यह है कि मुरली मनमोहर जोशी की पैठ संघ के भीतक खासी है और संघ के भीतर से ही अब यह आवाज आ रही है कि जोशी जी को नाराज करके कोई फैसला लिया नहीं जा सकता। और सीट बदलने के हालात में देरी भी काफी हो गयी है।
वहीं राजनाथ सिंह लखनऊ से चुनाव लडना चाहते हैं। और राजनाथ की मुश्किल यह है कि संघ मुरली मनमोहर जोशी को नाराज करना नहीं चाहता है। और विकल्प के तौर पर अगर लखनऊ सीट से मोदी के लड़ने पर मुहर लगाता है तो राजनाथ के सामने दोबारा गाजियाबाद से चुनाव लडने के अलावा कोई विकल्प बचेगा नहीं। जो राजनाथ चाहते नहीं है।
असल में बीजेपी के बडे नेताओं के टकराव ने ही संघ को मजबूर किया है कि मोदी चुनाव कहां से लड़ें इस पर वह फैसला लें। इतना ही नहीं दिल्ली की सातों सीट से लेकर यूपी की 30 से ज्यादा सीटों पर भी बीजेपी का कौन सा उम्मीदवार मैदान में उतरे, इस पर आखिरी मुहर संघ की तरफ से ही लगेगी। यानी 8 मार्च को दिल्ली में मोदी की अगुवाई में होने वाली सीईसी बैठक हो या संसदीय बोर्ड उसमें सिर्फ औपचारिक तौर पर संघ के दिये नामों पर ही हस्ताक्षर किये जायेंगे।
असल में संघ की तरफ से जिन्हें मोदी के चुनाव लडने पर मुहर लगानी है, उसमें सरसंघचालक मोहन भागवत, सरसह कार्यवाहक भैयाजी जोशी और यूपी के प्रभारी कृष्ण गोपाल, राजनीतिक मामलों के देखने वाले सुरेश सोनी और संघ की तरफ से बीजेपी के कामकाज को देख रहे रामलाल हैं। रामलाल को छोड़ दें तो बाकी सभी प्रमुख स्वयंसेवक 3 मार्च को ही बेंगलूर पहुंच चुके हैं। और लगातार चर्चा के केन्द्र चुनाव को लेकर संघ परिवार की भूमिका ही है। असल में पहली बार आरएसएस 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर ना सिर्फ रुचि दिखा रहा है बल्कि संघ के स्वयंसेवकों की भागेदारी चुनाव में कैसे हो इसपर खास ध्यान दे रही है। और उसी अनुसार संघ के पारंपरिक कार्यक्रम तक को बदल रहा है। पहली बार चुनाव कार्यक्रम को देखकर संघ शिक्षा वर्ग की बैठकें तय की जा रही हैं। पहली बार नागपुर में तृतिया वर्ष के शिक्षा वर्ग की तारीखों को चुनाव परिणामो के बाद रखा जा रहा है। पहली बार -हर स्वयंसेवक को बूथ तक ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने की जिम्मेदारी दी गयी है। और पहली बार संघ की सालाना प्रतिनिधि सभा में संध के विस्तार कार्यक्रम को मोदी की ताजपोशी से जोड़ा जा रहा है। यानी जो आरएसस दो बरस पहले तक बीजेपी के साथ किसी भी सीधे जुडाव से इंकार करता था वही संघ अब बदल चुका है और राजनीति का ककहरा बीजेपी को पढ़ा रहा है। संघ के ही राजनीतिक ककहरे का प्रभाव है कि बीजेपी एक बूथ, दस यूथ का खाका बनाकर काम कर रही है । और पहली बार किस तरह हर बूथ से दस युवाओं को जोड़ा जाये इसके लिये ट्रेनिंग भी संघ ही दे रहा है । सुरेश सोनी और रामलाल के जरीये नरेन्द्र मोदी से लेकर राजनात सिंह और अमित शाह तक को बताया गया कि कैसे एक बूथ, दस यूथ के जरीये देश बर में ढाई करोड युवाओ को जोडा जा सकता है । असल में युवाओ को जोडने की राजनीतिक क्लास भी प्रतिनिधी सभा तमाम संगठनो के पु्मुखो को दे रही है और इसका एहसास भी संघ की प्रतिनिधी सभा कराया जा रहा है कि 2009 की तुलना में 10 करोड से ज्यादा वोटर 2014 के वोटर लिस्ट में है । यानी 2009 में बीजेपी को सिर्फ साढे आठ करोड वोट मिले थे और सत्ता में आयी काग्रेस को भी साढे ग्यारह करोड वोट ही मिले थे । तो दस करोड से ज्यादा नये वोटरो को लियेक बीजेपी की रणनीति है क्या और संघ इसमें पहल कैसे करेगा इसका पाठ भी राजनाथ की मौजूदगी में संघ ही पढ़ायेगा।